Books - जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा
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Language: HINDI
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र्निगुण्डी (वाइटेक्स र्निगुण्डी)
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'निर्गुडति शरीर रक्षति रोगेभ्यः तस्माद् निर्गुण्डी' अर्थात् जो रोगों से शरीर की रक्षा करती है, वह निर्गुण्डी कहलाती है । इसे सम्हालू या मेऊड़ी भी कहते हैं ।
वानस्पति परिचय-
सारे भारत में इसके स्वयं जात पौधे मिलते हैं । विशेषकर भारत के उष्ण भाग में यह अधिक संख्या में पाया जाता है तथा इसे किसान खेत की मेड़ में भी लगाते हैं । यह झुण्डों में पाया जाता है एवं सड़कों के किनारे उत्तरी एवं मध्य भारत में बहुधा देखा जाता है ।
इसके गुल्म बड़े 6 से 12 फीट ऊँचे झाड़ीदार होते हैं । सारे गुल्म पर सूक्ष्म रोम होते हैं । काण्ड स्थूल फैली हुई शाखाओं से युक्त होती है । छाल पतली, चिकनी, नीलाभ वर्ण की होती है । पत्तियों का वृत्त 3 से 5 पत्रों का होता है । अरहर सदृश्य दिखाई देती है, परन्तु अधिक लंबी, रोम युक्त खण्डित अथवा भालाकार होती हैं । ये 2 से 6 इंच लंबी तथा लगभग तीन चौथाई इंच चौड़ी होती हैं । पत्तियों का डण्ठल लंबा होता है । पत्तियाँ सरल व कभी-कभी गोल क्रम में लगी होती हैं । जिन पत्तियों में पाँच पत्रक होते हैं, उनमें सबसे नीचे जोड़े वाले पत्रक सबसे छोटे तथा पाँचवा पत्रक सबसे बड़ा होता है । पत्तों को मसलने से एक विशिष्ट प्रकार की तीव्र अप्रिय गंध निकलती है । पुष्प छोटे-छोटे नीलाभ या बैंगनी आभा लिए सफेद 2 से 6 इंच लंबी मंजरियों में होते हैं ।
फल छोटे-गोल, एक चौथाई इंच व्यास के होते हैं तथा पकने पर काले हो जाते हैं । बीज काली मिर्च जैसे कुछ छोटे पर रंग में सफेद काले मिश्रित होते हैं । बीज, पत्ते व जड़ औषधि की दृष्टि से प्रयुक्त होते हैं । जड़ जो सामान्य तथा पंसारियों के पास उपलब्ध रहती है, लंबे वक्राकार टुकड़ों के रूप में मिलती है । इन टुकड़ों पर भी छोटी-छोटी जड़ें होती हैं । छाल हरे रंग की तथा अंदर की लकड़ी पीले रंग की होती है । देहरादून क्षेत्र की ओर एक और प्रकार की निर्गुण्डी पाई जाती है, जिसमें बाह्य स्वरूप व औषधीय गुण तो वही होते हैं, परन्तु पत्ती, मंजरी, पुष्प व फल सभी छोटे होते हैं ।
मिलावट तथा पहचान-
निर्गुण्डी चूँकि जंगली पौधा है व इससे मिलती-जुलती कई प्रजातियाँ भी हैं । मिलावट इसमें काफी अधिक होती है । निर्गुण्डी के बीजों में प्रायः वायविडंग और रेणुका (वायटेक्स एक्नस) के बीज सम्मिलित रहते हैं ।
प्रसिद्ध वनस्पति शास्री डॉ. ड्यूथी के अनुसार निर्गुण्डी से ही मिलता-जुलता पौधा है- वायटैक्स ट्राइफोलिया इसके पत्ते सादे 1 से 3 पत्र युक्त होते हैं, खण्डित नहीं होते एवं फल-फूल सामान्य औषधीय गुण प्रधान पौधे के फल-फूलों से काफी अधिक बड़े होते हैं । इसे अक्सर सफेद सम्हालू या पानी का संभालू नाम से जाना जाता है ।
निर्गुण्डी गुल्म के कवच पर अनेक जाति के रोगाणु आक्रमण कर सकते हैं । पत्तियाँ भी बहुधा रोग ग्रस्त होती हैं । प्रयोग के पूर्व यह परीक्षा अनिवार्य है कि पौधा रोग रहित है अथवा नहीं ।
संग्रह संरक्षण-
औषधीय उद्देश्यों के लिए मार्च में इसके पुष्पित होने से पूर्व पत्तियों को एकत्र करना चाहिए, क्योंकि इस अवधि में पत्तियों में तेल की मात्रा सर्वाधिक होती है । अन्य किसी समय में एकत्र किए गए अंग गुणों की दृष्टि से हीन होते हैं ।
वर्षाकाल में भी निर्गुण्डी के पुराने पेड़ों के नीचे नूतन अंकुर फूटा करते हैं । इस अवधि के बाद वर्षाकाल समापन पर कार्तिक मास में नूतन अंकुरों से उत्पन्न पौधों के नीचे उपलब्ध हल्दी सदृश कंदों को लेना विशेष हितकर है । उपयोगी अंगों का उपयुक्त काल में संग्रह कर मुख बंद पात्रों में उन्हें शीतल सूखे स्थान पर रखा जाता है । इसका प्रयोग एक वर्ष तक किया जा सकता है ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
आचार्य चरक इसे विषहर वर्ग की एक महत्त्वपूर्ण औषधि मानते हैं । निर्गुण्डी आधुनिक काल के वैद्यों के अनुसार किसी भी प्रकार की बाहरी या भीतरी सूजन के लिए प्रयुक्त की जाती है । शोथ में भी इसके पत्तों का स्वरस अथवा मूल या पत्रों का काढ़ा दिया जाता है तथा ताजे पत्तों का लेप स्थानीय उपचार के रूप में किया जाता है ।
श्री भण्डारी के अनुसार यह औषधि वेदना शामक और मज्जा तंतुओं को शक्ति देने वाली है । सूजन नष्ट करने वाला इसका गुण जो विशेषकर अन्तर्कोशीय स्तर पर प्रभावी होता है, अपने आप में विशिष्ट है । यह वात नाशक व जोड़ों के दर्द को, जो ऋतुक्रम के अनुसार बढ़ते घटते रहते हैं, मिटाने वाली एक कारगर औषधि है । संधिशोध में चाहे उनका कारण जीवाणु हो या वार्धक्य, यह तुरंत लाभ पहुँचाती है । वैसे तो आर्युवेद में सूजन उतारने वाली कई औषधियों का वर्णन मिलता है, पर निर्गुण्डी इन सब में अग्रणी है एवं सर्वसुलभ भी । इसके अतिरिक्त तंतुओं को चोट पहुँचाने, मोच आदि के कारण आई मांसपेशियों की सूजन में भी यह लाभ पहुँचाती है । अधिक चलने या श्रम करने से मांसपेशियों को हुई थकान में यह तुरंत लाभकारी है । इसका कारण बताते हुए डॉ. नादकर्णी कहते हैं यह औषधि नाड़ी मण्डल के अवसाद को दूर कर उन्हें उत्तेजित करती है ।
बाहरी स्नायु संस्थान, प्लेक्स, रुट्स व नस तंतुओं में विद्युत्प्रवाह बढ़ाकर यह उन्हें उत्तेजित करती है इसी कारण इसे सिर दर्द विशेषकर ट्राइजेमिनलन्यूरेल्जिया तथा सियाटिका जैसे रोगों में विशेष लाभकारी पाया गया है ।
श्री चोपड़ा ग्लौसरी ऑफ इण्डियन मैडीसिनल प्लाण्ट्स पुस्तक में लिखते हैं कि किसी भी प्रकार की लंबे समय से चली आ रही जोड़ों की सूजन तथा प्रसव के गर्भाशय की असामान्य सूजन को उतारने में र्निगुण्डी पत्र चमत्कारी भूमिका निभाते हैं ।
ताजे पत्तियों को मिट्टी के पात्र में रखकर आग पर गर्म कर उसे लगाने से अथवा पत्तियों को कुचलकर शोथ वेदना वाले स्थानों पर लगाने से तुरंत लाभ होता है, ऐसा डॉ. नादकर्णी का मत है । जड़ी की छाल के टिंक्चर का प्रयोग भी रुमेटिज्म या रुमेंटौइड आर्थराइटिस के लिए बताया गया है ।
यूनानी चिकित्सापद्धति में निर्गुण्डी पत्र वर्गे संभालू और फल तुख्मे संभालू के नाम से प्रसिद्ध है । इन्हें दूसरे दर्ज में गर्म और खुष्क मानकर सूजन उतारने वाला तथा दर्द निवारक बताया गया है ।
होम्योपैथी में निर्गुण्डी के श्वेत पुष्प वाली प्रजाति का टिंक्चर प्रयुक्त करते हैं । डॉ. विलियम बोरिक ने इसे इण्डियन आर्निका नाम दिया है । उसके अनुसार दवा जोड़ों के दर्द में विशेष लाभकारी है ।
रासायनिक संरचना-
इस औषधि पर विस्तृत कार्य हुआ है । अनुसंधान के बाद पाया गया है कि ताजी पत्तियों का भाव आसव करने पर उसमें जल में घुलनशील एक हल्के पीले रंग का तेल मिलता है । उसकी मात्रा पत्रों में 0.04 से 0.07 प्रतिशत तक होती है । जल से कुछ ही हल्के इस तेल में 22.5 प्रतिशत एल्डीहाईड, 15 प्रतिशत फीनौल के घटक तथा 10 प्रतिशत सिनीऑल पाया गया है । दो एल्केलाइड भी पाए गए हैं, जिन्हें निशण्डीन और हाइड्रोकोटीलान नाम दिया गया है । इस पौधे की ताजी पत्तियों में प्रति सौ ग्राम 150 मिलीग्राम विटामिन सी और 3500 माइक्रोग्राम कैरोटीन होते हैं ।
फ्लेवॉन और ग्लाइकोसाइड जैसे जैविक रूप से समर्थ सक्रिय घटक निर्गुण्डी पत्रों में प्रचुर संख्या में पाए गए हैं । टैनिक अम्ल, हाइड्रौक्सी बैंजौइक अम्ल, हाइड्रौक्सी आइसोथेलिक अम्ल भी इसमें पाए जाते हैं ।
पत्रों का सक्रिय घटक रंगहीन उड़नशील तेल, एल्केलाइड्स, विटामिन्स ही वे सक्रिय तत्व हैं जो औषधीय प्रयोजन की दृष्टि से उपयोगी हैं वे इस सर्वोपलब्ध तथाकथित वाइल्ड औषधि को उपयोगी सिद्ध करते हैं ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
वैज्ञानिक प्रयोगों में यह पाया गया है कि निर्गुण्डी पत्रों का क्वाथ प्रायोगिक जंतुओं के जोड़ों में कृत्रिम रूप से उत्पन्न की गई सूजन (गठिया) की प्रगति रोककर यथास्थिति लाता है । फलों का चूर्ण भी दर्द निवारक पाया गया है ।
विभिन्न वैज्ञानिकों ने इसके बाह्य तथा आंतरिक प्रयोगों से पाया है कि यह नाड़ी तंतु जाल को सशक्त बनाता है, अपने वेदना निवारक गुण से मांस पेशियों, नाड़ियों तथा संधियों के दर्द को मिटाता है । मूलतः इसके पत्रों का बाह्य प्रयोग अत्यंत लाभकारी होता है, ऐसा आर्युवेद के विद्वानों का अनुभव है ।
ग्राह्य अंग-
वैसे तो इस पौधे के सभी भाग औषधीय गुणों से युक्त है, परन्तु पत्तियाँ और जड़ अपेक्षाकृत अधिक प्रयुक्त किए जाते हैं । छाल तथा पंचांग चूर्ण भी प्रयुक्त होते हैं ।
मात्रा-
पत्र स्वरस- 10 से 20 ग्राम (2 से 4 चम्मच) । मूल की छाल का चूर्ण- 1 से 3 ग्राम । बीज चूर्ण अथवा फल चूर्ण-3 से 6 ग्राम ।
निर्धारणानुसार उपयोग-
सिर दर्द आदि में पत्तों के स्वरस का लेप सिर पर करने से तुरंत आराम मिलता है, ऐसा आर.एन.खोरी का मत है । कटि प्रदेश (सेक्रोपेल्विक संधि) की वात सूजन में निर्गुण्डी पत्र स्वरस का पान 10 से 20 ग्राम मात्रा में मरते हैं । ऐसा अनुभव है कि सियाटिका स्लिप्ड डिस्क, लम्बेगं, मांस पेशियों को झटका लगने के कारण आई सूजन में निर्गुण्डी त्वक चूर्ण या पत्र का क्वाथ कम अग्नि पर पकाकर देने से (20 ग्राम दिन में 3 बार) कष्ट तुरंत समाप्त हो जाता है । निर्गुण्डी स्वरस 3 तोला दिन में 3 बार शहद के साथ देने से टिटनेस जैसे रोग में शीघ्र लाभ पहुँचते देखा गया है ।
निर्गुण्डी पत्र क्वाथ तथा पंचांग क्वाथ की भाप का प्रयोग रह्यूमेटिक रोगों में किया जाता है । गठिया चाहे वह जीवाणु संक्रमण की प्रतिक्रिया जन्य हो अथवा वार्धक्य की परिणति, सूजन उतारने, दर्द निवारण में निर्गुण्डी त्वक चूर्ण, पत्र चूर्ण या ताजे स्वरस से तुरंत लाभ मिलता है ।
अन्य उपयोग-
मुँह के छालों में इसके क्वाथ से कुल्ला कराते हैं । अण्डशोथ में इसके पत्रों को गरम करके बाँधते हैं । कान में दर्द में भी पत्र स्वरस लाभ पहुँचाता है । यह लीवर की सूजन तथा कृमियों को मारने के लिए भी प्रयुक्त होती है । विविध ज्वरों में अनुपान रूप में प्रयुक्त करके इसके स्वरस को ज्वरघ्न के रूप में भी प्रयुक्त किया गया है ।