Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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लुप्त हो गई, लेकिन प्रचंड-समर्थ थी तंत्र विद्या
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तंत्र-साधनाओं से मिलने वाली सिद्धियों और सफलताओं के रोमाँचकारी वर्णन पुराण ग्रंथों से मिलते हैं। योगियों, सिद्धों और ताँत्रिक परंपराओं में जैसे आश्चर्यजनक उल्लेख आते हैं, उन पर विश्वास करना कठिन है। सीधे उन्हें परी कथाएँ कहकर या कल्पना-लोक की उड़ान बताकर छोड़ देना पड़ता है। इस युग के प्रसिद्ध ताँत्रिक विद्वान् महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज का मानना था कि पुराण ग्रंथों में मिलने वाले उल्लेख कपोल कल्पित नहीं है। वे संभावनाएँ है, जो इसी मनुष्य शरीर में जगाई जा सकती हैं। उन्हें जगा लिया जाए, तो व्यक्ति चमत्कारी क्षमता से संपन्न हो सकता है।
आज की स्थितियों में वे वर्णन काल्पनिक क्यों लगते हैं? पंडित कविराज का कहना है कि उनके संदर्भ-सूत्र खो गए है। वह व्यवस्था-तंत्र नष्ट-भ्रष्ट गया है। जिससे सिद्धि-सामर्थ्य के अर्जन साधारण प्रयत्नों से ही हो जाता है। टेलीविजन के परदे पर घर बैठे देश-दुनिया के किसी भी कौने में हो रही घटना को सीधे देखा जा सकता है। इंटरनेट के जरिए पलभर में अपनी बात संसार के किसी भी कोने में पहुँचाई जा सकती है। कुछ साल पहले तक किसी दूसरी जगह बात करने के लिए टेलीफोन के भारी भरकम तंत्र का उपयोग करना पड़ता था। जगह-जगह तारों के जाल बिछे होते थे। समुद्र में केबिल डाले जाते थे और किसी एक जगह तार कट जाता तो बातचीत नहीं हो पाती थी। अब यह जाल-जंजाल जरूरी नहीं हैं। जेब में सौ-सवा सौ ग्राम का एक हैंडसेट रखकर दुनिया में कही भी बात की जा सकती है। संदेश भेजे जा सकते हैं और बोलने वाले की तस्वीर भी देखी जा सकती है।
विज्ञान के चमत्कारों पर लोग अब दाँतों तले अंगुली नहीं दबाते। उनके बारे में पढ़-सुनकर रोमाँचित और प्रफुल्लित भर होते हैं, लेकिन एक स्थिति ऐसी भी आ सकती है कि ज्यादा नहीं सिर्फ पचास साल बाद ही लोग इन्हें भूल जाएं और बचे-खुचे उपकरणों को कबाड़ की तरह इस्तेमाल करें। उपलब्धियों के बारे में कोई सूचना देने वाले सूत्र बचें भी, तो लोग उन पर विश्वास नहीं करें। इस संभावना को स्पष्ट करने के लिए कविराज जी ने लिखा है कि मान लीजिए अचानक परमाणु-युद्ध छिड़ जाए। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पच्चीस-पचास परमाणु बमों का विस्फोट हो जाए। बड़ी आबादी वाले तमाम विकसित शहर नष्ट हो जाएं। युद्ध जब होते हैं, तो उन्नत और सम्पन्न बस्तियों के साथ उन्हें कायम रखने वाली प्रतिभाएं ही नष्ट होती हैं। संसार की अधिकाँश आबादी, सभ्यता और तकनीक नष्ट होने के बाद गाँव-गंबई की बस्तियाँ और आदिवासी लोग ही बचेंगे। हो सकता है कस्बों में भी थोड़े-बहुत लोग बचे रह जाएं। परमाणु-युद्ध के बाद जो भी लोग बचेंगे, वे अपनी संतानों को दूरदर्शन, संचार की मौजूदा तकनीक और परिवहन आदि उपलब्धियों के बारे में बताएंगे तो कोई विश्वास नहीं करेगा, क्योंकि वह तंत्र या नेटवर्क कहीं नहीं होंगे, जिसके बूते पर विलक्षण लगने वाली बातें संभव होती है। तब कही कोई टीवी सेट पड़ा मिल जाएगा, तो लोगों के लिए उसकी तुलना में एक खाली कनस्तर ज्यादा उपयोगी होगा। टीवी सेट के बारे में कोई कहेगा कि इसके परदे पर दुनिया भर की बाते दिखाई देती थी, तो लोग हंसेंगे। कहेंगे कि क्या मजाक है।
विज्ञान की वर्तमान उपलब्धियों के लिए पचास वर्ष में यह स्थिति आ सकती है कि वे अविश्वसनीय कही जाने लगें। तंत्र और योग की उपलब्धियों के बारे जो विवरण दिए जाते हैं, वे अधिकाँश सही होते हुए भी केवल इसलिए विश्वसनीय नहीं है कि उनका प्रबंध या नेटवर्क गड़बड़ा गया है। निश्चित ही व्यक्तियों या स्थानों के बारे में बताई जाने वाली सभी विलक्षणताएँ सही नहीं होगी। उनमें अतिरंजना के साथ कल्पनाओं का मिश्रण भी होगा, लेकिन संभावना की दृष्टि से विवरण गलत नहीं है। हो सकता है गणेश प्रतिमाओं द्वारा दूध पीने की घटना किसी प्रचार-प्रोपेगैंडा का परिणाम हो, लेकिन संभावना की दृष्टि से यह गलत नहीं हैं, देव-प्रतिमाओं के रुदन करने और आहार लेने से शस्त्र उठाने, स्थान बदल देने की घटनाएँ हुई हैं। उन घटनाओं का उल्लेख जिन लोगों ने किया, उन पर संदेह नहीं किया जा सकता।
जिन दिनों तंत्र विद्या का उपयोग कम्प्यूटर और यान-विमानों की तरह किया जाता था, उन दिनों दैनंदिन जीवन में इसके प्रमाण देखे जा सकते हैं। सिक्का डालकर बरतन में दूध निकालने जैसी व्यवस्था आज चमत्कार नहीं लगती। सभ्यता के उस दौर में भी गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होकर तेजी से कहीं भी पहुँच जाने और अग्नि, वायु, जल, आकाश, पृथ्वी आदि से उनके गुण-धर्म के विपरीत काम लेने के प्रयोग संभव थे उस सभ्यता का परिचय देते हुए मनीषी लिखते हैं, कि आधुनिक सभ्यता के लिए उस स्तर तक पहुँचना अभी शेष हैं। वह सभ्यता स्थूल उपकरणों का आश्रय लिए बिना चमत्कार कर दिखाती थी। युद्ध में आजकल अनेक प्रकार के बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता है। युद्ध इतने महंगे पड़ते हैं कि दो देश महीने-पंद्रह दिन लड़ लें तो उनकी अर्थ-व्यवस्था दो-तीन साल पिछड़ जाती हैं। सूक्ष्म जगत् में व्याप्त ऊर्जा का उपयोग कर जिन दिनों युद्ध लड़े जाते थे, उन दिनों आज की तरह अर्थतंत्र पर दबाव नहीं पड़ता था। उनके लिए प्रचंड आत्मशक्ति जगानी पड़ती थीं। आत्मशक्ति का उपार्जन आर्थिक साधन जुटाने से ज्यादा श्रम और प्रतिभा की अपेक्षा रखता है। यह अर्जित कर ली जाती तो युद्धों में वरुणास्त्र, आग्नेयास्त्र, सम्मोहन अस्त्र, नागपाश आदि का उपयोग सहज ही कर लिया जाता।
आशय यह नहीं है कि पुराणों और काव्यग्रंथों में जो लिखा गया वह इतिहास की दृष्टि से भी सच हो। योगीजन बताते हैं कि वे वर्णन कल्पना-लोक की ही उपज नहीं है। सचमुच उनका अस्तित्व रहा है। उनका उल्लेख करते हुए तंत्र-मार्ग के आचार्य पूछते हैं कि वैसी सिद्धियाँ और विलक्षणताएँ आज कहीं दिखाई भी देती हैं क्या? वरुणास्त्र जो जल की भारी वर्षा कर दे, आग्नेय अस्त्र जो अग्नि-ज्वालाओं का दावानल प्रकट कर दे, सम्मोहनास्त्र जो लोगों को संज्ञाशून्य बना दे, आज कहाँ है? इंजिन, भाप, पेट्रोल आदि ईंधन के बिना जल-थल-नभ में समन रूप से गति करने वाले यान कहीं दिखाई भी देते है? मरीच की तरह मनुष्य से पशु बन जाता, नल-नील की भाँति पानी पर तैरने वाले पत्थर तैयार करना और उनसे पुल बनाना, युद्ध में अदृश्य हो जाना, संजीवनी विद्या से मृत शरीर में प्राण फूँक देना क्या संभव है? नहीं।
वैदिक काल से विकसित हुई इस विद्या का लोप नागार्जुन, गोरखनाथ, मत्स्येंद्रनाथ आदि सिद्धि पुरुषों के बाद होने लगा। सिद्ध योगियों ने अपनी सूक्ष्म सामर्थ्य का उपयोग जनहित के लिए किया। यह विद्या फलीभूत होती गई। कहा भी गया हैं ‘सा विद्या या विमुक्तये’, विद्या वह है जो मुक्त करती है। तंत्र विद्या जब मोक्ष के स्थान पर भोग का साधन बनने लगी, तो उसमें विकार आना स्वाभाविक ही था। विकार ने विद्या को अविद्या बनाया और वह घोर अंधकार में भटकाने का कारण बनी। जो लोग विदेशी आक्रमणों और आततायी हमलों को पतन-पराभव का कारण मानते हैं, वे आधी बात करते हैं। पूरी बात यह है कि विद्या-विभूति का उपयोग क्षुद्र स्वार्थों के लिए शुरू हुआ तो हमारा समाज दीन-हीन बनने लगा। परमाणु-युद्ध छिड़ जाने के बाद जिस तरह के विनाश की कल्पना की जा सकती है, विद्या-विभूति का वैसा ही लोप निजी राग-द्वेष और इंद्रिय सुखों पर जोर देने के बाद होता गया।
तंत्र विद्या के टूटे-फूटे अवशेष ही अब बचे हैं। उन अवशेषों से विद्या के समग्र वैभव की कल्पना नहीं की जा सकती। फिर भी परिचय तो प्राप्त किया ही जा सकता है। तंत्र विद्या के बाकी बचे स्वरूप में एक अंश दूसरों पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालने की सामर्थ्य है। थोड़ी-बहुत एकाग्रता और मंत्रों के विशिष्ट जन-अनुष्ठान के बाद यह सामर्थ्य अर्जित की जा सकती है। अभिचार और उपशमन क्रियाओं के रूप में यह विद्या इन दिनों नए सिरे से लोकप्रिय हो रही है। एक समय इन क्रियाओं को अंधविश्वास और पिछड़ापन बताकर लोग नाक-भौं सिकोड़ते थे, लेकिन अस्सी के दशक के बाद प्रचन में बदलाव आया है। लोग इन विद्याओं में रुचि लेने लगे है।
‘अभिचार’ कर्म आत्मशक्ति के घातक उपयोग का नाम है। अभिचार कर्म से स्वस्थ व्यक्ति की रोगी बनाया जा सकता है। किसी रोग-बीमारी का तेज या हलका प्रक्षेपण किया जा सकता है। प्रयोग की तीव्रता के अनुसार व्यक्ति धीरे-धीरे घुलता है और महीनों-वर्षों तक कष्ट भोगता है, बिस्तर पकड़ लेता है या तुरंत चल बस भी सकता है। अभिचार से किसी की बुद्धि में उलट-फेर किया जा सकता है। वह सही निर्णय नहीं ले पाता। बुद्धि-विपर्यय से निरंतर गलत निर्णय लेता और अपने लिए तबाही बुला लेता है। मस्तिष्क पर किए गए प्रयोगों से लोग विक्षिप्त भी होते देखे गए हैं। आक्रमण इतना तीव्र नहीं हो तो व्यक्ति मंद प्रभाव से भ्रम, भय, संदेह, आशंका और बेचैनी के गहरे दलदल में फँस जाता है।
‘उपशमन’ कर्म अनिष्टकारी प्रभावों को दूर करने वाला उपचार है। नजर लगने, उन्माद ग्रस्त होने, मारण प्रयोग का शिकार होने भूतोन्माद, बुरी शक्तियों का प्रभाव, शाप आदि से मुक्ति के लिए इन क्रियाओं का सहारा लिया जाता है। स्वरूप में उपशमन कर्म कल्याणकार है, दूसरों को हित पहुँचाने की दृष्टि से किए जाते हैं, इसलिए प्रयोग करने वालों को उनका पुण्य मिलता है। वे अपनी सामर्थ्य के शुभ प्रयोग में दूसरों को राहत दिलाते और स्वयं भी प्रसन्न होते हैं, लेकिन अभिचार कर्म करने वालों को प्रायः हानि ही उठानी पड़ती है। किसी पर प्रहार करने वाला व्यक्ति अपनी शक्ति और आघात से चोट भले ही पहुँचा दे, लेकिन प्रसन्न वह भी नहीं रहता। आहत व्यक्ति के चित्त से निकला प्रतिकार अभिचार करने वालों को भी नोंचता-निचोड़ता रहता है। इसलिए ताँत्रिक प्रयोग करने वालों को सुखी-प्रसन्न नहीं देखा गया। वे रोते, कलपते, कराहते और कोसते ही रहते हैं।
मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि प्रयोगों में सभी इन दिनों प्रचलित नहीं है। सम्मोहन के रूप में प्रचलित दूसरों को मुग्ध करने वाले प्रयोग इन दिनों नहीं किए जाते। मनश्चिकित्सक और जादूगर इस तरह के प्रयोग करते हैं, लेकिन वे तंत्र के नहीं मनोविज्ञान के प्रयोग होते हैं। ताँत्रिक प्रयोग में भी मानसिक शक्ति का प्रयोग किया जाता है। वह आवरण की तरह है। मुख्य काम अपने चारों और व्याप्त सूक्ष्म ऊर्जा का संचय और उसके व्यवस्थित प्रयोग से ही सम्पन्न होता है। ऊर्जा के संव्याप्त भंडार में से साधक कणों या तरंगों को पकड़ता है, उन्हें उपत्यिका, कृत्तिका या कृत्या भी कहते हैं। समझने के लिहाज से चेतना-ग्रंथि कह सकते हैं, ग्रंथियाँ चेता की विशेष गुच्छक है, जो पकड़ी जा सकती है। उदाहरण के लिए, घी से भरे पात्र में प्रत्येक बूँद घी की विशेषताओं और गुणों से सम्पन्न होती है। अच्छे पके हुए घी में कुछ रवे बन जाते हैं, उन्हें अंगुली से उठाया और दाने की तरह हथेली पर रखा जा सकता है। चेतना-ग्रंथियों को भी इस उदाहरण से समझा जा सकता है।
तंत्र साधना में इन चेतना-ग्रंथियों, उपत्यिकाओं अथवा कृत्याओं में से अपने लिए विशिष्ट अंशों को जगाया, चैतन्य बनाया और सक्रिय किया जाता है। सक्रिय होने के बाद में ग्रंथियाँ अनुचर की तरह काम करने लगती है। लोक व्यवहार में इन ग्रंथियों के समुच्चय को मसान, पिशाच, भैरव, छाया−पुरुष, बेताल, महि, प्रेत आदि की सिद्धि बताया जाता है। ग्रंथियाँ अथवा सूक्ष्म शक्तियों के गुच्छक सिद्ध ताँत्रिक के लिए इस तरह परिणाम उत्पन्न करते हैं, जैसे कोई आज्ञाकारी सेवक काम कर रहा हो। शक्तियाँ उस सिद्ध साधक के वश में रहती हैं और व्यक्ति उससे अपनी इच्छा अनुसार काम लेता है।
कहाँ जा चुका है कि तंत्र विद्या के कुछ ही अंश इन दिनों उपलब्ध हैं। जो अंश उपलब्ध हैं, उनसे बड़े भारी प्रयोजन सिद्ध नहीं किए जा सकते। निजी और बहुत व्यक्तिगत स्तर पर ही उनसे लाभ उठाया जा सकता है। दुर्बुद्धि और ईर्ष्या-द्वेष से भरे समाज में उसका दुरुपयोग ही ज्यादा हो रहा है। इस तरह के दुरुपयोग या हमलों से हर किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है। ईर्ष्या, बैर, अमर्ष और निष्ठुर प्रकृति के लोगों को इसी तरह के हमले ज्यादा सताते हैं। शुद्ध, सात्विक, कोमल और संवेदनशील व्यक्तियों पर इनका असर नहीं होता। बहुत शक्तिशाली हमला हुआ तो भी व्यक्ति अपने शुद्ध, सात्विक बल के आधार पर कुछ ही देर में उबर आता है। उसकी अपनी आत्मिक स्थिति स्वस्थ, सुदृढ़ और पुष्ट जो रहती है।
तंत्र-मार्ग के अपने खतरे हैं। इन साधना-विधियों की खुले आम चर्चा नहीं की जातीं किसी समय में वह परमाणु बम जैसी शक्तिशाली रही होगी, आज तो गोला-बारूद की तरह ही है। गोला-बारूद ही नहीं छुरी-तलवार जैसी हो तो भी उनके अभ्यास और उपयोग की छूट नहीं दी जाती। कारण गलत हाथों में पड़ने से उस व्यक्ति का अपना और दूसरों का अनिष्ट होने की आशंका ही रहती है। तंत्र को इसीलिए अधिकार और अधिकारी के विवेक से समझाया गया है। यह भी सावधान किया गया है कि ये साधनाएँ हर कोई नहीं कर सकता। कारण यह हैं कि सिद्धियाँ मिलती है, शक्ति आती है, तो उनकी अपनी शर्तें भी होती हैं। शर्तों का अथवा नियम-अनुशासन का पालन किया जाना अनिवार्य हैं। उसी में शुभ और कल्याण हैं जो उन कठोर नियम-अनुशासनों को निभा सकें, उन्हें ही तंत्र-मार्ग पर चलने की बात सोचनी चाहिए।