Magazine - Year 2000 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सँवारने और तराशने वाला दिव्य वात्सल्य
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
समाचार किसे कहते हैं ? पत्रकारिता पढ़ने वाले विद्यार्थियों से पूछा जाता है। छात्र जो भी उत्तर देते हैं, उन पर अपनी राय देते हुए व्याख्याता समझाते हैं कि जो विलक्षण है, असहज है और अपवाद है, वही समाचार है। अगर कुत्ता आदमी को काटता है तो यह खबर नहीं हैं। आदमी कुत्ते को काट ले तो वह खबर है। इस परिभाषा को आगे बढ़ते हुए पत्रकारिता के सामान्य विद्यार्थी और विशिष्ट पुरोधा तक सभी अस्वाभाविक, विलक्षण और बहुत कुछ विद्रूप की तलाश करते हैं। उसे उभारने और रोचक ढंग से लिखने का प्रयत्न करते हैं।
पत्रकारिता इसके अलावा सूचना देने का माध्यम भी है। राजनीति, कला, साहित्य, संस्कृति, समाज, खेल, व्यापार आदि क्षेत्रों में जो घट रहा है, उसका प्रामाणिक विवरण देना भी इस माध्यम का एक पहलू है। सूचनाएँ देना और विकृतियों विलक्षणताओं का वर्णन-विश्लेषण करना पत्रकारिता है। मध्यप्रदेश के एक प्राचीन तीर्थ में कस्बाई अखबार से इस क्षेत्र में प्रवेश कर रहे एक नवयुवक से गुरुदेव ने कहा था कि तुम प्रचलित परिभाषाओं में ही मत उलझ जाना। समाज को संस्कार देना भी पत्रकारिता का धर्म है। मनुष्य की चेतना को ऊँचा उठाने वाले जो भी प्रयास हो रहे हों, उन्हें लोगों को बताना भी पत्रकार का कर्म है। एक साधु यदि बहते हुए बिच्छू को बार-बार बचाता है और उसका दर्द सहते हुए भी उसे नहीं छोड़ता, तो यह समाचार क्यों नहीं होना चाहिए। विदाई सम्मेलन से पूर्व परमपूज्य गुरुदेव उस नगरी में आए थे। वहाँ हुए महायज्ञ में ही शिष्य ने अपने संकल्प की सूचना दी थी कि लेखक-पत्रकार बनना चाहता हूँ और अखबार में काम शुरू भी कर दिया हैं।
“अपने संकल्प को महाकाल की युग-प्रत्यावर्तन प्रक्रिया की एक चिंगारी समझ सको तो स्वयं को धन्य पाओगे।” गुरुदेव ने कहा था और फिर यह भी कि भगवान् ने चाहा, तो इस माध्यम को स्नुवा-आचमनी और हवन पात्रों की तरह उपयोग भी कर सकोगे। तब कौन जानता था कि भगवान् ने यह चाह लिया है। गुरुदेव की लीला का गान करते यह आराधन कहीं आत्मश्लाघा न हो जाए, यह डर लगता है। इस साधक की तरह सैकड़ों-हजारों लोगों को उनकी लीला में गीली मिट्टी की तरह उपयोग में आने का सौभाग्य मिला होगा। गुरुदेव ने उन्हें जैसा चाहा, बनाया और दायित्व सौंपे।
महायज्ञ में प्रेरणा या निर्देश के बाद समय आगे बढ़ता है। वह नवयुवक अखबार बेचने, प्रूफ पढ़ने, खबरें लिखने, कंपोज करने जैसे विभिन्न काम करता है। जून 1679 में गुरुदेव मथुरा छोड़कर अज्ञातवास चले गए। वंदनीया माताजी शांतिकुंज से युगदेवता के भिक्षुओं को स्नेह-दुलार बाँटने लगीं। इस युवक ने मान लिया कि गुरुदेव के प्रत्यक्ष दर्शन या संपर्क में आना अपने नसीब में अब शायद नहीं है। अखबार से जुड़े हुए हर तरह के काम करते हुए प्रसन्नता ही होती थी कि उन्हीं का आदेश पालन किया जा रहा है।
1672 में अपने ही क्षेत्र से प्रकाशित एक दैनिक के गणतंत्र दिवस विशेषांक में एक लेख छापा। लेख अपने इष्ट-आराध्य के संबंध में ही था, क्या लिखा था, क्या दृष्टि थी, वह अब याद नहीं है। इतना जरूर याद है कि इसमें गुरुदेव के प्रति शिकायत और थोड़ी-सी आलोचना भी थी। आलोचना का स्वर उस पुत्र की तरह था, जिसे पिता किन्हीं दूसरी जिम्मेदारियों के कारण छोड़ गया हो। होंगी जिम्मेदारियाँ बड़ी, लेकिन पिता के निर्णय से पुत्र का मन तो आहत हुआ है। खैर, स्वर जो भी रहा हो, लेख छपने के सप्ताह भर बाद वंदनीया माताजी का पत्र आ गया।
परमपूज्य गुरुदेव के लीला-प्रसंगों के इस अंक के संस्करण को दो भागों में बाँटा है। प्रस्तुत अनुभूति ‘ज्योतिर्मय’ नामक एक ऐसे साधक की है, जो आगर मालवा से उभरकर आया एवं गुरुदेव का वात्सल्य-मार्गदर्शन पाकर प्रज्ञा अभियान, युग निर्माण योजना का उपसंपादक भी बना। अभी उसी स्तर पर वह शाँतिकुँज के लिए पूर्णतः समर्पित हो दिल्ली में पत्रकार जगत् में सक्रिय है। प्रस्तुत है उन्हीं की लेखनी से उनकी अनुभूति।
आशीर्वाद के साथ आश्वासन भी कि गुरुदेव का संरक्षण-सान्निध्य मिलता रहेगा, हो सके तो अपने आपको उनके हाथ में सौंपने की मनःस्थिति बनाओ। तैयारी करो।
इस निर्देश-आदेश की परिणति शांतिकुंज बुलाए जाने के रूप में हुई। आगे क्या करना है? इस बारे में कुछ भी तय नहीं था। रास्ते में बहुतेरे सवाल उठे। क्या करेंगे? माताजी क्या कहेंगी? वहीं रहना है या कोई शिक्षण-प्रशिक्षण लेकर लौट आना है? गुरुदेव अपने स्पर्श और सान्निध्य से कुछ- का-कुछ बनाकर भेजेंगे या की गई शिकायत के लिए डाँट खानी पड़ेगी। सैकड़ों प्रश्न उठे होंगे, लेकिन सभी धूल कणों की तरह कुछ देर तैरते रहते और अपने आप बैठ जाते थे। प्रश्न जिस तरह उठते, उसी तरह तिरोहित भी हो जाते।
1679 में सितंबर महीने की कोई तारीख थी। शाँतिकुँज में पूज्य गुरुदेव ओर वंदनीया माताजी का एक साथ आदेश हुआ, कुछ समय यहीं रहो। लेखन का अभ्यास करो। उसी तीर्थनगरी में हुए महायज्ञ और उस अवसर पर मिले आश्वासन की याद आ गई। गुरुदेव ने क्या कहा, उसे सुनते हुए मन, बुद्धि, चित और अंतःकरण में कितने ही भाव, विचार, संकल्प-विकल्प और संस्कारों की हिलोरें उठने लगीं। यहीं रहने का मन बना लिया। मन बना क्या लिया वह पहले ही तैयार था।
घर से माता−पिता ने कई बार पत्र लिखकर पूछा। कब तक वहीं रहना है। उस बारे में गुरुदेव से कुछ पूछने का साहस ही नहीं होता। एक ओर यह उद्दंडता का परिचायक भी लगता था, दूसरी ओर यह डर भी था कि कहीं जाने के लिए कह न दें। उधर माता-पिता के पत्रों का दबाव भी था। अजीब असमंजस की स्थिति थी। एक दिन गुरुदेव ने स्वयं ही कहा, तुम्हारे माता-पिता सोचते होंगे कि लड़का कब तक वहाँ रहेगा? फिर उत्तर सुनने के लिए रुके बिना, तुम्हारा अपना क्या मन है? युवक ने कहा, कुछ सोचा नहीं है। मैं लेखक-पत्रकार बनना चाहता हूँ।
गुरुदेव ने कहा, तब तो हम लोगों का अच्छा साथ रहेगा। मैं भी लेखक और पत्रकार ही हूँ। सचमुच स्वयं को यही मानता हूँ सिद्ध योगी मानते हैं, संत समझते हैं, गुरुदेव कहते हैं, आचार्य और विद्वान् कहते हैं, स्वतंत्रता सेनानी और समाज-सुधारक के रूप में भी देखते हैं, लेकिन स्वयं अपने आपको लेखक ही मानता हूँ। उन्नीस-बीस वर्ष के इस युवक का उत्साह बढ़ाने के लिए गुरुदेव जिस तरह व्यथित कर रहे थे, उससे अपने आप पर बहुत शर्म आ रही थी। कोल- किरातों और आदिवासियों का मनोबल बढ़ते हुए भगवान् राम ने जिस तरह अपने आपको उन्हीं की जीवनशैली में ढाल लिया। इसे भगवान् की महिमा और कोल- किरातों का सौभाग्य लिखने- बताने में किसी को संकोच नहीं होगा। लेकिन इस समय उन जंगली लोगों की आँखें धरती में ही क्यों गड़ी जा रहीं थीं, वे नजरें क्यों नहीं उठा पा रहे थे, उसकी अनुभूति गुरुदेव को सुनते हुए हो रही थी। गुरुदेव ने कहा, घर जाकर क्या करोगे? कहीं नौकरी ही करोगे न। पिता के व्यवसाय में हाथ बँटा लोगे। उन पचड़ों में पड़ने के बजाय यहीं रहो। सुख-सुविधाएँ नहीं हैं, लेकिन रूखे-सूखे की कमी नहीं रहेगी, गुजारा कैसा भी हो। यह मान सकते हो कि हम सब एक ही नाव के सवार हैं।
गुरुदेव के ये आश्वासन वरदान की तरह लग रहे थे। माता-पिता को अपने संकल्प के बारे में बता दिया। उन्होंने भी मान लिया। करीब दस वर्ष तक गुरुदेव के प्रत्यक्ष सान्निध्य में रहने का सौभाग्य मिला। उनसे पाया था, उसे दूसरों में बाँटने के लिए उन्हीं के निर्देशानुसार आश्रम से बाहर की दुनिया में प्रवेश किया, जो कुछ हो सका या नहीं हो पाया, उसकी दास्तान सुनाने की जरूरत नहीं हैं घटनाएँ और तथ्य बहुत हैं। उनमें से तीन-चार का विवरण पर्याप्त है।
पूज्य गुरुदेव और वंदनीया माताजी के सान्निध्य में रहते हुए घर जाने का मन बहुत होता था। साल में एकाध बार आठ-दस दिन के लिए जाना होता। माता-पिता का मन नहीं भरता था। कभी-कभार अपने परिवार को देखने वे भी आ जाते। सन् 1679 में पिताजी को एक गंभीर बीमारी ने घेरा। काफी इलाज कराया, लेकिन कोई लाभ नहीं। एक अवस्था यही आ गई कि सब निराश हो चले। बीच-बीच में उन्हें देखने जाना होता था। उनके संबंध में अंतिम संवाद टेलीग्राम के रूप में आया। गाँव-कस्बों की संस्कृति में व किसी की हालत गंभीर होने का तार भेजने का अर्थ था, निधन की सूचना। तार पढ़कर गुरुदेव के सामने ही रुलाई फूट पड़ी। उन्होंने कहा, तुरंत घर चले जाओ। तुम्हारे पिता की मृत्यु नहीं हुई है, तुम उनके साथ चालीस दिन रह सकोगे। उनकी सेवा करना। वे तुमसे संतुष्ट होने के बाद ही संसार छोड़ेंगे। घर जाना हुआ, तो पाया कि पिता रोग से बुरी तरह आक्राँत हैं माँ और भाइयों ने बताया कि अचानक हालत बिगड़ जाने के बाद ही तार किया था। बहुत याद कर रहे थे। अचानक उनकी स्थिति में सुधार आ गया है। अब वे चिंतित और दुखी नहीं हैं। अपने पौत्र को देखकर प्रसन्न हैं। चार-छह दिन बार उन्हें लेकर बाजार भी जाने लगे हैं। शाँतिकुँज से घर आने के करीब पाँच सप्ताह बाद उनकी हालत बिगड़ने लगी। चार-पाँच दिन बाद वे चल बसे।
सन् 1679 में इन पंक्तियों के लेखक को गंभीर हृदय रोग ने आ घेरा। माइटल स्टिनोसिस नाम की इस बीमारी का इलाज ऑपरेशन के सिवा कुछ था ही नहीं। गुरुदेव ने हमेशा यही कहा कि इसकी कोई जरूरत नहीं। जब तक हम इधर हैं, इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। तो भी ऑपरेशन नहीं होगा, एकाध बार कोशिश की भी सही, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस में भरती भी हुआ, लेकिन ऑपरेशन टल गया। 1679 में हृदय में आघात हुआ। तब भी कुछ नहीं बिगड़ा। डॉक्टर ने तब भी कहा कि ऑपरेशन करा लेना चाहिए। गने तब भी कहा, जरूरत नहीं हैं, जिस समय कहते हैं शरीर निष्प्राण था, गुरुदेव ने वक्षस्थल पर हाथ रखा और हलकी धड़कनें लौट आई। उस आघात के तीन-चार दिन बाद शांतिकुंज में गुरुदेव ने अपने कक्ष में बुलाया। तीसरी मंजिल तक आराम से सीढ़ियाँ चढ़ लीं।
गुरुदेव ने कहा, जब तक मैं उस शरीर में हूँ, तब तक रोग तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ जाएगा। उसके बाद भी लंबे समय तक ठीक-ठाक ही रहोगे। आयु पूरी होने के बाद ही जाना है। असमय मृत्यु नहीं होगी। हो सकता है पंद्रह-बीस साल बाद रोग फिर उभरे, लेकिन सब ठीक होगा, चिंता करने की जरूरत नहीं है। अपने काम पर ध्यान दो। सन् 1679 के बाद रोग ने फिर नहीं सताया। गुरुदेव ने 1660 में शरीर छोड़ा। चार-पाँच साल बाद कुछ परेशानी होने लगी। 1669 में एक मामूली ऑपरेशन की जरूरत पड़ी, उसकी व्यवस्था भी सहज ही बन गई। ऐसा लगा मानो सारी व्यवस्था पूज्यवर कर रहें हैं। शरीर फिर अपने ढर्रे पर काम करने लगा। यह रहस्य अभी तक समझ में नहीं आया है कि 1669 में आश्विन नवरात्रि शुरू होते ही रोग ने हमला क्यों किया, तुरत-फुरत इंतजाम हो गए, डॉक्टर जिस ऑपरेशन को जटिल मान रहे थे और कुछ भी होने की आशंका कर रहे थे, वह सहज ही कैसे संपन्न हो गया। ऑपरेशन के समय कुछ दृश्य मानस पटल पर उभरकर आ गए। उनमें एक शांतिकुंज में समाधि के पास खड़े गुरुदेव आश्वस्त करते दिखाई देने का है। दूसरी अनुभूति अपने आस-पास यज्ञ के समय व्याप्त होने बाली सफगंध की है और तीसरा दृश्य स्मित उल्लास बिखेरती हुई एक आकृति का हैं।
गुरुदेव की किसी ऐसी लीला का स्मरण इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है, जिन्हें, रोमाँचित करने वालो की श्रेणी में न रखा जा सकें किन्हीं सौभाग्यशालियों को वैसे अनुभव हुए होंगे, लेकिन यह भी कम बड़ा सौभाग्य नहीं है कि गुरुदेव मार्गदर्शक, संरक्षक और उद्धारक के रूप में पल-पतिपल अपने चारों ओर व्याप्त दिखाई दिए। उस लिखी प्रतिनिधि घटनाओं की तरह कितनी ही अनुभूतियाँ हैं। वे सभी इस आस्था को दृढ़ करती हैं कि गुरुदेव ने लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ दायित्व सौंपे हैं। उन दायित्वों को पूरा करना है। सफलता मिलती है या नहीं, यह गुरुदेव ही जानें।
वर्षों से पत्रकारिता की राष्ट्रीय मुख्य धारा में रहते हुए जो कुछ किया जा सका, उसके लिए स्वयं को संतोष नहीं होता। फिर भी दो-एक बातें कही जा सकती है। एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि अब अखबारों को अपने यहाँ धर्म संवाददाता-संपादक की जरूरत महसूस होने लगी है। लोग ‘रिलीजनय एडीटर’ रख रहे। इसलिए कि समाज के जीवन में बह रही धर्मधारा को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उसे नोटिस में लाने योग्य बनाने का श्रेय किसी को जाता है, तो वह आचार्य श्रीराम शर्मा का स्कूल (विद्या परंपरा) ही है। गुरुदेव ने अपने कुछ शिष्यों को इस प्रयोगशाला में गढ़ा और सँवारा हैं। गुरुदेव के सान्निध्य में जिन दिनों लेखन-प्रशिक्षण चलता था, उन दिनों की कुछ बातें अविस्मरणीय हैं। इस अकिंचन ने एक साहित्यिक पत्रिका में ईश्वर की मृत्यु हो जाने की घोषणा करता हुआ लेख लिखा था। लेख छपा और कई लोगों ने हो-हल्ला मचाया। गुरुदेव से शिकायत भी कि हम लोग जो लिखते और कहते हैं, यह उसके विरुद्ध जाता है। लिखने वाले को रोकना चाहिए। गुरुदेव ने लेख पढ़ा, पढ़कर मुस्कराए और कहा, यह किसी के विरुद्ध नहीं है, बल्कि एक वैचारिक बहस का आमंत्रण है। अखण्ड ज्योति में भी इस विषय पर कुछ छपना चाहिए। नास्तिकता, ईष्वरवीयश्वास के दुरुपयोग और प्रच्छन्न वास्तविकता आदि विषयों पर गुरुदेव ने स्वयं तीन-चार लेख हैं। किसी भी अभिभावक, आचार्य अथवा गुरु में है इस तरह का साहस और खुलापन?
काली परछाइयों से मत डरो। वे बताती हैं आसपास ही कहीं प्रकाश की सत्ता मौजूद हैं।