धर्म और धार्मिकता
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अधिकांश व्यक्ति धर्म का नाम लेते ही मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों, प्रार्थनाघरों, शास्त्रों का आदि स्मरण करने लगते हैं तथा धार्मिक क्रिया-कृत्यों को ही धर्म का स्वरूप मान लेते हैं, जबकि वे धर्म नहीं, मात्र कलेवर हैं, और धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति के माध्यम भर हैं, पर कितने ही व्यक्ति ऐसे भी हो सकते हैं, जिनका विश्वास इन चीजों-बहिरंग उपादानों पर न हो, जबकि वे पूर्णतः धार्मिक हो सकते हैं। उनका आचरण धर्म को, उसमें सन्निहित आदर्शों को स्वयं व्यक्त करता है।
एक मनीषी ने धर्म को कर्त्तव्यपरायणता के रूप में परिभाषित करते हुए लिखा है कि—ऐसी कर्त्तव्यपरायणता जो मनुष्य को व्यक्तिगत संकीर्ण दायरे से निकालती है तथा समष्टि की ओर चलने, उससे बंधने की प्रेरणा देती हो। सचमुच ही गंभीरता एवं सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो स्पष्ट होगा कि धर्म के मूल में यही प्रेरणाएं परोक्ष रूप से उद्भासित होती हैं। आचरण की श्रेष्ठता, विचारों की उत्कृष्टता तथा भावनाओं की पवित्रता ही धर्म का व्यावहारिक लक्ष्य है। यही अपनी चरमसीमा पर पहुंच कर उन अलौकिक अनुभूतियों का मार्ग प्रशस्त करता है, जिसे ईश्वरानुभूति के रूप में निरूपित किया गया है।
पुरातन ऋषियों ने धर्म का सृजन इसी महान लक्ष्य के लिए किया था तथा उसे शास्त्र-पुराण, देवालय आदि का जामा पहनाया था। मानवीय व्यक्तित्व के परिशोधन एवं सद्गुणों के अभिवर्द्धन के लिए यह मनोवैज्ञानिक शैली उसकी मानसिक संरचना को ध्यान में रखकर ही अपनाई गई। जो प्रकारांतर से अपने प्रयोजन में विशेष रूप से सफल रही। मानव बुद्धि का दुरुपयोग तो हर क्षेत्र में हुआ है, फिर भला धर्म ही उससे अछूता क्यों बचे? समाज के विकास का इतिहास बतलाता है कि समाज एवं उससे संबद्ध सामाजिक आचार संहिताओं, रीति-रिवाजों, परंपराओं का निर्माण व्यक्ति के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर किया गया था, किंतु कालांतर में उन्होंने रूढ़ियों और मूढ़ मान्यताओं का स्वरूप ग्रहण कर लिया, फलस्वरूप उनकी उपयोगिता, उपादेयता जाती रही और उल्टे अनेकानेक विकृतियों ने अड्डा जमा लिया। निहित स्वार्थियों ने उनकी आड़ में अपनी कुचाल चलनी आरंभ कर दी।
राज्यों के निर्माण का इतिहास बताता है कि राज्य संस्था को मनुष्य के व्यक्तित्व एवं सामाजिक जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाने के लिए ही विनिर्मित किया गया था। यह सच है कि इस तंत्र ने सामाजिक सुरक्षा एवं व्यवस्था को कायम रखने में प्रशंसनीय भूमिका निभाई है, पर उतना ही सच यह भी है कि शासन की निरंकुश तानाशाही सत्ता ने कितनी ही बार उच्छृंखल होकर समाज पर भयंकर कहर ढाया है। विश्व के शासन तंत्र का इतिहास पढ़ने पर निर्मम, अत्याचारी शासकों के ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने वर्चस्व के लिए भयंकर रक्तपात किया। इतने पर भी राज्य एवं शासन तंत्र की उपयोगिता एवं महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। तंत्र के दुरुपयोग को ही तथ्य मानकर यदि शासनतंत्र की गरिमा एवं आवश्यकता को अस्वीकार कर दिया जाए तो भारी संकटों का सामना करना पड़ सकता है। इससे तो समाज में अव्यवस्था, असुरक्षा एवं अराजकता की ही अभिवृद्धि होगी। फलस्वरूप पतन का मार्ग ही प्रशस्त होगा।
विज्ञान ने मानव जाति की प्रगति में असामान्य योगदान दिया है, यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे कोई भी विज्ञ इंकार नहीं कर सकता, पर उतना ही सच यह भी है कि मानव बुद्धि ने विज्ञान का दुरुपयोग भी कोई कम नहीं किया है। अस्त्र-शस्त्रों, परमाणु बमों के निर्माण एवं परीक्षणों से उत्पन्न विभीषिकाओं के द्वारा मनुष्य जाति के घुट-घुटकर मरने जैसी विस्फोटक स्थिति पैदा होती जा रही है। सभ्यता का नामोनिशान मिटा देने में आविष्कृत, ध्वंसकारी यंत्र सक्षम हैं। यह एक ऐसा पक्ष है जो विज्ञान के दुरुपयोग की ही कहानी नंगे रूप में प्रस्तुत करता है। इसके बावजूद वैज्ञानिक विधा की महत्ता एवं उपयोगिता कम नहीं हो जाती। दुरुपयोग का दोष उस दुर्बुद्धि पर जाता है जो उन कुचक्रों में अपनी सामर्थ्य को नियोजित कर रही है।
मनुष्य जीवन एवं समाज का इतिहास प्रत्येक वस्तु के दुरुपयोग की कहानी कहता है। धर्मक्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है। निहित स्वार्थियों की घुसपैठ से कोई क्षेत्र खाली नहीं है। इस क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे व्यक्तियों की घुसपैठ हुई जिन्होंने धर्म का दुरुपयोग अपने स्वार्थों के लिए किया। सांप्रदायिकता का विष ऐसे ही व्यक्तियों द्वारा फैलाया जाता है।
सामान्य व्यक्ति प्रायः धर्म के शाश्वत स्वरूप एवं लक्ष्य से दिग्भ्रांत होकर विकृतियों के प्रवाह में ही बह जाता है। जहां कहीं भी सांप्रदायिकता पनपती है, उसको पोषण ऐसे भटके हुए भावुक अंधानुयायियों द्वारा मिलता है। इस स्थिति को देखकर ही धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ बुद्धिजीवी, भौतिकतावादी दर्शन के समर्थक प्रायः धर्म का नाम लेते ही नाक-भौं सिकोड़ते और उसे निरुपयोगी ठहराने के लिए कुछ उठा नहीं रखते। यह बात उसी तरह है जैसे शासनतंत्र, विज्ञान आदि के दुरुपयोग को देखकर कोई यह कहने लगे कि यह सब समाज के लिए अहितकर तथा बेकार है। निःसंदेह ऐसे चिंतन को दूरदर्शितापूर्ण नहीं कहा जा सकता है। धर्मक्षेत्र की विकृतियों को देखकर कभी यदि मार्क्स जैसे विचारक का यह उद्गार फूट पड़ा हो कि—‘‘धर्म एक अफीम की गोली है।’’ तो आश्चर्य किस बात का? निःसंदेह यह कहना होगा कि मार्क्स के युग में उनके संपर्क के वातावरण में धर्म का विकृत स्वरूप ही प्रचलित था।
जिन्होंने धर्म के सही स्वरूप एवं लक्ष्य को समझा, उन्होंने एकमत से कहा कि धर्म मानवीय विकास के लिए एक अनिवार्यता है। धर्मतत्व का गहराई से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यदि हम वास्तव में कुछ महत्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो हमारा कोई धर्म होना चाहिए। यदि हमारी सभ्यता को वर्तमान भयंकर स्थिति में से निकालने के लिए कुछ किया जाना है तो यह ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है, जिनका कोई धर्म है। जिन लोगों का कोई धर्म नहीं होता तो वे कायर एवं असभ्य होते हैं।
धार्मिक होने का अर्थ है—सद्विचारों एवं सद्भावनाओं का पुंज होना और जो इन विशेषताओं से सुसंपन्न है, वह सच्चे अर्थों में धार्मिक है। हम धर्म से दूर नहीं जा सकते, क्योंकि उसके बिना जीवन में समग्रता एवं परिपूर्णता नहीं आ सकती। यदि धर्म अपने विकसित रूप में जीवन में व्यक्त होने लगे तो मनुष्य अमरता को प्राप्त कर सकता है और वह वैयक्तिक तथा सामाजिक प्रगति का सूत्रधार बन सकता है।
धर्म की इस गरिमा एवं उपादेयता को स्पष्ट करते हुए बहुत समय पूर्व उपनिषद्कारों ने कहा था—
धर्मात् अर्थश्च कामश्च, सधर्मकिन्न सेव्यते ।
अर्थात—धर्म से संपत्ति तथा कामनाओं की प्राप्ति होती है फिर उसकी अभ्यर्थना क्यों नहीं की जाती?
धर्मानुभूति को कार्लमार्क्स की भांति भावुकता का ज्वार मात्र समझना, धर्म के साथ अन्याय करना है। धर्म की अनुभूति का आधार मात्र भावना नहीं है, बल्कि वह प्रज्ञा है जिसमें भावना एवं विवेक दोनों का ही अद्भुत सम्मिश्रण है। प्रज्ञा भावुकता नहीं है। अस्तु धर्म को बेसुध—भावातिरेक मानने की भूल किसी भी हालत में नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यदि हम धर्म को इस तरह वैयक्तिक भावुकता मान लेंगे तो प्रकारांतर से उसकी सार्वजनीनता एवं सार्वलौकिकता पर अनजाने ही प्रहार उसी प्रकार करेंगे जिस तरह धर्म तत्व से अपरिचित तथाकथित भौतिकतावादी करते हैं।
उपरोक्त तथ्यों से धर्म का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट हो जाता है, पर इसे विश्वमानस का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उसने धर्म के सदा अविकसित स्वरूप को ही देखा और उसके अनुसरण से जन्मी विकृतियों को धर्म की विकृति मान लिया, जबकि धर्म का सही मूल्यांकन उत्कृष्ट तथा परिष्कृत धर्मानुयायियों के आचरण के प्रकाश में ही किया जाना चाहिए। क्योंकि धर्म की विराट परिभाषा के अंतर्गत धर्म को एक ऐसे विश्वास या आस्था के रूप में स्वीकार किया जाता है जो व्यक्ति के आचरण में, उसकी क्रियाओं में, प्रतिफलित होती है।
अपने विराट स्वरूप में धर्म उतना ही व्यापक है जितना कि यह विश्व। जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं बचता जो धर्म के अंतर्गत न आता हो। ऐसी कोई विद्या नहीं है, जहां धार्मिकता, कर्त्तव्यपरायणता, उच्चस्तरीय आदर्शवादिता की आवश्यकता न हो। चाहे वह राजतंत्र हो, अर्थतंत्र हो अथवा समाजतंत्र। नीतिमत्ता, कर्त्तव्यपरायणता, अनुशासन सहकार के बिना, व्यक्तिगत, पारिवारिक अथवा सामाजिक किसी भी जीवन की आधारशिला सुदृढ़ बनी नहीं रह सकती। यों तो इन सामाजिक गुणों की महत्ता का प्रतिपादन समाजशास्त्री भी करते हैं, राजनेता भी करते हैं, तदनुरूप आस्था उत्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास भी चलते हैं, पर उन प्रयासों में यत्किंचित सफलता ही मिल पाती है। असफलता का कारण स्पष्ट है। अंतः के मर्मस्थल को छूने के लिए सद्भाव संपन्न व्यक्तियों का अभाव अभीष्ट तरह की सफलता प्राप्ति में बड़ा बाधक बनता है। अस्तु सिद्धांतों एवं कार्यक्रमों की दृष्टि से समाज सुधारकों एवं राजनेताओं के प्रयास समग्र होते हुए भी आंतरिक महानता न होने के कारण वह प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाते, जिनसे व्यक्ति स्वयं बदलता चला जाए और नीति के मार्ग पर स्वेच्छा से आरूढ़ हो जाए।
कहना न होगा कि धर्म यही भावभरी भूमिका संपन्न करता है। उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धांतों के प्रति न केवल आस्था उत्पन्न करना, वरन उनको व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट करने के लिए विवश करना धर्म का प्रमुख लक्ष्य है। धर्म के विविध मनोवैज्ञानिक प्रयोग इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। मनुष्य का आचरण पवित्रता और चिंतन उत्कृष्टता से अनुप्राणित हो जाए, धर्म का चरम लक्ष्य यही है। मनुष्य के भीतर से ऐसी ही प्रेरणाओं को उभारने के लिए धर्म आदिकाल से सचेष्ट रहा है।
अन्य क्षेत्रों की भांति इस क्षेत्र में घुस आई विकृतियों, अंधविश्वासों को निष्कासित किया जा सके तथा धर्म का तात्विक स्वरूप जनसामान्य के समक्ष रखा जा सके, तो नवनिर्माण करने में पूर्णतया सक्षम है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि धर्म को सांप्रदायिकता की संकीर्ण परिधि से बाहर निकाला जाए, उसका सार्वभौम स्वरूप प्रस्तुत किया जाए।
अधिकांश व्यक्ति धर्म का नाम लेते ही मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों, प्रार्थनाघरों, शास्त्रों का आदि स्मरण करने लगते हैं तथा धार्मिक क्रिया-कृत्यों को ही धर्म का स्वरूप मान लेते हैं, जबकि वे धर्म नहीं, मात्र कलेवर हैं, और धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति के माध्यम भर हैं, पर कितने ही व्यक्ति ऐसे भी हो सकते हैं, जिनका विश्वास इन चीजों-बहिरंग उपादानों पर न हो, जबकि वे पूर्णतः धार्मिक हो सकते हैं। उनका आचरण धर्म को, उसमें सन्निहित आदर्शों को स्वयं व्यक्त करता है।
एक मनीषी ने धर्म को कर्त्तव्यपरायणता के रूप में परिभाषित करते हुए लिखा है कि—ऐसी कर्त्तव्यपरायणता जो मनुष्य को व्यक्तिगत संकीर्ण दायरे से निकालती है तथा समष्टि की ओर चलने, उससे बंधने की प्रेरणा देती हो। सचमुच ही गंभीरता एवं सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो स्पष्ट होगा कि धर्म के मूल में यही प्रेरणाएं परोक्ष रूप से उद्भासित होती हैं। आचरण की श्रेष्ठता, विचारों की उत्कृष्टता तथा भावनाओं की पवित्रता ही धर्म का व्यावहारिक लक्ष्य है। यही अपनी चरमसीमा पर पहुंच कर उन अलौकिक अनुभूतियों का मार्ग प्रशस्त करता है, जिसे ईश्वरानुभूति के रूप में निरूपित किया गया है।
पुरातन ऋषियों ने धर्म का सृजन इसी महान लक्ष्य के लिए किया था तथा उसे शास्त्र-पुराण, देवालय आदि का जामा पहनाया था। मानवीय व्यक्तित्व के परिशोधन एवं सद्गुणों के अभिवर्द्धन के लिए यह मनोवैज्ञानिक शैली उसकी मानसिक संरचना को ध्यान में रखकर ही अपनाई गई। जो प्रकारांतर से अपने प्रयोजन में विशेष रूप से सफल रही। मानव बुद्धि का दुरुपयोग तो हर क्षेत्र में हुआ है, फिर भला धर्म ही उससे अछूता क्यों बचे? समाज के विकास का इतिहास बतलाता है कि समाज एवं उससे संबद्ध सामाजिक आचार संहिताओं, रीति-रिवाजों, परंपराओं का निर्माण व्यक्ति के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर किया गया था, किंतु कालांतर में उन्होंने रूढ़ियों और मूढ़ मान्यताओं का स्वरूप ग्रहण कर लिया, फलस्वरूप उनकी उपयोगिता, उपादेयता जाती रही और उल्टे अनेकानेक विकृतियों ने अड्डा जमा लिया। निहित स्वार्थियों ने उनकी आड़ में अपनी कुचाल चलनी आरंभ कर दी।
राज्यों के निर्माण का इतिहास बताता है कि राज्य संस्था को मनुष्य के व्यक्तित्व एवं सामाजिक जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाने के लिए ही विनिर्मित किया गया था। यह सच है कि इस तंत्र ने सामाजिक सुरक्षा एवं व्यवस्था को कायम रखने में प्रशंसनीय भूमिका निभाई है, पर उतना ही सच यह भी है कि शासन की निरंकुश तानाशाही सत्ता ने कितनी ही बार उच्छृंखल होकर समाज पर भयंकर कहर ढाया है। विश्व के शासन तंत्र का इतिहास पढ़ने पर निर्मम, अत्याचारी शासकों के ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने वर्चस्व के लिए भयंकर रक्तपात किया। इतने पर भी राज्य एवं शासन तंत्र की उपयोगिता एवं महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। तंत्र के दुरुपयोग को ही तथ्य मानकर यदि शासनतंत्र की गरिमा एवं आवश्यकता को अस्वीकार कर दिया जाए तो भारी संकटों का सामना करना पड़ सकता है। इससे तो समाज में अव्यवस्था, असुरक्षा एवं अराजकता की ही अभिवृद्धि होगी। फलस्वरूप पतन का मार्ग ही प्रशस्त होगा।
विज्ञान ने मानव जाति की प्रगति में असामान्य योगदान दिया है, यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे कोई भी विज्ञ इंकार नहीं कर सकता, पर उतना ही सच यह भी है कि मानव बुद्धि ने विज्ञान का दुरुपयोग भी कोई कम नहीं किया है। अस्त्र-शस्त्रों, परमाणु बमों के निर्माण एवं परीक्षणों से उत्पन्न विभीषिकाओं के द्वारा मनुष्य जाति के घुट-घुटकर मरने जैसी विस्फोटक स्थिति पैदा होती जा रही है। सभ्यता का नामोनिशान मिटा देने में आविष्कृत, ध्वंसकारी यंत्र सक्षम हैं। यह एक ऐसा पक्ष है जो विज्ञान के दुरुपयोग की ही कहानी नंगे रूप में प्रस्तुत करता है। इसके बावजूद वैज्ञानिक विधा की महत्ता एवं उपयोगिता कम नहीं हो जाती। दुरुपयोग का दोष उस दुर्बुद्धि पर जाता है जो उन कुचक्रों में अपनी सामर्थ्य को नियोजित कर रही है।
मनुष्य जीवन एवं समाज का इतिहास प्रत्येक वस्तु के दुरुपयोग की कहानी कहता है। धर्मक्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है। निहित स्वार्थियों की घुसपैठ से कोई क्षेत्र खाली नहीं है। इस क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे व्यक्तियों की घुसपैठ हुई जिन्होंने धर्म का दुरुपयोग अपने स्वार्थों के लिए किया। सांप्रदायिकता का विष ऐसे ही व्यक्तियों द्वारा फैलाया जाता है।
सामान्य व्यक्ति प्रायः धर्म के शाश्वत स्वरूप एवं लक्ष्य से दिग्भ्रांत होकर विकृतियों के प्रवाह में ही बह जाता है। जहां कहीं भी सांप्रदायिकता पनपती है, उसको पोषण ऐसे भटके हुए भावुक अंधानुयायियों द्वारा मिलता है। इस स्थिति को देखकर ही धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ बुद्धिजीवी, भौतिकतावादी दर्शन के समर्थक प्रायः धर्म का नाम लेते ही नाक-भौं सिकोड़ते और उसे निरुपयोगी ठहराने के लिए कुछ उठा नहीं रखते। यह बात उसी तरह है जैसे शासनतंत्र, विज्ञान आदि के दुरुपयोग को देखकर कोई यह कहने लगे कि यह सब समाज के लिए अहितकर तथा बेकार है। निःसंदेह ऐसे चिंतन को दूरदर्शितापूर्ण नहीं कहा जा सकता है। धर्मक्षेत्र की विकृतियों को देखकर कभी यदि मार्क्स जैसे विचारक का यह उद्गार फूट पड़ा हो कि—‘‘धर्म एक अफीम की गोली है।’’ तो आश्चर्य किस बात का? निःसंदेह यह कहना होगा कि मार्क्स के युग में उनके संपर्क के वातावरण में धर्म का विकृत स्वरूप ही प्रचलित था।
जिन्होंने धर्म के सही स्वरूप एवं लक्ष्य को समझा, उन्होंने एकमत से कहा कि धर्म मानवीय विकास के लिए एक अनिवार्यता है। धर्मतत्व का गहराई से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यदि हम वास्तव में कुछ महत्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो हमारा कोई धर्म होना चाहिए। यदि हमारी सभ्यता को वर्तमान भयंकर स्थिति में से निकालने के लिए कुछ किया जाना है तो यह ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है, जिनका कोई धर्म है। जिन लोगों का कोई धर्म नहीं होता तो वे कायर एवं असभ्य होते हैं।
धार्मिक होने का अर्थ है—सद्विचारों एवं सद्भावनाओं का पुंज होना और जो इन विशेषताओं से सुसंपन्न है, वह सच्चे अर्थों में धार्मिक है। हम धर्म से दूर नहीं जा सकते, क्योंकि उसके बिना जीवन में समग्रता एवं परिपूर्णता नहीं आ सकती। यदि धर्म अपने विकसित रूप में जीवन में व्यक्त होने लगे तो मनुष्य अमरता को प्राप्त कर सकता है और वह वैयक्तिक तथा सामाजिक प्रगति का सूत्रधार बन सकता है।
धर्म की इस गरिमा एवं उपादेयता को स्पष्ट करते हुए बहुत समय पूर्व उपनिषद्कारों ने कहा था—
धर्मात् अर्थश्च कामश्च, सधर्मकिन्न सेव्यते ।
अर्थात—धर्म से संपत्ति तथा कामनाओं की प्राप्ति होती है फिर उसकी अभ्यर्थना क्यों नहीं की जाती?
धर्मानुभूति को कार्लमार्क्स की भांति भावुकता का ज्वार मात्र समझना, धर्म के साथ अन्याय करना है। धर्म की अनुभूति का आधार मात्र भावना नहीं है, बल्कि वह प्रज्ञा है जिसमें भावना एवं विवेक दोनों का ही अद्भुत सम्मिश्रण है। प्रज्ञा भावुकता नहीं है। अस्तु धर्म को बेसुध—भावातिरेक मानने की भूल किसी भी हालत में नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यदि हम धर्म को इस तरह वैयक्तिक भावुकता मान लेंगे तो प्रकारांतर से उसकी सार्वजनीनता एवं सार्वलौकिकता पर अनजाने ही प्रहार उसी प्रकार करेंगे जिस तरह धर्म तत्व से अपरिचित तथाकथित भौतिकतावादी करते हैं।
उपरोक्त तथ्यों से धर्म का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट हो जाता है, पर इसे विश्वमानस का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उसने धर्म के सदा अविकसित स्वरूप को ही देखा और उसके अनुसरण से जन्मी विकृतियों को धर्म की विकृति मान लिया, जबकि धर्म का सही मूल्यांकन उत्कृष्ट तथा परिष्कृत धर्मानुयायियों के आचरण के प्रकाश में ही किया जाना चाहिए। क्योंकि धर्म की विराट परिभाषा के अंतर्गत धर्म को एक ऐसे विश्वास या आस्था के रूप में स्वीकार किया जाता है जो व्यक्ति के आचरण में, उसकी क्रियाओं में, प्रतिफलित होती है।
अपने विराट स्वरूप में धर्म उतना ही व्यापक है जितना कि यह विश्व। जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं बचता जो धर्म के अंतर्गत न आता हो। ऐसी कोई विद्या नहीं है, जहां धार्मिकता, कर्त्तव्यपरायणता, उच्चस्तरीय आदर्शवादिता की आवश्यकता न हो। चाहे वह राजतंत्र हो, अर्थतंत्र हो अथवा समाजतंत्र। नीतिमत्ता, कर्त्तव्यपरायणता, अनुशासन सहकार के बिना, व्यक्तिगत, पारिवारिक अथवा सामाजिक किसी भी जीवन की आधारशिला सुदृढ़ बनी नहीं रह सकती। यों तो इन सामाजिक गुणों की महत्ता का प्रतिपादन समाजशास्त्री भी करते हैं, राजनेता भी करते हैं, तदनुरूप आस्था उत्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास भी चलते हैं, पर उन प्रयासों में यत्किंचित सफलता ही मिल पाती है। असफलता का कारण स्पष्ट है। अंतः के मर्मस्थल को छूने के लिए सद्भाव संपन्न व्यक्तियों का अभाव अभीष्ट तरह की सफलता प्राप्ति में बड़ा बाधक बनता है। अस्तु सिद्धांतों एवं कार्यक्रमों की दृष्टि से समाज सुधारकों एवं राजनेताओं के प्रयास समग्र होते हुए भी आंतरिक महानता न होने के कारण वह प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाते, जिनसे व्यक्ति स्वयं बदलता चला जाए और नीति के मार्ग पर स्वेच्छा से आरूढ़ हो जाए।
कहना न होगा कि धर्म यही भावभरी भूमिका संपन्न करता है। उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धांतों के प्रति न केवल आस्था उत्पन्न करना, वरन उनको व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट करने के लिए विवश करना धर्म का प्रमुख लक्ष्य है। धर्म के विविध मनोवैज्ञानिक प्रयोग इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। मनुष्य का आचरण पवित्रता और चिंतन उत्कृष्टता से अनुप्राणित हो जाए, धर्म का चरम लक्ष्य यही है। मनुष्य के भीतर से ऐसी ही प्रेरणाओं को उभारने के लिए धर्म आदिकाल से सचेष्ट रहा है।
अन्य क्षेत्रों की भांति इस क्षेत्र में घुस आई विकृतियों, अंधविश्वासों को निष्कासित किया जा सके तथा धर्म का तात्विक स्वरूप जनसामान्य के समक्ष रखा जा सके, तो नवनिर्माण करने में पूर्णतया सक्षम है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि धर्म को सांप्रदायिकता की संकीर्ण परिधि से बाहर निकाला जाए, उसका सार्वभौम स्वरूप प्रस्तुत किया जाए।
एक मनीषी ने धर्म को कर्त्तव्यपरायणता के रूप में परिभाषित करते हुए लिखा है कि—ऐसी कर्त्तव्यपरायणता जो मनुष्य को व्यक्तिगत संकीर्ण दायरे से निकालती है तथा समष्टि की ओर चलने, उससे बंधने की प्रेरणा देती हो। सचमुच ही गंभीरता एवं सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो स्पष्ट होगा कि धर्म के मूल में यही प्रेरणाएं परोक्ष रूप से उद्भासित होती हैं। आचरण की श्रेष्ठता, विचारों की उत्कृष्टता तथा भावनाओं की पवित्रता ही धर्म का व्यावहारिक लक्ष्य है। यही अपनी चरमसीमा पर पहुंच कर उन अलौकिक अनुभूतियों का मार्ग प्रशस्त करता है, जिसे ईश्वरानुभूति के रूप में निरूपित किया गया है।
पुरातन ऋषियों ने धर्म का सृजन इसी महान लक्ष्य के लिए किया था तथा उसे शास्त्र-पुराण, देवालय आदि का जामा पहनाया था। मानवीय व्यक्तित्व के परिशोधन एवं सद्गुणों के अभिवर्द्धन के लिए यह मनोवैज्ञानिक शैली उसकी मानसिक संरचना को ध्यान में रखकर ही अपनाई गई। जो प्रकारांतर से अपने प्रयोजन में विशेष रूप से सफल रही। मानव बुद्धि का दुरुपयोग तो हर क्षेत्र में हुआ है, फिर भला धर्म ही उससे अछूता क्यों बचे? समाज के विकास का इतिहास बतलाता है कि समाज एवं उससे संबद्ध सामाजिक आचार संहिताओं, रीति-रिवाजों, परंपराओं का निर्माण व्यक्ति के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर किया गया था, किंतु कालांतर में उन्होंने रूढ़ियों और मूढ़ मान्यताओं का स्वरूप ग्रहण कर लिया, फलस्वरूप उनकी उपयोगिता, उपादेयता जाती रही और उल्टे अनेकानेक विकृतियों ने अड्डा जमा लिया। निहित स्वार्थियों ने उनकी आड़ में अपनी कुचाल चलनी आरंभ कर दी।
राज्यों के निर्माण का इतिहास बताता है कि राज्य संस्था को मनुष्य के व्यक्तित्व एवं सामाजिक जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाने के लिए ही विनिर्मित किया गया था। यह सच है कि इस तंत्र ने सामाजिक सुरक्षा एवं व्यवस्था को कायम रखने में प्रशंसनीय भूमिका निभाई है, पर उतना ही सच यह भी है कि शासन की निरंकुश तानाशाही सत्ता ने कितनी ही बार उच्छृंखल होकर समाज पर भयंकर कहर ढाया है। विश्व के शासन तंत्र का इतिहास पढ़ने पर निर्मम, अत्याचारी शासकों के ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने वर्चस्व के लिए भयंकर रक्तपात किया। इतने पर भी राज्य एवं शासन तंत्र की उपयोगिता एवं महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। तंत्र के दुरुपयोग को ही तथ्य मानकर यदि शासनतंत्र की गरिमा एवं आवश्यकता को अस्वीकार कर दिया जाए तो भारी संकटों का सामना करना पड़ सकता है। इससे तो समाज में अव्यवस्था, असुरक्षा एवं अराजकता की ही अभिवृद्धि होगी। फलस्वरूप पतन का मार्ग ही प्रशस्त होगा।
विज्ञान ने मानव जाति की प्रगति में असामान्य योगदान दिया है, यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे कोई भी विज्ञ इंकार नहीं कर सकता, पर उतना ही सच यह भी है कि मानव बुद्धि ने विज्ञान का दुरुपयोग भी कोई कम नहीं किया है। अस्त्र-शस्त्रों, परमाणु बमों के निर्माण एवं परीक्षणों से उत्पन्न विभीषिकाओं के द्वारा मनुष्य जाति के घुट-घुटकर मरने जैसी विस्फोटक स्थिति पैदा होती जा रही है। सभ्यता का नामोनिशान मिटा देने में आविष्कृत, ध्वंसकारी यंत्र सक्षम हैं। यह एक ऐसा पक्ष है जो विज्ञान के दुरुपयोग की ही कहानी नंगे रूप में प्रस्तुत करता है। इसके बावजूद वैज्ञानिक विधा की महत्ता एवं उपयोगिता कम नहीं हो जाती। दुरुपयोग का दोष उस दुर्बुद्धि पर जाता है जो उन कुचक्रों में अपनी सामर्थ्य को नियोजित कर रही है।
मनुष्य जीवन एवं समाज का इतिहास प्रत्येक वस्तु के दुरुपयोग की कहानी कहता है। धर्मक्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है। निहित स्वार्थियों की घुसपैठ से कोई क्षेत्र खाली नहीं है। इस क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे व्यक्तियों की घुसपैठ हुई जिन्होंने धर्म का दुरुपयोग अपने स्वार्थों के लिए किया। सांप्रदायिकता का विष ऐसे ही व्यक्तियों द्वारा फैलाया जाता है।
सामान्य व्यक्ति प्रायः धर्म के शाश्वत स्वरूप एवं लक्ष्य से दिग्भ्रांत होकर विकृतियों के प्रवाह में ही बह जाता है। जहां कहीं भी सांप्रदायिकता पनपती है, उसको पोषण ऐसे भटके हुए भावुक अंधानुयायियों द्वारा मिलता है। इस स्थिति को देखकर ही धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ बुद्धिजीवी, भौतिकतावादी दर्शन के समर्थक प्रायः धर्म का नाम लेते ही नाक-भौं सिकोड़ते और उसे निरुपयोगी ठहराने के लिए कुछ उठा नहीं रखते। यह बात उसी तरह है जैसे शासनतंत्र, विज्ञान आदि के दुरुपयोग को देखकर कोई यह कहने लगे कि यह सब समाज के लिए अहितकर तथा बेकार है। निःसंदेह ऐसे चिंतन को दूरदर्शितापूर्ण नहीं कहा जा सकता है। धर्मक्षेत्र की विकृतियों को देखकर कभी यदि मार्क्स जैसे विचारक का यह उद्गार फूट पड़ा हो कि—‘‘धर्म एक अफीम की गोली है।’’ तो आश्चर्य किस बात का? निःसंदेह यह कहना होगा कि मार्क्स के युग में उनके संपर्क के वातावरण में धर्म का विकृत स्वरूप ही प्रचलित था।
जिन्होंने धर्म के सही स्वरूप एवं लक्ष्य को समझा, उन्होंने एकमत से कहा कि धर्म मानवीय विकास के लिए एक अनिवार्यता है। धर्मतत्व का गहराई से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यदि हम वास्तव में कुछ महत्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो हमारा कोई धर्म होना चाहिए। यदि हमारी सभ्यता को वर्तमान भयंकर स्थिति में से निकालने के लिए कुछ किया जाना है तो यह ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है, जिनका कोई धर्म है। जिन लोगों का कोई धर्म नहीं होता तो वे कायर एवं असभ्य होते हैं।
धार्मिक होने का अर्थ है—सद्विचारों एवं सद्भावनाओं का पुंज होना और जो इन विशेषताओं से सुसंपन्न है, वह सच्चे अर्थों में धार्मिक है। हम धर्म से दूर नहीं जा सकते, क्योंकि उसके बिना जीवन में समग्रता एवं परिपूर्णता नहीं आ सकती। यदि धर्म अपने विकसित रूप में जीवन में व्यक्त होने लगे तो मनुष्य अमरता को प्राप्त कर सकता है और वह वैयक्तिक तथा सामाजिक प्रगति का सूत्रधार बन सकता है।
धर्म की इस गरिमा एवं उपादेयता को स्पष्ट करते हुए बहुत समय पूर्व उपनिषद्कारों ने कहा था—
धर्मात् अर्थश्च कामश्च, सधर्मकिन्न सेव्यते ।
अर्थात—धर्म से संपत्ति तथा कामनाओं की प्राप्ति होती है फिर उसकी अभ्यर्थना क्यों नहीं की जाती?
धर्मानुभूति को कार्लमार्क्स की भांति भावुकता का ज्वार मात्र समझना, धर्म के साथ अन्याय करना है। धर्म की अनुभूति का आधार मात्र भावना नहीं है, बल्कि वह प्रज्ञा है जिसमें भावना एवं विवेक दोनों का ही अद्भुत सम्मिश्रण है। प्रज्ञा भावुकता नहीं है। अस्तु धर्म को बेसुध—भावातिरेक मानने की भूल किसी भी हालत में नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यदि हम धर्म को इस तरह वैयक्तिक भावुकता मान लेंगे तो प्रकारांतर से उसकी सार्वजनीनता एवं सार्वलौकिकता पर अनजाने ही प्रहार उसी प्रकार करेंगे जिस तरह धर्म तत्व से अपरिचित तथाकथित भौतिकतावादी करते हैं।
उपरोक्त तथ्यों से धर्म का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट हो जाता है, पर इसे विश्वमानस का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उसने धर्म के सदा अविकसित स्वरूप को ही देखा और उसके अनुसरण से जन्मी विकृतियों को धर्म की विकृति मान लिया, जबकि धर्म का सही मूल्यांकन उत्कृष्ट तथा परिष्कृत धर्मानुयायियों के आचरण के प्रकाश में ही किया जाना चाहिए। क्योंकि धर्म की विराट परिभाषा के अंतर्गत धर्म को एक ऐसे विश्वास या आस्था के रूप में स्वीकार किया जाता है जो व्यक्ति के आचरण में, उसकी क्रियाओं में, प्रतिफलित होती है।
अपने विराट स्वरूप में धर्म उतना ही व्यापक है जितना कि यह विश्व। जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं बचता जो धर्म के अंतर्गत न आता हो। ऐसी कोई विद्या नहीं है, जहां धार्मिकता, कर्त्तव्यपरायणता, उच्चस्तरीय आदर्शवादिता की आवश्यकता न हो। चाहे वह राजतंत्र हो, अर्थतंत्र हो अथवा समाजतंत्र। नीतिमत्ता, कर्त्तव्यपरायणता, अनुशासन सहकार के बिना, व्यक्तिगत, पारिवारिक अथवा सामाजिक किसी भी जीवन की आधारशिला सुदृढ़ बनी नहीं रह सकती। यों तो इन सामाजिक गुणों की महत्ता का प्रतिपादन समाजशास्त्री भी करते हैं, राजनेता भी करते हैं, तदनुरूप आस्था उत्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास भी चलते हैं, पर उन प्रयासों में यत्किंचित सफलता ही मिल पाती है। असफलता का कारण स्पष्ट है। अंतः के मर्मस्थल को छूने के लिए सद्भाव संपन्न व्यक्तियों का अभाव अभीष्ट तरह की सफलता प्राप्ति में बड़ा बाधक बनता है। अस्तु सिद्धांतों एवं कार्यक्रमों की दृष्टि से समाज सुधारकों एवं राजनेताओं के प्रयास समग्र होते हुए भी आंतरिक महानता न होने के कारण वह प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाते, जिनसे व्यक्ति स्वयं बदलता चला जाए और नीति के मार्ग पर स्वेच्छा से आरूढ़ हो जाए।
कहना न होगा कि धर्म यही भावभरी भूमिका संपन्न करता है। उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धांतों के प्रति न केवल आस्था उत्पन्न करना, वरन उनको व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट करने के लिए विवश करना धर्म का प्रमुख लक्ष्य है। धर्म के विविध मनोवैज्ञानिक प्रयोग इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। मनुष्य का आचरण पवित्रता और चिंतन उत्कृष्टता से अनुप्राणित हो जाए, धर्म का चरम लक्ष्य यही है। मनुष्य के भीतर से ऐसी ही प्रेरणाओं को उभारने के लिए धर्म आदिकाल से सचेष्ट रहा है।
अन्य क्षेत्रों की भांति इस क्षेत्र में घुस आई विकृतियों, अंधविश्वासों को निष्कासित किया जा सके तथा धर्म का तात्विक स्वरूप जनसामान्य के समक्ष रखा जा सके, तो नवनिर्माण करने में पूर्णतया सक्षम है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि धर्म को सांप्रदायिकता की संकीर्ण परिधि से बाहर निकाला जाए, उसका सार्वभौम स्वरूप प्रस्तुत किया जाए।
अधिकांश व्यक्ति धर्म का नाम लेते ही मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों, प्रार्थनाघरों, शास्त्रों का आदि स्मरण करने लगते हैं तथा धार्मिक क्रिया-कृत्यों को ही धर्म का स्वरूप मान लेते हैं, जबकि वे धर्म नहीं, मात्र कलेवर हैं, और धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति के माध्यम भर हैं, पर कितने ही व्यक्ति ऐसे भी हो सकते हैं, जिनका विश्वास इन चीजों-बहिरंग उपादानों पर न हो, जबकि वे पूर्णतः धार्मिक हो सकते हैं। उनका आचरण धर्म को, उसमें सन्निहित आदर्शों को स्वयं व्यक्त करता है।
एक मनीषी ने धर्म को कर्त्तव्यपरायणता के रूप में परिभाषित करते हुए लिखा है कि—ऐसी कर्त्तव्यपरायणता जो मनुष्य को व्यक्तिगत संकीर्ण दायरे से निकालती है तथा समष्टि की ओर चलने, उससे बंधने की प्रेरणा देती हो। सचमुच ही गंभीरता एवं सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए तो स्पष्ट होगा कि धर्म के मूल में यही प्रेरणाएं परोक्ष रूप से उद्भासित होती हैं। आचरण की श्रेष्ठता, विचारों की उत्कृष्टता तथा भावनाओं की पवित्रता ही धर्म का व्यावहारिक लक्ष्य है। यही अपनी चरमसीमा पर पहुंच कर उन अलौकिक अनुभूतियों का मार्ग प्रशस्त करता है, जिसे ईश्वरानुभूति के रूप में निरूपित किया गया है।
पुरातन ऋषियों ने धर्म का सृजन इसी महान लक्ष्य के लिए किया था तथा उसे शास्त्र-पुराण, देवालय आदि का जामा पहनाया था। मानवीय व्यक्तित्व के परिशोधन एवं सद्गुणों के अभिवर्द्धन के लिए यह मनोवैज्ञानिक शैली उसकी मानसिक संरचना को ध्यान में रखकर ही अपनाई गई। जो प्रकारांतर से अपने प्रयोजन में विशेष रूप से सफल रही। मानव बुद्धि का दुरुपयोग तो हर क्षेत्र में हुआ है, फिर भला धर्म ही उससे अछूता क्यों बचे? समाज के विकास का इतिहास बतलाता है कि समाज एवं उससे संबद्ध सामाजिक आचार संहिताओं, रीति-रिवाजों, परंपराओं का निर्माण व्यक्ति के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर किया गया था, किंतु कालांतर में उन्होंने रूढ़ियों और मूढ़ मान्यताओं का स्वरूप ग्रहण कर लिया, फलस्वरूप उनकी उपयोगिता, उपादेयता जाती रही और उल्टे अनेकानेक विकृतियों ने अड्डा जमा लिया। निहित स्वार्थियों ने उनकी आड़ में अपनी कुचाल चलनी आरंभ कर दी।
राज्यों के निर्माण का इतिहास बताता है कि राज्य संस्था को मनुष्य के व्यक्तित्व एवं सामाजिक जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाने के लिए ही विनिर्मित किया गया था। यह सच है कि इस तंत्र ने सामाजिक सुरक्षा एवं व्यवस्था को कायम रखने में प्रशंसनीय भूमिका निभाई है, पर उतना ही सच यह भी है कि शासन की निरंकुश तानाशाही सत्ता ने कितनी ही बार उच्छृंखल होकर समाज पर भयंकर कहर ढाया है। विश्व के शासन तंत्र का इतिहास पढ़ने पर निर्मम, अत्याचारी शासकों के ऐसे ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने वर्चस्व के लिए भयंकर रक्तपात किया। इतने पर भी राज्य एवं शासन तंत्र की उपयोगिता एवं महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। तंत्र के दुरुपयोग को ही तथ्य मानकर यदि शासनतंत्र की गरिमा एवं आवश्यकता को अस्वीकार कर दिया जाए तो भारी संकटों का सामना करना पड़ सकता है। इससे तो समाज में अव्यवस्था, असुरक्षा एवं अराजकता की ही अभिवृद्धि होगी। फलस्वरूप पतन का मार्ग ही प्रशस्त होगा।
विज्ञान ने मानव जाति की प्रगति में असामान्य योगदान दिया है, यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे कोई भी विज्ञ इंकार नहीं कर सकता, पर उतना ही सच यह भी है कि मानव बुद्धि ने विज्ञान का दुरुपयोग भी कोई कम नहीं किया है। अस्त्र-शस्त्रों, परमाणु बमों के निर्माण एवं परीक्षणों से उत्पन्न विभीषिकाओं के द्वारा मनुष्य जाति के घुट-घुटकर मरने जैसी विस्फोटक स्थिति पैदा होती जा रही है। सभ्यता का नामोनिशान मिटा देने में आविष्कृत, ध्वंसकारी यंत्र सक्षम हैं। यह एक ऐसा पक्ष है जो विज्ञान के दुरुपयोग की ही कहानी नंगे रूप में प्रस्तुत करता है। इसके बावजूद वैज्ञानिक विधा की महत्ता एवं उपयोगिता कम नहीं हो जाती। दुरुपयोग का दोष उस दुर्बुद्धि पर जाता है जो उन कुचक्रों में अपनी सामर्थ्य को नियोजित कर रही है।
मनुष्य जीवन एवं समाज का इतिहास प्रत्येक वस्तु के दुरुपयोग की कहानी कहता है। धर्मक्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है। निहित स्वार्थियों की घुसपैठ से कोई क्षेत्र खाली नहीं है। इस क्षेत्र में समय-समय पर ऐसे व्यक्तियों की घुसपैठ हुई जिन्होंने धर्म का दुरुपयोग अपने स्वार्थों के लिए किया। सांप्रदायिकता का विष ऐसे ही व्यक्तियों द्वारा फैलाया जाता है।
सामान्य व्यक्ति प्रायः धर्म के शाश्वत स्वरूप एवं लक्ष्य से दिग्भ्रांत होकर विकृतियों के प्रवाह में ही बह जाता है। जहां कहीं भी सांप्रदायिकता पनपती है, उसको पोषण ऐसे भटके हुए भावुक अंधानुयायियों द्वारा मिलता है। इस स्थिति को देखकर ही धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ बुद्धिजीवी, भौतिकतावादी दर्शन के समर्थक प्रायः धर्म का नाम लेते ही नाक-भौं सिकोड़ते और उसे निरुपयोगी ठहराने के लिए कुछ उठा नहीं रखते। यह बात उसी तरह है जैसे शासनतंत्र, विज्ञान आदि के दुरुपयोग को देखकर कोई यह कहने लगे कि यह सब समाज के लिए अहितकर तथा बेकार है। निःसंदेह ऐसे चिंतन को दूरदर्शितापूर्ण नहीं कहा जा सकता है। धर्मक्षेत्र की विकृतियों को देखकर कभी यदि मार्क्स जैसे विचारक का यह उद्गार फूट पड़ा हो कि—‘‘धर्म एक अफीम की गोली है।’’ तो आश्चर्य किस बात का? निःसंदेह यह कहना होगा कि मार्क्स के युग में उनके संपर्क के वातावरण में धर्म का विकृत स्वरूप ही प्रचलित था।
जिन्होंने धर्म के सही स्वरूप एवं लक्ष्य को समझा, उन्होंने एकमत से कहा कि धर्म मानवीय विकास के लिए एक अनिवार्यता है। धर्मतत्व का गहराई से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यदि हम वास्तव में कुछ महत्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो हमारा कोई धर्म होना चाहिए। यदि हमारी सभ्यता को वर्तमान भयंकर स्थिति में से निकालने के लिए कुछ किया जाना है तो यह ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जा सकता है, जिनका कोई धर्म है। जिन लोगों का कोई धर्म नहीं होता तो वे कायर एवं असभ्य होते हैं।
धार्मिक होने का अर्थ है—सद्विचारों एवं सद्भावनाओं का पुंज होना और जो इन विशेषताओं से सुसंपन्न है, वह सच्चे अर्थों में धार्मिक है। हम धर्म से दूर नहीं जा सकते, क्योंकि उसके बिना जीवन में समग्रता एवं परिपूर्णता नहीं आ सकती। यदि धर्म अपने विकसित रूप में जीवन में व्यक्त होने लगे तो मनुष्य अमरता को प्राप्त कर सकता है और वह वैयक्तिक तथा सामाजिक प्रगति का सूत्रधार बन सकता है।
धर्म की इस गरिमा एवं उपादेयता को स्पष्ट करते हुए बहुत समय पूर्व उपनिषद्कारों ने कहा था—
धर्मात् अर्थश्च कामश्च, सधर्मकिन्न सेव्यते ।
अर्थात—धर्म से संपत्ति तथा कामनाओं की प्राप्ति होती है फिर उसकी अभ्यर्थना क्यों नहीं की जाती?
धर्मानुभूति को कार्लमार्क्स की भांति भावुकता का ज्वार मात्र समझना, धर्म के साथ अन्याय करना है। धर्म की अनुभूति का आधार मात्र भावना नहीं है, बल्कि वह प्रज्ञा है जिसमें भावना एवं विवेक दोनों का ही अद्भुत सम्मिश्रण है। प्रज्ञा भावुकता नहीं है। अस्तु धर्म को बेसुध—भावातिरेक मानने की भूल किसी भी हालत में नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यदि हम धर्म को इस तरह वैयक्तिक भावुकता मान लेंगे तो प्रकारांतर से उसकी सार्वजनीनता एवं सार्वलौकिकता पर अनजाने ही प्रहार उसी प्रकार करेंगे जिस तरह धर्म तत्व से अपरिचित तथाकथित भौतिकतावादी करते हैं।
उपरोक्त तथ्यों से धर्म का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट हो जाता है, पर इसे विश्वमानस का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उसने धर्म के सदा अविकसित स्वरूप को ही देखा और उसके अनुसरण से जन्मी विकृतियों को धर्म की विकृति मान लिया, जबकि धर्म का सही मूल्यांकन उत्कृष्ट तथा परिष्कृत धर्मानुयायियों के आचरण के प्रकाश में ही किया जाना चाहिए। क्योंकि धर्म की विराट परिभाषा के अंतर्गत धर्म को एक ऐसे विश्वास या आस्था के रूप में स्वीकार किया जाता है जो व्यक्ति के आचरण में, उसकी क्रियाओं में, प्रतिफलित होती है।
अपने विराट स्वरूप में धर्म उतना ही व्यापक है जितना कि यह विश्व। जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं बचता जो धर्म के अंतर्गत न आता हो। ऐसी कोई विद्या नहीं है, जहां धार्मिकता, कर्त्तव्यपरायणता, उच्चस्तरीय आदर्शवादिता की आवश्यकता न हो। चाहे वह राजतंत्र हो, अर्थतंत्र हो अथवा समाजतंत्र। नीतिमत्ता, कर्त्तव्यपरायणता, अनुशासन सहकार के बिना, व्यक्तिगत, पारिवारिक अथवा सामाजिक किसी भी जीवन की आधारशिला सुदृढ़ बनी नहीं रह सकती। यों तो इन सामाजिक गुणों की महत्ता का प्रतिपादन समाजशास्त्री भी करते हैं, राजनेता भी करते हैं, तदनुरूप आस्था उत्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास भी चलते हैं, पर उन प्रयासों में यत्किंचित सफलता ही मिल पाती है। असफलता का कारण स्पष्ट है। अंतः के मर्मस्थल को छूने के लिए सद्भाव संपन्न व्यक्तियों का अभाव अभीष्ट तरह की सफलता प्राप्ति में बड़ा बाधक बनता है। अस्तु सिद्धांतों एवं कार्यक्रमों की दृष्टि से समाज सुधारकों एवं राजनेताओं के प्रयास समग्र होते हुए भी आंतरिक महानता न होने के कारण वह प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाते, जिनसे व्यक्ति स्वयं बदलता चला जाए और नीति के मार्ग पर स्वेच्छा से आरूढ़ हो जाए।
कहना न होगा कि धर्म यही भावभरी भूमिका संपन्न करता है। उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धांतों के प्रति न केवल आस्था उत्पन्न करना, वरन उनको व्यावहारिक जीवन में समाविष्ट करने के लिए विवश करना धर्म का प्रमुख लक्ष्य है। धर्म के विविध मनोवैज्ञानिक प्रयोग इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। मनुष्य का आचरण पवित्रता और चिंतन उत्कृष्टता से अनुप्राणित हो जाए, धर्म का चरम लक्ष्य यही है। मनुष्य के भीतर से ऐसी ही प्रेरणाओं को उभारने के लिए धर्म आदिकाल से सचेष्ट रहा है।
अन्य क्षेत्रों की भांति इस क्षेत्र में घुस आई विकृतियों, अंधविश्वासों को निष्कासित किया जा सके तथा धर्म का तात्विक स्वरूप जनसामान्य के समक्ष रखा जा सके, तो नवनिर्माण करने में पूर्णतया सक्षम है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि धर्म को सांप्रदायिकता की संकीर्ण परिधि से बाहर निकाला जाए, उसका सार्वभौम स्वरूप प्रस्तुत किया जाए।