Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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पाश्चात्य जगत् भी चमत्कृत रहा है आर्ष वाङ्मय से
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मानवीय चेतना के विकास की निम्नता अथवा उच्चता ही वह कारण है जिसकी वजह से विचार निम्न अथवा उच्च होते हैं। इसी कारण पूर्व काल में अनेक तरह की आध्यात्मिक साधनाओं की खोज की गई, ताकि इनका अवलंबन लेकर मानवीय चेतना को विकसित करने हेतु विचारों के उच्चतम प्रवाह को धारण किया जा सके। विचारों की अपनी बहुमूल्य संपदा के कारण ही विश्व मानव की सर्वतोमुखी प्रगति में भारत ने सदा से अजस्र अनुदान दिए हैं।
विचारों की इसी अमूल्य संपदा की वजह से अरबों ने भारत से वेदाँत, दर्शन, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, रसायनशास्त्र और प्रशासन कला का ज्ञान प्राप्त किया। पश्चिमी दर्शन का जनक समझे जाने वाले यूनान में विचारों का विकास भारतीय विचारों और विचारकों के प्रभाव से ही हुआ। इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए प्रोफेसर मैक्समूलर ने लिखा हैं, ‘यूनानियों को जितना अधिक भारत की दार्शनिक प्रकृति ने प्रभावित किया, उतना किसी अन्य ने नहीं।’ भारतवर्ष की प्राचीन दार्शनिक प्रवृत्ति की प्राण प्रतिष्ठा उपनिषदों में मिलती है। एडवर्ड टेलर ने स्पष्ट किया है कि यूनानी दर्शन उपनिषदों का ऋणी है। इस संबंध में थ्रेस भी एकमत हैं। भारतीय विचारधारा के प्रभाव से न केवल पश्चिमी क्षितिज पर विचारों का उदय हुआ, बल्कि बाद में भी पश्चिमी विचार और विचारक भारतीय विचारों के प्रभाव से प्रभावित होते रहे।
सबसे पहले भारतीय विचारों पर शोध-प्रबंध प्रस्तुत करने वाले यूरोपीय विद्वान् अलेक्जेन्डर ही थे। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में इस विषय पर विशद प्रकाश डाला। वारेन हेस्टिंग्स की प्रेरणा से भारतीय साहित्य का ज्ञान अर्जित करने वाले प्रथम अँग्रेज चार्ल्स विल्किन्स थे। इन्होंने बंगाल की एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। यूरोप में संस्कृत पाँडित्य के जन्मदाता एच. टी. कोलब्रुक ने कहा है कि पाइथागोरस से लेकर उस समय तक कोई ऐसा विदेशी विद्वान नहीं हुआ, जिसको भारतीयता के विषय में विल्किन्स से अधिक ज्ञान हुआ। हेनरी टॉमस कोलब्रुक ने भारत के दार्शनिक साहित्य के अतिरिक्त यहाँ के वैज्ञानिक साहित्य पर भी शोध किया। मैक्समूलर का कथन है कि यदि कोलब्रुक जर्मनी में हुए होते तो बहुत पहले ही उनकी जन्मभूमि पर उनकी प्रतिभा प्रतिष्ठित हो गई होगी, अकादमियों की दीवारों पर उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा होता।
अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में फ्राँस भी भारतीय विचार प्रणाली में रुचि लेने लगा था। 1917 में फ्राँस के बादशाह के पुस्तकालयाध्यक्ष बिगनन ने अधीनस्थों से कहा था कि भारत में तथा ऐसे देशों में जहाँ भारतीय विचारधारा अपनाई गई हो, जितनी दर्शन, अध्यात्म व विज्ञान की पुस्तकें, ग्रंथ मिलें, उन्हें खरीद लाएँ। इस प्रयत्न में कालमेत नामक विद्वान् ने ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद की प्रतिलिपियाँ तो प्राप्त कर लीं, परंतु चौथा अथर्ववेद उसे प्राप्त न हो सका। फ्राँस निवासियों को भारतीय विचारधारा और इतिहास की जानकारी अरबी, फारसी, चीनी, ग्रीक और लैटिन पुस्तकों से मिलती रहती थी। भारतीय सामग्री संग्रह करने का यह काम बाद में भी जारी रहा और जोसेफ दे गुहेन ने अभारतीय क्षेत्रों से यथासंभव सभी सामग्री जुटा ली। इस कार्य में उनको पाँडिचेरी के तमिल विद्वान् मारिदास पिल्लै का अमूल्य सहयोग मिला। पिल्लै लैटिन और फ्रेंच भाषा के अच्छे जानकार थे।
1917 के आसपास ही एन. क्वेति दयु पेरो (1931-1705) भारत आए और 1936 में मुगल शाहजादा दाराशिकोह के लिए फारसी में अनूदित उपनिषदों के आधार पर उन्होंने उनका यूरोपीय अनुवाद लैटिन भाषा में किया। विल्किन्स द्वारा भगवद्गीता और दयु पेरो के माध्यम से उपनिषदों के अनुवाद ‘आप निखेत’ से पाश्चात्य विचारकों को भारतीय दर्शन के मूल ग्रंथों के पाठ उपलब्ध हो गए।
लियोनार्ड द रोजी ने भी अन्य समसामयिक फ्राँसीसी विचारकों की भाँति यहाँ अनुभव किया कि यूरोप को भारतीय दर्शन की उपलब्धियों से परिचित होना चाहिए। तुलनात्मक भाषा विज्ञान के जन्मदाता फ्रैंज ब्राँय और आगस्ट श्लेगल तथा उनके फ्राँसीसी शिष्यों में ल्वायसेल्यु दे लाँग शैम्प हुए। इन्होंने मनुस्मृति और अमरकोष प्रकाशित किया। दूसरे शिष्य लैंगल्वा ने ऋग्वेद और हरिवंश पुराण के मूल पाठों से सीधा अनुवाद किया। परंतु सबसे प्रसिद्ध युगीन बरनाफ हुए। इनके बहुत से प्रसिद्ध शिष्यों में मैक्समूलर भी एक थे। इसी बीच 1922 में अपने ही देश की एक ‘सोशियन एशियाटिक’ संस्था की स्थापना पेरिस में हुई।
इसके माध्यम से बहुत से विद्वान भारतीय दर्शन में रुचि लेने लगे। इन्हीं में से एक बरनाफ से सहकर्मी बार्थेलेमि संत हेलारी भी थे। उन्होंने भारतीय दर्शन की न्याय और साँख्य शाखाओं में अपना महत्वपूर्ण अध्ययन प्रकाशित कराया।
1969 में इकोल दे हाँत एत्यूदे की स्थापना के बाद भारतीय विचारधारा के अध्ययन के लिए एक नया केंद्र खुल गया। यहाँ काम करने वाले मनीषियों में आगस्त बार्थ और एवेलस बरगाइन और एमिली सेनार्त मुख्य थे। बरगाइन ने एक युगाँतरकारी पुस्तक ‘द वैदिन रिलीजन एकार्डिग टु दू हिक्स ऑफ ऋग्वेद’ लिखी।
ब्रिटेन व फ्राँस के समान जर्मनी का भारत के साथ राजनैतिक संबंध बिलकुल नहीं रहा, फिर भी उन्होंने अत्यंत उत्साह के साथ संस्कृत को अपनाया और भारतीय दर्शन के प्रभाव को स्वीकार किया। सन् 1909 में फ्रेडरिक वान श्लेगेल ने अपनी पुस्तक ‘उबेर डाई स्प्रेशे एण्ड विशिष्ट दर इंदेर ‘ भारतीयों की भाषा और दर्शन पर लिखी और जर्मनी में भारतीय विचारधारा के संस्थापक बन गए। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि विश्व चिंतन का सही इतिहास भारतीय चिंतन के बिना नहीं लिखा जा सकता । उनके भाई आगस्ट विल्हेण वान श्लेगेल ने भगवद्गीता का मूल पाठ लैटिन अनुवाद सहित संपादित किया।
यूरोप पर भारतीय दर्शन एवं चिंतन के प्रभाव के बारे में मैक्डेनल ने लिखा है कि नवजागरण के बाद विश्व के साँस्कृतिक मंच पर यदि कोई सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जा सकती है, तो वह है 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुई संस्कृत साहित्य की जानकारी। भारतीय दर्शन और साहित्य का यूरोप में सबसे अच्छा स्वागत जर्मनी में हुआ। यहाँ के विद्वान् जोहान गोट फ्रीड हर्डर ने 1996 में प्रकाशित अपनी मुख्य कृति आइडियाज ऑन ए फिलॉसफी ऑफ द हिस्ट्री ऑफ मेनकाइंड में भारतीयों का एक आदर्श चित्र प्रस्तुत किया। हर्डर के मित्र और प्रख्यात कवि जोहान वुल्फ गाँग वाल गेटे ने अपने चिंतन व जीवन में भारतीय साहित्य के प्रभाव को स्वीकारा है। उन्होंने अभिज्ञान शाकुँतलम् के बारे में उल्लेख किया है कि यह मेरे जीवन में एक युग का प्रतीक है। एलेक्स एराँन्सन के अनुसार ऐसे प्रतिभावान विद्वान् को जब तक प्राच्य विद्या दृढ़ आधार के रूप में प्राप्त न होती, तब तक वह उसका सहारा लेकर अपनी कल्पना को अपनी कृतियों में कैसे साकार करता।
श्लेगेल बंधु तो भारतीय दर्शन से इतना अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने कहा कि वह प्रत्येक धर्मान्वेषी को यही परामर्श देंगे कि जिस प्रकार कला का अध्ययन करने के लिए इटली जाना आवश्यक है, उसी प्रकार धर्म-दर्शन के लिए भारत जाना चाहिए। वहाँ कुछ ऐसे धर्म के अंश अवश्य मिलेंगे, जिन्हें देखने के लिए यूरोप में भटकना व्यर्थ है। भारतीय चिंतन में रस लेने वाले विद्वानों में प्रतिभाशाली, भाषाशास्त्री एवं प्रशिया शिक्षामंत्री वान हलवोल्ट भी थे। उन्होंने परमात्मा को जीवन प्रदान करने के लिए धन्यवाद किया कि वह भारतीय दर्शन का अध्ययन कर सके।
इमैनुअल काँट (1912-1904) प्रथम प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक थे। जिन्होंने अपने चिंतन में भारतीय प्रभाव को स्वीकारा। काँट द्वारा प्रतिपादित दिक् और काल के मध्य प्राकृतिक जगत् और उससे परे अगम्यमूल वस्तु के भेद बहुत कुछ मायावाद के समान है। श्वेर बातस्की ने स्पष्ट किया है कि काँट द्वारा निरूपित शुद्धि-बुद्धि सिद्धांत का प्रतिरूप भारतीय दर्शन में है। इसके अतिरिक्त हरमन जैकोवी के मतानुसार काँट के ‘एस्थेटिक्स’ को भारतीय लेखक काव्य शास्त्र में बहुत पहले व्यक्त कर चुके हैं। इसी प्रकार काँट के उत्तराधिकारी जोहान गाँट लीव फिक्टे (1963-1924) ने अपनी ‘हिण्ट्स फॉर ब्लेसेड लाइफ’ ग्रंथ में अद्वैतवाद से मिलते-जुलते अनुच्छेद सम्मिलित किए हैं। काँट और फिक्टे तो मूल संस्कृत ग्रंथों से परिचित नहीं थे, परंतु आर्थर शोपनहावर को किसी सीमा तक इनका ज्ञान अवश्य था। उन्होंने ‘द वर्ल्ड एज विल एंड आइडिया’ में भारतीय दर्शन के आधार को स्पष्ट रूप से स्वीकारा है। शोपेनहावर ने औषनिषद् दर्शन से प्रभावित होकर इसको मानव बुद्धि की सर्वश्रेष्ठ उपज घोषित किया। उनका विचार था कि भारतीय चिंतन और दर्शन अवश्य ही यूरोपीय ज्ञान और दर्शन में गंभीर परिवर्तन ले आएगा। यही नहीं उन्होंने भारतीयों को यूरोपियनों की अपेक्षा अधिक गंभीर विचारक माना, क्योंकि वे जगत् को आँतरिक एवं सहजानुभूत कहकर उसकी व्याख्या करते हैं और यूरोपीय विचारकों की तरह उसको बाह्य एवं बुद्धिगम्य नहीं मानते। एक अन्य जर्मन दार्शनिक कार्ल क्रिश्चियन फ्रेडरिक ब्रासे (1971-1930) भी भारतीय दर्शन काफी अधिक प्रभावित थे। पाल डायसन (1943-1999) तो यूरोपीय दर्शन एवं भारतीय विद्या के महान् ज्ञाता थे। वे वेदाँत दर्शन के प्रति अत्यधिक आकृष्ट थे। उपनिषदों के मूल पाठ को जर्मन भाषा में अनुवाद और उनकी व्याख्या करके उन्होंने यूरोपीय विचारकों के लिए भारतीय दर्शन को समझना सुलभ कर दिया।
भारतीय चिंतन की प्रतिध्वनियाँ ऐसे देशों में भी सुनी गयीं, जिनका भारत से केवल औपचारिक संबंध था। रुमानिया के महाकवि मिहाई एसिनेस्क्यू (1950-1997) की कविताओं में वैदिक दर्शन की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी कविताओं के कितने ही अंश तो संस्कृत मूल के रूमानी रूपांतर जान पड़ते हैं। उन्होंने अपने साहित्य में भारतीय प्रतीकों को भी अपनाया है। यह भारत के प्राचीन साहित्य से उनके गहरे ज्ञान का द्योतक है। रूस के पूर्वी विस्तार से बहुत पहले ही रूसी चैदेव ने 2740 में कह दिया था कि हम पूर्व की लाड़ली संतान हैं। हम सब तरह से पूर्व से संबद्ध हैं। हमने अपने विश्वास, नियम और गुण वहीं से प्राप्त किए हैं।
लियों टॉलस्टाय (1929-1920) ने भारत का समर्थन अत्यंत संवेदनात्मक ढंग से किया है। 1909 में महात्मा गाँधी के नाम ‘लेटर टू ए हिंदू’ में टॉलस्टाय ने उपनिषदों, भगवद्गीता, तमिल ग्रंथ कुराल और विवेकानंद के लेखों सहित आधुनिक धार्मिक उपदेशों का भी उल्लेख किया था।
भारतीय चिंतन ने उन्नीसवीं शताब्दी में इंग्लैंड और जर्मनी को ही नहीं, सुदूर अमेरिका को भी प्रभावित किया था। रैल्फ वाल्डो एमर्सन (1903-1992) द्वारा प्रवर्तित शाँति आँदोलन इसका एक साफ प्रमाण है। भारतीय दर्शन के पुनर्जन्म सिद्धांत से विशेष आकर्षित हुए दूसरे अमेरिकन जिनका ध्यान भारत की ओर गया, हेनरी डविड थोरो (1918-1962) थे। वे भारतीयता के रंग में इतने रँग गए थे कि उन्होंने सनातन हिंदू जीवनचर्या भी अपना ली थी। वे कहते हैं, भारतीय दर्शन से मेरा इतना प्रेम है, तो मेरे लिए चावल का आहार ही उपयुक्त है। अमेरिका के बौद्धिक स्वतंत्रता का नेता वाल्ट व्हिटमैन (1919-1862) भी भारतीय चिंतन से प्रभावित होने वालों में थे। अपनी कुछ कविताओं में उन्होंने हिंदू रहस्यवाद में प्रत्यक्ष रुचि अभिव्यक्त की है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण उनकी ‘पैसेज टू इंडिया’ कविता है। जिसमें उन्होंने यह भाव व्यक्त किया है कि मनुष्य की आत्मा और विश्वात्मा एक ही है।
अमेरिका में ईसाइयों ने जो विज्ञान आँदोलन चलाया, उसमें भी भारतीय प्रभाव स्पष्टतः आलोकित है। इस आँदोलन की जन्मदात्री मेरी बेकर एंडी वेदाँतियों की तरह यह मानती थी कि जगत् दुःख और असत्मय है। इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए सत्य की अनुभूति आवश्यक है।
पाश्चात्य विद्वानों में रोमाँ रोलाँ के अलावा विलियम बटलर यीट्स, सी.एस. इलियट, एडवर्ड कारपेंटर, हैलाँक, एलिस, आल्डुअस हक्सले और डी. एच. लारेन्स आदि साहित्यकारों के विचारों में भारतीय विचारों का स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है।
भारतीय विचारधारा का यह प्रभाव पश्चिमी दर्शन और साहित्य तक ही सीमित नहीं है। वहाँ के वैज्ञानिकों ने भी इसके प्रभाव को स्वीकारा है। इस क्रम में ऋषियों की चिंतन संपदा के वेदांत दर्शन ने क्वाँटम भौतिकी के वैज्ञानिक वारनर हाइज़ेनबर्ग की सोच में व्यापक उलटफेर कर दी। उनके अनिश्चितता के सिद्धांत में वेदाँत तत्व की ही व्याख्या है कि पदार्थ का स्वरूप प्रतिक्षण अनिश्चित है। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘फिजिक्स एंड फिलॉसफी’ में यहाँ के चिंतन से स्वयं को प्रभावित होने का मार्मिक वर्णन किया है। नील्स बोर और इरविन श्रोडिंगर के स्वरों में भी यही गूँज सुनाई देती है। श्रोडिंगर के वेव्स मेकेनिक्स में वेदाँत वर्णित प्रकृति के अनिश्चित स्वरूप का संकेत मिलता है।
विज्ञान के क्षेत्र में आइन्स्टीन और हाइज़ेनबर्ग के प्रतिमानों को पार करने वाले जियोफेश च्यू ने बूअ स्ट्रैप का अनोखा सिद्धांत दिया है। इनके अनुसार प्रकृति के मौलिक तत्व को विघटित नहीं किया जा सकता। अंत में उन्होंने इसकी स्वीकारोक्ति भी की कि उनके प्रयोग भारत के साँस्कृतिक ज्ञान का सत्यापन भर हैं। च्यू की भाँति डेविड बोम के प्रयोगों का निष्कर्ष अखंडित पूर्णता वेदाँत का ही एक रूप है। उनका ‘अनब्रोकेन होलनेस’ का अभिनव सिद्धांत इसी प्रभाव से प्रेरित है। ग्रेगरी बैटसन के शब्दों में, ‘माइंड विद आउट नर्वस सिस्टम’ बिना स्नायु संस्थान के मन की धारण भी पूर्वी चिंतन से प्राप्त हुई। वैज्ञानिक आर.डी.लैंग के अनुसार पूर्वी चिंतन पूर्णतया वैज्ञानिक है। इसके अलावा स्टेनग्राफ के ‘रील्स ऑफ ह्यूमन कान्शसनेस’ एवं कार्ल गुस्ताव जुँग के प्रयोगों एवं राबर्टो असगोली की’ साइको सिंथेसिस’ में भारतीय चिंतन के प्रभाव स्पष्ट दिखाई देते हैं। वे इस तयि को साफ तौर पर सत्यापित करते हैं कि भारत के अजस्र अनुदानों से ही समूचा विश्व आलोकित-प्रकाशित हुआ है।