Books - जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा
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Language: HINDI
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अर्जुन (टर्मिनेलिया अर्जुन)
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इसे घवल, ककुभ तथा नदीसर्ज (नदी नालों के किनारे होने के कारण) भी कहते हैं । कहुआ तथा सादड़ी नाम से बोलचाल की भाषा में प्रख्यात यह वृक्ष एक बड़ा सदाहरित पेड़ है । लगभग 60 से 80 फीट ऊँचा होता है तथा हिमालय की तराई, शुष्क पहाड़ी क्षेत्रों में नालों के किनारे तथा बिहार, मध्य प्रदेश में काफी पाया जाता है ।
वानस्पतिक परिचय-
इसकी छाल पेड़ से उतार लेने पर फिर उग आती है । छाल का ही प्रयोग होता है अतः उगने के लिए कम से कम दो वर्षा ऋतुएँ चाहिए । एक वृक्ष में छाल तीन साल के चक्र में मिलती हैं । छाल बाहर से सफेद, अन्दर से चिकनी, मोटी तथा हल्के गुलाबी रंग की होती है । लगभग 4 मिलीमीटर मोटी यह छाल वर्ष में एक बार स्वयंमेव निकलकर नीचे गिर पड़ती है । स्वाद कसैला, तीखा होता है तथा गोदने पर वृक्ष से एक प्रकार का दूध निकलता है ।
पत्ते अमरुद के पत्तों जैसे 7 से 20 सेण्टीमीटर लंबे आयताकार होते हैं या कहीं-कहीं नुकीले होते हैं । किनारे सरल तथा कहीं-कहीं सूक्ष्म दाँतों वाले होते हैं । वे वसंत में नए आते हैं तथा छोटी-छोटी टहनियों पर लगे होते हैं । ऊपरी भाग चिकना व निचला रुक्ष तथा शिरायुक्त होता है । फल वसंत में ही आते हैं, सफेद या पीले मंजरियों में लगे होते हैं । इनमें हल्की सी सुगंध भी होती है । फल लंबे अण्डाकार 5 या 7 धारियों वाले जेठ से श्रावण मास के बीच लगते हैं व शीतकाल में पकते हैं । 2 से 5 सेण्टी मीटर लंबे ये फल कच्ची अवस्था में हरे-पीले तथा पकने पर भूरे-लाल रंग के हो जाते हैं । फलों की गंध अरुचिकर व स्वाद कसौला होता है । फल ही अर्जुन का बीज है । अर्जुन वृक्ष का गोंद स्वच्छ सुनहरा, भूरा व पारदर्शक होता है ।
शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
अर्जुन जाति के कम से कम पन्द्रह प्रकार के वृक्ष भारत में पाए जाते हैं । इसी कारण कौन सी औषधि हृदय रक्त संस्थान पर कार्य करती है, यह पहचान करना बहुत जरूरी है । 'ड्रग्स ऑफ हिन्दुस्तान' के विद्वान लेखक डॉ. घोष के अनुसार आधुनिक वैज्ञानिक अर्जुन के रक्तवाही संस्थान पर प्रभाव को बना सकने में असमर्थ इस कारण रहे हैं कि इनमें आकृति में सदृश सजातियों की मिलावट बहुत होती है । छाल एक सी दीखने परभी उनके रासायनिक गुण व भैषजीय प्रभाव सर्वथा भिन्न है ।
सही अर्जुन की छाल अन्य पेड़ों की तुलना में कहीं अधिक मोटी तथा नरम होती है । शाखा रहित यह छाल अंदर से रक्त सा रंग लिए होती है । पेड़ पर से छाल चिकनी चादर के रूप में उतर आती है । क्योंकि पेड़ का तना बहुत चौड़ा होता है ।
संग्रह-
अर्जुन की छाल को सुखाकर सूखे शीतल स्थान में चूर्ण रूप में बंद रखा जाता है ।
कालावधि-
इसकी प्रभावी सामर्थ्य 2 वर्ष होती है ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
प्राचीन आयुर्वेद शास्रियों में वाग्भट्ट एक ऐसे वैद्य हैं, जिन्होंने पहली बार इस औषधि के हृदय रोग में उपयोगी होने की विवेचना की । उनके बाद चक्रदत्त व भाव मिश्र ने भी इसे हृदय रोगों की महौषधि माना । चक्रदत्त का कहना है कि घी, दूध या गुड़ के साथ जो अर्जुन की त्वचा का चूर्ण नियमित रूप से लेता है, उसे हृदय रोग, जीर्णज्वर, रक्त पित्त कभी नहीं सताते तथा वह चिरजीवी होता है । भाव मिश्र के अनुसार-
ककुभोर्ऽजुन नामाख्यो नदीसर्दश्च कीर्त्तितः । इन्द्रदुर्वीरवृक्षश्च वीरश्च धवलः स्मतः॥ ककुभो शीतलो हृद्यः क्षतक्षयविपाश्रजित । मेदोमेह वृणान हन्ति तुवरः कफपित्त कृत॥
अनेकों निघण्टुओं में अर्जुन सिद्ध घृत को हृदय रोगों की चाहे वे किसी भी प्रकार के हों, अचूक दवा माना गया है । हृदयशूल के लिए अर्जुन की छाल का क्वाथ या चूर्ण विभिन्न अनुपानों के साथ लिए जाने का विधान जगह-जगह बताया गया है । निघण्टु रतनाकर के अनुसार अर्जुन बलकारक है तथा अपने लवण-खनिजों के कारण हृदय की मांसपेशियों को सशक्त बनाता है ।
डॉ. खोरी अपनी पुस्तक 'मटेरिया मेडिका ऑफ इण्डिया' में लिखते हैं कि अर्जुन हृदय रोगों में कषाय होने के कारण मांसपेशियों के लिए एक टॉनिक का काम करता है ।
डॉ. देसाई के अनुसार अर्जुन से रक्तवाही नलिकाओं का संकुचन होता है । विशेषकर सूक्ष्म कोशिकाओं व छोटी धमनियों पर इसके प्रभाव से रक्ताभिषरण क्रिया बढ़ती है । हृदय को ठीक पोषण मिलताहै व धड़कन नियमित-व्यवस्थित होने लगती है । 'डिजिटेलिस परप्यूरा' नामक पौधे से प्राप्त व बादमें कृत्रिम संश्लेषण से बनी 'डिमॉक्सिन' नामक पाश्चात्य औषधि से तुलना करते हुए वे लिखते हैं कि अर्जुन हृदय के विराम काल को बढ़ाते हुए उसे बल भी पहुँचाता है तथा शरीर में संचित नहीं होता । मूत्र की मात्रा बढ़ाकर यह मूत्र द्वारा ही बाहर निकल जाता है । किसी भी रोग की जटिल परिणति हार्ट फैल्योर में इसका यह कर्म अति लाभकारी सिद्ध होता है ।
पेट के बढ़ने का रोग आयुर्वेद विद्वान हृदय की दुर्बलता के कारण मानते हैं तथा मेदों वृद्धि से हृदय दुर्बल होता है । यह तथ्य भी सत्य मानते हैं । अर्जुन इस दूषित चक्र की गति बंद कर मेदोवृद्धि का नाश करता है व हृदय के रक्तस्रोतों को बल प्रदान करता है ।
डॉ. नादकर्णी आदि का मत है कि यदि हृदय पेशियाँ आशक्त हों, रक्त न मिल पाने के कारण मृत प्रायः हों (वैज्ञानिक भाषा में सायोकार्डियल इन्फेक्शन) धमनियों में रक्त दाब कम हो गया हो व हृदय फूला हुआ हो (डाइनेटेड, हाइपर ट्रांफीड) इन लक्षणों से युक्त हृदय रोगों में अर्जुन कार्य कर सामान्य स्थिति वापस लाता है । यह हृदय की कोरोनरी धमनियों में रक्त प्रवाह बढ़ाकर तथा प्रतिरक्त स्तंभन (एण्टीकोएगुलैट) प्रभाव द्वारा करता है ।
डॉ. के.सी. बोस के अनुसार हदय की प्राकृत स्थिति में तो अर्जुन का विशेष परिणाम दृष्टिगोचर नहीं होता, लेकिन यदि उसकी क्रिया मंद हो गई हो तो अर्जुन तत्काल प्रभाव दिखाता है ।
'वैल्थ ऑफ इण्डिया' में वैज्ञानिकों ने एक स्वर से अर्जुन की प्रशंसा की है व अपने प्रयोगों द्वारा पाया है कि इसकी छाल का चूर्ण उच्च रक्तचाप में लाभ करता है । यह चूर्ण मूत्र विरेचक भी है । इस प्रकार यह हृदय पर अतिरिक्त भार को अपने द्विमुखी प्रभाव से तुरंत कम कर देता है ।
होम्योपैथी में अर्जुन एक प्रचलित ख्याति प्राप्त औषधि है । हृदयरोग संबंधी सभी लक्षणों में विशेषकर क्रिया विकार जन्य तथा यांत्रिक गड़बड़ी के कारण उत्पन्न हुए विकारों में इसके तीन एक्स व तीसवीं पोटेन्सी में प्रयोग को होम्योपैथी के विद्वानों ने बड़ा सफल बताया है ।
अर्जुन संबंधी मतों में प्राचीन व आधुनिक विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है । फिर भी धीरे-धीरे शोथ कार्य द्वारा शास्रोक्त प्रतिपादन अब सिद्ध होते चले जा रहे हैं ।
रासायनिक संगठन-
अर्जुन की छाल में पाए जानेवाले मुख्य घटक हैं-बीटा साइटोस्टेरॉल, अर्जुनिक अम्ल तथा फ्रीडेलीन । अर्जुनिक अम्ल ग्लूकोज के साथ एक ग्लूकोसाइड बनाता है, जिसे अर्जुनेटिक कहा जाता है । इसके अलावा अर्जुन की छाल में पाए जाने वाले अन्य घटक इस प्रकार हैं-(1) टैनिन्स-छाल का 20 से 25 प्रतिशत भाग टैनिन्स से ही बनताहै । पायरोगेलाल व केटेकॉल दोनों ही प्रकार के टैनिन होते हैं । (2) लवण-कैल्शियम कार्बोनेट लगभग 34 प्रतिशत की मात्रा में इसकी राख में होता है । अन्य क्षारों में सोडियम, मैग्नीशियम व अल्युमीनियम प्रमुख है । इस कैल्शियम सोडियम पक्ष की प्रचुरता के कारण ही यह हृदय की मांस पेशियों में सूक्ष्म स्तर पर कार्य कर पाता है । (3) विभिन्न पदार्थ हैं-शकर, रंजक पदार्थ, विभिन्न अज्ञात कार्बनिक अम्ल व उनके ईस्टर्स ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
अभी तक अर्जुन से प्राप्त विभिन्न घटकों के प्रायोगिक जीवों पर जो प्रभाव देखे गए हैं, उससे इसके वर्णित गुणों की पुष्टि ही होती है । विभिन्न प्रयोगों द्वारा पाया गया हे कि अर्जुन से हृदय की पेशियों को बल मिलता है, स्पन्दन ठीक व सबल होता है तथा उसकी प्रति मिनट गति भी कम हो जाती है । स्ट्रोक वाल्यूम तथा कार्डियक आउटपुट बढ़तती है । हृदय सशक्त व उत्तजित होता है । इनमें रक्त स्तंभक व प्रतिरक्त स्तंभक दोनों ही गुण हैं । अधिक रक्तस्राव होने की स्थिति से या कोशिकाओं की रुक्षता के कारण टूटने का खतरा होने परयह स्तंभक की भूमिका निभाता है, लेकिन हृदय की रक्तवाही नलिकाओं (कोरोनरी धमनियों) में थक्का नहीं बनने देता तथा बड़ी धमनी से प्रति मिनट भेजे जाने वाले रक्त के आयतन में वृद्धि करता है । इस प्रभाव के कारण यह शरीर व्यापी तथा वायु कोषों में जमे पानी को मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देता है । खनिज लवणों के सूक्ष्म रूप में उपस्थित होने के कारण यह एक तीव्र हृत्पेशी उत्तेजक भी है ।
ग्राह्य अंग-
अर्जुन की छाल, पत्र तथा फल ।
मात्रा-
छाल का चूर्ण 3 से 6 ग्राम दूध, गुड़ या घी के साथ 2 या 3 बार । छाल का क्वाथ-50 से 100 मिलीलीटर । पत्र स्वरस- 10 से 20 मिलीलीटर । क्षीरपाक-5 से 10 ग्राम ।
निर्धारणानुसार प्रयोग-
हृदय में शिथिलता आने पर या शोथ होने पर (क्रानिक कन्जेस्टिव फैल्योर) अर्जुन की छाल व गुड़ को दूध में मिलाकर औटा कर पिलाते हैं । हृदयाघात, हृदय शूल में अर्जुन की छाल से सिद्ध दूध अथवा ३ से ६ ग्राम छाल घी या गुड़ के शर्बत के साथ देते हैं ।
अर्जुन घृत बनाने के लिए आधा किलो अर्जुन की छाल जौकुट करके 4 किलो जल में पकायी जाती है । चौथाई जल शेष रहने पर अर्जुन कल्क 50 ग्राम व गाय का घी 259 ग्राम मिलाकर पाक करते हैं । जब जल उड़ जाता है, मात्र घी शेष रह जाता है तो यह सिद्ध घृत बन जाता है । 6 से 11 ग्राम मात्रा दी जाती है । यह समस्त प्रकार के हृदय रोगों में उपयोगी है । यह रक्त पित्त भी रोकता है तथा वासा पत्र के स्वरस के साथ मिलकर देने पर टी.वी. के रोगी की खाँसी तुरन्त दूर करता है ।
अन्य उपयोग-
कफपित्त शामक है । स्थानीय लेप के रूप में बाह्य रक्तसस्राव में तथा व्रणों में पत्र स्वरस या त्वक् चूर्ण का प्रयोग करते हैं । खूनी बवासीर में खून बहना रोकता है । वक्षदाह व जीर्ण खाँसी में लाभ पहुँचाता है । पेशाब की जलन, श्वेत प्रदर तथा चर्म रोगों में चूर्ण रूप में लिए जाने पर लाभकारी है । सामान्य दुर्बलता के निवारण तथा विशेषोपचार में भी यह सामंजस्य की स्थिति लाने के लिए प्रयुक्त होता है । हड्डी टूटने पर इसकी छाल का स्वरस दूध के साथ देते हैं । इससे रोगी को आराम मिलता है, सूजन व दर्द कम होते हैं तथा शीघ्र ही सामान्य स्थिति आने में मदद मिलती है ।
वानस्पतिक परिचय-
इसकी छाल पेड़ से उतार लेने पर फिर उग आती है । छाल का ही प्रयोग होता है अतः उगने के लिए कम से कम दो वर्षा ऋतुएँ चाहिए । एक वृक्ष में छाल तीन साल के चक्र में मिलती हैं । छाल बाहर से सफेद, अन्दर से चिकनी, मोटी तथा हल्के गुलाबी रंग की होती है । लगभग 4 मिलीमीटर मोटी यह छाल वर्ष में एक बार स्वयंमेव निकलकर नीचे गिर पड़ती है । स्वाद कसैला, तीखा होता है तथा गोदने पर वृक्ष से एक प्रकार का दूध निकलता है ।
पत्ते अमरुद के पत्तों जैसे 7 से 20 सेण्टीमीटर लंबे आयताकार होते हैं या कहीं-कहीं नुकीले होते हैं । किनारे सरल तथा कहीं-कहीं सूक्ष्म दाँतों वाले होते हैं । वे वसंत में नए आते हैं तथा छोटी-छोटी टहनियों पर लगे होते हैं । ऊपरी भाग चिकना व निचला रुक्ष तथा शिरायुक्त होता है । फल वसंत में ही आते हैं, सफेद या पीले मंजरियों में लगे होते हैं । इनमें हल्की सी सुगंध भी होती है । फल लंबे अण्डाकार 5 या 7 धारियों वाले जेठ से श्रावण मास के बीच लगते हैं व शीतकाल में पकते हैं । 2 से 5 सेण्टी मीटर लंबे ये फल कच्ची अवस्था में हरे-पीले तथा पकने पर भूरे-लाल रंग के हो जाते हैं । फलों की गंध अरुचिकर व स्वाद कसौला होता है । फल ही अर्जुन का बीज है । अर्जुन वृक्ष का गोंद स्वच्छ सुनहरा, भूरा व पारदर्शक होता है ।
शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
अर्जुन जाति के कम से कम पन्द्रह प्रकार के वृक्ष भारत में पाए जाते हैं । इसी कारण कौन सी औषधि हृदय रक्त संस्थान पर कार्य करती है, यह पहचान करना बहुत जरूरी है । 'ड्रग्स ऑफ हिन्दुस्तान' के विद्वान लेखक डॉ. घोष के अनुसार आधुनिक वैज्ञानिक अर्जुन के रक्तवाही संस्थान पर प्रभाव को बना सकने में असमर्थ इस कारण रहे हैं कि इनमें आकृति में सदृश सजातियों की मिलावट बहुत होती है । छाल एक सी दीखने परभी उनके रासायनिक गुण व भैषजीय प्रभाव सर्वथा भिन्न है ।
सही अर्जुन की छाल अन्य पेड़ों की तुलना में कहीं अधिक मोटी तथा नरम होती है । शाखा रहित यह छाल अंदर से रक्त सा रंग लिए होती है । पेड़ पर से छाल चिकनी चादर के रूप में उतर आती है । क्योंकि पेड़ का तना बहुत चौड़ा होता है ।
संग्रह-
अर्जुन की छाल को सुखाकर सूखे शीतल स्थान में चूर्ण रूप में बंद रखा जाता है ।
कालावधि-
इसकी प्रभावी सामर्थ्य 2 वर्ष होती है ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
प्राचीन आयुर्वेद शास्रियों में वाग्भट्ट एक ऐसे वैद्य हैं, जिन्होंने पहली बार इस औषधि के हृदय रोग में उपयोगी होने की विवेचना की । उनके बाद चक्रदत्त व भाव मिश्र ने भी इसे हृदय रोगों की महौषधि माना । चक्रदत्त का कहना है कि घी, दूध या गुड़ के साथ जो अर्जुन की त्वचा का चूर्ण नियमित रूप से लेता है, उसे हृदय रोग, जीर्णज्वर, रक्त पित्त कभी नहीं सताते तथा वह चिरजीवी होता है । भाव मिश्र के अनुसार-
ककुभोर्ऽजुन नामाख्यो नदीसर्दश्च कीर्त्तितः । इन्द्रदुर्वीरवृक्षश्च वीरश्च धवलः स्मतः॥ ककुभो शीतलो हृद्यः क्षतक्षयविपाश्रजित । मेदोमेह वृणान हन्ति तुवरः कफपित्त कृत॥
अनेकों निघण्टुओं में अर्जुन सिद्ध घृत को हृदय रोगों की चाहे वे किसी भी प्रकार के हों, अचूक दवा माना गया है । हृदयशूल के लिए अर्जुन की छाल का क्वाथ या चूर्ण विभिन्न अनुपानों के साथ लिए जाने का विधान जगह-जगह बताया गया है । निघण्टु रतनाकर के अनुसार अर्जुन बलकारक है तथा अपने लवण-खनिजों के कारण हृदय की मांसपेशियों को सशक्त बनाता है ।
डॉ. खोरी अपनी पुस्तक 'मटेरिया मेडिका ऑफ इण्डिया' में लिखते हैं कि अर्जुन हृदय रोगों में कषाय होने के कारण मांसपेशियों के लिए एक टॉनिक का काम करता है ।
डॉ. देसाई के अनुसार अर्जुन से रक्तवाही नलिकाओं का संकुचन होता है । विशेषकर सूक्ष्म कोशिकाओं व छोटी धमनियों पर इसके प्रभाव से रक्ताभिषरण क्रिया बढ़ती है । हृदय को ठीक पोषण मिलताहै व धड़कन नियमित-व्यवस्थित होने लगती है । 'डिजिटेलिस परप्यूरा' नामक पौधे से प्राप्त व बादमें कृत्रिम संश्लेषण से बनी 'डिमॉक्सिन' नामक पाश्चात्य औषधि से तुलना करते हुए वे लिखते हैं कि अर्जुन हृदय के विराम काल को बढ़ाते हुए उसे बल भी पहुँचाता है तथा शरीर में संचित नहीं होता । मूत्र की मात्रा बढ़ाकर यह मूत्र द्वारा ही बाहर निकल जाता है । किसी भी रोग की जटिल परिणति हार्ट फैल्योर में इसका यह कर्म अति लाभकारी सिद्ध होता है ।
पेट के बढ़ने का रोग आयुर्वेद विद्वान हृदय की दुर्बलता के कारण मानते हैं तथा मेदों वृद्धि से हृदय दुर्बल होता है । यह तथ्य भी सत्य मानते हैं । अर्जुन इस दूषित चक्र की गति बंद कर मेदोवृद्धि का नाश करता है व हृदय के रक्तस्रोतों को बल प्रदान करता है ।
डॉ. नादकर्णी आदि का मत है कि यदि हृदय पेशियाँ आशक्त हों, रक्त न मिल पाने के कारण मृत प्रायः हों (वैज्ञानिक भाषा में सायोकार्डियल इन्फेक्शन) धमनियों में रक्त दाब कम हो गया हो व हृदय फूला हुआ हो (डाइनेटेड, हाइपर ट्रांफीड) इन लक्षणों से युक्त हृदय रोगों में अर्जुन कार्य कर सामान्य स्थिति वापस लाता है । यह हृदय की कोरोनरी धमनियों में रक्त प्रवाह बढ़ाकर तथा प्रतिरक्त स्तंभन (एण्टीकोएगुलैट) प्रभाव द्वारा करता है ।
डॉ. के.सी. बोस के अनुसार हदय की प्राकृत स्थिति में तो अर्जुन का विशेष परिणाम दृष्टिगोचर नहीं होता, लेकिन यदि उसकी क्रिया मंद हो गई हो तो अर्जुन तत्काल प्रभाव दिखाता है ।
'वैल्थ ऑफ इण्डिया' में वैज्ञानिकों ने एक स्वर से अर्जुन की प्रशंसा की है व अपने प्रयोगों द्वारा पाया है कि इसकी छाल का चूर्ण उच्च रक्तचाप में लाभ करता है । यह चूर्ण मूत्र विरेचक भी है । इस प्रकार यह हृदय पर अतिरिक्त भार को अपने द्विमुखी प्रभाव से तुरंत कम कर देता है ।
होम्योपैथी में अर्जुन एक प्रचलित ख्याति प्राप्त औषधि है । हृदयरोग संबंधी सभी लक्षणों में विशेषकर क्रिया विकार जन्य तथा यांत्रिक गड़बड़ी के कारण उत्पन्न हुए विकारों में इसके तीन एक्स व तीसवीं पोटेन्सी में प्रयोग को होम्योपैथी के विद्वानों ने बड़ा सफल बताया है ।
अर्जुन संबंधी मतों में प्राचीन व आधुनिक विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है । फिर भी धीरे-धीरे शोथ कार्य द्वारा शास्रोक्त प्रतिपादन अब सिद्ध होते चले जा रहे हैं ।
रासायनिक संगठन-
अर्जुन की छाल में पाए जानेवाले मुख्य घटक हैं-बीटा साइटोस्टेरॉल, अर्जुनिक अम्ल तथा फ्रीडेलीन । अर्जुनिक अम्ल ग्लूकोज के साथ एक ग्लूकोसाइड बनाता है, जिसे अर्जुनेटिक कहा जाता है । इसके अलावा अर्जुन की छाल में पाए जाने वाले अन्य घटक इस प्रकार हैं-(1) टैनिन्स-छाल का 20 से 25 प्रतिशत भाग टैनिन्स से ही बनताहै । पायरोगेलाल व केटेकॉल दोनों ही प्रकार के टैनिन होते हैं । (2) लवण-कैल्शियम कार्बोनेट लगभग 34 प्रतिशत की मात्रा में इसकी राख में होता है । अन्य क्षारों में सोडियम, मैग्नीशियम व अल्युमीनियम प्रमुख है । इस कैल्शियम सोडियम पक्ष की प्रचुरता के कारण ही यह हृदय की मांस पेशियों में सूक्ष्म स्तर पर कार्य कर पाता है । (3) विभिन्न पदार्थ हैं-शकर, रंजक पदार्थ, विभिन्न अज्ञात कार्बनिक अम्ल व उनके ईस्टर्स ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
अभी तक अर्जुन से प्राप्त विभिन्न घटकों के प्रायोगिक जीवों पर जो प्रभाव देखे गए हैं, उससे इसके वर्णित गुणों की पुष्टि ही होती है । विभिन्न प्रयोगों द्वारा पाया गया हे कि अर्जुन से हृदय की पेशियों को बल मिलता है, स्पन्दन ठीक व सबल होता है तथा उसकी प्रति मिनट गति भी कम हो जाती है । स्ट्रोक वाल्यूम तथा कार्डियक आउटपुट बढ़तती है । हृदय सशक्त व उत्तजित होता है । इनमें रक्त स्तंभक व प्रतिरक्त स्तंभक दोनों ही गुण हैं । अधिक रक्तस्राव होने की स्थिति से या कोशिकाओं की रुक्षता के कारण टूटने का खतरा होने परयह स्तंभक की भूमिका निभाता है, लेकिन हृदय की रक्तवाही नलिकाओं (कोरोनरी धमनियों) में थक्का नहीं बनने देता तथा बड़ी धमनी से प्रति मिनट भेजे जाने वाले रक्त के आयतन में वृद्धि करता है । इस प्रभाव के कारण यह शरीर व्यापी तथा वायु कोषों में जमे पानी को मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देता है । खनिज लवणों के सूक्ष्म रूप में उपस्थित होने के कारण यह एक तीव्र हृत्पेशी उत्तेजक भी है ।
ग्राह्य अंग-
अर्जुन की छाल, पत्र तथा फल ।
मात्रा-
छाल का चूर्ण 3 से 6 ग्राम दूध, गुड़ या घी के साथ 2 या 3 बार । छाल का क्वाथ-50 से 100 मिलीलीटर । पत्र स्वरस- 10 से 20 मिलीलीटर । क्षीरपाक-5 से 10 ग्राम ।
निर्धारणानुसार प्रयोग-
हृदय में शिथिलता आने पर या शोथ होने पर (क्रानिक कन्जेस्टिव फैल्योर) अर्जुन की छाल व गुड़ को दूध में मिलाकर औटा कर पिलाते हैं । हृदयाघात, हृदय शूल में अर्जुन की छाल से सिद्ध दूध अथवा ३ से ६ ग्राम छाल घी या गुड़ के शर्बत के साथ देते हैं ।
अर्जुन घृत बनाने के लिए आधा किलो अर्जुन की छाल जौकुट करके 4 किलो जल में पकायी जाती है । चौथाई जल शेष रहने पर अर्जुन कल्क 50 ग्राम व गाय का घी 259 ग्राम मिलाकर पाक करते हैं । जब जल उड़ जाता है, मात्र घी शेष रह जाता है तो यह सिद्ध घृत बन जाता है । 6 से 11 ग्राम मात्रा दी जाती है । यह समस्त प्रकार के हृदय रोगों में उपयोगी है । यह रक्त पित्त भी रोकता है तथा वासा पत्र के स्वरस के साथ मिलकर देने पर टी.वी. के रोगी की खाँसी तुरन्त दूर करता है ।
अन्य उपयोग-
कफपित्त शामक है । स्थानीय लेप के रूप में बाह्य रक्तसस्राव में तथा व्रणों में पत्र स्वरस या त्वक् चूर्ण का प्रयोग करते हैं । खूनी बवासीर में खून बहना रोकता है । वक्षदाह व जीर्ण खाँसी में लाभ पहुँचाता है । पेशाब की जलन, श्वेत प्रदर तथा चर्म रोगों में चूर्ण रूप में लिए जाने पर लाभकारी है । सामान्य दुर्बलता के निवारण तथा विशेषोपचार में भी यह सामंजस्य की स्थिति लाने के लिए प्रयुक्त होता है । हड्डी टूटने पर इसकी छाल का स्वरस दूध के साथ देते हैं । इससे रोगी को आराम मिलता है, सूजन व दर्द कम होते हैं तथा शीघ्र ही सामान्य स्थिति आने में मदद मिलती है ।