Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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चेतना की शिखर यात्रा-18 - सिद्धि के मार्ग पर संकल्प-2
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साधना सहचरी का आगमन
सितंबर 1927 में श्रीराम ने सोलह वर्ष पूरे कर लिए। ननिहाल पक्ष ने (अलीगढ़) में पंडित रूपराम शर्मा की कन्या का सुझाव दिया। नाम था सरस्वती देवी। ताई जी अपने भाई के साथ भावी वधू को देखने तुरंत चल पड़ी, “गोमाता की सेवा कर लेती हो बेटी।” कन्या ने कुछ जवाब नहीं दिया। शील और लज्जा से वह नीचे देखने लगी। रूपराम जी ने जवाब दिया, “ खूब पूछा बहन जी, सरस्वती को गोसेवा के अलावा कुछ और अच्छा नहीं लगता।” घर-परिवार सँभालने और स्वभाव आदि के बारे में ताई जी ने ज्यादा बात नहीं की। उनका मानना था कि कन्याओं को किसी भी वातावरण में ढाला जा सकता है। स्वभाव से वे बुरी नहीं होती। बहुओं को ससुराल के लोग ही परायापन अपनाकर बिगाड़ते हैं।
पं. रूपराम और गाँव के दो-तीन रिश्तेदार आंवलखेड़ा भी आए। उन्होंने श्रीराम को देखा। पैतृक संपदा इतनी ज्यादा थी कि खाने-कमाने की चिंता ही नहीं करनी थी। पूजा पाठ में श्रीराम की प्रवृत्ति और निष्ठा तो उन सबको बहुत पसंद आई। रूपराम जी को पूजा-कक्ष के मंदिर जैसा वातावरण बहुत भाता है। शिव-पार्वती की आराधना प्रतिदिन करती हैं। पाँच वर्ष की थी, तभी से शुरू कर दिया था।” इतना कहकर पंडित रूपराम रुके। श्रीराम और उनकी बालसेना के सदस्यों का सुराजी कार्यक्रमों में हिस्सा लेना उन्हें पसंद नहीं था। आपत्ति की,” काँग्रेसियों के साथ रहना और आँदोलन चलाना थोड़ा जोखिम का काम है, कल को कुछ भी हो सकता हैं। बच्चों क्या करेगी?”
इस आपत्ति की काट निकालते हुए ताई जी ने कहा, “होने को तो कही भी, किसी को भी, कुछ भी हो सकता है। उस हालत में क्या करेंगे? स्वराज आँदोलन में मालवीय जी महाराज तक और गाँधी जी सभी शामिल हैं। आगरा मथुरा के बड़े ठिकानेदार लोग भी आँदोलन में शामिल है। यह तो गर्व करने लायक बात है।” ताई जी की बात सुनकर रूपराम जी का समाधान हुआ।
वाग्दान आदि की रस्म तुरंत संपन्न हो गई विवाह की तिथि भी उसी समय निश्चित कर ली गई। कार्तिक पूर्णिमा के दिन आंवलखेड़ा से बारह व्यक्ति बारात लेकर गए। वहाँ सादगी से विवाह संस्कार संपन्न हुआ। शास्त्रों में जिसे ब्राह्म विवाह कहा जाता है, उस श्रेणी का। दहेज में दो गायें और वर-वधू के लिए दो-दो जोड़े कपड़े दिए गए। बारातियों की आवभगत अच्छी की गई, लेकिन कोई धूम-धड़ाका नहीं हुआ। कोई बड़ा सहभोज भी नहीं हुआ। गाँव में अपने वर्ग-समुदाय के बीस-पच्चीस परिवार थे। उन्हें ही भोजन पर आमंत्रित किया गया। रूपराम जी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। शान-शौकत में कोई कमी नहीं रहने देते, लेकिन विवाह तय होते समय ताई जी ने साफ शब्दों में कह दिया था कि इस शुभ अवसर पर फिजूलखरची न की जाए। विवाह सादगी से संपन्न हो।
विवाह के बाद भी तप
आँवलखेड़ा लौटते ही श्रीराम की दिनचर्या पहले की तरह सहज हो गई। विवाह संस्कार और दूसरे रस्म-रिवाज पूरे करने में चार दिन लग गए थे। इस अवधि में निर्धारित जप पूरा नहीं हुआ। चार दिन तक तीन साढ़े तीन घंटा ही बैठ पाए। छूटा हुआ जप पूरा करने के लिए श्रीराम ने तीन दिन कोई और काम नहीं किया। सिर्फ जप ही करते रहे। स्नानादि के अलावा किसी और काम के लिए पूजागृह से भी बाहर नहीं निकले चौथे दिन जप पूरा हो गया तो निश्चित होकर बैठे। पत्नी ने आकर चरण स्पर्श किए। सहधर्मिणी की ओर देखा वधू बनकर घर आने के शुरू दिन से सरस्वती देवी प्रणाम करती थीं। चरण नहीं छू पाती थीं, क्योंकि श्रीराम स्नान, पूजा और बाहर आकर आहार लेकर तुरंत पूजागृह में लौट जाते थे। नववधू उन्हें दूर से ही देखती और प्रणाम कर लेती थी। चौथे दिन उन्हें चरणस्पर्श का अवसर मिला था।
ताई जी भीतर किसी और कक्ष में थीं। श्रीराम ने अपनी सहधर्मिणी से बैठने के लिए वे नीचे जमीन पर बैठ गई। “जमीन पर मत बैठिए”, कहते हुए श्रीराम उठे और पास ही रखा दूसरा आसन बिछा दिया। कहा, “आसन पर बैठिए। “पत्नी संकोच करती हुई आसन पर बैठी। “यहाँ ठीक लग रहा है, कोई असुविधा तो नहीं”, जैसी बातें पूछने के बाद उन्होंने कहना शुरू किया, “तुम विवाह कर आ गई हो, विधि ने हमारे भाग्य में दंपत्ति होना लिखा था, हो गए। लेकिन तुम्हें आगे चलकर बहुत कष्ट उठाने पड़ सकते हैं। हमारे जिम्मे भगवान ने कुछ ऐसे काम सौंपे है कि हम घर गृहस्थी को शायद ठीक से सँभाल न पाएँ। तुम पर भी ध्यान देने से चूक हो जाए। उस स्थिति के लिए अपने मन को तैयार रखना।’
सरस्वती देवी ने कहा, “ये सब बातें विवाह से पहले तय करनी थीं। अब क्या?” इस वाक्य से लगा कि जैसे उलाहना दिया जा रहा हो, लेकिन वैसी बात नहीं थी। उन्होंने कहा, “पिताश्री ने आपके साथ हमें विदा कर दिया तो यह भगवान की ही इच्छा है। भोलेनाथ ने आपके साथ धर्म निभाने का ही आदेश दिया, हम नहीं जानते कि आगे क्या कष्ट या सुख मिलने वाले हैं। अपना धर्म निभाएँ, यह सबसे बड़ी प्रसन्नता है।”
श्रीराम ने पूछा, “क्या है आपका धर्म?” उधर से उत्तर आया, “स्त्री होने के नाते आपके चरणों की सेवा आप तपस्वी हैं, भगवान के प्रिय हैं, यह मेरा बड़ा सौभाग्य है कि आपके रूप में हमें अपने आराध्य (शिव) ही मिल गए।” पत्नी का मन या आश्वासन पाकर श्रीराम के मन से एक बोझ कम हुआ। वह समझ रहे थे कि पत्नी को यहाँ के परिवेश और मुझ जैसे पति को निभाने में बड़ी भारी अड़चन होगी। वैसा कुछ नहीं था।
ताई जी को आती देख नववधू अपने आसन से उठ गई। भीतर जाकर वे अपना काम देखने लगीं। ताई जी ने कहा, “मायके वाले बहू को लिवाने आ रहे हैं, एक बार तो बिटिया कुछ समय के लिए अपने यहाँ जाती ही है। श्रीराम ने सुनकर कोई जवाब नहीं दिया। वे चुपचाप उठकर बाहर आ गए। अपनी बालसेना के सदस्यों को ढूँढ़ने लगे। कुछ दिन तक संपर्क नहीं रखने से वे सभी यहाँ वहाँ हो गए थे। कोई नया कार्यक्रम नहीं छेड़ा था। पहले तैयार किए पोस्टर ही आस-पास के गाँवों में चिपका रहे थे। एक दूसरे को बताने के क्रम से शाम तक सभी सदस्यों के पास सूचना पहुँच गई
हर बीमार सेवा की अधिकारी
अगले दिन सब लोग इकट्ठा हुए। इस बीच कहाँ क्या विशेष हुआ है? इस बारे में जानकारी का आदान-प्रदान हुआ। आठ दिन में कुछ खास नहीं घटा था। श्रीराम को अचानक ख्याल आया, हुब्बा चाचा के क्या हाल हैं? पिछली खबर उनके बीमार होने की थी। हुब्बा चाचा यादि पटवारी हुब्बालाल। गाँव के लोग उसे पटवारी जी कहकर पुकारते थे। उन दिनों यह पद पुश्तैनी हुआ करता था। पिता अपने पुत्र को पटवारी बनाकर कार्यमुक्त हो जाता था। हुब्बालाल भी विरासत से ही पटवारी बना था, लेकिन आगे इस पद को सँभालने के लिए कोई वारिस नहीं था।
अपने सक्रिय रहने के दिनों में हुब्बालाल ने गाँववालों का जीना मुश्किल कर दिया था। लालच और उत्पीड़न दोनों अवगुण उसकी रग रग में समाए हुए थे। सँभालने वाला कोई नहीं था, फिर भी लालच में आकर उसने गाँव में किसी भी किसान को चैन से नहीं रहने दिया। आए दिन लोगों को नोटिस भिजवाता, आतंक के लिए जमीन की अनावश्यक रूप से माप-जोख करना और माँग पूरी नहीं होने पर तहसील में मनमानी रिपोर्ट भेजकर पुलिस बुलवा लेने जैसे तौर-तरीके अपना रखे थे। कुछ किसान तो उसकी ज्यादतियों के चलते अपनी संपत्ति से हाथ धो बैठे थे। अच्छी संपन्न स्थिति से हाथ धोकर सड़क पर आ जाने वालों की भी कमी नहीं थी। हुब्बालाल बीमार हुआ तो लोगों ने कहा, “भगवान ने उसके कर्मों की सजा दी है।” पटवारी जी के फालिज हो गया था। कुछ दिन तक तो उनके बीमार होने का ही पता नहीं चला। जब पता चला तो लोगों ने कर्मफल की बात कहकर पल्ला झाड़ लिया।
सेनानायक श्रीराम का कहना था कि गाँव में कोई दुखी-बीमार है, उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है तो गांववालों का जिम्मा बनता है कि उसे सँभाले। परिवार में कोई कितना ही बिगड़ैल हो, तब भी बीमार पड़ने पर घर के लोग उसे सँभालते हैं या नहीं। यह तर्क लेकर वे गाँववालों को समझाने नहीं गए, बल्कि अपने स्वयंसेवकों की ही बारी बाँध दी।
उस दिन स्वयंसेवकों की मीटिंग थी। श्रीराम ने कहा, “पहले जाकर देखकर आते हैं, बाकी बातें बाद में करेंगे” वहाँ जाकर देखा, हुब्बलाल अपनी चारपाई पर पड़ा कातर दृष्टि से दरवाजे की ओर देख रहा था कि कोई आए, कुशलक्षेम पूछे। अपने कर्मों की याद आते ही किसी से अपेक्षा करने का विचार तुरंत हवा हो जाता, फिर भी न जाने क्यों आशा बँधती कि शायद कोई देखने आ ही जाए, दरवाजा खुला ही था। श्रीराम और उनके साथियों को दस्तक देने की जरूरत नहीं पड़ी। हुब्बलाल चारपाई पर पड़ा जैसे इन्हीं लोगों का इंतजार कर रहा था। देखकर आंखों में चमक आ गई। चमक थोड़ी देर ही कायम रही और आँख भर आई। कहने लगा, “मुझे अपने पापों की सजा मिल रही है बच्चों, मैंने न जाने कितने लोगों के घर उजाड़े हैं।”
श्री राम ने कहा, “घबराइए मत लालाजी, सब ठीक हो जाएगा।” लालाजी को समझाकर वे तुरंत देखभाल में जुट गए। घर में सार-सँभाल करने वाला कोई नहीं होने से हालत बहुत बुरी हो गई थीं। शरीर गंदगी से सना पड़ा था। मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। फालिज के कारण हाथ उठ नहीं रहा था, इसलिए वह उन्हें भगा भी नहीं पा रहा था। बच्चों ने नाक पर हाथ रखकर सँभालना चाहा। श्रीराम ने उनसे कहा, “जी को थोड़ा कड़ा करो। एक हाथ से कोई काम होगा क्या ?” बच्चों ने बाल्टी ढूंढ़ी। घर के बाहर जाकर कुएँ से पानी खींचा और पटवारी जी को नहलाया। उनके कपड़े, बिस्तर, कमरा साफ किया। आगरा से कुछ लोगों ने गरीबों और अपाहिजों के लिए बिस्तर व कपड़े आदि भिजवाए थे। श्रीराम सामान लेकर आई टोली के पास गए और हुब्बलाल के लिए भी कपड़े लिए। पटवारी जी की सेवा-टहल की। जब तक वह जीवित रहा, इसी तरह देखभाल चलती रही। हालत ज्यादा बिगड़ने के बाद तो सेवादल का कोई-न-कोई सदस्य वहाँ बना ही रहता था।
हुब्बलाल ज्यादा दिन जीवित नहीं रहा। जितने दिन भी जीवित रहा, बच्चों की सेवा-सुश्रूषा से यह संस्कार लेता रहा कि स्वार्थ के लिए जान-बूझकर किसी का अहित कभी नहीं करना चाहिए। जहाँ तक हो सके, दूसरों की सेवा करनी चाहिए। मरने से पहले पश्चाताप और ग्लानि में डूबे जा रहे हुब्बलाल ने ने श्रीराम को अपने पास बुलाया। बुदबुदाते हुए कहा कि अगला जन्म मिला तो भले ही पशुयोनि में जाऊँ, लेकिन मैं पशु होकर भी सेवा करना चाहूँगा, भगवान भले ही मुझे गधा बना दे।
“नहीं दीवान जी।” श्रीराम ने कहा, “ऐसा क्यों कहते हैं। आप मनुष्य योनि में ही आएंगे। उस जन्म में अपनी सारी गलतियाँ सुधार लेंगे और भगवान का ही काम करेंगे।” हुब्बलाल की आँखें भर आई। गला रुँध गया। अटक-अटककर कहने लगा, “आशीर्वाद देने लायक पुण्य तो नहीं हैं मेरे पास। भूले भटके कोई पुण्य किया हो तो तुम्हें मिल जाए। भगवान से तुम्हारे लिए यही माँगता हूँ कि तुम्हारा यश अमर कर दें।” इसके बाद उसकी आवाज चली गई।
लोकमान्य तिलक का दिया स्वराज्य का नारा गाँव-गाँव गूँजने लगा था। जहाँ भी दस-पंद्रह उत्साही लोग इकट्ठे होते, उसी के बारे में चर्चा करते। आँवलखेड़ा में किशोरों की टोली पहले ही सक्रिय थी। राष्ट्रीय आँदोलन के तेज होने और अंग्रेजों द्वारा उसका दमन करने वाली दोनों तरह की खबरें गाँव में पहुँचती थीं। आँदोलनकारियों का उत्साह लोगों को ज्यादा गदगद नहीं करता था। अँग्रेजों द्वारा दमन की खबरें उनका उल्लास रौंदती हुई उन्हें बुरी तरह डरा देती थीं। जिन परिवारों के बच्चे आँदोलन में छिटपुट हिस्सा ले रहे थे, वे चिंतित थे।
किशोर सुराजियों के लिए चिंता
एक दिन सभी लोग मिलकर बैठे, विचार किया और इस नतीजे पर पहुँचे कि उनके लाड़ले अपने आप कुछ नहीं कर रहे। श्रीराम के कहने-सुनने में आकर या देखा−देखी ही जुलूस, धरना आदि में शामिल होते हैं। जहाँ-तहाँ परचे-पोस्टर चिपकाते हैं। श्रीराम की गतिविधियों पर अंकुश लगाया जाए, बाकी बच्चे अपने आप विभाजित हो जाएँगे। सहमति बनाकर चार-पाँच लोग ताई जी के पास गए। कुशलक्षेम पूछने की औपचारिकता के तुरंत बाद अपने विषय पर आ गए, “ताई जी, फिरंगियों के घोड़े दौड़ रहे हैं। सुराजियों को देखते ही पकड़ लेते हैं और बंद कर देते हैं। कई गाँवों से खबर है कि पकड़े हुए लोगों का पता नहीं चलता।”
यह भयावह चित्रण ताई जी को डराने के लिए नहीं था। उनके पास आए लोग पूरी ईमानदारी से कह रहे थे, “अपने श्रीराम का थोड़ा सँभालकर रखें तो अपने बच्चों की हिफाजत होगी, वरना पता नहीं कब फिरंगी अपने गाँव में धावा बोल दें।”
ताई जी चिंतित हुई। उन्होंने श्रीराम की गतिविधियों पर निगरानी रखने का वचन दिया। गाँव के लोग भी कुछ निश्चिंत होकर चले गए। इसके बाद श्रीराम जब भी घर से बाहर निकलते, ताई जी पूछतीं, “कहाँ जा रहे हो? कब तक वापस लौटोगे?” बताए गए समय पर वापस नहीं लौटते तो पूछताछ करतीं। स्पष्टीकरण माँगतीं। आगे इस तरह से देरी नहीं होगी, यह चेतावनी देती। ताई जी की निगरानी बढ़ जाने से श्रीराम को कोई अंतर नहीं पड़ा क्योंकि वे जो भी उत्तर देते, उससे ताई जी का समाधान हो जाता। वे कहते कि प्रदर्शन में गया था, तो भी ताई जी नहीं डांटतीं और कहते कि सेवा में गया था तो भी कुछ नहीं कहती। उनके लिए उत्तर ही समाधान होता।
एक बार श्रीराम ने कुछ दिन के लिए आगरा काँग्रेस कार्यालय जाने की बात कही। माँ ने मना कर दिया। सोचते रहे कि माँ की अवज्ञा कैसे की जाए? करें या न करें? अंतरात्मा ने समाधान सुझाया, माँ यदि मोहवश मना कर रही हो तो भी राष्ट्र की सेवा से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। इस प्रतिबंध की अवहेलना क्षम्य है। इसके बाद उपयुक्त अवसर की ताक में रहे। एक दिन रात को दो बजे उठे। पानी का लोटा भरा और दरबान से कहा कि बाहर जाना है। उसने सोचा, दिशा मैदान जाना होगा। हवेली से बाहर जाने का मन हो रहा होगा। यह सोचकर दरवाजा खोल दिया। बाहर आते ही श्रीराम ने लोटा रखा और आगरा की ओर चल दिए। रातभर चलते रहे। सीधा रास्ता न पकड़कर यहाँ-वहाँ छिपते-छिपाते आगरा पहुँचे। पूछताछ की। पता चला कि काँग्रेस कार्यालय में स्वयंसेवकों की भरती हो रही है। उन्हें आँदोलन का प्रशिक्षण दिया जाएगा। शिविर भी लगे हाथों शुरू होने वाले हैं। श्रीराम भरती हो गए। उनके साथ शिविर में शामिल हुए आँदोलनकारियों में जगन प्रसाद, गंगासिंह, दद्दू और ऊधमसिंह आदि के नाम भी हैं। इन लोगों ने बढ़-चढ़कर आँदोलन में हिस्सा लिया। पंडित नत्थीलाल शर्मा, रामनारायण शिवहरे और वासुदेव गुप्त भी उसी शिविर में थे।
स्वयं सेवकों के इस शिविर में अनुभवी आँदोलनकारी युवकों को जनसंपर्क करना सिखाते थे। पँम्पलेट तैयार करना, पोस्टर बनाना, सभाएँ करना और आँदोलन का माहौल बनाना शिविर के विषय होते। श्रीराम ने एक सप्ताह के शिविर में ये बातें अच्छी तरह सीखीं। इस बीच आँवलखेड़ा में अपनी माँ के पास उन्होंने सूचना भी भिजवाई कि वे कुशल हैं। प्रशिक्षण लेकर तुरंत वापस आ जाएंगे। यह सूचना शिविर में भरती होते ही व्यवस्था देख रहे एक वरिष्ठ कार्यकर्त्ता से कहकर तुरंत भिजवा दी थी। उधर ताई जी ने खाना-पीना सब छोड़ दिया था। सूचना पाकर वे निश्चिंत हुई।