Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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आस्तिकता का प्रबल परिचायक ‘स्व’ का सम्मान
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उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यत्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
अर्थात् आप स्वयं अपना उद्धारक हैं। आप स्वयं विनाश व विकास के कारण हैं। आप ही अपना मित्र हैं और आप ही अपना शत्रु हैं। गीता के इस दिव्य श्लोक में आत्म सम्मान, स्व सम्मान का मंत्र एवं सूत्र छुपा पड़ा है। स्वयं का सम्मान अपने अन्तर्निहित गुणों का सम्मान है। स्व अर्थात् आत्मा अस्तित्व का केन्द्र है। यही मनुष्य की मनुष्यता तथा चेतना का दिव्य स्वरूप है। स्व ही जीवन का परम स्रोत है। स्व के सम्मान से जीवन निखरता एवं विकसित होता है। और इसके विपरीत आत्म अवमानना समस्त आधि-व्याधियों का मूल कारण है।
स्व पर आस्था से ही आन्तरिक प्रतिभा का अभिवर्धन एवं विकास होता है जिसमें लौकिक व अलौकिक, भौतिक व आत्मिक सफलता ढँकी-ढँपी होती है। हम स्वयं को शरीर का जड़-पिण्ड मानकर अपनी आन्तरिक क्षमता एवं सामर्थ्य से अनभिज्ञ होते हैं और निराशा-हताशा के सघन तमस् में पड़े छटपटाते रहते हैं। स्वयं को न पहचानने के कारण ही हम अपने जीवन के सभी द्वार बंद किये मोहपाश के कारागृह में कैदी से पड़े रहते हैं। हम स्वयं को नकारते रहते हैं, जिससे विकास की सम्भावित अनन्त सम्भावनाएँ कुँद पड़ी रहती हैं और हम अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाते रहते हैं।
इसका सर्वमान्य समाधान है स्वयं का सम्मान। अपने ऊपर गहन आस्था एवं दृढ़ विश्वास करने पर ही सफलता का सम्पूर्ण वैभव हस्तगत हो सकता है। ईश्वर के नाम पर आस्था हो या न हो स्व पर प्रगाढ़ विश्वास होना ही चाहिए। वस्तुतः ईश्वर पर अनास्था नास्तिकता नहीं है बल्कि स्व पर अश्रद्धा एवं असम्मान ही सबसे बड़ी नास्तिकता है। स्व का सम्मान आस्तिकता का प्रबल परिचायक है। स्व को उपेक्षित-तिरस्कृत करने वाला समस्त मनोरोगों एवं विकृतियों का दंश झेलता है। ईर्ष्या-द्वेष का दुर्भाव इसी कारण पनपता और विकसित होता है तथा अमृतोपम जीवन को विषमय बना देता है। फिर दूसरों की सफलता से प्रसन्नता नहीं ईर्ष्या होती है और औरों के कष्ट पर हृदय नहीं तरलता-पिघलता है। यह सघन आत्महीनता एवं आत्मप्रवंचना का लक्षण है। इसका एकमात्र निदान है आत्मसम्मान और स्वयं पर विश्वास करने की कला का विकास।
आत्मविश्वासी किसी का मोहताज नहीं होता; बल्कि यह तो एक ऐसा पारस की तरह होता है जिसके स्पर्श मात्र से लोहा स्वर्ण के समान चमक उठता है। जैसे किरणों के रथ पर सवार सूर्य का उदय होते ही अंधकार विनष्ट एवं विलीन हो जाता है ठीक वैसे ही आत्मसम्मान व आत्मविश्वास का भाव जागृत होते ही आन्तरिक दुर्बलता व शक्तिहीनता तिरोहित होने लगती है। और सब कुछ कर गुजरने का नया साहस हिलोरें लेने लगता है। असफलता की महानिशा में सफलता का सतेज पराक्रम जन्मने लगता है। भाग्य और भविष्य को बदल डालने वाले महापुरुषार्थ का आविर्भाव होने लगता है। आत्मविश्वास की महाप्रखरता के सामने असफलता का कोई स्थान नहीं होता। क्योंकि यह विश्वास संघर्षों की भट्टियों में पकता है, कंटकाकीर्ण पथ में निखरता है और केवल अपने लक्ष्य के प्रति ही एकनिष्ठ व समर्पित होता है। इसलिए आत्मसूर्य के महाप्रतीक आत्मद्रष्ट स्वामी विवेकानन्द उद्घोष करते हैं कि अपने ऊपर विश्वास करा, प्रत्येक चीज तुम्हारे कदमों तक स्वयं चल कर आयेगी।
स्व का चिंतन विधेयात्मक चिंतन होता है। स्वयं के द्वारा जिसका चिंतन होगा उसका समग्र एवं सम्पूर्ण विकास अवश्यंभावी है। स्व का चिंतन ही परिष्कृत दृष्टिकोण है। वही वास्तविक सौंदर्य है। सुन्दरता का मापदण्ड शारीरिक नहीं होता। उच्चस्तरीय विचार एवं संवेदनशील हृदय में सच्चा सौंदर्य झलकता है। विश्वास व श्रद्धा के सुमन में ही दिव्य सौंदर्य का सौरभ सुरभित होता है। देखने के दृष्टिकोण पर ही व्यवहार का मर्म आधारित है। जिसे जिस रूप में देखा जाता है उसके साथ उसी दृष्टि से व्यवहार भी किया जाता है। अतः प्रेमपूर्ण व सजल व्यवहार करने के लिए सही नजरिये का होना भी आवश्यक है। जिसका एक मात्र आधार है आत्मसम्मान का भाव।
आत्मा ही आरोग्यता का परमधाम है। आत्मा के महासागर में निरोगिता की लहरें उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं। शरीर तो आत्मा का वाहन मात्र है, जिसके द्वारा वह इस मर्त्यभूमि की यात्रा करती है। सुखद यात्रा के लिए इस वाहन रूपी देह को सम्भाल-सहेज कर रखना पड़ता है। शरीर आत्मा का दिव्य मन्दिर है और आत्म संयम तथा नियमितता द्वारा इसके आरोग्य की रक्षा करनी चाहिए। स्वस्थ एवं निरोगी काया में ही आत्मा की अभिव्यक्त हो सकती है। रुग्ण एवं जर्जर काया में आत्मा का सौंदर्य नहीं निखर सकता। स्वच्छ मन का निवास स्वस्थ शरीर में ही सम्भव है। अतः शरीर को व्यसनों से मुक्त रखना चाहिए एवं सात्त्विकता का भाव अपनाना चाहिए।
देह में रहते हुए भी देहभाव से परे दिव्य व दैवीय भाव अपनाने का सतत अभ्यास करना चाहिए। जीवन की लगभग सभी समस्याएँ देहबोध के कारण उपजती एवं पनपती हैं। हम स्वयं को देह मानकर उसी को सजाने-सँवारने में बहुमूल्य व बेशकीमती जीवन को होम देते हैं और देह के सुख में सुखी एवं दुःख में दुःखी होते हैं। जबकि आत्मा तो सुख-दुःख से परे आनन्दमय सत्ता है। उसमें तो केवल आनन्द ही आनन्द भरा पड़ा है। वह प्रेम से लबालब है, करुणा से सराबोर है। बस देहाभिमान की छिछली परत को उतारने तथा इसके चिर अभ्यास के आवरण को हटाने भर की देरी है। इस अभिमान के हटते-मिटते ही इसी देह में दैवीय अनुभूतियों का अनुभव किया जा सकता है। इससे जीवन आनन्दमय हो जाता है। काया निरोग व स्वस्थ बन जाती है। शरीर द्वारा किया हर कर्म श्रेष्ठता की ओर प्रेरित करता है। दूसरों के प्रति सद्भाव, सहयोग एवं सेवा ही स्वधर्म बन जाता है। दैवीय गुणों से व्यक्तित्व निखर उठता है।
आत्मसम्मान का भाव जाग्रत होते ही जीवन की मुरझायी एवं कुम्हलायी कलियाँ खिल उठती हैं। हम स्वयं को स्वीकारने लगते हैं। जैसे हैं उसी रूप में सहज मस्ती का भाव उमगने लगता है। कष्टों से पलायन की वृति मिटने लगती है और कष्ट झेलने में भी आनन्द आने लगता है। अपनी कमियों एवं खामियों को स्वीकारने लगते हैं। जिससे सद्गुणों को अंकुरित विकसित होने के लिए आधार भूमि तैयार हो जाती है। अचेतन ग्रंथियों में अवरुद्ध जीवन ऊर्जा मुक्त होने लगती है और अन्तर्निहित क्षमताओं के जागरण का क्रम शुरू हो जाता है। इससे प्रतिभा, साहस, आत्मबल जैसी विभूतियाँ प्रस्फुटित होने लगती हैं, जिसको शास्त्रकारों ने ऋद्धियों-सिद्धियों से अलंकृत-विभूषित किया है। स्वयं को सम्मान एवं प्यार देकर ही इन उपलब्धियों का अधिकारी हुआ जा सकता है। इसके लिए दर्पण साधना उपर्युक्त साधन है। दर्पण साधना अर्थात् शीशे के माध्यम से अपने अस्तित्व की गहराई में डूबना व उतरना। इससे हमारे स्व का स्वरूप बोध होने लगता है।
आत्मा समस्त सद्गुणों का दिव्य स्रोत है। आत्मा को सम्मान करने का भाव-बोध पनपते ही ये गुण जीवन में झरने लगते हैं। जीवन सद्गुणों का समुच्चय बन जाता है, भण्डार बन जाता है। पुष्पों में मण्डराने वाले भौरों की भाँति जीवन में आत्मिक विभूतियाँ तथा भौतिक उपलब्धियाँ सघनतर-सघनतम होने लगती हैं। अतः आत्म सम्मान करने के लिए अपने अन्दर अवस्थित सद्गुणों पर आस्था रखनी चाहिए। सद्गुणों का चिंतन करना चाहिए तथा व्यवहार में उतारना चाहिए। ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए, नहीं सोचना चाहिए जो सद्गुणों से परे हो, प्रभु की मर्जी के विरुद्ध हो। यही सच्ची आत्मसम्मान की भावना है जिसे अपनाकर, उताकर जीवन को प्रभुमय बनाया जा सकता है, जीवन में भगवद् चेतना को अवतरित किया जा सकता है।