Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात-1 - श्रावणी पर्व पर आत्मचिंतन करें, गुरुसत्ता के स्वरूप को जानें
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आज से लगभग 167 वर्ष पूर्व 1866 ईसवीं में एक महापुरुष भारतवर्ष की धरती पर आया। कामारपुकुर; जिला बाँकुरद्ध बंगाल में जो कलकत्ता से लगभग पैंसठ मील उत्तर पश्चिम में स्थित है, 18 फरवरी 1866 को एक बालक जन्मा, जिसने दिव्य लीलाएँ कर कलकत्ता के दक्षिणेश्वर में स्वयं को स्थापित किया। यों तो लौकिक दृष्टि से यह व्यक्ति माँ काली का पुजारी था, किंतु धीरे-धीरे उसकी ख्याति चारों ओर फैलने लगी। रामकृष्ण परमहंस के नाम से विख्यात इस महापुरुष के चारों ओर छोटे-बड़े ऐसे कई व्यक्ति एकत्र होने लगे, जो ईश्वरप्राप्ति, ब्रह्मसाक्षात्कार में रुचि रखते थे। राष्ट्रवादी मानसिकता वाले भी ढेरों व्यक्ति वहाँ आने लगे, मूल आकर्षण बना उनका साधक व्यक्तित्व, सरल हृदय एवं उनकी अमृतवाणी; जो बाद में श्रीरामकृष्ण वचनामृत नाम से तीन भागों में प्रकाशित हुई। लगभग सोलह व्यक्ति ऐसे थे, जिनने उनके साथ 1880 से 1886 की सोलह अगस्त तक अपने गुरु-मास्टर-ठाकुर की जीवनयात्रा में अद्भुत भागीदारी की। वे उनके मानसपुत्र बनते चले गए।
यही उनके मानसपुत्र ठाकुर के महाप्रयाण के बाद लौकिक जगत छोड़कर संन्यासी बन गए। इनका नेतृत्व किया तेजस्वी युगनायक विवेकानंद ने, जिन्हें प्रकाराँतर से ठाकुर अपनी सारी शक्ति स्थानांतरित कर गए थीं, उनका मार्गदर्शन करती रहीं, ममत्व का विस्तार करती रहीं एवं धीरे-धीरे श्रीरामकृष्ण संघ मिशन का जन्म होने लगा। नरेंद्र दत्त ने ही, जिन्हें ईश्वरप्राप्ति की तीव्र अभीप्सा थी, नेतृत्व की बागडोर अपने हाथ में लेकर अपने से उम्र में बड़े-छोटे-समवय सभी साथियों को उस कठिन समय में सहारा दिया, हिम्मत बंधाई एवं एक ऐसा तंत्र खड़ा कर दिया, जिसने बीसवीं सदी के भारत की आधारशिला रखी। सामूहिक संघबद्ध प्रयास का ऐसा विलक्षण उदाहरण विश्वभर की संस्कृति के इतिहास में देखने को नहीं मिलता, जो इन सोलह एवं और इनके साथ साथ विकसित हुए ठाकुर का स्पर्श पाए अट्ठाइस कुल 44 शिष्यगणों द्वारा संपन्न किया गया।
यदि हम इन सोलह संन्यासियों के जीवन के 1886 से 1900 तक के वाराहनगर मठ प्रवास बेलूर मठ की भूमि तक की यात्रा का वर्णन पढ़ें तो आभास होगा कि कितना कठोर तप उनने पराधीन भारत की संकीर्ण मानसिकता वाली सोच के लोगों के बीच किया होगा। परिव्राजक जीवन, मधुकरी पर निर्वाह, जल उपेक्षा, कठोर साधना, समय-समय पर व्याधियों द्वारा ली जाने वाली शरीर की परीक्षा के बीच ऐसे तपस्वी जन्म लेते चले गए, जिनने श्रीरामकृष्ण संघ एवं स्थान-स्थान पर स्थापित हुए मठों, देश-विदेश में प्रचार की पृष्ठभूमि बनाई। शिकागो की धर्मसभा में स्वामी जी की विख्यात वक्तृता (सितंबर 1893) से लेकर ढेरों विदेशी-भारतीय शिष्यों के उनसे जुड़ने तक भी संघ का हम जो आधारभूत ढाँचा देखते हैं, उसमें साधन कम, द डडडडडडडड साधना ही मूल में है। स्वामी विवेकानंद (नरेंद्र) के साथ के सोलह व्यक्तियों (उन्हें मिलाकर) में पाँच ग्रेजुएट थे, दस ने मात्र औपचारिक शिक्षा प्राप्त की थी एवं एक पूर्णतः अशिक्षित थे। फिर भी सोलह का यह समूह एकजुट हो अपने उस गुरु का, जिनका सान्निध्य उन्हें मिला था, स्वप्न पूरा करने के लिए कठोर तपस्वी जीवन जीने हेतु तत्पर रहा एवं आज के विराट श्रीरामकृष्ण मिशन की नींव का पत्थर बना।
स्वामी विवेकानंद (पूर्व नाम नरेंद्रनाथ दत्त, 12 जनवरी 1863, 4 जुलाई 1912) के अन्य साथी थे-(1) स्वामी ब्रह्मानंद (राखाल घोष 21 जनवरी 1863-1 अप्रैल 1122), (2) स्वामी शिवानंत (तारक-महापुरुष महाराज 16 नवंबर 1854-2 फरवरी डडडडड डडडड; डडडडड स्वामी प्रेमानंद (बाबूराम डडडडड 1861-3 मार्च 1811), (3) स्वामी योगानंद (योगेन-3 मार्च 1861-28 मार्च 1811), (4) स्वामी निरंजनानंद (निरंजन अगस्त 1862-1 मई 1914), (5), स्वामी रामकृष्णनंद ; शशी-13
जुलाई 1863 21 अगस्त डडडडड), (7) स्वामी सारदानंद (शरत-23 दिसंबर 1867), (8) स्वामी तुरीयानंद (हरि-3 जनवरी 1863-21 जुलाई 1121), (1) स्वामी अद्भुतानंद ; लाटू महाराज-185डडडड-24 अप्रैल डडडडड, (1) स्वामी अभेदानंद (काली महाराज-2 अक्टूबर 1866-8 सितंबर 1139), (10) स्वामी त्रिगुणातीतानंद (सारदा-3 जनवरी 1865-1 जनवरी 1115), (13) स्वामी सुबोधानंद (सुबोध-8 नवंबर 1867-2 दिसंबर 1132), (14) स्वामी अखंडानंद (गंगाधर-3 सितंबर 1864-7 फरवरी 1137), (15) स्वामी विज्ञानंद (हरिप्रसन्न 3 अक्टूबर 1868 21 अप्रैल 1138)।
सभी के बारे में यह विवरण इसलिए दिया गया कि आज की इक्कीसवीं सदी की पीढ़ी के लोग जान सकें कि आज से सवा सौ वर्ष पूर्व एक अवतारी चेतना की जो आँधी आई थी, उसने कितनी गहराई तक विभिन्न व्यक्तियों को प्रभावित किया। सभी ने तपश्चर्या भरा जीवन जिया, लौकिक सुख त्यागे तथा अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के प्रति परिपूर्ण निष्ठा के साथ जिए। सभी का जीवन समर्पण की एक अद्भुत मिसाल है। सामान्यतः परिजन स्वामी विवेकानंद के बारे में ही जानते हैं। शेष पंद्रह भी एक स्वर से स्वामी विवेकानंद की अलौकिक शक्ति, प्रचंड पुरुषार्थ एवं विद्वत्ता का लोहा मानते थे व सम्मान भी बड़े गुरु भाई का देते थे। इन सब की जीवन-गाथाएं आज भी लाखों अध्यात्मपथ के पथिकों का मार्गदर्शन करती हैं। सब पर ठाकुर की एवं बाद में श्रीमाँ की अनंत अनुकंपा बरसीं। उनने हृदय से प्यार किया एवं सभी को ऐसे मार्ग प्रशस्त कर दिया, जिस पर चलकर उनने पराधीन भारत में आध्यात्मिक पुनर्जागरण का एक नया अध्याय लिख दिया।
यहाँ एक विशेष बात कहने का हमारा मन है। एक महत्त्वपूर्ण चर्चा श्रीरामकृष्ण वचनामृत के तृतीय खंड में आई है। मास्टर महाशय (श्री महेंद्रनाथ)ने श्रीरामकृष्ण से तत्कालीन समय की सभी परिजनों की चर्चाओं, उनके उपदेशों, उनकी अमृतवाणी तथा उन क्षणों को बड़ी कुशलता से लिपिबद्ध किया है। मूल बंगला में लिखी इस पुस्तक के हिंदी अनुवाद को तैयार करने का श्रेय सुप्रसिद्ध कवि श्री सूर्यकाँत त्रिपाठी ‘निराला’ को जाती है। तीन खंडों में प्रकाशित इस अति महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के तीसरे खंड में पृष्ठ 267-268 पर 1 अगस्त 1885 के आस पास की एक चर्चा का प्रसंग आता है, जिसमें ठाकुर श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से निकला है, जो अंतरंग हैं, उनकी मुक्ति न होगी। वायव्य दिशा में एक बार और मुझे देह धारण करना होगा।
अपने आध्यात्मिक अनुभवों की चर्चा करते-करते सहज ही ठाकुर के मुख से एक ऐसी महत्त्वपूर्ण बात निकल गई, जिससे स्पष्ट होता है कि रामकृष्ण मिशन-संघ के बाद एक और तंत्र खड़ा होना था, बीसवीं सदी व इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जिसे उस कार्य को पूरा करना था। श्रीरामकृष्ण को पुनर्जन्म लेकर उस कार्य को अपनी उन्हीं दिव्यात्माओं के सहयोग से पूरा करना था। श्री अरविंद आए एवं महर्षि रमण आएं। ये दोनों भी युगपरिवर्तन योजना से जूड़े परिजन यदि गंभीरता से अपनी गुरुसत्ता के स्वरूप को इस श्रावणी पर्व की वेला में समझ सकें तो उन्हें ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस की अमृतवाणी सार्थक होती लगेगी। 1985 की अप्रैल की अखण्ड ज्योति में स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने अपना चिवगत अवतार श्रीरामकृष्ण परमहंस के रूप में अपने गुरु के माध्यम से बताया है। जिस वायव्य कोण में जन्म लेने की बात ठाकुर ने कही है, वह भी आगरा मथुरा के बीच में आता हैं। दोनों के जीवन में बड़ी समानता है। एक ने गृहस्थ होते हुए भी संन्यासी जीवन जिया, श्रीमाँ की शक्ति के रूप में पूजा की। दूसरे श्रीराम ने गृहस्थ जीवन परमवंदनीया माताजी के साथ लोकशिक्षण हेतु जिया भी एवं गृहस्थ धर्म में ही मुक्ति का मार्ग बता गए। उनने परिवार निर्माण की अद्भुत क्राँति की, ताकि कलियुग की पराकाष्ठा के इस युग में सद्गृहस्थ एवं श्रेष्ठ वानप्रस्थ तैयार हो सकें। संन्यास ऐसे में सध नहीं सकता, अतः उनने नवसंन्यास परिव्राजक धर्म के निर्वाह की बात की।
श्रीरामकृष्ण परमहंस 1886 में गोलोक धाम चले गए। उनके जाने के बाद स्वामी विवेकानंद एवं बाद में उनके गुरुभाइयों ने इस तंत्र को विश्वव्यापी विस्तार दिया। परमपूज्य गुरुदेव श्रीराम शर्मा आचार्यजी 1911 में जन्में। एक सक्रिय कर्मयोगी, युगऋषि का जीवन जीकर अपने सामने ढेरों विवेकानंद स्तर की सत्ताओं को विकसित कर गए। अभी उनमें से कइयों को अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना शेष है। स्वामी विवेकानंद जैसे सत्शिष्य-महापुरुष हजारों वर्ष में एक बार जन्म लेते हैं, पर उनका कार्य करने के लिए आज की विषम परिस्थितियों में ढेरों उनके अंश तैयार हैं। आवश्यकता मात्र स्व के स्वरूप पहचानने एवं अपनी आराध्य सत्ता की अनुभूति करने भर की है। न समझ में आए तो तत्कालीन इतिहास पुनः पढ़ लें, प्रेरणा मिलेगी।
प्रस्तुत श्रावणी पर्व हम सभी को जगाने एवं लौकिक मार्ग से हटकर अपने अंदर के ब्रह्मणत्व को जगाने आया है। अपने उद्देश्य को हम कभी भुला न पाएं एवं सतत साधना द्वारा शक्ति का संवर्द्धन कर जनसेवा में स्वयं को लगा दें। परमपूज्य गुरुदेव ने स्वयं लिखा है (अखण्ड ज्योति अगस्त, 1969), “युगनिर्माण योजना एक शंखनाद है, जो संस्कारी व्यक्तियों को जगाने और उन्हें प्रभातकालीन कर्त्तव्यों में जुटने का उद्बोधन कर रहा है।” हम और कुछ नहीं तो उनके शब्दों पर विश्वास कर उनकी जन्म शताब्दी वर्ष ; डडडडड-डडडडड तक ही मात्र 8-9 वर्षों के लिए स्वयं को तपस्वी बना लें, वैसे ही जैसा जीवन हम सभी ने पूर्वजन्म में सौ वर्ष जिया था। इतिहास की पुनरावृत्ति सुनिश्चित ही होगी।