
गायत्री विद्या और यज्ञ विज्ञान का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध
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गायत्री और यज्ञ का युग्म है। एक को भारतीय संस्कृति की जननी और दूसरे को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। दोनों अन्योन्याश्रित माने गये हैं। गायत्री जप का अनुष्ठान यज्ञ का समन्वय हुए बिना पूरा नहीं हो सकता। जप का एक अंश हवन भी करना होता है। पुराने समय की सुविधा सम्पन्न स्थिति में जप का दशांश हवन होता था अब समय को देखते हुए शतांश आहुतियों की व्यवस्था है। इसके बिना अनुष्ठान पूरा नहीं माना जाता। जिनके पास साधन नहीं हैं उनके लिए विशेष मार्ग यह निकाल दिया गया है कि वे जप की संख्या का दशांश भाग अलग से जप लें और उसे यज्ञ की स्थान पूर्ति मान लें। इसे विकल्प प्रतिपादन में यज्ञ की उपेक्षा नहीं वरन् अनिवार्यता बताई गई है, भले ही वह सही रूप से सम्पन्न न हो सकी हो और अपवाद की तरह ही अतिरिक्त जप के रूप में क्यों न अपनाई गई हो।
जनक और यज्ञवल्क्य का संवाद यज्ञ के साधन न मिल सकने के सन्दर्भ में हुआ है। जनक कठिनाइयां बताते रहे हैं और याज्ञवल्क्य उसके लिए आपत्ति कालीन सुझाव बताते हुए अनिवार्यता पर ही जोर देते रहे हैं। जनक पूछते हैं यदि हव्य चरु सामग्री ने मिल सके तो क्या करें? उत्तर में कहा गया है नित्य खाये जाने वाले अन्न से ही काम चला लें। अन्न भी न हो तो? वनस्पतियों से काम चला लें। वनस्पतियां भी न मिल सकें तो? मात्र समिधाओं का ही हवन कर लिया जाय। अग्नि ही न मिले तो? श्रद्धारूपी अग्नि में ध्यान भावना की सामग्री होमकर मानसिक हवन कर लिया जाय। यही है उपरोक्त संवाद के विस्तार का सार संक्षेप।
इससे सिद्ध किया गया है कि गायत्री जप के साथ यज्ञ कर्म की भी अनिवार्य आवश्यकता है। अनुष्ठानों में तो दोनों परस्पर सम्बद्ध ही हैं। गायत्री जप को दैनिक नित्य कर्म में सम्मिलित रखने की सामान्य धर्म व्यवस्था में दैनिक ‘‘पंच यज्ञों’’ को भी उसी तरह का आवश्यक कृत्य बताया गया है। सभी जानते हैं कि उपासना कृत्य में बलि वैश्व विधि भी जुड़ी हुई है जिसका अर्थ होता है—संक्षिप्त हवन। कठिनाई के दिनों में यह बलि वैश्व इतना संक्षिप्त हो गया था कि महिलायें चूल्हे में से अग्नि निकालकर उस पर प्रथम सिकी रोटी के पांच कण गायत्री मन्त्र का पांच बार उच्चारण करते हुए हवन कर लेती थीं। नैष्ठिक उपासक भी ऐसा ही करते थे, वे भोजन के समय सामने परोसे भोजन के पांच छोटे ग्रास पास में अग्नि मंगाकर, हवन कर लिया करते थे। अब भी यह परम्परा जहां-तहां जीवित है। युग निर्माण मिशन द्वारा इस संक्षिप्त परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया जा रहा है।
भारतीय परम्पराओं के प्रचलन में तत्त्वदर्शी ऋषियों ने बुद्धिमत्ता, सूक्ष्म दृष्टि, उपयोगिता एवं तथ्य स्थिति को पग-पग पर ध्यान में रखकर ही कदम उठाये हैं। धर्मकृत्यों में यज्ञ को प्राथमिकता देते हुए भी उनने अनेकानेक तथ्यों को ध्यान में रखा है। उपयोगिता रहित प्रचलन वे कर ही नहीं सकते थे। प्रमुखता देने के क्रम में भी उन्होंने किसी कृत्य की प्रतिक्रिया और उपलब्धि को ही ध्यान में रखा है। यज्ञ को धर्मकृत्यों में प्रधानता मिलने में भी उसकी भौतिक एवं आत्मिक उपलब्धियों को ही ध्यान में रखा गया है।
शास्त्रों में भगवान का एक नाम ‘यज्ञ पुरुष’ भी है। शतपथ की ‘यज्ञो वै विष्णु’ श्रुति में यज्ञ को निश्चित रूप से विष्णु ही माना है। ‘वै’ शब्द में इस प्रतिपादन पर जोर दिया गया है और निश्चित कहा गया है। ऋग्वेद के आरम्भ में यज्ञ को मार्गदर्शन—पुरोहित सद्गुरु बताया गया है। भजन करने वाले को ‘देव’ संज्ञा देते हुए उस कृत्य की प्रतिक्रिया को रत्न राशि की उपमा दी गई है। वेद वाङ्मय में जितना प्रकाश यज्ञविद्या पर डाला गया है और यज्ञाग्नि का जितना महात्म्य बताया गया है उतना और किसी का नहीं। ‘‘अग्ने नय सुपथा राये.........।’’ ऋचा में इस सर्व समर्थ शक्ति से सन्मार्ग पर घसीट ले चलने की अभ्यर्थना है। गायत्री मन्त्र के ‘धियो योनः प्रचोदयात्’ भाग का यही अभिप्राय है।
सामान्य जीवन के परम्परागत धर्म कृत्यों में यज्ञ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त षोडश-संस्कारों का विधान है। ये सभी यज्ञ परक हैं। यज्ञ के बिना इनमें से एक भी संस्कार सम्पन्न नहीं हो सकता। यज्ञोपवीत का तो नाम ही यज्ञ की प्रधानता का बोधक है। गायत्री की भावना और यज्ञ की क्रिया का समन्वित रूप ही यज्ञोपवीत है। विवाह संस्कार में यज्ञाग्नि की वर-वधू द्वारा परिक्रमा किया जाना ही प्रधान कृत्य है। भांवर फिरना ही विवाह की दृश्य घोषणा है। अन्तिम संस्कार अन्त्येष्टि है। चिता को विशुद्ध रूप से बड़ी आकृति का यज्ञ ही समझा जा सकता है। उसे पूरे या अधूरे विधान के अनुसार किसी प्रकार क्यों न जलाया जाय, यज्ञ से सम्बन्धित कितने ही नियम उसमें पालने होते हैं। पूर्णाहुति के रूप में कपाल क्रिया घृत आहुति के साथ ही सम्पन्न की जाती है।
वार्षिक यज्ञ होली का प्रचलन अभी भी किसी न किसी रूप में सर्वत्र पाया जाता है। देवी-देवताओं की पूजा में किसी न किसी रूप में हवन अवश्य ही जुड़ा रहता है। न्यूनतम विधान के रूप में अगरबत्ती और दीपक जलाकर सामान्य पूजा विधान में यज्ञ कृत्य की चिन्ह पूजा कर ली जाती है। अगरबत्ती को हवन सामग्री का और दीपक को घृत आहुति का प्रतीक मान लिया जाता है। शुभ कर्मों के शुभारम्भ में यज्ञ का कोई न कोई रूप अवश्य ही बनता है भले ही यह मोमबत्तियां, धूपबत्तियां जलाने जैसी प्रथाओं के रूप में ही क्यों न कर लिया जाता हो।
विचारणीय यह है कि हमारी महान सांस्कृतिक परम्परा में यज्ञ कर्म को ऐसी प्रमुखता क्यों मिली? उत्तर प्राप्त करने लिए जितनी गहराई में उतरा जाता है—जितना अन्वेषण अध्ययन किया जाता है उतनी ही रहस्यमय परतें खुलती चली जाती हैं और प्रतीत होता है कि इस प्रचलन में ज्ञान और विज्ञान का पूरी तरह समावेश है। आत्मिक और भौतिक प्रगति के सभी तथ्य इसमें बीज रूप में विद्यमान हैं। व्यक्ति और समाज की सुख-शान्ति के अति महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रशिक्षण इस पुण्य प्रक्रिया के माध्यम से भली प्रकार किया गया है।
यज्ञ का भावार्थ है—परमार्थ-उदार कृत्य। संस्कृति की यज् धातु से यज्ञ शब्द बना है जिसके तीन अर्थ होते हैं—(1) देवत्व (2) संगठन (3) दान। इन तीनों ही प्रवृत्तियों को व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष की दिव्य धारायें कहा जा सकता है। देवत्व का अर्थ है—परिष्कृत व्यक्तित्व, दैवी सद्गुण। संगठन अर्थात् एकता सहकारिता, संघबद्धता। दान अर्थात् समाज परायणता, विश्व कौटुम्बिकता, उदार सहृदयता। इन तीन प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व ‘यज्ञ’ करता है। उसे इन विविध प्रतिपादनों की ज्वलंत प्रतिमा—धवल ध्वजा कहा जा सकता है। ज्ञानयज्ञ की लाल मशाल को इसी यज्ञाग्नि का प्रतिनिधि समझा जा सकता है। विचार क्रान्ति को, ऋतम्भरा प्रज्ञा को गायत्री की प्राण प्रतिष्ठा कहा जा सकता है। यज्ञ अभियान में सद्भावनाओं को सत्कर्मों के रूप में परिणत करने की प्रेरणा है। ज्ञान और कर्म का समन्वय ही प्रगति के आधार खड़े करता है। सत्कर्म को तप और सद्ज्ञान को योग कहा गया है। आत्मिक प्रगति के ये आधार हैं। भौतिक प्रगति के लिए भी श्रम और शिक्षा को ही प्रधान साधन माना गया है। इनमें गायत्री और यज्ञ के सिद्धान्तों को झांकते हुए देखा जा सकता है।
जीवन-यज्ञ का तत्त्वज्ञान ही व्यक्ति को महान बनाता है। विराट ब्रह्म की कल्पना के साथ-साथ, यज्ञावशिष्ट ही खाने का निर्देश है। जो दिये बिना खाता है सो चोर है। देवताओं ने यज्ञ में देवत्व प्राप्त किया जैसी सूक्तियां मिलती हैं। इन प्रतिपादनों में समाज परायणता की प्रेरणा है। संक्षेप में यज्ञ दर्शन, व्यक्तिगत जीवन में चरित्रनिष्ठा और लोक व्यवहार में समाज निष्ठा के आदर्श को अपनाये जाने को प्रेरणा देता है। व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति और सुख-शान्ति का यही एक मार्ग है।
यज्ञ की प्रतीक प्रतिमा में सन्निहित सूक्ष्म प्रेरणाओं की व्याख्या करते हुए व्यक्ति को पवित्र और समाज को समर्थ बनाने का लोक शिक्षण जितनी अच्छी तरह दिया जा सकता है वैसा अन्य किसी धर्मकृत्य के माध्यम से सम्भव नहीं हो सकता। यज्ञाग्नि की कितनी ही विशेषतायें हैं। यथा—(1) सदा ऊंचा शिर रखना—कैसा ही दबाव पड़ने पर भी शिर नीचे न झुकाना। (2) जो भी सम्पर्क में आये उसे अपने समतुल्य बना लेना। (3) जो मिले उसका संचय न करके विश्व वसुधा के लिए बखेर देना (4) अपने अस्तित्व में गर्मी और रोशनी की कमी न पड़ने देना (5) अपनी सामर्थ्य को लोक हित में नियोजित किये रहना आदि। यज्ञाग्नि ऋग्वेद के अनुसार ईश्वर प्रेरित पुरोहित है और वाणी के मूक रहने पर भी अपनी गति-विधियों से सर्वसाधारण को समग्र प्रगति और सुख-शान्ति की प्रेरणा देता रहता है। इन पांचों विभूतियों का महत्त्व समझने और प्रेरणाओं को व्यवहार में उतारने का लोक शिक्षण यदि ठीक तरह दिया जा सके तो मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की प्राचीन काल जैसी सतयुगी परिस्थितियां भी फिर उत्पन्न हो सकती हैं। तिरंगे झण्डे में लगे हुए तीन रंगों की व्याख्या राष्ट्रीय प्रगति के आधारभूत तीन सिद्धान्तों के रूप में की जाती रही है। उपरोक्त पांच यज्ञाग्नि प्रेरणाओं की यदि भावभरी—बुद्धि संगत व्याख्या की जा सके तो उसमें व्यक्ति एवं समाज के विभिन्न पक्षों पर लागू होने वाले कितने ही पंचशीलों के साथ तालमेल भली प्रकार बैठ जाता है। युग परिवर्तन के लिए, उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए जन मानस में इन्हीं आदर्शों की प्रतिष्ठापना की जाती है।
कहा गया है—देवताओं ने ‘यजन’ करके देवत्व प्राप्त किया। कहा गया है कि नर-पशु में ब्राह्मणत्व का उदय यज्ञ कार्य से ही होता है। ब्राह्मण के छह कर्मों में एक तिहाई योजना यज्ञ करने और यज्ञ कराने की है। इन प्रतिपादनों में परोक्ष रूप से पवित्रता और प्रखरता के उन तथ्यों की गरिमा बताई गई है जो यज्ञ कृत्य के प्राण और विश्व शान्ति के आधार हैं। व्यक्ति और समाज का, प्रकृति और सृष्टि का सारा क्रम यज्ञ चक्र की धुरी पर ही परिभ्रमण कर रहा है। उदार सहयोग का यज्ञ दर्शन ही सर्वत्र सजीवता, सुव्यवस्था, प्रगतिशीलता और सुख-शान्ति की परिस्थितियां बनाये हुए है। शरीर के अवयव एक दूसरे के साथ सघन सहयोग करते हैं तभी जीवन-रथ चलता है। यदि उनमें संकीर्ण स्वार्थपरता घुस पड़े, आपा-धापी पर उतर आयें और सहयोग से जी चुरायें तो फिर जीवन-यात्रा एक दिन भी न चल सकेगी। जल चक्र स्पष्ट है—समुद्र से बादलों को, बादलों से धरती को, धरती से नदियों को, नदियों से समुद्र को जल मिलता है। इसी से प्राणियों की प्यास बुझती है और हरियाली जीती है। इस जल चक्र में कहीं भी व्यवधान पड़ेगा तो धरती तवे की तरह जलने लगेगी। प्राणि-चक्र में वनस्पति को प्राणी खाते हैं। प्राणियों के मल-मूत्र से वनस्पति को खुराक मिलती है। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। पेड़ों से छोड़ी ऑक्सीजन प्राणियों का आहार है—प्राणियों की छोड़ी कार्बन पर पेड़ों का जीवन निर्भर है। पशुओं और मनुष्यों के बीच भी ऐसा ही उदार सहयोग है। यही यज्ञ प्रवृत्ति है। जिसके सहारे विश्व चक्र घूमता है। इसी को अपनाकर मनुष्य को सामान्य प्राणियों से अधिक ऊंचा उठने का अवसर मिला है। इस आदर्श की उपेक्षा होने लगती है तो संसार में असंख्य संकट खड़े होते हैं। इन सत्प्रवृत्तियों को ठीक तरह अपनाने पर हर समस्या का सरल समाधान निकल आता है। मानव कल्याण और यज्ञीय आदर्शों को एक ही तथ्य के दो पक्ष कह सकते हैं। इसी से गीताकार ने कहा है कि प्रजापति ने यज्ञ और मनुष्य को साथ-साथ सृजा और कहा दोनों के बीच सघन सम्बन्ध बना रहेगा तो सुख-शान्ति की कमी न रहेगी। विश्व-कल्याण के इस महान सिद्धान्त को यज्ञीय तत्त्वज्ञान कहा गया है और उसका लोक शिक्षण करने के लिए अग्निहोत्र को प्रतीक उपचार के रूप में प्रमुख धर्मकृत्य का सम्मान दिया गया है।
यज्ञ का भौतिक विज्ञान भी है। वायुशोधन की दुर्गन्ध को सुगन्ध से दमन करने की—यह प्रक्रिया मनुष्य की सबसे बड़ी खुराक, प्राण-वायु के परिशोधन में महत्त्वपूर्ण योगदान करती है। आज जब वायु प्रदूषण की समस्या विश्वसंकट का रूप धारण करती जा रही है तो परिशोधन के प्रमुख अस्त्र यज्ञोपचार को फिर से प्रखर बनाना होगा।
रोग-कीटाणुओं को मारने की जितनी शक्ति यज्ञ ऊर्जा में हैं उतनी सरल व्यापक और सस्ती पद्धति अभी तक नहीं खोजी जा सकी है यज्ञ को प्राचीन काल में शारीरिक व्याधियों और मानसिक आधियों के शमन में सफलता पूर्वक प्रयुक्त किया जाता रहा है। यज्ञ चिकित्सा के खोये पृष्ठ यदि फिर से ढूंढ़े जा सके और इस विज्ञान को नये सिरे से सुव्यवस्थित किया जा सके तो ऐसे सत्परिणामों की पूरी-पूरी सम्भावना है कि शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों का भी सफल उपचार किया जा सके। चिकित्सा पद्धतियों में यज्ञ चिकित्सा को इसलिए वरिष्ठता मिल सकती है कि औषधियों को सूक्ष्मतम वायुभूत बनाकर शरीर में अत्यन्त सरलता से पहुंचाया जा सकता है। औषधि उपचार में स्थूल प्रक्रिया अपनाये जाने के कारण इतनी गहरी पैठ इतनी जल्दी नहीं हो सकती। आज की गणना का पर्यवेक्षण करने से प्रतीत होता है कि शारीरिक रोगों से भी अधिक अर्थ विक्षिप्तता, सनकें, बुरी आदतें, अपराधी प्रवृत्तियां, उच्छृंखलता, आवेश ग्रस्तता, अचिन्त्य चिन्तन, दुर्भावना जैसी मानसिक व्यथाएं मनुष्य को कहीं अधिक दुःख दे रही हैं और विपत्ति का कारण बन रही हैं। इस संकट का निवारण यज्ञोपचार का सुव्यवस्थित रूप बन जाने पर भली प्रकार हो सकता है, जिस-तिस रूप में चल रही वर्तमान यज्ञ प्रक्रिया में किसी न किसी रूप में शारीरिक और मानसिक व्याधियों के समाधान में बहुत कुछ सहायता मिलती है।
यह प्रक्रिया का समष्टिगत व्यापक प्रभाव पर्जन्य वर्षा के रूप में होता है। पर्जन्य का मोटा अर्थ होता है—बादल। सूक्ष्म अर्थ होता है—प्राण वर्षण। प्राचीन काल के यज्ञ-युग में सर्वत्र विपुल वर्षाएं होती थीं। इससे यज्ञ कर्म और मेघ वर्षा की परस्पर संगति बैठती है। जब-तब दुर्भिक्ष निवारण के लिए मेघ वर्षा के निमित्त विशिष्ठ अग्निहोत्रों के प्रयोग हुए हैं और बहुत बार सफल भी रहे हैं। पर वस्तुतः पर्जन्य, इससे आगे का वह प्राण तत्त्व है जो यज्ञ के माध्यम से आकाश में उत्पन्न होता है और पवन तथा बादलों के माध्यम से धरती पर बरसता है। इस पर्जन्य प्राण वर्षा से सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों को नवजीवन एवं समर्थ उल्लास प्राप्त होता है। घास-पात औषधियां—जल, अन्न, वायु, दूध आदि के पर्जन्य से विशिष्ट परिपोषण मिलता है। उनका सामर्थ्य स्तर कहीं अधिक बढ़ जाता है। फलतः उन्हें जो भी पशु या मनुष्य प्रयोग करते हैं उनकी प्रखरता कहीं अधिक बढ़ जाती है। यह उपलब्धि सर्वतोमुखी प्रगति में हर दृष्टि से सहायक सिद्ध होती है।
वायु शोधन से भी अधिक लाभ वातावरण के परिष्कार का होता है। वायु की शुद्धता का स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है। वातावरण से व्यक्तित्व का हर पक्ष प्रभावित होता है। उसमें चिन्तन को दिशा मिलती है। प्रवृत्तियों के परिशोधन का आधार खड़ा होता है। जन-मानस के परिष्कार का जो लक्ष्य लेकर युग-निर्माण-मिशन चल रहा है उसके लिए प्रचारात्मक, रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम तो अपनाने ही होंगे, लेखनी और वाणी का प्रयोग तो करना ही होगा, किन्तु स्थूल प्रयत्नों से अन्तःकरणों के मर्मस्थलों को प्रभावित, परिष्कृत करने में इतने साधन ही पर्याप्त न होंगे। उसके लिए सूक्ष्म जगत का प्रवाह भी उलटना होगा। सर्दी, गर्मी, वर्षा का वातावरण पर प्रभाव पड़ता है और उससे परिस्थितियों में भारी अन्तर देखा जाता है। ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म वातावरण में भी उत्कृष्टता के तत्त्वों का अनुपात बढ़ सके तो लोक प्रवाह को उपयुक्तता की दिशा धारा में तो चलना कुछ अधिक कठिन न रह जायगा हवा के रुख पर नाव की गति सहज ही तेजी पकड़ती है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना में जिस प्रकार का वातावरण अभीष्ट है उसे बनाने में गायत्री यज्ञों की श्रृंखला से अति महत्त्वपूर्ण अनुकूलता उत्पन्न हो सकती है।
जनक और यज्ञवल्क्य का संवाद यज्ञ के साधन न मिल सकने के सन्दर्भ में हुआ है। जनक कठिनाइयां बताते रहे हैं और याज्ञवल्क्य उसके लिए आपत्ति कालीन सुझाव बताते हुए अनिवार्यता पर ही जोर देते रहे हैं। जनक पूछते हैं यदि हव्य चरु सामग्री ने मिल सके तो क्या करें? उत्तर में कहा गया है नित्य खाये जाने वाले अन्न से ही काम चला लें। अन्न भी न हो तो? वनस्पतियों से काम चला लें। वनस्पतियां भी न मिल सकें तो? मात्र समिधाओं का ही हवन कर लिया जाय। अग्नि ही न मिले तो? श्रद्धारूपी अग्नि में ध्यान भावना की सामग्री होमकर मानसिक हवन कर लिया जाय। यही है उपरोक्त संवाद के विस्तार का सार संक्षेप।
इससे सिद्ध किया गया है कि गायत्री जप के साथ यज्ञ कर्म की भी अनिवार्य आवश्यकता है। अनुष्ठानों में तो दोनों परस्पर सम्बद्ध ही हैं। गायत्री जप को दैनिक नित्य कर्म में सम्मिलित रखने की सामान्य धर्म व्यवस्था में दैनिक ‘‘पंच यज्ञों’’ को भी उसी तरह का आवश्यक कृत्य बताया गया है। सभी जानते हैं कि उपासना कृत्य में बलि वैश्व विधि भी जुड़ी हुई है जिसका अर्थ होता है—संक्षिप्त हवन। कठिनाई के दिनों में यह बलि वैश्व इतना संक्षिप्त हो गया था कि महिलायें चूल्हे में से अग्नि निकालकर उस पर प्रथम सिकी रोटी के पांच कण गायत्री मन्त्र का पांच बार उच्चारण करते हुए हवन कर लेती थीं। नैष्ठिक उपासक भी ऐसा ही करते थे, वे भोजन के समय सामने परोसे भोजन के पांच छोटे ग्रास पास में अग्नि मंगाकर, हवन कर लिया करते थे। अब भी यह परम्परा जहां-तहां जीवित है। युग निर्माण मिशन द्वारा इस संक्षिप्त परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया जा रहा है।
भारतीय परम्पराओं के प्रचलन में तत्त्वदर्शी ऋषियों ने बुद्धिमत्ता, सूक्ष्म दृष्टि, उपयोगिता एवं तथ्य स्थिति को पग-पग पर ध्यान में रखकर ही कदम उठाये हैं। धर्मकृत्यों में यज्ञ को प्राथमिकता देते हुए भी उनने अनेकानेक तथ्यों को ध्यान में रखा है। उपयोगिता रहित प्रचलन वे कर ही नहीं सकते थे। प्रमुखता देने के क्रम में भी उन्होंने किसी कृत्य की प्रतिक्रिया और उपलब्धि को ही ध्यान में रखा है। यज्ञ को धर्मकृत्यों में प्रधानता मिलने में भी उसकी भौतिक एवं आत्मिक उपलब्धियों को ही ध्यान में रखा गया है।
शास्त्रों में भगवान का एक नाम ‘यज्ञ पुरुष’ भी है। शतपथ की ‘यज्ञो वै विष्णु’ श्रुति में यज्ञ को निश्चित रूप से विष्णु ही माना है। ‘वै’ शब्द में इस प्रतिपादन पर जोर दिया गया है और निश्चित कहा गया है। ऋग्वेद के आरम्भ में यज्ञ को मार्गदर्शन—पुरोहित सद्गुरु बताया गया है। भजन करने वाले को ‘देव’ संज्ञा देते हुए उस कृत्य की प्रतिक्रिया को रत्न राशि की उपमा दी गई है। वेद वाङ्मय में जितना प्रकाश यज्ञविद्या पर डाला गया है और यज्ञाग्नि का जितना महात्म्य बताया गया है उतना और किसी का नहीं। ‘‘अग्ने नय सुपथा राये.........।’’ ऋचा में इस सर्व समर्थ शक्ति से सन्मार्ग पर घसीट ले चलने की अभ्यर्थना है। गायत्री मन्त्र के ‘धियो योनः प्रचोदयात्’ भाग का यही अभिप्राय है।
सामान्य जीवन के परम्परागत धर्म कृत्यों में यज्ञ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त षोडश-संस्कारों का विधान है। ये सभी यज्ञ परक हैं। यज्ञ के बिना इनमें से एक भी संस्कार सम्पन्न नहीं हो सकता। यज्ञोपवीत का तो नाम ही यज्ञ की प्रधानता का बोधक है। गायत्री की भावना और यज्ञ की क्रिया का समन्वित रूप ही यज्ञोपवीत है। विवाह संस्कार में यज्ञाग्नि की वर-वधू द्वारा परिक्रमा किया जाना ही प्रधान कृत्य है। भांवर फिरना ही विवाह की दृश्य घोषणा है। अन्तिम संस्कार अन्त्येष्टि है। चिता को विशुद्ध रूप से बड़ी आकृति का यज्ञ ही समझा जा सकता है। उसे पूरे या अधूरे विधान के अनुसार किसी प्रकार क्यों न जलाया जाय, यज्ञ से सम्बन्धित कितने ही नियम उसमें पालने होते हैं। पूर्णाहुति के रूप में कपाल क्रिया घृत आहुति के साथ ही सम्पन्न की जाती है।
वार्षिक यज्ञ होली का प्रचलन अभी भी किसी न किसी रूप में सर्वत्र पाया जाता है। देवी-देवताओं की पूजा में किसी न किसी रूप में हवन अवश्य ही जुड़ा रहता है। न्यूनतम विधान के रूप में अगरबत्ती और दीपक जलाकर सामान्य पूजा विधान में यज्ञ कृत्य की चिन्ह पूजा कर ली जाती है। अगरबत्ती को हवन सामग्री का और दीपक को घृत आहुति का प्रतीक मान लिया जाता है। शुभ कर्मों के शुभारम्भ में यज्ञ का कोई न कोई रूप अवश्य ही बनता है भले ही यह मोमबत्तियां, धूपबत्तियां जलाने जैसी प्रथाओं के रूप में ही क्यों न कर लिया जाता हो।
विचारणीय यह है कि हमारी महान सांस्कृतिक परम्परा में यज्ञ कर्म को ऐसी प्रमुखता क्यों मिली? उत्तर प्राप्त करने लिए जितनी गहराई में उतरा जाता है—जितना अन्वेषण अध्ययन किया जाता है उतनी ही रहस्यमय परतें खुलती चली जाती हैं और प्रतीत होता है कि इस प्रचलन में ज्ञान और विज्ञान का पूरी तरह समावेश है। आत्मिक और भौतिक प्रगति के सभी तथ्य इसमें बीज रूप में विद्यमान हैं। व्यक्ति और समाज की सुख-शान्ति के अति महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रशिक्षण इस पुण्य प्रक्रिया के माध्यम से भली प्रकार किया गया है।
यज्ञ का भावार्थ है—परमार्थ-उदार कृत्य। संस्कृति की यज् धातु से यज्ञ शब्द बना है जिसके तीन अर्थ होते हैं—(1) देवत्व (2) संगठन (3) दान। इन तीनों ही प्रवृत्तियों को व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष की दिव्य धारायें कहा जा सकता है। देवत्व का अर्थ है—परिष्कृत व्यक्तित्व, दैवी सद्गुण। संगठन अर्थात् एकता सहकारिता, संघबद्धता। दान अर्थात् समाज परायणता, विश्व कौटुम्बिकता, उदार सहृदयता। इन तीन प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व ‘यज्ञ’ करता है। उसे इन विविध प्रतिपादनों की ज्वलंत प्रतिमा—धवल ध्वजा कहा जा सकता है। ज्ञानयज्ञ की लाल मशाल को इसी यज्ञाग्नि का प्रतिनिधि समझा जा सकता है। विचार क्रान्ति को, ऋतम्भरा प्रज्ञा को गायत्री की प्राण प्रतिष्ठा कहा जा सकता है। यज्ञ अभियान में सद्भावनाओं को सत्कर्मों के रूप में परिणत करने की प्रेरणा है। ज्ञान और कर्म का समन्वय ही प्रगति के आधार खड़े करता है। सत्कर्म को तप और सद्ज्ञान को योग कहा गया है। आत्मिक प्रगति के ये आधार हैं। भौतिक प्रगति के लिए भी श्रम और शिक्षा को ही प्रधान साधन माना गया है। इनमें गायत्री और यज्ञ के सिद्धान्तों को झांकते हुए देखा जा सकता है।
जीवन-यज्ञ का तत्त्वज्ञान ही व्यक्ति को महान बनाता है। विराट ब्रह्म की कल्पना के साथ-साथ, यज्ञावशिष्ट ही खाने का निर्देश है। जो दिये बिना खाता है सो चोर है। देवताओं ने यज्ञ में देवत्व प्राप्त किया जैसी सूक्तियां मिलती हैं। इन प्रतिपादनों में समाज परायणता की प्रेरणा है। संक्षेप में यज्ञ दर्शन, व्यक्तिगत जीवन में चरित्रनिष्ठा और लोक व्यवहार में समाज निष्ठा के आदर्श को अपनाये जाने को प्रेरणा देता है। व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति और सुख-शान्ति का यही एक मार्ग है।
यज्ञ की प्रतीक प्रतिमा में सन्निहित सूक्ष्म प्रेरणाओं की व्याख्या करते हुए व्यक्ति को पवित्र और समाज को समर्थ बनाने का लोक शिक्षण जितनी अच्छी तरह दिया जा सकता है वैसा अन्य किसी धर्मकृत्य के माध्यम से सम्भव नहीं हो सकता। यज्ञाग्नि की कितनी ही विशेषतायें हैं। यथा—(1) सदा ऊंचा शिर रखना—कैसा ही दबाव पड़ने पर भी शिर नीचे न झुकाना। (2) जो भी सम्पर्क में आये उसे अपने समतुल्य बना लेना। (3) जो मिले उसका संचय न करके विश्व वसुधा के लिए बखेर देना (4) अपने अस्तित्व में गर्मी और रोशनी की कमी न पड़ने देना (5) अपनी सामर्थ्य को लोक हित में नियोजित किये रहना आदि। यज्ञाग्नि ऋग्वेद के अनुसार ईश्वर प्रेरित पुरोहित है और वाणी के मूक रहने पर भी अपनी गति-विधियों से सर्वसाधारण को समग्र प्रगति और सुख-शान्ति की प्रेरणा देता रहता है। इन पांचों विभूतियों का महत्त्व समझने और प्रेरणाओं को व्यवहार में उतारने का लोक शिक्षण यदि ठीक तरह दिया जा सके तो मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की प्राचीन काल जैसी सतयुगी परिस्थितियां भी फिर उत्पन्न हो सकती हैं। तिरंगे झण्डे में लगे हुए तीन रंगों की व्याख्या राष्ट्रीय प्रगति के आधारभूत तीन सिद्धान्तों के रूप में की जाती रही है। उपरोक्त पांच यज्ञाग्नि प्रेरणाओं की यदि भावभरी—बुद्धि संगत व्याख्या की जा सके तो उसमें व्यक्ति एवं समाज के विभिन्न पक्षों पर लागू होने वाले कितने ही पंचशीलों के साथ तालमेल भली प्रकार बैठ जाता है। युग परिवर्तन के लिए, उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए जन मानस में इन्हीं आदर्शों की प्रतिष्ठापना की जाती है।
कहा गया है—देवताओं ने ‘यजन’ करके देवत्व प्राप्त किया। कहा गया है कि नर-पशु में ब्राह्मणत्व का उदय यज्ञ कार्य से ही होता है। ब्राह्मण के छह कर्मों में एक तिहाई योजना यज्ञ करने और यज्ञ कराने की है। इन प्रतिपादनों में परोक्ष रूप से पवित्रता और प्रखरता के उन तथ्यों की गरिमा बताई गई है जो यज्ञ कृत्य के प्राण और विश्व शान्ति के आधार हैं। व्यक्ति और समाज का, प्रकृति और सृष्टि का सारा क्रम यज्ञ चक्र की धुरी पर ही परिभ्रमण कर रहा है। उदार सहयोग का यज्ञ दर्शन ही सर्वत्र सजीवता, सुव्यवस्था, प्रगतिशीलता और सुख-शान्ति की परिस्थितियां बनाये हुए है। शरीर के अवयव एक दूसरे के साथ सघन सहयोग करते हैं तभी जीवन-रथ चलता है। यदि उनमें संकीर्ण स्वार्थपरता घुस पड़े, आपा-धापी पर उतर आयें और सहयोग से जी चुरायें तो फिर जीवन-यात्रा एक दिन भी न चल सकेगी। जल चक्र स्पष्ट है—समुद्र से बादलों को, बादलों से धरती को, धरती से नदियों को, नदियों से समुद्र को जल मिलता है। इसी से प्राणियों की प्यास बुझती है और हरियाली जीती है। इस जल चक्र में कहीं भी व्यवधान पड़ेगा तो धरती तवे की तरह जलने लगेगी। प्राणि-चक्र में वनस्पति को प्राणी खाते हैं। प्राणियों के मल-मूत्र से वनस्पति को खुराक मिलती है। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। पेड़ों से छोड़ी ऑक्सीजन प्राणियों का आहार है—प्राणियों की छोड़ी कार्बन पर पेड़ों का जीवन निर्भर है। पशुओं और मनुष्यों के बीच भी ऐसा ही उदार सहयोग है। यही यज्ञ प्रवृत्ति है। जिसके सहारे विश्व चक्र घूमता है। इसी को अपनाकर मनुष्य को सामान्य प्राणियों से अधिक ऊंचा उठने का अवसर मिला है। इस आदर्श की उपेक्षा होने लगती है तो संसार में असंख्य संकट खड़े होते हैं। इन सत्प्रवृत्तियों को ठीक तरह अपनाने पर हर समस्या का सरल समाधान निकल आता है। मानव कल्याण और यज्ञीय आदर्शों को एक ही तथ्य के दो पक्ष कह सकते हैं। इसी से गीताकार ने कहा है कि प्रजापति ने यज्ञ और मनुष्य को साथ-साथ सृजा और कहा दोनों के बीच सघन सम्बन्ध बना रहेगा तो सुख-शान्ति की कमी न रहेगी। विश्व-कल्याण के इस महान सिद्धान्त को यज्ञीय तत्त्वज्ञान कहा गया है और उसका लोक शिक्षण करने के लिए अग्निहोत्र को प्रतीक उपचार के रूप में प्रमुख धर्मकृत्य का सम्मान दिया गया है।
यज्ञ का भौतिक विज्ञान भी है। वायुशोधन की दुर्गन्ध को सुगन्ध से दमन करने की—यह प्रक्रिया मनुष्य की सबसे बड़ी खुराक, प्राण-वायु के परिशोधन में महत्त्वपूर्ण योगदान करती है। आज जब वायु प्रदूषण की समस्या विश्वसंकट का रूप धारण करती जा रही है तो परिशोधन के प्रमुख अस्त्र यज्ञोपचार को फिर से प्रखर बनाना होगा।
रोग-कीटाणुओं को मारने की जितनी शक्ति यज्ञ ऊर्जा में हैं उतनी सरल व्यापक और सस्ती पद्धति अभी तक नहीं खोजी जा सकी है यज्ञ को प्राचीन काल में शारीरिक व्याधियों और मानसिक आधियों के शमन में सफलता पूर्वक प्रयुक्त किया जाता रहा है। यज्ञ चिकित्सा के खोये पृष्ठ यदि फिर से ढूंढ़े जा सके और इस विज्ञान को नये सिरे से सुव्यवस्थित किया जा सके तो ऐसे सत्परिणामों की पूरी-पूरी सम्भावना है कि शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों का भी सफल उपचार किया जा सके। चिकित्सा पद्धतियों में यज्ञ चिकित्सा को इसलिए वरिष्ठता मिल सकती है कि औषधियों को सूक्ष्मतम वायुभूत बनाकर शरीर में अत्यन्त सरलता से पहुंचाया जा सकता है। औषधि उपचार में स्थूल प्रक्रिया अपनाये जाने के कारण इतनी गहरी पैठ इतनी जल्दी नहीं हो सकती। आज की गणना का पर्यवेक्षण करने से प्रतीत होता है कि शारीरिक रोगों से भी अधिक अर्थ विक्षिप्तता, सनकें, बुरी आदतें, अपराधी प्रवृत्तियां, उच्छृंखलता, आवेश ग्रस्तता, अचिन्त्य चिन्तन, दुर्भावना जैसी मानसिक व्यथाएं मनुष्य को कहीं अधिक दुःख दे रही हैं और विपत्ति का कारण बन रही हैं। इस संकट का निवारण यज्ञोपचार का सुव्यवस्थित रूप बन जाने पर भली प्रकार हो सकता है, जिस-तिस रूप में चल रही वर्तमान यज्ञ प्रक्रिया में किसी न किसी रूप में शारीरिक और मानसिक व्याधियों के समाधान में बहुत कुछ सहायता मिलती है।
यह प्रक्रिया का समष्टिगत व्यापक प्रभाव पर्जन्य वर्षा के रूप में होता है। पर्जन्य का मोटा अर्थ होता है—बादल। सूक्ष्म अर्थ होता है—प्राण वर्षण। प्राचीन काल के यज्ञ-युग में सर्वत्र विपुल वर्षाएं होती थीं। इससे यज्ञ कर्म और मेघ वर्षा की परस्पर संगति बैठती है। जब-तब दुर्भिक्ष निवारण के लिए मेघ वर्षा के निमित्त विशिष्ठ अग्निहोत्रों के प्रयोग हुए हैं और बहुत बार सफल भी रहे हैं। पर वस्तुतः पर्जन्य, इससे आगे का वह प्राण तत्त्व है जो यज्ञ के माध्यम से आकाश में उत्पन्न होता है और पवन तथा बादलों के माध्यम से धरती पर बरसता है। इस पर्जन्य प्राण वर्षा से सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों को नवजीवन एवं समर्थ उल्लास प्राप्त होता है। घास-पात औषधियां—जल, अन्न, वायु, दूध आदि के पर्जन्य से विशिष्ट परिपोषण मिलता है। उनका सामर्थ्य स्तर कहीं अधिक बढ़ जाता है। फलतः उन्हें जो भी पशु या मनुष्य प्रयोग करते हैं उनकी प्रखरता कहीं अधिक बढ़ जाती है। यह उपलब्धि सर्वतोमुखी प्रगति में हर दृष्टि से सहायक सिद्ध होती है।
वायु शोधन से भी अधिक लाभ वातावरण के परिष्कार का होता है। वायु की शुद्धता का स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है। वातावरण से व्यक्तित्व का हर पक्ष प्रभावित होता है। उसमें चिन्तन को दिशा मिलती है। प्रवृत्तियों के परिशोधन का आधार खड़ा होता है। जन-मानस के परिष्कार का जो लक्ष्य लेकर युग-निर्माण-मिशन चल रहा है उसके लिए प्रचारात्मक, रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम तो अपनाने ही होंगे, लेखनी और वाणी का प्रयोग तो करना ही होगा, किन्तु स्थूल प्रयत्नों से अन्तःकरणों के मर्मस्थलों को प्रभावित, परिष्कृत करने में इतने साधन ही पर्याप्त न होंगे। उसके लिए सूक्ष्म जगत का प्रवाह भी उलटना होगा। सर्दी, गर्मी, वर्षा का वातावरण पर प्रभाव पड़ता है और उससे परिस्थितियों में भारी अन्तर देखा जाता है। ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म वातावरण में भी उत्कृष्टता के तत्त्वों का अनुपात बढ़ सके तो लोक प्रवाह को उपयुक्तता की दिशा धारा में तो चलना कुछ अधिक कठिन न रह जायगा हवा के रुख पर नाव की गति सहज ही तेजी पकड़ती है। उज्ज्वल भविष्य की संरचना में जिस प्रकार का वातावरण अभीष्ट है उसे बनाने में गायत्री यज्ञों की श्रृंखला से अति महत्त्वपूर्ण अनुकूलता उत्पन्न हो सकती है।