Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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सार्वकालिक, सार्वदेशिक हैं हमारे वेद
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वेद भारतीय संस्कृति के जीवन स्रोत हैं। वैदिक ज्ञान सुधा से ऊर्जस्वी होकर ही भारत देश की संस्कृति ने अपना वैभव विस्तार किया है। भारतीय संस्कृति के जिन सूत्रों, सत्यों एवं तथ्यों की समस्त विश्व में सराहना होती है, उन सबका उद्गम वेदों से ही हुआ है। यही कारण है कि भारतीयों की ही भाँति पश्चिमी विद्वान भी वैदिक ज्ञान की गरिमा के समक्ष नतमस्तक हुए हैं। उनमें से बहुतों का प्रयास यह भी रहा है कि वे इस ज्ञान कोश का अपनी भाषाओं में भाष्य व अनुवाद करें। ऐसे प्रयासों की शुरुआत अठारहवीं सदी के अंतिम दशक में सर विलियम जोन्स ने की। सर जोन्स ने कलकत्ता में ‘रायल एशियाटिक सोसायटी’ की स्थापना की। इस केन्द्र में संस्कृत ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद प्रारंभ हुआ तथा वेदों के प्रति जिज्ञासा पनपी। बाद में कोलबुक ने वैदिक अध्ययन का दीप प्रज्वलित किया, जिससे पाश्चात्य मनीषी इस ओर आकर्षित हुए।
कोलबुक ने सन् 1705 ई. मं ‘एशियाटिक रिसर्चेज’ नामक शोध पत्रिका के अष्टम अंक में वेदों के ऊपर अपना एक अत्यंत महत्वपूर्ण शोध निबंध प्रकाशित किया। इसी के साथ उन्होंने वैदिक ग्रंथों के हस्तलेखों को संग्रहित किया और इन्हें लंदन भेजा। इन्हें सही ढंग से समझने के लिए अनेकों पाश्चात्य विद्वान् भारत आए। जर्मन निवासी तथा प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी फ्रेंज बाप के शिष्य फ्रीडिक रोजेने ने सबसे पहले ऋग्वेद का संपादन-कार्य प्रारंभ किया। रोजने ने यह कार्य सन् 1430 ई. में शुरू किया था, परन्तु प्रथम अष्टक के प्रकाशित होने से पूर्व 12 सितम्बर 1437 ई. को ही वे परलोकवासी हो गए। सन् 1536 ई. में रोजन का संपादन-कार्य ‘ऋग्वेद संहिता प्रिमस संस्कृते एन लातीने’ के नाम से प्रकाशित हुआ।
फ्रीडिक रोजने के इस ग्रंथ को वैदिक अध्येयताओं के बीच काफी प्रामाणिक माना जाता है, प्रो. बर्नाफ इसी की सहायता से राथ, मैक्समूलर आदि अपने शिष्यों को वेदों की सहायता से राथ, मैक्समूलर आदि अपने शिष्यों को वेदों का अध्ययन कराते थे। इसके बाद बेवर ने माध्यंदिन शुक्ल यजुर्वेद संहिता के नवम व दशम अध्याय का लैटिन भाषा में अनुवाद व भाष्य किया। उनका यह कार्य सन 1646 ई. में वाजसनेयी संहिता के नाम से प्रकाशित हुआ। प्रसिद्ध फ्राँसीसी विद्वान् लाँग लोइस ने संपूर्ण ऋग्वेद का चार भागों में फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया। जो बाद में ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुआ। लाँग लोइस की व्याख्या पद्धति रोजने से भिन्न थी, परन्तु रोजने से लेकर लाँग लोइस तक ऋग्वेद की व्याख्या का आधार सायण भाष्य ही था।
उन्नीसवीं सदी में वेद-विषयक स्वतंत्र चिंतन प्रारंभ हुआ। इसके सूत्रधार थे प्रो. बरनूफ। विश्व के प्राचीनतम साहित्य के रूप में वेदों के प्रति यूरोपियनों में रुचि जाग्रत् करना उनका विशेष लक्ष्य था। प्रो. बरनूफ ने स्पष्ट किया कि तुलनात्मक भाषाविज्ञान के द्वारा ही वेदों को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। वेदाध्ययन के क्षेत्र में इसे एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में माना गया और इसी के फलस्वरूप वेदों के अध्ययन के क्षेत्र में दो प्रकार की विचारधाराएँ पनपीं-पहली भारतीय एवं दूसरी पश्चिमी। दोनों में अतिवादी भाष्यकार भी हुए, जो एक दूसरे के प्रबल एवं कटु आलोचक थे।
जर्मन मनीषी मैक्समूलर राथ के सहपाठी तथा प्रो. बरनूफ के प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने अपना संपूर्ण जीवन वेदों के अध्ययन में लगा दिया। सन् 1541 से 1575 ई. तक लगभग 26 वर्षों तक अथक एवं कठोर परिश्रम करके उन्होंने संपूर्ण ऋग्वेद को सायण भाष्य तथा पदपाठ के साथ देवनागरी लिपि में संपादित किया। मैक्समूलर ने उन पाश्चात्य वेद भाष्यकारों का विरोध किया जो व्याख्या को स्पष्ट करने के लिए मूल शब्द में ही पाठ शोध कर लेते थे। पाश्चात्य विद्वानों की यह प्रवृत्ति उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। प्रो. मैक्समूलर तुलनात्मक भाषाविज्ञान के पक्षधर थे, परन्तु राथ की तरह वे सायण विरोध नहीं थे।
सुविख्यात मनीषी जे.स्टीवेंसन ने भारत में भारतीय विद्वानों की सहायता से वेदभाष्य किया। उन्होंने राणायनीय शाखा की सामवेद संहिता का सर्वप्रथम संपादन किया तथा उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो सन् 1542 ई. में लंदन से प्रकाशित हुआ। इसके बाद रोएर ने ऋग्वेद के प्रथम अष्टक के दो अध्यायों अर्थात् 32 ई. सूक्त तक अंग्रेजी में अनुवाद किया। यह अनुवाद भारत में प्रकाशित किया। राथ के शिष्य हिटनी ने संपूर्ण अथर्व संहिता का अंग्रेजी में भाषांतरण किया। उनका यह अनुवाद मरणोपरांत सन् 2614 ई. में पूरा हो पाया। इसे उनके शिष्य पी.आर. लैनमैन ने 1105 ई. में प्रकाशित किया। हिटनी के इस अनुवाद को अन्य अनुवादों की तुलना में श्रेष्ठ माना जाता है।
इंग्लैंड के सुविख्यात विद्वान् विल्सन ने भी ऋग्वेद पर कार्य किया। उन्होंने इसके लिए सायण भाष्य का सहारा लिया। प्रो. विल्सन ने अपने इस कार्य के द्वारा उन विद्वानों के प्रश्नों का समुचित उत्तर दिया, जो प्रामाणिकता की दृष्टि से साण भाष्य पर शंका करते हैं। प्रो. विल्सन की दृष्टि में सायण भाष्य ही सर्वश्रेष्ठ भाष्य है। सन् 1560 ई. में जब विल्सन की मृत्यु हुई, तब तक उनके ऋग्वेद अनुवा के चतुर्थ भाग का केवल 104 पृष्ठ ही छपा था। उनके इस कार्य को उनके सहयोगी जे. वैलेन्टाइन ने आगे बढ़ाया। सन् 1564 ई. में वैलेन्टाइन की मृत्यु के पश्चात् प्रो. गोल्ड स्टुकर ने इसमें सहयोग दिया। तत्पश्चात् प्रो. ई.बी. कावेल ने इस कार्य को पूर्णता प्रदान की। परन्तु विल्सन से लेकर कावेल तक के इस संपादन को वेबस्टार ही सही अंजाम दे सके। वेबस्टर ने अपने कार्य में इस तथ्य को स्वीकारा है कि विल्सन के अनुवाद का संशोधित करते समय उन्होंने आधुनिक विद्वानों से बहुत कम सहायता ली, क्योंकि विल्सन पूर्णतः सायण भाष्य पर ही केंद्रित थे।
वेदों के प्रख्यात अध्येयता थ्यूडोर बेनफे राथ के ही अनुयायी थे उन्होंने ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 130 सूक्तों का जर्मन भाषा में अनुवाद किया था। जो 1562 से 64 में लिपजिग से प्रकाशित हुआ था। हालांकि बेनफे का वेदभाष्य अतिवादी था। हेरमान ग्रासमान भी राथ के शिष्य थे। जर्मन निवासी ग्रासमान ने ऋग्वेद का जर्मन भाषा में पद्यानुवाद किया। यह अनुवाद दो भागों में सन् 1576-157 में प्रकाशित हुआ। ग्रासमान ने ऋग्वेद का एक कोश भी जर्मन भाषा में संपादित किया। यह शब्दकोश ‘वार्तवुचत्सुम ऋग्वेद’ के नाम से सन् 1573-1575 में प्रकाशित हुआ। ग्रासमान की रचाना को प्रो. रेनो ने आलोचना करने के बावजूद प्रामाणिक माना है।
जर्मन निवासी गेल्डनर की गणना भी राथ के प्रमुख शिष्यों में होती हैं। संपूर्ण ऋग्वेद के जर्मन में अनुवाद की यह अंतिम कड़ी थी। गेल्डनर ने एडोल्फ केगी की सहायता से राथ द्वारा प्रतिपादित वेद-व्याख्या सिद्धाँत का पूर्ण उपयोग करते हुए ऋग्वेद के सत्तर सूक्तों का जर्मन में पद्यानुवाद किया। उनका यह अनुवाद सन् 1575 ई. मं प्रकाशित हुआ। गेल्डनर अपने पूर्ववर्तियों की अपेक्षा अधिक ईमानदार थे। उन पर राथ का प्रभाव हावी नहीं हो पाया। उनका मानना था कि ऋग्वेद पूर्णरूपेण भारतीय रचना है, इसलिए इसकी व्याख्या भी भारतीय परंपरा के अनुसार ही की जानी चाहिए। इसी प्रभाव के कारण ही गेल्डनर ने सन् 1105 ई. में ऋग्वेद के कुछ सूक्तों का स्वतंत्र रूप से जर्मन में अनुवाद किया।
लुडविग भी राथ के शिष्य थे। हालाँकि वे गेल्डनर की तरह स्वतंत्र, निष्पक्ष न होकर राथ परंपरा के अनुयायी थे। इन्होंने संपूर्ण ऋग्वेद का जर्मन में अनुवाद किया तथा उसकी विस्तृत व्याख्या एवं भूमिका लिखी। उनका यह संपूर्ण ग्रंथ ‘डेर ऋग्वेद’ नाम से छह भागों में 1576-55 में प्रकाशित हुआ। इसके प्रथम दो भागों में ऋग्वेद का संपूर्ण अनुवाद है। तीसरा भाग विस्तृत भूमिका लिए हुए हैं। चतुर्थ तथा पंचम भाग में ऋग्वेद अनुवाद की विशद व्याख्या है। छठे भाग में शब्दार्थ सूची तथा व्याकरण आदि से संबंधित टिप्पणियाँ दी गई है।
मनीषी जे. ग्रिल ने अथर्ववेद के सौ सूक्तों का जर्मन व्याख्या के साथ अनुवाद किया। उनका यह कार्य ‘हुण्डटर्ट लीडर लेस अथर्ववेद’ के नाम से 1571-55 में प्रकाशित हुआ। सुविख्यात वेद विद्वान एगलिंग ने शतपथ ब्राह्मण का अनुवाद किया। चूँकि शतपथ ब्राह्मण के प्रथम नौ काँड यजुर्वेद के प्रथम 15 अध्यायों का ही रूपांतर हैं इसलिए एगलिंग ने जो नौ काँडों का अंग्रेजी में अनुवाद किया, उसे प्रकाराँतर से यजुर्वेद का ही अनुवाद माना जाता है, शेरसन ने अथर्ववेद के मुख्य रूप से 11 वें, 13 वें तथा 11 वें, से चुने हुए 13 दार्शनिक सूक्तों का जर्मन में अनुवाद किया। जो सन् 1556 ई. में ‘फिलासफिरो हीम्नेन आउस डेर ऋग्वेद एण्ड अथर्ववेद’ नाम से प्रकाशित हुआ। सी.ए.फ्लोरेंज ने अथर्ववेद के षष्ठ काँड के 1 से 50 सूक्तों का जर्मन में अनुवाद किया। बाद में 1557 में इसका प्रकाशन हुआ।
विल्सन के बाद संपूर्ण ऋग्वेद का अंग्रेजी अनुवाद करने वाले इंग्लैंड के विद्वानों में आर.टी.एच.ग्रिफिथ प्रथम और अंतिम विद्वान् थे। वे सन् 1561 से लेकर 1575 तक काशी गवर्नमेंट संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी के प्राचार्य थे। वहीं पर रहकर उन्होंने चारों वेदों का पद्यमय अनुवाद किया। उनका ऋग्वेद का पद्यमय अनुवाद 1551-12 में चार भागों में प्रकाशित हुआ। ग्रिफिथ अपने वेदाध्ययन में सायण को गुरु एवं पथप्रदर्शक मानते थे। ग्रिफिथ ने संपूर्ण अथर्ववेद का भी पद्यानुवाद किया, जो वाराणसी 1515-15 में दो खंडों में प्रकाशित हुआ।
वेदाध्ययन के संदर्भ में मनीषी विक्टर हेनी का नाम भी उल्लेखनीय हैं उन्होंने 12वें तथा 13वें काँडो का फ्रेंच में अनुवाद किया। इसका प्रकाशन पेरिस से 1511-16 में हुआ। जर्मनी के ओल्डेनवर्ग ने भी ऋग्वेद के 130 सूक्तों का विस्तृत व्याख्या के साथ अंग्रेजी में भाष्य किया है। इसका प्रकाशन प्रो. मैसक्समूलर की ‘सेक्रेड बुक ऑफ द ईस्ट’ के अंतर्गत 46वें खंड के रूप में हुआ। इसके व्याख्यात्मक नोट में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती वेद भाष्यकारों के मतों को भी उद्धृत किया है। ओल्डेनवर्ग ने जर्मन भाषा में भी ऋग्वेद का गवेषणात्मक भाष्य किया है। जो ‘ऋग्वेद नोटेन’ के नाम से प्रकाशित हुआ।
अमेरिका के मौरिस ब्लूमफील्ड ने अथर्ववेद के प्रथम, द्वितीय तथा सप्तम काँडों में से चुने हुए सात सूक्तों का अनुवाद किया। हालाँकि बाद में उन्होंने अथर्ववेद के लगभग एक तिहाई भाग का अनुवाद करके प्रकाशित कराया। प्रख्यात विद्वान् मैकडानल के शिष्य कीथ ने कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता का अंग्रेजी में रूपांतरण किया। इसका प्रकाशन हार्वर्ड ऑरिएंटल सीरीज के अंतर्गत दो खंडों में किया गया। इसकी विस्तृत भूमिका में कीथ ने तैत्तिरीय संहिता से संबंधित भाषा, विषयवस्तु आदि विषयों पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है।
वेदज्ञान की गरिमा को स्वीकारने वाले ये कुछ नाम हैं, जिनका उल्लेख उपर्युक्त पंक्तियों में किया गया है। इनके अलावा अन्य और भी हैं, जिन्होंने वैदिक ज्ञान को आत्मसात करने का प्रयत्न किया। इनके ये सभी प्रयत्न इस सत्य का निर्विवाद रूप से प्रतिवाद करते हैं कि वेद सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक है। इनमें संजोया ज्ञान समूची मानवता एवं संपूर्ण विश्व-वसुधा के कल्याण के लिए है। अपने इसी उच्चतम उद्देश्य के कारण ही तो वेदों से उपजी भारतीय संस्कृति, विश्व संस्कृति के रूप में गरिमावान हुई है।