Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - हीरक जयंती वर्ष की हमारी साधना और सेवा-आराधना
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साधना धुरी बने रचनात्मक आँदोलनों की
परमपूज्य गुरुदेव द्वारा 1926 में आरंभ किए गए साधनाक्रम को चलते हुए 85 वर्ष पूरे हो गए। वर्ष 51-52 में रजत जयंती वर्ष 86-88 में स्वर्ण जयंती वर्ष मनाए गए एवं इस वर्ष हीरक जयंती (2001-2002) मनाई जा रही है। सभी जानते है। सभी जानते हैं कि अखण्ड दीपक के प्रज्वलन तथा अपनी गुरुसत्ता से वसंत पर्व 1926 की पावन वेला में हुए साक्षात्कार से साधना प्रधान इस गायत्री पर्व का शुभारंभ माना जाता है। यह एक महान् पुरुषार्थ है, जो करोड़ों साधकों ने अपनी आराध्य सत्ता के पदचिह्नों पर चलकर पूरा किया है। जनवरी 1986 में जब परमपूज्य गुरुदेव ने स्वर्ण जयंती वर्ष की विशेष साधना आरंभ कराई, तो इसमें सम्मिलित होने के लिए सभी ‘अखण्ड ज्योति’ परिजनों को आमंत्रित किया। इस माह की ‘अखण्ड-ज्योति’ परिजनों को आमंत्रित किया। इस माह की ‘अखण्ड ज्योति’ की ‘अपनों से अपनी बात’ में पूज्यवर लिखते हैं, ‘हीरक जयंती का समय आने तक हम नए शरीर से कहीं और भी अधिक महत्वपूर्ण नई भूमिका संपादित कर रहे होंगे। अस्तु उसकी प्रतीक्षा व्यर्थ है। सोचा गया कि क्यों न अगले वर्ष को साधना स्वर्ण जयंती वर्ष मना लिया जाए। (पृष्ठ 82) आगे वे लिखते हैं, ‘समय आने पर हमारे उत्तराधिकारी हीरक जयंती एवं शताब्दी भी मनाएँगे, पर तब हम दोनों की सूक्ष्म व कारण सत्ता ही सक्रिय होगी।’
प्रस्तुत वर्ष विशेष
हम सभी इस वर्ष प्रखर प्रज्ञारूपी सतत प्रज्वलित अखण्ड अग्नि के रूप में पहले अखण्ड ज्योति संस्थान एवं फिर शाँतिकुँज हरिद्वार में स्थापित’ अखण्ड दीपक के 85 वर्ष पूरे होने पर हीरक जयंती की विशिष्ट साधना का क्रम बना रहे हैं। साधना आँदोलन को गति दे रहे हैं एवं प्रत्येक को इस अभियान से जुड़कर परिष्कृत व्यक्तित्वसंपन्न इक्कीसवीं सदी की जिम्मेदारी सँभालने योग्य महामानव बनने का आमंत्रण दे रहे हैं। सभी क्रियाप्रधान कार्यक्रम इसी साधना की धुरी पर चलते रहे हैं, इस वर्ष से गति पकड़कर 2011-2012 तक परमपूज्य गुरुदेव की जन्म शताब्दी के वर्ष तक और तीव्रता से चलते रहेंगे।
हीरक जयंती की इस साधनावर्ष की एक और विशेषता है, युगचेतना के अभ्युदय की हीरक जयंती भी इस वर्ष होना। श्री अरविंद ने जिसे भागवत् चेतना के धरती पर अवतरण का वर्ष कहा था, वह भी 1926 ही था। अब वह भागवत् चेतना पूर्णतः सक्रिय हो भागवत मुहूर्त में प्रवेश कर चुकी है एवं अवतरण की, प्रज्ञावतरण के प्रकटीकरण की वेला आ चुकी है। इस उपलक्ष्य में युगचेतना की प्रतीत लाल मशाल के चित्र की घर-घर स्थापना का आँदोलन चलाया जा रहा है। तीसरी विशेषता इस हीरक जयंती के विशिष्ट साधना वर्ष की और है, वह है इस मिशन की सहसंस्थापिका, सहसंरक्षिका माता भगवती देवी के जन्म की भी हीरक जयंती होना। उन्होंने भी 1926 की आश्विर कृष्ण चतुर्थी (बीस सितंबर) को जन्म लिया था एवं 28 वर्ष बाद ही उनकी सत्ता अपनी आराध्य सत्ता से एकाकार हो सजल श्रद्धा रूप से जुड़कर युग्म का निर्माण कर चुकी थी। प्रखर प्रज्ञा के प्रतीक पूज्य गुरुवर एवं सजल श्रद्धा की प्रतीक शक्तिस्वरूपा माता जी को ही वह विराट् संगठन खड़ा करना था, जो आज एक वटवृक्ष के रूप में पुष्पित-पल्लवित होता लाखों-करोड़ों की आशाओं के केंद्रबिंदु के रूप में देखा जा रहा है।
स्वर्ण जयंती साधना वर्ष की झलकियाँ
स्वर्ण जयंती साधना वर्ष जो 5 फरवरी 1986 से आरंभ होकर 24 जनवरी 1988 तक चला, कई विशेषताएँ अपने में लिए था। इसमें एक लाख नैष्ठिक साधकों को उपयुक्त मार्गदर्शन द्वारा एक अभियान के रूप में शक्तिधाराओं के प्रवाह से जोड़ा गया। साधना तो प्रतिदिन 85 मिनट की ही थी, साथ ही प्रातः 25 मिनट आत्मबोध चिंतन की व रात्रि सोते समय 15 मिनट तत्व-बोध-मनन की साधना भी सम्मिलित थी। इस साधना में प्रत्येक साधक द्वारा प्रतिदिन 600 गायत्री मंत्र जपने का प्रावधान रखा गया था। उपासना क्रम को छह भागों में विभाजित किया गया था, आत्मशोधन के लिए षट्कर्म, प्रतीक पूजा उपचार, सोऽहम्, प्राणयोग, गायत्री जप और ध्यान, खेचरी मुद्रा तथा सूर्यार्घ्य दान। प्रत्येक का महत्व विस्तार से सात पृष्ठ के संपादकीय द्वारा समझाया गया था। एक लाख साधकों द्वारा पूज्यवर ने प्रतिदिन छह करोड़ प्रतिदिन की साधना संपन्न कराई। इनके साथ-साथ सभी से दोनों नवरात्रियाँ संपन्न करने हेतु आग्रह किया। उन्होंने अनुमान लगाया कि यदि न्यूनतम एक हजार भी व्यक्ति निकल आते हैं, तो इस साधना स्वर्ण जयंती वर्ष में चौबीस सौ करोड़ का जप संपन्न होगा। यह हुआ और बड़ी सफलता के साथ पूरा हुआ।
इस वर्ष में एक और विशेषता थी-वह यह कि साधना प्रशिक्षण हेतु मंडलियों का गठन एवं उनके चार-चार दिवसीय साधना सत्र सारे भारत में स्थान-स्थान पर आयोजित किया जाना। ऐसे प्रशिक्षण लेने वाले साधकों को अनुसाधक कहा गया । शाँतिकुँज में जो प्रतिबंध थे, वे क्षीण कर दिए गए एवं सभी को मौका दिया गया, ताकि इस महत्वपूर्ण आँदोलनों में केंद्रीय प्रतिनिधियों द्वारा संचालित शिक्षण सत्रों में सभी भाग ले सकें। ऐसा हुआ, वर्षभर चला और ढेरों व्यक्ति नए जुड़े, जो आज मिशन की कमान सँभाले अपने क्षेत्र में दिखाई देते हैं। इस साधना वर्ष में इस प्रशिक्षण शृंखला से प्रतिदिन चौबीस करोड़ गायत्री जप संपन्न करने की प्रक्रिया चल पड़ी। यह क्रम सितंबर तक चला। सितंबर 1986 में पूज्यवर ने लिखा, ‘भौतिक संपत्ति द्वारा मिलने वाले सुविधा-साधनों से सभी परिचित हैं। अस्तु, उसके उपार्जन में सहज ही सबकी रुचि रहती है। कदाचित् ऐसा ही परिचय आत्मिक विभूतियों से भी रहा होता और उनके द्वारा मिलने वाले सत्परिणामों को समझा गया होता, तो प्रतीत होता कि इस प्रयोजन के लिए किया गया श्रम कितना अधिक उपयोगी है। इस प्रयास से व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास की जो पृष्ठभूमि बनती है, उसे भूतकालीन सच्चे अध्यात्मवादियों की उपलब्धियों का पर्यवेक्षण करने वाला सहज ही समझ सकता है। अनादिकाल से चले आ रहे प्रकृति के मौलिक सिद्धांत अनंत काल तक चलते रहते हैं। साधना और सिद्धि का समन्वय भी ऐसा ही एक अकाट्य सिद्धांत है। उसकी सचाई समझने का मौका इस स्वर्ण जयंती साधना के सदस्यों को अवश्य मिला है, मिलेगा, ऐसी आशा करने में कोई अतिवाद नहीं है।’ (पृष्ठ 62)
साधना शृंखला चली और ढेरों साधक जुड़े। यह श्रम किस निमित्त किया गया, यह उपर्युक्त पंक्तियों में गुरुसत्ता ने समझाया। इसी वर्ष उन्होंने साधकों के सामूहिक सम्मेलन भी रखे एवं दो दिवसीय आयोजनों द्वारा पूरा भारत साधनामय बना दिया गया। साथ ही अक्टूबर, नवंबर, दिसंबर 1986 में दस-दस दिवसीय साधना सत्रों में विशिष्ट साधकों को आमंत्रित किया गया। स्थान की कमी को गुरुवर ने अनुभव किया। वे लिखते हैं, ‘अब एक नया शाँतिकुँज बनाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। वर्तमान इमारत को नारी प्रशिक्षण के लिए सुरक्षित करना पड़ेगा और पुरुष शिविरार्थियों के लिए दूसरे आश्रम का निर्माण होगा। इस निर्माण को साधना स्वर्ण जयंती वर्ष का चिरस्थाई स्मारक कहा जा सकेगा। ‘(पृष्ठ 65) आज जो भी कुछ विस्तार गायत्री नगर का परिजन देख रहे हैं, वह उसी नए शाँतिकुँज के संकल्प की ही परिणति है।
हीरक जयंती में अभियान साधना गति पकड़े
साधना स्वर्ण जयंती वर्ष के बारे में विस्तार से इसलिए पाठकों को बताया गया, ताकि वे पच्चीस वर्ष पूर्व की मिशन की स्थिति को, आँदोलन की तीव्रता को और गुरुसत्ता की टीस को समझ सकें। अब यह हीरक जयंती वर्ष इस वर्ष की अभियान साधना से तीव्र वेग लेकर आरंभ हुआ है। सभी आँदोलनों-रचनात्मक कार्यक्रमों की धुरी परमपूज्य गुरुदेव वे साधना को ही बताया है । व्यक्तित्व का परिष्कार करने, मनःस्थिति को उदात्त बनाने एवं इक्कीसवीं सदी की महती जिम्मेदारियाँ सँभालने के लिए हर कार्यकर्ता को एक श्रेष्ठ साधक बनना होगा। अभियान साधना के विषय में विस्तार से विगत दो अंकों में विवेचन किया गया है। यह एक वर्ष में पाँच लाख गायत्री जप की साधना है, जिसका विवरण गायत्री महाविज्ञान भाग दो में आया है। इसमें कोई विशिष्ट नियम-उपनियम नहीं है। इसे गायत्री जयंती या गुरुपूर्णिमा से आरंभ कर दिया गया है। अब तक न किया गया हो तो अब कभी भी, किसी भी पूर्णिमा या एकादशी से आरंभ कर सकते हैं। इसमें माह की दोनों एकादशियों में चौबीस माला अतिरिक्त करनी है। साधारण दिनों में प्रतिदिन 10 मालाएँ करनी है, जिनमें एक घंटा लगता है। वर्ष में तीन नवरात्रियाँ मनानी हैं। तीसरी नवरात्रि ज्येष्ठ शुक्ल 1 से 9 वाली नवरात्रि से समापन किया जा सकता है या जहाँ से आरंभ किया है, वहाँ से वर्षभर चलाई जा सकती है। प्रति रवार 15 माला करनी है। अंतिम दिन 24 मालाओं द्वारा पूर्णाहुति करनी है। दोनों एकादशियों, तीनों नवरात्रियों एवं प्रत्येक बृहस्पतिवारों में विशिष्ट तप−तितिक्षा, हलका उपवास रखना है। यह सरल साधना हर कोई कर सकता है व नियमपूर्वक निभा सकता है।
हीरक जयंती वर्ष में साधना आँदोलन ने सारे भारत व विश्व में गति पकड़ी है। अभियान साधना उस गति को और नए आयाम देगी। साथ ही पाँच दिवसीय साधना प्रशिक्षण सत्र भी विभिन्न शक्तिपीठों पर आयोजित किए जा रहे हैं। ये वर्षभर चलते रहेंगे। जहाँ साधना प्रशिक्षण हो चुके, ऐसे शक्तिपीठ वर्षभर अपने यहाँ जीवन-साधना का विधिवत् प्रशिक्षण देते रहेंगे। उस तरह यदि 2000 शक्तिपीठों में यह क्रम चल पड़ा, तो यह वर्ष एक कीर्तिमान स्थापित करेगा। इसके साथ ही शाँतिकुँज में भी आश्विन नवरात्रि 2002 से चैन नवरात्रि 2002 तक (26 अक्टूबर से 13 अप्रैल) की अवधि में विशेष पाँच दिवसीय प्राण प्रत्यावर्तन स्तर के सत्र चलाए जाएँगे। प्रयास किया जा रहा है कि सीमित साधकों को एकाँत, चिंतन,विशिष्ट साधना एवं पूज्यवर के साहित्य तथा कैसेट्स द्वारा उनके अमृत वचनों का सान्निध्य मिले, ऐसी कुछ व्यवस्था बने। विशिष्ट कक्ष बन चुके हैं, पर सामान्य आने-जाने वाले ही इतने हैं कि अभी अक्टूबर तक इनकी संख्या कम होने का प्रश्न नहीं उठता । इसीलिए यह क्रम इन कक्षों में 82 साधकों से व यदि कक्ष को दो में विभाजित करना संभव हो सका, तो 244 साधकों से शुरुआत संभवतः हो सकेगी।
साधना एक आँदोलन बने
इसके साथ-साथ साधना, जीवन-साधना का रूप लेकर विभिन्न रूपों में, विभिन्न समूहों में साप्ताहिक, पाक्षिक जिस भी रूप में अन्याय संगठनों, पंथों-संप्रदायों में संपन्न हो सके, इसका प्रयास किया जाना चाहिए। हमने 3 सितंबर 1999 को पीड़ा निवारण दिवस के रूप में एक सामूहिक प्रयोग किया, वह सफल रहा । फिर वह 20 फरवरी 2000 को दुहराया गा तथा पुनः 3 सितंबर को भी संपन्न किया गया। हर वर्ष तो यह क्रम चलता रहेगा, पर सबके लिए सद्बुद्धि, सबके लिए उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना यदि प्रति सप्ताह में बीस-तीस के समूह में होती रहे व उसके क्रियापक्ष पर भी विचार-विनिमय का क्रम चलता रहे, तो पारस्परिक सौहार्द्र बढ़ेगा। गायत्री अभियान सारे भारत व विश्व में फैल जाएगा।
समग्र विकास हेतु सेवाप्रधान छह कार्यक्रम
अब बारी आती है सेवाप्रधान उन आँदोलनों की, जिन्हें इस वर्ष गति दी गई है। सभी जानते हैं कि साधना आँदोलन के अतिरिक्त ये हैं- (1) शिक्षा आँदोलन (2) स्वास्थ्य आँदोलन (3) स्वावलंबन (4) पर्यावरण जागरण-हरीतिमा संवर्द्धन (5) नारी जागरण (6) कुरीति उन्मूलन, व्यसन मुक्ति आँदोलन। साधना तभी कारगर होती है, जब व्यावहारिक सेवापक्ष उससे जुड़ा हो। साधना जब तक समष्टि पर, कार्यक्षेत्र में आरोपित नहीं होती वह साधक को मात्र अंतः के परिष्कार -उत्थान से आगे जीवन-मुक्ति, उदार परमार्थ वृति का अभ्यास नहीं सिखा पाती। इसीलिए सातों आँदोलनों में से एक साधना एवं एक कोई भी सेवा प्रधान आँदोलन स्वाध्याय के साथ हाथ में लेने को कहा गया है, ताकि कार्यकर्ताओं का समग्र विकास हो सके।
एक साथ सातों आँदोलन लेंगे, तो एक भी नहीं सधेगा। जैसी परिस्थितियाँ हों, जैसा अपने आसपास का परिकर हो, वैसी ही मन में धारण रख समूह बनाकर आँदोलन हाथ में लेकर स्वयं को गतिशील करना चाहिए। कोई जल्दी नहीं है कि हमें 19 फरवरी वसंत पर्व तक सातों आरंभ कर देने हैं। थोड़ी-थोड़ी सबकी अधूरी शुरुआत करने के स्थान पर केंद्र से परामर्श कर कुछ को पूर्णता तक पहुँचाना ज्यादा समझदारी का काम है। इसलिए 2002 के अंत तक का ‘टारगेट’ लेकर आँदोलनों को गति दी जानी चाहिए।
(1) शिक्षा आँदोलन के अंतर्गत अशिक्षा का कलंक मिटाने हेतु हम सभी को तत्पर होना चाहिए। हर पढ़े-लिखे को कम-से-कम दस साक्षर बनाकर विद्याऋण चुकाना है। सरकारी योजनाएँ, साक्षरता मिशन तो असफल हो गए। राष्ट्र को पूर्णतः शिक्षित, जागरुक मात्र स्वैच्छिक-पारमार्थिक वृति के संगठन ही बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त कई प्रारंभिक शिक्षा लेकर बीच में छोड़ देते हैं। उनकी अनवरत अनौपचारिक शिक्षा का क्रम कैसे चले, यह भी हमारे सभी कार्यकर्ताओं को सोचना चाहिए। एक-डेढ़ घंटे के टय़ूरोरियल्स यदि सभी केंद्रों, प्रज्ञा मंडलों, 3-4 समूहों, शक्तिपीठों, प्रज्ञापीठों पर चल पड़ें, तो ऐसी अनेक प्रतिभाएँ उभर सकेंगी, जो साधनों के अभाव में पढ़ नहीं पाते। हमें अनौपचारिक स्वावलंबन प्रधान शिक्षण ही देना है, साक्षर डिग्रीधारी ब्रह्मराक्षसों की फौज नहीं खड़ी करनी। इनके साथ-साथ कामकाजी विद्यालयों (रोजमर्रा की जानकारी वाले) का संचालन, संस्कृति मंडलों की स्थापनाएँ एवं बाल-संस्कारशालाओं का क्रम आरंभ किया जा सकता है।
(2) स्वास्थ्य आँदोलन के अंतर्गत अहार-विहार, रहन-सहन, सफाई, व्यायाम-योग आदि के प्रशिक्षण का क्रम चलना चाहिए, रोग होने ही नहीं पाए, ऐसा शिक्षण देने वाले स्वास्थ्य संरक्षकों के निर्माण का क्रम चले। आधुनिकता के विकास के साथ शारीरिक रोग भी बढ़े हैं, मनोशारीरिक भी। इनका निदान कैसे हो एवं सामान्य वनौषधियों से कैसे हम नीरोग रह सकते हैं, यह शिक्षण जन-जन को दिया जाना चाहिए। आयुर्वेद की विज्ञानसम्मत ‘शोध एवं विकास’ स्तर पर प्रतिष्ठा करने का शाँतिकुँज का अभिनव प्रयास इस वर्ष विश्वविद्यालय के माध्यम से गतिशील हो रहा है। इसे पूरा होते-होते 2003 की शुरुआत हो जाएगी। फिर भी हमें अपने इस आँदोलन को निरंतर गतिशील बनाए रखना है। गाँवों में सफाई, स्वास्थ्य शिविर एवं जागरुकता पैदा करने का अभियान चल सकता है, साथ ही घरेलू मसाला-वाटिका एवं कुछ वनौषधियों के रोपण का क्रम हर व्यक्ति कर सकता है। गमलों में स्वास्थ्य कैसे संभव है, इसका प्रशिक्षण भी लिया जा सकता है। आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि से मनोविकारों व जटिल रोगों की चिकित्सा कराई जा सकती है। संतुलित आहार, व्यायाम, प्रज्ञायोग की चित्रप्रधान प्रदर्शनी से लोकशिक्षण भी किया जा सकता है।
(3) स्वावलंबन आँदोलन के अंतर्गत ‘गाँव की ओर वापस लौटो’ अभियान को मूल केंद्र में रखकर कार्य किया जा रहा है। गाँव स्वावलंबी व आकर्षक बनें, इसके लिए गौलापन को धुरी बनाया जाए। गौ आधारित प्रदूषणरहित सस्ता खाद, गोमूत्र के रूप में कीटनाशक, पौष्टिक दुग्ध, गोबर-गोमूत्र से बनने वाली दवाओं सहित कितने ही प्रकार से कुटीर उत्पाद बनाए जा सकते हैं। इसी प्रकार लघु उद्योगों के प्रशिक्षण का क्रम शाँतिकुँज में बनाया गया है, जो हर व्यक्ति को काम दे सकता है। सहकारी आधार पर ऐसे कितने ही पारमार्थिक प्रकल्प खड़े किए जा सकते हैं, जो स्वावलंबन को मजबूती दे सकते हैं। जड़ी-बूटियों की खेती, मिल-जुलकर किए गए कृषि उत्पादन से भी बेरोजगारी उन्मूलन में मदद मिल सकती है। ग्राम तीर्थ योजना को गति दी जाए।
(4) पर्यावरण आंदोलन में हरीतिमा संवर्द्धन, डिस्पोजिबल कल्चर से परहेज, प्रदूषणकारी उद्योगों को हटाकर कुटीर उद्योगों को लगाना, डीजल-पेट्रोल का सीमित उपयोग, पशु ऊर्जा का अधिकाधिक उपयोग, वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का दोहन, ऊर्जा संरक्षण के प्रयोग तथा कचरे की सुव्यवस्था को ठोस कार्यक्रम का रूप देकर गति दी जा सकती है। पूर्वजों-प्रियजनों की स्मृति में, श्रावणी व जन्म दिवस आदि पर वृक्षारोपण के संकल्प हों व निभाए जाएँ। प्रत्येक ग्राम तीर्थ में अपना वन हो, जिसकी रक्षा सभी मिलकर करें। पर्यावरण वाहिनियाँ बनें, युवाशक्ति की भागीदारी बढ़े। सूक्ष्म प्रकृति के परिशोधन हेतु आध्यात्मिक प्रयोग चलते रहें।
(5) नारी जागरण आँदोलन में नारी स्वच्छंदता नहीं, नारी शक्ति जागरण गायत्री परिवार की अवधारण है। उसकी प्रसुप्त क्षमता को जगाया जाए व हर क्षेत्र में उसे नेतृत्व दिया जाए। नारी स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वावलंबन, संस्कार एवं सम्मान के पाँचों पक्षों पर समुचित ध्यान दिया जाए। प्रजनन के अनावश्यक भार से मुक्ति, नियमित दिनचर्या आहार-विहार पर ध्यान देने से नारी का स्वास्थ्य ठीक रह सकेगा। सभी को शिक्षा के समान अवसर मिलें। उनके लिए पुस्तकालय हों। व्यक्तित्व के विकास की शिक्षण प्रक्रिया गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले पाठशालाएँ चलें। कुटीर उद्योग सिखाकर नारी को स्वावलंबी बनाया जा सकता है। अर्थोपार्जन की क्षमता होगी तो नारी किसी से दबेगी नहीं । नारीशक्ति के स्वयंसेवी वचन समूह बनें व सहकारी आधार पर उनकी व्यवस्था बने। माता ही बच्चों को संस्कार देती है। जीवन-विद्या की कला में पारंगत नारी सुसंस्कारी धर्मप्रधान माता परिवार को भी श्रेष्ठ बनाती है। धर्मतंत्र से लोकशिक्षण के क्रम में भी नारी को अग्रणी भूमिका निभाने दी जाए। सम्मान नारी को भी मिले एवं नारी संगठनों को भी, ताकि समाज की अधूरी प्रगति पूर्णता का रूप ले। गायत्री परिवार इस दिशा में महती भूमिका निभा सकता है।
(6) व्यसन मुक्ति-कुरीति उन्मूलन आँदोलन में सूत्र है- साधनों को व्यसन से बचाएँ, सृजन में लगाएँ। सभी जानते है कि तंबाकू, गुटका, पानमसाला, शराब, उत्तेजक सॉफ्ट ड्रिंक्स एवं नशीली दवाओं से स्वास्थ्य का, अर्थ-संपदा का कितना नुकसान होता है। शराब सबसे अधिक हानि पहुँचाती है जब उसके कारण नारी उत्पीड़न भी होता है व सामाजिक हिंसा भी बढ़ती है। इन सब के विरुद्ध एक वातावरण बने, प्रभात फ रियाँ निकले, प्रदर्शनियोँ का आयोजन हो, विद्यार्थी वर्ग व शिक्षक वर्ग को साथ लेकर जागरुकता अभियान छेड़ा जाए, तो वातावरण बन सकता है। सामाजिक कुरीतियाँ आज भी नेग, देहे, अपव्यय भरी शादियों, मृतक भोज, फैशन, फिजूलखरची के रूप में पनप रही हैं, इनसे तथा राजतंत्र के स्तर पर भ्रष्टाचार से जन-जन को अवगत करा जागरुकता पैदा करना हर नागरिक का कर्तव्य है। दीवाल लेखन सभाएँ, नाटक, वीडियो, धार्मिक आयोजनों में संकल्प द्वारा इन सभी संघर्षात्मक आँदोलनों को गति दी जा सकती है। इसमें युवाशक्ति एवं नारीशक्ति की बड़ी जिम्मेदारी भरी भूमिका हो सकती है।
(7) साधना और आराधना, व्यक्तित्व परिष्कार और सेवाधर्म के प्रयोगों से भरी है हमारी यह हीरक जयंती एवं उसकी आगामी डेढ़ वर्ष की हमारी क्रियापद्धति। यह अवधि हम सबके लिए कठोर आत्मनिरीक्षण की है। अपने क्रियाकलाप को कठोर समीक्षापूर्वक हम सभी परखें और जहाँ जो छिद्र दिखाई पड़ें, उन्हें साहसपूर्वक रोकने के लिए जुट जाएँ। लोकसेवा हमारा व्रत बने, जनकल्याण के लिए किए गए प्रयत्नों में जीवन की सार्थकता अनुभव करें। बड़ा आदम नहीं, महामानव बनने में हमारी आकाँक्षा-अभिलाषा केंद्रित हो सके, तो श्रावणी महापर्व की वेला में हीरक जयंती वर्ष के इस मोड़ पर हम अपनी गुरुसत्ता को सही मायने में आश्वासन दे पाएँगे कि उनके बताए मार्ग पर ‘मानव में देवत्व लाने धरती पर स्वर्ग उतारने’ हेतु सक्षम युगसैनिक अब पूरी तरह तैयार हैं।