Books - धर्म चेतना का जागरण और आह्वान
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Language: HINDI
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ईश्वरीय उद्यान के प्रति हमारा दायित्व
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(गायत्री तपोभूमि, मथुरा में 10 सितम्बर 1968 को प्रातः दिया गया प्रवचन)
देवियो और भाइयो,
मैं लम्बे समय से एक बात कहता हूं। भारतीय संस्कृति का स्वरूप गायत्री माता से मिला है। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक जननी गायत्री माता है। रावण वेदपाठी था और रावण ने काल को भी पाटी से बांध लिया था। रावण योगाभ्यासी भी था, परन्तु उसके पास संस्कृति नहीं थी। उसके बिना वह अपने ही लिए नहीं वरन् सारे संसार के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। माता का पहला स्थान होता है। अगर माता है, तो बच्चों का जन्म, पालन-पोषण, विकास होता है। माता के बिना बालक का पालन-पोषण विकास कहां संभव है? रानी मधुमक्खी अण्डे देती है। बच्चे पैदा होते हैं। जिस प्रकार रानी मधुमक्खी का स्थान छत्ते में है, वही स्थान इस संसार में संस्कृति का है।
पातंजलि ने योग के लिए यम, नियम, संयम आहार-प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि को आवश्यक बताया है। धीरे-धीरे इनके अभ्यास का क्रम बताया है। आप पहले प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करेंगे तभी आगे बढ़ेंगे। कामनाओं को रोक कर उन्हें उत्कृष्ट कार्य में लगायें। शरीर, मन और अन्तःकरण से समाज की सेवा में लग जायें। उत्कृष्टता आ जाये, तो वही योगी हो जाता है। आपने शंकर जी की तस्वीर देखी होगी, जिसमें पार्वती, उनके बच्चे और नंदी सारा कुटुम्ब होता है। शंकर जी योगी थे। आप बच्चों को छोड़कर बाबाजी होना चाहते हैं। चारों आश्रम का अनुसरण करना चाहिए। वैरागी परिवार छोड़ने वाला नहीं होता। वैरागी तो वह होता है, जो मन को वासना और तृष्णा से हटाकर परमार्थ में लगा दे। मन को लक्ष्य में लगा दिया जाय, तो कहां भागेगा? आपका मन तो सुरैया की तस्वीर देखने में ही लगा रहता है। तीन से छः बजे तक उसी की बातें करने में लगे रहते हैं। आप कैसे योगी बन सकते हैं?
आपका मन कहीं और लक्ष्य कोई और हो, तो इस जीवन को कल्याण मार्ग पर कैसे चलायेंगे? सबका मन है, वही हमारा मन है। आपके बच्चे नहीं होते, तो वैराग्य होता। वैराग्य से समाधान हो जाता है, शांति आती है। अच्छे कामों का मतलब अपने मन को सेवा की वृत्ति में लगाना। अपने बदन को शक्तिशाली बनाने के लिए व्यायाम करना पड़ता है। इसी प्रकार जीवात्मा को बलवान बनाने के लिए सेवा करनी पड़ती है। लोकमंगल में समय लगावें, इसके लिए अपने विचार बदलें और उत्कृष्टता में समय का उपयोग करने के लिए कदम बढ़ावें।
मूल है—जमीन। बीज बोना अलग बात है। मूल है—हमारी संस्कृति। आपने कहीं जमीन खरीदी हो और वहां पौधे लगाये हों। पौधे यदि कोई खराब कर दे, तो क्या करते हैं? दूसरे लगा दिये जाते हैं, परन्तु असली कीमत तो जमीन की है। जमीन बड़ी मुश्किल से मिली है। पौधा तो चालीस पैसे का मिल जाता है, परन्तु जमीन पंद्रह हजार की होती है। इसी प्रकार संस्कृति पंद्रह हजार की है और भगवान के नाम का जप चालीस पैसे का। विचारों को, भावनाओं को उच्च उद्देश्य में लगाओ। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, आम्रपाली एक दिन में बदल गये और उन्होंने सारे संसार को शिक्षा दी।
कई जगह रात-दिन कीर्तन होता है। कहीं कथायें होती हैं, कहीं पूजा-पाठ पर जोर दे रहे हैं, तो कहीं हवन पर। यह क्रियायें हैं। क्रिया को कर्म में उतारने से ही असली चीज आप पकड़ सकते हैं और वांछित लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आडम्बर को लोग अधिक देखते हैं और अपना सारा मनोयोग उसमें लगा देते हैं। धनवान विवेक की दृष्टि से कम देखते हैं और जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, उसे ही देखते हैं।
मथुरा में हमने एक हजार कुण्ड का विशाल महायज्ञ किया था। जिसमें लाखों लोग आये थे। हमने उन्हें आडम्बर के लिए बुलाया था, नहीं? हमने भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए जीवन पद्धति दी। उनको अपने हृदय की धधकती आग दी और उन्होंने देश भर में जाकर अपनी जीवन पद्धति बदलकर दूसरों को बताया कि जियो तो ऐसा जियो जिससे गौरव अनुभव हो। अपने आप पर, समाज पर, संस्कृति पर गौरव होना चाहिए, परन्तु अभी लोगों में समझ कहां आयी है। समझ होती, तो हमारे जीवन जैसी ही जीवन की दिशा होती। जो विवेक का काम करता है, उसे कोई नहीं देखता। हमारी कार्य पद्धति देखिये। दुकानदार हो, किसान हो या कोई और सबको सुसंस्कृत बनाना है। सुसंस्कृत बनाने के लिए संस्कारों की व्यवस्था की है। जीवन में हर मोड़ पर मार्ग दर्शन कराने की यह पद्धति है। जीवन में कई मोड़ आते हैं। आपके रास्ते में कोई मोड़ न हो, तो आप तेजी से दौड़ते चले जायेंगे। परन्तु यदि मोड़ हो, तो आपको सावधानी से चलना होगा अन्यथा रास्ता भटक सकते हैं।
संस्कार से संस्कृति बनती है। संस्कारों को हमने सरल, उपयोगी एवं सस्ता बनाकर लोकशिक्षण का माध्यम बनाया है। लूट का साधन नहीं बनाया। आप लोग संस्कार क्यों नहीं कराते हैं? तो आप उत्तर में पायेंगे कि खर्च बहुत लगता है और फायदा भी क्या है? कोई मार्गदर्शन भी नहीं देते। हमने संस्कारों में नए प्राण फूंके हैं और संस्कारों से ‘‘आदर्श जीवन जीने की कला’’ सिखाते हैं। संस्कारों से केवल एक व्यक्ति का ही नहीं पचास-पचास व्यक्तियों का एक साथ शिक्षण होता है। यज्ञोपवीत पहनाते हो, तो एक-एक क्रियाओं को समझाना चाहिए।
जिस प्रकार मां अपने बेटे को छाती से लगाकर हर समय उसका पूरा ध्यान रखती है, उसी प्रकार आपको यज्ञोपवीत को छाती से लगाकर आदर्श और सिद्धान्त को पूरे समय याद रखना चाहिए। बन्दरिया अपने बच्चे को मर जाने पर भी छाती से लगाकर रखती है, ठीक उसी प्रकार बिना आदर्श और सिद्धान्त के यज्ञोपवीत धारण करना यज्ञोपवीत की लाश ढोना ही है। आपको उसमें प्राण फूंकना होगा। आपने दीपावली के मूलभूत सिद्धान्तों को उतारा नहीं, तो लक्ष्मी आपके घर कैसे रहेगी? आपके पास धन नहीं, तो आपके हाथ की रेखाओं का क्या दोष? खर्च करना सीखा नहीं और रेखाओं को दोष देते हैं।
मेरे कई गुरु हैं। एक जनेऊ देने वाला एक शिक्षा पढ़ाने वाला। महामना मालवीय जी मेरे जनेऊ देने वाले गुरु हैं। उन्होंने मुझे यज्ञोपवीत का शिक्षण दिया था। आज तो संस्कृति की हालत खराब कर दी गयी है। लड़कियों के नाच को ‘‘सांस्कृतिक कार्यक्रम’’ कहते हैं। बड़ी-सी सयानी लड़की है, रंग-बिरंगे कपड़े पहने, हाथ-पांव मटकाने को सांस्कृतिक कार्यक्रम बतलाते हैं। आज संस्कृति का सही अर्थ ही भूल गये हैं।
महामना मालवीय जी ने कहा था—उनका मंत्र था—
‘‘ग्रामे-ग्रामे सभाकार्यः ग्रामे-ग्रामे शुभकार्याः ।
पाठशाला मल्लशाला, प्रतिपर्वा महोत्सवाः।।’’
महामना मालवीय जी का यह कार्यक्रम परिवार को, राष्ट्र को, संस्कृति को बलिष्ठ बनाने के लिए है। व्यक्ति को धार्मिक, आदर्शवान, चरित्रवान बनाने के लिए पर्व और त्यौहार सामूहिक रूप से मनाये जाते थे। कथाओं के द्वारा मनुष्य के मस्तिष्क को सुधारते थे। कथा का उद्देश्य यह नहीं था कि उनको निकम्मे बनाकर पाप काटने का रास्ता-तरीका आडम्बर दिखाकर मार्ग से भटका दें। कथा तो आदर्शों को हृदयंगम करने के लिए प्रचलित थी। आज फिर आवश्यकता है कि कथा का वास्तविक स्वरूप सामने लाकर गीता, रामायण के माध्यम से लोकशिक्षण करें।
आज गांव-गांव में पाठशालाओं की आवश्यकता है, जिसमें भारतीय संस्कृति सिखाई जावे। मां-बाप को अपने बच्चे के चरित्र निर्माण पर ध्यान देना चाहिए। स्कूल में तो भौतिक शास्त्र, भूगोल, गणित पढ़ लेता है, परन्तु संस्कार का संस्कृति का शिक्षण तो आपको देना ही होगा। एम.एस.सी. पढ़ भी ली, तो उसकी कोई कीमत नहीं। निकम्मे बने रहेंगे, न श्रमशीलता है न चरित्र है। भारतीय संस्कृति का स्वरूप समझाना होगा, तभी आपकी स्कूली शिक्षा का लाभ होगा। ऐसा बाल संस्कार शालायें खोली जायें जिसमें बालकों के समग्र विकास के लिए शिक्षा दी जाती हो। आजकल सत्संग के नाम पर बेकार की बातें कहते फिरते हैं, इससे काम चलने वाला नहीं।
हर गांव में व्यायाम शाला होनी चाहिए। लाठी चलाने की शिक्षा देनी चाहिए। कमजोर बनकर नहीं समर्थ बनकर जीना सिखाना चाहिए। आक्रमण कमजोर पर होता है। रीछ शेर को नहीं खाता, परन्तु मनुष्य को खा जाता है। सबको समर्थ, शक्तिशाली बनना होगा। समर्थ गुरु रामदास ने मंदिर के साथ-साथ व्यायाम शालायें खुलवायीं। नवयुवकों को मजबूत बनाया। राष्ट्र को मजबूत बनाना है तो स्वस्थ परम्परायें चलानी होंगी। गांव-गांव पर्व-त्यौहार मनाये जायें और समझायें कि इनका महत्व क्या है? पर्व-त्यौहार मनुष्य के मन को उत्थान की तरफ ले जाता है। भगवान अब एक लाख के भोग को छोड़ और ग्वाल-बालों के साथ मक्का की रोटी खा। मक्का की रोटी खोकर तो देख? मखमली गद्दे को छोड़, जमीन पर आओ। भगवान तुम्हें हमारे साथ रहना पड़ेगा। भगवान तू हमारा पिता है। तुमको हमारे साथ रहना ही पड़ेगा।
धर्म का आडम्बर ओढ़े फिरता है जो इस हैवान को इन्सान बनाया जाये। मैं अपने दिन का दर्द कैसे बतलाऊं? मुझे भगवान पर विश्वास है। आज नहीं तो कल मनुष्य का विवेक जागेगा और भारतीय संस्कृति को अपनायेगा। हमारा श्रम व्यर्थ नहीं जायेगा। राष्ट्र को बदलने के लिए हमारा और आपका श्रम व्यर्थ जा ही नहीं सकता। भगवान के रास्ते पर चलने की साधना का नाम ही युग निर्माण योजना है। इस महायज्ञ में जो भी आगे आकर अपना योगदान देगा, भगवान भी उनका ऋणी होगा क्योंकि भगवान का बगीचा सुन्दर बनाने में आपने भी योगदान दिया। भगवान का स्नेह आपको सतत् मिला चला जायेगा।
देवियो और भाइयो,
मैं लम्बे समय से एक बात कहता हूं। भारतीय संस्कृति का स्वरूप गायत्री माता से मिला है। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक जननी गायत्री माता है। रावण वेदपाठी था और रावण ने काल को भी पाटी से बांध लिया था। रावण योगाभ्यासी भी था, परन्तु उसके पास संस्कृति नहीं थी। उसके बिना वह अपने ही लिए नहीं वरन् सारे संसार के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। माता का पहला स्थान होता है। अगर माता है, तो बच्चों का जन्म, पालन-पोषण, विकास होता है। माता के बिना बालक का पालन-पोषण विकास कहां संभव है? रानी मधुमक्खी अण्डे देती है। बच्चे पैदा होते हैं। जिस प्रकार रानी मधुमक्खी का स्थान छत्ते में है, वही स्थान इस संसार में संस्कृति का है।
पातंजलि ने योग के लिए यम, नियम, संयम आहार-प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि को आवश्यक बताया है। धीरे-धीरे इनके अभ्यास का क्रम बताया है। आप पहले प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करेंगे तभी आगे बढ़ेंगे। कामनाओं को रोक कर उन्हें उत्कृष्ट कार्य में लगायें। शरीर, मन और अन्तःकरण से समाज की सेवा में लग जायें। उत्कृष्टता आ जाये, तो वही योगी हो जाता है। आपने शंकर जी की तस्वीर देखी होगी, जिसमें पार्वती, उनके बच्चे और नंदी सारा कुटुम्ब होता है। शंकर जी योगी थे। आप बच्चों को छोड़कर बाबाजी होना चाहते हैं। चारों आश्रम का अनुसरण करना चाहिए। वैरागी परिवार छोड़ने वाला नहीं होता। वैरागी तो वह होता है, जो मन को वासना और तृष्णा से हटाकर परमार्थ में लगा दे। मन को लक्ष्य में लगा दिया जाय, तो कहां भागेगा? आपका मन तो सुरैया की तस्वीर देखने में ही लगा रहता है। तीन से छः बजे तक उसी की बातें करने में लगे रहते हैं। आप कैसे योगी बन सकते हैं?
आपका मन कहीं और लक्ष्य कोई और हो, तो इस जीवन को कल्याण मार्ग पर कैसे चलायेंगे? सबका मन है, वही हमारा मन है। आपके बच्चे नहीं होते, तो वैराग्य होता। वैराग्य से समाधान हो जाता है, शांति आती है। अच्छे कामों का मतलब अपने मन को सेवा की वृत्ति में लगाना। अपने बदन को शक्तिशाली बनाने के लिए व्यायाम करना पड़ता है। इसी प्रकार जीवात्मा को बलवान बनाने के लिए सेवा करनी पड़ती है। लोकमंगल में समय लगावें, इसके लिए अपने विचार बदलें और उत्कृष्टता में समय का उपयोग करने के लिए कदम बढ़ावें।
मूल है—जमीन। बीज बोना अलग बात है। मूल है—हमारी संस्कृति। आपने कहीं जमीन खरीदी हो और वहां पौधे लगाये हों। पौधे यदि कोई खराब कर दे, तो क्या करते हैं? दूसरे लगा दिये जाते हैं, परन्तु असली कीमत तो जमीन की है। जमीन बड़ी मुश्किल से मिली है। पौधा तो चालीस पैसे का मिल जाता है, परन्तु जमीन पंद्रह हजार की होती है। इसी प्रकार संस्कृति पंद्रह हजार की है और भगवान के नाम का जप चालीस पैसे का। विचारों को, भावनाओं को उच्च उद्देश्य में लगाओ। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, आम्रपाली एक दिन में बदल गये और उन्होंने सारे संसार को शिक्षा दी।
कई जगह रात-दिन कीर्तन होता है। कहीं कथायें होती हैं, कहीं पूजा-पाठ पर जोर दे रहे हैं, तो कहीं हवन पर। यह क्रियायें हैं। क्रिया को कर्म में उतारने से ही असली चीज आप पकड़ सकते हैं और वांछित लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आडम्बर को लोग अधिक देखते हैं और अपना सारा मनोयोग उसमें लगा देते हैं। धनवान विवेक की दृष्टि से कम देखते हैं और जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, उसे ही देखते हैं।
मथुरा में हमने एक हजार कुण्ड का विशाल महायज्ञ किया था। जिसमें लाखों लोग आये थे। हमने उन्हें आडम्बर के लिए बुलाया था, नहीं? हमने भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए जीवन पद्धति दी। उनको अपने हृदय की धधकती आग दी और उन्होंने देश भर में जाकर अपनी जीवन पद्धति बदलकर दूसरों को बताया कि जियो तो ऐसा जियो जिससे गौरव अनुभव हो। अपने आप पर, समाज पर, संस्कृति पर गौरव होना चाहिए, परन्तु अभी लोगों में समझ कहां आयी है। समझ होती, तो हमारे जीवन जैसी ही जीवन की दिशा होती। जो विवेक का काम करता है, उसे कोई नहीं देखता। हमारी कार्य पद्धति देखिये। दुकानदार हो, किसान हो या कोई और सबको सुसंस्कृत बनाना है। सुसंस्कृत बनाने के लिए संस्कारों की व्यवस्था की है। जीवन में हर मोड़ पर मार्ग दर्शन कराने की यह पद्धति है। जीवन में कई मोड़ आते हैं। आपके रास्ते में कोई मोड़ न हो, तो आप तेजी से दौड़ते चले जायेंगे। परन्तु यदि मोड़ हो, तो आपको सावधानी से चलना होगा अन्यथा रास्ता भटक सकते हैं।
संस्कार से संस्कृति बनती है। संस्कारों को हमने सरल, उपयोगी एवं सस्ता बनाकर लोकशिक्षण का माध्यम बनाया है। लूट का साधन नहीं बनाया। आप लोग संस्कार क्यों नहीं कराते हैं? तो आप उत्तर में पायेंगे कि खर्च बहुत लगता है और फायदा भी क्या है? कोई मार्गदर्शन भी नहीं देते। हमने संस्कारों में नए प्राण फूंके हैं और संस्कारों से ‘‘आदर्श जीवन जीने की कला’’ सिखाते हैं। संस्कारों से केवल एक व्यक्ति का ही नहीं पचास-पचास व्यक्तियों का एक साथ शिक्षण होता है। यज्ञोपवीत पहनाते हो, तो एक-एक क्रियाओं को समझाना चाहिए।
जिस प्रकार मां अपने बेटे को छाती से लगाकर हर समय उसका पूरा ध्यान रखती है, उसी प्रकार आपको यज्ञोपवीत को छाती से लगाकर आदर्श और सिद्धान्त को पूरे समय याद रखना चाहिए। बन्दरिया अपने बच्चे को मर जाने पर भी छाती से लगाकर रखती है, ठीक उसी प्रकार बिना आदर्श और सिद्धान्त के यज्ञोपवीत धारण करना यज्ञोपवीत की लाश ढोना ही है। आपको उसमें प्राण फूंकना होगा। आपने दीपावली के मूलभूत सिद्धान्तों को उतारा नहीं, तो लक्ष्मी आपके घर कैसे रहेगी? आपके पास धन नहीं, तो आपके हाथ की रेखाओं का क्या दोष? खर्च करना सीखा नहीं और रेखाओं को दोष देते हैं।
मेरे कई गुरु हैं। एक जनेऊ देने वाला एक शिक्षा पढ़ाने वाला। महामना मालवीय जी मेरे जनेऊ देने वाले गुरु हैं। उन्होंने मुझे यज्ञोपवीत का शिक्षण दिया था। आज तो संस्कृति की हालत खराब कर दी गयी है। लड़कियों के नाच को ‘‘सांस्कृतिक कार्यक्रम’’ कहते हैं। बड़ी-सी सयानी लड़की है, रंग-बिरंगे कपड़े पहने, हाथ-पांव मटकाने को सांस्कृतिक कार्यक्रम बतलाते हैं। आज संस्कृति का सही अर्थ ही भूल गये हैं।
महामना मालवीय जी ने कहा था—उनका मंत्र था—
‘‘ग्रामे-ग्रामे सभाकार्यः ग्रामे-ग्रामे शुभकार्याः ।
पाठशाला मल्लशाला, प्रतिपर्वा महोत्सवाः।।’’
महामना मालवीय जी का यह कार्यक्रम परिवार को, राष्ट्र को, संस्कृति को बलिष्ठ बनाने के लिए है। व्यक्ति को धार्मिक, आदर्शवान, चरित्रवान बनाने के लिए पर्व और त्यौहार सामूहिक रूप से मनाये जाते थे। कथाओं के द्वारा मनुष्य के मस्तिष्क को सुधारते थे। कथा का उद्देश्य यह नहीं था कि उनको निकम्मे बनाकर पाप काटने का रास्ता-तरीका आडम्बर दिखाकर मार्ग से भटका दें। कथा तो आदर्शों को हृदयंगम करने के लिए प्रचलित थी। आज फिर आवश्यकता है कि कथा का वास्तविक स्वरूप सामने लाकर गीता, रामायण के माध्यम से लोकशिक्षण करें।
आज गांव-गांव में पाठशालाओं की आवश्यकता है, जिसमें भारतीय संस्कृति सिखाई जावे। मां-बाप को अपने बच्चे के चरित्र निर्माण पर ध्यान देना चाहिए। स्कूल में तो भौतिक शास्त्र, भूगोल, गणित पढ़ लेता है, परन्तु संस्कार का संस्कृति का शिक्षण तो आपको देना ही होगा। एम.एस.सी. पढ़ भी ली, तो उसकी कोई कीमत नहीं। निकम्मे बने रहेंगे, न श्रमशीलता है न चरित्र है। भारतीय संस्कृति का स्वरूप समझाना होगा, तभी आपकी स्कूली शिक्षा का लाभ होगा। ऐसा बाल संस्कार शालायें खोली जायें जिसमें बालकों के समग्र विकास के लिए शिक्षा दी जाती हो। आजकल सत्संग के नाम पर बेकार की बातें कहते फिरते हैं, इससे काम चलने वाला नहीं।
हर गांव में व्यायाम शाला होनी चाहिए। लाठी चलाने की शिक्षा देनी चाहिए। कमजोर बनकर नहीं समर्थ बनकर जीना सिखाना चाहिए। आक्रमण कमजोर पर होता है। रीछ शेर को नहीं खाता, परन्तु मनुष्य को खा जाता है। सबको समर्थ, शक्तिशाली बनना होगा। समर्थ गुरु रामदास ने मंदिर के साथ-साथ व्यायाम शालायें खुलवायीं। नवयुवकों को मजबूत बनाया। राष्ट्र को मजबूत बनाना है तो स्वस्थ परम्परायें चलानी होंगी। गांव-गांव पर्व-त्यौहार मनाये जायें और समझायें कि इनका महत्व क्या है? पर्व-त्यौहार मनुष्य के मन को उत्थान की तरफ ले जाता है। भगवान अब एक लाख के भोग को छोड़ और ग्वाल-बालों के साथ मक्का की रोटी खा। मक्का की रोटी खोकर तो देख? मखमली गद्दे को छोड़, जमीन पर आओ। भगवान तुम्हें हमारे साथ रहना पड़ेगा। भगवान तू हमारा पिता है। तुमको हमारे साथ रहना ही पड़ेगा।
धर्म का आडम्बर ओढ़े फिरता है जो इस हैवान को इन्सान बनाया जाये। मैं अपने दिन का दर्द कैसे बतलाऊं? मुझे भगवान पर विश्वास है। आज नहीं तो कल मनुष्य का विवेक जागेगा और भारतीय संस्कृति को अपनायेगा। हमारा श्रम व्यर्थ नहीं जायेगा। राष्ट्र को बदलने के लिए हमारा और आपका श्रम व्यर्थ जा ही नहीं सकता। भगवान के रास्ते पर चलने की साधना का नाम ही युग निर्माण योजना है। इस महायज्ञ में जो भी आगे आकर अपना योगदान देगा, भगवान भी उनका ऋणी होगा क्योंकि भगवान का बगीचा सुन्दर बनाने में आपने भी योगदान दिया। भगवान का स्नेह आपको सतत् मिला चला जायेगा।