Books - देव संस्कृति का मेरुदण्ड वानप्रस्थ
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सरल किन्तु अति प्रभावी कार्य पद्धति
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जीवन की लम्बी अवधि में से अधिकांश तो शरीरचर्या में ही व्यतीत हो जाती है। रात्रि सोने में निकल जाती है। इस प्रकार प्रायः आधा जीवन तो मूर्च्छित स्थिति में ही व्यतीत हो जाता है। आधे में से प्रायः आधा नित्यकर्म में, आजीविका उपार्जन में, उपलब्ध साधनों की व्यवस्था में कट जाता है। मनोरंजन, थकान मिटाने, आलस्य-प्रमाद में भी ढेरों समय खप जाता है। यारवाशी, मटरगश्ती भी कम समय नहीं खाती। जो बच जाता है, वस्तुतः वही है उस प्रयोजन में नियोजित होने योग्य, जिसके लिए स्रष्टा ने सुर दुर्लभ मनुष्य जन्म धरोहर के रूप में सौंपा है। इस धरोहर का सदुपयोग सुसंस्कारिता संवर्धन, कषाय-कल्मषों के उन्मूलन में किया जाना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त साधन है—साबुन जैसा काम करने वाला सेवा धर्म। सेवा उपचारों में सर्वोपरि है—लोकमानस का परिष्कार। यदि वह बन पड़े, तो समझना चाहिए कि छाई हुई दरिद्रता, विपन्नता, मूर्खता, अवांछनीयता, उलझन, विग्रह, अनाचार आदि अनेकों दृश्य-अदृश्य, दैत्य-दानवों से निपट सकना संभव हो गया। स्वयं पार होने और अपनी नाव पर बिठाकर असंख्यों को पार करने का सुयोग बन गया।
समझदारों से अनुरोध और आग्रह एक ही है कि उपलब्ध जीवन सम्पदा में से जितना अधिक भाग पुण्य-परमार्थ के लिए लगा सकना संभव हो, उसे पूरी तत्परता से निकालने और अभीष्ट उद्देश्य के लिए समर्पित करने का प्रयत्न किया जाय। जो अपनी वासना, तृष्णा और अहंता पर अंकुश लगा सकें, उनके लिए समूचा जीवन भगवत् अर्पण करने में कोई कठिनाई नहीं पड़नी चाहिए। पेट भरने, तन ढकने जैसे स्वल्प साधन स्वयं भी उपार्जित किये जा सकते हैं अथवा जिस सेवाकार्य में अपने को समर्पित किया गया है, उस तंत्र से भी ब्राह्मणोचित निर्वाह प्राप्त किया जा सकता है। किसी सेवा भावी के लिए औसत नागरिक स्तर का निर्वाह जुटा देने में समाज को कभी कोई आपत्ति नहीं रही और न भविष्य में रहेगी। इन दिनों जनगणना के अनुसार धर्म के नाम पर आजीविका प्राप्त करने वालों की संख्या प्रायः 60 लाख है। इसके अतिरिक्त लाभ उठाने वाले भी कम-से-कम इतने ही और भी हो सकते हैं। इस प्रकार एक-सवा करोड़ व्यक्तियों को धर्म के निमित्त अभी भी पोषण मिलता है, जबकि उस निमित्त वास्तविक काम नहीं के बराबर हो पाता है। देवताओं के एजेण्ट बताकर ही वे अपना व्यवसाय सुरक्षित रखे रहते हैं। इसके स्थान पर यदि सच्चे अर्थों में धर्म-धारणा के निमित्त अपने को समर्पित करने वाले सेवा भावी उपलब्ध हो सकें, तो इस दिशा में भावनाशील जनता अपेक्षाकृत कई गुना खर्च वहन करने के लिए प्रसन्नतापूर्वक तैयार पायी जा सकती है।
पूरा या आधा-अधूरा समय व्रतधारी स्तर का नियोजित करने वाले को निर्वाह संबंधी चिन्ता न कभी रही है और न रहनी चाहिए। आड़े तो संकीर्ण स्वार्थपरता और आदर्शवादिता के प्रति अनास्था ही आती है। यदि उनसे किसी कदर निपटा जा सके, तो विचारशील वर्ग का एक बड़ा समुदाय युग की महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए आगे आ सकता है। विरक्तों के लिए इस दिशा में चल पड़ने के लिए राजमार्ग खुला पड़ा है; पर जिनकी जिम्मेदारी गृहस्थ के साथ जुड़ी हुई है, वे औचित्य की सीमा के अन्तर्गत परिवार पोषण की व्यवस्था के बाद बचा हुआ समय युग चेतना को जन-जन के मन तक पहुंचाने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। 24 घण्टे में से चार घण्टे निकाल सकना किसी भावनाशील के लिए भारी नहीं पड़ना चाहिए। व्यस्त लोग भी यदि सच्चे मन से चाहें तो 2 घण्टे तो हंसते-हंसाते इस निमित्त लगाते ही रह सकते हैं। अनेकों को साप्ताहिक अवकाश के दिन की छुट्टी रहती है। उस एक दिन को तो सहज ही निकाला जा सकता है। इस प्रकार महीने में चाप पूरे दिन भी यदि निकलते रहें, तो उतने भर से भी परमार्थ प्रयोजन के लिए इतना अधिक काम हो सकता है, जिसे देखते हुए आश्चर्यचकित रहा जा सके। दो-चार घण्टे नित्य का समय भी यदि निरन्तर लगता रहे, तो उसकी उपलब्धियां भी इतनी बढ़ी-चढ़ी हो सकती हैं, जिन्हें एक सच्चे पुरोहित की समग्र सेवा-साधना के समतुल्य समझा जा सके।
प्रयास का शुभारंभ अपने घर परिवार से भी हो सकता है। उस छोटे परिकर को समय-समय पर परामर्श देते रह कर नित्य प्रति प्रेरणाप्रद कथा-कहानियां सुनाते रहकर इस स्तर का बनाया जा सकता है कि उस समुदाय के छोटे-बड़े, नर-नारी अपने-अपने ढंग से व्यक्तित्व विकास के लिए उन्मुख हो सकें। घरेलू काम-काज में स्वयं सम्मिलित रहकर साथ ही परिजनों को लेकर हंसते-खेलते श्रमशीलता, शिष्टता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, सहकारिता जैसे सद्गुणों से अभ्यस्त बनाया जा सकता है। जिनके साथ सदा रहना पड़ता है, उन्हें अपना आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपेक्षाकृत अधिक समझदार, ईमानदार, जिम्मेदार, बहादुर बनाने का क्रम अनवरत रूप से आगे बढ़ता रह सकता है। परिवार शिक्षण की प्रक्रिया अपने आप को भी उसी प्रकार लाभान्वित कर सकती है, जिस प्रकार कि दूसरों के लिए मेहंदी पीसने वाले के अपने हाथ भी रंगते और रचते देखे जाते हैं। परिवार पर आदर्शवादी छाप छोड़ने के लिए अपने को तो वैसा बनाना ही पड़ेगा।
उसके उपरान्त पड़ौसियों, सम्बन्धियों, मित्रों परिचितों का परिकर आता है। गिनने पर यह लोग भी सौ-पचास से कम नहीं बैठ सकते। इन्हें युग साहित्य पढ़ाते-सुनाते रहने का काम सरलतापूर्वक चलते-फिरते हो सकता है। इस प्रयोजन के लिए युग निर्माण योजना द्वारा बड़ी संख्या में अत्यन्त सस्ते मूल्य का साहित्य प्रकाशित होता रहता है, जिसे मंगाते रहने से वह सिलसिला बराबर चलता रहता है, जिसमें उत्साही जनों को घर बैठे पुस्तकें पढ़ने देने और फिर वापस ले आने का क्रम निःस्वार्थ रूप से चलाया जा सकता है।
समयदान की तरह ही अंशदान भी प्रत्येक युग पुरोहित को निकालना है। न्यूनतम बीस पैसा नित्य निकालते रहने का क्रम भी चलता रहे, तो इतनी छोटी राशि से उतना साहित्य मंगाया जा सकता है, जिसे सम्पर्क क्षेत्र के लोगों को पढ़ाने वापस लेने के उपरान्त अपना घरेलू पुस्तकालय भी अधिकाधिक समृद्ध होता चले। यह दुहरा लाभ निरन्तर उठाते रहना हर सृजन शिल्पी के लिए नितान्त सरल हो सकता है।
आदर्श वाक्यों को दीवार पर लिखते रहना। घरों, दुकानों, दफ्तरों, कारखानों में आदर्श वाक्यों के स्टीकर चिपकाना भी उल्लास भरा वातावरण बनाने की दृष्टि से सहज और सस्ता उपचार है। इन सस्ते आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक स्टीकरों में थोड़े से पैसे खर्च करना किसी को भी भारी नहीं पड़ता।
लेखनी के अतिरिक्त वाणी भी अपना चमत्कारी प्रभाव दिखाती है। इसके लिए इन दिनों सभा-सम्मेलनों के आयोजन किये जाते रहते हैं, पर वे अब बड़े खर्चीले और भारी भाग-दौड़ पर ही सफल हो पाते हैं। उनकी व्यवस्था आये दिन कर सकना कठिन है। फिर उनमें दी गई वक्तृतायें जोशीली होने पर भी कुछ ही दिन स्मरण रहती हैं।
इसके लिए पगडण्डी जैसा शार्टकट दीपयज्ञों का निकाला गया है। पर्व त्यौहारों पर विशेष अवसरों पर उनकी छोटी-बड़ी योजनायें बनायी जा सकती हैं और निर्धारित धर्मकृत्य के अतिरिक्त उसी अवसर पर सम्मिलित होने वालों से दुष्प्रवृत्तियां छोड़ने और सत्प्रवृत्तियां अपनाने की प्रतिज्ञायें करायी जा सकती हैं। सुधार परिष्कार की दृष्टि से यह आयोजन बहुत ही सफल होते देखे गये हैं।
साप्ताहिक सत्संगों का प्रचलन और भी अधिक सरल एवं प्रेरणाप्रद है। व्रतधारियों को अपने जैसे चार साथी और ढूंढ़कर पांच की एक मण्डली ‘प्रज्ञा मण्डली’ के रूप में गठित कर लेने की प्रक्रिया अब अपने परिकर में तेजी से चल पड़ी है। एक से पांच हो जाने पर साप्ताहिक सत्संग का क्रम नियमित रूप से चल सकता है। सामूहिक जप, सहगान कीर्तन, दीप प्रज्ज्वलन, प्रेरणाप्रद प्रतिपादनों के वाचन की प्रक्रिया प्रायः एक घण्टे में पूरी हो जाती है। इसी अवसर पर झोला पुस्तकालय का सामूहिक उपक्रम चल पड़ता है।
एक से पांच, पांच से पच्चीस होने की प्रक्रिया तेजी से चल पड़ी है। इसी चक्रवृद्धि क्रम को अपनाकर पांच लाख परिजनों से पच्चीस लाख सहयोगी बने हैं। अब इस क्रम को आगे बढ़ाना है। सत्संग मण्डल के संस्थापक आरम्भ में भले ही पांच हों, पर उनमें से प्रत्येक को पांच-पांच और नये ढूंढ़कर मण्डली को पच्चीस की बनाना ही लक्ष्य रहना चाहिए। विश्वास किया जा सकता है कि यह चक्रवृद्धि प्रक्रिया यदि बना रुके चलती रहे तो न केवल भारत के 80 करोड़ नागरिकों को, वरन् समस्त संसार के 500 करोड़ मनुष्यों तक भी नवयुग का संदेश पहुंचाना और आदर्शवादिता की पक्षधर विचार क्रान्ति से प्रभावित करना संभव हो जायगा।
साप्ताहिक सत्संगों की प्रक्रिया पर युग पुरोहितों को इन दिनों पूरा-पूरा ध्यान देना और उसे सफल बनाकर रहने का व्रत लेना है। यों छुट्टी का दिन उसके लिए उपयुक्त पड़ता है। पर जहां सुविधा हो वहीं बारी-बारी से हर दिन और उत्साही जनों के घरों पर यह आयोजन किये जाते रह सकते हैं और उस परिवार के लोगों को आमन्त्रित करके उन्हें नवयुग के अनुरूप प्रेरणाओं से अनुप्राणित करना संभव हो सकता है।
जो लोग साप्ताहिक सत्संगों में रस लेने लगें, उनमें नियमित रूप से आगे आने लगें, उन्हें नौ दिवसीय सत्रों में सम्मिलित होने के लिए शांतिकुंज भिजवाना चाहिए। यहां के वातावरण में नौ दिन रहकर भी जो वापस लौटते हैं, वे कुम्हार के अवे में तप कर पके हुए बर्तनों की तरह परिष्कृत व्यक्तित्व लेकर वापस लौटते हैं साथ ही अपने परिचय क्षेत्र में नई चेतना का विस्तार करने में कर्मठ कार्यकर्त्ताओं की तरह सहायक भी सिद्ध होते हैं। मिशन की विचारधारा से विचारशीलों को परिचित और प्रभावित करने का काम वृतधारी प्रज्ञा पुरोहितों के जिम्मे छोड़ा गया है और गीलापन दूर हो जाने पर कुम्हार द्वारा सूखे बर्तनों को अवे में लगाकर पकने की तरह प्रयास करने की जिम्मेदारी शांतिकुंज ने उठाई है। दोनों पक्ष अपने-अपने जिम्मे का कार्य ठीक तरह से पूरा करते रहें, तो वर्तमान बीसवीं सदी के अन्त तक एक लाख प्रशिक्षित लोकसेवी तैयार करने का संकल्प पूरा करने में कोई अड़चन न रहेगी।
‘‘इक्कीसवीं सदी’’ बनाम ‘‘उज्ज्वल भविष्य’’ के उद्घोष को यथार्थता में परिणत कर दिखाने के लिए यह आवश्यक है कि एक लाख समयदानी व्रतधारी कार्यक्षेत्र में उतरें और जनमानस के परिष्कार का प्रथम चरण पूरा कर दिखायें। दूसरा चरण क्रिया पक्ष है, जिसमें सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन का वातावरण बनाकर रहना है। मनःस्थिति बदलने पर परिस्थितियां भी परिवर्तित होकर रहती हैं—यह निश्चित है। आज जो कार्य अत्यन्त कठिन दीख पड़ता है, उसे पूरा होने में देर न लगे, यदि समयदानी व्रतधारी युग पुरोहित जनसम्पर्क साधें और स्वाध्याय-सत्संग की ऊर्जा को ज्वलंत बनाये रहने में कटिबद्ध हों।
संक्षेप में युग साहित्य को पढ़ाना, सुनाना प्रज्ञा मण्डलों का गठन एक से पांच, पांच से पच्चीस बनने का उपक्रम—मिशन से भलीभांति परिचित लोगों को शांतिकुंज भेजकर नौ दिन के प्रशिक्षण की संक्षिप्त सरल, किन्तु अति प्रभावी विधि व्यवस्था ठीक प्रकार से चल पड़े, तो उसका जादू जैसा चमत्कारी प्रभाव कुछ ही दिनों में दृष्टिगोचर होने लगेगा।
विचारक्रान्ति में सामूहिक आयोजनों का महत्व भी कम नहीं है। इसके लिए श्रद्धा और विवेक से भरा-पूरा दीपयज्ञ कार्यक्रम सर्वत्र सरलतापूर्वक नियोजित किया जा सकता है। उसमें न बड़ी पूंजी की आवश्यकता पड़ती है और न बड़े साधन जुटाने के लिए भागदौड़ करने की। इन दिनों यह प्रयत्न चलना चाहिए कि किसी भी क्षेत्र का कोई भी गांव, मुहल्ला ऐसा न बचे जहां दीपयज्ञ आयोजनों की प्रक्रिया सम्पन्न न हुई हो। सामूहिकता अन्ततः संगठन में बदलती है और अपने उद्देश्य के अनुरूप प्रतिफल प्रस्तुत करती है। इस तथ्य को दीपयज्ञों के आयोजनकर्त्ता कहीं भी चरितार्थ हुआ देख सकते हैं।
समयदानी युग पुरोहितों के लिए ऐसी व्यवस्था है कि वे समय निकाल कर एक महीना शांतिकुंज में युग शिल्पी प्रशिक्षण प्राप्त करें। इससे उन्हें सुगम संगीत, प्रवचन, दीपयज्ञ तो सीखने को मिलेंगे ही, साथ ही गृह उद्योगों के सम्बन्ध में इतनी जानकारी प्राप्त कर सकेंगे कि उनका परिवार अपने लिए आवश्यक आजीविका कमा सके और एक व्यक्ति को युग साधना में निरत होकर निश्चिंतता पूर्वक कार्य में संलग्न होने का अवसर प्रदान कर सके।
समझदारों से अनुरोध और आग्रह एक ही है कि उपलब्ध जीवन सम्पदा में से जितना अधिक भाग पुण्य-परमार्थ के लिए लगा सकना संभव हो, उसे पूरी तत्परता से निकालने और अभीष्ट उद्देश्य के लिए समर्पित करने का प्रयत्न किया जाय। जो अपनी वासना, तृष्णा और अहंता पर अंकुश लगा सकें, उनके लिए समूचा जीवन भगवत् अर्पण करने में कोई कठिनाई नहीं पड़नी चाहिए। पेट भरने, तन ढकने जैसे स्वल्प साधन स्वयं भी उपार्जित किये जा सकते हैं अथवा जिस सेवाकार्य में अपने को समर्पित किया गया है, उस तंत्र से भी ब्राह्मणोचित निर्वाह प्राप्त किया जा सकता है। किसी सेवा भावी के लिए औसत नागरिक स्तर का निर्वाह जुटा देने में समाज को कभी कोई आपत्ति नहीं रही और न भविष्य में रहेगी। इन दिनों जनगणना के अनुसार धर्म के नाम पर आजीविका प्राप्त करने वालों की संख्या प्रायः 60 लाख है। इसके अतिरिक्त लाभ उठाने वाले भी कम-से-कम इतने ही और भी हो सकते हैं। इस प्रकार एक-सवा करोड़ व्यक्तियों को धर्म के निमित्त अभी भी पोषण मिलता है, जबकि उस निमित्त वास्तविक काम नहीं के बराबर हो पाता है। देवताओं के एजेण्ट बताकर ही वे अपना व्यवसाय सुरक्षित रखे रहते हैं। इसके स्थान पर यदि सच्चे अर्थों में धर्म-धारणा के निमित्त अपने को समर्पित करने वाले सेवा भावी उपलब्ध हो सकें, तो इस दिशा में भावनाशील जनता अपेक्षाकृत कई गुना खर्च वहन करने के लिए प्रसन्नतापूर्वक तैयार पायी जा सकती है।
पूरा या आधा-अधूरा समय व्रतधारी स्तर का नियोजित करने वाले को निर्वाह संबंधी चिन्ता न कभी रही है और न रहनी चाहिए। आड़े तो संकीर्ण स्वार्थपरता और आदर्शवादिता के प्रति अनास्था ही आती है। यदि उनसे किसी कदर निपटा जा सके, तो विचारशील वर्ग का एक बड़ा समुदाय युग की महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए आगे आ सकता है। विरक्तों के लिए इस दिशा में चल पड़ने के लिए राजमार्ग खुला पड़ा है; पर जिनकी जिम्मेदारी गृहस्थ के साथ जुड़ी हुई है, वे औचित्य की सीमा के अन्तर्गत परिवार पोषण की व्यवस्था के बाद बचा हुआ समय युग चेतना को जन-जन के मन तक पहुंचाने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। 24 घण्टे में से चार घण्टे निकाल सकना किसी भावनाशील के लिए भारी नहीं पड़ना चाहिए। व्यस्त लोग भी यदि सच्चे मन से चाहें तो 2 घण्टे तो हंसते-हंसाते इस निमित्त लगाते ही रह सकते हैं। अनेकों को साप्ताहिक अवकाश के दिन की छुट्टी रहती है। उस एक दिन को तो सहज ही निकाला जा सकता है। इस प्रकार महीने में चाप पूरे दिन भी यदि निकलते रहें, तो उतने भर से भी परमार्थ प्रयोजन के लिए इतना अधिक काम हो सकता है, जिसे देखते हुए आश्चर्यचकित रहा जा सके। दो-चार घण्टे नित्य का समय भी यदि निरन्तर लगता रहे, तो उसकी उपलब्धियां भी इतनी बढ़ी-चढ़ी हो सकती हैं, जिन्हें एक सच्चे पुरोहित की समग्र सेवा-साधना के समतुल्य समझा जा सके।
प्रयास का शुभारंभ अपने घर परिवार से भी हो सकता है। उस छोटे परिकर को समय-समय पर परामर्श देते रह कर नित्य प्रति प्रेरणाप्रद कथा-कहानियां सुनाते रहकर इस स्तर का बनाया जा सकता है कि उस समुदाय के छोटे-बड़े, नर-नारी अपने-अपने ढंग से व्यक्तित्व विकास के लिए उन्मुख हो सकें। घरेलू काम-काज में स्वयं सम्मिलित रहकर साथ ही परिजनों को लेकर हंसते-खेलते श्रमशीलता, शिष्टता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, सहकारिता जैसे सद्गुणों से अभ्यस्त बनाया जा सकता है। जिनके साथ सदा रहना पड़ता है, उन्हें अपना आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपेक्षाकृत अधिक समझदार, ईमानदार, जिम्मेदार, बहादुर बनाने का क्रम अनवरत रूप से आगे बढ़ता रह सकता है। परिवार शिक्षण की प्रक्रिया अपने आप को भी उसी प्रकार लाभान्वित कर सकती है, जिस प्रकार कि दूसरों के लिए मेहंदी पीसने वाले के अपने हाथ भी रंगते और रचते देखे जाते हैं। परिवार पर आदर्शवादी छाप छोड़ने के लिए अपने को तो वैसा बनाना ही पड़ेगा।
उसके उपरान्त पड़ौसियों, सम्बन्धियों, मित्रों परिचितों का परिकर आता है। गिनने पर यह लोग भी सौ-पचास से कम नहीं बैठ सकते। इन्हें युग साहित्य पढ़ाते-सुनाते रहने का काम सरलतापूर्वक चलते-फिरते हो सकता है। इस प्रयोजन के लिए युग निर्माण योजना द्वारा बड़ी संख्या में अत्यन्त सस्ते मूल्य का साहित्य प्रकाशित होता रहता है, जिसे मंगाते रहने से वह सिलसिला बराबर चलता रहता है, जिसमें उत्साही जनों को घर बैठे पुस्तकें पढ़ने देने और फिर वापस ले आने का क्रम निःस्वार्थ रूप से चलाया जा सकता है।
समयदान की तरह ही अंशदान भी प्रत्येक युग पुरोहित को निकालना है। न्यूनतम बीस पैसा नित्य निकालते रहने का क्रम भी चलता रहे, तो इतनी छोटी राशि से उतना साहित्य मंगाया जा सकता है, जिसे सम्पर्क क्षेत्र के लोगों को पढ़ाने वापस लेने के उपरान्त अपना घरेलू पुस्तकालय भी अधिकाधिक समृद्ध होता चले। यह दुहरा लाभ निरन्तर उठाते रहना हर सृजन शिल्पी के लिए नितान्त सरल हो सकता है।
आदर्श वाक्यों को दीवार पर लिखते रहना। घरों, दुकानों, दफ्तरों, कारखानों में आदर्श वाक्यों के स्टीकर चिपकाना भी उल्लास भरा वातावरण बनाने की दृष्टि से सहज और सस्ता उपचार है। इन सस्ते आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक स्टीकरों में थोड़े से पैसे खर्च करना किसी को भी भारी नहीं पड़ता।
लेखनी के अतिरिक्त वाणी भी अपना चमत्कारी प्रभाव दिखाती है। इसके लिए इन दिनों सभा-सम्मेलनों के आयोजन किये जाते रहते हैं, पर वे अब बड़े खर्चीले और भारी भाग-दौड़ पर ही सफल हो पाते हैं। उनकी व्यवस्था आये दिन कर सकना कठिन है। फिर उनमें दी गई वक्तृतायें जोशीली होने पर भी कुछ ही दिन स्मरण रहती हैं।
इसके लिए पगडण्डी जैसा शार्टकट दीपयज्ञों का निकाला गया है। पर्व त्यौहारों पर विशेष अवसरों पर उनकी छोटी-बड़ी योजनायें बनायी जा सकती हैं और निर्धारित धर्मकृत्य के अतिरिक्त उसी अवसर पर सम्मिलित होने वालों से दुष्प्रवृत्तियां छोड़ने और सत्प्रवृत्तियां अपनाने की प्रतिज्ञायें करायी जा सकती हैं। सुधार परिष्कार की दृष्टि से यह आयोजन बहुत ही सफल होते देखे गये हैं।
साप्ताहिक सत्संगों का प्रचलन और भी अधिक सरल एवं प्रेरणाप्रद है। व्रतधारियों को अपने जैसे चार साथी और ढूंढ़कर पांच की एक मण्डली ‘प्रज्ञा मण्डली’ के रूप में गठित कर लेने की प्रक्रिया अब अपने परिकर में तेजी से चल पड़ी है। एक से पांच हो जाने पर साप्ताहिक सत्संग का क्रम नियमित रूप से चल सकता है। सामूहिक जप, सहगान कीर्तन, दीप प्रज्ज्वलन, प्रेरणाप्रद प्रतिपादनों के वाचन की प्रक्रिया प्रायः एक घण्टे में पूरी हो जाती है। इसी अवसर पर झोला पुस्तकालय का सामूहिक उपक्रम चल पड़ता है।
एक से पांच, पांच से पच्चीस होने की प्रक्रिया तेजी से चल पड़ी है। इसी चक्रवृद्धि क्रम को अपनाकर पांच लाख परिजनों से पच्चीस लाख सहयोगी बने हैं। अब इस क्रम को आगे बढ़ाना है। सत्संग मण्डल के संस्थापक आरम्भ में भले ही पांच हों, पर उनमें से प्रत्येक को पांच-पांच और नये ढूंढ़कर मण्डली को पच्चीस की बनाना ही लक्ष्य रहना चाहिए। विश्वास किया जा सकता है कि यह चक्रवृद्धि प्रक्रिया यदि बना रुके चलती रहे तो न केवल भारत के 80 करोड़ नागरिकों को, वरन् समस्त संसार के 500 करोड़ मनुष्यों तक भी नवयुग का संदेश पहुंचाना और आदर्शवादिता की पक्षधर विचार क्रान्ति से प्रभावित करना संभव हो जायगा।
साप्ताहिक सत्संगों की प्रक्रिया पर युग पुरोहितों को इन दिनों पूरा-पूरा ध्यान देना और उसे सफल बनाकर रहने का व्रत लेना है। यों छुट्टी का दिन उसके लिए उपयुक्त पड़ता है। पर जहां सुविधा हो वहीं बारी-बारी से हर दिन और उत्साही जनों के घरों पर यह आयोजन किये जाते रह सकते हैं और उस परिवार के लोगों को आमन्त्रित करके उन्हें नवयुग के अनुरूप प्रेरणाओं से अनुप्राणित करना संभव हो सकता है।
जो लोग साप्ताहिक सत्संगों में रस लेने लगें, उनमें नियमित रूप से आगे आने लगें, उन्हें नौ दिवसीय सत्रों में सम्मिलित होने के लिए शांतिकुंज भिजवाना चाहिए। यहां के वातावरण में नौ दिन रहकर भी जो वापस लौटते हैं, वे कुम्हार के अवे में तप कर पके हुए बर्तनों की तरह परिष्कृत व्यक्तित्व लेकर वापस लौटते हैं साथ ही अपने परिचय क्षेत्र में नई चेतना का विस्तार करने में कर्मठ कार्यकर्त्ताओं की तरह सहायक भी सिद्ध होते हैं। मिशन की विचारधारा से विचारशीलों को परिचित और प्रभावित करने का काम वृतधारी प्रज्ञा पुरोहितों के जिम्मे छोड़ा गया है और गीलापन दूर हो जाने पर कुम्हार द्वारा सूखे बर्तनों को अवे में लगाकर पकने की तरह प्रयास करने की जिम्मेदारी शांतिकुंज ने उठाई है। दोनों पक्ष अपने-अपने जिम्मे का कार्य ठीक तरह से पूरा करते रहें, तो वर्तमान बीसवीं सदी के अन्त तक एक लाख प्रशिक्षित लोकसेवी तैयार करने का संकल्प पूरा करने में कोई अड़चन न रहेगी।
‘‘इक्कीसवीं सदी’’ बनाम ‘‘उज्ज्वल भविष्य’’ के उद्घोष को यथार्थता में परिणत कर दिखाने के लिए यह आवश्यक है कि एक लाख समयदानी व्रतधारी कार्यक्षेत्र में उतरें और जनमानस के परिष्कार का प्रथम चरण पूरा कर दिखायें। दूसरा चरण क्रिया पक्ष है, जिसमें सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन का वातावरण बनाकर रहना है। मनःस्थिति बदलने पर परिस्थितियां भी परिवर्तित होकर रहती हैं—यह निश्चित है। आज जो कार्य अत्यन्त कठिन दीख पड़ता है, उसे पूरा होने में देर न लगे, यदि समयदानी व्रतधारी युग पुरोहित जनसम्पर्क साधें और स्वाध्याय-सत्संग की ऊर्जा को ज्वलंत बनाये रहने में कटिबद्ध हों।
संक्षेप में युग साहित्य को पढ़ाना, सुनाना प्रज्ञा मण्डलों का गठन एक से पांच, पांच से पच्चीस बनने का उपक्रम—मिशन से भलीभांति परिचित लोगों को शांतिकुंज भेजकर नौ दिन के प्रशिक्षण की संक्षिप्त सरल, किन्तु अति प्रभावी विधि व्यवस्था ठीक प्रकार से चल पड़े, तो उसका जादू जैसा चमत्कारी प्रभाव कुछ ही दिनों में दृष्टिगोचर होने लगेगा।
विचारक्रान्ति में सामूहिक आयोजनों का महत्व भी कम नहीं है। इसके लिए श्रद्धा और विवेक से भरा-पूरा दीपयज्ञ कार्यक्रम सर्वत्र सरलतापूर्वक नियोजित किया जा सकता है। उसमें न बड़ी पूंजी की आवश्यकता पड़ती है और न बड़े साधन जुटाने के लिए भागदौड़ करने की। इन दिनों यह प्रयत्न चलना चाहिए कि किसी भी क्षेत्र का कोई भी गांव, मुहल्ला ऐसा न बचे जहां दीपयज्ञ आयोजनों की प्रक्रिया सम्पन्न न हुई हो। सामूहिकता अन्ततः संगठन में बदलती है और अपने उद्देश्य के अनुरूप प्रतिफल प्रस्तुत करती है। इस तथ्य को दीपयज्ञों के आयोजनकर्त्ता कहीं भी चरितार्थ हुआ देख सकते हैं।
समयदानी युग पुरोहितों के लिए ऐसी व्यवस्था है कि वे समय निकाल कर एक महीना शांतिकुंज में युग शिल्पी प्रशिक्षण प्राप्त करें। इससे उन्हें सुगम संगीत, प्रवचन, दीपयज्ञ तो सीखने को मिलेंगे ही, साथ ही गृह उद्योगों के सम्बन्ध में इतनी जानकारी प्राप्त कर सकेंगे कि उनका परिवार अपने लिए आवश्यक आजीविका कमा सके और एक व्यक्ति को युग साधना में निरत होकर निश्चिंतता पूर्वक कार्य में संलग्न होने का अवसर प्रदान कर सके।