Books - धर्म चेतना का जागरण और आह्वान
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अनुष्ठान साधना की विधि-मर्यादा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 26 सितम्बर 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो,
विशिष्ट अनुष्ठान में विशिष्ट प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं। अनुष्ठान काल के लिए विशेष नियम क्यों हैं? प्रतिबन्ध क्यों हैं? यह मैं आपको अपना अनुभव बताता हूं। आप जप करते हैं, हमने बताया कि जप धीमी आवाज में किया जाता है। ओठ कण्ठ चलता रहना चाहिये। मुंह हमारा टाइप राइटर की तरह है, जो उच्चारण किया जाता है, वह हमारे दिमाग पर असर करता है। जप के समय रीढ़ की हड्डी सीधी रहनी चाहिये अर्थात् कमर सीधी करके बैठना चाहिये। जिस प्रकार विद्युत धारा होती है। हमारे शरीर में भी इड़ा और पिंगला दो नाड़ियां, दो धारायें चलती रहती हैं। बार-बार नाम लेने, जप करने से शरीर में विशेष शक्तियां जागृत होती हैं। जिस प्रकार व्यायाम से शरीर स्वस्थ रहता, मजबूत बनता, फेंफड़े मजबूत होते हैं, उसी प्रकार जप से मानसिक व्यायाम होता है। यह अध्यात्म का व्यायाम है। इससे दिव्य दृष्टि जागृत होती है, विवेक जागृत होता है। बाहरी आंखें बहुत कम चीजें देख सकती हैं। हमारी तीसरी आंख जिसे आज्ञा चक्र कहते हैं, उससे सब कुछ देखा जा सकता है।
अंग्रेजों के शासन के समय जमशेद जी टाटा को सबसे पहले स्टील के कारखाने का परमिट मिला था। लन्दन में जमशेद जी टाटा एवं स्वामी विवेकानन्द एक ही होटल में ठहरे थे। जमशेदजी ने विवेकानन्द जी से पूछा कि क्या अध्यात्म में ऐसी शक्ति है, जिससे आप यह बता सकें कि भारत में ऐसा स्थान कहां है, जहां लोहा, कोयला और पानी एक जगह हो। यदि ऐसा बता सकें, तो भारत के उत्थान के लिये मैं बहुत कुछ कर पाने में सफलता प्राप्त कर सकूंगा। स्वामी जी ने उन्हें बतलाया कि बिहार में सिंहभूमि के पास एक स्थान है साक्षी। छोटे से एक गांव का नाम बताया, जहां पर कोयला, लोहा और पानी है। टाटा को मालदार बनाने वाले स्वामी विवेकानन्द जी थे। यह थी दिव्य दृष्टि तीसरे नेत्र से देखा हुआ स्थान। हमारे मस्तिष्क में ही क्षीर सागर है, जिसमें सफेद द्रव्य भरा हुआ है। इसी पर शेष नाग रहता है। अध्यात्म के द्वारा, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर का जागरण होता है।
तात्या डाकू की कहानी आपने सुनी होगी। एक दिन जेलर ने उससे कहा—तुम इतने दुबले-पतले हो, तुम्हारे अन्दर ऐसी कौन सी करामात है, जिससे तुम इस काम में सफल होते रहे। डाकू ने कहा—आपको मैं शरीर की करामात बताता हूं। इतना कहकर वह डाकू दौड़ता हुआ आया और जेल की दीवार पर इस प्रकार चढ़ गया मानो कोई सीढ़ी लगाकर चढ़ रहा हो और चढ़ कर बैठ गया और बोला—जेलर साहब! अब बताओ कि मैं इधर कूदूं या उधर। जेलर साहब ने हाथ जोड़कर कहा—भैया इधर ही कूद आओ मेरी नौकरी का सवाल है। सर्कस में भी आपने शरीर की करामात देखी होगी। लड़ाई-झगड़े करना शरीर की करामात नहीं। यह बात शरीर की है, परन्तु अध्यात्म द्वारा तीनों शरीर की प्रक्रियाओं को मजबूत बनाया जाता है। उसी को योगाभ्यास भी कहते हैं। उपासना से तीनों शरीरों का विकास होता है। शरीर की चौबीस ग्रन्थियों में जो शक्ति प्रसुप्त हैं, उसे गायत्री उपासना के माध्यम से जगाया जाता है। उपासना में उत्साह होना चाहिये। निराशा से की गयी उपासना का लाभ नहीं मिलता है।
उपासना के लिए अनुष्ठान काल में विशेषकर पांच नियम बताये हैं। इन नियमों का पालन करने से उपासना में चार चांद लग जाते हैं। पहला नियम है—ब्रह्मचर्य पूर्वक रहना। शादी नहीं करने को ब्रह्मचर्य नहीं कहा है। स्त्रियों से अलग रहना ब्रह्मचर्य नहीं है। आपका चिन्तन सही होना चाहिये। बुरे विचार करने से जो शक्ति खर्च होती है, उसे रोकना चाहिये। स्त्री-पुरुष के बीच का आकर्षण नहीं हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं। नारी को गन्दी निगाह से देखना पाप है। नारी हमारी बहन है, मां है, बेटी है। यह नरक की खान नहीं है। नारी नर की खान है। अपने विचारों को खयालों को बदलना ही ब्रह्मचर्य है। जननेन्द्रिय शक्ति केन्द्र है। इसकी शक्ति क्षय नहीं होनी चाहिये। धर्मपत्नी धर्मात्मा बनाने के लिए आती है। उसे धर्म की पत्नी कहते हैं। अनुष्ठान काल में यह नियम हमारे जीवन में सतत अभ्यास करने के लिए है।
दूसरा नियम है—जिह्वा संयम। जिह्वा दसों इन्द्रियों की चाभी है। गांधी जी ने लिखा है, जो जीभ पर संयम कर लेता है, वह सब इन्द्रियों पर काबू कर लेता है। जो जीभ पर संयम नहीं कर पाता, वह किसी भी इन्द्रिय पर काबू नहीं कर सकता। जीभ बताती है कि आप किस स्तर के व्यक्ति हैं? आपके अन्दर क्या है? यह जीभ बताती है, आपको इस पर संयम रखना चाहिये। जीभ कहती है—मिर्च मसाले, मिठाई, रसगुल्ले खूब खाओ। यदि आपने जीभ का कहना मान लिया, तो आपका स्वास्थ्य भी चौपट होगा और संयमी भी नहीं बन पाओगे। कुसंस्कारी अन्न मत खाइये। किसी दिन आप किसी बुरे आदमी द्वारा कमाया हुआ भोजन उसके घर करके आयेंगे, तो आपका मन बुरी बातों की ओर ही जायेगा। आहार का बड़ा महत्व है। अन्न से मन का घनिष्ठ संबंध है। जो जिनका गोश्त खाते हैं, उनके अन्दर उन्हीं जानवरों के संस्कार आ जाते हैं। पुरश्चरण का लाभ वाणी को प्राप्त तभी होगा, जब आप वाणी का, आहार का संयम बरतोगे। यदि इतना नहीं कर सके, तो आप चाहे जितनी माला जपो वह लाभ नहीं मिलेगा, जो पुरश्चरण से मिलना चाहिये। इस नियम का पालन कठोरता से किया जाय, तो आपको अनुष्ठान का लाभ मिलेगा। व्रत का मतलब यह नहीं कि सिंघाड़े का, आलू का, हलवा और कूटू की पकौड़ी खायें। आजकल तो व्रत का मखौल बना दिया गया है। मावे की बरफी, पेड़ा खाते हैं, जो तीन दिन में हजम होते हैं, इसके बजाय खिचड़ी, रोटी खायें, तो कितना अच्छा रहेगा। उपासना का लाभ भी मिलेगा और पेट भी हल्का करेगा। आज तो उपवास की मिट्टी पलीत कर दी है। बेचारा उपवास क्या कह रहा होगा?
अनुष्ठान का तीसरा नियम अपनी सेवा आप स्वयं करना है। अपने कपड़े अपने हाथों से धोयें। अपना कमरा अपने हाथों से साफ करें। किसी पर आश्रित नहीं रहें। पराश्रित जीवन भी शक्तियों को खो बैठता है। परिश्रमी जीवन जीना चाहिये। काम करने से शक्तियां जागृत होती हैं। शक्ति बढ़ती है। राजा जनक स्वयं हल चलाते थे, परिश्रम का महत्व जिन्होंने भी जाना, उन्होंने ही अपने जीवन में प्रगति की। भगवान कृष्ण स्वयं गाय चराते थे। नसरुद्दीन बादशाह, स्वयं टोपी सिलने का काम करते थे। अपने हाथ से हर काम करने में आनन्द आता है। जिन्दगी को किसी के ऊपर बोझ बनकर जीना अच्छा नहीं है। स्वावलंबन अपने आप में मजेदार चीज है।
चौथा नियम है—चारपाई पर नहीं सोना चाहिये। पहले गुरुकुलों में विद्यार्थियों को तख्त पर सुलाया जाता था। तख्त या जमीन पर सोने से रीढ़ की हड्डी सीधी रहती है, जो स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद है। कमर झुकने से आदमी बूढ़ा होता है। तख्त या जमीन पर सोने का मतलब है कष्ट साध्य जीवन जीने का अभ्यास। विलासिता, ठाठ-बाट का त्याग करना। सादगी पूर्ण जिन्दगी जीना।
पांचवां नियम—दया और करुणा प्राणिमात्र के लिए होना चाहिये। चमड़े का परित्याग करना—चमड़े के जूते पहनने, चमड़े का उपयोग करने का निषेध है। आजकल जानवरों को मारकर चमड़ा निकाला जाता है। पुराने जमाने में जानवरों को मारते नहीं थे। मरे हुए जानवर शेर, हिरन इत्यादि की खाल निकालकर लाते थे, तभी उसको काम में लाते थे, इसलिये पहले चमड़े का इस्तेमाल करते थे, परन्तु आज चमड़े का उपयोग करना पाप है। चमड़े की वस्तु का उपयोग करने वाला भी पाप का भागीदार होता है क्योंकि अब जानवरों की खाल निकालने के लिए हण्टरों से पीटा जाता है। जब तक खाल में खून प्रवेश न कर जाए, तब तक पिटाई करते हैं। बकरे का मुंह बन्द कर जिन्दा हालत में ही उस की खाल निकाल ली जाती है। खाल निकालने के बाद पेट चीरकर उसे मारा जाता है। ऐसा चमड़ा जिसे क्रुम के नाम से सब पहनते हैं। उस जानवर को कितना कष्ट देने के बाद वह चमड़ा मिलता है, आप चमड़े की वस्तु इस्तेमाल न करें। आपको दया करनी चाहिये।
यह पांच नियम हमने नौ दिन के इस पुरश्चरण के लिये आपको बताये हैं, परन्तु इनका पालन जीवन भर करना चाहिये। इनका पालन आप जीवन भर करेंगे तो आपका शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे। आत्म संतोष मिलेगा। पहले गुरुकुलों में ऋषि विद्यार्थियों को कष्ट साध्य जीवन जीना सिखाते थे। परिश्रमी, पुरुषार्थी बनकर जीना और समाज की सेवा करना। इससे आपका और समाज का भी भला होगा। आज का हमारा यही सन्देश है
देवियो और भाइयो,
विशिष्ट अनुष्ठान में विशिष्ट प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं। अनुष्ठान काल के लिए विशेष नियम क्यों हैं? प्रतिबन्ध क्यों हैं? यह मैं आपको अपना अनुभव बताता हूं। आप जप करते हैं, हमने बताया कि जप धीमी आवाज में किया जाता है। ओठ कण्ठ चलता रहना चाहिये। मुंह हमारा टाइप राइटर की तरह है, जो उच्चारण किया जाता है, वह हमारे दिमाग पर असर करता है। जप के समय रीढ़ की हड्डी सीधी रहनी चाहिये अर्थात् कमर सीधी करके बैठना चाहिये। जिस प्रकार विद्युत धारा होती है। हमारे शरीर में भी इड़ा और पिंगला दो नाड़ियां, दो धारायें चलती रहती हैं। बार-बार नाम लेने, जप करने से शरीर में विशेष शक्तियां जागृत होती हैं। जिस प्रकार व्यायाम से शरीर स्वस्थ रहता, मजबूत बनता, फेंफड़े मजबूत होते हैं, उसी प्रकार जप से मानसिक व्यायाम होता है। यह अध्यात्म का व्यायाम है। इससे दिव्य दृष्टि जागृत होती है, विवेक जागृत होता है। बाहरी आंखें बहुत कम चीजें देख सकती हैं। हमारी तीसरी आंख जिसे आज्ञा चक्र कहते हैं, उससे सब कुछ देखा जा सकता है।
अंग्रेजों के शासन के समय जमशेद जी टाटा को सबसे पहले स्टील के कारखाने का परमिट मिला था। लन्दन में जमशेद जी टाटा एवं स्वामी विवेकानन्द एक ही होटल में ठहरे थे। जमशेदजी ने विवेकानन्द जी से पूछा कि क्या अध्यात्म में ऐसी शक्ति है, जिससे आप यह बता सकें कि भारत में ऐसा स्थान कहां है, जहां लोहा, कोयला और पानी एक जगह हो। यदि ऐसा बता सकें, तो भारत के उत्थान के लिये मैं बहुत कुछ कर पाने में सफलता प्राप्त कर सकूंगा। स्वामी जी ने उन्हें बतलाया कि बिहार में सिंहभूमि के पास एक स्थान है साक्षी। छोटे से एक गांव का नाम बताया, जहां पर कोयला, लोहा और पानी है। टाटा को मालदार बनाने वाले स्वामी विवेकानन्द जी थे। यह थी दिव्य दृष्टि तीसरे नेत्र से देखा हुआ स्थान। हमारे मस्तिष्क में ही क्षीर सागर है, जिसमें सफेद द्रव्य भरा हुआ है। इसी पर शेष नाग रहता है। अध्यात्म के द्वारा, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर का जागरण होता है।
तात्या डाकू की कहानी आपने सुनी होगी। एक दिन जेलर ने उससे कहा—तुम इतने दुबले-पतले हो, तुम्हारे अन्दर ऐसी कौन सी करामात है, जिससे तुम इस काम में सफल होते रहे। डाकू ने कहा—आपको मैं शरीर की करामात बताता हूं। इतना कहकर वह डाकू दौड़ता हुआ आया और जेल की दीवार पर इस प्रकार चढ़ गया मानो कोई सीढ़ी लगाकर चढ़ रहा हो और चढ़ कर बैठ गया और बोला—जेलर साहब! अब बताओ कि मैं इधर कूदूं या उधर। जेलर साहब ने हाथ जोड़कर कहा—भैया इधर ही कूद आओ मेरी नौकरी का सवाल है। सर्कस में भी आपने शरीर की करामात देखी होगी। लड़ाई-झगड़े करना शरीर की करामात नहीं। यह बात शरीर की है, परन्तु अध्यात्म द्वारा तीनों शरीर की प्रक्रियाओं को मजबूत बनाया जाता है। उसी को योगाभ्यास भी कहते हैं। उपासना से तीनों शरीरों का विकास होता है। शरीर की चौबीस ग्रन्थियों में जो शक्ति प्रसुप्त हैं, उसे गायत्री उपासना के माध्यम से जगाया जाता है। उपासना में उत्साह होना चाहिये। निराशा से की गयी उपासना का लाभ नहीं मिलता है।
उपासना के लिए अनुष्ठान काल में विशेषकर पांच नियम बताये हैं। इन नियमों का पालन करने से उपासना में चार चांद लग जाते हैं। पहला नियम है—ब्रह्मचर्य पूर्वक रहना। शादी नहीं करने को ब्रह्मचर्य नहीं कहा है। स्त्रियों से अलग रहना ब्रह्मचर्य नहीं है। आपका चिन्तन सही होना चाहिये। बुरे विचार करने से जो शक्ति खर्च होती है, उसे रोकना चाहिये। स्त्री-पुरुष के बीच का आकर्षण नहीं हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं। नारी को गन्दी निगाह से देखना पाप है। नारी हमारी बहन है, मां है, बेटी है। यह नरक की खान नहीं है। नारी नर की खान है। अपने विचारों को खयालों को बदलना ही ब्रह्मचर्य है। जननेन्द्रिय शक्ति केन्द्र है। इसकी शक्ति क्षय नहीं होनी चाहिये। धर्मपत्नी धर्मात्मा बनाने के लिए आती है। उसे धर्म की पत्नी कहते हैं। अनुष्ठान काल में यह नियम हमारे जीवन में सतत अभ्यास करने के लिए है।
दूसरा नियम है—जिह्वा संयम। जिह्वा दसों इन्द्रियों की चाभी है। गांधी जी ने लिखा है, जो जीभ पर संयम कर लेता है, वह सब इन्द्रियों पर काबू कर लेता है। जो जीभ पर संयम नहीं कर पाता, वह किसी भी इन्द्रिय पर काबू नहीं कर सकता। जीभ बताती है कि आप किस स्तर के व्यक्ति हैं? आपके अन्दर क्या है? यह जीभ बताती है, आपको इस पर संयम रखना चाहिये। जीभ कहती है—मिर्च मसाले, मिठाई, रसगुल्ले खूब खाओ। यदि आपने जीभ का कहना मान लिया, तो आपका स्वास्थ्य भी चौपट होगा और संयमी भी नहीं बन पाओगे। कुसंस्कारी अन्न मत खाइये। किसी दिन आप किसी बुरे आदमी द्वारा कमाया हुआ भोजन उसके घर करके आयेंगे, तो आपका मन बुरी बातों की ओर ही जायेगा। आहार का बड़ा महत्व है। अन्न से मन का घनिष्ठ संबंध है। जो जिनका गोश्त खाते हैं, उनके अन्दर उन्हीं जानवरों के संस्कार आ जाते हैं। पुरश्चरण का लाभ वाणी को प्राप्त तभी होगा, जब आप वाणी का, आहार का संयम बरतोगे। यदि इतना नहीं कर सके, तो आप चाहे जितनी माला जपो वह लाभ नहीं मिलेगा, जो पुरश्चरण से मिलना चाहिये। इस नियम का पालन कठोरता से किया जाय, तो आपको अनुष्ठान का लाभ मिलेगा। व्रत का मतलब यह नहीं कि सिंघाड़े का, आलू का, हलवा और कूटू की पकौड़ी खायें। आजकल तो व्रत का मखौल बना दिया गया है। मावे की बरफी, पेड़ा खाते हैं, जो तीन दिन में हजम होते हैं, इसके बजाय खिचड़ी, रोटी खायें, तो कितना अच्छा रहेगा। उपासना का लाभ भी मिलेगा और पेट भी हल्का करेगा। आज तो उपवास की मिट्टी पलीत कर दी है। बेचारा उपवास क्या कह रहा होगा?
अनुष्ठान का तीसरा नियम अपनी सेवा आप स्वयं करना है। अपने कपड़े अपने हाथों से धोयें। अपना कमरा अपने हाथों से साफ करें। किसी पर आश्रित नहीं रहें। पराश्रित जीवन भी शक्तियों को खो बैठता है। परिश्रमी जीवन जीना चाहिये। काम करने से शक्तियां जागृत होती हैं। शक्ति बढ़ती है। राजा जनक स्वयं हल चलाते थे, परिश्रम का महत्व जिन्होंने भी जाना, उन्होंने ही अपने जीवन में प्रगति की। भगवान कृष्ण स्वयं गाय चराते थे। नसरुद्दीन बादशाह, स्वयं टोपी सिलने का काम करते थे। अपने हाथ से हर काम करने में आनन्द आता है। जिन्दगी को किसी के ऊपर बोझ बनकर जीना अच्छा नहीं है। स्वावलंबन अपने आप में मजेदार चीज है।
चौथा नियम है—चारपाई पर नहीं सोना चाहिये। पहले गुरुकुलों में विद्यार्थियों को तख्त पर सुलाया जाता था। तख्त या जमीन पर सोने से रीढ़ की हड्डी सीधी रहती है, जो स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद है। कमर झुकने से आदमी बूढ़ा होता है। तख्त या जमीन पर सोने का मतलब है कष्ट साध्य जीवन जीने का अभ्यास। विलासिता, ठाठ-बाट का त्याग करना। सादगी पूर्ण जिन्दगी जीना।
पांचवां नियम—दया और करुणा प्राणिमात्र के लिए होना चाहिये। चमड़े का परित्याग करना—चमड़े के जूते पहनने, चमड़े का उपयोग करने का निषेध है। आजकल जानवरों को मारकर चमड़ा निकाला जाता है। पुराने जमाने में जानवरों को मारते नहीं थे। मरे हुए जानवर शेर, हिरन इत्यादि की खाल निकालकर लाते थे, तभी उसको काम में लाते थे, इसलिये पहले चमड़े का इस्तेमाल करते थे, परन्तु आज चमड़े का उपयोग करना पाप है। चमड़े की वस्तु का उपयोग करने वाला भी पाप का भागीदार होता है क्योंकि अब जानवरों की खाल निकालने के लिए हण्टरों से पीटा जाता है। जब तक खाल में खून प्रवेश न कर जाए, तब तक पिटाई करते हैं। बकरे का मुंह बन्द कर जिन्दा हालत में ही उस की खाल निकाल ली जाती है। खाल निकालने के बाद पेट चीरकर उसे मारा जाता है। ऐसा चमड़ा जिसे क्रुम के नाम से सब पहनते हैं। उस जानवर को कितना कष्ट देने के बाद वह चमड़ा मिलता है, आप चमड़े की वस्तु इस्तेमाल न करें। आपको दया करनी चाहिये।
यह पांच नियम हमने नौ दिन के इस पुरश्चरण के लिये आपको बताये हैं, परन्तु इनका पालन जीवन भर करना चाहिये। इनका पालन आप जीवन भर करेंगे तो आपका शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे। आत्म संतोष मिलेगा। पहले गुरुकुलों में ऋषि विद्यार्थियों को कष्ट साध्य जीवन जीना सिखाते थे। परिश्रमी, पुरुषार्थी बनकर जीना और समाज की सेवा करना। इससे आपका और समाज का भी भला होगा। आज का हमारा यही सन्देश है