Books - देव संस्कृति का मेरुदण्ड वानप्रस्थ
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Language: HINDI
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सद्ज्ञान सम्पदा का अभाव
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श्रुति वचन है—‘‘विद्ययाऽमृत मश्नुते’’, अर्थात् विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। अमृत अर्थात् वह तत्व, जिसे पाकर मरना न पड़े। क्या ऐसी अद्भुत वस्तु का प्राप्त हो सकना संभव है? इसका उत्तर ‘‘हां’’ में दिया जा सकता है और कहा जा सकता है कि जिसे यह तत्व उपलब्ध करना हो, तो उसे ‘विद्या’ की प्राप्ति करनी चाहिए।
यहां विद्या का तात्पर्य साक्षरता पर अवलम्बित भौतिक जानकारियों तक सीमित नहीं है। उसे संसार के स्वरूप और व्यवहार तक भी सीमित नहीं किया जा सकता। उस स्तर की पढ़ाई तो स्कूलों में चलती है और उसे जानकार अध्यापक अपने छात्रों को सिखाते भी रहते हैं। ‘विद्या’ उस तत्वदर्शन से अवगत कराती है जो व्यक्ति की चेतना-परतों का स्वरूप समझाती और उन्हें परिष्कृत करने में सहायता करती है। संक्षेप में इसे दृष्टिकोण का परिष्कार भी कह सकते हैं और जीवनचर्या का सर्वतोमुखी सुनियोजन भी। यही संजीवनी विद्या है। अमृत की चर्चा भी इसी प्रसंग में होती है। जिसने जीवन के अन्तराल को—अन्तःकरण को उत्कृष्टता के साथ जोड़ने में सफलता प्राप्त कर ली, समझना चाहिए कि अमृतत्व का अदृश्य स्वरूप चेतना में समाविष्ट करने का सुयोग-सुअवसर मिल गया। दैवी अनुग्रह का—ईश्वर दर्शन का—ब्रह्म निर्माण का स्वरूप भी यही है। इसी को तत्व-वेत्ताओं ने अनेक प्रकार के अलंकारों से सुसज्जित करके वर्णन, विवेचन किया है।
शरीर को संसार के प्राणियों और पदार्थों के साथ किस प्रकार रखना चाहिए। इसकी जानकारी करना शिक्षा का काम है। अध्यापक और शिक्षालय इसी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। आरम्भिक दृष्टि से उसकी आवश्यकता भी है और उपयोगिता भी। किन्तु समझा जाना चाहिए कि लौकिक जानकारियों की अभिवृद्धि करने वाली शिक्षा शरीर यात्रा में एक सीमा तक प्रशिक्षित करने के काम ही आती है। इसलिए उसे एक पक्षीय या अधूरा माना जाता है। वह प्रायः बहुज्ञ और अधिक उपार्जन में समर्थ बनाकर ही अपनी सीमा पूर्ण कर लेती हैं।
विद्या प्राप्त करना इसलिए आवश्यक है कि चेतना को सुसंस्कृत बनाने में उसकी अनिवार्य आवश्यकता होती है। व्यक्ति वस्तुतः आत्मा है। अन्तःकरण उसका क्षेत्र है। इसके उच्चस्तरीय बनने पर ही चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का समावेश होता है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को देवोपम बनाने में विद्या का प्रभाव और दबाव ही काम आता है। यदि इस लाभ से लाभान्वित हुआ जा सके, तो व्यक्तित्व का वह स्वरूप निखर कर सामने आता है, जिसके प्रभाव से अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्रों में आनन्द एवं उल्लास बिखेरने वाले प्रकाश को प्रज्ज्वलित हुआ देखा जा सके।
वैभव का अपना महत्व है, इसलिए उसका पथ प्रशस्त करने वाली शिक्षा को भी आवश्यक माना गया है, पर इतने से यह संभव नहीं कि आत्मा के साथ जुड़ी हुई विभूतियों को भी उपलब्ध किया जा सके, उन्हें प्रसुप्त स्थिति से जगाकर जागरूक और पुरुषार्थ परायण बनाया जा सके। इसके लिए उस उच्चस्तरीय विवेक को जागृत करना होता है, जिसे विद्या के नाम से जाना, सराहा और अमृतोपम कहकर उसके साथ जुड़ी संभावनाओं से अवगत कराया जाता है।
शिक्षा की तरह विद्या की प्राप्ति में भी शिक्षार्थी की उत्कण्ठा और आस्था तो आवश्यक है ही, पर जरूरत इस बात की भी है कि उस प्रयोजन के लिए सही मार्गदर्शक मिल सके। उनका प्रायः अभाव ही पाया जाता है, कारण कि वह कार्य मात्र परामर्श से बन नहीं पड़ता। उसके लिए ऐसे प्रशिक्षक चाहिए, जिनने उस प्रसंग का स्वयं अभ्यास किया हो, जिसे दूसरों को हृदयंगम कराया जाना है। संगीत पढ़ाने वाला यदि स्वयं गाना-बजाना न जानता हो और मात्र उसका वर्णन-विवेचन भर प्रस्तुत करता हो तो इस आधार पर शिक्षण संभव नहीं हो सकता। जानकारियों को तो अध्ययन परामर्श के माध्यम से भी उपलब्ध किया जा सकता है, पर जहां तक स्वभाव, अभ्यास का सम्बन्ध है, वहां तक उसके लिए अनुकरण की आवश्यकता पड़ती है। सांचे के अनुरूप ही उपकरण, औजार, खिलौने आदि ढाले जाते हैं। जीवनचर्या में उत्कृष्टता का समावेश ऐसा कार्य है, जिसे उन्हीं के द्वारा सीखा जा सकता है, जो उस तरह का प्रयोग-परीक्षण अपने जीवन क्रम में सफलतापूर्वक उतार चुके हैं। अखाड़े में अभ्यास करने वाले युवकों को पहलवान बना सकना मात्र दाव-पेच जानने वाले उस्ताद के लिए ही संभव होता है। अन्यान्य प्रकार के शिल्प कौशल भी प्रवीण अध्यापक ही नये छात्र को सिखा सकने में समर्थ होते हैं।
पतन का मार्ग सरल है। किसी वस्तु को ऊपर से नीचे घसीट लाने का कार्य पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ही निरन्तर करती रहती है। पानी ढलान की ओर सहज स्वाभाविक रूप से बहने लगता है। जन्म-जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कार हर किसी को पाशविक प्रवृत्तियां अपनाने के लिए उकसाते रहते हैं। लोक प्रचलन भी ऐसे हैं, जिसमें अवांछनीयताओं का ही बाहुल्य पाया जाता है। उनका आकर्षण उत्तेजना दुष्प्रवृत्तियों की दिशा में ही धकेलता है। यौन कर्म प्राणियों को प्रकृति ही सिखा देती है, पर यदि आदर्शवादी सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव में उतारना हो, तो उसके लिए स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन-मनन ही नहीं, उपयुक्त मार्गदर्शक और प्रत्यक्ष उदाहरण भी सामने होने चाहिए। इन्हें जुटा सकने वाले ही उत्कर्ष, अभ्युदय की दिशा में बढ़ पाते हैं। चिरस्थायी, व्यापक और सर्वतोमुखी प्रगति के लिए इस सुयोग की व्यवस्था होनी ही चाहिए। इस प्रयास-अभ्यास को जीवन-साधना के नाम से जाना जाता है। इसी समग्र मार्ग को अपना सकने पर व्यक्तित्व निखरता और प्रगति का पथ प्रशस्त होता है।
कठिनाई एक ही है कि इस प्रकार के अध्यापकों का इन दिनों बुरी तरह अभाव हो गया जो उच्चस्तरीय सिद्धान्त और व्यवहार अपने आप में समन्वित करने के उपरान्त दूसरों को भी अपने चुम्बकत्व से आकर्षित कर सकें। जलते हुए दीपक ही अपने निकटवर्ती बुझे दीपकों को प्रकाशवान बनाने में सफल समर्थ हो सकते हैं।
दूसरों को ऊंची बातें कहना अति सरल है। पुस्तकों की खोज बीन कर ऐसे प्रवचन आसानी से किये जा सकते हैं। किसी के कथन को नोट करके उसे दुहराते रहने का काम ऐसा है, जिसे रटन्त के अभ्यासी तोते भी कर सकते हैं। प्रवचन की, भाषण-परामर्श की कला तो अब असंख्यों का व्यवसाय बन गई है। स्कूल-कालेजों में ‘लेक्चररों’ की नियुक्ति होती है। इस योग्यता के प्रशिक्षित अनेकों नौकरी की तलाश में रहते हैं। मजमा लगाकर अपने वाक् चातुर्य के आधार पर भीड़ जमा कर लेने और घेरा बनाकर खड़े हुए लोगों की जेब से पैसा निकाल लेने वाले बाजीगर गली-चौराहों पर अपना कौशल दिखाते और आजीविका कमाते देखे जाते हैं। वकालत के पेशे में तो वाचालता ही प्रमुख है। दलाली के धंधे में ऐसे ही लोग सफल होते हैं। दुकानों में काम करने वाले सेल्समैनों को, बीमा एजेण्टों को इस कुशलता के आधार पर वेतन मिलते हैं। ऐसे ही कुछ अच्छे अभ्यास करके धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्र में मुखरता के अभ्यस्त व्यक्ति भी अच्छे भाषण-कर्त्ता-कथावाचक बन सकते हैं। इतने पर भी उनके द्वारा उस प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती, जिसकी कि आशा-उपेक्षा की जाती है। वक्ताओं और लेखकों में यदि व्यक्तित्व सम्पन्नता रही होती, तो लोगों के व्यक्तित्व न जाने कितने ऊंचे उठ गये होते और उनके द्वारा कब का उपयुक्त वातावरण बन सकना संभव हो गया होता। पर ऐसा होता कहां है? आदर्शवादी प्रतिपादनों को सुनने और पढ़ने में भी लोग उपेक्षा दिखाने लगे हैं। कहते हैं—‘‘थोथा चना बाजे घना।’’ जोर-जोर से बजने वाले ढोल भीतर से पोले होते हैं। पर उपदेश कुशल होना एक प्रकार का व्यंग है। मंच पर उचकते-मचकते रहने वाले नेताओं को ‘अभिनेताओं’ की उपमा दी जा जाती है। इस प्रकार लेखनी और वाणी की अजस्र समझी जाने वाली शक्ति भी अब एक प्रकार से निरर्थक निष्फल ही सिद्ध होती रहती है। उसे कौतुक-कौतूहल मान-समझ कर लोग उपेक्षा करते और ऐसे समारोहों में अनुपस्थित रहते ही पाये जाते हैं। अब तो जुलूसों में, रैलियों में प्रदर्शनों में, सभा-समारोहों में विचारशील जनता को एकत्रित कर सकना प्रायः अति कठिन होता जाता है। ठाली बैठे लोग ही प्रायः ऐसे आयोजनों में इकट्ठे होते देखे जाते हैं या फिर उन्हें सफल बनाने के लिए कोई बड़ा-सा कौतुक-कौतूहल खड़ा करने में प्रचुर धन व्यय करना पड़ता है। यही है आज के प्रवचन-परामर्श क्षेत्र की वास्तविकता। लेखनी के सम्बन्ध में भी यही बात है। सिद्धान्त समर्थक पुस्तकों की बाजार में सब से कम बिक्री है। इस प्रकार के साहित्य संदर्भ में जन साधारण की उपेक्षा ही बढ़ती जाती है। कारण एक है कि लेखनी और वाणी के माध्यम से मार्गदर्शन करने वालों की नीयत पर सर्वत्र संदेह किया जाता है। उनकी कथनी और करनी में अन्तर पाया जाता है। इस अन्तर को देखते ही सर्वसाधारण के मन में अश्रद्धा उत्पन्न होती है। वे अनुमान लगाते हैं कि यदि प्रतिपादन उपयोगी और व्यावहारिक रहा होता, तो उसे यह प्रतिपादनकर्त्ता स्वयं अपने जीवनक्रम में क्यों न उतारता? यदि वह लाभदायक था, तो इसे स्वयं कर दिखाने में चूक क्यों करता? यही एक कारण है, जिससे संजीवनी विद्या के क्षेत्र में कारगर अध्यापन कर सकने वालों की एक प्रकार से शून्य स्तर की अभावग्रस्तता सामने आ खड़ी हुई है। उसके अभाव से जनमानस में संकीर्ण स्वार्थपरता ने बुरी तरह अड्डा जमा लिया है। लोक चतुरता-चालाकी को ही सफलता का बड़ा आधार मानने लगे हैं। धर्मोपदेशकों को उपहासास्पद बनते और क्रियाकुशलों को सफल सम्पन्न होते देखकर यही अनुमान लगाया जाता है कि स्वार्थ सिद्धि ही व्यवहारिक है, भले ही वह छल-प्रपंच का आश्रय लेकर ही हस्तगत क्यों न की गयी हो।
आज का सबसे बड़ा संकट यही आस्था संकट है। जिसके चक्रव्यूह में फंस कर जन समुदाय का स्तर क्रमशः नीचे की ओर ही गिरता-धंसकता ही जाता है। एक-दूसरे को ठगने की प्रवृत्ति ने समूचा वातावरण ही नैतिक प्रदूषण से भर दिया है। नजर पसारने पर बौने और ओछे लोग ही सर्वत्र भरे दीखते हैं। इसका जो परिणाम होना चाहिए, वह भी सामने है। फूटे घड़े में पानी भरने की तरह लोगों की बढ़ी-चढ़ी कमाई भी कुछ काम नहीं आ रही है। नीतिमत्ता का अभाव रहने के कारण बढ़ता वैभव दुर्व्यसनों की, दुर्गुणों की, प्रदर्शनरत अहंकार की ही बाढ़ उत्पन्न करता है। सम्पन्नता की अभिवृद्धि के साथ-साथ यदि सभ्य-सुसंस्कृत भी बन सके होते, तो कम से कम लोगों का ध्यान वैभव उपार्जन में तो विश्वासपूर्वक लगा होता, पर वह भी बन नहीं पा रहा है। फिर अभावग्रस्तों का तो कहना ही क्या? भूखा-भड़ियाई, उठाईगीरी पर उतारू हो तो बात समझ में भी आती है। अशिक्षा को अज्ञान की जननी बता कर उसे कोसा भी जा सकता है, पर जब सुशिक्षित और सुसम्पन्न भी हेय आचरण में संलग्न दीख पड़े, तो आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है। समाधान सूझ पड़ने पर अवरोध अड़ जाता है और व्यक्ति किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर नास्तिक स्तर का अनास्थावादी बनने लगता है। निरंकुश, लक्ष्य रहित व्यक्ति अनुशासन की उपेक्षा करके जो मन भाये, सो करने लगे, तो एक प्रकार की अराजकता का ही बोल बाला हो चलेगा। हो भी रहा है।
परिस्थितियों की विपन्नता पर जितनी गंभीरतापूर्वक विचार किया जाता है और कारण खोजा जाता है तो एक ही निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि चेतना को परिष्कृत कर सकने में समर्थ उस सद्ज्ञान की उपलब्धि का द्वार ही बन्द हो गया, जिसे विद्याराधन एवं व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय उत्कर्ष कहा जा सकता है। यह अवरोध इसलिए अड़ा कि उसके लिए उपयुक्त अध्यापकों की कमी ही नहीं पड़ी, समाप्त होने जैसी स्थिति भी आ गयी। अपने समय का यही सबसे बड़ा संकट है। निवारण-निराकरण इसी का होना चाहिए।
यहां विद्या का तात्पर्य साक्षरता पर अवलम्बित भौतिक जानकारियों तक सीमित नहीं है। उसे संसार के स्वरूप और व्यवहार तक भी सीमित नहीं किया जा सकता। उस स्तर की पढ़ाई तो स्कूलों में चलती है और उसे जानकार अध्यापक अपने छात्रों को सिखाते भी रहते हैं। ‘विद्या’ उस तत्वदर्शन से अवगत कराती है जो व्यक्ति की चेतना-परतों का स्वरूप समझाती और उन्हें परिष्कृत करने में सहायता करती है। संक्षेप में इसे दृष्टिकोण का परिष्कार भी कह सकते हैं और जीवनचर्या का सर्वतोमुखी सुनियोजन भी। यही संजीवनी विद्या है। अमृत की चर्चा भी इसी प्रसंग में होती है। जिसने जीवन के अन्तराल को—अन्तःकरण को उत्कृष्टता के साथ जोड़ने में सफलता प्राप्त कर ली, समझना चाहिए कि अमृतत्व का अदृश्य स्वरूप चेतना में समाविष्ट करने का सुयोग-सुअवसर मिल गया। दैवी अनुग्रह का—ईश्वर दर्शन का—ब्रह्म निर्माण का स्वरूप भी यही है। इसी को तत्व-वेत्ताओं ने अनेक प्रकार के अलंकारों से सुसज्जित करके वर्णन, विवेचन किया है।
शरीर को संसार के प्राणियों और पदार्थों के साथ किस प्रकार रखना चाहिए। इसकी जानकारी करना शिक्षा का काम है। अध्यापक और शिक्षालय इसी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। आरम्भिक दृष्टि से उसकी आवश्यकता भी है और उपयोगिता भी। किन्तु समझा जाना चाहिए कि लौकिक जानकारियों की अभिवृद्धि करने वाली शिक्षा शरीर यात्रा में एक सीमा तक प्रशिक्षित करने के काम ही आती है। इसलिए उसे एक पक्षीय या अधूरा माना जाता है। वह प्रायः बहुज्ञ और अधिक उपार्जन में समर्थ बनाकर ही अपनी सीमा पूर्ण कर लेती हैं।
विद्या प्राप्त करना इसलिए आवश्यक है कि चेतना को सुसंस्कृत बनाने में उसकी अनिवार्य आवश्यकता होती है। व्यक्ति वस्तुतः आत्मा है। अन्तःकरण उसका क्षेत्र है। इसके उच्चस्तरीय बनने पर ही चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का समावेश होता है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को देवोपम बनाने में विद्या का प्रभाव और दबाव ही काम आता है। यदि इस लाभ से लाभान्वित हुआ जा सके, तो व्यक्तित्व का वह स्वरूप निखर कर सामने आता है, जिसके प्रभाव से अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्रों में आनन्द एवं उल्लास बिखेरने वाले प्रकाश को प्रज्ज्वलित हुआ देखा जा सके।
वैभव का अपना महत्व है, इसलिए उसका पथ प्रशस्त करने वाली शिक्षा को भी आवश्यक माना गया है, पर इतने से यह संभव नहीं कि आत्मा के साथ जुड़ी हुई विभूतियों को भी उपलब्ध किया जा सके, उन्हें प्रसुप्त स्थिति से जगाकर जागरूक और पुरुषार्थ परायण बनाया जा सके। इसके लिए उस उच्चस्तरीय विवेक को जागृत करना होता है, जिसे विद्या के नाम से जाना, सराहा और अमृतोपम कहकर उसके साथ जुड़ी संभावनाओं से अवगत कराया जाता है।
शिक्षा की तरह विद्या की प्राप्ति में भी शिक्षार्थी की उत्कण्ठा और आस्था तो आवश्यक है ही, पर जरूरत इस बात की भी है कि उस प्रयोजन के लिए सही मार्गदर्शक मिल सके। उनका प्रायः अभाव ही पाया जाता है, कारण कि वह कार्य मात्र परामर्श से बन नहीं पड़ता। उसके लिए ऐसे प्रशिक्षक चाहिए, जिनने उस प्रसंग का स्वयं अभ्यास किया हो, जिसे दूसरों को हृदयंगम कराया जाना है। संगीत पढ़ाने वाला यदि स्वयं गाना-बजाना न जानता हो और मात्र उसका वर्णन-विवेचन भर प्रस्तुत करता हो तो इस आधार पर शिक्षण संभव नहीं हो सकता। जानकारियों को तो अध्ययन परामर्श के माध्यम से भी उपलब्ध किया जा सकता है, पर जहां तक स्वभाव, अभ्यास का सम्बन्ध है, वहां तक उसके लिए अनुकरण की आवश्यकता पड़ती है। सांचे के अनुरूप ही उपकरण, औजार, खिलौने आदि ढाले जाते हैं। जीवनचर्या में उत्कृष्टता का समावेश ऐसा कार्य है, जिसे उन्हीं के द्वारा सीखा जा सकता है, जो उस तरह का प्रयोग-परीक्षण अपने जीवन क्रम में सफलतापूर्वक उतार चुके हैं। अखाड़े में अभ्यास करने वाले युवकों को पहलवान बना सकना मात्र दाव-पेच जानने वाले उस्ताद के लिए ही संभव होता है। अन्यान्य प्रकार के शिल्प कौशल भी प्रवीण अध्यापक ही नये छात्र को सिखा सकने में समर्थ होते हैं।
पतन का मार्ग सरल है। किसी वस्तु को ऊपर से नीचे घसीट लाने का कार्य पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ही निरन्तर करती रहती है। पानी ढलान की ओर सहज स्वाभाविक रूप से बहने लगता है। जन्म-जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कार हर किसी को पाशविक प्रवृत्तियां अपनाने के लिए उकसाते रहते हैं। लोक प्रचलन भी ऐसे हैं, जिसमें अवांछनीयताओं का ही बाहुल्य पाया जाता है। उनका आकर्षण उत्तेजना दुष्प्रवृत्तियों की दिशा में ही धकेलता है। यौन कर्म प्राणियों को प्रकृति ही सिखा देती है, पर यदि आदर्शवादी सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव में उतारना हो, तो उसके लिए स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन-मनन ही नहीं, उपयुक्त मार्गदर्शक और प्रत्यक्ष उदाहरण भी सामने होने चाहिए। इन्हें जुटा सकने वाले ही उत्कर्ष, अभ्युदय की दिशा में बढ़ पाते हैं। चिरस्थायी, व्यापक और सर्वतोमुखी प्रगति के लिए इस सुयोग की व्यवस्था होनी ही चाहिए। इस प्रयास-अभ्यास को जीवन-साधना के नाम से जाना जाता है। इसी समग्र मार्ग को अपना सकने पर व्यक्तित्व निखरता और प्रगति का पथ प्रशस्त होता है।
कठिनाई एक ही है कि इस प्रकार के अध्यापकों का इन दिनों बुरी तरह अभाव हो गया जो उच्चस्तरीय सिद्धान्त और व्यवहार अपने आप में समन्वित करने के उपरान्त दूसरों को भी अपने चुम्बकत्व से आकर्षित कर सकें। जलते हुए दीपक ही अपने निकटवर्ती बुझे दीपकों को प्रकाशवान बनाने में सफल समर्थ हो सकते हैं।
दूसरों को ऊंची बातें कहना अति सरल है। पुस्तकों की खोज बीन कर ऐसे प्रवचन आसानी से किये जा सकते हैं। किसी के कथन को नोट करके उसे दुहराते रहने का काम ऐसा है, जिसे रटन्त के अभ्यासी तोते भी कर सकते हैं। प्रवचन की, भाषण-परामर्श की कला तो अब असंख्यों का व्यवसाय बन गई है। स्कूल-कालेजों में ‘लेक्चररों’ की नियुक्ति होती है। इस योग्यता के प्रशिक्षित अनेकों नौकरी की तलाश में रहते हैं। मजमा लगाकर अपने वाक् चातुर्य के आधार पर भीड़ जमा कर लेने और घेरा बनाकर खड़े हुए लोगों की जेब से पैसा निकाल लेने वाले बाजीगर गली-चौराहों पर अपना कौशल दिखाते और आजीविका कमाते देखे जाते हैं। वकालत के पेशे में तो वाचालता ही प्रमुख है। दलाली के धंधे में ऐसे ही लोग सफल होते हैं। दुकानों में काम करने वाले सेल्समैनों को, बीमा एजेण्टों को इस कुशलता के आधार पर वेतन मिलते हैं। ऐसे ही कुछ अच्छे अभ्यास करके धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्र में मुखरता के अभ्यस्त व्यक्ति भी अच्छे भाषण-कर्त्ता-कथावाचक बन सकते हैं। इतने पर भी उनके द्वारा उस प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती, जिसकी कि आशा-उपेक्षा की जाती है। वक्ताओं और लेखकों में यदि व्यक्तित्व सम्पन्नता रही होती, तो लोगों के व्यक्तित्व न जाने कितने ऊंचे उठ गये होते और उनके द्वारा कब का उपयुक्त वातावरण बन सकना संभव हो गया होता। पर ऐसा होता कहां है? आदर्शवादी प्रतिपादनों को सुनने और पढ़ने में भी लोग उपेक्षा दिखाने लगे हैं। कहते हैं—‘‘थोथा चना बाजे घना।’’ जोर-जोर से बजने वाले ढोल भीतर से पोले होते हैं। पर उपदेश कुशल होना एक प्रकार का व्यंग है। मंच पर उचकते-मचकते रहने वाले नेताओं को ‘अभिनेताओं’ की उपमा दी जा जाती है। इस प्रकार लेखनी और वाणी की अजस्र समझी जाने वाली शक्ति भी अब एक प्रकार से निरर्थक निष्फल ही सिद्ध होती रहती है। उसे कौतुक-कौतूहल मान-समझ कर लोग उपेक्षा करते और ऐसे समारोहों में अनुपस्थित रहते ही पाये जाते हैं। अब तो जुलूसों में, रैलियों में प्रदर्शनों में, सभा-समारोहों में विचारशील जनता को एकत्रित कर सकना प्रायः अति कठिन होता जाता है। ठाली बैठे लोग ही प्रायः ऐसे आयोजनों में इकट्ठे होते देखे जाते हैं या फिर उन्हें सफल बनाने के लिए कोई बड़ा-सा कौतुक-कौतूहल खड़ा करने में प्रचुर धन व्यय करना पड़ता है। यही है आज के प्रवचन-परामर्श क्षेत्र की वास्तविकता। लेखनी के सम्बन्ध में भी यही बात है। सिद्धान्त समर्थक पुस्तकों की बाजार में सब से कम बिक्री है। इस प्रकार के साहित्य संदर्भ में जन साधारण की उपेक्षा ही बढ़ती जाती है। कारण एक है कि लेखनी और वाणी के माध्यम से मार्गदर्शन करने वालों की नीयत पर सर्वत्र संदेह किया जाता है। उनकी कथनी और करनी में अन्तर पाया जाता है। इस अन्तर को देखते ही सर्वसाधारण के मन में अश्रद्धा उत्पन्न होती है। वे अनुमान लगाते हैं कि यदि प्रतिपादन उपयोगी और व्यावहारिक रहा होता, तो उसे यह प्रतिपादनकर्त्ता स्वयं अपने जीवनक्रम में क्यों न उतारता? यदि वह लाभदायक था, तो इसे स्वयं कर दिखाने में चूक क्यों करता? यही एक कारण है, जिससे संजीवनी विद्या के क्षेत्र में कारगर अध्यापन कर सकने वालों की एक प्रकार से शून्य स्तर की अभावग्रस्तता सामने आ खड़ी हुई है। उसके अभाव से जनमानस में संकीर्ण स्वार्थपरता ने बुरी तरह अड्डा जमा लिया है। लोक चतुरता-चालाकी को ही सफलता का बड़ा आधार मानने लगे हैं। धर्मोपदेशकों को उपहासास्पद बनते और क्रियाकुशलों को सफल सम्पन्न होते देखकर यही अनुमान लगाया जाता है कि स्वार्थ सिद्धि ही व्यवहारिक है, भले ही वह छल-प्रपंच का आश्रय लेकर ही हस्तगत क्यों न की गयी हो।
आज का सबसे बड़ा संकट यही आस्था संकट है। जिसके चक्रव्यूह में फंस कर जन समुदाय का स्तर क्रमशः नीचे की ओर ही गिरता-धंसकता ही जाता है। एक-दूसरे को ठगने की प्रवृत्ति ने समूचा वातावरण ही नैतिक प्रदूषण से भर दिया है। नजर पसारने पर बौने और ओछे लोग ही सर्वत्र भरे दीखते हैं। इसका जो परिणाम होना चाहिए, वह भी सामने है। फूटे घड़े में पानी भरने की तरह लोगों की बढ़ी-चढ़ी कमाई भी कुछ काम नहीं आ रही है। नीतिमत्ता का अभाव रहने के कारण बढ़ता वैभव दुर्व्यसनों की, दुर्गुणों की, प्रदर्शनरत अहंकार की ही बाढ़ उत्पन्न करता है। सम्पन्नता की अभिवृद्धि के साथ-साथ यदि सभ्य-सुसंस्कृत भी बन सके होते, तो कम से कम लोगों का ध्यान वैभव उपार्जन में तो विश्वासपूर्वक लगा होता, पर वह भी बन नहीं पा रहा है। फिर अभावग्रस्तों का तो कहना ही क्या? भूखा-भड़ियाई, उठाईगीरी पर उतारू हो तो बात समझ में भी आती है। अशिक्षा को अज्ञान की जननी बता कर उसे कोसा भी जा सकता है, पर जब सुशिक्षित और सुसम्पन्न भी हेय आचरण में संलग्न दीख पड़े, तो आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है। समाधान सूझ पड़ने पर अवरोध अड़ जाता है और व्यक्ति किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर नास्तिक स्तर का अनास्थावादी बनने लगता है। निरंकुश, लक्ष्य रहित व्यक्ति अनुशासन की उपेक्षा करके जो मन भाये, सो करने लगे, तो एक प्रकार की अराजकता का ही बोल बाला हो चलेगा। हो भी रहा है।
परिस्थितियों की विपन्नता पर जितनी गंभीरतापूर्वक विचार किया जाता है और कारण खोजा जाता है तो एक ही निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि चेतना को परिष्कृत कर सकने में समर्थ उस सद्ज्ञान की उपलब्धि का द्वार ही बन्द हो गया, जिसे विद्याराधन एवं व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय उत्कर्ष कहा जा सकता है। यह अवरोध इसलिए अड़ा कि उसके लिए उपयुक्त अध्यापकों की कमी ही नहीं पड़ी, समाप्त होने जैसी स्थिति भी आ गयी। अपने समय का यही सबसे बड़ा संकट है। निवारण-निराकरण इसी का होना चाहिए।