Books - धर्म चेतना का जागरण और आह्वान
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Language: HINDI
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साधना के बिना मंत्र जप निष्प्राण
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(गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 18 सितम्बर 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो,
बहुत पुरानी बात है। दो किसानों ने खेती करने का निश्चय किया। एक किसान ने बीज बोने के लिए जमीन को कई बार जोता, खाद डाला और फिर बीज बोया। दूसरे किसान ने कहा—बीज का बड़ा महत्व है। वह केवल बीज का ही गुणगान करता रहा। इस किसान के पास जमीन नहीं थी। बीज तो दोनों ही किसानों के पास अच्छे थे। बोने की विधियां भी दोनों जानते थे, परन्तु जिस किसान के पास जमीन नहीं थी, उसने बीज छत पर फैला दिए, रास्ते पर डाल दिए, छप्पर पर फेंक दिये। जिस किसान के पास जमीन थी, उसकी गेहूं, मक्का की पैदावार आयी, दूसरे का एक बीज भी नहीं उगा और कोई फसल भी नहीं हुई। एक दिन दोनों आपस में बात करने लगे कि हम दोनों बीज अच्छे लाये थे, परन्तु तुम्हारे यहां अनाज हुआ, मेरे यहां कुछ नहीं हुआ, ऐसा क्यों हुआ? जिस किसान के पास जमीन थी, उसने कहा—मैंने पांच हजार की जमीन खरीदकर, चार माह तक उस जमीन को बनाने में, जुताई करने में श्रम किया था। बीज बोने में तो केवल एक दिन लगा। बीज की कीमत तो सिर्फ पांच रुपये ही थी। हमारा आपका गायत्री मंत्र भी एक ही है, परन्तु हमारी आपकी भूमि में अन्तर है। आपने माला तो जपी, परन्तु एक भूल की और वह यह कि जमीन पर ध्यान नहीं दिया। आपने बीज बोने की विधि भी जानी पर जमीन तैयार नहीं की। हमने जिस दिन से माला जपी उसी दिन से आनन्द मिला। आपको पहले जमीन की जुताई करनी पड़ेगी। जमीन को बीज बोने योग्य बनाना पड़ेगा।
गायत्री मंत्र वही है, जिसे ऋषियों ने जपा, भगवान राम ने, भगवान कृष्ण ने भी यही मंत्र जपा, उनको तो लाभ हुआ आपको लाभ क्यों नहीं मिलता? जमीन खरीदने के लिए पांच हजार रुपया चाहिए, बीज तो सिर्फ पांच रुपये में आता है। बिना जमीन के आप बीज बोयेंगे, तो लाभ नहीं उठा सकते। अगर आपके पास जमीन है, तो उसमें घास भी बोयेंगे तो वह भी हो जायेगी। जमीन में फसल पैदा करनी है, तो उसको जोतना, खाद-पानी देना पड़ता है, तब फसल देती है। आदमी को अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। आपने सुना है, ईश्वर सब जगह व्याप्त है, परन्तु उसे अन्तःकरण से समझना पड़ेगा, तभी फल मिलेगा। उस मनोभूमि में आप प्रवेश करेंगे तभी लाभ मिलेगा। राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से मुक्ति का मार्ग पूछा था। श्रृंगी ऋषि ने उन्हें शाप दिया था कि तक्षक नाग सात दिन के अन्दर काटेगा। आप सब को भी शाप लगा है, सभी को सात दिन में ही मरना है। जब तक विचार करने की शैली नहीं बदलेंगे, तब तक लाभ नहीं मिलेगा। अरे मनुष्यो! तुममें कोई ऐसा है, जिसने इस संसार में सुख पाया। जो भी मेरे पास आया, मुझे यही बताता है कि हमको दुःख ही दुःख है। एक बाप का बेटा मरता है तो छाती पीट-पीट कर रोता है, वही बेटा कहीं दूसरी जगह जन्म लेता है, तो उस घर में खुशी छा जाती है।
गायत्री मंत्र विचार करने की शैली बदल देता है। आत्मा-परमात्मा से प्यार करें और दूसरों की सहायता करें। भगवान से प्यार करने से भगवान का प्यार मिलता है। मैं भगवान से प्यार करता हूं। भगवान हजार आंखों से प्यार बरसा देता है। यदि आप भगवान से प्यार करेंगे, तो फव्वारे की तरह भगवान का प्यार, मनुष्यों को प्यार आपके ऊपर बरसेगा। जीव यहां से विदा होकर जाता है, फिर वापस आ जाता है। प्यार को पाने के लिए जीव आता है। मैंने जीवन भर लोगों से प्यार किया, बदले में प्यार पाया। मैं भगवान को अपना रिश्तेदार मानता हूं। सबसे अधिक फायदा करने वाली सत्ता मेरे चारों तरफ है। मुझे सब जगह अपनापन लगता है। अपने जीवन से प्यार करना ही चाहिए। मेरे गुरुजी ने मुझे बतलाया कि यह मन यहां-वहां डालता रहता है, इसकी भाग-दौड़ रोकना ही तप है। आपके अन्दर दस अच्छाइयां हैं और नब्बे बुराइयां हैं, तो बुराइयां मन को खींच लेती हैं। मन कहता है कि ठण्ड में रात के दो बजे मैं नहीं उठता, हम कहते हैं कि तुझे उठना ही पड़ेगा। मन को मारना ही तप है। तप उसे कहते हैं, जो बुराइयों से रोकता है। सर्कस में काम करने वाले अपने मन को एकाग्र करके ही काम करते हैं। हर जगह निगाह रखते हैं। यदि एकाग्रता हो भी और वह बुरे कामों के प्रति हो, तो वह अध्यात्मवादी कैसे हो सकता है? चित्त की वृत्ति के निरोध को ही योग कहा गया है। चित्त तो शराब पीकर भी रुक जाता है, परन्तु वह योग नहीं है। चित्त को, मन को वासना तृष्णा की ओर न जाने देना ही चित्त वृत्ति का निरोध है। जिस प्रकार पानी भरे घड़े में छेद हो जाये, तो धीरे-धीरे सारा पानी निकल जायेगा। उसी प्रकार दसों इन्द्रियों से मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शक्तियों का क्षरण बुराइयों के कारण हो जाता है। हमारी शक्ति बरबाद हो जाती है। इस हानि को रोका जा सके तो भगवान के बाद दूसरी सत्ता इन्सान की ही है। भीष्म पितामह ने मौत को छः माह तक रोक दिया था, उन्होंने मौत से कहा—जब सूर्य उत्तरायण में आवे, तभी आना। यह संयमशीलता का ही चमत्कार था कि मौत को भी अपना समय बदलना पड़ा था। चित्त वृत्तियों का ऐसा निरोध ही योग है। स्वामी विवेकानन्द एक बार अमेरिका गये, वहां एक महिला स्वामी विवेकानन्द के मन को डिगाने के लिए तरह-तरह की हरकत करने लगी। स्वामी जी के मन में विकार आया तो स्वामी जी ने मन से कहा—यह आग है, इसे मत छूना, परन्तु मनोविकार कम नहीं हुआ। स्वामी जी गरम तवे पर बैठ गये, जिससे उनका शरीर बुरी तरह जल गया। छः माह अस्पताल में रहे, तब कहीं जाकर ठीक हुए। इस प्रकार स्वामी जी ने मन को समझाया कि आग को छूने से क्या नुकसान होता है? अध्यात्मवादियों को इन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ना पड़ता है। जिनने भी भगवान को पाया है, उन्होंने यही सीढ़ियां चढ़ी हैं। जिस तरह बिना खेत को जोते, बिना खाद-पानी दिये आपको फसल नहीं मिल सकती, उसी प्रकार बिना संयम की सीढ़ी पर चढ़े भगवान को प्राप्त नहीं किया जा सकता। बाजीगर धूल का रुपया बना देता है, जिसका मात्र क्रिया से ही सम्बन्ध है। पदार्थ की सहायता से किया गया चमत्कार जादू है, परन्तु उपासना में तंत्र, विधि और भावना की आवश्यकता होती है। जिसकी क्रिया के साथ भावना भी जुड़ी होती है, वही उपासना फलती है। अगर आपने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला, गुण, कर्म, स्वभाव, चिन्तन, चरित्र, व्यवहार, को उत्कृष्ट नहीं बनाया, तो आप हजार वर्ष तक भी भगवान की पूजा करते रहें, तो भगवान को नहीं पा सकते। जैसे पहले राजाओं के भाट होते थे, जो राजा की प्रशंसा किया करते थे, वैसे ही आप भी भगवान की तारीफ करके, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य चढ़ाकर, रिश्वत देकर भगवान को प्रसन्न करना चाहते हैं। आपने समझ रखा है कि देवियों को बकरा खाने से मतलब है। जैसे अफसर मिठाई खिलाने से, पार्टी देने से खुश हो जाते हैं, क्या भगवान की हैसियत भी ऐसी ही समझ रखी है आपने? यदि ऐसा भगवान कहीं है, जो रिश्वत से खुश हो जाता है, तो उसको मैं नहीं मानता। जो अपने कर्मों से ऊंचा होता है, जिसका हर कार्य उत्कृष्ट होता है, उसका ही मंत्र जपना सार्थक है।
वाल्मीकि जी को ऋषियों ने ‘राम’ का नाम दिया था, परन्तु वह राम न कहकर मरा-मरा जपता था फिर भी उसको वह मंत्र ऐसा फलित हुआ था कि वह महर्षि वाल्मीकि बन गये। उसने अपने निकृष्ट विचारों को निकालकर फेंक दिया और कहा—मैं राम का भक्त हूं। सर्वत्र राम ही राम विराजमान हैं। उनने अपने दृष्टिकोण को बदला। मैं चोरी नहीं करूंगा, डाका नहीं डालूंगा, किसी को कष्ट नहीं दूंगा, सबके अन्दर भगवान राम को देखूंगा और मनुष्य मात्र की सेवा करूंगा। महर्षि वाल्मीकि जी ने कुविचारों को त्याग दिया, तब राम का नाम फलीभूत हुआ। जीवन की नाव को पार लगाने के लिए अपनी मनोभूमि का परिष्कार करना होगा। ईमानदारी से हर कार्य करना होगा। सत्य बोलना होगा, सत्य बोलना सरल है। एक झूठ को सच साबित करने के लिए हजार झूठ बोलना पड़ता है। चोरी करना कठिन है। भगवान को पाना है, तो ऊंचे विचार और ऊंचे कर्म करने होंगे, तभी मंत्र फलित होगा और तभी भगवान खुश होंगे। बुरे विचार आदमी को घटिया बना देते हैं। वह कितनी ही शेखी बघारे, परन्तु वास्तविकता छुपाने से नहीं छुपती। शराबी की, ठगों की, जुआरियों की दुनिया ही अलग होती है। उसी तरह घटिया आदमी की दुनिया भी अलग होती है। अध्यात्मवादी हमेशा हंसता-हंसाता रहता है। उसका दृष्टिकोण अच्छा होता है। आप दृष्टिकोण बदलकर देखो तो!
नजरें बदलीं तो नजारे बदल गये ।
किश्ती ने बदला रुख तो किनारे बदल गये ।।
आपने मोह को नहीं छोड़ा, तो आनन्द को कैसे पा सकेंगे? मोह को छोड़ दो तो इस दुनियां में आनन्द ही आनन्द है। पूजा-उपचार की सामग्री, चन्दन, अगरबत्ती, कपूर, दीपक, फूल यह सब भगवान को पाने के लिए उपासना में सहायक हो सकते हैं—यह साधन मात्र हैं, साध्य नहीं हैं। साध्य है आनन्द और उसके लिए आपको एक काम और करना पड़ेगा और वह है—आत्म परिष्कार। हमने उपासना की और विचार-कर्म आदि भी ऊंचे रखे। उच्च विचार और कर्म ही तो हमें फलित हुए। उनका ही लाभ तो हमें मिला। आप भी अपने विचार ऊंचे रखेंगे, क्रिया के साथ भावना भी जोड़ेंगे, तो आपको भी यह मंत्र फलित होगा। आप अपने को बदलकर उपासना करके तो देखो, क्या आनन्द आता है। वह आनन्द आता है, जो आपको भौतिक सुखों से कभी प्राप्त नहीं हुआ होगा, न हो सकेगा। मुझे विश्वास है कि आप अपने जीवन को भगवान की धारा से जोड़ेंगे और अपना जीवन धन्य बनायेंगे।