Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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श्रावणी उपाकर्म के मूल में छिपा दर्शन
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भारतीय संस्कृति पर्वों एवं त्यौहारों की संस्कृति है। इनका उद्देश्य मानवीय संबंधों का विकास एवं उदात्त भावनाओं की सार्थक अभिव्यक्ति है। इन पर्वों में श्रावणी या रक्षाबंधन का महत्वपूर्ण स्थान है। वैदिक युग से प्रचलित यह पर्व शिक्षा, स्वास्थ्य, सौंदर्य तथा साँस्कृतिक मूल्यों की स्थापना एवं पुनर्स्मरण कराता है। इसे प्रायश्चित एवं जीवन-मूल्यों की रक्षा के लिए संकल्प पर्व के रूप में मनाया जाता है। यही जीवन की सुख एवं समृद्धि का आधार है।
श्रावणी पूर्णिमा के दिन दो प्रमुख पर्व मनाए जाते हैं। श्रावणी अथवा उपाकर्म और रक्षाबंधन। रक्षाबंधन का अर्थ है-रक्षा करने के लिए बँध जाना। सूत्र प्रतीक है-पवित्र प्रेम की पहचान का, भाई और बहिन के अटूट विश्वास का। राखी के इस पर्व को रखड़ी, सलोनी, श्रावणी व अन्य कई नामों से भी जाना जाता है। परंतु प्रत्येक नाम का वास्तविक अर्थ स्नेह ही है। राखी कच्चे धागों का एक ऐसा अटूट बंधन है, जिसने भारतीय संस्कृति को एक अलग पहचान दी है।
इस पर्व के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। मान्यता है कि देवासुर संग्राम में जब देवता निरंतर पराजित होने लगे, तब इंद्र ने अपने गुरु बृहस्पति से विजय प्रापित की इच्छा प्रकट की एवं इसके लिए उपाय सुझाने के लिए प्रार्थना की। देवगुरु बृहस्पति ने श्रावण पूर्णिमा के दिन आक के रेशों की राखी बनाकर इंद्र की कलाई पर बाँध दी। यह रक्षा कवच वरदान साबित हुआ। इस प्रकार मानव संस्कृति में प्रथम रक्षा−सूत्र बाँधने वाले बृहस्पति देवगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हुए। तभी से रक्षा सूत्र बाँधने का प्रचलन प्रारंभ हुआ।
इसी दिन इंद्र को देवासुर संग्राम के लिए विदा करते समय उनकी पत्नी शची ने उनकी भुजा पर रक्षा−सूत्र बाँधा था। यह सूत्र एक विश्वास और आस्था का प्रतीक था। विश्वास फलित हुआ और इंद्र विजयी होकर लौटे। प्राचीनकाल में योद्धाओं की पत्नियाँ रक्षा−सूत्र बाँधकर उन्हें युद्ध भूमि में भेजती थीं, ताकि वे विजयी होकर लौटें। एक अन्य कथानक के अनुसार भगवान् वामन ने राजा बलि को इसी दिन ही रक्षा हेतु सूत्र बाँधकर दक्षिणा प्राप्त की थी। वस्तुतः राखी के इसी कच्चे धागे के बदले भगवान् श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की साड़ी को अक्षय एवं असीमित कर लाज बचाई थी। इसे भाई-बहिन के पवित्र एवं पावन संबंधों का सूत्रपात कहा जा सकता है और यहीं से रक्षाबंधन की पुण्य परंपरा प्रचलित हुई।
पौराणिक युग, मध्यकाल और वर्तमान समय में रक्षाबंधन विभिन्न रूपों में दिखाई देता है, परंतु इसकी सनातनता, निरंतरता एवं भावना में कहीं व्यतिक्रम नहीं हुआ है। हाँ, कुछ विसंगतियाँ जरूर आई हैं। समाज के बदलते प्रतिमान व परिवेश के बावजूद आज भी प्रेम की मिठास से सराबोर यह पर्व जीवन की पवित्रता और रक्षा का प्रतीक बना हुआ है।
प्राचीनकाल का महत्व ही वर्तमान समय में रक्षाबंधन के पर्व के रूप में एक नवीन आशा एवं उत्साह का संचार करता है। रक्षाबंधन भाई-बहनों के स्नेह का प्रतीक पर्व है। राखी के स्नेहिल धागों में बहनों हृदय की समस्त कोमल भावनाएँ साकार हो उठती हैं। बहन भाई के हाथ में राखी बाँधकर उनके मन में कर्तव्यपालन, बलिदान एवं निष्ठा की भावना जगाती है और बदले में किसी भी संकट के समय अपनी सुरक्षा व संरक्षण का उनसे आश्वासन पाती है। प्राचीनकाल में राखी बाँधने वाला स्वयं करने में सक्षम होता था, इसलिए वह रक्षा के लिए अभयदान देता था।
रक्षाबंधन भारत देश का साँस्कृतिक प्रतिमान है। इसका स्वरूप पूर्णतया साँस्कृतिक है। रक्षा की भावना पर आधारित होने के कारण यह पर्व शक्ति और साहस का संदेशवाहक है। इस पर्व ने भारतीय जनमानस को आँदोलित किया है। इसने इतिहास के प्रवाह तक को बदल डालने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। इस पर्व ने धर्म, रक्त, भाषा और जातीयता की सीमाओं को लाँघकर लोगों को भावनात्मक बंधन में बाँधा है। भावना के सूत्र बड़े सूक्ष्म एवं चिरस्थाई होते हैं। राखी के कच्चे धागों में लौह बंधन से अधिक सामर्थ्य एवं शक्ति विद्यमान है। वर्तमान की विपरीत परिस्थितियों में इस पर्व की प्रासंगिकता अक्षुण्ण है। इसमें समता, एकता, संरक्षण एवं स्नेह के साथ-साथ भाई-बहन का पवित्रतम सनातन संबंध जुड़ा हुआ है।
श्रावण पूर्णिमा का एक और पक्ष है- श्रावणी अर्थात् उपाकर्म। उपाकर्म विशुद्ध रूप से वैदिक कर्म है। इसके बिना रक्षाबंधन अधूरा एवं अपूर्ण है। किसी पवित्र नदी, जलाशय या समुद्र तट पर सामूहिक रूप से विधिपूर्वक स्नान, पूजन, हवन करके यह पर्व संपन्न किया जाता है। इसी दिन यज्ञोपवीत बदलने का भी विधान है। शास्त्र वचन है कि-
संप्राते श्रावणास्यान्त पौणिंमास्या दिनोदये।
स्नानं कुवींत मतिमान् श्रुति स्मृति विधानतः॥
अर्थात् बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि श्रावण की पूर्णिमा को प्रातः ही श्रुति-स्मृति विधानानुसार स्नानादि कृत्य करे। यह आत्मशोधन का पुण्य पर्व है। सावधानी के साथ रहने वाले व्यक्तियों से भी प्रमादवश कुछ भूल हो जाती है। इन दोषों को करने एवं पाप से निवृत्ति हेतु श्रावणी का विशेष योगदान है। आचार्य हेमादि कृत् श्रावणी संकल्प का कर्मकाँड का सबसे बड़ा संकल्प है। यह प्रायश्चित संकल्प है। इसके तहत ज्ञात-अज्ञात अनेक पापों का नामोल्लेख कर उससे मुक्ति पाने की कामना की गई है। इसमें मिट्टी, गोबर, भस्म, पंचगव्य, अपामार्ग, कुशयुक्त जल आदि के द्वारा स्नान किया जाता है। इससे शारीरिक शुद्धि होती है और ऋषिपूजन, देवपूजन , द्वारा आध्यात्मिक शाँति उपलब्ध होती है। हवन के पश्चात् सूर्य को अर्घ्य चढ़ाया जाता है। आत्मशुद्धि के बाद वेदाध्ययन का भी नियम है।
श्रावणी पर्व पर स्नान संबंधी विधियाँ बहुत ही वैज्ञानिक आधार पर स्थिर की गई है। मृतिका, भस्म, गोमय, कुशा, दूर्वा आदि सभी स्वास्थ्यवर्द्धक एवं रोगनाशक होती हैं। इस प्रकार श्रावणी की सारी प्रक्रिया सर्वविध शुद्धि के लिए अत्यंत लाभप्रद है। पंचगव्य के पदार्थ की उपयोगिता को आयुर्वेद भी स्वीकारता है।
वैदिक युग से मनाए जा रहे इस पर्व का उद्देश्य प्रमाद या अज्ञानवश किए गए दुष्कर्मों को प्रायश्चित द्वारा दूर करना है। साथ ही जीवन-मूल्यों की रक्षा के लिए संकल्पित होना है। यह भविष्य में शुभ कर्मों की प्रेरणा प्रदान करता है। इस पर्व के मूल में पवित्र भावना एवं उच्च आदर्श सन्निहित है। जिन्हें अपनाकर जीवन एवं समाज को उत्कृष्ट एवं उन्नत बनाया जा सकता है।