Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रकाशमय स्वर्ग - तमोमय नर्क
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भारतीय संस्कृति में स्वर्ग की अवधारणा स्पष्ट है। इसे अनेक रूपों में चित्रित किया गया है। इसका एक गुह्य और गहन पक्ष भी है, जो आर्य ऋषियों-द्रष्टाओं ने परिमार्जित, परिष्कृत एवं परिशोधित मनः स्थिति को स्वर्ग की उपमा से अलंकृत किया है। मन के अंधे होने, पशु प्रवृत्तियों के दासत्व को जीवन में नरक के रूप में अनुभव किया जाता है। अतः बुरे कर्मों के दुःखद परिणाम को नरक कहा जाता है तो भले कर्मों की सुखद परिणति को स्वर्ग कहा जाने का विधान है। यह आर्य कथन केवल आलंकारिक सत्य नहीं साधना-जगत का गुह्य रहस्य है, जिसे कोई भी सुपात्र अनुभव कर सकता है।
स्वर्ग में देवताओं का आवास माना जाता है। इसमें भी गहन अर्थ छुपा है। देवता अर्थात् देने की उदात्त वृत्ति। जो सतत देने में आस्था रखता है, जिसके विचार उत्कृष्ट एवं भावना परिष्कृत होती है, वहीं देवता है। ऐसे परिमार्जित व्यक्तित्व के धनी को ही देवता कहा जाता है और ऐसे देवत्व के परिचायक देवता जहाँ होंगे वह भूमि अवश्य ही पावन-पवित्र एवं स्वर्गतुल्य होगी। माना जाता है। हिमालय में देवताओं का वास होता है। कालिदास ने इसे देवतात्मा मानकर भावभरी अभिव्यक्ति की है- ‘अस्त्युत्तरस्याँ दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
हिमालय के उच्च भौगोलिक परिवेश एवं दिव्य आध्यात्मिक वातावरण के कारण ही इसे स्वर्ग नाम से विभूषित किया है । ऋग्वेद की ऋचाओं में यही दिव्य स्वर उच्चारित होता है- जिस लोक में वैवस्वत मनु राजा राज्य करते हैं, जहाँ मंदाकिनी की कल-कल धारा निनादित होती है, वही स्वर्ग है। ऋग्वेद की इस ऋचा में चार भौगोलिक तथ्यों का स्पष्ट निरूपण मिलता है, जिसके आधार पर हिमालय को ही इस आर्यभूमि का स्वर्ग घोषित किया गया है। सर्वप्रथम इसमें सोम का वर्णन है, जिसका उत्पत्ति स्थान हिमालय का भुँजावन नामक पर्वत है। ऋचा के द्वितीय तथ्य के अनुसार ब्रह्मावर्त हिमालय ही वैवस्वत मनु का राज्य है। उन्होंने जलप्लावन के समय दक्षिणगिरि प्रदेश से उत्तरगिरि की और हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर अपनी नाव बाँधने के लिए सप्तऋषियों को लेकर प्रयाण किया था। मनु का यह ‘मनोरवसर्वण’ नामक सर्वोच्च शरणस्थल उन्हीं के द्वारा प्रशंसित देवनिर्मित देश ब्रह्मावर्त में बदरीनाथ के निकट सरस्वती के तट पर वर्तमान गाँव अनुपास है। इसका पौराणिक नाम मणिभद्रपुर था।
ऋग्वैदिक ऋचा के तीसरे भाग में हिमालय की तलहटी में बसे हरिद्वार को स्वर्ग का द्वार संकेत कहा गया है। केदार खंड में यह और भी स्पष्ट रूप से प्रतिपादित होता है-
गंगाद्वारोत्तरे विप्र स्वर्गभूमि स्मृता बुधैः।
अन्यत्र पृथ्वी प्रोक्ता गंगाद्वारोत्तरं बिना॥
इदमेव महाभाग स्वर्गद्वारं स्मृतं बुधैः।
यस्य दर्शनमात्रेंण विमुक्तो भवबंधनैः॥
अर्थात् हरिद्वार से नीचे की भूमि सामान्य भूमि, हरिद्वार से ऊपर की भूमि स्वर्गभूमि और हरिद्वार स्पष्टतः स्वर्गद्वार कहा गया है, जिसके दर्शनमात्र से मनुष्य भवबंधनों से मुक्त हो जाता है।
महाभारत में उल्लेख है कि जिस क्षेत्र में गंगाजी अलकनंदा के नाम से पुकारी जाती है, वही स्वर्ग है। आज भी देवप्रयाग के ऊपर गंगाजी अलकनंदा के नाम से जानी जाती है। पाँचों पाँडव के साथ अर्जुन ने वनवास काल में बदरिकाश्रम के गंधमादन पर्वत क्षेत्र के अंतर्गत स्वर्ग में स्वर्गाधिपति इंद्र से दिव्यास्त्र प्राप्त किए थे। पाँडव स्वर्गारोहण के निमित्त भी इसी स्वर्गभूमि की यात्रा कर मुक्ति व मोक्ष के अधिकारी हुए थे। महाराज युधिष्ठिर ने स्वर्ग स्नान कर देवत्व प्राप्त किया था। वह स्वर्ग वर्तमान तिब्बत (त्रिविष्टप) नहीं, वरन् गंधमादन का यही पावन प्रदेश है। ऋग्वैदिक ऋचा के चौथे भाग में उल्लेख है कि जहाँ मंदाकिनी आदि नदियाँ बहती हैं, वहीं वाली मंदाकिनी का भौगोलिक अस्तित्व उसके स्वर्गभूमि होने की वास्तविकता पूर्णतः प्रमाणित करता है।
ऋग्वेद और पुराणों के अनुसार इंद्र, बुधपुत्र और उर्वशी का निवासस्थान गंधमादन और अलकनंदा का तटवर्ती क्षेत्र था। आर्षग्रंथों में इस क्षेत्र को पृथ्वी के स्वर्ग की उपमा दी गई है। पुरुरवा ऐल की राजधानी प्रतिष्ठानपुन (जोशीमठ) थीं। विष्णुपुराण में भी इसका उल्लेख मिलता है। कालीदास ने अपने प्रसिद्ध नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम्’ में गंधमादन पर्वत को पुरुरवा- अर्वशी के क्रीड़ाक्षेत्र के रूप में निरूपित किया है। कालीदास ने ‘मेघदूत’ में कनखल के ऊपरी हिमालय और देवनदी गंगा के इस पुण्य क्षेत्र को स्वर्ग प्राप्ति का सोपान कहा है। अथर्ववेद में भी हिमालय के इस दिव्य क्षेत्र को स्पष्टतः स्वर्ग कहा गया है। इंद्रविद्यावाचस्पति के अनुसार हमारे पास यह मानने के लिए बहुत पुष्ट और पर्याप्त प्रमाण हैं कि हिमालय ही आर्यों का आदि देश था, जिसे स्वर्ग राज्य के रूप में जाना जाता था।
हिमालय इस मर्त्यलोक का दिव्यधाम स्वर्ग क्षेत्र है। जहाँ ऋषियों की तपस्थली भी है, जहाँ पर तप के द्वारा हमारे आर्य ऋषि-मनीषी अपने अंतःकरण का परिष्कार-परिमार्जन करते थे। वे यहाँ पर तप-साधना, ज्ञान आदि श्रेष्ठकर्मों, सद्कर्मों में सदैव निमग्न रहते थे। ऋषियों की इस तप-साधना में ही स्वर्ग का गुप्त रहस्य ढँपा-ढँका है। अनुभवी ही इसके रहस्य को अनावृत्त कर अनुभव कर सकते हैं। मनुष्य जहाँ व्यष्टि है, वहीं विराट भी है। उसकी स्थिति- अवस्था के अनुरूप उसकी चेतना का स्तर होता है और चेतना के उन्हीं स्तरों की, शक्तियों की अनुभूति उसे होती रहती है। शरीर के स्तर पर वह जो साधना-विधान को अपनाता है, उसी के अनुरूप उसे पार्थिव चेतना से एकत्व का आभास होता रहता है। यहीं ‘भू ‘तत्व की अनुभूति होती है। ‘भुवः’तत्व की अनुभूति इसके निम्न और उच्च स्तरों के अनुसार प्रेत, पिशाचों की भयंकरता-विकरालता और यक्ष आदि प्राणिक शक्तियों की सौम्यता के दर्शन के रूप में हो सकती है। दैनंदिन जीवनक्रम में स्वप्न के माध्यम से इसे कुछ-कुछ अनुभव किया जाता है। जागरुकता के अभाव के कारण यह स्पष्ट एवं साफ नहीं हो पता । ‘स्वः’ तत्त्व जिसे मन कहा जाता है। अपनी अपरिमार्जित- अपरिष्कृत स्थिति में पशु प्रवृत्तियों के दासत्व का नर्कवास भुगतता है, वहीं परिशोधित-संस्कारित होने पर उसके समक्ष देवलोक, स्वर्गलोक का राज्य वैभव खुल जाता है और देवी-देवताओं की स्पष्ट अनुभूति होने लगती है।
अतः परिष्कृत मनःस्थिति को स्वर्ग कहा जाता है तथा अंधी कामनाओं, विषय-वासनाओं के दलदल में फँसा मन रौरव नरक के समान होता है। जिनका मन सदैव उत्कृष्ट विचारों से भरा रहता है, सदा सद्चिंतन में निरत रहता है, वह स्वर्ग के अक्षय सौंदर्य एवं आनंद से आप्लावित रहता है। जिनकी मनःस्थिति हेय एवं ओछी है, उन्हें दैन्य-दारिद्र्य, दुःख-दुर्बलता, कुँठा-क्लेश, अवहेलना-अवमानना के पापसमूहों में जकड़े, घिरे रहना पड़ता हैं। नर्कवास के इस गहन काल में अनंत भौतिक संपदाएँ उन्हें मिल भी जाएँ तो उनसे सुख-शान्ति नहीं मिल पाती, उलटे उनकी दूषित प्रवृत्तियों का दारुण विस्फोट होने में बढ़ी हुई संपदा आधार बनती है और उनके व्यक्तित्व के अधिकाधिक क्षय के साथ ही वह संपदा भी क्षयीभूत होती है।
भारतीय मान्यता कर्मफल के आधार पर स्वर्ग-नरक की परिकल्पना करती हैं। दुष्कर्मों की दुखद नियति नरक है और सद्कर्मों का सुखद परिणाम स्वर्ग। पूर्व वैदिक काल में भी यह विचार अस्तित्व में आ गया था। ऋग्वेद के अनुसार याज्ञिक अनुष्ठान रूपी पुण्यकर्मों से उत्तम गति के रूप में स्वर्ग की प्राप्ति होती हैं। अतः कर्मफल विधान से ही पाप-पुण्य तथा स्वर्ग-नरक की प्रक्रिया संचालित होती है। परवर्तीकाल में स्वर्ग-नर्क का दार्शनिक स्वरूप इसी कर्मफल विधान पर विकसित हुआ प्रतीत होता है। उपनिषदों में इस पर और विस्तारपूर्वक उल्लेख मिलता है।
वृहदारण्यक उपनिषद् में स्वर्गरूपी परलोकवाद का विश्लेषण हुआ है। इसमें कहा गया है कि श्रेष्ठ कर्म करके स्वास्थ्य, संपदा पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान आदि प्राप्त किया जा सकता है। इसमें आगे बताया गया है कि पितृलोक में जानें वाले पितरों को इस संसार के आनंद की अपेक्षा सौ गुना आनंद है। पुण्यकर्म से देवता बने हुए लोगों का आनंद गंधर्वलोक से भी शतोगुणी अधिक है। इस प्रकार औपनिषदिक चिंतन में कर्म के अनुसार स्वर्ग-नरक की धारणा का प्रतिपादन मिलता है।
ऋग्वेदकाल में आर्यों ने पापों के परिणामस्वरूप नरकलोक की कल्पना नहीं की थी, परंतु उपनिषद् के चिंतन में यह कल्पना झलकती है। इसमें नरक के विषय में स्वतंत्र दृष्टिकोण नहीं होने के बावजूद इसकी परिकल्पना की गई हैं इसके अनुसार नरकलोक अंधकार से आवृत्त है और वहाँ सुख व आनंद का अभाव है। इस संसार में अविद्यारूपी नरक के उपासक नरकलोक जाते हैं। आत्मघाती पुरुषों के लिए एवं अज्ञानी को भी मृत्यु के पश्चात इस नरकवास की यातना झेलनी पड़ती है। इसके ठीक विपरीत सद्कर्म करने वाले ज्ञानी पुरुष की सद्गति स्वर्गलोक की और होती है।
महाकवि वाल्मीकि ने महाकाव्य रामायण में स्वर्ग एवं नरक दोनों को परलोक के रूप निरूपित किया है। उनके अनुसार शुभकर्मों द्वारा व्यक्ति स्वर्गलोक को तथा पापकर्मों से नरकलोक को पहुँचता है। स्वर्ग−प्राप्ति की अवधारणा ही उसे पापकर्मों से विमुख करती है। अयोध्याकाँड में भगवान राम लक्ष्मण से कहते हैं कि हे लक्ष्मण! यदि मैं कुपित हो जाऊँ तो अपने बाणों द्वारा अकेले ही अयोध्यापुरी तथा समस्त भूमंडल को निष्कंटक बनाकर अपने अधिकार में कर सकता हूँ, परंतु पारलौकिक हितसाधन में बल, पराक्रम कारण नहीं होता है। अतः मैं ऐसा नहीं करूंगा। इस प्रकार रामायण में भी स्वर्ग एवं नरक ऐसे स्थान के रूप में कल्पित हैं, जहाँ व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार पहुँचना होता है।
महाभारत एवं अनेक पुराणशास्त्र में भी स्वर्ग-नरक की विचारधारा कर्मफल की अवधारणा से पूर्णरूपेण प्रभावित है। इनके अनुसार स्वर्ग केवल सुख-ऐश्वर्य का वैभावित है और नरक कुकर्मी को कठोर दंड देने लायक वीभत्स स्थल है। महाभारत में प्रतिपादित है कि स्वर्ग का अर्थ है-नित्य सुख अर्थात् जिस सुख के साथ दुःख के भोग का नाम नरक है, जिस लोक में पापात्मा जीव केवल दुःख-कष्ट ही भोगते है। स्वर्ग प्रकाशमय है और नरक तपोमय।
आलसी, दरिद्र, प्रमादी के लिए प्रगति के समस्त द्वार बंद हो जाते है। पापी, दुष्ट, दुरात्मा, घृणास्पद बनने और स्नेह-सहयोग से वंचित होकर मरघट के प्रेत-पिशाच बने एकाकी घूमते हैं। यह घृणित स्थिति नरक नहीं है तो और क्या है? सेवाभावी, सद्गुणसंपन्न, सज्जन धरती के देवता समझे जाते हैं ओर मरने के बाद भी वंदनीय एवं श्रद्धास्पद बने रहते है।उनकी यश-गाथाएँ अनेकों को प्रेरणा भरा प्रकाश देती रहती हैं। इसे स्वर्ग प्राप्ति न कहें तो और क्या कहें ? मनुष्य को चाहिए कि दुष्कर्म रूपी नरकाग्नि से विरत होकर सतत सद्कर्म रूपी स्वर्गीय आनंद का उपभोग करे। सद्कर्मों में स्वर्ग का अपार ऐश्वर्य-वैभव छुपा पड़ा है। अतः हमें सदा सद्कर्म करते रहना चाहिए।