वैरागी
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वे वैरागी थे, सच्चे वैरागी। वे संन्यासी थे, संत थे और ईश्वर भक्त राम नाम के मतवाले थे। उनको न कोई चिन्ताएं थीं न आवश्यकताएं। उनकी इच्छाएं पूर्ण थीं। मन तृप्त था। अन्तःकरण सरल निर्मल था, शुद्ध पवित्र था। उनकी बस एक ही लगन थी, भगवान का भजन और ईश्वर का अर्चन-वंदन। सो हर घड़ी चलते-फिरते, उठते-बैठते ईश्वर का गुणगान करते रहते। सुबह का वक्त था। गाते गाते वे कब मुगल बादशाह अकबर की राजधानी आगरा में प्रवेश कर गए, कुछ पता ही नहीं चला। लम्बी चौड़ी सड़कें थीं, ऊंचे-ऊंचे महल दुमहलों की आसमान को छूती अट्टालिकाएं थीं। लेकिन उन संत जनों को इन सबसे कोई लेना देना ही नहीं था। सो वे भगवान के गीत गाते बजाते बिना कुछ देखे, बिना कुछ निहारे चलते ही जा रहे थे।
इतने में बादशाह अकबर के कुछ सिपाही आए और बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने उन वैरागी साधु संतों को बन्दी बना लिया। इससे पहले कि वे कुछ कहते सुनते, उन्हें बादशाह अकबर के राज दरबार में पेश किया गया। बादशाह अकबर ने उन सब साधु संतों को अपने दरबार के विख्यात संगीतज्ञ तानसेन के हवाले कर दिया। सभा लगी। साधु-संत और तानसेन आमने सामने बैठाए गए। तानसेन बोला—‘‘क्या आपको पता नहीं कि आगरा की सीमा में वही गीत गा सकता है, जो संगीत सम्राट तानसेन का सामना करने लायक होगा? और मुकाबले में हारने वाले को मौत की सजा होती है।’’
यह बात उन सीधे-साधे भगवान भक्तों को क्या पता थी। उन्हें क्या पता था कि संगीत जैसी मन भावन, ईश्वर भक्ति के माध्यम पर भी कहीं रोक लग सकती है? मन को शांति प्रदान करने वाले माध्यम पर बंदिशें हो सकती हैं? खैर जो होना होता है, होता तो वही है, बाकी सब तो बहाने मात्र होते हैं।
सभा में बैठे एक सदस्य ने कहा—‘‘क्या आप यह भी नहीं जानते कि नियम कानूनों की भूलों के लिए क्षमा नहीं होती?’’ सो प्रत्युत्तर में वे सभी साधु संत असमंजस में पड़ गए। साधु संतों को किसी देश के नियम कानूनों से क्या कोई सरोकार हो सकता है, इस पर उन्होंने कभी विचार ही नहीं किया। फिर वे तो साधु ही ठहरे। वे किसी का बिगाड़ करना तो दूर सोच भी नहीं सकते। तो नियम विधानों से क्या वास्ता?
अकबर ने राजाज्ञा पालन करने के आदेश दिए। सब साधु संत तानसेन के रहमो करम पर छोड़ दिए गए। तानसेन राजसी संरक्षण में अहंकार के मद में चूर था। उसकी सारी शिक्षा विद्वता अहंकार ने नष्ट कर दी थी। सभा लगी। मुकाबला हुआ। साधु संतों को तो उसकी शर्तों से कोई मतलब ही नहीं था जो वे उसके मुकाबले का जवाब देते।
उन्होंने चुपचाप हार स्वीकार कर ली। तानसेन ने उन सब साधु-संतों को मौत की सजा दी। केवल एक छोटा सा बच्चा जो उन साधु संतों के साथ आया था, अबोध मानकर छोड़ दिया गया। अबोध के लिए कोई सजा होती तो शायद तानसेन उसे भी सजा अवश्य देता।
बच्चा रोता बिलखता जंगल में अपनी कुटिया पर पहुंचा। रात भर सुनसान कुटिया में पड़ा-पड़ा वह बच्चा रोता रहा, तड़पता रहा। आज उसे महसूस हुआ कि वास्तव में मैं अकेला हूं। अब मेरा कोई नहीं है। अब कौन मुझे गीत सुनाएगा, कौन मुझे संगीत सिखाएगा, और कौन मुझे स्नेह दुलार करेगा? लेकिन इसी बीच फिर उसे बाबा के ये शब्द याद आए—‘‘बेटा बैजू! यह संसार है। यह चला चली का मेला है। यहां ठहरता कोई नहीं। सब आते हैं और चले जाते हैं। इसलिए इस संसार से मोह मत करना। ईश्वर का ध्यान रखना। वे सभी के पालक पोषक हैं। यह संसार उन्हीं का बनाया हुआ है। उन्होंने ही यह माया मोह का खेल बनाया है। जीव आता है और माया मोह के चक्कर में फंसकर भटक जाता है। इसलिए बेटा बैजू! इस संसार में आकर कभी गर्व मत करना, अहंकार मत करना। इससे जीव ईश्वर का सान्निध्य पाने से वंचित रह जाता है।’’
बैजू इन्हीं विचारों में डूबा कब तक रोता और कब रोते रोते नींद आ गई, उसे पता ही नहीं। किसी ने पीठ पर स्नेह से हाथ फेरते हुए जब उसे उसका नाम लेकर पुकारा तो एक बारगी तो वह भौचक्का रह गया। उसे लगा शायद कोई सपना देख रहा है। क्योंकि कल वाली घटना तो भूल ही नहीं सकता था, इसलिए उसका नाम लेकर अब कौन पुकार सकता है? लेकिन उसने अपनी आंखे मल कर देखा तो, वास्तविकता में एक वृद्ध बाबा उसे पुकार रहे थे। बाबा के चेहरे पर त्याग और तपश्चर्या का तेज स्पष्ट झलक रहा था। बाबा को देखते ही उसके सारे कष्ट क्लेश तिरोहित हो गए। वह अपना सारा दुख भूलकर बाबा की सेवा में लग गया। कुटिया में जो कुछ रखा था, बाबा को उसी का कलेवा कराया।
बाबा जब कलेवा करके निवृत्त हुए तो बोले—‘‘बेटा बैजू! तू धन्य है। धन्य हैं तेरे पालक पोषक माता पिता समान ऋषि गण जिन्होंने तुझे इतनी सी उम्र में इतनी सहनशीलता दी, और आदर सत्कार करने का भाव दिया। मैंने तेरा दुख जान लिया है। अब तू चिन्ता मत कर। जो होना था सो तो हो गया। शायद ईश्वर को ऐसा ही ठीक लगा होगा। याद रख, जिसका इस जगत में कोई नहीं होता है, उसका ईश्वर ही सब कुछ होता है। वही माता, वही पिता हैं। बेटा बैजू! इस संसार के लोग मुझे बाबा हरिदास के नाम से जानते हैं। भगवान कृष्ण कन्हैया की क्रीड़ा स्थली वृन्दावन में मेरी कुटी है वहीं मैं रहता हूं। बेटा बैजू तू भी मेरे साथ चल। वही मेरे साथ रहना।’’
बैजू बाबा के पैरों पर गिर पड़ा। बाबा ने स्नेह से उसे उठाया और गले से लगा लिया। बैजू ने कहा—‘‘बाबा, आप तो संगीत के सागर हैं, ऐसा कौन होगा जो आपको जानता न हो? आपकी कीर्ति आपका नाम तो सात समुंदर पार तक विख्यात है। आपको कौन नहीं जानता है?’’
नहीं बेटे, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। बाबा ने बैजू से कहा और दोनों ही वृन्दावन की ओर चल पड़े। वृन्दावन पहुंचकर बैजू बाबा के साथ रहकर संगीत की शिक्षा लेने लगा। समय बीतता गया और बैजू की संगीत शिक्षा भी पूर्णत्व की ओर पहुंचती गई।
संगीत सीखते सीखते आज बैजू को बीस बरस हो चुके थे। अब वह अबोध बालक से एक अपूर्व तेजस्वी, युवा संन्यासी हो चुका था। उसके संगीत में जादू था। जब वह अपनी संगीत के स्वर छेड़ता तो एक निराली शांति और अनुपम सुख का आभास होता। लोग सुनते तो सुनते ही रह जाते। पशु, पक्षी सब उसके संगीत से जादू की तरह जहां के तहां बैठे ही रह जाते। लेकिन बैजू था कि केवल अपनी भक्ति और ईश्वराधना में लीन होकर भगवान को अपना संगीत सुनाता ही रहता। दिन बीत जाते, रातें ढल जातीं। लेकिन बैजू बावरा सा भगवान भजन में मगन रहता। उस तरह संगीत में दिन रात चौबीसों घंटे लीन रहने के कारण उसका नाम ही पड़ गया बैजू बाबरा। लोग उसे जब भी पुकारते तो बैजू बाबरा ही कहकर पुकारते। लेकिन उसे इससे कोई मतलब ही नहीं था कि कोई उसे किस नाम से पुकार रहा है, कोई उसे क्या कह रहा है? वास्तव में भगवान भक्ति भी अजीब होती है। अपने पराए का भेद मिटाकर सबमें ईश्वर अंश परमात्मा का दर्शन कराती है। क्या शत्रु, क्या मित्र, भगवान के भक्त के लिए सब बराबर ही होते हैं। उसे सब जगह अच्छाई ही अच्छाई दीखती है, बुराई कहीं भी नहीं दीखती। यही तो है भारतीय अध्यात्मवाद की मुख्य पहचान। जब व्यक्ति आध्यात्मिक और ईश्वरीय साधना उपासना के शिखर पर पहुंचता है तो वह सब कुछ भूलकर ईश्वर स्मरण और उनके गुणगान में ही दीवाना बना रहता है। इसी लिए लोग बैजू को बाबरा कहने लगे।
लेकिन बैजू तो इससे भी कहीं ऊपर उठ चुका था। शायद इसी लिए वह भूल गया कि उसका भी कोई शत्रु है, उसके भी पिता समान बाबा को किसी ने मारा है। उससे बदला लेना है। वह सब बैर भाव भूल गया। याद रह गया तो केवल संगीत के स्वर और भगवान का आराधन। बस और वह इसी तरह ईश्वर भक्ति में घूमता घामता एक दिन अचानक आगरा पहुंच गया। ठीक उसी तरह जैसे उसके बाबा भजन करते करते पहुंच गए थे।
बैजू भगवान भजन में लीन चला जा रहा था। अचानक फिर वही सिपाही आए और बैजू को बन्दी बना लिया और सम्राट के पास ले गए। बाबा जी की तरह बैजू को भी सम्राट ने तानसेन के हवाले कर दिया। तानसेन ने उससे भी जवाब किया—युवक क्या तुम्हें पता नहीं कि आगरा की सीमा में तानसेन से मुकाबला किए बिना कोई गीत नहीं गा सकता और हारने वाले को मौत की सजा दी जाती है? बैजू ने कुछ नहीं कहा। तानसेन की बातों को उसने सुना और धीरे से मुस्कुरा दिया। तानसेन उसकी मुस्कराहट पर और भी क्रोधित हो उठा, बोला-युवक! क्या तुमने सुना नहीं, पूरे आगरा राज्य की सीमा में संगीत के मामले में तानसेन की आज्ञा चलती है। बैजू ने सहमति में मुस्कराते हुए धीरे से सिर हिलाया।
जब बैजू ने सहमति में सिर हिलाया तो तानसेन का अहंकार जाग उठा और गर्व से बोला—तो फिर मुकाबले के लिए तैयार हो जाओ। बोलो मुकाबले का सामना दरबार में करोगे या खुले आकाश में? युवक धीरे से बोला—खुले आकाश में। ठीक है, कल प्रातः सूर्योदय के ठीक बाद प्रतियोगिता प्रारंभ होगी। सारे नगर में खलबली मच गई। एक युवक की मौत ही यहां तानसेन से मुकाबले के लिए खींच कर लाई है। तानसेन से भला आज तक कोई जीत पाया है? यह युवक निश्चित रूप से बेमौत मारा जाएगा। इस युवक की बिसात ही क्या है जो यह तानसेन से मुकाबला करेगा?
प्रातः हुई। पूरे आगरा नगर में प्रतियोगिता का शोर तो पहले ही हो गया था। सो नगर का सारा जनसमुदाय प्रतियोगिता स्थान पर जमा हो गया। जिसे देखो उसकी जुबान पर प्रतियोगिता की चर्चा थी। जिसने बैजू को देखा वही ईश्वर से यह प्रार्थना कर रहा था कि हे भगवान, कैसे भी इस सुंदर संन्यासी को बचा लेना। तानसेन बड़ा जालिम है। वह इसे हरा देगा और इसे भी मौत की सजा देगा।
खैर समय पर सभा लगी। सम्राट अकबर तथा खास दरबारी भी आए। नगर की जनता न जाने कब से इस मुकाबले का इन्तजार ही कर रही थी। सभा को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सारा नगर प्रतियोगिता स्थल पर आ गया हो। लेकिन सबके सब कौतूहल विस्मय से हैरान। अब संन्यासी की मौत निश्चित होगी, उसे कोई नहीं बचा सकता।
राजा ने आदेश दिया। संगीत प्रतियोगिता आरम्भ हुई तानसेन ने शुरूआत की। संगीत विद्या से संबंधित कुछ प्रश्न बैजू से उसने पूछे। बैजू बावरा ने मधुर वाणी में सटीक उत्तर दिए। उत्तर भावपूर्ण, स्पष्ट और सही थे। तानसेन को पहला धक्का लगा। उसका अहं और अधिक बढ़ गया। वह मन ही मन विचार करने लगा कल का छोकरा मेरे सवालों का उत्तर कितनी उचित और धीर गम्भीर शैली में दे रहा है। आश्चर्य है इसकी बुद्धि, विवेक पर। कल तक मेरे सवालों के उत्तर में अच्छे-अच्छे विद्वान संगीतज्ञ मात खा जाते थे, लेकिन आज यह छोकरा बाजी मार ले गया। लेकिन कुछ भी हो मेरी बराबरी कैसे कर सकता है? मैंने संगीत विद्या के प्रश्नों और प्रतियोगिताओं में कितने ही विद्वानों और संगीतज्ञों का पछाड़ा है। यह भी हारेगा और मौत के मुंह में जाएगा।
तानसेन की विचार तन्द्रा तब भंग हुई जब दर्शकों ने बैजू की जीत की खुशी में जय जयकार की और हर्ष ध्वनि की। तानसेन का चेहरा लाल हो गया। अब बारी थी बैजू की। बैजू ने सितार उठाया और उसके तारों पर अपनी उंगलियां चलाने लगा। एक निर्भय शांति सी सारे वातावरण में तिरने लगी। कुछ ही पल में सब कुछ विलय हो गया। संगीत की स्वर लहरियां कण कण से, जंगल के हर वृक्ष और पत्ते से निराली ही हर्षमय सुख प्रदान करने वाली मंद मंद बयार बहने लगी। मन मस्तिष्क और हृदय में दिव्य अलौकिक भावों का संचार होने लगा। तिनका तिनका साधक बनकर चेतन हो उठा। लोग अपना आपा भूल गए। कैसा अलौकिक, स्वर्ग का आनंद हर ओर बरसने लगा। अभय अमृत की वर्षा।
सब जन आत्मविभोर। हर्ष विभोर। वन्य पशु एकत्र हो आए। हरिण, चीते, शेर, पक्षी सब भय त्याग कर पास पास आ गए। कैसा अलौकिक दृश्य सजीव हो उठा। बैजू के संगीत की अमृत वर्षा में कितनी ही देर राजा और प्रजा दोनों अपनी सुख-बुध खोकर झूमते रहे, कुछ पता नहीं। वहां समय था ही नहीं। मनन विलुप्त हो गया। तो कौन बताए कि कहां क्या था? कुछ देर बाद बैजू ने स्वर बंद किया तो विस्मित, स्वप्न से जागे लोग वाह वाह कह उठे। राजा भी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके। बैजू ने अपने गले की माला उतारी और एक हरिण को पहना दी। वे कुलांचे मारते जंगल में चले गए। पक्षी उड़ गए।
अब बारी थी तानसेन की। शर्त यह थी कि उन्हें भी वही पशु पक्षी बुलाने थे। तानसेन ने गर्व से मस्तक उठाया और झटके से सितार उठा लिया। तानसेन ने बजाना शुरू किया। बजाता रहा, बजाता रहा। अपनी पूरी कला के साथ, अपनी पूरी विद्वता के साथ। तानसेन जो कुछ जानता था सो उसने सब बजा डाला। लोग आज खुश थे कि तानसेन को सबक सिखाने वाला आज कोई मिला है। तानसेन ने सारी कोशिशें कर डालीं लेकिन संगीत में वह जादू नहीं डाल पाया जो बैजू के संगीत में सुनायी दिया था।
होता भी कैसे बैजू ने अपनी कला केवल ईश्वर भक्ति के लिए सुनायी थी, लेकिन तानसेन तो अपने गर्व में चूर अपनी कला को ही भगवान मान बैठा था। उसने अपनी कला का प्रदर्शन करके न जाने कितने निरीह निर्दोष लोगों की जानें ली थीं, तो तानसेन की कला में वह लय, वह जादू कैसे आता? उसने सब कुछ बजाया। सब कुछ सुनाया, लेकिन अहंकार का अंश, अहंकार का दर्प उसमें से नहीं निकाल पाया, उसमें अपनी आत्मा की आवाज नहीं जोड़ पाया। उसमें वह परमात्मा को शामिल नहीं कर पाया।
तानसेन बजाते बजाते पसीना पसीना हो गया, लेकिन वह प्राकृतिक लय, वह आत्मिक-अलौकिक आनंद, वह राग, वह मिठास नहीं ला पाया तो नहीं ला पाया। लोगों को भी उसके रागों, गीतों में ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसे अद्वितीय कहा जा सके, या फिर तानसेन जैसे संगीतज्ञ के लिए सार्थक कहा जा सके, तो पशु पक्षी कहां से आते? कोई पशु पक्षी वह नहीं बुला सका। आज वह हार गया, ऐसा स्पष्ट लगने लगा।
बैजू ने सब कुछ कर दिखाया लेकिन तानसेन आज कुछ नहीं कर सका। आज उसकी सारी विद्वता धरी की धरी रह गई। तानसेन आज बैजू की कोई शर्त पूरी नहीं कर सका। राजा उठा। उसने अपना फैसला सुना दिया—बैजू बावरा जीत गया। और तानसेन की हार हुई।
राजा को अपना फैसला सुनाते समय कई बार हिचकना पड़ा। होता भी कैसे नहीं? तानसेन आखिरकार तानसेन ही था। संगीत का जादूगर। उसने कई मर्तबा राजा के समक्ष अपनी संगीत विद्वता का प्रदर्शन किया था। राजा भी अपने इस संगीतज्ञ को दिलोजान से चाहता था। तो यह तो उसकी साक्षात मौत का आदेश था। खैर राजा ने कहा और उठकर सीधे पैदल ही महलों की ओर रवाना हो गए। तानसेन शर्त के मुताबिक मौत की बात सोचकर सिहर उठा। कितना लाचार कितना निरीह। तानसेन धीरे से उठा और कंपकंपाते पैरों से चलकर बैजू के समक्ष याचक भाव से खड़ा हो गया। हाथ जोड़ लिए, गिड़गिड़ाने लगा—‘‘बैजू मुझे मौत मत देना, मैं तुम्हारी में शरण हूं। मुझे अपना कर के छोड़ दो।’’ बैजू उसकी कातरता देखकर धीरे से मुस्कराया बोला—‘‘तानसेन! आप महान हैं, मैं तो आपका ही एक छोटा सा सेवक हूं। वह शर्त आपकी थी मेरी नहीं। मैंने तो कोई शर्त लगाई ही नहीं तो मैं क्यों मौत की सजा देने लगा? आपके बारे में मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। आप मुझे क्षमा कर दें अगर जाने अनजाने में कोई मेरे से गलती हो गई हो। वैसे अगर आप मेरी एक बात मानें तो एक निवेदन करूं? तानसेन कुछ नहीं बोला। सिर नीचा किए ही सहमति में सिर हिलाया। बैजू बोला—आप अगर कर सके तो केवल इतना कर दें कि जो शर्त आपने आगरा राज्य में संगीत के मामले में लगा रखी है उसे खतम कर दीजिए। बस और कुछ नहीं चाहिए। तानसेन ने उस दिन से वह राजाज्ञा समाप्त कर दी। प्रजा ने बैजू की जयजयकार की। बैजू उठा और भीड़ से अलग होकर जंगल में जिस तरह आया था, उसी तरह चला गया
इतने में बादशाह अकबर के कुछ सिपाही आए और बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने उन वैरागी साधु संतों को बन्दी बना लिया। इससे पहले कि वे कुछ कहते सुनते, उन्हें बादशाह अकबर के राज दरबार में पेश किया गया। बादशाह अकबर ने उन सब साधु संतों को अपने दरबार के विख्यात संगीतज्ञ तानसेन के हवाले कर दिया। सभा लगी। साधु-संत और तानसेन आमने सामने बैठाए गए। तानसेन बोला—‘‘क्या आपको पता नहीं कि आगरा की सीमा में वही गीत गा सकता है, जो संगीत सम्राट तानसेन का सामना करने लायक होगा? और मुकाबले में हारने वाले को मौत की सजा होती है।’’
यह बात उन सीधे-साधे भगवान भक्तों को क्या पता थी। उन्हें क्या पता था कि संगीत जैसी मन भावन, ईश्वर भक्ति के माध्यम पर भी कहीं रोक लग सकती है? मन को शांति प्रदान करने वाले माध्यम पर बंदिशें हो सकती हैं? खैर जो होना होता है, होता तो वही है, बाकी सब तो बहाने मात्र होते हैं।
सभा में बैठे एक सदस्य ने कहा—‘‘क्या आप यह भी नहीं जानते कि नियम कानूनों की भूलों के लिए क्षमा नहीं होती?’’ सो प्रत्युत्तर में वे सभी साधु संत असमंजस में पड़ गए। साधु संतों को किसी देश के नियम कानूनों से क्या कोई सरोकार हो सकता है, इस पर उन्होंने कभी विचार ही नहीं किया। फिर वे तो साधु ही ठहरे। वे किसी का बिगाड़ करना तो दूर सोच भी नहीं सकते। तो नियम विधानों से क्या वास्ता?
अकबर ने राजाज्ञा पालन करने के आदेश दिए। सब साधु संत तानसेन के रहमो करम पर छोड़ दिए गए। तानसेन राजसी संरक्षण में अहंकार के मद में चूर था। उसकी सारी शिक्षा विद्वता अहंकार ने नष्ट कर दी थी। सभा लगी। मुकाबला हुआ। साधु संतों को तो उसकी शर्तों से कोई मतलब ही नहीं था जो वे उसके मुकाबले का जवाब देते।
उन्होंने चुपचाप हार स्वीकार कर ली। तानसेन ने उन सब साधु-संतों को मौत की सजा दी। केवल एक छोटा सा बच्चा जो उन साधु संतों के साथ आया था, अबोध मानकर छोड़ दिया गया। अबोध के लिए कोई सजा होती तो शायद तानसेन उसे भी सजा अवश्य देता।
बच्चा रोता बिलखता जंगल में अपनी कुटिया पर पहुंचा। रात भर सुनसान कुटिया में पड़ा-पड़ा वह बच्चा रोता रहा, तड़पता रहा। आज उसे महसूस हुआ कि वास्तव में मैं अकेला हूं। अब मेरा कोई नहीं है। अब कौन मुझे गीत सुनाएगा, कौन मुझे संगीत सिखाएगा, और कौन मुझे स्नेह दुलार करेगा? लेकिन इसी बीच फिर उसे बाबा के ये शब्द याद आए—‘‘बेटा बैजू! यह संसार है। यह चला चली का मेला है। यहां ठहरता कोई नहीं। सब आते हैं और चले जाते हैं। इसलिए इस संसार से मोह मत करना। ईश्वर का ध्यान रखना। वे सभी के पालक पोषक हैं। यह संसार उन्हीं का बनाया हुआ है। उन्होंने ही यह माया मोह का खेल बनाया है। जीव आता है और माया मोह के चक्कर में फंसकर भटक जाता है। इसलिए बेटा बैजू! इस संसार में आकर कभी गर्व मत करना, अहंकार मत करना। इससे जीव ईश्वर का सान्निध्य पाने से वंचित रह जाता है।’’
बैजू इन्हीं विचारों में डूबा कब तक रोता और कब रोते रोते नींद आ गई, उसे पता ही नहीं। किसी ने पीठ पर स्नेह से हाथ फेरते हुए जब उसे उसका नाम लेकर पुकारा तो एक बारगी तो वह भौचक्का रह गया। उसे लगा शायद कोई सपना देख रहा है। क्योंकि कल वाली घटना तो भूल ही नहीं सकता था, इसलिए उसका नाम लेकर अब कौन पुकार सकता है? लेकिन उसने अपनी आंखे मल कर देखा तो, वास्तविकता में एक वृद्ध बाबा उसे पुकार रहे थे। बाबा के चेहरे पर त्याग और तपश्चर्या का तेज स्पष्ट झलक रहा था। बाबा को देखते ही उसके सारे कष्ट क्लेश तिरोहित हो गए। वह अपना सारा दुख भूलकर बाबा की सेवा में लग गया। कुटिया में जो कुछ रखा था, बाबा को उसी का कलेवा कराया।
बाबा जब कलेवा करके निवृत्त हुए तो बोले—‘‘बेटा बैजू! तू धन्य है। धन्य हैं तेरे पालक पोषक माता पिता समान ऋषि गण जिन्होंने तुझे इतनी सी उम्र में इतनी सहनशीलता दी, और आदर सत्कार करने का भाव दिया। मैंने तेरा दुख जान लिया है। अब तू चिन्ता मत कर। जो होना था सो तो हो गया। शायद ईश्वर को ऐसा ही ठीक लगा होगा। याद रख, जिसका इस जगत में कोई नहीं होता है, उसका ईश्वर ही सब कुछ होता है। वही माता, वही पिता हैं। बेटा बैजू! इस संसार के लोग मुझे बाबा हरिदास के नाम से जानते हैं। भगवान कृष्ण कन्हैया की क्रीड़ा स्थली वृन्दावन में मेरी कुटी है वहीं मैं रहता हूं। बेटा बैजू तू भी मेरे साथ चल। वही मेरे साथ रहना।’’
बैजू बाबा के पैरों पर गिर पड़ा। बाबा ने स्नेह से उसे उठाया और गले से लगा लिया। बैजू ने कहा—‘‘बाबा, आप तो संगीत के सागर हैं, ऐसा कौन होगा जो आपको जानता न हो? आपकी कीर्ति आपका नाम तो सात समुंदर पार तक विख्यात है। आपको कौन नहीं जानता है?’’
नहीं बेटे, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। बाबा ने बैजू से कहा और दोनों ही वृन्दावन की ओर चल पड़े। वृन्दावन पहुंचकर बैजू बाबा के साथ रहकर संगीत की शिक्षा लेने लगा। समय बीतता गया और बैजू की संगीत शिक्षा भी पूर्णत्व की ओर पहुंचती गई।
संगीत सीखते सीखते आज बैजू को बीस बरस हो चुके थे। अब वह अबोध बालक से एक अपूर्व तेजस्वी, युवा संन्यासी हो चुका था। उसके संगीत में जादू था। जब वह अपनी संगीत के स्वर छेड़ता तो एक निराली शांति और अनुपम सुख का आभास होता। लोग सुनते तो सुनते ही रह जाते। पशु, पक्षी सब उसके संगीत से जादू की तरह जहां के तहां बैठे ही रह जाते। लेकिन बैजू था कि केवल अपनी भक्ति और ईश्वराधना में लीन होकर भगवान को अपना संगीत सुनाता ही रहता। दिन बीत जाते, रातें ढल जातीं। लेकिन बैजू बावरा सा भगवान भजन में मगन रहता। उस तरह संगीत में दिन रात चौबीसों घंटे लीन रहने के कारण उसका नाम ही पड़ गया बैजू बाबरा। लोग उसे जब भी पुकारते तो बैजू बाबरा ही कहकर पुकारते। लेकिन उसे इससे कोई मतलब ही नहीं था कि कोई उसे किस नाम से पुकार रहा है, कोई उसे क्या कह रहा है? वास्तव में भगवान भक्ति भी अजीब होती है। अपने पराए का भेद मिटाकर सबमें ईश्वर अंश परमात्मा का दर्शन कराती है। क्या शत्रु, क्या मित्र, भगवान के भक्त के लिए सब बराबर ही होते हैं। उसे सब जगह अच्छाई ही अच्छाई दीखती है, बुराई कहीं भी नहीं दीखती। यही तो है भारतीय अध्यात्मवाद की मुख्य पहचान। जब व्यक्ति आध्यात्मिक और ईश्वरीय साधना उपासना के शिखर पर पहुंचता है तो वह सब कुछ भूलकर ईश्वर स्मरण और उनके गुणगान में ही दीवाना बना रहता है। इसी लिए लोग बैजू को बाबरा कहने लगे।
लेकिन बैजू तो इससे भी कहीं ऊपर उठ चुका था। शायद इसी लिए वह भूल गया कि उसका भी कोई शत्रु है, उसके भी पिता समान बाबा को किसी ने मारा है। उससे बदला लेना है। वह सब बैर भाव भूल गया। याद रह गया तो केवल संगीत के स्वर और भगवान का आराधन। बस और वह इसी तरह ईश्वर भक्ति में घूमता घामता एक दिन अचानक आगरा पहुंच गया। ठीक उसी तरह जैसे उसके बाबा भजन करते करते पहुंच गए थे।
बैजू भगवान भजन में लीन चला जा रहा था। अचानक फिर वही सिपाही आए और बैजू को बन्दी बना लिया और सम्राट के पास ले गए। बाबा जी की तरह बैजू को भी सम्राट ने तानसेन के हवाले कर दिया। तानसेन ने उससे भी जवाब किया—युवक क्या तुम्हें पता नहीं कि आगरा की सीमा में तानसेन से मुकाबला किए बिना कोई गीत नहीं गा सकता और हारने वाले को मौत की सजा दी जाती है? बैजू ने कुछ नहीं कहा। तानसेन की बातों को उसने सुना और धीरे से मुस्कुरा दिया। तानसेन उसकी मुस्कराहट पर और भी क्रोधित हो उठा, बोला-युवक! क्या तुमने सुना नहीं, पूरे आगरा राज्य की सीमा में संगीत के मामले में तानसेन की आज्ञा चलती है। बैजू ने सहमति में मुस्कराते हुए धीरे से सिर हिलाया।
जब बैजू ने सहमति में सिर हिलाया तो तानसेन का अहंकार जाग उठा और गर्व से बोला—तो फिर मुकाबले के लिए तैयार हो जाओ। बोलो मुकाबले का सामना दरबार में करोगे या खुले आकाश में? युवक धीरे से बोला—खुले आकाश में। ठीक है, कल प्रातः सूर्योदय के ठीक बाद प्रतियोगिता प्रारंभ होगी। सारे नगर में खलबली मच गई। एक युवक की मौत ही यहां तानसेन से मुकाबले के लिए खींच कर लाई है। तानसेन से भला आज तक कोई जीत पाया है? यह युवक निश्चित रूप से बेमौत मारा जाएगा। इस युवक की बिसात ही क्या है जो यह तानसेन से मुकाबला करेगा?
प्रातः हुई। पूरे आगरा नगर में प्रतियोगिता का शोर तो पहले ही हो गया था। सो नगर का सारा जनसमुदाय प्रतियोगिता स्थान पर जमा हो गया। जिसे देखो उसकी जुबान पर प्रतियोगिता की चर्चा थी। जिसने बैजू को देखा वही ईश्वर से यह प्रार्थना कर रहा था कि हे भगवान, कैसे भी इस सुंदर संन्यासी को बचा लेना। तानसेन बड़ा जालिम है। वह इसे हरा देगा और इसे भी मौत की सजा देगा।
खैर समय पर सभा लगी। सम्राट अकबर तथा खास दरबारी भी आए। नगर की जनता न जाने कब से इस मुकाबले का इन्तजार ही कर रही थी। सभा को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सारा नगर प्रतियोगिता स्थल पर आ गया हो। लेकिन सबके सब कौतूहल विस्मय से हैरान। अब संन्यासी की मौत निश्चित होगी, उसे कोई नहीं बचा सकता।
राजा ने आदेश दिया। संगीत प्रतियोगिता आरम्भ हुई तानसेन ने शुरूआत की। संगीत विद्या से संबंधित कुछ प्रश्न बैजू से उसने पूछे। बैजू बावरा ने मधुर वाणी में सटीक उत्तर दिए। उत्तर भावपूर्ण, स्पष्ट और सही थे। तानसेन को पहला धक्का लगा। उसका अहं और अधिक बढ़ गया। वह मन ही मन विचार करने लगा कल का छोकरा मेरे सवालों का उत्तर कितनी उचित और धीर गम्भीर शैली में दे रहा है। आश्चर्य है इसकी बुद्धि, विवेक पर। कल तक मेरे सवालों के उत्तर में अच्छे-अच्छे विद्वान संगीतज्ञ मात खा जाते थे, लेकिन आज यह छोकरा बाजी मार ले गया। लेकिन कुछ भी हो मेरी बराबरी कैसे कर सकता है? मैंने संगीत विद्या के प्रश्नों और प्रतियोगिताओं में कितने ही विद्वानों और संगीतज्ञों का पछाड़ा है। यह भी हारेगा और मौत के मुंह में जाएगा।
तानसेन की विचार तन्द्रा तब भंग हुई जब दर्शकों ने बैजू की जीत की खुशी में जय जयकार की और हर्ष ध्वनि की। तानसेन का चेहरा लाल हो गया। अब बारी थी बैजू की। बैजू ने सितार उठाया और उसके तारों पर अपनी उंगलियां चलाने लगा। एक निर्भय शांति सी सारे वातावरण में तिरने लगी। कुछ ही पल में सब कुछ विलय हो गया। संगीत की स्वर लहरियां कण कण से, जंगल के हर वृक्ष और पत्ते से निराली ही हर्षमय सुख प्रदान करने वाली मंद मंद बयार बहने लगी। मन मस्तिष्क और हृदय में दिव्य अलौकिक भावों का संचार होने लगा। तिनका तिनका साधक बनकर चेतन हो उठा। लोग अपना आपा भूल गए। कैसा अलौकिक, स्वर्ग का आनंद हर ओर बरसने लगा। अभय अमृत की वर्षा।
सब जन आत्मविभोर। हर्ष विभोर। वन्य पशु एकत्र हो आए। हरिण, चीते, शेर, पक्षी सब भय त्याग कर पास पास आ गए। कैसा अलौकिक दृश्य सजीव हो उठा। बैजू के संगीत की अमृत वर्षा में कितनी ही देर राजा और प्रजा दोनों अपनी सुख-बुध खोकर झूमते रहे, कुछ पता नहीं। वहां समय था ही नहीं। मनन विलुप्त हो गया। तो कौन बताए कि कहां क्या था? कुछ देर बाद बैजू ने स्वर बंद किया तो विस्मित, स्वप्न से जागे लोग वाह वाह कह उठे। राजा भी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके। बैजू ने अपने गले की माला उतारी और एक हरिण को पहना दी। वे कुलांचे मारते जंगल में चले गए। पक्षी उड़ गए।
अब बारी थी तानसेन की। शर्त यह थी कि उन्हें भी वही पशु पक्षी बुलाने थे। तानसेन ने गर्व से मस्तक उठाया और झटके से सितार उठा लिया। तानसेन ने बजाना शुरू किया। बजाता रहा, बजाता रहा। अपनी पूरी कला के साथ, अपनी पूरी विद्वता के साथ। तानसेन जो कुछ जानता था सो उसने सब बजा डाला। लोग आज खुश थे कि तानसेन को सबक सिखाने वाला आज कोई मिला है। तानसेन ने सारी कोशिशें कर डालीं लेकिन संगीत में वह जादू नहीं डाल पाया जो बैजू के संगीत में सुनायी दिया था।
होता भी कैसे बैजू ने अपनी कला केवल ईश्वर भक्ति के लिए सुनायी थी, लेकिन तानसेन तो अपने गर्व में चूर अपनी कला को ही भगवान मान बैठा था। उसने अपनी कला का प्रदर्शन करके न जाने कितने निरीह निर्दोष लोगों की जानें ली थीं, तो तानसेन की कला में वह लय, वह जादू कैसे आता? उसने सब कुछ बजाया। सब कुछ सुनाया, लेकिन अहंकार का अंश, अहंकार का दर्प उसमें से नहीं निकाल पाया, उसमें अपनी आत्मा की आवाज नहीं जोड़ पाया। उसमें वह परमात्मा को शामिल नहीं कर पाया।
तानसेन बजाते बजाते पसीना पसीना हो गया, लेकिन वह प्राकृतिक लय, वह आत्मिक-अलौकिक आनंद, वह राग, वह मिठास नहीं ला पाया तो नहीं ला पाया। लोगों को भी उसके रागों, गीतों में ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसे अद्वितीय कहा जा सके, या फिर तानसेन जैसे संगीतज्ञ के लिए सार्थक कहा जा सके, तो पशु पक्षी कहां से आते? कोई पशु पक्षी वह नहीं बुला सका। आज वह हार गया, ऐसा स्पष्ट लगने लगा।
बैजू ने सब कुछ कर दिखाया लेकिन तानसेन आज कुछ नहीं कर सका। आज उसकी सारी विद्वता धरी की धरी रह गई। तानसेन आज बैजू की कोई शर्त पूरी नहीं कर सका। राजा उठा। उसने अपना फैसला सुना दिया—बैजू बावरा जीत गया। और तानसेन की हार हुई।
राजा को अपना फैसला सुनाते समय कई बार हिचकना पड़ा। होता भी कैसे नहीं? तानसेन आखिरकार तानसेन ही था। संगीत का जादूगर। उसने कई मर्तबा राजा के समक्ष अपनी संगीत विद्वता का प्रदर्शन किया था। राजा भी अपने इस संगीतज्ञ को दिलोजान से चाहता था। तो यह तो उसकी साक्षात मौत का आदेश था। खैर राजा ने कहा और उठकर सीधे पैदल ही महलों की ओर रवाना हो गए। तानसेन शर्त के मुताबिक मौत की बात सोचकर सिहर उठा। कितना लाचार कितना निरीह। तानसेन धीरे से उठा और कंपकंपाते पैरों से चलकर बैजू के समक्ष याचक भाव से खड़ा हो गया। हाथ जोड़ लिए, गिड़गिड़ाने लगा—‘‘बैजू मुझे मौत मत देना, मैं तुम्हारी में शरण हूं। मुझे अपना कर के छोड़ दो।’’ बैजू उसकी कातरता देखकर धीरे से मुस्कराया बोला—‘‘तानसेन! आप महान हैं, मैं तो आपका ही एक छोटा सा सेवक हूं। वह शर्त आपकी थी मेरी नहीं। मैंने तो कोई शर्त लगाई ही नहीं तो मैं क्यों मौत की सजा देने लगा? आपके बारे में मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। आप मुझे क्षमा कर दें अगर जाने अनजाने में कोई मेरे से गलती हो गई हो। वैसे अगर आप मेरी एक बात मानें तो एक निवेदन करूं? तानसेन कुछ नहीं बोला। सिर नीचा किए ही सहमति में सिर हिलाया। बैजू बोला—आप अगर कर सके तो केवल इतना कर दें कि जो शर्त आपने आगरा राज्य में संगीत के मामले में लगा रखी है उसे खतम कर दीजिए। बस और कुछ नहीं चाहिए। तानसेन ने उस दिन से वह राजाज्ञा समाप्त कर दी। प्रजा ने बैजू की जयजयकार की। बैजू उठा और भीड़ से अलग होकर जंगल में जिस तरह आया था, उसी तरह चला गया