Books - गुरुवर की धरोहर (द्वितीय भाग)
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Language: HINDI
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सुसंस्कारी बनाए, कैसी हो वह शिक्षा?
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(शांतिकुंज के गायत्री विद्यापीठ गुरुकुल के शुभारंभ के अवसर पर
एक जून 1980 को परमपूज्य गुरुदेव द्वारा दिए गए
उद्घाटन-उद्बोधन के महत्वपूर्ण अंश)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिए।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात् ।
देवियो एवं भाइयो! आज हम एक बहुत छोटी सी शुरुआत कर रहे हैं, जो बाहर से देखने में कोई खास महत्व की मालूम नहीं होती। सरकारी स्कूल खुलते हैं, बहुत से कालेज खुलते रहते हैं और शिक्षा के लिए जगह-जगह सरकारी, गैर सरकारी प्रयत्न चलते रहते हैं। ऐसी दशा में हम जिस कार्य का उद्घाटन कर रहे हैं, उसका यों प्रत्यक्ष कोई महत्व मालूम नहीं पड़ता। लगभग 35 से 40 बच्चों तथा 20 से 30 लड़कियों, महिलाओं की शिक्षा से हम यह एक छोटी सी शुरुआत कर रहे हैं। नन्हा सा आरंभ है लेकिन आप सब जरा बारीकी से देखें तो यह मालूम पड़ेगा कि यह कोई बड़ा काम किया जा रहा है।
बीज बोते समय आपने देखा होगा कि नन्हा सा बीज खेत में डाल देते हैं, जरा-सी पौध लगा देते हैं तो प्रारंभ लगता तो छोटा सा ही है किंतु जब हरी भरी फसल खड़ी होती है तो ढेरों अनाज पैदा होता दिखाई देता है। आपने मक्के का, धान का, गन्ने का पौधा लगते देखा है। काम जरा सा होता है किंतु परिणति बड़ी। बगीचा लगाते समय गुल्लियां बोई जाती हैं लेकिन जब हरा-भरा बगीचा उगकर सामने आता है तो छोटा सा काम जो किसी दिन प्रारंभ किया गया था, बड़ा परिणाम लेकर आता दिखाई देता है। हमने अपनी जिंदगी में हमेशा ऐसे ही काम किए हैं। ऊंचे लक्ष्यों के लिए, ऊंचे उद्देश्यों के लिए छोटी शुरुआत की है व परिणाम विराट परिमाण में सामने आया है। यहां जो शुभारंभ कर रहे हैं, वह बाहर के स्कूलों की तुलना में कोई खास महत्व का नहीं लगता किंतु वास्तव में महत्व रखता है, यह मैं आपको स्मरण दिलाना चाहता हूं।
स्वामी श्रद्धानंद के मन में एक बात आई कि छोटी उमर के बच्चे ही वह आधार हैं, जिन पर संस्कारों का आरोपण किया जा सकता है। कच्ची लकड़ी को मोड़ा जा सकता है। पक्की लकड़ी को मोड़ना मुश्किल है, तोड़ना आसान है। छोटी उमर में यदि ध्यान दिया जाए तो बच्चों को महापुरुष बनाया जा सकता है। रामचंद्रजी और लक्ष्मण जी को विश्वामित्र जी छोटी उमर में ले गए थे और उनको बला-अतिबला विद्या सिखाकर महामानव बना दिया था। ऋषि संदीपन के आश्रम में श्रीकृष्ण भी छोटी उमर में ही गए थे व महामानव बनकर आए थे। लव एवं कुश का शिक्षण बाल्मीकि के आश्रम में तब हुआ था जब वे बालक थे। छोटी उमर का बड़ा महत्व है। बड़ी उम्र होने पर आते तो शायद इतना बड़ा परिणाम न निकलता। जितना ज्यादा ऊंचे स्तर का शिक्षण छोटी उम्र में सिखाया जा सकता है, बड़े होने पर उतना संभव नहीं है। स्वामी श्रद्धानंद ने यही प्रयास किया। एक छोटा-सा सा स्वयं का मकान था, उसे बेच दिया। मकान की कीमत मिली-हजार पांच हजार रुपया। आज से लगभग अस्सी वर्ष पुरानी बात मैं कह रहा हूं। घर बेचने के बाद हरिद्वार में गंगा के पार कांगड़ी गांव में गुरुकुल के नाम पर छोटे-छोटे झोंपड़े बनाए और दस विद्यार्थियों से अपनी संस्था की शुरुआत की। जिनने भी देखा, सबने मखौल उड़ाया। दस बच्चों का भी कोई स्कूल होता है। स्कूलों की तो बड़ी शानदार इमारतें होती हैं। देहरादून, मंसूरी में पब्लिक स्कूलों का ठाट-बाट तो देखिए। उसके मुकाबले फूस की झोंपड़ियों का भला क्या मूल्य? किंतु सिद्धांतों के प्रति अडिग श्रद्धानंद ऊंचे लक्ष्य को लेकर काम करते गए। गंगा में आई बाढ़ भी उनके उद्देश्य को डिगा नहीं सकी। एक शानदार संस्था के रूप में गुरुकुल कांगड़ी उभर कर आई। उसमें से बड़े शानदार आदमी निकले। इंद्रसेन विद्यावाचस्पति, सत्यदेव विद्यालंकार, रामगोपाल विद्यार्थी ऐसे कुछ गिने-चुने किंतु तपे हुए आदमी जो उन दिनों इस गुरुकुल ने निकाले, किसी दूसरे स्कूल से नहीं निकले।
हमारे प्रत्येक काम को आप देखें तो आपको लगेगा कि वह प्रारंभ में भले ही छोटा हो किंतु ऊंचे उद्देश्यों को लेकर आरंभ हुआ व बड़े परिणाम तक पहुंचा। एक छोटा सा छापाखाना खोला था हमने आज से चालीस-बयालीस साल पहले। जिसने देखा, हंसते-हंसते लोट-पोट हो गया। साढ़े तीन सौ रुपये की हाथ से चलने वाली मशीन से कोई जमाने को बदलने वाली पत्रिका भी छप सकती है क्या? सबने कहा क्यों पैसा नष्ट करते हो? कुछ एक हजार का छापाखाना। काम करने वाले तीन आदमी। हाथ से बना कागज। दीखने में छोटा सा छापाखाना पर हमारा मकसद बड़ा था, उद्देश्य बड़ा था तो परिणाम जो निकलकर सामने आए वे कैसे शानदार थे। छोटी मशीन में दुनिया को हिला देने वाला, ऊंचे मकसद व उद्देश्यों वाला साहित्य छपता था जबकि बड़ी-बड़ी मशीनों में आपको क्या-क्या बताएं, ऐसे गंदे उपन्यास व गंदी किताबें छपती हैं। किंतु हमारे छोटे से प्रेस ने दुनिया को झकझोर दिया। जिसके पीछे मकसद काम करते हैं, उद्देश्य काम करते हैं तो क्रिया-कलाप छोटे हों या बड़े फलते व फूलते हैं।
एक और उदाहरण आपको दूं। राजस्थान की वनस्थली नाम की एक जगह पर एक अध्यापक ने छोटा सा बालिका विद्यालय खोला। हीरालाल शास्त्री नाम के गांव के उस छोटे से अध्यापक ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया तो वहां अब क्या है? करोड़ों रुपये की इमारत बनी है। लड़कियां हवाई जहाज चलाना सीखती हैं, सही अर्थों में आत्मनिर्भर बन नारी को जगाने की विधा में निष्णात् होती हैं। न जाने क्या क्या वहां पढ़ती हैं। यह सब इसलिए हुआ कि इस सबके पीछे ऊंचा उद्देश्य था। हमारा भी आज गुरुकुल आरंभ करने के पीछे ऐसा ही उद्देश्य है। जब यह साथ होता है तो जनता, इंसान व भगवान सब सहायता करने आ जाते हैं। और उदाहरण सुनेंगे आप?
इटावा जिले का एक अंग्रेज इंस्पेक्टर। नाम था ह्यूम। उसने गांव-गांव जाकर आदमी एकत्र किए। हिंदुस्तान में युवाओं की, जनता की एक समिति होनी चाहिए। उद्देश्य था पीछे तो पचास साठ आदमी इकट्ठे हुए और कांग्रेस का जन्म हो गया। तिलक, नेहरू, शास्त्री, सुभाषचंद्र बोस सब उसी की देन हैं। छोटे संगठन के पीछे ऊंचे उद्देश्य हों, ऊंचा मकसद हो तो वे दुनिया में सफल होते हैं। जिनके मकसद घटिया होते हैं तो वे बड़े काम करने वाले भी निंदा के पात्र बनते हैं व उन पर लानत बरसती है।
हम एक छोटी सी पाठशाला शुरू करके एक शानदार शुरुआत करते हैं आज कि हम शिक्षा के साथ-साथ संस्कृति विद्या भी पढ़ाना चाहते हैं। हजारों रुपये एक बच्चे के ऊपर प्रतिदिन खर्च हों, ऐसे विद्यालय आज भी देहरादून, मंसूरी में हैं। आज जाइए देख आइए पर यह भी देखिए कि वहां संस्कृति है क्या? संस्कृति किसे कहते हैं? संस्कृति वह जिसे ग्रहण करने के बाद आदमी इंसान बन जाता है। इंसान के बाद महामानव फिर भगवान बन जाता है। किंतु आज की शिक्षा, वह तो संस्कृतिविहीन है। आज के अनपढ़ आदमी की तुलना में पढ़े-लिखे को देखकर मुझे डर लगता है। एक बिना पढ़े-लिखे से निश्चिंतता रहती है कि इसमें बदमाशी या चालाकी नहीं हो सकती। होगी तो एक सीमा के अंदर ही। अंदर भलमनसाहत है अभी। यदि इसे थोड़ा पढ़ा-लिखा कर जीवन जीना सिखा दिया जाए तो आदमी बन सकता है। किंतु पढ़ा-लिखा? वह तो दिमाग की खिड़की बंद किए बैठा है, हद दर्जे का बदमाश है व अहंकारी है। संस्कृति यही करती है कि आदमी को सही एंग से आदमी बनकर जीना सिखाती है। कौन सिखाए संस्कृति को? सरकार कर सकती है? नहीं, सरकार का संस्कृति से, विद्या से कोई ताल्लुक नहीं। सरकार का सभ्यता से, एटीकेट से, लिबास-पोशाक से तो ताल्लुक हो सकता है पर संस्कृति से नहीं। संस्कृति का मंत्रालय या विद्यालय, विश्वविद्यालय सरकार के पास हो सकता है पर उसमें संस्कृति व विद्या नाम की कोई चीजें नहीं हैं, मात्र नाम ही नाम है।
संस्कृति का शिक्षा में समावेश हर कोई नहीं कर सकता। केवल ऋषि ही कर सकते हैं। प्राचीन काल में शिक्षा के क्षेत्र में हर कोई हाथ नहीं डालता था। आप मकान बनाइए, उद्योग खड़ा कीजिए, खेती-बाड़ी कीजिए, राज कीजिए पर एक काम मत करिए। वह है शिक्षा से जुड़ी संस्कृति का शिक्षण जिसे मिला जुलाकर ‘विद्या’ कहते हैं। हर कोई विद्या नहीं दे सकता। आज तो हर कोई विद्यालय खोले बैठा है, उसका मालिक बना हुआ है पर प्राचीन काल में यह कार्य विशुद्धतः ऋषियों के जिम्मे था व वे इसे बखूबी निभाते थे। संस्कृति तो वही सिखा पाएगा, जिसके पास हो संस्कृति। मास्टरों के पास कहां है संस्कृति? मास्टरों व मजूरों में आज कोई अंतर है? मास्टर कहते हैं गुरू को और गुरू वे होते हैं जो शिष्य को अनगढ़ता के अंधेरे से निकाल कर सुगढ़ता का प्रकाश भरा रास्ता दिखाते हैं। मात्र जानकारी नहीं देते। वे आत्मीयता का पोषण देते हैं, संवेदना देते हैं। इसी को संस्कृति या विद्या कहते हैं।
हम प्राइमरी स्कूल में पढ़े थे गांव के। उस जमाने में, आज से साठ साल पहले दो रुपये की छात्रवृत्ति हर प्रतिभावान बच्चे को मिलती थी। हमारे गांव आंवलखेड़ा के स्कूल में एक तिहाई विद्यार्थी सारे आगरा जिले के वजीफे हड़प ले जाते थे। किस कारण? क्योंकि वहां गुरुजी थे, मास्टर साहब नहीं। हमारे गुरुजी ने स्कूल को गुरुकुल बना दिया था। बच्चे स्कूल में ही सोते थे। सवेरे उठाकर वे मां की तरह कुल्ला कराते, नहलाते व फिर पढ़ाते। नींद आती तो धमकाते नहीं थे। कहते अच्छा सो जा, पर जल्दी उठ जाना, देर तक मत सोना। न केवल हम बल्कि जितने विद्यार्थी उस स्कूल में उस जमाने में पढ़े तीन साल तक बराबर सारे जिले की छात्रवृत्तियां लेकर आए। हर वर्ष बीस-तीस बच्चे छात्रवृत्ति लेकर आते रहे क्योंकि वह नौकरी के लिए नहीं, संस्कृति के लिए शिक्षण देते थे। हर मां-बाप को प्रसन्नता थी कि मास्टर साहब के पास बच्चा जितना ज्यादा रह जाएगा, उतना ही अच्छा है। सवेरे जल्दी उठेगा, नहायेगा, साफ रहेगा, आदमी बनेगा। पढ़ा-लिखा बने चाहे नहीं, पर विनम्र बनेगा।
ऐसी गुरुकुल पद्धति मित्रो समाप्त हो गई। हमें अब क्वालिटी के सहयोगी मिले हैं तो हम इसे आरंभ करते हैं। सारे गायत्री परिवार के चौबीस लाख परिवारों के बच्चों को पढ़ाने की हैसियत तो हमारी नहीं है पर हम एक ‘मॉडल’ खड़ा करना चाहते हैं कि बच्चों का शिक्षण कैसा होना चाहिए? राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र मांगकर लाए थे। हम भी गायत्री परिवार के विशाल परिकर के सदस्यों से उनके बच्चों को मांगेंगे कि हम इन्हें नवयुग के लिए तैयार करना चाहते हैं। आप हमें दीजिए। हम दो सौ बच्चों को अगले वर्ष से किंडरगार्डन से लेकर दसवीं कक्षा तक की शिक्षा देने का कार्य करेंगे पर इसकी विशेषता इसका सरकारी पाठ्यक्रम नहीं वरन् वह होगी जो प्राचीन काल के गुरुकुलों में थी—संस्कृति, शिष्टाचार, जीवन जीने की कला, आत्मावलंबन, स्वावलंबन। यह एक बीजारोपण मात्र है, पर इसकी परिणति आप आने वाले बीस-तीस वर्षों में देखेंगे, जब यह विश्वविद्यालय का रूप ले लेगा।
हम यहां चौबीस घंटे का शिक्षण देंगे। जिसमें खेलना-कूदना भी शामिल है, व्यायाम करना भी, हंसी-मजाक भी तथा भयमुक्त होकर जीना भी। और क्या करेंगे आप इस विद्यालय में? हम यहां परिवार निर्माण की शिक्षा आरंभ करने वाले हैं ताकि कुटुंब व्यवस्था ठीक हो सके। व्यक्ति को अच्छा बनाने के लिए कुटुंब को अच्छा बनाना होगा। आज के परिवार यह काम नहीं कर सकते। वे रात को खाना खाते हैं, रेडियो सुनते हैं, टीवी देखते हैं व सो जाते हैं। सुबह तब उठते हैं, जब बच्चे स्कूल चले जाते हैं। परिवारों को बनाने के लिए हमें नारियों को शिक्षण देना होगा। वे ही बच्चों में संस्कारों का आरोपण कर पाएंगी। नारियों के शिक्षण के बिना गुरुकुल में बच्चों का शिक्षण अधूरा है। मात्र बच्चों का गुरुकुल एक भवन तक सीमित नहीं, यह समग्र परिवार शिक्षण का आरण्यक गायत्री तीर्थ के रूप में हमने इसीलिए बनाया है।
आज नारी जाति की व उनके कारण परिवारों की जो दुर्गति है, उसे देखकर हमें दुःख होता है। बच्चियां पढ़ती हैं, बी.ए. करती हैं, एम.ए. करती हैं। यह पढ़ाई किस काम आती है। नौकरियां कहां रखी हैं। सबसे बड़ी बात है कुटुंब की संस्था संचालन। कुटुंब एक समाज है, राज्य है, एक दुनिया है, जिसमें से महापुरुष निकाले जा सकते हैं। व्यक्ति को क्या से क्या बनाया जा सकता है। शादी और परिवार का कोई ताल्लुक नहीं है। पेट से बच्चा पैदा होता है, वही परिवार कहलाता है, यह सही नहीं है। शादी करने से ही परिवार बनता है, यह जरूरी नहीं है। परिवार है सहयोग-सहकार का नाम। हिल-मिल कर रहने की भावना का नाम गायत्री परिवार है, युग निर्माण परिवार है। परिवार की भावना यदि बन सके तो समाज बन सकता है। समाज की ढलाई का कारखाना है परिवार। इसमें ढलता है सुसंस्कारी व्यक्ति जो उसकी इकाई है। सुख और शांति की दृष्टि से परिवार की महत्ता है, जिसके संचालन के लिए महिलाओं की जरूरत है। महिलाओं का, नारी जाति का शिक्षण आवश्यक है। परिवार निर्माण के लिए ऐसा कहीं कोई स्कूल नहीं है। वह हमने यहां गुरुकुल के रूप में बनाया है।
बच्चों की समस्याएं समझकर उनका समाधान करने, उन्हें ही नहीं परिवार के हर सदस्य को ढाल देने की कला भगवान ने जितनी नारी को दी है, उतनी और किसी को नहीं। पुरुषों के हाथों में धमकाने की कला दी है व नारी को जो कला दी है, उसे मोहब्बत कहते हैं, संवेदना कहते हैं, करुणा कहते हैं। मर्दों के पास ताकत तो है, समर्थता तो है पर मोहब्बत नहीं है। उन्हें बनाने-बढ़ाने के लिए, ढालने के लिए नारी को ही आगे बढ़ाना होगा। हम आप से, कार्यकर्ताओं की बेटियों से, धर्मपत्नियों से, देवकन्याओं से, जो यहां माताजी की गोदी में रहकर पलीं, उन सबसे इस स्कूल की परिवार निर्माण की प्रयोगशाला की शुरुआत करते हैं। गायत्री परिवार के लोगों से कहते हैं कि अपनी पत्नियां हमें सौंपिए। हम उन्हें संस्कारवान बनाएंगे। संस्कार किसी के पास नहीं हैं। सास के पास हैं? सास तो उससे भी ज्यादा फूहड़ है। अपनी बेटी बहू को कहां से देगी वह संस्कार। इसीलिए समय की आवश्यकता को देखते हुए हम संस्कारों के शिक्षण के द्वारा एक गुरुकुल आरंभ करते हैं विद्या, संस्कृति व ज्ञान द्वारा नयी पीढ़ी को बनाने के लिए।
हमारी तो इच्छा थी कि स्कूली पाठ्यक्रम भी इस शिक्षा से निकाल देते पर क्या करें? मजबूरी है। बच्चे, उनके अभिभावक कहेंगे कि हमें नौकरी के लायक भी नहीं बनने दिया। हम तो उन्हें जीवन जीने की कला, बड़ा आदमी, महामानव बनने की विधा सिखाना चाहते हैं पर समय को देखते हुए विद्यालयीन सरकारी पाठ्यक्रम भी साथ जोड़ दिया है। मैट्रिक तक तो सरकारी शिक्षण पद्धति से पढ़ाएंगे पर साथ में जीवन की दिशा का निर्धारण करना, अपना भविष्य स्वयं कैसे बनाया जाए, इस विधा का शिक्षण करेंगे। संस्कारवान बनाएंगे। सामान्य जानकारी मिले, वहां तक तो हम बर्दास्त करते हैं पर कॉलेजों की पढ़ाई का जब प्रश्न आएगा तब हम अपना बनाएंगे। भारतीय संस्कृति का शिक्षण करने वाला एक विश्वविद्यालय स्तर का तंत्र हम खड़ा करेंगे। कब करेंगे? आप देखिएगा। हम हों न हों पर बीज बो रहे हैं। हमारे उत्तराधिकारी आने वाले दस-पंद्रह वर्षों में यह समग्र तंत्र तैयार कर देंगे। आपको इस संबंध में आशावादी होना चाहिए।
आज हमें आई.ए.एस. की नहीं समाज को सुधारने वाले लोकसेवियों की जरूरत है। समाज को शानदार मनुष्यों की जरूरत है। स्वस्थ चिंतन करने वाले युवा रक्त की जरूरत है। इसलिए स्कूलों की, कालेजों की शिक्षण पद्धति में व्यापक क्रांति पैदा करने के लिए यहीं से वातावरण बनाते हैं। न जाने इनमें से कौन गांधी है, नेहरू है, सुभाष बोस है, खुदीराम है। प्रत्येक के अंदर की मौलिक क्षमता को निखारने का प्रयास करेंगे। चार घंटों की सरकारी पढ़ाई व बीस घंटों की हमारी संस्कारों वाली पढ़ाई।
उज्ज्वल भविष्य के लिए जरूरी है संस्कारवान बच्चे और सुसंस्कारी, संवेदनशील, स्वावलंबी, शिक्षित नारी शक्ति। इन्हीं दो को बढ़ाएंगे हम। इस दिशा में हमारे कदम छोटे भले ही हों लेकिन परिणाम शानदार होंगे आप देखना अगले दिनों सारी शक्तिपीठों में यही शिक्षण वृहत रूप में चलने लगेगा व देखते-देखते विद्या विस्तार की क्रांति होती चली जाएगी। अब अंत में एक अनुरोध उनसे जो इस काम के लिए समय देंगे। उन बुड्ढों को जिनने घर वालों की नाक में दम कर रखा है, रिटायर हो चुके हैं, ढेर सारा समय है पर समाज के नाम पर समय मांगते हैं तो ठेंगा दिखाते हैं। हम यहां बुलाते हैं ताकि उनका लोक-परलोक दोनों सुधार सकें। उन्हें हमें पहले पढ़ाना पड़ेगा ताकि वे शिक्षक बन सकें। वानप्रस्थ स्तर के रिटायर्ड सेवाभावी व्यक्ति चाहिए हमें। यदि ऐसे व्यक्ति युवा वर्ग में से मिल सकें तो फिर बात ही क्या है। घर में एक ही कमाने वाला है, उसे भी हम नहीं बुलाते पर यह जरूर कहते हैं कि साल में वह एक बार नौ दिन का अनुष्ठान यहां आकर करे। अपने घर की महिलाओं व बच्चों का शिक्षण यहां देव परिवार में आकर करवाएं। यह गुरुकुल एक समग्र, सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला है जिसमें हम नररत्नों को ढालेंगे, जिनसे व्यक्ति, परिवार व समाज बनेगा। हमें मौका दीजिए ताकि हम नया समाज बना सकें, नया जमाना ला सकें। इस बच्चों व महिलाओं का अब विद्यारंभ संस्कार होगा। हम अपनी बात समाप्त करते हैं।
ॐ शांतिः ।