Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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कालजयी समृद्धिशाली भारतीय इतिहास
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इतिहास जीवाश्म नहीं जीवंत होता है। इतिहास के साथ वर्तमान का गहरा संबंध है। किसी भी राष्ट्र एवं उसकी संस्कृति की समृद्धि उसके अतीत के इतिहास पर निर्भर करती है। साँस्कृतिक सौंदर्य की अपूर्व झलक इतिहास के सार्थक बोध के बगैर असंभव है। भारतवर्ष की ऐतिहासिक धरोहर यहाँ की साँस्कृतिक संपदा ही है। ऐसे इतिहास के बारे में पूर्वी एवं पश्चिमी दृष्टिकोण में पर्याप्त भिन्नता है। इसे क्रमशः एकाँगी एवं समग्र कहा जा सकता है। कुछ भी हो, इतिहास को समझने एवं जाने के लिए इतिहास-बोध का होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
प्राचीनकाल में इतिहास और पुराण दोनों शब्दों से इतिहास का बोध होता था। इतिहास यानि कि ठीक ऐसा हुआ था। इतिहास शब्द की व्याख्या वेदों में भी की गई है। शौनक ऋषि के अनुसार वृहद देवता ग्रंथ में अधिक स्पष्ट रूप से लिखा है, ऋषियों द्वारा कही गई प्राचीनकाल की बात इतिहास है। देवासुर संग्राम के विषय में जो आख्यान है, वह भी इतिहास है। शतपथ ब्राह्मण में भी इसी सत्य को प्रकट किया गया है।
एतिथ्य परंपरागत कथन को कहते हैं। यह इतिहास के कथन का ढंग है। पराकृत्य भी पूर्वकाल की बात को कहने का एक ढंग है। पराकृत्य भी पूर्वकाल की बात को कहने का ढक ढंग है। इसी तरह पराकृति, इतिवृत्त, उपाख्यान, अनुचरित, कथा, परिकथा, अनुवंश, गाथा आदि शब्द भी इतिहास से संबंधित माने जाते हैं। रामायण, महाभारत, पुराण, राजतरंगिणी आदि सभी इतिहास के ग्रंथ हैं। इतिहास के इन सब प्रकारों का नाम गिनाने का अभिप्राय यह है कि भारत के प्राचीन वाङ्मय में ये सब प्रकार और कदाचित् इससे भी अधिक प्रकार थे, जिन्हें इतिहास कहा जाता था। सच तो यही है कि इतिहास-बोध की सार्थकता उसके यथार्थ स्वरूप में निहित है।
इतिहास भले ही अतीत की कथा कहे, लेकिन वर्तमान से उसका अनन्य संबंध है। वर्तमान में जो कुछ हैं, उसके कार्य-कारण की एक लंबी और बहुसूत्री परंपरा हैं इसे केवल आपात स्थिति में जानने का प्रयास किया जाता है। इसे जानने से घटना, क्रिया, वस्तु और विचार सभी के चरित्र अत्यंत स्पष्ट हो जाते हैं। प्रत्येक वर्तमान अपने पीछे इतिहास को छिपाए रखता है। इसकी जानकारी वर्तमान को और अधिक महत्ता एवं विशेषता प्रदान करती है। कोई भी वर्तमान अपने अतीत का समग्र योग नहीं होता है, बल्कि इतिहास के किन्हीं अवशिष्ट अंशों के संधि-बिंदुओं पर एक नई परिघटनावली की उद्भास प्रक्रिया का अंग होता है। यह कार्य होने के साथ ही कारण में बदल जाता है। अतः इतिहास और वर्तमान का संबंध सर्वथा अविच्छिन्न होता है।
यदि वर्तमान का जन्म इतिहास से ठीक उसी तरह से होता, जैसे बच्चे का जन्म माँ के गर्भ से होता है, तो संभव है वर्तमान के होने और वर्तमान में जीने से लाभ-हानि का आकलन भी हो पाता। परंतु इतिहास का चरित्र केवल मनुष्य के निर्णयों और बातों पर निर्भर नहीं करता। वर्तमान हो या फिर इतिहास, यह सब बहुत सारे लोगों के निर्णय-अनिर्णय, क्रियाशीलता और निष्क्रियता का समन्वय होता है। हालाँकि इन बहुत सारे लोगों के कार्यों और निर्णयों का मूल्याँकन संभव नहीं है। फिर भी इस अनंत वैविध्य के समन्वित प्रभाव से वर्तमान का सामान्य चरित्र निर्धारित होता है।
वर्तमान लंबाई-चौड़ाई से शून्य बिंदु या मोटाई से रहित रेखा की तरह एक संकल्पना है, जिसके बिना हम अपनी स्थिति को समझ नहीं पाते। जहाँ वर्तमान चरित्र परिवर्तमान है और भविष्य मात्र एक संभाव्य कल्पना है, वही अतीत अकेला ऐसा है, जो ठोस यथार्थ के रूप में हमें उपलब्ध होता है। किसी वस्तुपरक चिंतन, जिससे भविष्य की तस्वीर गढ़ी जा सकती है या इसकी चुनौतियों का सामना किया जाता है, इसी ठोस सामग्री के आधार पर संभव है।
किसी व्यक्ति या राष्ट्र के जीवन में ऐसे विषम पल भी आते हैं, जब वह अपने इतिहास को भूलना चाहता है। प्रायः यह अपने ही कर्मों के लिए आत्मग्लानिवश होता है। वह महाकवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी के मनु की तरह कहता है, “विस्मृति का अवसाद घेर ले, नीरवता बस चुप कर दे।” उसे अपने अस्तित्व से डर लगने लगता है। कभी-कभी वर्तमान भी इतना भयावह हो उठता है कि पीछे मुड़कर देखने का अवकाश नहीं मिलता। हमारी पूरी मानसिक ऊर्जा आत्मरक्षा में व्यय हो जाती है। आगे कोई भविष्य नहीं दिखाई देता। इसी कारण जो भी सुख का क्षण मिलता है, उसे पूरा भोग लेने की अदम्य लालसा उमड़ पड़ती हैं। परिणामतः अराजकता की स्थिति पनपने लगती हैं। क्षण में जीने वाला व्यक्ति सही ढंग से वर्तमान में भी नहीं जी पाता। वर्तमान से कटकर और भविष्य को समाप्त मानकर जीने वाले ऐसे व्यक्ति का जीवन अपने अंत की प्रतीक्षा मात्र होता है। हालाँकि इस क्षण भर के भोग में भी उसे एक असह्य मानसिक यंत्रणा ही मिलती है।
आज का जीवन प्रायः इसी इतिहासहीनता और भविष्यहीनता के बीच सरक रहा है। ऐसी स्थिति के कारण ही कालबोध पीड़ादायक व त्रासजनक तथा देशबोध विघटन-वादी, अनियंत्रित एवं संकीर्ण हो चला है। आज के वर्तमान समग्र में झाँककर यदि कहा जाए कि भारतीय इतिहास की हमारी पहचान खतरे में हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके मूल में जाने पर पता चलता है कि पिछले समय में इतिहास के संबंध में पूरे समाज की भागीदारी न्यून रही है। कतिपय तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इतिहास पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश की और उन्होंने जितना सिखाया, उससे अधिक बहकाया।
जब इतिहास को एक छोटे-से फलक में रखकर देखा जाता है और एकाँगी रूप में पेशा किया जाता है, तब इतिहासहीनता का एक शून्य पैदा होता है। इसे ही अंधकार युग कहा जाता है। इसमें किंवदंतियों का बोलबाला हो जाता है। यूरोप के मध्यकाल में ऐसा ही अंधकार-युग आया था। अपनी इस उलझन से निबटने के लिए यूरोप ने अपने द्वारा भूले हुए यूनान की फिर से खोज की। अपने अतीत के गौरव की इस खोज से ही यूरोपीय सभ्यता आगे बढ़ी। भविष्य के रास्ते प्रायः अतीत में खुला करते हैं। इसलिए एक समृद्ध राष्ट्र एवं संस्कृति के लिए एक लंबे इतिहास की आवश्यकता होती है।
जिन देशों के पास ऐसा दीर्घ व गहरा इतिहास नहीं होता, व अपने पड़ोस से इतिहास के सूत्रों की तलाश करते हैं। इस क्रम में यूनानियों ने मिश्र से, अरबों ने यूनान से इसी तरह के सूत्र लिए थे। भारतीय इतिहास की नींव बड़ी गहरी है। कभी भारतीय इतिहास के सूत्रों ने विश्व के अनेक देशों का समाधान सुझाए थे, परंतु आज तो हमें अपनी ही समस्याओं के समाधान के लिए व्यापक इतिहास बोध की आवश्यकता है।
भले ही हम सत्य को भूलने लगे हों, फिर भी सच्चाई यही है कि भारतीय इतिहास कालजयी एवं समृद्धिशाली है। अपनी स्थानीय सीमाओं से ऊपर उठकर एक विशाल राष्ट्र के नागरिक होने का हमारा बोध भी अति प्राचीन है। पिछले हजार वर्ष के इतिहास में संकट के अनेक दौर आए, परंतु यह इतिहास कभी विनष्ट नहीं हुआ। इसका एक सुदृढ़ पक्ष यह भी है कि भारतीय इतिहास में समय-समय पर इतिहास पुरुषों का आविर्भाव होता रहा है। इन इतिहास पुरुषों ने अपनी प्रखर प्रज्ञा के द्वारा भारतीय इतिहास को ज्वलंत, जीवंत एवं जाग्रत् बनाए रखा।
इतिहास के संबंध में पश्चिम का अपना दृष्टिकोण है और भारत का अपना। भारतीय दृष्टि की समग्रता इस सत्य में निहित है कि यहाँ इतिहास कभी भी मात्र घटनाक्रमों एवं तथ्यों के संकलन तक सीमित नहीं रहा। इसमें साँस्कृतिक मूल्यों, गौरवपूर्ण परंपराओं एवं देवोपम संस्कारों के सार्थक विवरण का समावेश है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि इतिहास वह मंजूषा है, जिसमें संस्कृति की बेशकीमती संपदा सँजोई हैं।
पाश्चात्य लेखकों का यह कहना कि भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास नहीं मिलता, उनकी अज्ञानता का ही सूचक है। इस अज्ञान का कारण यह है कि जब यूरोपियन लोग भारत आए तो उनका संपर्क भारत के ऐसे लोगों से हुआ, जो स्वयं पढ़ें-लिखे नहीं थे। इसकी एक वजह यह भी थी कि भारतवासी इतिहास लिखते तो थे, परंतु उनके इतिहास लिखने का उद्देश्य वह नहीं था, जो पाश्चात्य लेखकों का रहा हैं। यूनान, रोम, मिश्र, फ्राँस, इंग्लैंड आदि देशों में वहाँ के राजा, रईसों, जमींदार तथा विजेताओं द्वारा इतिहास लिखने के लिए कुछ लोग नियुक्त किए जाते थे। परिणामस्वरूप वे इतिहास भी अपने मालिकों की इच्छानुरूप ही लिखते थे। भारतवर्ष के अतीत में यह प्रथा कभी नहीं रही। यहाँ के इतिहास-लेखक किसी राजा के दरबारी गुलाम नहीं थे। वे प्रायः वनों में अपने आश्रमों में तपस्यारत रहते थे। उनके इतिहास-लेख का उद्देश्य अपने मालिकों को प्रसन्न करना नहीं था, वरन् जनसाधारण की ज्ञानवृद्धि करना होता था। जनसाधारण को इतिहास से क्या शिक्षा लेनी चाहिए, यही बताना उनका उद्देश्य था। इस कारण ऋषि-महर्षि कहे जाने वाले ये इतिहासवेत्ता केवल इतिहास से संबंधित घटनाओं को ही लिख देने में संतोष नहीं करते थे वरन् प्रत्येक घटना का कारण, उस घटना से उत्पन्न परिणाम तथा इसमें निहित सत्य के तत्वदर्शन का बोध करा देना आवश्यक समझते थे।
भारतीय इतिहास लिखने का ढंग, घटनाओं की विवेचना और कारणों, परिणामों सहित लिखने की वजह से पाश्चात्य विद्वानों को यह कुछ और ही समझ में आया। पाश्चात्य इतिहासविदों की लेखन-शैली और भारतीय इतिहासवेत्ताओं की शैली में अंतर होने के कारण उन्हें यहाँ इतिहास दिखाई नहीं देता, जबकि भारतीय लेखकों द्वारा लिखित इतिहास, इतिहास तो हैं ही, परंतु साथ ही उसमें जीवन के सत्य का भावबोध भी है।
कौटिल्य के समय में इतिहास का महत्व इतना बढ़ गया था कि उन्होंने राजा के लिए प्रतिदिन इतिहास सुनना अपरिहार्य ठहराया। भारतीय इतिहास में अगणित विधाएँ भी सम्मिलित थी। तभी एक इतिहासकार के रूप में कल्हण को न केवल भारतीयों ने, बल्कि सर आरोल स्टीन जैसे पाश्चात्य विद्वानों ने भी मान्यता प्रदान की है।
आज इतिहास के प्रति दृष्टिकोण में भारी बदलाव आया है। इसके लिए लोकनृत्यों गीतों को भी एक प्रमुख स्त्रोत माना जाने लगा है। लोकश्रित इतिहास में समाज प्रधान हो जाता है और राजा गौण। पुराणों में पाई जाने वाली ऐतिहासिक सामग्री, लिपि का आविष्कार होने से हजारों साल पहले की हैं और उसे समाज में श्रुति परंपरा से याद किया जाता रहा है। भारतीय समाज में अपने इतिहास के प्रति इतना गहरा लगाव था कि अपने प्रचार के लिए प्रायः सभी धर्मों ने इसे अपने साहित्य के अविभाज्य अंग के रूप में स्वीकार किया है।
भारतीय इतिहास-लेख की एक विशिष्टता यह भी है कि यहाँ इतिहास के विविध प्रकार उस समय भी प्रयुक्त हुए, जबकि किसी श्रेष्ठ लिपि की परिकल्पना भी नहीं हुई थी। तब से प्रचलित ये प्रकार चले और आज भी मिलते हैं। इस तरह भारतवर्ष में बसे लोगों का इतिहास विश्व के सभी देशों की अपेक्षा प्राचीन एवं समृद्ध है। जिस देश में इतिहास-लेखन के अनेकों स्वरूप विद्वानों को विदित हैं, वहाँ इतिहास की कितनी महिमा रही होगी, उसकी कल्पना सहज की जा सकती है। वैदिक संस्कृति के महान् प्रवक्ता एवं इतिहास-दर्शन के महान् वेत्ता स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, अपने प्राचीन इतिहास का अध्ययन कर हमें देखना चाहिए कि प्राचीन समय में शक्ति, सामर्थ्य तथा अन्य सभी प्रतिभा के क्षेत्रों में भारत कितना उन्नत रहा है। उन्होंने आगे स्पष्ट किया, भारत के लोग अपने अतीत का जितना गहराई से अध्ययन करेंगे, उनका भविष्य उतना ही उज्ज्वल होगा।
भारतीय इतिहास कभी भी मात्र घटनाक्रमों एवं तथ्यों के संकलन तक सीमित नहीं रहा। इसमें साँस्कृतिक मूल्यों, गौरवपूर्ण परंपराओं एवं देवोपम संस्कारों के सार्थक विवरण का समावेश है। इसे यों भी कहा जा सकता है। कि इतिहास वह मंजूषा है, जिसमें संस्कृति की बेशकीमती संपदा संजोई है।
महापूर्णाहुति में आने वाले परिजन अपने पीछे पोस्ट ऑफिस से अखण्ड ज्योति प्राप्त करने की व्यवस्था करके आएं। किन्हीं को अधिकार-पत्र देना हो, तो अधिकार-पत्र दे दे, अथवा डाकघर में उतने दिन डाक रोकने के निर्देश दे दें, अन्यथा उनकी अनुपस्थिति में डाकघर अखण्ड ज्योति वापस कर देगा। सदस्यों एवं संस्था दोनों की ही कठिनाई बढ़ेगी।