Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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भारतीय ही थे विश्व के प्रथम उपदेष्टा
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आज विश्व के अलग-अलग देशों की अपनी संस्कृतियाँ हैं और उनकी एक पृथक पहचान है, पर यदि उनका सूक्ष्म अध्ययन किया जाए, तो किसी-न-किसी स्तर पर, कहीं-न-कहीं उन पर भारतीयता की छाप अवश्य दिखलाई पड़ेगी। यह बात अलग है कि इस प्रकार के चिह्न संपूर्ण विश्व में अब सीमित ही रह गए हैं, पर जो हैं, वह भी यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि पुराकाल में भारतीय संस्कृति विश्वव्यापी थी और उसके ध्वजावाहक ‘आर्य’ ही थे।
इस संबंध में प्रसिद्ध इतिहासकार पोकाँक का कथन उल्लेखनीय है । वे अपने ग्रंथ ‘इंडिया इन ग्रीस’में लिखते है, ‘मैंने सावधान रहकर परिश्रम और सूक्ष्मतापूर्वक जो अध्ययन-विश्लेषण किया है, उससे मैं आश्चर्यचकित हूँ। मैंने शब्दों की एकरूपता और आश्चर्यजनक समानता भी देखी है, उससे अचरज में हूँ और इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यूरोपवासियों के विश्व-भ्रमण से भी पूर्व भारतीय ऋषियों या आर्यों की विश्व-यात्रा संपन्न हो चुकी थी। इसके प्रमाण आज भी विद्यमान हैं।’
अपनी उपर्युक्त पुस्तक में पोकाँक जिन साक्ष्यों की चर्चा करते हैं, वह वास्तुशिल्प, रीति-रिवाज, रहन-सहन, धारणाओं, नामों, भाषायी समानता एवं प्राचीन ग्रंथों तथा दस्तावेजों के उल्लेखों के रूप में विश्वभर में बिखरे पड़े हैं। उन्हें देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अति प्राचीन समय में किसी-न-किसी रूप में वे भारतीय संस्कृति से संबद्ध रहे हों अथवा भारतवंशी ही वहाँ जाकर बस गए हों, जो कालाँतर में एक नई संस्कृति की पहचान लेकर उभरे और उन-उन स्थानों में छा गए। इस संदर्भ में सर्वप्रथम मक्का का उल्लेख करना अनुचित न होगा।
‘हरिहरेश्वर महाहात्म्य’ अध्याय-9 में इस्लाम पूर्व के मक्का का वर्णन करते हुए कहा गया है-
एंक पंद गयायाँ तु मकायाँ तु द्वितीयकम।
तृतीयं स्थापितं दिव्यं मुक्तयै शुमलस्य सन्निधौ॥
अर्थात् विष्णु का एक पद गया में, दूसरा मक्का में तथा तीसरा शुक्ल तीर्थ के समीप स्थापित है। इनके दर्शनों से पितृगण मुक्ति पाते हैं। जानने योग्य तथ्य यह है कि प्राचीन ग्रंथों में मक्का की चर्चा हरिहर क्षेत्र के रूप में हुई है। तब यह हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ था। इस्लाम आधिपत्य के बाद वहाँ की मूल संरचना में काफी कुछ फेर-बदल कर दिया गया।
‘शक्ति संगम तंत्र’ (3,9,4,-56) में लिखा हुआ है कि प्राचीन समय में पाँच ‘प्रस्थ’ विख्यात थे, इंद्रप्रस्थ, यमप्रस्थ, वरुणप्रस्थ, वरुणप्रस्थ, कूर्मप्रस्थ तथा देवप्रस्थ। इनमें कुल 56 देश समाविष्ट थे। उल्लेखों से ज्ञात होता है कि वरुणप्रस्थ का विस्तार तब पूर्व में राजावर्त (राजस्थान), उत्तर में हिंगुला नदी तथा पश्चिम में मक्का तक सुदीर्घ था।
राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के निदेशक डॉ. फतेह सिंह ने अपने शोध-प्रबंध ‘सिंधु घाटी में उपनिषदों के प्रतीक’ में इस बात को सप्रमाण सिद्ध किया है कि प्राचीन ‘आर्यावर्त’ मक्का से लंका तक फैले ‘सैंधव’ नामक सागरतटीय प्रदेश तथा बंगाल की खाड़ी से ब्रह्मपुत्र के उद्गमस्थल तक विस्तृत था। इतने पर भी आर्य संस्कृति सिर्फ इसी भूभाग तक सीमित नहीं थी। उसका व्यापक विस्तार लगभग संपूर्ण पश्चिम एशिया अर्थात् आज के खाड़ी देशों एवं उससे परे तक था। ईरान, अफगानिस्तान एवं अरब में तब आर्य लोग रहते थे। धृतराष्ट्र की पत्नी गाँधारी अफगानिस्तान की थी। उस समय यह ‘गंधार देश’ के नाम से प्रसिद्ध था। पाणिनी व्याकरण के रचयिता महर्षि पाणिनी भी इसी देश के निवासी थे। वहाँ का कंधार प्राँत ‘गंधार’ का ही विकृत रूप है। जैम्पलमेर के भाटी राजाओं के पूर्व गजसिंह का बसाया हुआ शहर ‘गजनी’ अब भी अस्तित्व में है। इसकी चर्या तवारिख जैसलमेर’ (पृ.1-10), पुस्तक में स्पष्ट रूप से की गई है। उसका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि गजबाहु (गजसिंह) ने स्वाँगिया जी की आज्ञा से युधिष्ठिर संवत् 307 में गजनी बसाई थी। इसे निरूपित करने वाला उक्त दोहा उल्लेखनीय है-
तीन सत अतसक धरम, वैशाखे सित तीन।
रवि रोहिणि गजबाहु नै गजनी रची नवीन॥
अपनी रचना ‘महाभारत मीमाँगसा’ में राम बहादुर चिंतामणि लिखते हैं कि इन दिनों काबुल में जो पठान जाति रहती है, वह उत्तरप्रदेश के चंद्रवंशी क्षत्रियों की राजधानी ‘प्रतिष्ठान’ की रहने वाली थी। इसी का अपभ्रंश बाद में पठान हो गया। ये प्रजातंत्र के पोषक थे। इनकी राज्य-व्यवस्था गणों पर आधारित थी। पाँडवों ने इन्हीं गणों में से सात को जीता था-’गणान् उत्सवसंकेतान् दस्यून पर्वत वासिनः। अजयन् सप्त पाँडवाः।’ हर ‘गण’ के कई उपगण थे। यही ‘उपगण’ बाद में बिगड़कर अफगानिस्तान बन गया।
अफगानिस्तान के आगे ईरान है। वहाँ भी हिंदू संस्कृति के वाहक आर्यों की ही बस्ती थी। इस संबंध में मैक्समूलर अपनी कृति ‘साइंस ऑफ लैंग्वेजेज’ में कहते हैं कि यह बात भौगोलिक प्रमाणों से भी सिद्ध है कि पारसी लोग फ रस (ईरान) में आबाद होने से पूर्व भारत में आबाद थे। उत्तर भारत का यह समुदाय बाद में ईरान जा बसा।
ईरान के पश्चिमी खाड़ी के उस पार अरब है। संस्कृति शोधकों ने अरब शब्द की जो व्युत्पत्ति बताई है, वह ध्यान देने योग्य है। वैदिक संस्कृति में घोड़े को ‘अर्वन’ कहा जाता है और जहाँ बहुत अधिक घोड़े रहते हैं, उसे ‘अर्व’ कहते हैं। जिस तरह गायों के चारागाह को ‘व्रज’ भेड़-बकरी वाले देश को ‘गाँधार’ कहते हैं, उसी तर्ज पर उत्तम घोड़ों की प्रचुरता होने के कारण उस देश का नाम ‘अर्व’ या ‘अरब’ पड़ गया। अरब देश में आर्यों से प्रादुर्भूत ‘शेख’ नामक एक जाति, जो मूलतः ब्राह्मणों की अंशधर थी, उसका उल्लेख मनुस्मृति में भी हुआ है-
ब्रात्यातु जायते विप्रात्पापात्मा भृज्जकंटकः।
आवन्त्यवाटधानौ च पुष्पधः शैख एव च॥
‘एशियाटिक रिसर्चेज’ नामक ग्रंथ के 10वें खंड में लिखा हुआ है कि इस्लाम धर्म के प्रचार से पहले अरब में हिंदू धर्म का बोलबाला था। रामानुज संप्रदाय के मूल प्रचारक यवनाचार्य यहीं से 1 वीं शताब्दी में भारत आए। उनका जन्म अरब के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और अलेक्जेंड्रिया के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में उन्होंने शिक्षा पाई थी।
राहुल साँकृत्यायन ने अपनी रचना ‘दर्शन दिग्दर्शन’ में इस बात की चर्चा की है कि काबा के मंदिरों के 326 विग्रह इस्लाम काल में तोड़ डाले गए थे, किंतु वहाँ जाने वाले बताते हैं कि अब भी वहाँ कितने चिह्न मौजूद हैं।
राजाओं के हिंदू नाम भी इस बात के द्योतक हैं कि उन क्षेत्रों में पूर्व आर्य जाति ही रहती थी। इस संबंध में असीरिया के सम्राटों के नाम द्रष्टव्य हैं, सुवरदत, जशदत, सुबंधि। यह नाम एकदम भारतीय हैं। इसके अतिरिक्त असुर नासिरपाल, असुरवाणी पाल भी विचारणीय हैं। मिश्र और अरब के सम्राट् वाणासुर (बनिपाल) की पुत्री ऊषा का विवाह भगवान् कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से हुआ था। जो 1300-1400 ई.पू. के मध्य राज्य करता था। ऐसे ही मेसोपोटामिया के एक शासक का नाम दशरथ था, वहाँ का एक अन्य राजा हरि था। मेसोपोटामिया में उत्खनन के दौरान जो पुरातात्त्विक सामग्रियाँ मिली हैं, वह भारतीय शैली की हैं। इससे स्पष्ट हैं, वहाँ के निवासी भारतीय आर्य ही थे।
जूड़िया यहूदियों का नगर हैं। यहीं पर ईसा और मूसा हुए। दोनों का उत्तरार्द्ध जीवन भारत में बीता और दोनों दिवंगत भी यहीं हुए। दोनों की पहलगाव, कश्मीर में आस-पास ही कब्रें हैं। ईसा की कब्र पर हिब्रू भाषा में ‘योशूवा’ लिखा हुआ है। यहूदी लोग उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। ‘जेसस’ तो इसका ग्रीक रूपांतरण है। इससे भी यही संकेत मिलता है कि दोनों आर्य परंपरा के लोग थे और आर्यावर्त से उनका गहरा लगाव था। बाइबिल (जेनिसिस, अध्याय-11) में भी यह लिखा हुआ है कि यहाँ के लोग एक ही भाषा-भाषी थे। वे सब पूर्व से आए।
पोकाँक समेत कई विद्वानों का मत है कि जूड़िया में बसने वाले लोग और कोई नहीं यदुवंशी ही थे। ऐसा माना जाता है कि महाभारत युद्ध के कुछ ही समय बाद कृष्ण की नगरी द्वारिका समुद्र में डूब गई। तब वहाँ के निवासी (यदुवंशी) बारह समूहों में बँटकर विश्व के विभिन्न भागों में जा बसे। वर्तमान यहूदी वंश वास्तव में यदुवंश ही है, ऐसा वे मानते हैं। वे (यहूदी) अपनी काल गणना ई.पू. 3960 से प्रारंभ करते हैं। शायद यह उनका द्वारिका छोड़ने का संभावित वर्ष हो।
पिछले दिनों इजरायल में एक सुरंग निर्माण के दौरान हुई खुदाई में 903 ग्राम वजन का एक बाट मिला है। सीसे से निर्मित इस बाट के दोनों ओर हिब्रू भाषा में ‘बार कोछबा’ नाम छपा है, जिसे रोमनों के विरुद्ध हुई यहूदी क्राँति का नेता माना जाता है। बैट गोवरिन के उत्तर में यहूदी पहाड़ियों के तल में जिस स्थान से यह बाट मिला है, वहाँ के बारे में विश्वास किया जाता है कि यहूदी क्राँति के दौरान यहूदी परिवारों ने यहीं शरण ली थी।
इस बाट की विशेषता यह है कि इस पर षड्दल कमल की आकृति बनी हुई हैं, जो भारतीय संस्कृति को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। यह समाचार ‘इजरायल टुडे’ के सितंबर-अक्टूबर 1999 के अंक में छपा था।
अपनी पुस्तक ‘मानवेर जन्मभूमि’ में बाबू उमेश चंद्र विद्यारत्न लिखते हैं कि राजा सगर की आज्ञा से यवनों (क्षत्रियों) ने जिस ‘पल्ली’ नामक स्थान में अपना निवास बनाया, वहीं ‘पेलिस्टाइन’ हो गया। कई विद्वानों का मत है कि वैदिक ऋषि ‘पुलस्तिन’ का वहाँ आश्रम होने के कारण ही उसका यह नाम पड़ा ।
कश्यप सागर (कैस्पियन सी) के पश्चिमी तट पर अजर बैजान की राजधानी ‘बाकू’ है। वहाँ ज्वालामुखी देवी का एक अत्यंत प्राचीन मंदिर है। वहाँ पर संस्कृत का एक शिलालेख भी है। उल्लेखों से ऐसा ज्ञात होता है कि 1924 तक उसमें भारतीय पुजारी रहता था, जो मुलतान का निवासी था।
ऐसा ही वर्णन बोंगाई लेविन एवं विगासिन की पुस्तक ‘भारत की छवि’ जो प्रगति प्रकाशन, मास्को से प्रकाशित हुई है, में मिलता है। उसमें कहा गया है कि बाकू में एक हिंदू मंदिर बनाया गया था, जिसमें यहाँ आने-जाने वाले भारतीय पूजा करते थे। उसमें इस बात की भी चर्चा है कि काकेशिया में बसने वाली ‘ओसेतिन’ जाति का वेदों के स्न्नजेता आर्यों से निकट का रिश्ता है।
‘थियाँगनी’ ऑफ हिंदूज’ ग्रंथ में काउंट जार्नस्टजर्ना ने कहा है कि खाल्डियन तथा वेबिलोनियन मूलतया मूर्तिपूजक राजपूत हिंदू थे। वहाँ के सूर्य मंदिर के अवशेषों के अध्ययन के आधार पर उन्होंने यह प्रतिपादित किया है कि 4000 वर्ष ई.पू. वहाँ सूर्य की उपासना होती थी। जार्नस्टजर्ना एक स्कैडिनेवियाई हैं। वे अपनी उक्त रचना में लिखते हैं कि सात वारों के स्कैंडिनेवियन नाम उनके भारतीय नामों से बहुत मिलते हैं। इस आधार पर परोक्ष रूप से उन्होंने यही कहना चाहा है कि भारतीयता की स्पष्ट छाप वहाँ अब भी देखी जा सकती है।
आस्ट्रेलिया में आज जो लोग रह रहे हैं, वे अँग्रेज हैं। उनके वहाँ पहुँचने से पूर्व जो जाति रहती थी, वह माओरी जनजाति के लोग हैं। उनकी संख्या अब बहुत कम रह गई है। उनकी भाषा तथा रीति-रिवाज भारतीय तमिलों से काफी मिलते हैं। इतिहासकारों का मत है कि हजारों वर्ष पूर्व तमिलनाडु से नौकाचालकों का कोई दल वहाँ जा बसा होगा और फिर स्थाई रूप से वहीं रह गया। ऐसा मानने का एक कारण यह भी है कि उनका चेहरा भारतीय तमिलों से काफी साम्य रखता है तथा उनमें भी शैव अथवा वैष्णवों की तरह माथे पर तिलक लगाने की प्रथा है। ऐसा ही एक चित्र लाँग मिसिंग लिंक्स (पृ. 195) पुस्तक में देखा जा सकता है।
भारतीयों की तरह वे भी पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और ऐसा मानते हैं कि मर जाने के बाद व्यक्ति का पुनर्जन्म मनुष्य, पशु या वनस्पति के रूप में फिर से होता है। यह धारण उनके आर्य होने की ही पुष्टि करता है।
संत रैदास चमड़े का कार्य करते थे। उन्होंने जन-स्तर पर सत्प्रवृत्तियों की स्थापना को ही अपनी साधना मान रखा था। प्रभु का कार्य मानकर उसे करते थे। उसी के प्रभाव से उनके चमड़ा भिगोने की कठोती में गंगा फट पड़ी थीं।
अपनी अफ्रीका यात्रा का वर्णन करते हुए माँगों पार्क ने वहाँ के संस्कृत या संस्कृतोदभव नामों वाले स्थानों, पर्वतों की सूची दी है, जिसे देखकर स्पष्ट प्रतीत होता है कि भारत का साँस्कृतिक अनुदान उसे भी मिला है। अफ्रीकी पर्वत शिखर माउंट मेरु, माउंट शंभु ऐसे ही कुछ नाम हैं।
इस प्रकार यह स्वीकारने में अब किसी को भी संकोच नहीं होना चाहिए कि भारतीय संस्कृति के अलमबरदार आर्यों ने संपूर्ण विश्व में फलकर उसे आर्य संस्कृति प्रदान की थी। ‘कृण्वन्तु विश्वं आर्यम’ जैसे वेद वाक्य से भी आर्यों के उस संकल्प का ही संकेत मिलता है, जिसमें उन्होंने संपूर्ण विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनाने का प्रण किया था। ऐसा उन्होंने किया भी, पर तब से लेकर अब तक सहस्न्नों वर्ष बीत जाने से अब उसके प्रमाण बहुत स्वल्प ही शेष रह गए हैं। कर्नल टाड, हम्बोल्ट एवं ई.जी. स्कूइयर प्रभृति विद्वानों ने भी इस मत को माना है और इस बात को अंगीकार किया है कि भारतीय ही प्राचीनकाल में विश्व के प्रथम उपदेष्टा थे।