Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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विनाश से सबक लें, - प्रकृति को माता मानें
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मनुष्य ने हमेशा प्रकृति से लिया ही है। प्रकृति भी उदारतापूर्वक मनुष्य की हर आवश्यकता की पूर्ति करती रही हैं, परंतु जबसे मनुष्य ने अपने भोग-विलास के लिए प्राकृतिक संपदाओं के निर्बाध उपयोग के साथ-साथ उसे नष्ट करने का भी सिलसिला शुरू किया, तभी से अपने विनाश को भी आमंत्रित कर लिया। आज समूचा विश्व जिस तरह किसी-न-किसी प्राकृतिक आपदा की चपेट में आकर जन-धर की अपार क्षति उठा रहा है, उसने मनुष्य को प्रकृति के साथ अपने संबंधों पर पुनः विचार करने हेतु बाध्य कर दिया है।
ब्राजील व ब्रोनियों के जंगलों में भयंकर सूखे व ताप के कारण लगी आग भी पूर्णतः ठंडी नहीं हुई है। पिछले वर्ष उड़ीसा में आए समुद्री तूफान का विनाशकारी परिणाम न जाने कब तक कितने लोगों को भोगना है। गुजरात में हुई भूकंप की विनाशकारी लीला अभी भी समूचे देश का दिल दहला रही है। पिछले दिनों उसी के बाद एक समुद्री तूफान और आ धमका। चीन में आई भयंकर बाढ़ ने तो चीन की अर्थव्यवस्था को ही झकझोर कर रख दिया है। दो करोड़ हेक्टेयर से अधिक भूमि जलमग्न हो गई है। डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हो गए। हजारों मकान एवं रेल लाइनें तहस-नहस हो गई। दक्षिण फ्लोरिडा में आए तूफान से पचास मील क्षेत्र में रहने वाले लगभग दो लाख लोग बेघर हो गए । 13 लाख लोगों को लंबे समय तक बिना बिजली के रहना पड़ा। बाँग्लादेश के तटीय क्षेत्रों में आया भयानक समुद्री तूफान, इन्हीं क्षेत्रों में अतिवर्षण व बाढ़ से हुआ विनाश, कनाडा के कुछ भागों में बरफीले तूफानों का आगमन, अमेरिका में कुछ स्थानों पर आया जानलेवा अप्रत्याशित अंधड़, आस्ट्रेलिया, फिलीपींस व इंडोनेशिया के भयंकर सूखे से हजारों लोग असमय काल-कवलित हो गए।
पर्वतीय क्षेत्र भी इन आपदाओं से अछूते नहीं रहे। वहाँ प्रकृति का प्रकोप बादल फटने एवं भू-स्खलन के रूप में दिखाई पड़ता है। बादल फटने से आई अचानक बाढ़ से जहाँ गाँव के-गाँव बह जाते हैं, वहीं भू-स्खलन के कारण मार्ग अवरुद्ध हो जाने से यात्रियों को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं, अनेकों इसमें दबकर मर जाते हैं। पर्वतों में भू-स्खलन के कारण अब तक इतना ज्यादा विनाश हो चुका है कि उसका ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना मुश्किल है। भू-स्खलन के तात्कालिक परिणामों से पर्वतवासी बच भी जाएँ, तब भी उनके जीवन को सुरक्षित नहीं कहा जा सकता । भू-स्खलन के कारण अक्सर पर्वत खिसक कर नदी में जा गिरता है, जिससे नदी में एक अस्थाई बाँध बन जाता है। इस बाँध के निर्माण के पश्चात् इसका टूटना प्रायः निश्चित होता है, क्योंकि पहाड़ का मलबा बहुत देर तक पानी का दबाव बर्दाश्त नहीं कर पाता अतः बाँध टूट जाता है। उसके बाद हुई कुछ क्षणों की तबाही में ही बहुत नुकसान हो जाता है। कुछ समय पहले गढ़वाल में बिरही नदी में इसी प्रकार से बनी झील टूटने से आई बाढ़ में 32 मोटरगाड़ियाँ कुछ क्षणों में ही गायब हो गई, इससे नुकसान का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
इस सबका कारण यही है कि वस्तुतः आज हम वैज्ञानिक उपलब्धियों की चकाचौंध में अपने मूल तत्व एवं संस्कृति को भूल चुके हैं। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए हम धरती की जीवनदायी व्यवस्था में व्यवधान उपस्थित करने पर भी उतारू हो गए है। अपने भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए उन्हीं प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर रहे हैं, जो प्रकृति ने स्वचालित संतुलन व्यवस्था के रूप में हमें दिए हैं। अनेकानेक वैज्ञानिक चमत्कार, अंतरिक्ष की खोज, ध्वनि की गति के यंत्रों का निर्माण, अणु-विस्फोट, रासायनिक खाद व कीटनाशक रसायनों के प्रयोग में उत्पादन वृद्धि, ये सब हमारे विकास के विभिन्न चरण हैं।
विकास करते हुए हमने प्राकृतिक संतुलन की महत्ता को एकदम विस्मृत कर दिया। इससे होने वाले दूरगामी परिणाम के रूप में हम अपने ही विनाश को अनदेखा करते गए। आज कार्बन डाइ ऑक्साइड व अन्य ग्रीन-हाउस गैसों के उत्सर्जन में हो रही वृद्धि के कारण धरती का औसत तापमान काफी बढ़ चुका है। इस प्रकार पिछला दशक पिछली समूची सदी का सर्वाधिक गर्म दशक रहा है। परिवर्तन की यह दर पिछले 10,000 वर्षों में तीव्रतम हैं। मौसम के नियंता माने जाने वाले वनों पर किस खतरनाक हद तक दबाव बढ़ चुका है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि विश्व-बाजार में लकड़ी व उसके उत्पादों का प्रतिवर्ष 114 अरब डॉलर का कारोबार होता है। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक संतुलन का छिन्न-भिन्न होना स्वाभाविक है।
प्राचीनकाल में सुखद जीवन का सार यही था कि मानव प्रकृति के साथ आत्मिक संबंध स्थापित कर बहुत सीधा-सादा जीवन व्यतीत करता था। वह सिर्फ अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए प्रकृति का उपयोग करता था और इसके लिए वह प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होता था। उसकी इस भावना के फलस्वरूप उसके और प्रकृति के बीच आँतरिक संबंध कायम था। उसका जीवन सुख-शाँति से परिपूरित था। प्रकृति की गोद में उन्मुक्त विचरण करते हुए मनुष्य का मन स्वर्गीय सौंदर्य एवं आनंदानुभूति से भर उठता था।
यह बात सही भी है, वास्तव में मानव का जीवन प्रकृति से इतना घुला-मिला है कि प्रकृति की परिधि के बाहर कुछ सोचा ही नहीं जा सकता। हमारा संपूर्ण जीवन, हमारी खुशियाँ, हमारा सुख, हमारे आविष्कार, हमारा स्वास्थ्य सब कुछ प्रकृति में ही निहित है। इसके बाद भी मनुष्य यदि प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की बात सोचता है, तो इसे उसके मिथ्या दंभ के सिवाय और क्या कहा जा सकता है। प्रकृति पर विजय की इस भावना ने ही प्रकृति को विनाश-लीला फैलाने पर विवश कर दिया है। प्रकृति के विभिन्न रूपों में विभिन्नता होते हुए भी उनमें नियमबद्धता है। उसके सभी रूपों के भीतर कोई शृंखला अनुस्यूत है, कोई नियम चल रहा है। जिसके परिणामस्वरूप समस्त सृष्टि सुव्यवस्थित रूप से चलती रहती है। सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों एवं पशु-पक्षियों पर प्रकृति का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव पड़ता ही है। ये सब भी हजारों वर्षों से प्रकृति के नियमों का पालन कर रहे हैं। एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसने प्राकृतिक नियमों की अवहेलना करते हुए प्रकृति का विध्वंस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
अभी भी समय है सँभलने का, अब तक हुए विनाश से सबक लेकर सादगी एवं संयम का जीवन अपनाकर, प्रकृति से मातृवत् व्यवहार करके ही मानवजाति इस स्वनिर्मित विनाश से बच सकती है और इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य की संभावना साकार हो सकती है।