पाप और पुण्य का रहस्य
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श्रेष्ठ कार्य वह है जो श्रेष्ठ उद्देश्य के लिए किया जाता है। उत्तम कार्यों की क्रिया-प्रणाली भी प्रायः उत्तम ही होती है। दूसरों की सेवा या सहायता करनी है तो प्रायः उसके लिए मधुर भाषण, नम्रता, दान, उपहार आदि द्वारा ही उसे संतुष्ट किया जाता है, परंतु कई बार इसके विपरीत अवसर भी आते हैं, कई बार ऐसी स्थिति भी सामने आती है कि सदुद्देश्य होते हुए भी, भावनाएं उच्च, श्रेष्ठ, सात्विक होते हुए भी क्रिया-प्रणाली ऐसी कठोर, तीक्ष्ण एवं कटु बनानी पड़ती है कि जिससे लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि कहीं यह सब दुर्भाव से प्रेरित होकर तो नहीं किया गया। ऐसे अवसरों पर वास्तविकता का निर्णय करने में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है।
सीधे-सादे अवसरों पर सीधी प्रणाली से भली प्रकार काम चल जाता है। किसी भूखे-प्यासे की सहायता करनी हो तो वह कार्य अन्न-जल देने के सीधे-सादे तरीके से चल जाता है। इसी प्रकार किसी दुखी या अभावग्रस्त को अभीष्ट वस्तुएं देकर उसकी सेवा की जा सकती है। धर्मशाला, कुआं, बावड़ी, बगीचा, पाठशाला, गौशाला, अनाथालय, औषधालय, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, प्याऊ आदि के द्वारा लोकसेवा की जा सकती है और यज्ञ, कथा कीर्तन, सत्संग, उपदेश, सत्साहित्य आदि द्वारा जनहित किया जाता है। ऐसे कार्य निश्चय ही श्रेष्ठ हैं और उनकी आवश्यकताएं एवं उपयोगिता सर्वत्र स्वीकार की जा सकती हैं।
परंतु कई बार इस प्रकार की सेवा की भी बड़ी आवश्यकता होती है जो प्रत्यक्ष में बुराई मालूम पड़ती है और उसके करने वाले को अपयश ओढ़ना पड़ता है। इस मार्ग को अपनाने का साहस हर किसी में नहीं होता। बिरले ही बहादुर इस प्रकार की दुस्साहसपूर्ण सेवा करने को तैयार रहते हैं। दुष्ट और अज्ञानियों को उस मार्ग से छुड़ाना जिस पर कि वे बड़ी ममता और अहंकार के साथ प्रवृत्त हो रहे हैं, कोई साधारण काम नहीं है। सीधे आदमी सीधे तरीके से मान जाते हैं। उनकी भूल ज्ञान से, ज्ञान तर्क से, समझाने से सुधर जाती है, पर जिनकी मनोभूमि अज्ञानांधकार से कलुषित हो रही है और साथ ही जिसके पास कुछ शक्ति भी है, वे ऐसे मदांध हो जाते हैं कि सीधी-सादी क्रिया-प्रणाली का उन पर प्रायः कुछ भी असर नहीं होता है।
मनुष्य शरीर धारण करने पर भी जिनमें पशुत्व की प्रबलता और प्रधानता है, ऐसे प्राणियों की कमी नहीं है। ऐसे प्राणी सज्जनता, साधुता और सात्विकता का कुछ भी मूल्यांकन नहीं करते। ज्ञान से, तर्क से, नम्रता से, सज्जनता से, सहनशीलता से उन्हें अनीति के दुखदाई मार्ग पर से पीछे नहीं हटाया जा सकता है। पशु समझाने से नहीं मानता। उससे कितनी ही प्रार्थना की जाए, शिक्षा दी जाए, उदारता बरती जाए, वह इससे कुछ भी प्रभावित नहीं होगा और न अपनी कुचाल छोड़ेगा। पशु केवल दो चीजें पहचानता है—एक लोभ, दूसरा भय। दाना, घास खिला कर उसे ललचा कर कहीं भी ले जाइए, वह आपके पीछे-पीछे चलेगा या लाठी का डर दिखाकर जिधर चाहें उधर ले जाया जा सकता है। भय या लोभ द्वारा अज्ञानियों को, कुमार्गगामियों को, पशुओं को कुमार्ग से विरत और सन्मार्ग में प्रवृत्त कराया जा सकता है।
भय उत्पन्न करने के लिए दंड का आश्रय लिया जाता है। लोभ के लिए कोई ऐसा आकर्षण उसके सामने उपस्थित करना पड़ता है जो उसके लिए आज की अपेक्षा भी अधिक सुखदायी हो। इसी प्रकार उसके सामने कोई ऐसा डर खड़ा कर दिया जाए जिससे वह घबरा जाए और अपने ऊपर इतनी भयंकर आपत्ति अनुभव करे जिसकी तुलना में अपने वर्तमान कुटेवों को छोड़ना उसे लाभदायक मालूम हो तो वह उसे छोड़ सकता है। नशेबाजी, व्यभिचार आदि बुराईयों के दुष्परिणाम को बढ़ा-चढ़ाकर, बताया जाए तो उसमें कुछ दोष नहीं होता। कारण कि बाल बुद्धि लोगों को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करने के लिए उस अत्युक्ति का सहारा लिया गया है। गंगास्नान, तीर्थयात्रा, ब्रह्मचर्य, दान आदि के अत्युक्तिपूर्ण महात्म्य हमारे धर्म ग्रंथों में भरे पड़े हैं। उन्हें असत्य ठहराने का दुस्साहस कोई विचारवान व्यक्ति कर नहीं सकता, क्योंकि आज जनता जिसमें बाल-बुद्धि की प्रधानता रहती है, बिना विशेष भय और बिना विशेष लोभ के उच्चता के कष्टमय मार्ग पर चलने के लिए कदापि सहमत नहीं हो सकती। स्वर्ग का आकर्षक आनंददायक वर्णन और नरक का भयंकर रोमांचकारी, दुखदायी चित्रण इसी दृष्टि से किया है कि इस प्रबल लोभ या भय से प्रभावित होकर लोग अनीति का मार्ग छोड़कर नीति का मार्ग अपनाएं। स्वर्ग-नरक की इतनी आलंकारिक कल्पनाएं रचने वालों को क्या हम झूंठा ठहराएं? नहीं, यदि हम ऐसा करेंगे तो यह पहले सिरे की मूर्खता होगी।
संसार में अज्ञानग्रस्त, स्वार्थी, नीच मनोवृत्ति वाले बाल-बुद्धि लोगों की कमी नहीं है। उनकी सेवा, उनकी इच्छाएं पूर्ण करने में सहायक बनकर नहीं, वरन् बाधक बनकर ही की जा सकती हैं। बालक हर घड़ी गोदी में चढ़ना चाहता है, स्कूल जाने से जी चुराता है, पैसे चुरा ले जाता है या और कुटेव सीख रहा है, उसके साथ उदारता बरतने, उसके कार्यों में सहायक होने का अर्थ तो उसके साथ शत्रुता करना होगा। इस प्रकार तो वह बालक बिल्कुल बिगड़ जाएगा और उसका भविष्य अंधकारमय हो जावेगा। कोई रोगी है, कुपथ्य करना चाहता है या सन्निपात ग्रस्त होकर अंड-बंड कर्म करने को कहता है, उसकी इच्छापूर्ति करने का अर्थ होगा—उसे अकालमृत्यु के मुख में ढकेल देना। इस प्रकार के बालकों और रोगियों की सच्ची सेवा इसी में है कि वह जिस मार्ग पर आज चल रहे हैं, जो चाहते हैं उसमें बाधा उपस्थित की जाए, उसका मनोरथ पूरा न होने दिया जाए। इस कार्य से सीधी-सादी तरकीबों से ज्ञान और विवेकमय उपदेश देने से कई बार सफलता नहीं मिलती और उनके हित का ध्यान रखते हुए विवेकवान और निःस्वार्थ पुरुषों को भी असत्य या छल का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है। ऐसे छल या असत्य को निंदित नहीं ठहराया जा सकता। रोगी या बालकों को फुसलाकर उन्हें ठीक मार्ग पर रखने के लिए यदि झूठ बोला जाए, डर या लोभ दिखाया जाए, किसी अत्युक्ति का प्रयोग किया जाए तो उसे निन्दनीय नहीं कहा जाएगा।
आसुरी शक्तियां जब अत्यधिक प्रबल हो जाती हैं और उनको वश में करने के लिए सीधे-सादे तरीके असफल हैं तो कांटे से कांटा निकालने की—‘‘शठे शाठ्यं समाचरेत’’ की नीति अपनानी पड़ती है। सिंह व्याघ्र आदि का पकड़ना या मारना, सीधे-सादे तरीके से नहीं हो सकता, उसके सामने जाकर कुश्ती लड़ना या पकड़ लाना आदमी की शक्ति के बाहर है। जाल में फंसाकर, छिपाकर, बंदूक आदि हथियार का आश्रय लेकर ही उन्हें पकड़ा या मारा जा सकता है।
मोटी दृष्टि से देखने में यह क्रियाएं, छल धोखेबाजी, कायरतापूर्ण आक्रमण कही जा सकती हैं, हिंसक जंतुओं की भयंकर करतूतें, उनको रोकने की अनिवार्य आवश्यकता एवं मनुष्य की अल्पशक्ति पर विचार करते हुए यह उचित प्रतीत होता है कि इन हिंसक जंतुओं को जिस प्रकार से भी छल-बल से परास्त किया जा सकता है तो वैसा भी निःसंकोच करना चाहिए। प्राचीन इतिहास पर हम दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि इस नीति का अवलंबन अनेक महापुरुषों को करना पड़ा। धर्म की स्थूल मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़ा है। इस उल्लंघन में उन्होंने लोकहित का, धर्म वृद्धि का, अधर्म विनाश का ध्यान अपनी पूर्ण सद्भावना के साथ रखा था इसलिए उनको उस पाप का भागी नहीं होना पड़ा जो साधारणतया धर्म-मर्यादाओं के उल्लंघन करने पर होता है।
भस्मासुर ने जब वरदान प्राप्त कर लिया कि मैं जिस किसी के भी सिर के ऊपर हाथ रख दूं वही भस्म हो जाए तो भी उसने महादेवजी को ही भस्म करने की ठानी ताकि सुंदरी पार्वती को वह प्राप्त कर ले। भस्मासुर शंकर जी के सिर पर हाथ रखकर उन्हें भस्म करने के लिए उनके पीछे दौड़ा। शंकर जी अपने प्राण बचाकर भागे। विष्णु भगवान ने देखा कि यह सारी उलझन उत्पन्न हुई। असुर बलवान है, उसे समाप्त करने के लिए छल का उपयोग करना चाहिए। वे पार्वती का रूप बनाकर पहुंचे और कहा—‘‘असुरराज मैं आपको बड़ा प्रेम करती हूं। आपके साथ रहना चाहती हूं, पर एक बात शंकर जी की मुझे बहुत पसंद है, और वह है उनका नृत्य। आप भी यदि वैसा नृत्य कर सकें तो मैं इसी क्षण से आपके साथ चलने को तैयार हूं।’’ भस्मासुर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने पार्वती के साथ नृत्य करते समय अपना हाथ सिर पर रखा और स्वयं जलकर भस्म हो गया। विष्णु ने अपने छल बल से उस प्रचंड असुर को सहज ही नष्ट कर दिया।
समुद्र मंथन के बाद चौदह रत्न निकले। अन्य रत्न तो बंट गए, पर अमृत के बंटवारे पर काफी झगड़ा हुआ। देवता और असुर दोनों ही इस बात पर तुले हुए थे कि अमृत हमें मिलना चाहिए। विष्णु ने देखा कि ऐसे अवसरों पर छल का अचूक हथियार ही काम देता है। उन्होंने मोहिनी रूप बनाया, असुरों को लुभाया, अमृत बांटने के लिए असुरों की ओर से प्रतिनिधि बने, देवताओं को सारा अमृत पिला दिया। असुर बगलें झांकते रह गए। उन्होंने देखा कि हमारे साथ भारी विश्वासघात हुआ, पर मोहिनी रूप विष्णु का उद्देश्य तो महान था। असुरों के साथ छल और विश्वासघात करने का दोष उनको छू भी न सकता था।
राजा बलि को धोखे में डालने के लिए बामन अंगुल का छोटा सा रूप साढ़े तीन कदम भूमि मांगना और भूमि का नापते समय इतना विशाल शरीर बना लेना कि तीन कदम के लिए बलि को अपना शरीर देना पड़ा। इसे स्थूल दृष्टि वाले क्या कहेंगे?
सती वृंदा का सतीत्व नष्ट करने के लिए भगवान जालंधर का रूप बनाकर जाना और उसका सतीत्व नष्ट करना मोटे तौर से धर्म नहीं कहा जा सकता है, फिर भी इसलिए उचित था, क्योंकि जालंधर की मृत्यु इसके किए बिना नहीं हो सकती थी और जालंधर ऐसा दुष्ट था कि उसके जीवित रहने से प्रजा पर विपत्ति के पहाड़ टूट रहे थे। राम ने वृक्ष की आड़ में छिपकर बाली को मारने में युद्ध के धर्म नियमों का उल्लंघन किया। इसे क्या कहा जाएगा?
महाभारत में आइए। धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वत्थामा की मृत्यु का छलपूर्ण समर्थन किया। अर्जुन ने शिखंडी की ओट में खड़े होकर भीष्म को मारा, कर्ण के रथ का पहिया गढ़ जाने पर भी उसका वध किया गया। धड़ से नीचे भाग को घायल करना वर्जित होने पर भी भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा पर गदा प्रहार हुआ। क्या ये सब धर्म युद्ध के लक्षण हैं? पर वहां धर्मयुद्ध के नियमों को बरतने का लक्षण ही कहां था? आपत्ति धर्म के अनुसार घोर दुर्भिक्ष पड़ने पर, प्राण संकट में होने पर, अपने शरीर को लोकहित के लिए जीवित रखने की आवश्यकता अनुभव करते हुए विश्वामित्र ऋषि, चांडाल के घर कुत्ते का मांस चुराते हैं। चांडाल उन्हें पकड़ लेता है और चोरी करने के लिए ऋषि की भत्सर्ना करता है, विश्वामित्र उसे सविस्तार समझाते हैं कि मूर्ख तू धर्म को जितना स्थूल समझता है वह उतना स्थूल नहीं। किसी महान उद्देश्य के लिए अधर्म करना भी धर्म है। इसी प्रकार एक बार अकाल पड़ने पर अपनी लोक-हितैषी जीवन की रक्षा के लिए उपस्ति ऋषि को एक अन्त्यज के झूठे उड़द खाकर अपने प्राण बचाने पड़े थे।
प्रहलाद का पिता की आज्ञा उल्लंघन करना, विभीषण का भाई को त्यागना, भरत का माता की भत्सर्ना करना, बलि का गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा न मानना, गोपियों का परपुरुष श्रीकृष्ण से प्रेम करना, मीरा का अपने पति को त्याग देना, लौकिक दृष्टि से धर्म की स्थूल मर्यादा के अनुसार यद्यपि अनुचित कहे जा सकते हैं, पर धर्म की सूक्ष्म दृष्टि से इसमें सब कुछ उचित ही हुआ है। परशुराम जी द्वारा अपनी माता का सिर काटा जाना भी इसी प्रकार औचित्य युक्त था।
हिंदू धर्म के रक्षक छत्रपति शिवाजी द्वारा जिस प्रकार अफजल खां का वध किया गया, जिस प्रकार यह निकल भागे, उसे भी कोई मूढ़मति लोग छल कह सकते हैं। भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सरकार को उलटने के लिए जिस नीति को अपनाया था, उसमें चोरी, डकैती, जासूसी, वेश बदलना, हत्या, कत्ल, झूठ बोलना, छल, विश्वासघात कह सकते हैं। इन कार्यों को निरंतर करते रहने पर भी वे कितने धर्मात्मा कहलाए। असहाय दीन-दुखी प्रजा की करुणाजनक स्थिति से द्रवित होकर अन्यायी शासकों को उलटने का उन्होंने निश्चय किया था। कानून की पोथियों ने भले ही उन्हें दोषी ठहराया और उन्हें कठोरतम दंड दिए परमात्मा की दृष्टि में, धर्म तत्वज्ञान की कसौटी पर वे कदापि पापी घोषित नहीं किए जावेंगे।
सुनते हैं कि प्राचीनकाल में कोई कोई डाकू भी अमीरों को लूटकर प्राप्त धर को गरीबों में बांटते थे। इस प्रकार की भावनाएं कानून के विपरीत होते हुए तात्विक दृष्टि से हेय नहीं है। राजनीति के नेता, युद्ध के सेनापति, सरकार के गुप्तचर विभाग के कर्मचारी इस तथ्य को अपनी विचारधारा का प्रधान अंग मानकर कार्य करते हैं। यदि वे सत्य और निष्कपटता की स्थूल परिभाषा के अनुसार अपना कार्य करने लगें तो उनका कार्य एक दिन भी चलना असंभव है।
इन सब बातों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे अंतःकरण में सत्य, प्रेम, न्याय, त्याग, उदारता, संयम, परमार्थ आदि की उच्च भावनाओं का होना आवश्यक है। उनकी जितनी अधिक मात्रा हो उत्तम है, पर संसार के उन व्यक्तियों के साथ जो अभी अज्ञान-पाप के असर से बेतरह पीड़ित हो रहे हैं, काफी सावधानी बरतने की आवश्यकता है। उनकी आत्मा का कल्याण हो, वे अनीति से छूटें, इस भावना के साथ यदि उन्हें भय या लोभ से प्रभावित करके सन्मार्ग पर लाया जा सके तो उसमें डरने की कोई बात नहीं है। चोर, डाकू, जेबकट, भ्रष्टाचारी, दुष्टात्मा लोगों के भेद छल करके यदि मालूम कर लिए जाएं और उन्हें पकड़वा दिया जाए तो इसमें बुराई की कोई बात नहीं है। ऐसे अवसरों पर हमें अपनी धर्मभीरुता को लोकहित की तुलना में पीछे ही रखना चाहिए। शास्त्र में ऐसे कितने ही वचन हैं जिनमें कहा गया है कि—सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त हुआ असत्य दुर्भाव के लिए प्रयोग हुए सत्य की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। क्रिया की अपेक्षा भावना का ही महत्व अधिक है। यदि उच्च उद्देश्य के लिए निन्दित कार्य भी किया जाए तो उससे भी लोकहित ही होता है और वह भी धर्म कार्य के समान ही पुण्यफल प्रदान करता है
सीधे-सादे अवसरों पर सीधी प्रणाली से भली प्रकार काम चल जाता है। किसी भूखे-प्यासे की सहायता करनी हो तो वह कार्य अन्न-जल देने के सीधे-सादे तरीके से चल जाता है। इसी प्रकार किसी दुखी या अभावग्रस्त को अभीष्ट वस्तुएं देकर उसकी सेवा की जा सकती है। धर्मशाला, कुआं, बावड़ी, बगीचा, पाठशाला, गौशाला, अनाथालय, औषधालय, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, प्याऊ आदि के द्वारा लोकसेवा की जा सकती है और यज्ञ, कथा कीर्तन, सत्संग, उपदेश, सत्साहित्य आदि द्वारा जनहित किया जाता है। ऐसे कार्य निश्चय ही श्रेष्ठ हैं और उनकी आवश्यकताएं एवं उपयोगिता सर्वत्र स्वीकार की जा सकती हैं।
परंतु कई बार इस प्रकार की सेवा की भी बड़ी आवश्यकता होती है जो प्रत्यक्ष में बुराई मालूम पड़ती है और उसके करने वाले को अपयश ओढ़ना पड़ता है। इस मार्ग को अपनाने का साहस हर किसी में नहीं होता। बिरले ही बहादुर इस प्रकार की दुस्साहसपूर्ण सेवा करने को तैयार रहते हैं। दुष्ट और अज्ञानियों को उस मार्ग से छुड़ाना जिस पर कि वे बड़ी ममता और अहंकार के साथ प्रवृत्त हो रहे हैं, कोई साधारण काम नहीं है। सीधे आदमी सीधे तरीके से मान जाते हैं। उनकी भूल ज्ञान से, ज्ञान तर्क से, समझाने से सुधर जाती है, पर जिनकी मनोभूमि अज्ञानांधकार से कलुषित हो रही है और साथ ही जिसके पास कुछ शक्ति भी है, वे ऐसे मदांध हो जाते हैं कि सीधी-सादी क्रिया-प्रणाली का उन पर प्रायः कुछ भी असर नहीं होता है।
मनुष्य शरीर धारण करने पर भी जिनमें पशुत्व की प्रबलता और प्रधानता है, ऐसे प्राणियों की कमी नहीं है। ऐसे प्राणी सज्जनता, साधुता और सात्विकता का कुछ भी मूल्यांकन नहीं करते। ज्ञान से, तर्क से, नम्रता से, सज्जनता से, सहनशीलता से उन्हें अनीति के दुखदाई मार्ग पर से पीछे नहीं हटाया जा सकता है। पशु समझाने से नहीं मानता। उससे कितनी ही प्रार्थना की जाए, शिक्षा दी जाए, उदारता बरती जाए, वह इससे कुछ भी प्रभावित नहीं होगा और न अपनी कुचाल छोड़ेगा। पशु केवल दो चीजें पहचानता है—एक लोभ, दूसरा भय। दाना, घास खिला कर उसे ललचा कर कहीं भी ले जाइए, वह आपके पीछे-पीछे चलेगा या लाठी का डर दिखाकर जिधर चाहें उधर ले जाया जा सकता है। भय या लोभ द्वारा अज्ञानियों को, कुमार्गगामियों को, पशुओं को कुमार्ग से विरत और सन्मार्ग में प्रवृत्त कराया जा सकता है।
भय उत्पन्न करने के लिए दंड का आश्रय लिया जाता है। लोभ के लिए कोई ऐसा आकर्षण उसके सामने उपस्थित करना पड़ता है जो उसके लिए आज की अपेक्षा भी अधिक सुखदायी हो। इसी प्रकार उसके सामने कोई ऐसा डर खड़ा कर दिया जाए जिससे वह घबरा जाए और अपने ऊपर इतनी भयंकर आपत्ति अनुभव करे जिसकी तुलना में अपने वर्तमान कुटेवों को छोड़ना उसे लाभदायक मालूम हो तो वह उसे छोड़ सकता है। नशेबाजी, व्यभिचार आदि बुराईयों के दुष्परिणाम को बढ़ा-चढ़ाकर, बताया जाए तो उसमें कुछ दोष नहीं होता। कारण कि बाल बुद्धि लोगों को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करने के लिए उस अत्युक्ति का सहारा लिया गया है। गंगास्नान, तीर्थयात्रा, ब्रह्मचर्य, दान आदि के अत्युक्तिपूर्ण महात्म्य हमारे धर्म ग्रंथों में भरे पड़े हैं। उन्हें असत्य ठहराने का दुस्साहस कोई विचारवान व्यक्ति कर नहीं सकता, क्योंकि आज जनता जिसमें बाल-बुद्धि की प्रधानता रहती है, बिना विशेष भय और बिना विशेष लोभ के उच्चता के कष्टमय मार्ग पर चलने के लिए कदापि सहमत नहीं हो सकती। स्वर्ग का आकर्षक आनंददायक वर्णन और नरक का भयंकर रोमांचकारी, दुखदायी चित्रण इसी दृष्टि से किया है कि इस प्रबल लोभ या भय से प्रभावित होकर लोग अनीति का मार्ग छोड़कर नीति का मार्ग अपनाएं। स्वर्ग-नरक की इतनी आलंकारिक कल्पनाएं रचने वालों को क्या हम झूंठा ठहराएं? नहीं, यदि हम ऐसा करेंगे तो यह पहले सिरे की मूर्खता होगी।
संसार में अज्ञानग्रस्त, स्वार्थी, नीच मनोवृत्ति वाले बाल-बुद्धि लोगों की कमी नहीं है। उनकी सेवा, उनकी इच्छाएं पूर्ण करने में सहायक बनकर नहीं, वरन् बाधक बनकर ही की जा सकती हैं। बालक हर घड़ी गोदी में चढ़ना चाहता है, स्कूल जाने से जी चुराता है, पैसे चुरा ले जाता है या और कुटेव सीख रहा है, उसके साथ उदारता बरतने, उसके कार्यों में सहायक होने का अर्थ तो उसके साथ शत्रुता करना होगा। इस प्रकार तो वह बालक बिल्कुल बिगड़ जाएगा और उसका भविष्य अंधकारमय हो जावेगा। कोई रोगी है, कुपथ्य करना चाहता है या सन्निपात ग्रस्त होकर अंड-बंड कर्म करने को कहता है, उसकी इच्छापूर्ति करने का अर्थ होगा—उसे अकालमृत्यु के मुख में ढकेल देना। इस प्रकार के बालकों और रोगियों की सच्ची सेवा इसी में है कि वह जिस मार्ग पर आज चल रहे हैं, जो चाहते हैं उसमें बाधा उपस्थित की जाए, उसका मनोरथ पूरा न होने दिया जाए। इस कार्य से सीधी-सादी तरकीबों से ज्ञान और विवेकमय उपदेश देने से कई बार सफलता नहीं मिलती और उनके हित का ध्यान रखते हुए विवेकवान और निःस्वार्थ पुरुषों को भी असत्य या छल का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है। ऐसे छल या असत्य को निंदित नहीं ठहराया जा सकता। रोगी या बालकों को फुसलाकर उन्हें ठीक मार्ग पर रखने के लिए यदि झूठ बोला जाए, डर या लोभ दिखाया जाए, किसी अत्युक्ति का प्रयोग किया जाए तो उसे निन्दनीय नहीं कहा जाएगा।
आसुरी शक्तियां जब अत्यधिक प्रबल हो जाती हैं और उनको वश में करने के लिए सीधे-सादे तरीके असफल हैं तो कांटे से कांटा निकालने की—‘‘शठे शाठ्यं समाचरेत’’ की नीति अपनानी पड़ती है। सिंह व्याघ्र आदि का पकड़ना या मारना, सीधे-सादे तरीके से नहीं हो सकता, उसके सामने जाकर कुश्ती लड़ना या पकड़ लाना आदमी की शक्ति के बाहर है। जाल में फंसाकर, छिपाकर, बंदूक आदि हथियार का आश्रय लेकर ही उन्हें पकड़ा या मारा जा सकता है।
मोटी दृष्टि से देखने में यह क्रियाएं, छल धोखेबाजी, कायरतापूर्ण आक्रमण कही जा सकती हैं, हिंसक जंतुओं की भयंकर करतूतें, उनको रोकने की अनिवार्य आवश्यकता एवं मनुष्य की अल्पशक्ति पर विचार करते हुए यह उचित प्रतीत होता है कि इन हिंसक जंतुओं को जिस प्रकार से भी छल-बल से परास्त किया जा सकता है तो वैसा भी निःसंकोच करना चाहिए। प्राचीन इतिहास पर हम दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि इस नीति का अवलंबन अनेक महापुरुषों को करना पड़ा। धर्म की स्थूल मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़ा है। इस उल्लंघन में उन्होंने लोकहित का, धर्म वृद्धि का, अधर्म विनाश का ध्यान अपनी पूर्ण सद्भावना के साथ रखा था इसलिए उनको उस पाप का भागी नहीं होना पड़ा जो साधारणतया धर्म-मर्यादाओं के उल्लंघन करने पर होता है।
भस्मासुर ने जब वरदान प्राप्त कर लिया कि मैं जिस किसी के भी सिर के ऊपर हाथ रख दूं वही भस्म हो जाए तो भी उसने महादेवजी को ही भस्म करने की ठानी ताकि सुंदरी पार्वती को वह प्राप्त कर ले। भस्मासुर शंकर जी के सिर पर हाथ रखकर उन्हें भस्म करने के लिए उनके पीछे दौड़ा। शंकर जी अपने प्राण बचाकर भागे। विष्णु भगवान ने देखा कि यह सारी उलझन उत्पन्न हुई। असुर बलवान है, उसे समाप्त करने के लिए छल का उपयोग करना चाहिए। वे पार्वती का रूप बनाकर पहुंचे और कहा—‘‘असुरराज मैं आपको बड़ा प्रेम करती हूं। आपके साथ रहना चाहती हूं, पर एक बात शंकर जी की मुझे बहुत पसंद है, और वह है उनका नृत्य। आप भी यदि वैसा नृत्य कर सकें तो मैं इसी क्षण से आपके साथ चलने को तैयार हूं।’’ भस्मासुर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने पार्वती के साथ नृत्य करते समय अपना हाथ सिर पर रखा और स्वयं जलकर भस्म हो गया। विष्णु ने अपने छल बल से उस प्रचंड असुर को सहज ही नष्ट कर दिया।
समुद्र मंथन के बाद चौदह रत्न निकले। अन्य रत्न तो बंट गए, पर अमृत के बंटवारे पर काफी झगड़ा हुआ। देवता और असुर दोनों ही इस बात पर तुले हुए थे कि अमृत हमें मिलना चाहिए। विष्णु ने देखा कि ऐसे अवसरों पर छल का अचूक हथियार ही काम देता है। उन्होंने मोहिनी रूप बनाया, असुरों को लुभाया, अमृत बांटने के लिए असुरों की ओर से प्रतिनिधि बने, देवताओं को सारा अमृत पिला दिया। असुर बगलें झांकते रह गए। उन्होंने देखा कि हमारे साथ भारी विश्वासघात हुआ, पर मोहिनी रूप विष्णु का उद्देश्य तो महान था। असुरों के साथ छल और विश्वासघात करने का दोष उनको छू भी न सकता था।
राजा बलि को धोखे में डालने के लिए बामन अंगुल का छोटा सा रूप साढ़े तीन कदम भूमि मांगना और भूमि का नापते समय इतना विशाल शरीर बना लेना कि तीन कदम के लिए बलि को अपना शरीर देना पड़ा। इसे स्थूल दृष्टि वाले क्या कहेंगे?
सती वृंदा का सतीत्व नष्ट करने के लिए भगवान जालंधर का रूप बनाकर जाना और उसका सतीत्व नष्ट करना मोटे तौर से धर्म नहीं कहा जा सकता है, फिर भी इसलिए उचित था, क्योंकि जालंधर की मृत्यु इसके किए बिना नहीं हो सकती थी और जालंधर ऐसा दुष्ट था कि उसके जीवित रहने से प्रजा पर विपत्ति के पहाड़ टूट रहे थे। राम ने वृक्ष की आड़ में छिपकर बाली को मारने में युद्ध के धर्म नियमों का उल्लंघन किया। इसे क्या कहा जाएगा?
महाभारत में आइए। धर्मराज युधिष्ठिर ने अश्वत्थामा की मृत्यु का छलपूर्ण समर्थन किया। अर्जुन ने शिखंडी की ओट में खड़े होकर भीष्म को मारा, कर्ण के रथ का पहिया गढ़ जाने पर भी उसका वध किया गया। धड़ से नीचे भाग को घायल करना वर्जित होने पर भी भीम द्वारा दुर्योधन की जंघा पर गदा प्रहार हुआ। क्या ये सब धर्म युद्ध के लक्षण हैं? पर वहां धर्मयुद्ध के नियमों को बरतने का लक्षण ही कहां था? आपत्ति धर्म के अनुसार घोर दुर्भिक्ष पड़ने पर, प्राण संकट में होने पर, अपने शरीर को लोकहित के लिए जीवित रखने की आवश्यकता अनुभव करते हुए विश्वामित्र ऋषि, चांडाल के घर कुत्ते का मांस चुराते हैं। चांडाल उन्हें पकड़ लेता है और चोरी करने के लिए ऋषि की भत्सर्ना करता है, विश्वामित्र उसे सविस्तार समझाते हैं कि मूर्ख तू धर्म को जितना स्थूल समझता है वह उतना स्थूल नहीं। किसी महान उद्देश्य के लिए अधर्म करना भी धर्म है। इसी प्रकार एक बार अकाल पड़ने पर अपनी लोक-हितैषी जीवन की रक्षा के लिए उपस्ति ऋषि को एक अन्त्यज के झूठे उड़द खाकर अपने प्राण बचाने पड़े थे।
प्रहलाद का पिता की आज्ञा उल्लंघन करना, विभीषण का भाई को त्यागना, भरत का माता की भत्सर्ना करना, बलि का गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा न मानना, गोपियों का परपुरुष श्रीकृष्ण से प्रेम करना, मीरा का अपने पति को त्याग देना, लौकिक दृष्टि से धर्म की स्थूल मर्यादा के अनुसार यद्यपि अनुचित कहे जा सकते हैं, पर धर्म की सूक्ष्म दृष्टि से इसमें सब कुछ उचित ही हुआ है। परशुराम जी द्वारा अपनी माता का सिर काटा जाना भी इसी प्रकार औचित्य युक्त था।
हिंदू धर्म के रक्षक छत्रपति शिवाजी द्वारा जिस प्रकार अफजल खां का वध किया गया, जिस प्रकार यह निकल भागे, उसे भी कोई मूढ़मति लोग छल कह सकते हैं। भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सरकार को उलटने के लिए जिस नीति को अपनाया था, उसमें चोरी, डकैती, जासूसी, वेश बदलना, हत्या, कत्ल, झूठ बोलना, छल, विश्वासघात कह सकते हैं। इन कार्यों को निरंतर करते रहने पर भी वे कितने धर्मात्मा कहलाए। असहाय दीन-दुखी प्रजा की करुणाजनक स्थिति से द्रवित होकर अन्यायी शासकों को उलटने का उन्होंने निश्चय किया था। कानून की पोथियों ने भले ही उन्हें दोषी ठहराया और उन्हें कठोरतम दंड दिए परमात्मा की दृष्टि में, धर्म तत्वज्ञान की कसौटी पर वे कदापि पापी घोषित नहीं किए जावेंगे।
सुनते हैं कि प्राचीनकाल में कोई कोई डाकू भी अमीरों को लूटकर प्राप्त धर को गरीबों में बांटते थे। इस प्रकार की भावनाएं कानून के विपरीत होते हुए तात्विक दृष्टि से हेय नहीं है। राजनीति के नेता, युद्ध के सेनापति, सरकार के गुप्तचर विभाग के कर्मचारी इस तथ्य को अपनी विचारधारा का प्रधान अंग मानकर कार्य करते हैं। यदि वे सत्य और निष्कपटता की स्थूल परिभाषा के अनुसार अपना कार्य करने लगें तो उनका कार्य एक दिन भी चलना असंभव है।
इन सब बातों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे अंतःकरण में सत्य, प्रेम, न्याय, त्याग, उदारता, संयम, परमार्थ आदि की उच्च भावनाओं का होना आवश्यक है। उनकी जितनी अधिक मात्रा हो उत्तम है, पर संसार के उन व्यक्तियों के साथ जो अभी अज्ञान-पाप के असर से बेतरह पीड़ित हो रहे हैं, काफी सावधानी बरतने की आवश्यकता है। उनकी आत्मा का कल्याण हो, वे अनीति से छूटें, इस भावना के साथ यदि उन्हें भय या लोभ से प्रभावित करके सन्मार्ग पर लाया जा सके तो उसमें डरने की कोई बात नहीं है। चोर, डाकू, जेबकट, भ्रष्टाचारी, दुष्टात्मा लोगों के भेद छल करके यदि मालूम कर लिए जाएं और उन्हें पकड़वा दिया जाए तो इसमें बुराई की कोई बात नहीं है। ऐसे अवसरों पर हमें अपनी धर्मभीरुता को लोकहित की तुलना में पीछे ही रखना चाहिए। शास्त्र में ऐसे कितने ही वचन हैं जिनमें कहा गया है कि—सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त हुआ असत्य दुर्भाव के लिए प्रयोग हुए सत्य की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। क्रिया की अपेक्षा भावना का ही महत्व अधिक है। यदि उच्च उद्देश्य के लिए निन्दित कार्य भी किया जाए तो उससे भी लोकहित ही होता है और वह भी धर्म कार्य के समान ही पुण्यफल प्रदान करता है