Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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असीम संभावनाओं की पिटारी हमारा मन मस्तिष्क
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शरीर के सभी अंगों की अपनी महत्ता और विशिष्टता है। सभी अपने-अपने ढंग से महत्वपूर्ण और उपयोगी है, इतने पर भी वरिष्ठता की दृष्टि से मस्तिष्क की गरिमा सभी अवयवों में सर्वोपरि है। शायद इसीलिए ईश्वर ने उसे शरीर-हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर एवरेस्ट की तरह प्रतिष्ठित किया है। उसके निवास के लिए खोपड़ी के रूप में ऐसा दुर्ग खड़ा है, जिसमें चोट से बचने की ही नहीं, ऋतु-प्रभाव से लेकर अनेकानेक प्रदूषणों और विकिरणों से सुरक्षित रख सकने की पूरी-पूरी क्षमता है। इस दुर्ग की दीवारें बाहरी क्षेत्र के साथ ऐसे महत्वपूर्ण संपर्क साधे रहती है, जो मस्तिष्क के लिए ही नहीं, संपूर्ण शरीर के लिए भी अतीव उपयोगी है।
मनुष्य जब जन्मता है, तब मस्तिष्क मात्र 12 ओंस का होता है, किन्तु वयस्क होते-होते वह प्रायः तीन पौण्ड भारी हो जाता है। वजन की तुलना में उसकी कार्यक्षमता असंख्य गुनी बढ़ जाती है। माइक्रो फिल्मों के माध्यम से विशालकाय ग्रंथ छोटी-सी डिबिया में बंद करके रखे जा सकते हैं। एक स्वस्थ और समुन्नत मस्तिष्क में लगभग एक करोड़ ग्रंथों में लिखी जा सकने जितनी सामग्री संग्रह करके रखी जा सकती है। आवश्यकता पड़ने पर इस क्षमता में सहज ही दूनी अभिवृद्धि भी की जा सकती है। किसी कारणवश मस्तिष्क का कुछ हिस्सा नष्ट हो जाए, तो शेष से भी कामचलाऊ व्यवस्था बन जाती है। एक हाथ, एक पैर, एक आँख वाले अनेकों मनुष्य होते हैं। इसी प्रकार किसी कारणवश एक नष्ट हो जाने पर दूसरा गुरदा एवं फेफड़ा ही दानों का काम अकेले ही करता रहता है। मस्तिष्क दो नहीं है, फिर भी उसके कुछ भाग के कट-फट जाने, चोट लगने, निष्क्रिय हो जाने पर भी शेष हिस्से से जीवन की गाड़ी किसी प्रकार खिंचती रह सकती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान घायल हुए सैनिकों के ऐसे अनेक प्रकरणों में पाया गया कि उनके ब्रेन का कुछ भाग गोलियों से छिद गया, इतने पर भी वे मरे नहीं। तत्काल चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराकर उन्हें बचा लिया गया। इससे उनकी कुछ क्षमता प्रभावित अवश्य हुए, पर उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वे जीवन का भरपूर आनन्द नहीं उठा सके।
शरीर की स्थूलता, आकार और वजन के आधार पर उसके मजबूत और शक्तिशाली होने का अनुमान लगाना किसी हद तक सही हो सकता है, मस्तिष्क के भार या विस्तार को देखकर किसी प्राणी के बुद्धिमान या मूर्ख होने का अंदाज नहीं लगता। विकसित मनुष्य का मस्तिष्क लगभग डेढ़ किलो भारी होता है और हाथी का लगभग 5 किलो, फिर भी हाथी मनुष्य की तुलना में बुद्धिमान नहीं होता। बुद्धि का संबंध कॉर्टेक्स में फैली हुई तंत्रिका कोशिकाओं से है। उसमें भी एक और बात है कि उस क्षेत्र की कोशा कितनी अधिक अपनी सहेलियों के साथ जुड़ी हुई हैं और उनके बीच आदान-प्रदान का कैसा स्फूर्तिवान् सिलसिला चलता है। सहयोग का सिद्धाँत जहाँ प्रगति के हर क्षेत्र में काम करता है, वहाँ बुद्धिमत्ता का आधार भी वही है। यह मनुष्य की मस्तिष्कीय कोशिकाओं की संरचना और प्रखरता को देखते हुए सहज ही स्वीकार किया जा सकता है।
शरीर संचालन से लेकर मानसिक हलचलों तक और भावानुभूतियों से लेकर चित्र-विचित्र कल्पनाओं का ताना-बाना मस्तिष्क के छोटे से क्षेत्र में ही बुना जाता है। अनुभव उसी में एकत्र रहते हैं और योजनाएँ इसी में बैठे बुद्धिमान घटक बनाया करते हैं। शरीर की आकुँचन-प्रकुँचन, श्वास-प्रश्वास, ग्रहण-विसर्जन जैसी अनेकानेक सरल और जटिल क्रिया-प्रक्रियाएँ उसी क्षेत्र में संचालित होती है। दार्शनिक, वैज्ञानिक, व्यावसायिक, व्यापारिक, संगीत, कला, पराक्रम जैसी अगणित प्रवृत्तियों, के उद्भव, अभिवर्द्धन और समापन का केंद्र यही है। काया की संरचना और कार्यपद्धति कुछ भी क्यों न हो, उसके चप्पे-चप्पे का नियंत्रण और संचालन पूरी तरह मस्तिष्क के हाथ में है। कौन किस तरह जीवनयापन करता है और भविष्य में क्या बनने, क्या पाने जा रहा है, इसका सही अनुमान लग सकता है, यदि मनःक्षेत्र की गतिविधियों की समुचित जानकारी प्राप्त हो सके।
खोपड़ी के भीतर भरा हुआ यह थोड़ा-सा पदार्थ अपनी संग्रह क्षमता की दृष्टि से अद्भुत है। समय पर भंडार की वस्तुओं को तुरन्त निकाल लाने की उसकी कुशलता तो और भी अधिक आश्चर्यजनक है। इस दृष्टि से संसार का कोई श्रेष्ठतम पुस्तकालय या मनुष्यकृत कोई भी कम्प्यूटर उसकी तुलना नहीं कर सकता। यंत्रों की रचना ऐसी है कि वे जिस उद्देश्य के लिए बने है और निर्माताओं ने जितने शक्तिसम्पन्न बनाए है, उतना ही काम कर सकते हैं, पर मस्तिष्क के बारे में ऐसी बात नहीं है। वह अपने क्रिया-कौशल में ही नहीं, स्तर में भी निरंतर वृद्धि करता रह सकता है। बचपन से लेकर मरणपर्यंत वह अपना काम करते हुए भी अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए वैसा ही प्रयत्नशील रहता है, जैसे कोई अध्यापक स्कूल का काम करने के साथ-साथ अपनी योग्यता वृद्धि के लिए नई-नई परीक्षाएँ भी पास करता चले। मस्तिष्कीय संरचना और क्रियाशक्ति के संबंध में पिछले दिनों बहुत कुछ जाना जा चुका है, किन्तु जो जानने के लिए शेष है, वह उपलब्ध ज्ञान की तुलना में कही अधिक है। सुविदित और व्यवहृत क्रियाशक्ति की दृष्टि से उसकी तुलना किसी भी मानवी कृति से नहीं की जा सकती, फिर भी उसके इतने कोष्ठक बंद पड़े हैं कि यदि उन सबको गतिशील बनाया जा सके, तो मनुष्य की शारीरिक और मानसिक क्षमता इतनी अधिक बढ़ सकती है वह आज की स्थिति से तुलना करने पर देवता या दैत्य जितना बलिष्ठ - समर्थ दिखाई पड़ने लगे।
प्रकृति स्वभावतः अनगढ़ है। पदार्थ में बुद्धि न रहने से वह अस्त-व्यस्त स्थिति में पड़ा रहता है। परमाणुओं और तरंग-प्रवाहों में सामर्थ्य भी है और गतिशीलता भी, किन्तु मस्तिष्क जैसे किसी केन्द्रीय संस्थान के अभाव में उसके लिए व्यवस्था बनाना, सौंदर्य निखारना और कुछ उपार्जन कर दिखाना संभव नहीं। इस तथ्य को वन्य क्षेत्रों, मरु प्रदेशों की भयावह स्थिति को देखकर भली प्रकार जाना जा सकता है। अन्य ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति भी ऐसी अनगढ़ है। बुद्धिमान प्राणी न रहने से वहाँ निस्तब्धता और नीरसता का ही वातावरण बना हुआ है। इसके विपरीत धरती के मनुष्यों ने अपने पराक्रम से उसको इस प्रकार संजो दिया है कि वह कामधेनु की तरह अपनी शोभा और संपदा से स्वयं कृतकृत्य हुई और दूसरे प्राणियों को भी सुख-सुविधा से सम्पन्न कर दिया। यह सब कैसे संभव हुआ? इसका एक ही उत्तर है, मानवी मस्तिष्क के बुद्धि-वैभव का चमत्कार।
मस्तिष्कीय क्षमता न तो कोई बाजीगरी है, न ही चित्र-विचित्र कौतुक-कुतूहल उत्पन्न करने वाली नटी, वह तो ईश्वरप्रदत्त एक दिव्य विभूति है, जिसे अनेक उपायों से बढ़ाया और समृद्ध बनाया जा सकता है। शारीरिक परिपोषण के लिए जिस प्रकार व्यायाम और मालिश की एवं रासायनिक परिपोषण के लिए सुपाच्य और पौष्टिक आहार की व्यवस्था की जाती है, वैसे ही मानसिक क्षमताओं को परिष्कृत करने के लिए ऐसे आहार का प्रावधान करना पड़ता है, जो सात्विक तो हो ही, साथ ही ऐसी सूक्ष्म शक्ति से सम्पन्न भी हो, जो बुद्धि चेतना में उपयोगी प्रखरता उत्पन्न कर सकने की सामर्थ्य से युक्त कहा जा सके। मनःसंस्थान में यों उसके अपने स्वसंचालित शक्ति उत्पादन केन्द्र है, पर बाहर से भी उस तंत्र को सहायता पहुँचाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। इनमें विभिन्न प्रकार की योगाभ्यासों के अतिरिक्त जप, तप, व्रत, संयम, ध्यान, उपासना आदि प्रमुख हैं। इनसे मानसिक शक्ति बढ़ती, एकाग्रता सधती और उन क्षमताओं के विकास में सहायता मिलती है, जो आमतौर पर असंयम और अनाचरण की भेंट चढ़ जाती है। इन पर अंकुश लगाकर इन्हें मनःक्षेत्र? को सुविकसित करने में नियोजित कर लिया जाए, तो चिंतन-चेता का असाधारण परिष्कार हो सकता है और हम सहज ही मनोबल सम्पन्न बन सकते हैं। कहना न होगा कि मनोबल की गरिमा शरीर-बल, शिक्षा-बल, धन-बल, कौशल-बल आदि से सभी की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। उसे सहारे मनुष्य उन्नति के उस चरम शिखर पर पहुँच सकता है, जिसकी कल्पना कर सकना भी किसी के लिए कठिन है।
जब सिकंदर भारत पर आक्रमण हेतु निकला, तब उसके गुरु अरस्तू ने उसे आदेश दिया था कि वह भारत से लौटते समय दो उपहार अवश्य लाए, एक गीता, दूसरा एक दार्शनिक संत, जो वहाँ की थाती हैं सिकंदर जब वापस लौटने को था तो उसने अपने सेनापति को आदेश दिया, “भारत के किसी संत को ढूँढ़कर ससम्मान ले आओ।” सैनिक ‘दंडी स्वामी’ जिसका उल्लेख ग्रीक भाषा में ‘डैडीमींग” के रूप में हुआ है, से मिला। दंडी स्वामी से सिकंदर से दूत ने मिलकर कहा, “आप हमारे साथ चले, सिकंदर महान् आपको मालामाल कर देंगे। अपार वैभव आपके चरणों में होगा।” अपनी सहज मुस्कान में दंडी स्वामी ने उत्तर दिया, “हमारे रहने के लिए शस्य-श्यामला भारत की पावन भूमि, पहनने के लिए वल्कल वस्त्र, पीने के लिए गंगा की अमृत धारा तथा खाने के लिए एक पाव आटा पर्याप्त है। हमारे पास संसार की सबसे बड़ी संपत्ति आत्मधन है। इस धन की दरिद्र तुम्हारा सिकन्दर हमें क्या दे सकता है?” शक्ति ऐसी सम्पत्ति के जिसके दर्प से चूर सिकंदर ने सैनिक के वार्त्तालाप को सुना तो विस्मित रह गया। अहंकार चकनाचूर हो गया। आध्यात्मिक संपदा के धनी इस देश के समक्ष नतमस्तक होकर चला गया।