Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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हर मनुष्य के लिये अनिवार्य शिष्टाचार
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शिष्टाचार सुसंस्कारित व्यक्तित्व का मोहक परिचय है। यह उसके आन्तरिक परिष्कार का दिव्य पावन प्रकटीकरण है। पवित्र अन्तर्चेतना बाह्य व्यवहार में शिष्टाचार एवं विनम्रता के रूप में झलकती है। शिष्टाचार का मूल मंत्र है- अपनी नम्रता और दूसरों का सम्मान। इस भाव का धनी ही सभ्य एवं सुसंस्कृत समझा एवं जाना जाता है। इस गुण को अपनाकर जीवन में उत्तरोत्तर विकास किया जा सकता है। दूसरों का स्नेह, सद्भाव एवं सहयोग भी इसी आधार पर हस्तगत होता है। शिष्टता बरतने वाला सम्मानित होता है, अनायास ही अपने विश्वास एवं विनम्र व्यक्तित्व की औरों पर छाप छोड़ता है।
ऋग्वेद की ऋचा में शिष्टाचार का दिव्य सूत्र मिलता है। ‘माँ ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः।’ अर्थात् हे देवगण! मैं बड़ों की प्रशंसा को कभी न काटूँ, सदैव आदर करूं। इस ऋचा में बड़ों के प्रति श्रद्धा और सम्मान की भावना झलकती है। इस संदर्भ में अथर्ववेद में वर्णित वैदिक ऋषि का कथन बड़ा ही सारगर्भित जान पड़ता है।
“अनुव्रतः पितुः पुत्रो, मात्रा भवन्तु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमती, वाचं वदतु शान्तिवान्॥”
अर्थात्- पुत्र पिता के श्रेष्ठ व सद्कर्मों और संकल्पों का अनुसरण करे और माँ जैसे पवित्र व कोमल मन वाला बने। पति-पत्नी के लिए, पत्नी-पति के लिए माधुर्ययुक्त तथा शाँतिप्रद वाणी का व्यवहार करे। प्रातःकाल उठने के पश्चात् छोटे बड़ों के चरण स्पर्श करें। बड़े छोटों के प्रणाम के स्नेहासिल स्वर में शुभाशीष या मौन आशीष दें। बराबर वालों को आपस में एक-दूसरे का प्रेमपूर्ण अभिवादन हो। यह सम्मान का भाव ही शिष्टाचार का मूल आधार है।
बौधायन धर्मसूत्र (1/1/5)में शिष्टचार का मानदण्ड एवं मापदण्ड का उल्लेख किया गया है-
शिष्टः खल विगतमत्सरा निरहंकाराः कुम्भीधान्या अलोलुपा दम्भदर्पलोभमोहक्रोध विवर्जिताः।
अर्थात् ईर्ष्या-द्वेष से रहित, अहंकारविहीन, छः माह के उपयोगी सम्पदा के संग्रही, लोलुपता रहित, पाखण्ड, अहंकार, लोभ-मोह और क्रोध से जो विमुख हैं उन्हें पूर्ण शिष्ट कहते हैं।
भास अपने प्रतिमा नाटक में स्पष्ट करते हैं कि शिष्ट और विनयी जनों को क्रोध नहीं सताता। महाकवि कालीदास विनम्रता को महान् अलंकार से अलंकृत करते हैं। शालीन एवं शिष्ट व्यवहार के माध्यम से आन्तरिक गुणों का प्रकटीकरण होता है। पाश्चात्य जगत् के महान् कवि एडीसन ने विनम्रता को शरीर की अन्तरात्मा के रूप में अलंकृत करते हैं। भाव के प्रतीक भगवान् को विनम्र एवं भक्ति भावना से गीतों की अञ्जली अर्पित करने वाले रवींद्रनाथ टैगोर विनम्रता को आध्यात्मिक शक्ति मानते हैं। उनके अनुसार यथार्थ नम्रता एवं शिष्टता सात्विकता के तेज से उज्ज्वल होती है, त्याग और संयम की कठोर शक्ति से दृढ़-प्रतिष्ठित होती है। ‘समस्त’ के साथ अबाध-निर्बाध मिलन होता है और इसलिए वह सत्य भाव से, नित्य रूप से ‘समस्त’ को प्राप्त करती है। वह किसी को दूर नहीं करती और किसी से दूर नहीं होती। वह विच्छिन्न नहीं करती वह आत्म त्याग करती और दूसरों को उदार भाव से आत्मसात् कर लेती है।
विनम्रता एवं शिष्टाचार अन्तःकरण की अभिव्यक्ति है। समाज, देश और परिस्थिति के भेद से इसकी अभिव्यक्ति के तरीकों में भेद हो सकते हैं, परन्तु उनका सर्वमान्य आधार यह है कि दूसरों के प्रति सम्मान, स्वयं की नम्रता तथा माधुर्य का भाव व्यवहार में छलके-झलके। इससे जहाँ एक और आन्तरिक सुगढ़ता प्रकट होती है वहीं दूसरी ओर नैतिकता एवं सामाजिकता की जागरुकता का बोध होता है। शिष्टाचार, संस्कृति एवं सभ्यता की समन्वय स्थली है, क्योंकि यह संस्कृति संवेदना भी है और व्यवहार की सभ्यता भी। भाव प्रवण व्यक्ति कभी भी अशिष्ट और असभ्य नहीं हो सकता है। जिसका हृदय संवेदना की पुलकन से पुलकित है, वह कठोर शब्दों का प्रयोग ही नहीं कर सकता। बल्कि उसके व्यवहार में औरों को शीतल एवं शान्त करने वाली भाव संवेदना की सुरसरि प्रवाहित होती रहती है। निजी रहन-सहन, रुचि-रुझान, आचरण-व्यवहार में भी यह बहुमूल्य भाव भीतर से उभर-उभर कर बाहर आता है और यहाँ ‘औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय’ की चिर परिचित उक्ति सार्थक एवं सफल होती है।
व्यवहार की शिष्टता-शालीनता पर जीवन के विकासक्रम का, उन्नति-अवनति का, प्रसन्नता-खिन्नता, मान-अपमान का बहुत कुछ आधार निर्भर करता है। उद्दण्ड, उच्छृंखल, अशिष्ट एवं अनगढ़ व्यवहार से वैयक्तिक और सामाजिक दोनों का विकास अवरुद्ध हो जाते हैं। कटुभाषी, असंतोष, निराशाजनक एवं खिन्नता उत्पन्न करने वाले व्यवहार की प्रतिक्रिया भी कुछ इसी प्रकार की होती है। ऐसे आचरण करने वालों को बदले में उपेक्षा, असहयोग एवं अपमान जैसी कटुता ही हाथ लगती है। हर परिस्थिति में यह घाटे का सौदा है। जो क्रोध, आवेश और उद्धृत आचरण सबसे पहले स्वयं को क्षति पहुँचाता है और साथ ही दूसरों के स्वाभिमान को कुचलकर विद्रोह एवं बैर-भाव का एक नया संकट खड़ा कर देता है। अशान्ति एवं असंतोष का बीज पड़ जाता है जिसका परिणाम विष बेल के रूप में होता है और पग-पग पर अनर्थ खड़ा करता है। अतः अशिष्टता हर दृष्टि से हानिकारक है। यह अपना स्तर गिराती है, मित्रों को शत्रु बनाती है। जो सहयोगी हैं उन्हें असहयोग करने के लिए प्रेरित करती है।
इसके विपरीत जो शिष्ट, सभ्य एवं उदार व्यवहार में दक्ष एवं प्रवीण होते हैं, वे सहज ही औरों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं और उनसे स्नेह-सहयोग प्राप्त कर लेते हैं। परिणामस्वरूप उनकी प्रगति-उन्नति के सुविधा-साधन अनायास ही उपलब्ध हो जाते हैं। इस प्रकार चाहे व्यक्तिगत जीवन हो, या समाज व्यवस्था प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति, स्थिरता, एवं सुख शान्ति परस्पर स्नेह, सद्भाव के आधार पर अवलम्बित है। अतः इस तथ्य के मर्मज्ञ, मनीषी एवं विद्वानों की मान्यता है कि व्यवहार सदैव विनम्र एवं शालीन होना चाहिए। चारों ओर मधुरता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करना चाहिए तथा दूसरों के साथ वह व्यवहार नहीं करना चाहिए, जो हमें अपने लिए पसन्द नहीं। हर व्यक्ति दूसरों के साथ नम्र व्यवहार करे, जैसा कि वह अपने लिए औरों से चाहता है। इसी तथ्य को शिष्टाचार, सभ्यता एवं नागरिकता के नाम से जाना जाता है। यह मानव का सर्वश्रेष्ठ जीवन मूल्य एवं अनमोल सम्पदा है। जिसमें यह भावना जितनी अधिक होगी वह उतना ही शिष्ट-शालीन एवं सभ्य माना जाता है।
जीवन विद्या का धनी व्यक्ति विनम्र होता है। विद्या को जहाँ विनम्रता की जननी माना गया है, वहीं विद्या प्राप्ति के लिए, व्यक्तित्व निर्माण के लिए विनम्रता का होना अति आवश्यक है। विनम्रता एवं शालीनता के मोल पर ही जीवन विद्या एवं भौतिक शिक्षा का अर्जन-उपार्जन सम्भव है। इसे अपनाकर जीवन को सार्थक एवं सुन्दर बनाया जा सकता है। शिष्ट व विनम्र व्यवहार के लिए कुछ सामान्य नियमों का पालन आवश्यक है,
1. भाषा एवं व्यवहार में शिष्टाचार को अपनाएँ।
2. छोटों को स्नेह दें एवं बड़ों का आदर करें।
3. प्रेम और आदर के साथ दूसरों का सम्मान करें।
4. सकारात्मक विचार को प्रश्रय दें।
5. जीवन शैली में सादगी एवं सज्जनता को अपनाएँ तथा चारों ओर स्वच्छता का पालन करें।
6. बड़ों के अच्छे अनुभव का लाभ उठाएँ।
7. स्वाध्याय एवं सद्चिंतन का क्रम अपनाएँ।
8. साथी-सहयोगियों का मनोबल बढ़ाएँ, सहयोग करें तथा समुचित प्रेमपूर्ण व्यवहार करें।
9. दूसरों की बातों का सम्मान करें।
इन नियमों के अभ्यास से जीवन में वाँछित परिवर्तन सम्भव है। व्यक्तित्व के निर्माण में इनका पालन अत्यावश्यक है। इसी के आधार पर ही शिष्टता, शालीनता एवं विनम्रता जैसे गुणों का अभिवर्धन किया जा सकता है और उसके दिव्य लाभ से लाभान्वित हुआ जा सकता है। भाव संवेदना ही शिष्टाचार का प्राण है और इसे हम सबको अपनाना एवं आत्मसात् करना चाहिए।