धर्म-सार
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इतिहास बताता है कि विश्व में सबसे ज्यादा झगड़े अगर किसी के कारण हुए हैं, तो वह धर्म है। वर्तमान में सबसे ज्यादा झगड़े-फसाद जिसके कारण होते हैं, तो वह धर्म ही है। सारी मानव जाति सबसे ज्यादा श्रद्धा-आस्था अगर किसी के प्रति रखती है, तो वह धर्म ही है और सबसे ज्यादा पुनीति एवं सबसे ज्यादा पवित्र अगर किसी को मानती है, तो वह धर्म ही है। दुनिया भर में सबसे ज्यादा जिसके नाम पर दान-पुण्य होता है, वह भी धर्म ही है और विश्व भर में सबसे ज्यादा अगर किसी विषय पर चर्चा होती है, तो भी धर्म ही है और आज के आधुनिक युग में सबसे ज्यादा कत्लेआम अगर किसी के नाम पर होता है, तो वह भी धर्म ही है। वह बात दूसरी है कि यह सब कुछ धर्म की आड़ में होता है। यह सब धर्म की शाखाएं, जिन्हें संप्रदाय कहा जाता है, उनके मानने वाले लोग करते हैं, जिसे शुद्ध रूप में सांप्रदायिकता कहा जाना चाहिए। यहां पर लोगों को यह बात याद रखनी चाहिए कि कोई संप्रदाय, धर्म नहीं हो सकता, और धर्म के नाम पर लड़ने-लड़ाने, मरने-मारने वाले धार्मिक नहीं हो सकते, उन्हें सांप्रदायिक कहना ही उचित होगा। धर्म और संप्रदाय में उतना ही अंतर है, जितना कि सागर और नदी में होता है, लेकिन धर्म के नाम पर झगड़े-फसाद, सामूहिक कत्लेआम, एक ऐसी सच्चाई है जिसे हर इंसान को स्वीकार करना ही पड़ेगा, किन्तु आदमी इसे स्वीकार करते हुए शर्मिंदा होता है।
बावजूद इसके पता नहीं क्या कारण है कि लोग न तो धर्म की सच्चाई को जानने की कोशिश कर रहे हैं और न ही उसका पीछा छोड़ने को तैयार हैं। इतना ही नहीं, धर्म के विरोध में एक भी शब्द सुनने को तैयार नहीं हैं। आज भी लोगों में धर्म के प्रति वैसी ही श्रद्धा कायम है, जैसी कि हजारों-हजार साल पहले थी। लोगों की धर्म के प्रति श्रा में कुछ कमी आएगी यह कहना बहुत मुश्किल है। लोग अपने धर्म के प्रति कितने भावुक और श्रद्धावान हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तथाकथित धर्म के ठेकेदार, धर्म के विरोध में लिखने वाले अपने ही बंधुओं को कत्ल करने तक की छूट दे देते हैं, और उनकी हत्या करवाने के लिए लोगों को आदेश देते हैं। लेकिन फिर भी धर्म-धर्म है। यह उनका धर्म हो सकता है, जैसा कि विश्वास है। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती है कि यह कैसा धर्म है—जो अपने विरुद्ध जरा सी बात भी सहन नहीं कर सकता? यह कैसा धर्म है, जो अपने आपको जरा भी बदलना नहीं चाहता, बल्कि बदलाव चाहने वाले व्यक्ति को ही उल्टे समाप्त कर देना चाहता है? धर्म की ऐसी वीभत्स सोच देखकर तो लगता है कि यह तो धर्म कदापि नहीं हो सकता है। यह तो कुछ और ही है, जो धर्म की आड़ में धर्म को कलंकित करने पर तुला हुआ है। धर्म तो सारी मानवता का कल्याण चाहता है। धर्म तो अपने विरोधी तक को हंसकर गले लगाता है। धर्म वह होता है, जो दुश्मन को भी कहता है कि दोस्त! अगर तुम मुझे मारना ही चाहते हो, तो अवश्य मारना लेकिन पहले मेरे साथ हंसकर जरा दो बातें तो कर लो, उसके बाद तुम अपना काम कर लेना।
ऐसा होता है धर्म। धर्म कहता है—इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जगत में जड़-चेतना का तुच्छ से तुच्छ अंश भी ऐसा नहीं है, जिसके लिए क्रोध किया जा सके। बल्कि इस जगत का हर अंश उतने ही प्रेम का हकदार है, उतनी ममता का हकदार है, जितना कि ईश्वर। अगर उस अंश को हमारे द्वारा प्यार नहीं किया जाता, उसके प्रति करुणा, ममता नहीं दर्शायी जाती तो यह सरासर अन्याय ही होगा—
सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति ।
वास्तव में धर्म का एक ही रूप है और वह है, सारी सृष्टि का कल्याण। सारी मानवता की निर्लिप्त भाव से सेवा और सहानुभूति। यह जीवन सारा का सारा उसी का है। इसमें अपने लिए, कुछ भी नहीं, अगर हम धर्म के अंदर प्रविष्ट हो जाएं तो, जीवन का हर क्षण धर्म बन सकता है। धर्म हमारी आत्मा बन सकती है, धर्म हमारा शरीर बन सकता है, धर्म हमारी बुद्धि बन सकती है, धर्म हमारा मन बन सकता है और हम स्वयं धर्म बन सकते हैं, बशर्ते हम धर्म को धारण करें। अगर हम धर्म को धारण नहीं करते हैं, तो धर्म हमारा परित्याग कर देता है, हम धर्म विहीन हो जाते हैं, और धर्म विहीन जीवन, अस्तित्व विहीन कर देता है:—
धर्म एव हतोहन्ति, धर्मो रक्षति रक्षतः ।
बावजूद इसके पता नहीं क्या कारण है कि लोग न तो धर्म की सच्चाई को जानने की कोशिश कर रहे हैं और न ही उसका पीछा छोड़ने को तैयार हैं। इतना ही नहीं, धर्म के विरोध में एक भी शब्द सुनने को तैयार नहीं हैं। आज भी लोगों में धर्म के प्रति वैसी ही श्रद्धा कायम है, जैसी कि हजारों-हजार साल पहले थी। लोगों की धर्म के प्रति श्रा में कुछ कमी आएगी यह कहना बहुत मुश्किल है। लोग अपने धर्म के प्रति कितने भावुक और श्रद्धावान हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तथाकथित धर्म के ठेकेदार, धर्म के विरोध में लिखने वाले अपने ही बंधुओं को कत्ल करने तक की छूट दे देते हैं, और उनकी हत्या करवाने के लिए लोगों को आदेश देते हैं। लेकिन फिर भी धर्म-धर्म है। यह उनका धर्म हो सकता है, जैसा कि विश्वास है। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती है कि यह कैसा धर्म है—जो अपने विरुद्ध जरा सी बात भी सहन नहीं कर सकता? यह कैसा धर्म है, जो अपने आपको जरा भी बदलना नहीं चाहता, बल्कि बदलाव चाहने वाले व्यक्ति को ही उल्टे समाप्त कर देना चाहता है? धर्म की ऐसी वीभत्स सोच देखकर तो लगता है कि यह तो धर्म कदापि नहीं हो सकता है। यह तो कुछ और ही है, जो धर्म की आड़ में धर्म को कलंकित करने पर तुला हुआ है। धर्म तो सारी मानवता का कल्याण चाहता है। धर्म तो अपने विरोधी तक को हंसकर गले लगाता है। धर्म वह होता है, जो दुश्मन को भी कहता है कि दोस्त! अगर तुम मुझे मारना ही चाहते हो, तो अवश्य मारना लेकिन पहले मेरे साथ हंसकर जरा दो बातें तो कर लो, उसके बाद तुम अपना काम कर लेना।
ऐसा होता है धर्म। धर्म कहता है—इस प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जगत में जड़-चेतना का तुच्छ से तुच्छ अंश भी ऐसा नहीं है, जिसके लिए क्रोध किया जा सके। बल्कि इस जगत का हर अंश उतने ही प्रेम का हकदार है, उतनी ममता का हकदार है, जितना कि ईश्वर। अगर उस अंश को हमारे द्वारा प्यार नहीं किया जाता, उसके प्रति करुणा, ममता नहीं दर्शायी जाती तो यह सरासर अन्याय ही होगा—
सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रति गच्छति ।
वास्तव में धर्म का एक ही रूप है और वह है, सारी सृष्टि का कल्याण। सारी मानवता की निर्लिप्त भाव से सेवा और सहानुभूति। यह जीवन सारा का सारा उसी का है। इसमें अपने लिए, कुछ भी नहीं, अगर हम धर्म के अंदर प्रविष्ट हो जाएं तो, जीवन का हर क्षण धर्म बन सकता है। धर्म हमारी आत्मा बन सकती है, धर्म हमारा शरीर बन सकता है, धर्म हमारी बुद्धि बन सकती है, धर्म हमारा मन बन सकता है और हम स्वयं धर्म बन सकते हैं, बशर्ते हम धर्म को धारण करें। अगर हम धर्म को धारण नहीं करते हैं, तो धर्म हमारा परित्याग कर देता है, हम धर्म विहीन हो जाते हैं, और धर्म विहीन जीवन, अस्तित्व विहीन कर देता है:—
धर्म एव हतोहन्ति, धर्मो रक्षति रक्षतः ।