क्रांति तो धर्म क्षेत्र में भी लानी होगी
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धर्म का भूतकालीन स्वरूप जो भी रहा हो, पर अब उसे विकासवादी और बुद्धिवादी नए युग में ढाला जाएगा। परंपरागत मान्यताओं को जकड़े-पकड़े रहने सेतो अधार्मिकता और अनास्था ही पनपेगी, विज्ञान ने तथ्य और तर्क को मान्यता प्रदान की है। दर्शन को भी इस बदलाव को स्वागत करना होगा। खीज व्यक्त करते रहने पर तो धर्म पक्ष की दुर्बलता ही सिद्ध होगी। आज बुद्धिवाद का ही चारों ओर आधिपत्य नजर आता है। निरंकुश भौतिकवाद की बाढ़ अपनी चरम सीमा पर है। मनुष्य छोटा, बौना होता और सिकुड़ता चला जा रहा है। विलासिता के अतिरिक्त उसे कुछ सूझ ही नहीं पड़ता। दुष्प्रयोजनों के विरत हमारी बुद्धि, चेष्टा और संपदा संसार में नाटकीय वातावरण उत्पन्न करती चली जा रही है। इसका परिणाम किस दुःखद दुर्भाग्य में होगा उसकी कल्पना मात्र से सिहरन उठती, रोमांच हो उठता है।
जीवन और मृत्यु के निर्णायक चौराहे पर खड़ी मनुष्य जाति अपनी मनमर्जी करती रहे और हम मूक दर्शक बने देखते रहें, यह उचित नहीं लगता। इतिहास साक्षी है कि विश्व की सर्वांगीण प्रगति में भारत ने अपने विकास के आरंभ से ही असाधारण योगदान किया है। इस देश के देवमानव सदा से स्वयं को विश्व का नागरिक मानते रहे हैं और क्षेत्र विशेष की परिधि में अपने को सीमित न रखकर समस्त संसार की अवगति को प्रगति में बदलने के लिए भागीरथ प्रयत्न करते रहे हैं। इस देश में निर्वाह की समुचित सुविधाएं रहीं हैं। रत्नगर्भा, शस्य श्यामला भारतभूमि के वरद पुत्रों को कभी किसी प्रकार का अभाव दारिद्रय नहीं रहा। वे समस्त विश्व को अपना सेवा क्षेत्र मानकर सुदूर भूखंडों की अत्यंत कठिन यात्राएं करते रहे हैं। इसे सदैव साधना माना और अविकसित पड़े भूखंडों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अपने ज्ञान-विज्ञान का पूरा अनुदान प्रदान किया। वन्य जीवों जैसे जीवनयापन करने वाले मनुष्यों को उन्होंने कृषि, पशुपालन, शिल्प-व्यवसाय, परिवहन, चिकित्सा, शिक्षा, समाज-संगठन, धर्म-संस्कृति आदि से परिचित कराया और उन प्रगति प्रयासों से उन्हें अभ्यस्त बनाकर सुविकसित स्तर तक पहुंचाया। ऐसे अनुदानों ने ही उसे संसार के कोने-कोने से जगद्गुरु का भाव-भरा सम्मान दिलाया। भारतवर्ष का चक्रवर्ती साम्राज्य विश्व वसुधा के कोने-कोने तक छाया था। यह सब इसलिए संभव हो सका था कि यहां के निवासी सीमित क्षेत्र में अपने स्वार्थों को सीमित नहीं रखे रहे वरन् उन्होंने समस्त विश्व को अपना घर-परिवार और सार्वभौम सुख-शांति को अपनी निजी प्रगति माना। आज की स्थिति भूतकाल की अपेक्षा कहीं अधिक दुर्गतिग्रस्त है। संसार में कहीं भी चैन नहीं, शांति नहीं, संतोष नहीं। उद्वेग और संक्षोभ से आज मनुष्य जाति का प्रत्येक सदस्य बेतरह जल रहा है। यदि आज हमारा चिंतन पूर्व की तरह परिष्कृत रहा होता तो निस्संदेह इस धरती पर तथाकथित स्वर्ग से कहीं अधिक संपन्नता और प्रसन्नता बिखरी पड़ी होती। हुआ उलटा ही। समृद्धि बढ़ी, पर सद्बुद्धि का लोप हो गया। विकास के स्थान पर विनाश का ही पथ-प्रशस्त हुआ।
हमारी स्वयं की परिस्थिति विपन्न होते हुए भी अपनी सांस्कृतिक धरोहर इतनी संपन्न है कि आज की स्थिति में भी विश्व का दार्शनिक क्षेत्र में नेतृत्व करने में सक्षम है। भारत का अध्यात्म इतना उत्कृष्ट है कि उसे किसी देश, जाति और काल की सीमा में नहीं बांधा जा सकता, वरन् सार्वभौम, सर्वकालीन और सर्वजनीन ही कहा जा सकता है। भटकाव को सही राह पर लाने की उसमें पूरी क्षमता है। संसार के अन्य देशों ने पिछले दिनों हमें बहुत कुछ दिया है, हम और कुछ तो नहीं पर उत्कृष्ट स्तर का तत्वदर्शन दे सकते हैं, जिससे भटकी हुई मानव जाति अपनी स्थिति एवं दिशाधारा पर पुनर्विचार करने और दिशा-प्रवाह बदलने हेतु तत्पर हो सके। दर्शन मनुष्य जाति का प्राण है, जीवन है, प्रकाश है, बल है। नास्तिकतावादी भोग-परक दर्शन को उलट दिया जाए और जनमानस में आदर्शवादी उत्कृष्टता को प्रतिष्ठित कर दिया जाए तो स्थिति का कायाकल्प हो सकता है। दुर्बुद्धि की आग में जल रहे संसार को आज भी भारतीय तत्वदर्शन इतना कुछ दे सकने में सक्षम है कि मरण को जीवन में बदला जा सके। यह विश्वव्यापी नवनिर्माण की प्रक्रिया धर्मतंत्र के माध्यम से ही संभव है
जीवन और मृत्यु के निर्णायक चौराहे पर खड़ी मनुष्य जाति अपनी मनमर्जी करती रहे और हम मूक दर्शक बने देखते रहें, यह उचित नहीं लगता। इतिहास साक्षी है कि विश्व की सर्वांगीण प्रगति में भारत ने अपने विकास के आरंभ से ही असाधारण योगदान किया है। इस देश के देवमानव सदा से स्वयं को विश्व का नागरिक मानते रहे हैं और क्षेत्र विशेष की परिधि में अपने को सीमित न रखकर समस्त संसार की अवगति को प्रगति में बदलने के लिए भागीरथ प्रयत्न करते रहे हैं। इस देश में निर्वाह की समुचित सुविधाएं रहीं हैं। रत्नगर्भा, शस्य श्यामला भारतभूमि के वरद पुत्रों को कभी किसी प्रकार का अभाव दारिद्रय नहीं रहा। वे समस्त विश्व को अपना सेवा क्षेत्र मानकर सुदूर भूखंडों की अत्यंत कठिन यात्राएं करते रहे हैं। इसे सदैव साधना माना और अविकसित पड़े भूखंडों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अपने ज्ञान-विज्ञान का पूरा अनुदान प्रदान किया। वन्य जीवों जैसे जीवनयापन करने वाले मनुष्यों को उन्होंने कृषि, पशुपालन, शिल्प-व्यवसाय, परिवहन, चिकित्सा, शिक्षा, समाज-संगठन, धर्म-संस्कृति आदि से परिचित कराया और उन प्रगति प्रयासों से उन्हें अभ्यस्त बनाकर सुविकसित स्तर तक पहुंचाया। ऐसे अनुदानों ने ही उसे संसार के कोने-कोने से जगद्गुरु का भाव-भरा सम्मान दिलाया। भारतवर्ष का चक्रवर्ती साम्राज्य विश्व वसुधा के कोने-कोने तक छाया था। यह सब इसलिए संभव हो सका था कि यहां के निवासी सीमित क्षेत्र में अपने स्वार्थों को सीमित नहीं रखे रहे वरन् उन्होंने समस्त विश्व को अपना घर-परिवार और सार्वभौम सुख-शांति को अपनी निजी प्रगति माना। आज की स्थिति भूतकाल की अपेक्षा कहीं अधिक दुर्गतिग्रस्त है। संसार में कहीं भी चैन नहीं, शांति नहीं, संतोष नहीं। उद्वेग और संक्षोभ से आज मनुष्य जाति का प्रत्येक सदस्य बेतरह जल रहा है। यदि आज हमारा चिंतन पूर्व की तरह परिष्कृत रहा होता तो निस्संदेह इस धरती पर तथाकथित स्वर्ग से कहीं अधिक संपन्नता और प्रसन्नता बिखरी पड़ी होती। हुआ उलटा ही। समृद्धि बढ़ी, पर सद्बुद्धि का लोप हो गया। विकास के स्थान पर विनाश का ही पथ-प्रशस्त हुआ।
हमारी स्वयं की परिस्थिति विपन्न होते हुए भी अपनी सांस्कृतिक धरोहर इतनी संपन्न है कि आज की स्थिति में भी विश्व का दार्शनिक क्षेत्र में नेतृत्व करने में सक्षम है। भारत का अध्यात्म इतना उत्कृष्ट है कि उसे किसी देश, जाति और काल की सीमा में नहीं बांधा जा सकता, वरन् सार्वभौम, सर्वकालीन और सर्वजनीन ही कहा जा सकता है। भटकाव को सही राह पर लाने की उसमें पूरी क्षमता है। संसार के अन्य देशों ने पिछले दिनों हमें बहुत कुछ दिया है, हम और कुछ तो नहीं पर उत्कृष्ट स्तर का तत्वदर्शन दे सकते हैं, जिससे भटकी हुई मानव जाति अपनी स्थिति एवं दिशाधारा पर पुनर्विचार करने और दिशा-प्रवाह बदलने हेतु तत्पर हो सके। दर्शन मनुष्य जाति का प्राण है, जीवन है, प्रकाश है, बल है। नास्तिकतावादी भोग-परक दर्शन को उलट दिया जाए और जनमानस में आदर्शवादी उत्कृष्टता को प्रतिष्ठित कर दिया जाए तो स्थिति का कायाकल्प हो सकता है। दुर्बुद्धि की आग में जल रहे संसार को आज भी भारतीय तत्वदर्शन इतना कुछ दे सकने में सक्षम है कि मरण को जीवन में बदला जा सके। यह विश्वव्यापी नवनिर्माण की प्रक्रिया धर्मतंत्र के माध्यम से ही संभव है