Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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आशावाद से बड़ी कोई संजीवनी नहीं
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‘पॉजिटिव मेन्टल एटिच्यूड’ अर्थात् आशावादी रुख मनुष्य जीवन की सफलता एवं सार्थकता का सर्वोपरि मापदण्ड है। इसके विपरीत ‘नेगेटिव मेन्टल एटिच्यूड’ अर्थात् जीवन के प्रति निराशावादी रुख, व्यक्ति की विफलता, दीनता, हीनता एवं परतंत्रता का सुनिश्चित आधार है। जीवन के प्रति आशा-उत्साह से भरा रुख स्वयं में एक अद्भुत शक्ति है। जब तक यह आशा मन में जीवित रहती है, व्यक्ति को कोई हरा नहीं सकता। जीवन की बड़ी से बड़ी विपत्ति, चुनौती एवं प्रतिकूलता भी उसे बुझा नहीं सकती। मानव जीवन को यदि एक जहाज की संज्ञा दें, तो आशा उसकी कप्तान है। यह जीवन रूपी बेड़े को देर-सबेर अपनी अभीष्ट मञ्जिल तक पहुँचा ही देती है। जीवन रूपी जहाज में यदि आशा का स्थान निराशा ने ले लिया तो जलयान की मात्रा का संकटमय होना तय है। इसके रहते जलयान यदि मञ्जिल से भटक जाए या सागर तल में ही समाधि ले ले, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।
इस सम्बन्ध में रस्किन ने ठीक ही कहा है कि ‘दिल डूबा तो नौका डूबी। मैं उत्साह भंग के सिवा किसी भी दूसरी बात को नहीं जानता जो अकेली ही मनुष्य को इतनी हानि पहुँचा सकती है’। उत्साह भंग होने से आशाएँ धुँधली पड़ जाती हैं, आकाँक्षाएँ क्षीण होकर नष्ट होने लगती हैं तथा कार्य करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। इसीलिए कहा भी गया है कि ‘जब तक साँस तब तक आस।’ जब आशा ही नष्ट हो जाये तो जीवन में रह ही क्या जाता है? सारा उत्साह ही ठण्डा हो जाये तो सब कुछ सूना, सब कुछ फीका, सब कुछ आनन्द हीन हो जाता है। अतः इस स्थिति में मन पूरी तरह से निषेधात्मक बन जाता है और इसकी तमाम गतिविधियाँ ध्वंसात्मक रूप लिए होती हैं जो व्यक्ति की जीवनीशक्ति, विचारशक्ति, भावशक्ति आदि सब कुछ को दूषित कर कार्यशक्ति से लेकर मानवीय सम्बन्धों को नष्ट-भ्रष्ट कर अपने लिए विनाश का सरंजाम खड़े करती है। जबकि जीवन में सुख-शान्ति एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्माण आशावादी मन द्वारा सकारात्मक विचारों के साथ सम्पन्न होता है। ऐसा मन लगाकर परिश्रम, निरन्तर अध्यवसाय तथा अचल निष्ठ के साथ हर अवसर का सदुपयोग करते हुए उन्नति के शिखर की ओर आरोहण करता है।
एस. बी. फुल्लर एक गरीब किसान का लड़का था। पिता की असामयिक मृत्यु ने इसकी निर्धनता को और विपन्न बना दिया था, किन्तु अमूल्य सम्पदा के रूप में उसे असाधारण माँ मिली थी जो सकारात्मक चिंतन की प्रतिमूर्ति थी। श्रमनिष्ठ एवं प्रभु कृपा पर उसका अटूट विश्वास था। उसी की प्रेरणा से बालक फुल्लर ने खच्चर चराने के पेशे को छोड़कर साबुन बेचने का कारोबार शुरू किया। उसकी ईमानदारी एवं लगन के कारण उसका यह व्यापार खूब फला-फूला और उसकी प्रमाणिकता की बदौलत लोगों से भी उसे बहुत प्रशंसा एवं सम्मान मिला। आशावाद का दामन थामे फुल्लर ने अब पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब उसने स्वयं साबुन की फैक्ट्री स्थापित की। क्रमशः लेबेल की कम्पनियाँ, होजियरी और समाचार पत्रों को भी अपने व्यवसाय का अंग बनाता गया और व्यापार के क्षेत्र में चरम शिखर पर प्रतिष्ठित हुआ। यह सब ‘पॉजिटिव मेन्टल एटीच्यूड’ का ही परिणाम था।
प्रख्यात् लेखिका डोरोथी डिक्स, भयंकर गरीबी एवं बीमारी की विषाद भरी संतापक स्थिति से गुजर चुकी है। उनका कहना है ‘मैं अभाव, संघर्ष, दुश्चिंता और नैराश्य के प्रभाव से भली-भाँति परिचित हूँ।’ किन्तु हिम्मत उसका अस्त्र रहा। जिस क्षण उसने आशावादी रुख का महत्त्व समझा, तभी से उसने रोना-धोना और भाग्य को कोसना छोड़ दिया तथा अपना स्वभाव विनोदी बना लिया तथा उम्मीदों के सहारे जीना सीख लिया। इस तरह वह कष्टों को झेलने का साहस बटोर सकी और निषेधात्मक चिंतन के ध्वंसात्मक प्रभावों को दरकिनार कर सकी। इससे उत्पन्न रचनात्मक शक्ति ही उसके लेखन के माध्यम से प्रस्फुटित हुई और उसकी महान् रचनाओं के सृजन का आधार बनीं।
बेसबॉल के प्रसिद्ध खिलाड़ी क्लेम लैबिन की जीवन गाथा भी आशा द्वारा निराशा पर विजय की एक प्रेरक मिसाल है। बचपने में प्रशिक्षण के दौरान लैबिन की दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली टूट गई थी। चिकित्सा के बाद अंगुली जुड़ तो गई, किन्तु टेढ़ी जुड़ी। उसके एक सफल खिलाड़ी बनने की सारी उम्मीदों पर जैसे पानी फिरता दिखाई दिया। निराश होकर उसने खेलना छोड़ दिया और हताशा के झूले में झूलता रहा। किन्तु उसके शुभचिंतक प्रशिक्षक का प्रोत्साहन उसमें आशा का संचार करता रहा। उसका वाक्य ‘कई बार आशीर्वाद, विषमता का छद्मवेश धारण करके आता है’ जैसे क्लेम के जीवन का गुरु मंत्र बन गया। उसने पुनः खेल का अभ्यास प्रारम्भ किया। उसी अंगुली से उसने गेंद को ऐसा मोड़ देने का हुनर विकसित किया कि वह सफल खिलाड़ी बनने के अपने स्वप्न को साकार कर सके। इस तरह यह तभी सम्भव हो पाया जब क्लेम ने विषम स्थिति में भी कल्याण के भाव को देखा और निराशाजनक विचारों का त्याग करते हुए पूरी लगन और ईमानदारी के साथ अपने स्वप्नों को साकार रूप देने में जुट गया।
इस तरह सकारात्मक चिंतन पद्धति जीवन को खिलाड़ी भाव से देखने का नजरिया देती है। इससे समता का भाव पनपता है। अतः सुख-दुःख, हार-जीत, मान-अपमान जैसे द्वन्द्वों को यह समान रूप से मधुर मुस्कान के साथ स्वागत करने योग्य बनाता है। खुरासान के राजकुमार का एक संस्मरण यहाँ प्रासंगिक है। एक बार राजकुमार लड़ाई के लिए जा रहा था। उसके खाने-पीने तथा सुख-सुविधा का सामान तीन सौ ऊँटों पर लदा था। उसे विजय का पूर्ण भरोसा था, किन्तु युद्ध के मैदान में पासा पलटते देर न लगी और वह खलीफा इस्माइल से हारकर बन्दी बना लिया गया। कारागार में एक दिन राजकुमार ने अपने रसोइये से भोजन माँगा। भोजन के नाम पर माँस का मात्र एक टुकड़ा बचा था। रसोइया उसको उबालने के लिए चढ़ाकर कुछ अन्य भोजन सामग्री की तलाश में चला गया। उसी समय वहाँ एक भूखा कुत्ता आया और बर्तन सहित माँस के टुकड़े को उठा कर ले गया। यह देखकर राजकुमार खिलखिलाकर हँस पड़ा। देखने-सुनने वाले सभी अचंभित थे कि दुःख अभाव की इस स्थिति में भी हँसी का क्या कारण हो सकता है। पूछने पर राजकुमार ने कहा-‘मुझे यह सोचकर हँसी आ रही है कि कल जिस सामान के लिए तीन सौ ऊँटों की आवश्यकता पड़ी, आज एक कुत्ता ही काफी है।’
संकट एवं मुसीबत की घड़ियों में भी सकारात्मक नजरिया ही वह आधारभूमि है जिससे मस्ती एवं खुशमिजाजी के प्रसून खिलते हैं, अन्यथा निराशावादी के लिए तो यह मरणान्तक पीड़ा देने वाले क्षण ही सिद्ध होते हैं। अतः आशावादी रुख की महिमा अपरम्पार है। भगवान् श्रीकृष्ण के शब्दों में -
‘प्रसादः सर्वदुःखानाँ हानिरस्योपजायते।
प्रसन्न चेतसोध्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्टते॥’
गीता -2/65
अर्थात् प्रसन्नचित्त रहने से सब दुःख दूर होते हैं और बुद्धि स्थिर होती है। वस्तुतः यह सकारात्मक दृष्टिकोण एवं विधेयात्मक जीवन शैली के दीर्घकालीन अभ्यास की परिणति होती है।
इस तरह विकसित सकारात्मक मानसिक भाव के अंतर्गत विश्वास, साहस, दृढ़ता, आशावादिता, उदारता, दयालुता, सहनशीलता जैसे सद्गुणों का समावेश रहता है। महामानवों का जीवन इनकी जीवन्त अभिव्यक्ति होता है। वे इसी के बल पर अपना मानसिक संतुलन बनाये रखते हैं और निराशा के भाव को पास फटकने नहीं देते। अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़े थे। चाणक्य, सुकरात आदि बहुत बदसूरत थे। हर कोई इनकी खिल्ली उड़ाता था। राजा हरिश्चन्द्र, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, गाँधीजी, नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, चितरंजनदास, अरविन्द घोष जैसे सभी महापुरुषों का जीवन कितने कठिन दौर से गुजर इनका जीवन परिस्थितियों के विषम प्रहारों से ओत-प्रोत रहा। उन्हें कितने विरोध का सामना करना पड़ा, किन्तु चिर आशावाद की संजीवनी के बल पर ये इनके सब आघातों को सहर्ष एवं धैर्यपूर्वक झेलते रहे। इनका अदम्य आशा-उत्साह ही इनके साथी-सहचरों में भी नव प्राण का संचार करता था।
वीर शिवाजी के बारे में यह प्रख्यात् है कि युद्धभूमि में उनकी उपस्थिति मात्र से ही उनके सैनिकों में एक नया उत्साह भर जाता था। उन्हें लगता था कि मानो उनकी सहायता के लिए नई कुमुक आ पहुँची हो। शिवाजी ने अनेकों भयंकर युद्ध केवल इसी कारण जीत लिए थे, कि वे पराजय अथवा उत्साहहीनता को जानते ही नहीं थे, पराजय का वे कभी नाम ही नहीं लेते थे। इस अपराजय उत्साह का प्रादुर्भाव अदम्य आशावादी रुख से होता है। इसी के बल पर महाराजा रणजीत सिंह ‘अटक है ही नहीं’ का उद्घोष करते हुए, बाढ़ से उफनती नदी में घोड़े पर सवार होकर, सबसे आगे बढ़े थे। देखते ही देखते पूरी सेना में उत्साह और साहस की लहर दौड़ गई, जो अटक की बाढ़ से अधिक प्रबल थी।
जीवन की समस्त चुनौतियों पर भारी पड़ने वाला यह जीवट वस्तुतः सकारात्मक जीवनशैली से निःसृत होता है। इसी के बल पर व्यक्ति इन सशक्त संकेतों से अपने अंतर्मन को पुष्ट करता रहता है कि ‘तुम समुद्र किनारों में सीना ताने खड़ी उत्तुंग चट्टान के समान हो जो एक सच्चे शूरवीर की भाँति समुद्र की उताल तरंगों का दृढ़तापूर्वक सामना कर रहे हो। संसार के कष्टों में इतनी शक्ति नहीं कि वे तुम्हें हिला सके। तुम मुसीबतों के मध्य महिमान्वित अविचल हिमालय की तरह अडिग हो, अविचल हो, जिस पर साँसारिक कष्टों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। तुम्हीं वह महाशक्ति सम्पन्न जीवट हो, जिसकी महिमा बड़े-बड़े ऊँचे बर्फीले पर्वत कह रहे हैं, जिसकी शक्ति नदियों सहित यह समुद्र वर्णन कर रहा है, ये चारों दिशायें जिसके बाहुतुल्य हैं। तुम्हारी शक्तियों का अन्त नहीं है। वे निस्सीम हैं।’
इसके विपरीत उत्साह की कमी अंतर्मन को निराशावादी संकेतों से दूषित करती रहती है जो जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। यह जीवन की सबसे बुरी स्थिति है, यह उन्नति के पथ की सबसे बड़ी बाधा है। एक विचारक ने ठीक ही लिखा है - ‘निराशा एक प्रकार की कायरता है। जो आदमी कमजोर होता है, वह कठोर परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाता। वह एक कायर की तरह युद्ध छोड़कर भाग जाता है। निराशा एक प्रकार की नास्तिकता है, जो व्यक्ति संध्या के डूबते हुए सूरज को देखकर दुःखी होता है और प्रातःकाल के सुनहरी अरुणोदय की आशा नहीं करता, वह नास्तिक है। जो माता के क्रोध को स्थायी समझता है और उसके प्रेम पर विश्वास नहीं करता, वह बालक नास्तिक है और हमें अपनी इस नास्तिकता का, इस निराशावाद का, इस निषेधात्मक रुख का दण्ड रोग, शोक, विपत्ति, संताप, असफलता और अल्पायु के रूप में भोगना पड़ता है’। जबकि हर तरह के दुःख-कष्ट आदि क्षणिक हैं, अल्पकाल में दूर होने वाले हैं और यदि ये कुछ अधिक स्थायी व वृहत्तर हैं तो भी हमारे अन्दर विद्यमान आत्मिक शक्तियों, असीम सम्भावनाओं एवं दैवीय गुणों से श्रेष्ठ एवं महान् नहीं हैं। हमारी अन्तर्निहित क्षमता अनेकों द्वन्द्व के वज्र से भी अधिक दृढ़ एवं सक्षम है। इस स्थिति में विजय, आनन्द, सफलता उन्नति आदि हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हैं।
यदि इसका प्रखर बोध अभी नहीं हो पाता है और राह की थकान कुछ भारी है तो भी निराशा की कोई बात नहीं। थके पक्षी को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते कविवर रवींद्र के विचारों की ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं-
‘यदि मन्द-मन्द मन्थर गति से चलकर चारों ओर से संध्या बढ़ती आ रही है, दिन का संगीत रुक गया है, संगी-साथी छूटने से जीवन सूना सा मालूम हो रहा है, तेरे अंग-अंग में थकान उभर आयी है, मन में आशंका उभर आयी है, दिग्-दिगन्त अपनी काली चादर ताने सो रहे हैं, तो भी मेरे विहंग! तू अपने पंख बन्द न कर।’
‘यदि तेरे सामने अभी भी लम्बी दूभर रात्रि है, सुदूर अस्ताचल पर सूर्य ऊँघ रहा है, संसार निःश्वास रोक एकान्त स्तब्ध आसन से बैठा हुआ है, दिन का प्रकाश रजनी के धीमे-धीमे पहर गिन रहा है, अंधकार रूपी सागर में चंद्रमा की क्षीण रेखामात्र दिखायी दे रही है, तो भी मेरे विहंग! तू निराश न हो, अपने पंख बन्द मत कर।’
‘समस्त तारागण आकाश में तेरी ही ओर अनिमेष दृष्टि लगाये हुए हैं। नीचे सागर में शत्-शत् लहरें उछल-उछलकर उल्लास का संदेश लिए उद्वेलित हो तेरी ओर दौड़ रहे हैं। वे न जाने कौन वहाँ दूर करुण अनुनय करके ‘आओ! आओ!’ की पुकार कर रहे हैं? सभी ओर तेरा स्वागत है। इस लिए मेरे विहंग! तू अपने पंख अभी बन्द न कर।’
चिर आशा का यह मधुर गान यदि हमारे, जीवन का संगीत बन सके तो पथ की हर कठिनाई, विफलता एवं चुनौती हमारी मञ्जिल की ओर बढ़ने का एक सोपान बनता जायेगी और जीवन नित-नूतन सफलता, सार्थकता एवं उल्लास की सुवास से महकने लगेगा