Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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हिंदी पत्रकारिता आदर्शोन्मुखी बने
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पत्रकारिता को लोकताँत्रिक शासन व्यवस्था में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण ही चतुर्थ स्तंभ की संज्ञा दी गई है। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की भाँति यह लोकतंत्र का न केवल प्रमुख आधार स्तंभ है, बल्कि इन तीनों को नियंत्रित एवं सचेत करने वाला तथा लोकतंत्र की रक्षा करने वाला अभिन्न अंग भी है। अपने लगभग 193 वर्ष के इतिहास में हिंदी पत्रकारिता इस संदर्भ में अपनी उल्लेखनीय भूमिका निभाती हुई कई पड़ावों को पार कर चुकी है। स्वतंत्रता से पूर्व जहाँ उसने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्षों में अविस्मरणीय योगदान दिया, वहीं स्वतंत्रता के बाद इसके विस्तार में कई आयाम जुड़ते गए, किंतु कालप्रवाह के साथ इसे पतन एवं अवसान के दौर से भी गुजरना पड़ा है, जिसके कारण आज इसका प्रगतिशील प्रवाह कुछ अवरुद्ध-सा पड़ गया है। सामयिक चुनौतियों से जूझने एवं युगधर्म के सम्यक् निर्वाह के लिए इसका निराकरण एवं पुनर्निर्धारण करना अभीष्ट हो गया
हिंदी पत्रकारिता का शुभारंभ 30 मई, 1929 को पं. जुगल किशोर शुक्ल द्वारा प्रतिपादित ‘उदन्त मार्तंड’ नामक पत्रिका से माना जाता है। 1958 के विद्रोह काल तक हिंदी पत्रों की संख्या न के बराबर रही। हिंदी पत्रकारिता के विकास का मार्ग भारतेंद्र हरिश्चंद्र के पश्चात् प्रशस्त हुआ। भारतेंद्र जी ने ‘कवि वचन सुधा, ‘हरिश्चंद्र मेग्जीन,’ ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ आदि पत्रिकाओं के माध्यम से राष्ट्रीय पत्रकारिता की शुरुआत की। स्वतंत्रता आँदोलन की पृष्ठभूमि के रूप में इस युग की पत्रकारिता ने मुख्य भूमिका निभाई। उस समय देश का नेतृत्व एक प्रकार से नेताओं की अपेक्षा पत्रकारों के हाथों में था। उनके प्रयासों के फलस्वरूप देश हर दृष्टि से जाग्रत हो रहा था। स्वदेशी के प्रति आग्रह बढ़ रहा था और स्वराष्ट्र का अर्थ स्पष्ट हो रहा था। वस्तुतः इसी पृष्ठभूमि पर 20वीं सदी के पत्रकारों एवं राजनेताओं ने स्वतंत्रता संघर्ष को और गति दी।
20 वीं सदी का प्रारंभिक काल जहाँ भारत में ब्रिटिश अत्याचारों से भरा हुआ युग था,वहीं हिंदी पत्रकारिता का यह द्विवेदी युग था, जो अपनी प्रखर राष्ट्रीयता के लिए प्रसिद्ध थे। उनके द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ इस युग की प्रमुख पत्रिका थी। यह अपनी साहित्य एवं संस्कृति की सौम्य सेवा-साधना के साथ राष्ट्रीय जागरण का अलख भी जगा रही थी। इस युग की भारतीय पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य था-देशवासियों को सचेत करना, उनके स्वदेशी संस्कार को जाग्रत् करना, स्वराज्य का महत्व उद्घाटित करना और देशवासियों को कूपमंडूकता से उबारकर ज्ञान की निजी संपदा तथा युगचेतना से जोड़ना। ‘वंदे मातरम’ के संपादक तथा स्वदेशी आँदोलन काल के भारतीय नायक श्री अरविंद की धारण थी कि भारत की दुर्बलता का प्रधान कारण चिंतन शक्ति का ह्रास है, ज्ञान की भूमि में अज्ञान का विस्तार है। इस अनेकमुखी अज्ञान को दूर करने की जातीय प्रेरणा से उस काल की पत्रकारिता अनुप्राणित थी।
गाँधी जी के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आँदोलन में प्रवेश करने के साथ पत्रकारिता में नया मोड़ आया। 1120 से 1948 पर्यंत समय को पत्रकारिता का गाँधी युग माना जाता है। गाँधी युग की पत्रकारिता ने स्वतंत्रता संग्राम को अपने चरम तक पहुँचा दिया था। ब्रिटिश साम्राज्य का दमनचक्र जितना बढ़ा, पत्रकारों की लड़ाई भी उतनी ही प्रखर होती गई। अभ्युदय, प्रताप, विशाल भारत, देश-विदेश, नृसिंह आदि पत्रों ने असहयोग आँदोलन, चौरा-चौरी काँड, साइमन कमीशन, नेहरू रिपोर्ट, सविनय अवज्ञा आँदोलन, भारत छोड़ो आँदोलन जैसी राजनीतिक गतिविधियों को उद्दीप्त किया। भूमिगत क्राँतिकारियों की तरह रणभेरी, शंखनाद, बोल दे धावा जैसे भूमिगत पत्रों का भी प्रकाशन हुआ। यहाँ तक कि सरस्वती, हिमालय, माधुरी, सुधा, चाँद जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी राष्ट्र-जागरण की अनेक क्राँतिकारी रचनाएँ प्रकाशित कीं और आँदोलन में अपना योगदान दिया।
इस तरह स्वतंत्रता संग्राम के महायज्ञ में पत्रकारिता की उल्लेखनीय भूमिका रही। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, मदनमोहन मालवीय, महात्मा गाँधी आदि सभी राजनेताओं ने इसे अपने विचारों को जनता तक पहुँचाने का माध्यम चुना। बाबू बालमुकुँद गुप्त, पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र, पं. अंबिकाप्रसाद वाजपेयी पं. बालकृष्ण भट्ट गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबूराव विष्णु पराड़कर , शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनपुरी, पं. बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने राष्ट्रीय चेतना को जगाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदी पत्रकारिता के पितामह माने जाने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर लिखते हैं कि मैं कलकत्ता पत्रकार बनने नहीं, बल्कि देश को शीघ्र स्वतंत्र देखने और क्राँतिकारियों के साथ काम करने के उद्देश्य से गया था। सभी पत्रकार देशभक्ति एवं राष्ट्रप्रेम के इसी भाव से आप्लावित थे। इस तरह स्वतंत्रता से पूर्व की हिंदी पत्रकारिता राष्ट्र-भक्त राजनीतिज्ञों, साहित्य साधकों एवं पत्रकारों की त्रिवेणी रही, इसने राष्ट्रीय चेतना जगाने व देश को स्वतंत्र करने में अपनी अविस्मरणीय भूमिका निभाई।
स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद हिंदी पत्रकारिता का विस्तार होता गया व इसकी व्यापकता में नए-नए आयाम जुड़ते गए। स्वतंत्रता से अनेकों प्रश्न उपजे, जैसे देश की एकता, अखंडता, देशी राज्यों का भारत में विलय, नए भारत की आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं के समाधान आदि, जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता को फलने-फूलने का अवसर दिया। पहले केवल राजनीतिक अथवा सामाजिक समाचारों को प्रमुखता दी जाती थी। अब खेल, वाणिज्य संगीत, कला, विज्ञान, स्वास्थ्य, फिल्म आदि भी प्रमुख अंग बनते गए। इस तरह पत्रकारिता का चहुंमुखी विकास हुआ।
विविधता के साथ इसकी प्रसारण संख्या एवं पाठकों की संख्या में वृद्धि हुई। 1956 में जहाँ हिंदी पत्रों की संख्या 1000 थी, 1993 तक यह संख्या पाँच गुना बढ़ गई थी। इसमें भी हिंदी दैनिकों की संख्या सर्वोच्च थी। हिंदी पत्र ही नहीं, पत्रिकाओं की प्रसारण संख्या भी सर्वाधिक थी।
जनमानस को प्रबुद्ध करने में इस दौर की पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण कार्य किया। इसी के बल पर आज जनसमुदाय देश व समाज की स्थिति, राजनीतिक घटनाचक्र, प्रशासन वर्ग की गतिविधियों आदि से भलीभाँति परिचित हो रहा है। इस तरह सामान्यजन को जगाकर सामाजिक परिवर्तन को दिशा देने में स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता ने बहुत बड़ा कार्य किया है। इसके द्वारा राष्ट्रीय नवजाग्रति के साथ प्रादेशिक समस्याओं पर प्रकाश पड़ा है और क्षेत्रीय स्थिति भी इससे मुखरित हुई है।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में जहाँ अभूतपूर्व उन्नति हुई, वहीं इसके साथ भटकाव एवं विकृति का काला साया भी बढ़ता गया है। जिसके कारण आज यह स्वार्थ के दलदल में धँस गई है और दिशाहीनता की स्थिति में भटक गई है। 20वीं सदी के प्रारंभ से लेकर आठवें दशक तक का समय अगर हिंदी पत्रिकाओं के लिए स्वर्णिम काल था, तो इसके अंतिम दो दशक इसके अवसान काल भी सिद्ध हुए हैं। इसी दौर में आजादी की लड़ाई में क्राँतिकारी नेतृत्व देने वाला गणेश शंकर विद्यार्थी का अखबार ‘प्रताप’ बंद हो गया। श्रीकृष्णदत पालीवाला का ‘सैनिक’ बंद हो गया। इलाहाबाद का ‘भारत’ बनारस का ‘बनारस’ नवभारत टाइम्स के जयपुर संस्करण बंद हो गए। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, रविवार, चौथी दुनिया, संडे मेल, संडे ऑर्ब्जवर (हिंदी), हिंदी एक्सप्रेस, दिनमान, पराग एवं माधुरी जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाएँ इसी दौर में निकलीं और बंद भी हो गई। इसी तरह हिंदी के लगभग सभी प्रतिष्ठित व्यावसायिक दैनिक अखबार से लेकर पत्र-पत्रिकाएँ अपने अस्तित्व की अंतहीन लड़ाई लड़ रही हैं।
हिंदी पत्रकारिता की आदर्शोन्मुखी दिशा जीवन-मूल्यों से विमुख होकर व्यावसायिकता में उलझकर रह गई हैं। पहले जो मिशन था, वह अब उद्योग या व्यवसाय बन गया है। पत्र-पत्रिकाओं की विषयवस्तु विविधता के बावजूद अपनी गुणवत्ता एवं मूल्य के संदर्भ में सिमटकर रह गई है और जो सामग्री उसके पृष्ठों पर सबसे अधिक स्थान घेरती है, वह है मनोरंजन की विषयवस्तु। मनोरंजन भी ऐसा नहीं है कि जिसे सात्विक, सुरुचिपूर्ण एवं स्वस्थ कहा जाए, बल्कि यह अश्लील, कुत्सित एवं भौंड़ी प्रकृति का होता है। इनकी चर्चा का विषय फिल्मी दुनिया का ग्लैमर, हीरो-हीरोइन के संवाद, साक्षात्कार व उनके निजी जीवन की मनगढ़ंत खबरें ही रहती हैं।
फिल्मी मनोरंजन के बाद राजनीतिक घटनाचक्र इनकी चर्चा का प्रिय विषय रहता है। इसके बाद व्यवसाय को ले सकते है। इसकी भी पृष्ठ संख्या क्रमशः बढ़ती जा रही है। उदारीकरण के बाद विदेशी कंपनियों की चकाचौंध ने इसे बढ़ावा दिया है। बिजनेस के बाद फैशन और फिटनेस को ले सकते हैं। फैशन की दुनिया में क्या हो रहा है? मॉडलों के ग्लैमर, शरीर सौष्ठव को आकर्षक करने के तौर-तरीके, सौंदर्य को निखारने के नुस्खे जैसे विषयवस्तु को विशेष प्रमुखता दी जाती है। इस सबके बाद ही कहीं साहित्य संस्कृति पोषक, मूल्य संवर्द्धक एवं समाज-राष्ट्र को दिशा देने वाली सामग्री की बारी आती है और इसे पत्र-पत्रिकाओं के किसी कोने में खोजबीन कर ही ढूँढ़ा जा सकता है।
हिंदी पत्रकारिता का यह प्राथमिकता क्रम इसकी आदर्श-विमुखता एवं दिशाहीनता का परिचायक है। यह स्थिति किसी भी रूप में वाँछनीय नहीं है। युग की विषम परिस्थितियों के पीछे सक्रिय अनास्था संकट से जूझने के लिए हिंदी पत्रकारिता को पुनः स्वतंत्रता संग्राम के दिनों की आदर्शोन्मुखी भूमिका में जीवंत एवं जाग्रत् होना होगा, क्योंकि राजनैतिक स्वतंत्रता एवं कुछ वैज्ञानिक तथा आर्थिक प्रगति के बावजूद अभी एक संग्राम शेष है, जिसे लड़ा जाना चाहिए । अभी भी साँस्कृतिक पराधीनता के संस्कार गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। इसी कारण हम अपसंस्कृति के आक्रामक तेवरों के सामने या तो भाग खड़े हो रहे हैं या इसे हवा देते हुए इसे पुष्ट कर रहे हैं। उसके लिए जबकि आवश्यकता जूझने की है। परमपूज्य गुरुदेव द्वारा प्रवर्तित एवं संस्थापित ‘अखंड ज्योति’ ने अपने प्रकाशन के प्रारंभ से ही इस दायित्व को निभाया है। आज 64 वर्षों के उपराँत भी इसकी ज्योति मंद नहीं पड़ी है, उलटे इसकी प्रदीप्ति और भी प्रखर हुई है। युग की पुकार, हिंदी पत्रकारिता को आत्मविस्मृत एवं संकीर्ण व्यावसायिक स्वार्थों के दलदल से उबारकर गौरवमयी अतीत के मिशनरी भाव को ग्रहण एवं धारण करने के लिए उद्बोधित कर रही है। ‘अखण्ड ज्योति’ के इस संदेश को सुना जा सके, तभी आज की हिंदी पत्रकारिता सजग प्रहरी की भूमिका निभाती हुई जन-जन के बीच साँस्कृतिक क्राँति का अलख जगा सकेगी, जिसके आधार पर 21 वीं सदी-उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष युगऋषि कर चुके हैं।