Magazine - Year 2000 - Version 2
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चिकित्सा विज्ञान में एक महाक्राँति का सूत्रपात
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मानव शरीर जैव रसायनों का अद्भुत पिटारा है। इसकी सबसे सूक्ष्म एवं जादुई इकाई हैं ‘जीवन यही पीढ़ी-दर-पीढ़ी आनुवंशिक गुणों को ले जाता है। इसी में जीवन की संरचना एवं समस्त गुण समाहित होते हैं। ‘जीवन’ शब्द का सबसे पहला प्रयोग जान्सन ने सन् 1101 में किया था। इसके द्वारा उन्होंने मँडल आनुवंशिक कारकों की ओर संकेत किया था। उनके अनुसार ‘जीन’ में वृद्धि, जनन-क्षमता तथा उत्परिवर्तन की संभावना होती है। मार्गन ने ‘जीन’ को पुनः संयोजन की इकाई के रूप में परिभाषित किया। आधुनिक समय में विज्ञानवेत्ता पाण्टीकारवे ने जीवन को प्रकार्यात्म इकाई के रूप में माना। हालाँकि इसका श्रेय मँडल को जाता है, जिन्होंने इस खोज की आधारशिला रखी। इसके पश्चात् न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थामस हण्ट ने जीन का विस्तार से अध्ययन एवं अनुसंधान किया।
सन् 1153 का वर्ष इस संबंध में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि इसी साल जीव-विज्ञानी जेम्सवाट तथा फ्राँसिस क्रिक ने डी.एन.ए. घुमावदार सीढ़ी की तरह होता है। इस खोज ने जेनेटिक क्षेत्र में अन्वेषणों एवं अनुसंधानों की बाढ़-सी ला दी। कोशिका के कार्यों का निर्धारण करने एवं आनुवंशिक सूत्र की खोज के लिए भारतीय वैज्ञानिक डॉ. हरगोविंद खुराना को सन् 1116 में नोबुल पुरस्कार मिला। सन् 1170 में एच.डब्लू. टेमिन तथा डेविड वाल्टीमोर ने वायरस में उल्टे संदेश देने वाले एन्जाइम का पता लगाया। इस तरह के वायरस को रेट्रो वायरस कहते हैं। एड्स इसी के अंतर्गत आता है। इस खोज ने जेनेटिक थैरेपी की नींव रखी।
वैज्ञानिकों के अनुसार ‘जीन’ को एक बहुत अणु के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। डेमरेक के अनुसार यह क्रोमोनियल सूत्र पर स्थित होता है। इसका वास्तविक परिमाण डी.एन.ए. अणु पर निर्भर करता है। वैसे डेलव्ररण ने जीन का परिमाण 1000 परमाणुओं के समान माना है। गार्वेन और ग्रे ने एक क्रोमोसोम पर पाई जाने वाली जीन संख्या को 10,000 से 15,000 तक बताया है। लेकिन मनुष्य के प्रत्येक क्रोमोसोम सेट पर लगभग 10,000 जीन का अनुमान लगाया गया है। इस तरह एक कोशिका में तकरीबन 3 लाख जीन हो सकते हैं। वानवेत्ताओं का मानना है कि सूक्ष्म जीवाणुओं ने जीन की संरचना अपेक्षाकृत सरल होती है। इसकी जटिलता जीवों के विकास के साथ-साथ बढ़ती है। इस क्रम में मानव जीन सबसे जटिल एवं विस्तृत होता है। इसका कारण है कि एक डी.एम.ए. में एक जी जीन की कई-कई प्रतिलिपियाँ या समरूप होते हैं। इसलिए मानव का जेनेटिक मैप बनाना बहुत ही कठिन काम माना जाता है।
जेनेटिक वैज्ञानिकों ने अभी हाल ही में यीस्ट और 13 दूसरी तरह के बैक्टीरिया से लाखों रासायनिक कोड का अन्वेषण किया है। लेकिन मानव जीन इस सबसे कहीं अधिक जटिल एवं गूढ़ होता है। इसका जेनेटिक मैप तैयार करने में बहुत बड़ा योगदान फ्रेंच मॉलीक्यूलर बायलाँजिस्ट डैनियल कोहेन को जाता है। उन्होंने अब तक 50 हजार जीन का मैप बना लिया है। ये सभी जीन असामान्य श्रेणी के हैं, जो किसी-न-किसी रोग से संबंधित हैं। एक खराब जीन-स्वस्थ जीन को संक्रमित कर देता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रत्येक 25 व्यक्तियों में एक सामान्य जीन एवं 2300 व्यक्तियों में से एक असामान्य जीन आपस में समरूप होते हैं।
मानव के 46 क्रोमोसोम्स में उपस्थित 3 अरब न्यूक्लिओटाइड बेस का एक नक्शा खींचना बड़ा ही दुष्कर एवं कठिन कार्य है। इस दिशा में सर्वप्रथम एक ऐस मैप बनाया गया था, जो डी.एन.ए. के एक लाख बसों को दरसाता था। अब तो जीनोम टेक्नोलॉजी ने अंगूठे के बराबर एक ऐसे कम्प्यूटर चिप का निर्माण किया है, जिसमें 10000 डी.एन.ए. समा सकते हैं। प्रत्येक डी.एन.ए. भिन्न जीन को प्रदर्शित करता है। इस चिप के माध्यम से आनुवंशिक रोगों का उपचार किया जाता है। इस आधुनिकतम प्रतिधि को ‘फोटोलिथोग्राफी’ कहते हैं।
जेनेटिक विज्ञान का क्षेत्र अत्यंत सूक्ष्म एवं रहस्यमय हैं, क्योंकि इसी पर मानव का समूचा जीवन टिका हुआ है। इसमें नित्यप्रति अनेकों अनुसंधान होते चले जा रहें हैं।इस विशेष उद्देश्य के लिए हयूमेन जीनोम प्रोजेक्ट डी.एन.ए. डिकोडिंग प्रयोग में लगा हुआ है। इनके अनुसार सन् 2005 तक एक लाख जीन का पात लगा लिया जाएगा। इस विधि से अनेक आनुवंशिक रोग खोजे जा चुके हैं। इन खोजे गए आनुवंशिक रोगों में-सिस्टिक फाइब्रोसिस, हटिंगटन रोग, स्किन मस्कुलर डिस्ट्राफी तथा रेटिनो ब्लास्टोमा आदि प्रमुख हैं।
माता-पिता से संतानों तक पहुँचने वाले आनुवंशिक जीन में व्यतिक्रम आने पर रोगों का जन्म होता है। शरीर में पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानाँतरित होने वाले स्वस्थ जीन की अपेक्षा निष्क्रिय पड़े जीन की संख्या अत्यधिक होती है। ये निष्क्रिय जीन भी सक्रिय होकर जेनेटिक रोगों का कारण बनते हैं। जीन थैरेपी ने न केवल रुग्ण जीनों का पता लगाया है, बल्कि रोग की प्रारंभिक अवस्था में उस जीन को निकालकर रोग के संपूर्ण उपचार में भी कुछ हद तक सफलता प्राप्त कर ली है।
कोलंबिया विश्वविद्यालय के डॉ. नेन्सी वेक्सलर ने हटिंगटन जीन की खोज की है। यही हटिंगटन जैसे असाध्य रोग का कारण है। यह जीन पिता द्वारा संतान में आता है। जीवन की ठीक मध्यावस्था में आने वाला यह रोग अत्यंत भयावह एवं मौत के समान होता है। प्रारंभिक अवस्थाओं में इसका उपचार भी किया जा चुका हैं। अल्जेयर्स रोग के लिए ‘जीन-सी’ मुख्य भूमिका निभाता है। पी-53 जीन ब्रेन प्रोटीन को संश्लेषित करता है, जो ट्यूमर जैसे घातक रोगों को जन्म देती है। बायोलॉजिकल साइंस ग्लैक्स वेलकम के उपाध्यक्ष ली वेबीस ने अपनी जेनेटिक थैरेपी से एम-आर.एन.ए. के क्रियाकलाप को निरस्त कर रोग उत्पन्न करने वाले प्रोटीन को संश्लेषित होने से पूर्व रोकने में सफलता पाई है। इससे बेन-ट्यूमर की बीमारी के उपचार के प्रति आशान्वित दृष्टिकोण पनपा है।
जेनेटिक थैरेपी में एक नूतन अध्याय तब जुड़ा जब डॉ. डब्ल्यू. फ्रेंच एर्ण्डसन ने सन् 111 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ में अशाँति डिसिल्वा नामक चार वर्षीय लड़की का जीन थैरेपी से सफल उपचार किया था। डॉ. एर्ण्डसन ने उसके रक्त से एक ऐसे जीन को बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की, जो शरीर में रोग-प्रतिरोधक क्षमता के लिए बाधक व घातक था। इस जीन के बाहर निकलते ही शरीर में श्वेत रुधिर कणिकाओं में रोगों से लड़े की क्षमता वापस लौट आई एवं अशाँति डिसिल्वा के शारीरिक क्रियाकलाप सामान्य हो गए। इससे उत्साहित होकर डॉ. एर्ण्डसन ने जीन थैरेपी को इक्कीसवीं सदी की उपचार प्रणाली के रूप में मान्यता दी।
वर्तमान समय में जीन थैरेपी अत्यंत आधुनिक एवं उत्साहवर्द्धक सिद्ध हो रही है। हयूमेन जीनोम साइंस मेरीलैंड, अमेरिका के अध्यक्ष डॉ. विलियम हेसलिन ने स्पष्ट किया है कि जीन थैरेपी द्वारा रोग होने से पूर्व ही रोग का पता लगाया जा सकता है। इसके तहत समय रहते रोगों की रोकथाम एवं उचित उपचार के लिए आवश्यक कदम उठाए जा सकते हैं। जीन थैरेपी में रुग्ण जीन को नष्ट कर या हटाकर उसके स्थान पर स्वस्थ जीन को आरोपित किया जाता है। जेनेटिक विज्ञान की एक अन्य विशेषता जेनेटिक फिंगर प्रिंट का निर्माण है। चूँकि हर व्यक्ति में जीन का अपना एक विचित्र संसार होता है। यह उसकी अपनी मौलिक विशेषता है, जो उसे दूसरों से अलग रखती है। इसी आधार पर जेनेटिक फिंगर प्रिंट का निर्माण किया जाता है। इसका उपयोग रोग, अपराध तथा अन्य अनेक क्षेत्रों में किया जाता है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के मॉलीक्यूलर बायोटेक्नोलॉजी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर लेरी हुड ने जेनेटिक फिंगर प्रिंट को भावी चिकित्सापद्धति में उपयोग आने वाली प्रमुख कड़ी के रूप में स्वीकार किया है।
जीन आनुवंशिक गुणों के वाहन होते हैं। मान के समस्त गुण इसमें कोडेड होते हैं। अगर इनकी डिकोडिंग की जा सके तो मानव जीवन के एक बड़े रहस्यमय एवं अनुत्तरित पक्ष की जानकारी मिल सकती है। विज्ञानवेत्ता एरिक लेडर ने जीन को मानव का ब्लू प्रिंट कहा है। उनके अनुसार यही मनुष्य की मूलभूत संरचना है, जिसमें थोड़ी-सी हलचल या परिवर्तन आने पर मनुष्य की आकृति एवं प्रकृति में तीव्र बदलाव लाए जा सकते हैं। सुविख्यात वैज्ञानिक हुड के अनुसार, जीन थैरेपी के अंतर्गत रोग के साथ अपराध, हिंसा, हत्या जैसे मनोविकारों की पहचान की जा सकती है। इन जीनों को हटाने में मिली कामयाबी को अभूतपूर्व कहा जा सकता है, क्योंकि मनोविकारों से संबंधित जीन को बदलने, उसके स्थान पर अच्छे गुण वाले जीन का आरोपण करने पर अपराध, हिंसा आदि की समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है। यह एक परिकल्पना है, जिनका आधार जीन थैरेपी हैं। इसका उपयोग चिकित्सा के अतिरिक्त कृषि आदि विविध क्षेत्रों में किया जा सकता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि रोगों के अलावा कई दूसरे जीव भी होते हैं, जिनकी क्रियाविधि आश्चर्यजनक होती है। हार्वर्ड हयूमेने मेडिकल इंस्टीट्यूट के जेफ्री फ्रीडमेन ने मोटापे के लिए उत्तरदायी जीन की खोज की है। उनके अनुसार इस जीन के द्वारा संश्लेषित प्रोटीन कही शरीर के मोटापे का नियंत्रण करती है। इसी प्रकार का एक अन्य जीन मनुष्य शरीर में पाया जाता है। मनुष्य में यह जीन लेक्टिन नामक प्रोटीन का निर्माण करता है। यह भूख एवं ऊर्जा का नियमन एवं संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। विज्ञानवेत्ता क्रेग वार्डन ने नेचर जेनेटिक्स के मार्च 1115 अंक में ऐसे कई प्रकार के जीन का विवरण दिया है। cp-1 जीन की क्रियाशीलता वयस्क व्यक्ति के जीवन काल में होती है। यह तीन तरह की भूरे रंग की वसा का नियमन करता है। cp-2 हर व्यक्ति के ऊतक में होता है। यह श्वेत वसा एवं मांसपेशियों का संचालन करता है। cp-1 से cp-2 बीस गुना अधिक सक्रिय होते हैं। ये जीन शारीरिक मोटाई, लंबाई आदि को बढ़ाने में अपना योगदान करते हैं।
अनेक रोग मूलक जीनों के अनुसंधान में सफलता प्राप्त करने के पश्चात् वैज्ञानिकों ने जीनोम की विशद क्रमबद्धता की ओर ध्यान दिया है। कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी ने इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वाह किया है। इंस्टीट्यूट फॉर जीनोमिक रिसर्च के डायरेक्टर क्रेग वेण्टर तथा जीन हापकिंस यूनिवर्सिटी के हैमिल्टन स्मिथ ने हीमोफिसस इन्फ़्लुएंज़ा तथा माइक्रोप्लाज्मा जेमेटेलियम नामक दो जीवाणुओं के डी.एन.ए. के सभी 15 करोड़ से अधिक बेसों को क्रमबद्ध करने का एक नया तरीका ढूँढ़ निकाला है। वेण्डर और स्मिथ ने पराश्रव्य ध्वनि तरंगों से यह कार्य कर लिया है। इस तरह एक जीव के जीन के सारे कल-पुर्जों को जोड़ने में अद्भुत सफलता पा ली गई है। वैज्ञानिकों का दावा है कि मानव जीन में भी इस प्रयोग को दुहराया जा सकता है। हालाँकि यह अति दुष्कर एवं कठिन कार्य है। कुछ भी हो, इस क्षेत्र में जो भी अन्वेषण-अनुसंधान चल रहे हैं, उनसे निकट भविष्य में यह अवश्य सिद्ध हो सकेगा, “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।”
जेनेटिक थैरेपी में एक नूतन अध्याय तब जुड़ा जब डॉ. डब्ल्यू, फ्रेंच एर्ण्डसन ने सन् 1110 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ में अशाँति डिसिल्वा नामक चार वर्षीय लड़की का जीन थैरेपी से सफल उपचार किया था।