Books - देव संस्कृति का मेरुदण्ड वानप्रस्थ
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Language: HINDI
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अतीत की गरिमा में धर्मतंत्र का योगदान
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जनमानस का स्तर ऊंचा उठाना इतना बड़ा और इतना महत्वपूर्ण कार्य है कि उसका प्रगतिक्रम चल पड़ने पर प्रस्तुत समस्याओं में से हर किसी का समाधान सरलतापूर्वक निकल सकता है। अभावों की पूर्ति के लिए उपार्जन के जितने स्रोत हैं, उनमें से सबसे बड़ा है, व्यक्तित्व का प्रामाणिक और परिमार्जित होना। यदि इसे उपलब्ध किया जा सके, तो समझना चाहिए अवरोधों के जाल-जंजाल से छुटकारा मिल गया। यदि मनुष्य सद्गुणी बन सका, तो समझना चाहिए कि विभूतियों को कहीं से भी घसीट लाने वाला चुम्बकीय शक्ति वाला पारस पत्थर हाथ लग गया। दरिद्रता पैसे की उतनी नहीं सताती जितनी कि व्यक्तित्व की क्षुद्रता पटक-पटक कर मारती है और साधन होते हुए भी आये दिन रुलाती है।
दरिद्रता और कुछ नहीं पिछड़ेपन का ही दूसरा नाम है। संकट कहीं दूर देश से नहीं आता, ओछा और अनगढ़ व्यक्तित्व ही उन्हें जहां-तहां से बीन-बटोर कर लाता है। इन दिनों पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आजीविका, अभिवर्धन के अनेकों प्रगति प्रयास चल रहे हैं। कितना अच्छा होता यदि इसी के साथ-साथ नैतिक, बौद्धिक और सामाजिकता से जुड़ी हुई सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन पर भी उतना ही ध्यान दिया जा सकना बन पड़ा होता। सम्पदा में पदार्थों और साधनों की ही गणना होती है। अच्छा होता यदि शालीनता को भी इसी का एक पक्ष माना गया होता। उसके अभिवर्धन के लिए भी समर्थ तन्त्र खड़ा किया गया होता। वस्तुओं, पदार्थों, साधनों की आवश्यकता होती है, पर यह ध्यान देने योग्य है कि सूझबूझ और पुरुषार्थ-परायणता ही अन्ततः समस्त अभावों को दूर कर सकने में समर्थ होती है। अव्यवस्थाओं, समस्याओं एवं संकटों से निपटने के लिए शक्ति भी चाहिए और अंकुश भी। कई बार उसके लिए दमन का आश्रय भी लेना पड़ता है और उद्दंडता पर अनुशासन थोपने वाले साधनों का भी प्रदर्शन करना पड़ता है, पर इन ब का सामयिक प्रतिफल ही हो सकता है। अनौचित्य की जड़ काटने के लिए मनुष्य को विवेकवान, सद्गुणी और साहसी भी होना चाहिए। बाह्य उपचार दीखते भी हैं और जाने, सराहे भी जाते हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि जो दीख नहीं पड़ता, उसकी समर्थता कहीं अधिक है। शरीर कितना ही सुन्दर और बलिष्ठ क्यों न हो, अदृश्य प्राण न रहने पर वह सारा सरंजाम कबाड़ बन कर रह जाता है। इसी प्रकार समझा यह भी जाना चाहिए कि दृश्य वैभव की उपयोगिता कितनी ही क्यों न समझी जाय, अदृश्य मनःतत्व को सुसंस्कृत बनाये बिना उपलब्धियों का सदुपयोग तक न बन पड़ेगा, फिर उपार्जन करने के लिए पराक्रम को सुरक्षित रखने के लिए जिस साहस की आवश्यकता है, उसे संजोये बिना बालू से तेल निकालने जैसा खिलवाड़ ही बन पड़ता रहेगा। कुछ करना चाहिए यह ठीक है; पर यह भी समझना चाहिए कि करने के साथ अपना कुछ स्तर भी होना चाहिए। घड़ी का पेण्डुलम चलता तो बराबर रहता है; पर लक्ष्य सामने न होने के कारण वह पहुंच कहीं नहीं पाता।
भूलों में सबसे बड़ी भूल एक ही है कि दृश्य को सब कुछ माना गया और अदृश्य की उपेक्षा, अवमानना के गर्त में गिरा न रहने देने के संदर्भ में—उसे उखाड़ कर ऊंचा उठाने के सम्बन्ध में कुछ ऐसा न किया जा सका, जिसे कारगर कहा जा सके।
कठिनाई एक ही है कि अन्तःस्फुरणा उभारने वाले आन्तरिक पौरुष का स्तर दीन दुर्बल जैसा हो गया और बाहर से सहारा दे सकने वाले अवलम्बनों ने इस दिशा में मुंह मोड़ लिया। शिक्षा का प्रबंध हुआ, पर सचेतन को परिष्कृत कर सकने वाली ‘विद्या’ का कहीं से कोई प्रबन्ध न बन पड़ा, न उसका तंत्र खड़ा किया गया और न उस प्रयोजन को पूरा कर सकने वाले उपाध्यायों का, पुरोहितों का वर्ग उभर कर आगे आया।
मुड़कर पीछे की ओर देखा जाय, तो प्रतीत होगा कि अतीत में आज की तुलना में साधनों का भारी अभाव था, पर जो कुछ हस्तगत था, उसका सदुपयोग कर सकने में कौशल का समुचित प्रबंध बना रहने पर परिस्थिति इतनी उच्चस्तरीय रहती रहीं, जिन्हें सतयुग का नाम दिया जाता रहा। तब मनुष्य में देवत्व की अभिव्यक्ति उजागर होती थी और धरती पर ऐसा वातावरण बना रहता था, जिसे स्वर्गोपम कहा जा सके। हर किसी को सुख-शांति उपलब्ध थी। हर किसी को हंसते-हंसाते जीने और मिल-बांटकर खाने का अवसर उपलब्ध था।
आखिर यह सब बन कैसे पड़ा? जन्म से तो सभी प्रायः नर-पशु की स्थिति में धरती पर आते हैं। उन्हें बनाने या उठाने में तो संबद्ध परिकर ही प्रधान भूमिका निभाता है। स्मरणीय अतीत में साधनों के उपार्जन का, उपयोग का सही तरीका तो अपनाया ही जाता रहा होगा। सबसे बड़ी बात यह बनी रही कि अन्तराल को परिष्कृत और व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने के लिए कुशल कारीगर बड़ी संख्या में उपलब्ध रहे और कार्यक्षेत्र में तत्परतापूर्वक जुटे रहे। इस पुण्य प्रताप का ही प्रतिफल था कि स्वल्प साधनों ने असीम आनन्द और सौजन्य से समूचे वातावरण को कृतकृत्य करके रख दिया।
कठपुतलियों से मनोरंजक नाटक करा लेने में प्रायः पर्दे के पीछे छिपकर बैठे हुए बाजीगर की उंगलियां ही काम करती हैं, तार हिलते हैं और नृत्य आरंभ हो जाता है। बाजीगर नदारत हो, तार टूटे पड़े हों, तो बेचारी कठपुतलियां पूर्ण स्थिति में होने पर भी ऐसा कुछ नहीं कर सकेंगी, जिस ध्यानपूर्वक देखा या सराहा जा सके। यही स्थिति इन दिनों बन पड़ी है। बाजीगर के सो जाने के कारण दर्शकों पर उदासी छा गई है कि सब कुछ होते हुए कठपुतलियां अपना कमाल दिखा क्यों नहीं रही हैं?
प्राचीन काल में एक विशेष वर्ग था, जिसे पुरोहित कहते थे। उसकी कई श्रेणियां थीं। ऋषि, तपस्वी, योगी, मनीषी स्तर की रीति-नीति अपनाकर वे अपनी योग्यता और पात्रता सम्पादन करते थे, ताकि उनके मार्गदर्शन को जनसमुदाय द्वारा स्वीकारा जा सके। इसके साथ ही वे उस सेवाधर्म को कार्यान्वित करना आरंभ कर देते थे, जिसके आधार पर चिन्तन में उत्कृष्टता उभरती है और चरित्र एवं व्यवहार को ऐसा सुगढ़, समर्थ बना देती है कि उसके सहारे न केवल निजी जीवन वरन् सम्पर्क में आने वाले परिकर को भी समुन्नत बनने का अवसर मिलता रहे।
लोक चेतना को समुन्नत स्तर का बनाये रहने का घोषित और निर्धारित उत्तरदायित्व इसी पुरोहित वर्ग का था। उसके लिए यही नियति थी, जिसे श्रद्धापूर्वक सौंपा और शपथपूर्वक स्वीकारा गया था। राष्ट्र को, समाज को, व्यक्ति को, लोकमानस को जीवन्त और जागृत बनाये रखने का दायित्व यही पुरोहित वर्ग चिरकाल तक संभाले, संजोये रहा। फलतः जनसमुदाय के सभी घटक घड़ी के कलपुर्जों की तरह ठीक काम करते रहे। ‘पेण्डुलम’ और ‘फिनर’ यदि अपनी सही चाल पर चलते रहें तो घड़ी के बंद होने का अवसर कदाचित् ही आता है। लोकचेतना की सत्ता और महत्ता तो असीम है, पर उसमें कमी एक ही है—आत्म संकल्प को उभारने में स्वावलम्बी साहस कम ही जुटा पाती हैं। उसे समर्थों का सहारा ताकना पड़ता है। बच्चे भी तो अभिभावकों से प्रायः ऐसी ही आशा करते हैं।
पुरोहित वर्ग दो भागों में विभाजित था—एक ब्राह्मण दूसरे साधु। ब्राह्मण प्रायः गृहस्थ होते थे और अपने सीमित क्षेत्र में जन सम्पर्क साधने और उन्हें भावनात्मक दृष्टि से परिष्कृत किये रहने का दायित्व निभाते थे। गुरुकुल संचालन के लिए उन्हें पत्नी की सहायता अनिवार्य रूप से अपेक्षित होती थी। अपने निजी जीवन का पारिवारिक और वैयक्तिक स्वरूप आदर्शों से ओत-प्रोत रखकर वे जन साधारण के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करते थे कि किस प्रकार सीधे, सरल तरीके से सर्वोपयोगी उत्कृष्ट जीवन जिया जा सकना संभव हो सकता था। लोकशिक्षण के लिए वे अपने यजमानों में स्वाध्याय, सत्संग की व्यवस्था बनाये रहते थे। इसके लिए पर्व, त्यौहारों पर व्रत संस्कारों के माध्यम से सामूहिक प्रशिक्षण अधिक उपयोगी और प्रभावी समझा जाता था, अस्तु वे ऐसे ही अवलम्बनों के सहारे अपने परिकर के यजमानों को उच्चस्तरीय प्रेरणा से अनुप्राणित किया करते थे।
साधु वर्ग का कार्यक्रम प्रव्रज्या पर अवलम्बित रहता था। इसलिए उन्हें परिव्राजक भी कहा जाता था। परिव्राजक अर्थात् परिभ्रमणकर्त्ता। इस आधार पर उन्हें व्यापक क्षेत्र के बहुसंख्यक निवासियों के साथ सम्पर्क साधने में सरलता होती थी। विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों की स्थानीय समस्याओं और आवश्यकताओं को इस आधार पर समझ सकना उसके लिए सरल पड़ता था। साथ ही जहां जैसा समाधान संभव था, वहां उसका कार्यक्रम बनाने, सरंजाम जुटाने एवं ढांचा खड़ा करने का प्रयास करते भी बन पड़ता था। इस क्रिया-प्रक्रिया का महत्व इसलिए भी अधिक था, कि ज्ञान-पिपासा बुझाने के लिए जिन्हें मनीषियों से सम्पर्क साधने पहुंचना कठिन पड़ता था, उन्हें यह लाभ घर बैठे भी मिल जाता था। बहुत से लोग एक समय एकत्रित होकर एक मार्गदर्शक से उद्बोधन प्राप्त करें, यह भी एक तरीका था, पर दूसरा यह तरीका भी कम महत्वपूर्ण नहीं था कि सूर्य, चन्द्र, पवन, बादल की तरह स्वयं ही परिभ्रमण पर निकला जाय और जन-जन को अपनी ऊर्जा से प्रतिभाषित किया जाय। जिन्हें यह कार्य पद्धति पसंद आती थी, वे अविवाहित रहते थे और तीर्थयात्रा के नाम से जन-जागरण की पदयात्रा में निरन्तर निरत रहते थे। एक स्थान पर उतने ही समय टिकते थे, जितना कि स्थानीय आवश्यकतायें उन्हें बाधित करती थीं। विनिर्मित देवालयों में उन्हें स्थान-स्थान पर भोजन, निवास आदि की सुविधायें भी मिलती रहती थी।
साधु और ब्राह्मण वर्ग के समन्वय से उस लोक शिक्षण की आवश्यकतायें भली प्रकार पूरी हो जाती थीं, जिससे व्यक्तित्व निखरता है और उस प्रामाणिकता एवं प्रतिभा का अर्जन होता है, जो भौतिक और आत्मिक सफलताओं का पथ प्रशस्त कर सके।
साधु और ब्राह्मण वर्ग के लोकनायकों का एक मिश्रित रूप भी था—वानप्रस्थ। इस वर्ग के लोग आधी आयुष्य तक पहुंचते-पहुंचते अपने सामान्य गृहस्थ जीवन के दायित्व पूरे कर लेते थे और फिर आत्मनिर्माण और लोकमंगल की समन्वित साधना में निरत होते थे, जो पत्नियां साथ रहना चाहती थीं, वे पति के साथ उसी प्रयोजन में निरत होती थीं। जो अपने को असमर्थ पाती थीं, वे परिवार को संभालने और पड़ौस को अपनी उपस्थिति का यथासंभव लाभ देती थीं।
तीर्थस्थानों में सुव्यवस्थित आश्रम इसीलिए बने थे कि वहां वानप्रस्थ वर्ग के लोग आरण्यक व्यवस्था के अनुरूप अपनी वरिष्ठता का अभिवर्धन करें और समयानुरूप सेवाक्षेत्र के साथ भी सम्पर्क साधें। गृहस्थीजन भी तीर्थों के प्रेरक वातावरण में कुछ समय निवास करके अपनी विशिष्टताओं में अभिवर्धन करने वाली साधनायें सम्पन्न करते थे।
इस समूचे धर्मतंत्र की मिली जुली सामर्थ्य ऐसी हो जाती थी कि उसका प्रभाव समूचे जनसमुदाय पर पड़े। दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में सहायता मिले। इस आधार पर धर्मतंत्र उससे कहीं अधिक सेवा-साधना कर पाता था, जितनी कि शासन तंत्र से भी नहीं बन पड़ती। शासन प्रायः अवांछनीयताओं से निपटता रहता है, प्रगति के लिए आवश्यक स्थान सुविधा भी जुटाता है, किन्तु उस सब से भी अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है, व्यक्ति की शालीनता और दक्षता का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में सुसंस्कारिता के समावेश का। इसके बिना समुचित साधन उपलब्ध कर लेने पर भी सार्वजनिक शांति और प्रगति का सुयोग बन नहीं पड़ता। धर्मतंत्र इसी महती आवश्यकता की पूर्ति करता था। इसी आधार पर अतीत में ऐसा वातावरण बना रहता था जिसे स्वर्गोपम कहते हुए हर कोई गौरवान्वित होता था।
दरिद्रता और कुछ नहीं पिछड़ेपन का ही दूसरा नाम है। संकट कहीं दूर देश से नहीं आता, ओछा और अनगढ़ व्यक्तित्व ही उन्हें जहां-तहां से बीन-बटोर कर लाता है। इन दिनों पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आजीविका, अभिवर्धन के अनेकों प्रगति प्रयास चल रहे हैं। कितना अच्छा होता यदि इसी के साथ-साथ नैतिक, बौद्धिक और सामाजिकता से जुड़ी हुई सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन पर भी उतना ही ध्यान दिया जा सकना बन पड़ा होता। सम्पदा में पदार्थों और साधनों की ही गणना होती है। अच्छा होता यदि शालीनता को भी इसी का एक पक्ष माना गया होता। उसके अभिवर्धन के लिए भी समर्थ तन्त्र खड़ा किया गया होता। वस्तुओं, पदार्थों, साधनों की आवश्यकता होती है, पर यह ध्यान देने योग्य है कि सूझबूझ और पुरुषार्थ-परायणता ही अन्ततः समस्त अभावों को दूर कर सकने में समर्थ होती है। अव्यवस्थाओं, समस्याओं एवं संकटों से निपटने के लिए शक्ति भी चाहिए और अंकुश भी। कई बार उसके लिए दमन का आश्रय भी लेना पड़ता है और उद्दंडता पर अनुशासन थोपने वाले साधनों का भी प्रदर्शन करना पड़ता है, पर इन ब का सामयिक प्रतिफल ही हो सकता है। अनौचित्य की जड़ काटने के लिए मनुष्य को विवेकवान, सद्गुणी और साहसी भी होना चाहिए। बाह्य उपचार दीखते भी हैं और जाने, सराहे भी जाते हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि जो दीख नहीं पड़ता, उसकी समर्थता कहीं अधिक है। शरीर कितना ही सुन्दर और बलिष्ठ क्यों न हो, अदृश्य प्राण न रहने पर वह सारा सरंजाम कबाड़ बन कर रह जाता है। इसी प्रकार समझा यह भी जाना चाहिए कि दृश्य वैभव की उपयोगिता कितनी ही क्यों न समझी जाय, अदृश्य मनःतत्व को सुसंस्कृत बनाये बिना उपलब्धियों का सदुपयोग तक न बन पड़ेगा, फिर उपार्जन करने के लिए पराक्रम को सुरक्षित रखने के लिए जिस साहस की आवश्यकता है, उसे संजोये बिना बालू से तेल निकालने जैसा खिलवाड़ ही बन पड़ता रहेगा। कुछ करना चाहिए यह ठीक है; पर यह भी समझना चाहिए कि करने के साथ अपना कुछ स्तर भी होना चाहिए। घड़ी का पेण्डुलम चलता तो बराबर रहता है; पर लक्ष्य सामने न होने के कारण वह पहुंच कहीं नहीं पाता।
भूलों में सबसे बड़ी भूल एक ही है कि दृश्य को सब कुछ माना गया और अदृश्य की उपेक्षा, अवमानना के गर्त में गिरा न रहने देने के संदर्भ में—उसे उखाड़ कर ऊंचा उठाने के सम्बन्ध में कुछ ऐसा न किया जा सका, जिसे कारगर कहा जा सके।
कठिनाई एक ही है कि अन्तःस्फुरणा उभारने वाले आन्तरिक पौरुष का स्तर दीन दुर्बल जैसा हो गया और बाहर से सहारा दे सकने वाले अवलम्बनों ने इस दिशा में मुंह मोड़ लिया। शिक्षा का प्रबंध हुआ, पर सचेतन को परिष्कृत कर सकने वाली ‘विद्या’ का कहीं से कोई प्रबन्ध न बन पड़ा, न उसका तंत्र खड़ा किया गया और न उस प्रयोजन को पूरा कर सकने वाले उपाध्यायों का, पुरोहितों का वर्ग उभर कर आगे आया।
मुड़कर पीछे की ओर देखा जाय, तो प्रतीत होगा कि अतीत में आज की तुलना में साधनों का भारी अभाव था, पर जो कुछ हस्तगत था, उसका सदुपयोग कर सकने में कौशल का समुचित प्रबंध बना रहने पर परिस्थिति इतनी उच्चस्तरीय रहती रहीं, जिन्हें सतयुग का नाम दिया जाता रहा। तब मनुष्य में देवत्व की अभिव्यक्ति उजागर होती थी और धरती पर ऐसा वातावरण बना रहता था, जिसे स्वर्गोपम कहा जा सके। हर किसी को सुख-शांति उपलब्ध थी। हर किसी को हंसते-हंसाते जीने और मिल-बांटकर खाने का अवसर उपलब्ध था।
आखिर यह सब बन कैसे पड़ा? जन्म से तो सभी प्रायः नर-पशु की स्थिति में धरती पर आते हैं। उन्हें बनाने या उठाने में तो संबद्ध परिकर ही प्रधान भूमिका निभाता है। स्मरणीय अतीत में साधनों के उपार्जन का, उपयोग का सही तरीका तो अपनाया ही जाता रहा होगा। सबसे बड़ी बात यह बनी रही कि अन्तराल को परिष्कृत और व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने के लिए कुशल कारीगर बड़ी संख्या में उपलब्ध रहे और कार्यक्षेत्र में तत्परतापूर्वक जुटे रहे। इस पुण्य प्रताप का ही प्रतिफल था कि स्वल्प साधनों ने असीम आनन्द और सौजन्य से समूचे वातावरण को कृतकृत्य करके रख दिया।
कठपुतलियों से मनोरंजक नाटक करा लेने में प्रायः पर्दे के पीछे छिपकर बैठे हुए बाजीगर की उंगलियां ही काम करती हैं, तार हिलते हैं और नृत्य आरंभ हो जाता है। बाजीगर नदारत हो, तार टूटे पड़े हों, तो बेचारी कठपुतलियां पूर्ण स्थिति में होने पर भी ऐसा कुछ नहीं कर सकेंगी, जिस ध्यानपूर्वक देखा या सराहा जा सके। यही स्थिति इन दिनों बन पड़ी है। बाजीगर के सो जाने के कारण दर्शकों पर उदासी छा गई है कि सब कुछ होते हुए कठपुतलियां अपना कमाल दिखा क्यों नहीं रही हैं?
प्राचीन काल में एक विशेष वर्ग था, जिसे पुरोहित कहते थे। उसकी कई श्रेणियां थीं। ऋषि, तपस्वी, योगी, मनीषी स्तर की रीति-नीति अपनाकर वे अपनी योग्यता और पात्रता सम्पादन करते थे, ताकि उनके मार्गदर्शन को जनसमुदाय द्वारा स्वीकारा जा सके। इसके साथ ही वे उस सेवाधर्म को कार्यान्वित करना आरंभ कर देते थे, जिसके आधार पर चिन्तन में उत्कृष्टता उभरती है और चरित्र एवं व्यवहार को ऐसा सुगढ़, समर्थ बना देती है कि उसके सहारे न केवल निजी जीवन वरन् सम्पर्क में आने वाले परिकर को भी समुन्नत बनने का अवसर मिलता रहे।
लोक चेतना को समुन्नत स्तर का बनाये रहने का घोषित और निर्धारित उत्तरदायित्व इसी पुरोहित वर्ग का था। उसके लिए यही नियति थी, जिसे श्रद्धापूर्वक सौंपा और शपथपूर्वक स्वीकारा गया था। राष्ट्र को, समाज को, व्यक्ति को, लोकमानस को जीवन्त और जागृत बनाये रखने का दायित्व यही पुरोहित वर्ग चिरकाल तक संभाले, संजोये रहा। फलतः जनसमुदाय के सभी घटक घड़ी के कलपुर्जों की तरह ठीक काम करते रहे। ‘पेण्डुलम’ और ‘फिनर’ यदि अपनी सही चाल पर चलते रहें तो घड़ी के बंद होने का अवसर कदाचित् ही आता है। लोकचेतना की सत्ता और महत्ता तो असीम है, पर उसमें कमी एक ही है—आत्म संकल्प को उभारने में स्वावलम्बी साहस कम ही जुटा पाती हैं। उसे समर्थों का सहारा ताकना पड़ता है। बच्चे भी तो अभिभावकों से प्रायः ऐसी ही आशा करते हैं।
पुरोहित वर्ग दो भागों में विभाजित था—एक ब्राह्मण दूसरे साधु। ब्राह्मण प्रायः गृहस्थ होते थे और अपने सीमित क्षेत्र में जन सम्पर्क साधने और उन्हें भावनात्मक दृष्टि से परिष्कृत किये रहने का दायित्व निभाते थे। गुरुकुल संचालन के लिए उन्हें पत्नी की सहायता अनिवार्य रूप से अपेक्षित होती थी। अपने निजी जीवन का पारिवारिक और वैयक्तिक स्वरूप आदर्शों से ओत-प्रोत रखकर वे जन साधारण के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करते थे कि किस प्रकार सीधे, सरल तरीके से सर्वोपयोगी उत्कृष्ट जीवन जिया जा सकना संभव हो सकता था। लोकशिक्षण के लिए वे अपने यजमानों में स्वाध्याय, सत्संग की व्यवस्था बनाये रहते थे। इसके लिए पर्व, त्यौहारों पर व्रत संस्कारों के माध्यम से सामूहिक प्रशिक्षण अधिक उपयोगी और प्रभावी समझा जाता था, अस्तु वे ऐसे ही अवलम्बनों के सहारे अपने परिकर के यजमानों को उच्चस्तरीय प्रेरणा से अनुप्राणित किया करते थे।
साधु वर्ग का कार्यक्रम प्रव्रज्या पर अवलम्बित रहता था। इसलिए उन्हें परिव्राजक भी कहा जाता था। परिव्राजक अर्थात् परिभ्रमणकर्त्ता। इस आधार पर उन्हें व्यापक क्षेत्र के बहुसंख्यक निवासियों के साथ सम्पर्क साधने में सरलता होती थी। विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों की स्थानीय समस्याओं और आवश्यकताओं को इस आधार पर समझ सकना उसके लिए सरल पड़ता था। साथ ही जहां जैसा समाधान संभव था, वहां उसका कार्यक्रम बनाने, सरंजाम जुटाने एवं ढांचा खड़ा करने का प्रयास करते भी बन पड़ता था। इस क्रिया-प्रक्रिया का महत्व इसलिए भी अधिक था, कि ज्ञान-पिपासा बुझाने के लिए जिन्हें मनीषियों से सम्पर्क साधने पहुंचना कठिन पड़ता था, उन्हें यह लाभ घर बैठे भी मिल जाता था। बहुत से लोग एक समय एकत्रित होकर एक मार्गदर्शक से उद्बोधन प्राप्त करें, यह भी एक तरीका था, पर दूसरा यह तरीका भी कम महत्वपूर्ण नहीं था कि सूर्य, चन्द्र, पवन, बादल की तरह स्वयं ही परिभ्रमण पर निकला जाय और जन-जन को अपनी ऊर्जा से प्रतिभाषित किया जाय। जिन्हें यह कार्य पद्धति पसंद आती थी, वे अविवाहित रहते थे और तीर्थयात्रा के नाम से जन-जागरण की पदयात्रा में निरन्तर निरत रहते थे। एक स्थान पर उतने ही समय टिकते थे, जितना कि स्थानीय आवश्यकतायें उन्हें बाधित करती थीं। विनिर्मित देवालयों में उन्हें स्थान-स्थान पर भोजन, निवास आदि की सुविधायें भी मिलती रहती थी।
साधु और ब्राह्मण वर्ग के समन्वय से उस लोक शिक्षण की आवश्यकतायें भली प्रकार पूरी हो जाती थीं, जिससे व्यक्तित्व निखरता है और उस प्रामाणिकता एवं प्रतिभा का अर्जन होता है, जो भौतिक और आत्मिक सफलताओं का पथ प्रशस्त कर सके।
साधु और ब्राह्मण वर्ग के लोकनायकों का एक मिश्रित रूप भी था—वानप्रस्थ। इस वर्ग के लोग आधी आयुष्य तक पहुंचते-पहुंचते अपने सामान्य गृहस्थ जीवन के दायित्व पूरे कर लेते थे और फिर आत्मनिर्माण और लोकमंगल की समन्वित साधना में निरत होते थे, जो पत्नियां साथ रहना चाहती थीं, वे पति के साथ उसी प्रयोजन में निरत होती थीं। जो अपने को असमर्थ पाती थीं, वे परिवार को संभालने और पड़ौस को अपनी उपस्थिति का यथासंभव लाभ देती थीं।
तीर्थस्थानों में सुव्यवस्थित आश्रम इसीलिए बने थे कि वहां वानप्रस्थ वर्ग के लोग आरण्यक व्यवस्था के अनुरूप अपनी वरिष्ठता का अभिवर्धन करें और समयानुरूप सेवाक्षेत्र के साथ भी सम्पर्क साधें। गृहस्थीजन भी तीर्थों के प्रेरक वातावरण में कुछ समय निवास करके अपनी विशिष्टताओं में अभिवर्धन करने वाली साधनायें सम्पन्न करते थे।
इस समूचे धर्मतंत्र की मिली जुली सामर्थ्य ऐसी हो जाती थी कि उसका प्रभाव समूचे जनसमुदाय पर पड़े। दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में सहायता मिले। इस आधार पर धर्मतंत्र उससे कहीं अधिक सेवा-साधना कर पाता था, जितनी कि शासन तंत्र से भी नहीं बन पड़ती। शासन प्रायः अवांछनीयताओं से निपटता रहता है, प्रगति के लिए आवश्यक स्थान सुविधा भी जुटाता है, किन्तु उस सब से भी अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है, व्यक्ति की शालीनता और दक्षता का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में सुसंस्कारिता के समावेश का। इसके बिना समुचित साधन उपलब्ध कर लेने पर भी सार्वजनिक शांति और प्रगति का सुयोग बन नहीं पड़ता। धर्मतंत्र इसी महती आवश्यकता की पूर्ति करता था। इसी आधार पर अतीत में ऐसा वातावरण बना रहता था जिसे स्वर्गोपम कहते हुए हर कोई गौरवान्वित होता था।