Books - देव संस्कृति का मेरुदण्ड वानप्रस्थ
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प्रतिभा परिष्कार की महती आवश्यकता
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महत्वपूर्ण कार्य श्रम, कौशल एवं साधनों के आधार पर ही बन पड़ते हैं। इमारतें, कारखाने, उद्योग उत्पादन आदि में यही शक्तियां प्रधान रूप से काम करती हैं। भौतिक प्रगति माध्यमों की तरह ही एक बड़ा क्षेत्र है, व्यक्ति और समाज के भावनात्मक उत्कर्ष का। उसकी पूर्ति हो सकने पर ही उपलब्ध साधनों का सदुपयोग बन पड़ता है अन्यथा ओछे व्यक्ति या तो अयोग्यता के कारण कुछ उपलब्ध ही नहीं कर पाते, कर भी लें, तो सदुपयोग न बन पड़ने पर उस लाभ से वंचित ही बने रहते हैं जो सही मार्ग अपनाने पर प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हो सकता था, जितना महत्व सुविधा-साधनों के अभिवर्धन का माना जाता है, उससे भी अधिक उपयोगिता इस तथ्य की सामने आती है कि जन-जन की प्रतिभा और प्रामाणिकता का समुचित परिष्कार बन पड़े।
प्राचीन काल में इस आवश्यकता को सही रूप में समझा गया था, अस्तु भौतिक प्रगति के अतिरिक्त यह प्रयास भी पूरे उत्साह के साथ चला था कि जनमानस को परिष्कृत करने में किसी प्रकार की कमी न रहने पाये। इस दायित्व को निबाहने के लिए पुरोहित वर्ग द्वारा धर्मतन्त्र का सुनियोजित संचालन किया जाता था। उस प्रक्रिया के सही रूप से बन पड़ने का परिणाम था कि सर्वत्र सुख-शांति विराजती रही। शालीनता और सहकारिता का समन्वय कितना अधिक प्रभावी हो सकता है, इसका अनुभव सर्वत्र किया जाता रहा और यह बन पड़ा कि अपने छोटे घरों और सीमित साधनों में यह देश मूर्धन्य स्तर तक जा पहुंचा। भारतभूमि विश्व भर में ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ के रूप में जानी जा सकी। यहां का धर्मतंत्र जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित हुआ। यहां का राजतंत्र चक्रवर्ती शासक के रूप में वरण किया गया। परिस्थितियां ऐसी थीं, जिन्हें स्वर्ग सम्पदाओं की स्वामिनी के रूप में प्रशंसा प्राप्त होती रही।
आज की विपन्नता के अन्य कारण भी निमित्त हो सकते हैं; पर सबसे बड़ा कारण ही प्रतीत होता है कि जन समुदाय को मानवी गरिमा से सुसम्पन्न करने का अधिकार शिथिल होते-होते समाप्त प्रायः हो जाने की स्थिति में जा पहुंचा। देखने को बहुत कुछ भव्य दीखता है, पर जहां तक महानता सम्पन्न व्यक्तित्वों का संबंध है, वहां तक कूड़े-कचरे की भरमार ही दीख पड़ती है। ऐसी दशा में विपन्नता की व्यापकता दीख पड़े, तो आश्चर्य ही क्या है?
सुयोग्य कार्यकर्त्ताओं के तत्वावधान में ही कोई कार्य ठीक प्रकार चल पाता है। समाज, राष्ट्र एवं विश्व की परिस्थितियों का सही, समुचित स्थिति में रहना इस बात पर निर्भर रहता है कि उसे संभालने वालों का समुदाय, उनका स्तर—कैसा है? शासन व्यवस्था के अनुरूप देश की समृद्धि बढ़ती-घटती रहती है। इसी प्रकार लोक मानस को प्रभावित करने वाले मनीषी जिस स्थिति में होंगे, उसी के अनुरूप प्रजाजनों के व्यक्तित्वों का निखार होगा। कहना न होगा कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्म दात्री है। आस्थायें ही दिशा निर्धारण करती हैं। दृष्टिकोण के अनुरूप क्रिया-कलाप चलते हैं और वह सब कुछ मिलकर व्यक्तित्वों की क्षमता एवं गरिमा का स्वरूप विनिर्मित करते हैं। यह समूचा परिवार शालीनता से सम्पन्न होता है तभी यह आशा की जा सकती है कि समुदाय प्रगति, सुख-शांति से और समृद्धि से भरा-पूरा बना रहेगा। यदि यहां गिरावट घुस पड़ी, तो समझना चाहिए कि दरिद्रता और अव्यवस्था का दौर ही बढ़ चलेगा और उसकी चपेट में जन-जन को त्रास सहना पड़ेगा।
सम्पन्नता, शिक्षा, बलिष्ठता, कुशलता आदि का अपना महत्व है, पर इन सबसे अधिक आवश्यक शालीनता एवं दूरदर्शिता है। उसी के आधार पर समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी जैसी सत्प्रवृत्तियां पनपती हैं। प्रगति का बहुमुखी आधार भी उसी के सहारे खड़ा होता है। इसके उत्पादन एवं अभिवर्धन में युग मनीषियों की ही प्रमुख भूमिका रहती है। अध्यात्म की भाषा में युग मनीषा को ही पुरोहित कहते हैं, वही धरती के देवता कहलाते हैं। अपने उदाहरण, उद्बोधन और अनुदान से वे ही सर्वतोमुखी प्रगति के सरंजाम जुटाते हैं।
प्राचीन काल में साधु-ब्राह्मण समाज के हर वर्ग का मार्गदर्शन करते थे और सदा ध्यान रखते थे कि राष्ट्र को जीवित एवं जागृत रखने की जिम्मेदारी के निर्वाह में कहीं कोई कमी न रहने पाये।
इन दिनों मार्गदर्शन का दायित्व जिनके कंधों पर है, वे तथाकथित लोकसेवी शासन के—संस्थाओं के प्रतिष्ठानों के माध्यम से कहते बताते तो बहुत कुछ रहते हैं; पर कठिनाई यह है कि उनके प्रति जन साधारण की गह श्रद्धा न रहने के कारण उपेक्षापूर्वक ही उनके कथन को सुना जाता है। गंध सूंघी जाती है कि इनका कथन अपना वेतन प्राप्त करने के लिए एक बेगार भुगतने-लकीर पीटने जैसा है। साथ ही यह भी खोजा जाता है कि इन तथाकथित लोकसेवियों के निजी जीवन में उतनी प्रामाणिकता है या नहीं, जिससे उनके तत्वावधान में लोकमंगल के आदर्शों को अपनाने की प्रेरणा मिल सके। जिस स्वार्थपरता, हरामखोरी, प्रतिगामिता आदि को छोड़ने के लिए अन्यान्यों को कहा जा रहा है, उसे कार्य रूप में परिणत करने के लिए मार्गदर्शकों की निजी भूमिका क्या है? इसे जानने और खोजने के लिए हर किसी का मन करता है। उसमें कमी दीखती हो तो प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। अविश्वास और आक्रोश रहने की स्थिति में आमतौर से लोग अच्छी बात का भी उपहास उड़ाते देखे गये हैं।
संकीर्ण, स्वार्थपरता के वातावरण में उस मार्ग को तो कोई भी अपना लेता है, किन्तु जब चरित्रनिष्ठा, आदर्शवादिता और लोकहित के लिए संयम बरतने, परमार्थ परायणता अपनाने की बात कही जाती है तो सहज ही प्रश्न उठ खड़ा होता है कि मार्गदर्शक स्वयं उस मार्ग पर चल रहा है या नहीं। संदेह होने पर अन्दर का आक्रोश अवज्ञा के रूप में उभरता है और उपयोगी परामर्श की भी अवमानना करने पर उतारू होता है। यही है—आज के परामर्शदाताओं के सामने सबसे बड़ी कठिनाई जिसके कारण जनसाधारण को कुछ महत्वपूर्ण समझाने और उनके द्वारा चरितार्थ किये जाने की स्थिति बन नहीं पड़ती। कथनी और करनी में अन्तर रहने पर उपदेशकों का सारा परिश्रम व्यर्थ चला जाता है।
इस जटिल अवरोध से प्राचीनकाल के मार्गदर्शक को हैरान ही होना पड़ता था। उनका व्यक्तिगत चरित्र उच्चस्तरीय होने के कारण वे सहज ही लोक श्रद्धा को अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे और जन समुदाय को अपने कथन से प्रभावित कर लेते थे। साधु, ब्राह्मण वर्ग के पुरोहितों की यही विशेषता थी।
पुरातन पुरोहितों के परामर्श, प्रतिपादन, समाधान जन-जन द्वारा इसलिए अपनाये जाते थे कि वे अपने व्यक्तित्व को इतना प्रामाणिक बना लेते थे कि उनके कथन को भी विश्वस्त हितकर एवं व्यावहारिक माना जा सके।
कला, कौशल, शिल्प आदि के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारियां किसी से भी प्राप्त की जा सकती हैं। अनैतिक व्यक्ति से भी वैसा कुछ सीखा जा सकता है, पर जहां तक व्यक्तित्व निर्माण के लिए आदर्शवादी सिद्धान्तों को जीवन में उतारने का सवाल है, वहां यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि प्रशिक्षक ने अपने निज के जीवन में वह अभ्यास किया या नहीं, जिसे वह अन्यान्यों को करने के लिए कहता है। जिसे स्वयं संगीत न आता हो, वह दूसरों को वह सब कैसे सिखा पायेगा। शिल्प, कौशल से अनभ्यस्त व्यक्ति यदि दूसरों को वे विधायें सिखाने का दावा करे, तो उसका उपहास ही होगा। ठीक यही बात चरित्रनिष्ठा और समाज सेवा के संबंध में है। जो स्वयं उन्हें अपना न सका उसके उपदेश किसके गले उतरेंगे?
इन दिनों वंश के आधार पर ब्राह्मण कहलाने वाले और वेष के आधार पर साधु कहलाने वालों की कमी नहीं, पर उनमें से ऐसे गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से कम ही मिलेंगे, जो कसौटी पर खरे उतरते हों। ऐसी दशा में उनके कथन, उपदेश व वचन आदि से उस प्रकृति के लोगों का मनोरंजन तो हो जाता है, पर अनुकरण करने के लिए कोई विरले ही प्रेरणा प्राप्त करते हैं। ऐसी दशा में धर्म शिक्षण की आवश्यकता अपूर्ण ही बनी रहती है और व्यक्तित्व विकास का क्रम अग्रगामी बन नहीं पाता। यह इतनी बड़ी कमी है, जिसका अभाव समूचे समुदाय को अखरने वाली है और विपन्नता से पीछा छूटने नहीं देती।
प्रगति के अनेक पथों पर सर्वोपरि है—जनमानस का परिष्कार, व्यक्ति का आदर्शवादी निर्माण, प्रतिभा, प्रखरता और प्रामाणिकता का अभिवर्धन। इसके लिए उससे भी बढ़-चढ़ कर प्रयत्न किये जाने चाहिए, जितने कि सुविधा साधनों के अभिवर्धन हेतु किये जाते हैं। साधन बढ़े किन्तु स्वभाव और चिन्तन ओछे का ओछा ही बना रहा, तो समझना चाहिए कि उपलब्धियों का दुरुपयोग ही होगा और जो कमाया गया है वह अनर्थ उत्पन्न करने और संकट खड़े करने की भूमिका ही निभाता रहेगा।
करने योग्य कर्मों में इन दिनों सबसे बड़ा काम यह है कि स्तर सम्पन्न व्यक्तित्व ढालने के लिए जो भी उपाय बन पड़ें, उनके लिए अपनी समूची शक्ति नियोजित करनी चाहिए। यदि वे उभारे जा सकें, तो समझना चाहिये कि पिछड़ेपन के जितने भी लक्षण इन दिनों सर्वत्र दीख पड़ते हैं, उनमें से सभी का सहज समाधान हो जायेगा। दरिद्रता, अशिक्षा, अस्वस्थता आदि का स्वतंत्र अस्तित्व कदाचित ही कहीं दीख पड़ता है, वस्तुतः वे उस अभाव के लक्षण मात्र हैं, जो चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में अनौचित्य के रूप में घुसे और घिरे रहते हैं। इन सबके अलग-अलग उपचार करते रहने से बहुत कुछ बन पड़ने वाला नहीं है। रक्त में विषाक्तता भरी रहे, तो चमड़ी में उठती रहने वाली खाज, फुन्सी आदि का सामयिक उपचार कदाचित ही कुछ काम आ सके। जड़ काटे बिना पत्तों को तोड़ने भर से सफाई होती कहां है? इसी प्रकार मनुष्य के बहिरंग जीवन में जो अनेकानेक कमियां, कठिनाइयां दीख पड़ती हैं, उनका निराकरण मात्र साधन जुटाने भर से बन पड़ने वाला नहीं है। उनका सर्वथा समाधान ढूंढ़ना हो, तो इतने भर से मानवी साहस और पुरुषार्थ मिलकर ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर सकते हैं, जिनके रहते हुए किसी को किसी से किसी प्रकार की शिकायत न रहे; कोई भी अभावों, समस्याओं, संकटों से घिरा हुआ दिखाई न पड़े।
यह कार्य करे कौन? बिल्ली के गले में घण्टी बंधे कैसे? इसके उत्तम में एक ही बात कही जा सकती है कि पुरोहित वर्ग को पुनर्जीवित किया जाय। परम्परा वाले लोक यदि जीर्ण-शीर्ण होकर उस दायित्व को उठा सकने योग्य प्रतिभा अपने में उभार नहीं पा रहे हैं, तो दूसरा विकल्प खोजना होगा। वंश और वेष की परिधि से आगे बढ़कर नये वर्ग को उसके लिए सहमत और समर्थ बनाने की मुहिम संभालनी होगी।
प्राचीन काल में इस आवश्यकता को सही रूप में समझा गया था, अस्तु भौतिक प्रगति के अतिरिक्त यह प्रयास भी पूरे उत्साह के साथ चला था कि जनमानस को परिष्कृत करने में किसी प्रकार की कमी न रहने पाये। इस दायित्व को निबाहने के लिए पुरोहित वर्ग द्वारा धर्मतन्त्र का सुनियोजित संचालन किया जाता था। उस प्रक्रिया के सही रूप से बन पड़ने का परिणाम था कि सर्वत्र सुख-शांति विराजती रही। शालीनता और सहकारिता का समन्वय कितना अधिक प्रभावी हो सकता है, इसका अनुभव सर्वत्र किया जाता रहा और यह बन पड़ा कि अपने छोटे घरों और सीमित साधनों में यह देश मूर्धन्य स्तर तक जा पहुंचा। भारतभूमि विश्व भर में ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ के रूप में जानी जा सकी। यहां का धर्मतंत्र जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित हुआ। यहां का राजतंत्र चक्रवर्ती शासक के रूप में वरण किया गया। परिस्थितियां ऐसी थीं, जिन्हें स्वर्ग सम्पदाओं की स्वामिनी के रूप में प्रशंसा प्राप्त होती रही।
आज की विपन्नता के अन्य कारण भी निमित्त हो सकते हैं; पर सबसे बड़ा कारण ही प्रतीत होता है कि जन समुदाय को मानवी गरिमा से सुसम्पन्न करने का अधिकार शिथिल होते-होते समाप्त प्रायः हो जाने की स्थिति में जा पहुंचा। देखने को बहुत कुछ भव्य दीखता है, पर जहां तक महानता सम्पन्न व्यक्तित्वों का संबंध है, वहां तक कूड़े-कचरे की भरमार ही दीख पड़ती है। ऐसी दशा में विपन्नता की व्यापकता दीख पड़े, तो आश्चर्य ही क्या है?
सुयोग्य कार्यकर्त्ताओं के तत्वावधान में ही कोई कार्य ठीक प्रकार चल पाता है। समाज, राष्ट्र एवं विश्व की परिस्थितियों का सही, समुचित स्थिति में रहना इस बात पर निर्भर रहता है कि उसे संभालने वालों का समुदाय, उनका स्तर—कैसा है? शासन व्यवस्था के अनुरूप देश की समृद्धि बढ़ती-घटती रहती है। इसी प्रकार लोक मानस को प्रभावित करने वाले मनीषी जिस स्थिति में होंगे, उसी के अनुरूप प्रजाजनों के व्यक्तित्वों का निखार होगा। कहना न होगा कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्म दात्री है। आस्थायें ही दिशा निर्धारण करती हैं। दृष्टिकोण के अनुरूप क्रिया-कलाप चलते हैं और वह सब कुछ मिलकर व्यक्तित्वों की क्षमता एवं गरिमा का स्वरूप विनिर्मित करते हैं। यह समूचा परिवार शालीनता से सम्पन्न होता है तभी यह आशा की जा सकती है कि समुदाय प्रगति, सुख-शांति से और समृद्धि से भरा-पूरा बना रहेगा। यदि यहां गिरावट घुस पड़ी, तो समझना चाहिए कि दरिद्रता और अव्यवस्था का दौर ही बढ़ चलेगा और उसकी चपेट में जन-जन को त्रास सहना पड़ेगा।
सम्पन्नता, शिक्षा, बलिष्ठता, कुशलता आदि का अपना महत्व है, पर इन सबसे अधिक आवश्यक शालीनता एवं दूरदर्शिता है। उसी के आधार पर समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी जैसी सत्प्रवृत्तियां पनपती हैं। प्रगति का बहुमुखी आधार भी उसी के सहारे खड़ा होता है। इसके उत्पादन एवं अभिवर्धन में युग मनीषियों की ही प्रमुख भूमिका रहती है। अध्यात्म की भाषा में युग मनीषा को ही पुरोहित कहते हैं, वही धरती के देवता कहलाते हैं। अपने उदाहरण, उद्बोधन और अनुदान से वे ही सर्वतोमुखी प्रगति के सरंजाम जुटाते हैं।
प्राचीन काल में साधु-ब्राह्मण समाज के हर वर्ग का मार्गदर्शन करते थे और सदा ध्यान रखते थे कि राष्ट्र को जीवित एवं जागृत रखने की जिम्मेदारी के निर्वाह में कहीं कोई कमी न रहने पाये।
इन दिनों मार्गदर्शन का दायित्व जिनके कंधों पर है, वे तथाकथित लोकसेवी शासन के—संस्थाओं के प्रतिष्ठानों के माध्यम से कहते बताते तो बहुत कुछ रहते हैं; पर कठिनाई यह है कि उनके प्रति जन साधारण की गह श्रद्धा न रहने के कारण उपेक्षापूर्वक ही उनके कथन को सुना जाता है। गंध सूंघी जाती है कि इनका कथन अपना वेतन प्राप्त करने के लिए एक बेगार भुगतने-लकीर पीटने जैसा है। साथ ही यह भी खोजा जाता है कि इन तथाकथित लोकसेवियों के निजी जीवन में उतनी प्रामाणिकता है या नहीं, जिससे उनके तत्वावधान में लोकमंगल के आदर्शों को अपनाने की प्रेरणा मिल सके। जिस स्वार्थपरता, हरामखोरी, प्रतिगामिता आदि को छोड़ने के लिए अन्यान्यों को कहा जा रहा है, उसे कार्य रूप में परिणत करने के लिए मार्गदर्शकों की निजी भूमिका क्या है? इसे जानने और खोजने के लिए हर किसी का मन करता है। उसमें कमी दीखती हो तो प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। अविश्वास और आक्रोश रहने की स्थिति में आमतौर से लोग अच्छी बात का भी उपहास उड़ाते देखे गये हैं।
संकीर्ण, स्वार्थपरता के वातावरण में उस मार्ग को तो कोई भी अपना लेता है, किन्तु जब चरित्रनिष्ठा, आदर्शवादिता और लोकहित के लिए संयम बरतने, परमार्थ परायणता अपनाने की बात कही जाती है तो सहज ही प्रश्न उठ खड़ा होता है कि मार्गदर्शक स्वयं उस मार्ग पर चल रहा है या नहीं। संदेह होने पर अन्दर का आक्रोश अवज्ञा के रूप में उभरता है और उपयोगी परामर्श की भी अवमानना करने पर उतारू होता है। यही है—आज के परामर्शदाताओं के सामने सबसे बड़ी कठिनाई जिसके कारण जनसाधारण को कुछ महत्वपूर्ण समझाने और उनके द्वारा चरितार्थ किये जाने की स्थिति बन नहीं पड़ती। कथनी और करनी में अन्तर रहने पर उपदेशकों का सारा परिश्रम व्यर्थ चला जाता है।
इस जटिल अवरोध से प्राचीनकाल के मार्गदर्शक को हैरान ही होना पड़ता था। उनका व्यक्तिगत चरित्र उच्चस्तरीय होने के कारण वे सहज ही लोक श्रद्धा को अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे और जन समुदाय को अपने कथन से प्रभावित कर लेते थे। साधु, ब्राह्मण वर्ग के पुरोहितों की यही विशेषता थी।
पुरातन पुरोहितों के परामर्श, प्रतिपादन, समाधान जन-जन द्वारा इसलिए अपनाये जाते थे कि वे अपने व्यक्तित्व को इतना प्रामाणिक बना लेते थे कि उनके कथन को भी विश्वस्त हितकर एवं व्यावहारिक माना जा सके।
कला, कौशल, शिल्प आदि के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारियां किसी से भी प्राप्त की जा सकती हैं। अनैतिक व्यक्ति से भी वैसा कुछ सीखा जा सकता है, पर जहां तक व्यक्तित्व निर्माण के लिए आदर्शवादी सिद्धान्तों को जीवन में उतारने का सवाल है, वहां यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि प्रशिक्षक ने अपने निज के जीवन में वह अभ्यास किया या नहीं, जिसे वह अन्यान्यों को करने के लिए कहता है। जिसे स्वयं संगीत न आता हो, वह दूसरों को वह सब कैसे सिखा पायेगा। शिल्प, कौशल से अनभ्यस्त व्यक्ति यदि दूसरों को वे विधायें सिखाने का दावा करे, तो उसका उपहास ही होगा। ठीक यही बात चरित्रनिष्ठा और समाज सेवा के संबंध में है। जो स्वयं उन्हें अपना न सका उसके उपदेश किसके गले उतरेंगे?
इन दिनों वंश के आधार पर ब्राह्मण कहलाने वाले और वेष के आधार पर साधु कहलाने वालों की कमी नहीं, पर उनमें से ऐसे गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से कम ही मिलेंगे, जो कसौटी पर खरे उतरते हों। ऐसी दशा में उनके कथन, उपदेश व वचन आदि से उस प्रकृति के लोगों का मनोरंजन तो हो जाता है, पर अनुकरण करने के लिए कोई विरले ही प्रेरणा प्राप्त करते हैं। ऐसी दशा में धर्म शिक्षण की आवश्यकता अपूर्ण ही बनी रहती है और व्यक्तित्व विकास का क्रम अग्रगामी बन नहीं पाता। यह इतनी बड़ी कमी है, जिसका अभाव समूचे समुदाय को अखरने वाली है और विपन्नता से पीछा छूटने नहीं देती।
प्रगति के अनेक पथों पर सर्वोपरि है—जनमानस का परिष्कार, व्यक्ति का आदर्शवादी निर्माण, प्रतिभा, प्रखरता और प्रामाणिकता का अभिवर्धन। इसके लिए उससे भी बढ़-चढ़ कर प्रयत्न किये जाने चाहिए, जितने कि सुविधा साधनों के अभिवर्धन हेतु किये जाते हैं। साधन बढ़े किन्तु स्वभाव और चिन्तन ओछे का ओछा ही बना रहा, तो समझना चाहिए कि उपलब्धियों का दुरुपयोग ही होगा और जो कमाया गया है वह अनर्थ उत्पन्न करने और संकट खड़े करने की भूमिका ही निभाता रहेगा।
करने योग्य कर्मों में इन दिनों सबसे बड़ा काम यह है कि स्तर सम्पन्न व्यक्तित्व ढालने के लिए जो भी उपाय बन पड़ें, उनके लिए अपनी समूची शक्ति नियोजित करनी चाहिए। यदि वे उभारे जा सकें, तो समझना चाहिये कि पिछड़ेपन के जितने भी लक्षण इन दिनों सर्वत्र दीख पड़ते हैं, उनमें से सभी का सहज समाधान हो जायेगा। दरिद्रता, अशिक्षा, अस्वस्थता आदि का स्वतंत्र अस्तित्व कदाचित ही कहीं दीख पड़ता है, वस्तुतः वे उस अभाव के लक्षण मात्र हैं, जो चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में अनौचित्य के रूप में घुसे और घिरे रहते हैं। इन सबके अलग-अलग उपचार करते रहने से बहुत कुछ बन पड़ने वाला नहीं है। रक्त में विषाक्तता भरी रहे, तो चमड़ी में उठती रहने वाली खाज, फुन्सी आदि का सामयिक उपचार कदाचित ही कुछ काम आ सके। जड़ काटे बिना पत्तों को तोड़ने भर से सफाई होती कहां है? इसी प्रकार मनुष्य के बहिरंग जीवन में जो अनेकानेक कमियां, कठिनाइयां दीख पड़ती हैं, उनका निराकरण मात्र साधन जुटाने भर से बन पड़ने वाला नहीं है। उनका सर्वथा समाधान ढूंढ़ना हो, तो इतने भर से मानवी साहस और पुरुषार्थ मिलकर ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर सकते हैं, जिनके रहते हुए किसी को किसी से किसी प्रकार की शिकायत न रहे; कोई भी अभावों, समस्याओं, संकटों से घिरा हुआ दिखाई न पड़े।
यह कार्य करे कौन? बिल्ली के गले में घण्टी बंधे कैसे? इसके उत्तम में एक ही बात कही जा सकती है कि पुरोहित वर्ग को पुनर्जीवित किया जाय। परम्परा वाले लोक यदि जीर्ण-शीर्ण होकर उस दायित्व को उठा सकने योग्य प्रतिभा अपने में उभार नहीं पा रहे हैं, तो दूसरा विकल्प खोजना होगा। वंश और वेष की परिधि से आगे बढ़कर नये वर्ग को उसके लिए सहमत और समर्थ बनाने की मुहिम संभालनी होगी।