Books - जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा
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Language: HINDI
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सारिवा (हेमिडेस्मस इण्डिक)
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इसे अनन्तमूल, गोपवल्ली, कपूरी नाम से भी जाना जाता है । श्वेत, कृष्ण दो प्रकार की प्रजातियाँ मानी जाती हैं । कृष्ण सारिवा के गुण-कर्म व वानस्पतिक वर्णन अनन्तमूल से बिल्कुल अलग हैं । उसे जम्मू पत्रा सारिवा भी कहा जाता है । सारिवा नाम से जब भी चर्चा होती है तो वह अनन्तमूल, हेमीडेस्मस प्रजाति की ही होती है।
वानस्पतिक परिचय-
सारिवा की लता पतली बहुवर्षायु गुल्म सदृश होती है । यह 5 से 15 फुट लंबी होती है तथा जमीन पर फैल जाती है अथवा निकटवर्ती किसी भी वृक्ष को लपेटकर उस पर चढ़ जाती है।
सारिवा मूल ही प्रयोजनीय अंग है । इसमें से कर्पूर मिश्रित चन्दन-सी गंध आती है । जड़ की ऊपरी छाल कुछ भूरे रंग की होती है । स्वाद कुछ मीठापन लिए चरपरा । जड़ को ताजा तोड़ने पर दूध निकलता है । छाल सूख जाने पर यह फटी रेखायुक्त दिखाई देता हे । छाल का निचला भाग कुछ पीले रंग का व अत्यन्त मजबूत होता है।
शाखाएँ सुतली से लेकर उँगली तक मोटी, काले रंग की चारों ओर फैली होती है । इस पर श्वेत भूरे रंग के मुलायम रोम होते हैं तोड़ने से शीघ्र टूटती नहीं । पत्ते कुछ-कुछ अनार के पत्तों के समान अण्डाकार आयताकार 1 से 4 इंच लंबे होते हैं । इनका निचला भाग हलकी श्वेत आभा लिए तथा ऊपरी पृष्ठ श्वेत रेखांकित होता है । फूल पत्र कोणीय मंजरियों में बाहर हरे व भीतर बैंगनी रंग लिए होते हैं । आषाढ़-सावन में फूल आते हैं । इनमें चन्दन सी सुगंध रहती है । ये गुच्छों में लगते हैं तथा प्रायः दोपहर के समय खिलते हैं । पंखुड़ियों में जामुनी रोयें होते हैं । फलियाँ अनेक, पतली छोटी-छोटी शृंगाकार होती हैं । ये कार्तिक मार्गशीर्ष में लगती हैं, फाल्गुन या चैत्र मास में त्रिड़क कर फट जाती हैं तथा अंदर के बीज बाहर बिखर जाते हैं । बीज एक ओर से चपटे होते हैं । कच्ची अवस्था में सफेद और पकने पर बादामी या काले किनारेदार हो जाते हैं ।
सारिवा गंगा के उत्तरी मैदानी भाग से लेकर पूरब में बंगाल तक तथा दक्षिण में मध्य प्रदेश से लंका तक लता के रूप में प्रचुरता से पाई जाती है । समुद्र किनारे घाट वाले प्रदेशों में भी चट्टानों के बीच-बीच इसकी गहराई तक पहुँची जड़ें देखी गई हैं।
पहचान, मिलावट, शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
सारिवा को जैसा कि ऊपर बताया गया-कृष्ण व श्वेत दो भेदों में विभाजित किया गया है । अधिकांश वनस्पतिविदों का मत है कि आकार, गंध, स्वभाव अलग-अलग होते हुए भी इनके गुण एक ही हैं, लेकिन आयु विज्ञानियों के प्रयोग सिद्ध मत अलग-अलग हैं । वे श्वेत सारिवा को ही प्रस्तुत प्रयोजन में प्रयोग का प्रावधान बताते हैं ।
बाजार में पंसारियों के पास इसके मूल के साथ नारियल की जड़ें, कपूर माधुरी, गोरख गांजा आदि की जड़ों का भी मिश्रण मिलता है । सारिवा मूल का विभेद उसकी सुगंध से ही किया जाता है । मूल का चूर्ण भी मिश्रित मिलता है । शुद्ध सारिवा मूल चूर्ण में बाहरी खोल के गाढ़े भूरे रंग के छोटे-छोटे कण होते हैं तथा श्वेत कोमल भाग के महीन कणाकार टुकड़े । इसमें भस्म का अंश अधिकतम 4 प्रतिशत होता है । सारिवा मूल ताजा ही प्रयुक्त हो, यही वांछनीय है । जहाँ उपलब्ध न हो, वहाँ इसकी सही पहचान अनिवार्य है।
संग्रह संरक्षण-
सारिवा सक्रिय घटक उसकी जड़ की छाल में होता है । इस कारण बारीक, अपेक्षाकृत कम आयु के ताजे मूल लिए जाने चाहिए । मोटे मूल हो तो मात्र जड़ की छाल ली जाए त्वचा अथवा मूल के टुकड़ों को मुखबंद पात्रों में रखा जाए । सारिवा की कालावधि अधिक नहीं है । 2-3 माह में ही तेल उड़ जाता है व विकृति आने लगती है । यथासंभव सर्वोपलब्ध सही औषधि को ताजा ही प्रयोग ही किया जाए । इस औषधि के साथ इस तथ्य का ध्यान हमेशा रहना चाहिए ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
आचार्य चरक ने मधुर स्कन्द के द्रव्यों में सारिवा का उल्लेख किया है । आचार्य सुश्रुत ने तो सारिवादिगण की प्रधान औषधि ही सारिवा को माना है । इस गण में आचार्य प्रवर व अन्य विद्वानों ने रक्तशोधक औषधियों को ही लिया है । ज्वर हर, दाह प्रशमन, बल्लीपंचमूल गण भी इसी औषधि समूह के अन्य पर्याय हैं।
भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार सारिवा विषघ्न एवं रक्त विकार शामक औषधि है । इसके गुण बताते हुए निघण्टुकार लिखते हैं-अग्निमांद्यारुचिश्वासकासाम विषनाशनम् । दोषत्रयारत्रप्रदरज्वर तीसारनाशनम्॥
श्लोक से स्पष्ट है कि औषधि चिरपुरातन काल से ही विष प्रधान रोगों में प्रयुक्त होती रही है ।धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक के अनुसार रक्त शुद्धि और धातु परिवर्तन के लिए अनन्तमूल बहुत उपयोगी है । यह औषधि रक्त के ऊपर अपना सीधा प्रभाव दिखाती है । इसके द्वारा त्वचान्तर्गत रक्त वाहिनियों का विकास होता है, रक्त प्रवाह ठीक गति से होने लगता है ।
रासायनिक संगठन-
कर्नल चोपड़ा के अनुसार सारिवा की जड़ के सक्रिय पदार्थों के मुख्य हैं-एक इसेन्शियल ऑइल, एक एन्जाइम और एक सैपोनिन । सारिवा मूल में लगभग 0.22 प्रतिशत उत्पत तेल होता है । इस तेल का 80 प्रतिशत भाग एक सुगंधित एल्डीहाइड के रूप में होता है, जिसे 'पैरानेथाक्सी सेलिसिलिक एल्डीहाईड' नाम दिया गया है । यही सारिवा की मूल को तोड़ने पर पाई जाने वाली सुगंध का प्रधान कारण है । जड़ के अन्य घटक हें बीटा साइटो स्टीरॉल, एल्फा और बीटा एसाइरिन्स जो मुक्त व ईस्टर दोनों ही रूपों में विद्यमान होते हैं । इसके अतिरिक्त ल्यूपियोल, टेट्रासाइक्लीक ट्राई स्र्पीन अल्कोहल, रेसिन अम्ल, वसा अम्ल टैनिन्स, पैपोनिन, एकग्लाइकोसाइड व कीटोन्स भी पाए जाते हैं । एक शुद्ध कार्य सक्षम औषधि में 2 प्रतिशत से अधिक कार्बनिक पदार्थ तथा 4 प्रतिशत से अधिक भस्म नहीं होना चाहिए ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग-निष्कर्ष-
सारिवा को इण्डियन फर्मेकोपिया से मान्यता प्राप्त औषधियों में गिना जाता है । ब्रिटिश फर्मेकोपिया में भी इसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । वेल्थ ऑफ इण्डिया के विद्वान लेखकों के अनुसार यह विशुद्धतः एक रक्त शोधक औषधि है । यह स्वेदजनक तथा मूत्रल भी है । इस कारण यह कुपोषण जन्य शोथ, पुरानी गठिया, पेशाब के रोगों, कुष्ठ व चर्म रोगों में लाभ करती है ।
अमेरिकन औषधि (सारिवा) सरसेपेरिल्ला कही जाती है । भारतीय औषधि इससे गुणों में कहीं अधिक श्रेष्ठ है, ऐसा डॉ. नादकर्णी का अभिमत है । यह उपदंश नामक त्वचा व्याधि में दूसरी एवं तीसरी अवस्था में भी लाभकारी प्रभाव दिखाती है । जोड़ों आदि की सूजन घटाती तथा मूत्र की मात्रा को तीन गुना तक कर देती है । रकत व्यापी विष को यह मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देती है ।
होम्योपैथी में इस औषधि के मदरटिंक्चर का प्रयोग अनेक प्रकार के चर्म रोगों, उपदंश तथा रक्त दोष जन्य व्याधियों के निवारणार्थ किया जाता है । भारतीय जाति हेमीडेसमस को सरसापेरिल्ला से अधिक वरीयता दी जाती है, क्योंकि उसमें अधिक गुण जर्मन चिकित्सकों ने पाए हैं ।
यूनानी मतानुसार सारिवा ठण्डी और तर औषधि है । यह पेशाब का बनना बढ़ाती है, बढ़े हुए को बाहर निकालती है, पसीना लाकर रक्त का शोधन कर देती है । हकीम दलजीतसिंह के अनुसार यह जीवन की चयापचय क्रिया को बढ़ाती है । इस प्रभाव के कारण यह चर्म रोगों फिरंग, श्वेत प्रदर, आमवात, व्रण तथा बिच्छूदंश आदि में लाभ करती है । शरीर की दुर्गंध दूर होती है और सारे शरीर में रक्त प्रवाह बढ़ता है।
प्रयोज्य अंग-
इस औषधि की जड़, जड़ की छाल का चूर्ण व ताजा रस प्रयोग किया जाता है । चूँकि इसका वीर्य उड़ने वाला तेल होता है, इसकी जड़ा का क्वाथ नहीं बनाया जाता । क्वाथ बनाने पर सारे गुण नष्ट हो जाते हैं ।
मात्रा-
कल्क 5 से 10 ग्राम, फाण्ट 50 से 100 मिली लीटर तथा चूर्ण 3-6 ग्राम ।
निर्धारणानुसार उपयोग-
समस्त रक्त विकारों तथा त्वचा विकारों के लिए सारिवा एक महत्त्वपूर्ण औषधि है । 50 ग्राम औषधि को दिन में 4-5 बार विभाजित कर लिया जाए तो यह इनमें तुरंत आराम देती है । फोड़े-फुन्सियों में इसका फाण्ट प्रातः-सायं लिया जाता है । जब मूत्र की मात्रा कम हो, रंग गहरा हो व शोथ सारे शरीर पर हो तो सारिवा चूर्ण को गोदुग्ध के साथ लेने पर तुरंत आराम मिलता है । सारिवा जड़ा का हिमनिष्कर्ष (ठण्डे जल में जड़ को रात भर भिगोकर निकाला गया सत्व) भी 2 से 3 औंस प्रतिदिन दूध के साथ लेने पर तुरंत लाभ देता है ।
यह रसायन और विषनाशक साथ-साथ होने के नाते उत्तम रक्तशोधक व प्रतिरोधी सामर्थ्य बढ़ाने वाला माना गया है । रक्त विकार, वातरक्त, जीर्ण आमवात, एलीफेण्टिएसिस तथा थाइराइड ग्रंथि के गॉइटर रोगों में इस औषधि का कल्क निर्धारित मात्रा में लेने पर शीघ्र आराम देता है ।
बार-बार गर्भपात होने के पीछे जो रक्त दोष मूल कारण होता है, उसमें इसके प्रयोग से तुरंत लाभ मिलता है । मुख से ग्रहण किए गए, विष अथवा जीव-जन्तु के काटने पर हुए संस्थानिक प्रभावों का यह नाश करता है । कुष्ठ रोग, सामान्य ज्वर तथा पीलिया रोग में भी यह लाभ पहुँचाता है ।
अन्य उपयोग-
बाह्य प्रयोगों में आँख की लाली आदि संक्रमक रोगों में रस डालते हैं तथा शोथ संस्थानों पर लेप करते हैं । यह अग्नि दीपक पाचक है । अरुचि व अतिसार में लाभ पहुँचाती है । खाँसी सहित श्वांस रोगों में यह उपयोगी है । महिलाओं के प्रदर, डी.यू.वी. (अनियमित मासिक स्राव) आदि रोगों में लाभकारी है ।
सामान्यतया यह त्रिदोष नाशक है । इसे किसी भी प्रकार के ज्वर प्रधान रोगों में निवारणार्थ भी तथा जीवनी शक्ति बढ़ाने हेतु भी प्रयुक्त किया जा सकता है ।
वानस्पतिक परिचय-
सारिवा की लता पतली बहुवर्षायु गुल्म सदृश होती है । यह 5 से 15 फुट लंबी होती है तथा जमीन पर फैल जाती है अथवा निकटवर्ती किसी भी वृक्ष को लपेटकर उस पर चढ़ जाती है।
सारिवा मूल ही प्रयोजनीय अंग है । इसमें से कर्पूर मिश्रित चन्दन-सी गंध आती है । जड़ की ऊपरी छाल कुछ भूरे रंग की होती है । स्वाद कुछ मीठापन लिए चरपरा । जड़ को ताजा तोड़ने पर दूध निकलता है । छाल सूख जाने पर यह फटी रेखायुक्त दिखाई देता हे । छाल का निचला भाग कुछ पीले रंग का व अत्यन्त मजबूत होता है।
शाखाएँ सुतली से लेकर उँगली तक मोटी, काले रंग की चारों ओर फैली होती है । इस पर श्वेत भूरे रंग के मुलायम रोम होते हैं तोड़ने से शीघ्र टूटती नहीं । पत्ते कुछ-कुछ अनार के पत्तों के समान अण्डाकार आयताकार 1 से 4 इंच लंबे होते हैं । इनका निचला भाग हलकी श्वेत आभा लिए तथा ऊपरी पृष्ठ श्वेत रेखांकित होता है । फूल पत्र कोणीय मंजरियों में बाहर हरे व भीतर बैंगनी रंग लिए होते हैं । आषाढ़-सावन में फूल आते हैं । इनमें चन्दन सी सुगंध रहती है । ये गुच्छों में लगते हैं तथा प्रायः दोपहर के समय खिलते हैं । पंखुड़ियों में जामुनी रोयें होते हैं । फलियाँ अनेक, पतली छोटी-छोटी शृंगाकार होती हैं । ये कार्तिक मार्गशीर्ष में लगती हैं, फाल्गुन या चैत्र मास में त्रिड़क कर फट जाती हैं तथा अंदर के बीज बाहर बिखर जाते हैं । बीज एक ओर से चपटे होते हैं । कच्ची अवस्था में सफेद और पकने पर बादामी या काले किनारेदार हो जाते हैं ।
सारिवा गंगा के उत्तरी मैदानी भाग से लेकर पूरब में बंगाल तक तथा दक्षिण में मध्य प्रदेश से लंका तक लता के रूप में प्रचुरता से पाई जाती है । समुद्र किनारे घाट वाले प्रदेशों में भी चट्टानों के बीच-बीच इसकी गहराई तक पहुँची जड़ें देखी गई हैं।
पहचान, मिलावट, शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
सारिवा को जैसा कि ऊपर बताया गया-कृष्ण व श्वेत दो भेदों में विभाजित किया गया है । अधिकांश वनस्पतिविदों का मत है कि आकार, गंध, स्वभाव अलग-अलग होते हुए भी इनके गुण एक ही हैं, लेकिन आयु विज्ञानियों के प्रयोग सिद्ध मत अलग-अलग हैं । वे श्वेत सारिवा को ही प्रस्तुत प्रयोजन में प्रयोग का प्रावधान बताते हैं ।
बाजार में पंसारियों के पास इसके मूल के साथ नारियल की जड़ें, कपूर माधुरी, गोरख गांजा आदि की जड़ों का भी मिश्रण मिलता है । सारिवा मूल का विभेद उसकी सुगंध से ही किया जाता है । मूल का चूर्ण भी मिश्रित मिलता है । शुद्ध सारिवा मूल चूर्ण में बाहरी खोल के गाढ़े भूरे रंग के छोटे-छोटे कण होते हैं तथा श्वेत कोमल भाग के महीन कणाकार टुकड़े । इसमें भस्म का अंश अधिकतम 4 प्रतिशत होता है । सारिवा मूल ताजा ही प्रयुक्त हो, यही वांछनीय है । जहाँ उपलब्ध न हो, वहाँ इसकी सही पहचान अनिवार्य है।
संग्रह संरक्षण-
सारिवा सक्रिय घटक उसकी जड़ की छाल में होता है । इस कारण बारीक, अपेक्षाकृत कम आयु के ताजे मूल लिए जाने चाहिए । मोटे मूल हो तो मात्र जड़ की छाल ली जाए त्वचा अथवा मूल के टुकड़ों को मुखबंद पात्रों में रखा जाए । सारिवा की कालावधि अधिक नहीं है । 2-3 माह में ही तेल उड़ जाता है व विकृति आने लगती है । यथासंभव सर्वोपलब्ध सही औषधि को ताजा ही प्रयोग ही किया जाए । इस औषधि के साथ इस तथ्य का ध्यान हमेशा रहना चाहिए ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
आचार्य चरक ने मधुर स्कन्द के द्रव्यों में सारिवा का उल्लेख किया है । आचार्य सुश्रुत ने तो सारिवादिगण की प्रधान औषधि ही सारिवा को माना है । इस गण में आचार्य प्रवर व अन्य विद्वानों ने रक्तशोधक औषधियों को ही लिया है । ज्वर हर, दाह प्रशमन, बल्लीपंचमूल गण भी इसी औषधि समूह के अन्य पर्याय हैं।
भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार सारिवा विषघ्न एवं रक्त विकार शामक औषधि है । इसके गुण बताते हुए निघण्टुकार लिखते हैं-अग्निमांद्यारुचिश्वासकासाम विषनाशनम् । दोषत्रयारत्रप्रदरज्वर तीसारनाशनम्॥
श्लोक से स्पष्ट है कि औषधि चिरपुरातन काल से ही विष प्रधान रोगों में प्रयुक्त होती रही है ।धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक के अनुसार रक्त शुद्धि और धातु परिवर्तन के लिए अनन्तमूल बहुत उपयोगी है । यह औषधि रक्त के ऊपर अपना सीधा प्रभाव दिखाती है । इसके द्वारा त्वचान्तर्गत रक्त वाहिनियों का विकास होता है, रक्त प्रवाह ठीक गति से होने लगता है ।
रासायनिक संगठन-
कर्नल चोपड़ा के अनुसार सारिवा की जड़ के सक्रिय पदार्थों के मुख्य हैं-एक इसेन्शियल ऑइल, एक एन्जाइम और एक सैपोनिन । सारिवा मूल में लगभग 0.22 प्रतिशत उत्पत तेल होता है । इस तेल का 80 प्रतिशत भाग एक सुगंधित एल्डीहाइड के रूप में होता है, जिसे 'पैरानेथाक्सी सेलिसिलिक एल्डीहाईड' नाम दिया गया है । यही सारिवा की मूल को तोड़ने पर पाई जाने वाली सुगंध का प्रधान कारण है । जड़ के अन्य घटक हें बीटा साइटो स्टीरॉल, एल्फा और बीटा एसाइरिन्स जो मुक्त व ईस्टर दोनों ही रूपों में विद्यमान होते हैं । इसके अतिरिक्त ल्यूपियोल, टेट्रासाइक्लीक ट्राई स्र्पीन अल्कोहल, रेसिन अम्ल, वसा अम्ल टैनिन्स, पैपोनिन, एकग्लाइकोसाइड व कीटोन्स भी पाए जाते हैं । एक शुद्ध कार्य सक्षम औषधि में 2 प्रतिशत से अधिक कार्बनिक पदार्थ तथा 4 प्रतिशत से अधिक भस्म नहीं होना चाहिए ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग-निष्कर्ष-
सारिवा को इण्डियन फर्मेकोपिया से मान्यता प्राप्त औषधियों में गिना जाता है । ब्रिटिश फर्मेकोपिया में भी इसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । वेल्थ ऑफ इण्डिया के विद्वान लेखकों के अनुसार यह विशुद्धतः एक रक्त शोधक औषधि है । यह स्वेदजनक तथा मूत्रल भी है । इस कारण यह कुपोषण जन्य शोथ, पुरानी गठिया, पेशाब के रोगों, कुष्ठ व चर्म रोगों में लाभ करती है ।
अमेरिकन औषधि (सारिवा) सरसेपेरिल्ला कही जाती है । भारतीय औषधि इससे गुणों में कहीं अधिक श्रेष्ठ है, ऐसा डॉ. नादकर्णी का अभिमत है । यह उपदंश नामक त्वचा व्याधि में दूसरी एवं तीसरी अवस्था में भी लाभकारी प्रभाव दिखाती है । जोड़ों आदि की सूजन घटाती तथा मूत्र की मात्रा को तीन गुना तक कर देती है । रकत व्यापी विष को यह मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देती है ।
होम्योपैथी में इस औषधि के मदरटिंक्चर का प्रयोग अनेक प्रकार के चर्म रोगों, उपदंश तथा रक्त दोष जन्य व्याधियों के निवारणार्थ किया जाता है । भारतीय जाति हेमीडेसमस को सरसापेरिल्ला से अधिक वरीयता दी जाती है, क्योंकि उसमें अधिक गुण जर्मन चिकित्सकों ने पाए हैं ।
यूनानी मतानुसार सारिवा ठण्डी और तर औषधि है । यह पेशाब का बनना बढ़ाती है, बढ़े हुए को बाहर निकालती है, पसीना लाकर रक्त का शोधन कर देती है । हकीम दलजीतसिंह के अनुसार यह जीवन की चयापचय क्रिया को बढ़ाती है । इस प्रभाव के कारण यह चर्म रोगों फिरंग, श्वेत प्रदर, आमवात, व्रण तथा बिच्छूदंश आदि में लाभ करती है । शरीर की दुर्गंध दूर होती है और सारे शरीर में रक्त प्रवाह बढ़ता है।
प्रयोज्य अंग-
इस औषधि की जड़, जड़ की छाल का चूर्ण व ताजा रस प्रयोग किया जाता है । चूँकि इसका वीर्य उड़ने वाला तेल होता है, इसकी जड़ा का क्वाथ नहीं बनाया जाता । क्वाथ बनाने पर सारे गुण नष्ट हो जाते हैं ।
मात्रा-
कल्क 5 से 10 ग्राम, फाण्ट 50 से 100 मिली लीटर तथा चूर्ण 3-6 ग्राम ।
निर्धारणानुसार उपयोग-
समस्त रक्त विकारों तथा त्वचा विकारों के लिए सारिवा एक महत्त्वपूर्ण औषधि है । 50 ग्राम औषधि को दिन में 4-5 बार विभाजित कर लिया जाए तो यह इनमें तुरंत आराम देती है । फोड़े-फुन्सियों में इसका फाण्ट प्रातः-सायं लिया जाता है । जब मूत्र की मात्रा कम हो, रंग गहरा हो व शोथ सारे शरीर पर हो तो सारिवा चूर्ण को गोदुग्ध के साथ लेने पर तुरंत आराम मिलता है । सारिवा जड़ा का हिमनिष्कर्ष (ठण्डे जल में जड़ को रात भर भिगोकर निकाला गया सत्व) भी 2 से 3 औंस प्रतिदिन दूध के साथ लेने पर तुरंत लाभ देता है ।
यह रसायन और विषनाशक साथ-साथ होने के नाते उत्तम रक्तशोधक व प्रतिरोधी सामर्थ्य बढ़ाने वाला माना गया है । रक्त विकार, वातरक्त, जीर्ण आमवात, एलीफेण्टिएसिस तथा थाइराइड ग्रंथि के गॉइटर रोगों में इस औषधि का कल्क निर्धारित मात्रा में लेने पर शीघ्र आराम देता है ।
बार-बार गर्भपात होने के पीछे जो रक्त दोष मूल कारण होता है, उसमें इसके प्रयोग से तुरंत लाभ मिलता है । मुख से ग्रहण किए गए, विष अथवा जीव-जन्तु के काटने पर हुए संस्थानिक प्रभावों का यह नाश करता है । कुष्ठ रोग, सामान्य ज्वर तथा पीलिया रोग में भी यह लाभ पहुँचाता है ।
अन्य उपयोग-
बाह्य प्रयोगों में आँख की लाली आदि संक्रमक रोगों में रस डालते हैं तथा शोथ संस्थानों पर लेप करते हैं । यह अग्नि दीपक पाचक है । अरुचि व अतिसार में लाभ पहुँचाती है । खाँसी सहित श्वांस रोगों में यह उपयोगी है । महिलाओं के प्रदर, डी.यू.वी. (अनियमित मासिक स्राव) आदि रोगों में लाभकारी है ।
सामान्यतया यह त्रिदोष नाशक है । इसे किसी भी प्रकार के ज्वर प्रधान रोगों में निवारणार्थ भी तथा जीवनी शक्ति बढ़ाने हेतु भी प्रयुक्त किया जा सकता है ।