Books - जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा
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Language: HINDI
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चिरायता (सुआर्शिया चिरायता)
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इसे जंगलों में पाए जानेवाले तिक्त द्रव्य के रूप में होने के कारण किराततिक्त भी कहते हैं । किरात व चिरेट्टा इसके अन्य नाम हैं । चरक के अनुसार इसे तिक्त स्कंध तृष्णा निग्रहण समूह में तथा सुश्रुत के अनुसार अरग्वध समूह में गिना जाता है ।
वानस्पतिक परिचय-यह ऊँचाई पर पाया जाने वाला पौधा है । इसके क्षुप 2 से 4 फुट ऊँचे एक वर्षायु या द्विवर्षायु होते हैं । यह हिमालय प्रदेश में कश्मीर से लेकर अरुणांचल तक 4 से 10 हजार फीट की ऊँचाई पर होता है । नेपाल इसका मूल उत्पादक देश है । कहीं-कहीं मध्य भारत के पहाड़ी इलाकों व दक्षिण भारत के पहाड़ों पर उगाने के प्रयास किए गए हैं ।
इसके काण्ड स्थूल आधे से डेढ़ मीटर लंबे, शाखा युक्त गोल व आगे की ओर चार कोनों वाले पीतवर्ण के होते हैं । पत्तियाँ चौड़ी भालाकार, 10 सेण्टीमीटर तक लंबी, 3 से 4 सेण्टीमीटर चौड़ी अग्रभाग पर नुकीली होती हैं । नीचे बड़े तथा ऊपर छोटी होती चली जाती है ।
फूल हरे पीले रंग के बीच-बीच में बैंगनी रंग से चित्रित, अनेक शाखा युक्त पुष्पदण्डों पर लगते हैं । पुष्प में बाहरी व आभ्यन्तर कोष 4-4 खण्ड वाले होते हैं तथा प्रत्येक पर दो-दो ग्रंथियाँ होती हैं । फल लंबे गोल छोटे-छोटे एक चौथाई इंच के अण्डाकार होते हें तथा बीज बहुसंख्य, छोटे, बहुकोणीय एवं चिकने होते हैं । वर्षा ऋतु में फूल आते हैं । फल जब वर्षा के अंत तक पक जाते हैं तब शरद ऋतु में इनका संग्रह करते हैं । इस पौधे में कोई विशेष गंध नहीं होती, परन्तु स्वाद तीखा होता है ।
पहचान मिलावट शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
इसका पंचांग व पुश्प प्रयुक्त होते हैं । बहुत शीघ्रता से उपलब्ध न होने के कारण इसमें मिलावट काफी होते हैं । पंचांग में भी प्रधानतया काण्ड की ही होती है जो दो तीन फीट लंबा होता है । इसकी छाल चपटी, अन्दर की ओर कुछ मुड़ी हुई तथा बाहर की तरफ भूरे रंग की व अन्दर से गुलाबी रंग की ही होती है । चबाने पर छाल रेशेदार, कुरकुरी, कसैली मालूम पड़ती है । छाल के अंदर की तरफ सूक्ष्म रेखाएँ खिंची होती हैं ।
सुअर्सिया चिरायता की कई प्रजातियों का प्रयोग मिलावट में पंसारीगण करते हैं । इनमें कुछ हें मीठा या पहाड़ी चिरायता (सुअसिंया अंगस्टीफोलिया) सुअर्शिया अलाटा, बाईमैक-लाटा, सिलिएटा, डेन्सीफोलिया, लाबी माईनर, पैनीकुलैटा । इसके अतिरिक्त चिरायता में कालमेघ (एण्ड्रोग्राफिस पैनिकुलैटा) तथा मंजिष्ठा (रुविया कॉडियाफोलिया) की भी मिलावट की जाती है ।
कालमेघ को हरा चिरायता नाम भी दिया गया है । इनकी पहचान करने का एक ही तरीका है कि दीखने में एक से होते हुए भी शेष स्वाद में अर्ध तिक्त या मीठे होते हैं । छाल के अंदर की बनावट को ध्यान से देखकर भेद किया जा सकता है । अनुप्रस्थ काट पर मज्जा का भाग स्पष्ट दिखाई देता है । यह कोमल होता है, आसानी से पृथक हो जाता है । शेष परीक्षण रासायनिक विश्लेषण के आधार पर किया जाता है । जिसके अनुसार तिक्त सत्व कम से कम 1.3 प्रतिशत होना चाहिए ।
मीठे चिरायते का तना आयताकार होता है तथा असली चिरायते की तुलना में मज्जा का भाग अपेक्षाकृत कम होता है । शेष सभी मिलाकर औषधियों को उनके विशिष्ट लक्षणों द्वारा पहचाना जा सकता है ।
संग्रह-संरक्षण कालावधि-
पौधे को औषधि प्रयोजन हेतु फल के पूर्ण रूप से पकने पर शरद ऋतु में एकत्रित करते हैं । ऐसा संग्रहीत चिरायता एक वर्ष तक प्रयुक्त हो सकता है । चिरायते की छाल को सुखाकर अनाद्र शीतल स्थानों में बंद डिब्बों में रखा जाता है ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
इसे लगभग सभी विद्यानों ने सन्निपात ज्वर, व्रण, रक्त, दोषों की सर्वश्रेष्ठ औषधि माना है । भाव प्रकाश निघण्टुकार लिखता है-किरातः सारको रक्षोऽशीतलस्तिक्तको लघुः । सन्निपात ज्वरश्वांस कफ पित्तास्रदाहनुत्॥ कासशोथ तृषा कुष्ठ ज्वर व्रण कृमिप्रणुत॥
इस प्रकार एक प्रकार की प्रतिसंक्रामक औषधि यह है, जो ज्वर उत्पन्न करने वाले मूल कारणों का निवारण करती है । इसी प्रकार यह तीखेपन के कारण कफ पित्त शामक तथा उष्ण वीर्य होने से वातशामक है । इन सभी दोषों के कारण उत्पन्न किसी भी संक्रमण से यह मोर्चा लेता है । कोढ़, कृमि तथा व्रणों को मिटाता है ।
वनौषधि चन्द्रोदय के विद्वान लेखक के अनुसार जीर्ण विषम ज्वर अपना स्वरूप बहुधा ज्वर रूप में प्रकट नहीं करता, अपितु अजीर्ण, अग्निमंदता और हल्के तापक्रम में वृद्धि के रूप में ही दिखाई देता है । इन लक्षणों को समूल नष्ट करने में चिरायता अत्यन्त उपयोगी है । चिरायते का ज्वरघ्न प्रभाव अत्यंत मृदु होता है ।
'वेल्थ ऑफ इण्डिया' के विद्वान वैज्ञानिकों के अनुसार चिरायता एक ऐसा गंधहीन कडुवा पदार्थ है, जिसमें कषायता (एस्टि्रन्जेन्सी) बहुत कम है । एलोपैथी सिद्धान्त के अंतर्गत यह काफी समय तक ब्रिटिश और अमेरिकन फर्मेकोपिया की एक महत्त्वपूर्ण औषधि रही । इण्डियन फर्मेकोपिया (आई.पी.) में भी इसे एक ज्वर निवारक पदार्थ के नाते स्थान मिला । जीर्ण ज्वरों में भारत में काफी समय से अनेकों योगों और विधियों के रूप में इसका चूर्ण, क्वाथ, टिंक्चर सभी प्रयुक्त होते रहे हैं ।
कर्नल चोपड़ा ने अपने ग्रंथ 'मेडीसिनल प्लाण्ट्स ऑफ इण्डिया' में इसे एक उत्तम प्रति संक्रामक (एण्टी बायोटिक) ज्वरघ्न, जीवनीशक्ति वर्धक तथा जीवाणु-कृमि नाशक माना है । डॉ. शरतचन्द्र घोष के अनुसार यह टायफाइड ज्वरों और बीच-बीच में ठहरकर आने वाले इण्टरमीटेण्ट फीवर्स में बहुत उपयोगी है । उनके अनुसार यह वैद्यों की आजमायी एक श्रेष्ठ दवा है ।
रासायनिक संगठन-
चिरायते में पीले रंग का एक कड़ुवा अम्ल-ओफेलिक एसिड होता है । इस अम्ल के अतिरिक्त अन्य जैव सक्रिय संघटक हैं । दो प्रकार के कडुवे ग्लग्इकोसाइड्स चिरायनिन और एमेरोजेण्टिन, दो क्रिस्टलीयफिनॉल, जेण्टीयोपीक्रीन नामक पीले रंग का एक न्यूट्रल क्रिस्टल यौगिक तथा एक नए प्रकार का जैन्थोन जिसे 'सुअर्चिरन' नाम दिया गया है ।
एमेरोजेण्टिन नामक ग्लाईकोसाइड विश्व के सर्वाधिक कड़वे पदार्थों में से एक है । इसका कड़वापन एक करोड़ चालीस लाख में एक भाग की नगण्य सी सान्द्रता पर भी अनुभव होता रहता है । यह सक्रिय घटक ही चिरायते की औषधीय क्षमता का प्रमुख कारण भी है । इण्डियन फर्मेकोपिया द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार चिरायते में तिक्त घटक 1.3 प्रतिशत होना चाहिए । इसके द्रव्य गुण पक्ष पर लिखे शोध प्रबंध में बी.एच.यू. के डॉ. प्रेमव्रत शर्मा ने इसके रासायनिक संघटकों में से प्रत्येक के गुण धर्मों व उनके प्रायोगिक प्रभावों पर विस्तार से प्रकाश डाला है ।
आधुनिक मत-
एलोपैथी, आर्युवेद, होम्योपैथी और यूनानी सभी में एक स्वर से इसके ज्वरघ्न प्रभावों की प्रशंसा की है । एलोपैथी में एण्टीबायोटिक्स की बाढ़ आ जाने पर भी चिरायते की हानि रहित विशेषताओं को अभी तक कोई चुनौती नहीं दे पाया है । 'सिनकोना' की तरह ही यह मलेरिया ज्वर पर प्रभाव डालती है तथा यकृत एवं रक्त से इसके पेरासाइट्स को निकाल बाहर करती है । अन्य रासायनिक एण्टी मलेरियन लेने के बाद जो कमजोरी आती है, वह इसको ग्रहण करने पर अनुभव नहीं होती ।
इसका कारण बताते हुए डॉ. खोरी कहते हैं कि यह मूलतः इसके शरीर की जीवाणुरोधी शक्ति बढ़ाने वाली सामर्थ्य के कारण है न कि मारक प्रभावों के कारण । श्री खगेन्द्रनाथ वसु के अनुसार प्रातः काल खाली पेट लिया गया चिरायते का काढ़ा या चूर्ण (चिरायता भिगाया जल मिश्री के साथ) लेने से उदरस्थ कृमि तुरंत समाप्त हो जाते हैं । एक माह तक ऐसा करने पर कुछ रोग भी समूल नष्ट हो जाता है ।
डॉ. प्रसाद बनर्जी की 'मटेरिया मेडीका ऑफ इण्डियन ड्रग्स' के अनुसार चिरायता इन्फ्लुएंजा, मलेरिया और टॉयफाइड जैसे अलग-अलग कारणें से होने वाले ज्वरों में समान रूप से लाभकारी है ।
होम्योपैथी में चिरायते की उपयोगिता ज्वर निवारण हेतु सर्वप्रथम डॉ. कालीकुमार भट्टाचार्य जी ने प्रतिपादित की । श्री घोष अपनी पुस्तक 'ड्रग्स ऑफ हिन्दुस्तान' में लिखते हैं कि चिरायता नए (एक्यूट) और पुराने (क्रांनिक) दोनों ही प्रकार के ज्वरों को मिटाता है । नए वे जो विषाणु या मलेरिया पेरासाइटजन्य होते हैं । पुराने जीर्ण ज्वर बहुधा कमजोर लोगों में जड़ जमाए बैठे घातक जीवाणुओं के कारण होते हैं । आँखों में जलन के साथ दोपहर के बाद चढ़ने वाले तेज बुखार के लिए होम्योपैथी वैद्य चिरायता ही प्रयुक्त करते हैं ।
कालाजार नामक जीर्ण ज्वर रोग में जिसमें लीवर तथा स्प्लीन दोनों बढ़ जाते हैं, चिरायता चमत्कारी प्रभाव दिखाता है । इसका मदर टिंक्चर एक और तीन एक्स की पोटेन्सी में होम्योपैथी में प्रयुक्त होता है ।
यूनानी में चिरायता को दूसरे दर्जे में गर्म और खुश्क माना गया है । इसका ज्वर निवारण के रूप में उपयोग प्रसिद्ध है । विशेष कर यह पुराने ज्वरों में लाभ करता है । हकीम दलजीतसिंह के अनुसार जीर्ण ज्वर के साथ अपच व शरीर में दाह हो तथा ज्वर कम होते हुए भी सामान्य को कभी वह छूता हो चिरायता तुरंत लाभ करता है ।
ग्राह्य अंग-
इसका पंचांग व पुष्प प्रवृत्त होते हैं फिर भी जड़काण्ड सर्वाधिक गुण युक्त होते हैं । इसका क्वाथ या चूर्ण किसी मधुर वाहक के साथ अनुपान भेदानुसार लेते हैं ।
मात्रा-
क्वाथ-50 से 100 मिलीलीटर दिन में दो बार विभाजित कर । चूर्ण एक से तीन ग्राम ।
उपयोग-
ज्वर निवारण हेतु 3 ग्राम चिरायता 20 ग्राम जल में भिगोकर, रात भर रखकर प्रातः छान लेते हैं तथा 5 ग्राम दिन में दो बार मधु के साथ लेते हैं । चिरायते का फाण्ट भी सामान्य दुर्बलता निवारण हेतु अन्य औषधियों के अलावा क्षुधावृद्धि तथा आहार पाक हेतु दिया जाता है ।
चिरायते का काढ़ा एक सेर औंस की मात्रा में मलेरिया ज्वर में तुरंत लाभ पहुँचाता है । लीवर प्लीहा पर इसका प्रभाव सीधा पड़ता है व ज्वर मिटाकर यह दौर्बल्य को भी दूर करता है । कृमि रोग कुष्ठ, वैसीलिमिया, वायरीमिया सभी में इसकी क्रिया तुरंत होती है । यह त्रिदोष निवारक है अतः बिना किसी न नुनच के प्रयुक्त हो सकता है ।
अन्य उपयोग-संस्थानिक बाह्य उपयोग के रूप में यह व्रणों को धोने, अग्निमंदता, अजीर्ण, यकृत विकारों में आंतरिक प्रयोगों के रूप में, रक्त विकार उदर तथा रक्त कृमियों के निवारणार्थ, शोथ एवं ज्वर के बाद की दुर्बलता हेतु भी प्रयुक्त होता है । इसे एक उत्तम सात्मीकरण स्थापित करने वाला टॉनिक भी माना गया है ।
वानस्पतिक परिचय-यह ऊँचाई पर पाया जाने वाला पौधा है । इसके क्षुप 2 से 4 फुट ऊँचे एक वर्षायु या द्विवर्षायु होते हैं । यह हिमालय प्रदेश में कश्मीर से लेकर अरुणांचल तक 4 से 10 हजार फीट की ऊँचाई पर होता है । नेपाल इसका मूल उत्पादक देश है । कहीं-कहीं मध्य भारत के पहाड़ी इलाकों व दक्षिण भारत के पहाड़ों पर उगाने के प्रयास किए गए हैं ।
इसके काण्ड स्थूल आधे से डेढ़ मीटर लंबे, शाखा युक्त गोल व आगे की ओर चार कोनों वाले पीतवर्ण के होते हैं । पत्तियाँ चौड़ी भालाकार, 10 सेण्टीमीटर तक लंबी, 3 से 4 सेण्टीमीटर चौड़ी अग्रभाग पर नुकीली होती हैं । नीचे बड़े तथा ऊपर छोटी होती चली जाती है ।
फूल हरे पीले रंग के बीच-बीच में बैंगनी रंग से चित्रित, अनेक शाखा युक्त पुष्पदण्डों पर लगते हैं । पुष्प में बाहरी व आभ्यन्तर कोष 4-4 खण्ड वाले होते हैं तथा प्रत्येक पर दो-दो ग्रंथियाँ होती हैं । फल लंबे गोल छोटे-छोटे एक चौथाई इंच के अण्डाकार होते हें तथा बीज बहुसंख्य, छोटे, बहुकोणीय एवं चिकने होते हैं । वर्षा ऋतु में फूल आते हैं । फल जब वर्षा के अंत तक पक जाते हैं तब शरद ऋतु में इनका संग्रह करते हैं । इस पौधे में कोई विशेष गंध नहीं होती, परन्तु स्वाद तीखा होता है ।
पहचान मिलावट शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
इसका पंचांग व पुश्प प्रयुक्त होते हैं । बहुत शीघ्रता से उपलब्ध न होने के कारण इसमें मिलावट काफी होते हैं । पंचांग में भी प्रधानतया काण्ड की ही होती है जो दो तीन फीट लंबा होता है । इसकी छाल चपटी, अन्दर की ओर कुछ मुड़ी हुई तथा बाहर की तरफ भूरे रंग की व अन्दर से गुलाबी रंग की ही होती है । चबाने पर छाल रेशेदार, कुरकुरी, कसैली मालूम पड़ती है । छाल के अंदर की तरफ सूक्ष्म रेखाएँ खिंची होती हैं ।
सुअर्सिया चिरायता की कई प्रजातियों का प्रयोग मिलावट में पंसारीगण करते हैं । इनमें कुछ हें मीठा या पहाड़ी चिरायता (सुअसिंया अंगस्टीफोलिया) सुअर्शिया अलाटा, बाईमैक-लाटा, सिलिएटा, डेन्सीफोलिया, लाबी माईनर, पैनीकुलैटा । इसके अतिरिक्त चिरायता में कालमेघ (एण्ड्रोग्राफिस पैनिकुलैटा) तथा मंजिष्ठा (रुविया कॉडियाफोलिया) की भी मिलावट की जाती है ।
कालमेघ को हरा चिरायता नाम भी दिया गया है । इनकी पहचान करने का एक ही तरीका है कि दीखने में एक से होते हुए भी शेष स्वाद में अर्ध तिक्त या मीठे होते हैं । छाल के अंदर की बनावट को ध्यान से देखकर भेद किया जा सकता है । अनुप्रस्थ काट पर मज्जा का भाग स्पष्ट दिखाई देता है । यह कोमल होता है, आसानी से पृथक हो जाता है । शेष परीक्षण रासायनिक विश्लेषण के आधार पर किया जाता है । जिसके अनुसार तिक्त सत्व कम से कम 1.3 प्रतिशत होना चाहिए ।
मीठे चिरायते का तना आयताकार होता है तथा असली चिरायते की तुलना में मज्जा का भाग अपेक्षाकृत कम होता है । शेष सभी मिलाकर औषधियों को उनके विशिष्ट लक्षणों द्वारा पहचाना जा सकता है ।
संग्रह-संरक्षण कालावधि-
पौधे को औषधि प्रयोजन हेतु फल के पूर्ण रूप से पकने पर शरद ऋतु में एकत्रित करते हैं । ऐसा संग्रहीत चिरायता एक वर्ष तक प्रयुक्त हो सकता है । चिरायते की छाल को सुखाकर अनाद्र शीतल स्थानों में बंद डिब्बों में रखा जाता है ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
इसे लगभग सभी विद्यानों ने सन्निपात ज्वर, व्रण, रक्त, दोषों की सर्वश्रेष्ठ औषधि माना है । भाव प्रकाश निघण्टुकार लिखता है-किरातः सारको रक्षोऽशीतलस्तिक्तको लघुः । सन्निपात ज्वरश्वांस कफ पित्तास्रदाहनुत्॥ कासशोथ तृषा कुष्ठ ज्वर व्रण कृमिप्रणुत॥
इस प्रकार एक प्रकार की प्रतिसंक्रामक औषधि यह है, जो ज्वर उत्पन्न करने वाले मूल कारणों का निवारण करती है । इसी प्रकार यह तीखेपन के कारण कफ पित्त शामक तथा उष्ण वीर्य होने से वातशामक है । इन सभी दोषों के कारण उत्पन्न किसी भी संक्रमण से यह मोर्चा लेता है । कोढ़, कृमि तथा व्रणों को मिटाता है ।
वनौषधि चन्द्रोदय के विद्वान लेखक के अनुसार जीर्ण विषम ज्वर अपना स्वरूप बहुधा ज्वर रूप में प्रकट नहीं करता, अपितु अजीर्ण, अग्निमंदता और हल्के तापक्रम में वृद्धि के रूप में ही दिखाई देता है । इन लक्षणों को समूल नष्ट करने में चिरायता अत्यन्त उपयोगी है । चिरायते का ज्वरघ्न प्रभाव अत्यंत मृदु होता है ।
'वेल्थ ऑफ इण्डिया' के विद्वान वैज्ञानिकों के अनुसार चिरायता एक ऐसा गंधहीन कडुवा पदार्थ है, जिसमें कषायता (एस्टि्रन्जेन्सी) बहुत कम है । एलोपैथी सिद्धान्त के अंतर्गत यह काफी समय तक ब्रिटिश और अमेरिकन फर्मेकोपिया की एक महत्त्वपूर्ण औषधि रही । इण्डियन फर्मेकोपिया (आई.पी.) में भी इसे एक ज्वर निवारक पदार्थ के नाते स्थान मिला । जीर्ण ज्वरों में भारत में काफी समय से अनेकों योगों और विधियों के रूप में इसका चूर्ण, क्वाथ, टिंक्चर सभी प्रयुक्त होते रहे हैं ।
कर्नल चोपड़ा ने अपने ग्रंथ 'मेडीसिनल प्लाण्ट्स ऑफ इण्डिया' में इसे एक उत्तम प्रति संक्रामक (एण्टी बायोटिक) ज्वरघ्न, जीवनीशक्ति वर्धक तथा जीवाणु-कृमि नाशक माना है । डॉ. शरतचन्द्र घोष के अनुसार यह टायफाइड ज्वरों और बीच-बीच में ठहरकर आने वाले इण्टरमीटेण्ट फीवर्स में बहुत उपयोगी है । उनके अनुसार यह वैद्यों की आजमायी एक श्रेष्ठ दवा है ।
रासायनिक संगठन-
चिरायते में पीले रंग का एक कड़ुवा अम्ल-ओफेलिक एसिड होता है । इस अम्ल के अतिरिक्त अन्य जैव सक्रिय संघटक हैं । दो प्रकार के कडुवे ग्लग्इकोसाइड्स चिरायनिन और एमेरोजेण्टिन, दो क्रिस्टलीयफिनॉल, जेण्टीयोपीक्रीन नामक पीले रंग का एक न्यूट्रल क्रिस्टल यौगिक तथा एक नए प्रकार का जैन्थोन जिसे 'सुअर्चिरन' नाम दिया गया है ।
एमेरोजेण्टिन नामक ग्लाईकोसाइड विश्व के सर्वाधिक कड़वे पदार्थों में से एक है । इसका कड़वापन एक करोड़ चालीस लाख में एक भाग की नगण्य सी सान्द्रता पर भी अनुभव होता रहता है । यह सक्रिय घटक ही चिरायते की औषधीय क्षमता का प्रमुख कारण भी है । इण्डियन फर्मेकोपिया द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार चिरायते में तिक्त घटक 1.3 प्रतिशत होना चाहिए । इसके द्रव्य गुण पक्ष पर लिखे शोध प्रबंध में बी.एच.यू. के डॉ. प्रेमव्रत शर्मा ने इसके रासायनिक संघटकों में से प्रत्येक के गुण धर्मों व उनके प्रायोगिक प्रभावों पर विस्तार से प्रकाश डाला है ।
आधुनिक मत-
एलोपैथी, आर्युवेद, होम्योपैथी और यूनानी सभी में एक स्वर से इसके ज्वरघ्न प्रभावों की प्रशंसा की है । एलोपैथी में एण्टीबायोटिक्स की बाढ़ आ जाने पर भी चिरायते की हानि रहित विशेषताओं को अभी तक कोई चुनौती नहीं दे पाया है । 'सिनकोना' की तरह ही यह मलेरिया ज्वर पर प्रभाव डालती है तथा यकृत एवं रक्त से इसके पेरासाइट्स को निकाल बाहर करती है । अन्य रासायनिक एण्टी मलेरियन लेने के बाद जो कमजोरी आती है, वह इसको ग्रहण करने पर अनुभव नहीं होती ।
इसका कारण बताते हुए डॉ. खोरी कहते हैं कि यह मूलतः इसके शरीर की जीवाणुरोधी शक्ति बढ़ाने वाली सामर्थ्य के कारण है न कि मारक प्रभावों के कारण । श्री खगेन्द्रनाथ वसु के अनुसार प्रातः काल खाली पेट लिया गया चिरायते का काढ़ा या चूर्ण (चिरायता भिगाया जल मिश्री के साथ) लेने से उदरस्थ कृमि तुरंत समाप्त हो जाते हैं । एक माह तक ऐसा करने पर कुछ रोग भी समूल नष्ट हो जाता है ।
डॉ. प्रसाद बनर्जी की 'मटेरिया मेडीका ऑफ इण्डियन ड्रग्स' के अनुसार चिरायता इन्फ्लुएंजा, मलेरिया और टॉयफाइड जैसे अलग-अलग कारणें से होने वाले ज्वरों में समान रूप से लाभकारी है ।
होम्योपैथी में चिरायते की उपयोगिता ज्वर निवारण हेतु सर्वप्रथम डॉ. कालीकुमार भट्टाचार्य जी ने प्रतिपादित की । श्री घोष अपनी पुस्तक 'ड्रग्स ऑफ हिन्दुस्तान' में लिखते हैं कि चिरायता नए (एक्यूट) और पुराने (क्रांनिक) दोनों ही प्रकार के ज्वरों को मिटाता है । नए वे जो विषाणु या मलेरिया पेरासाइटजन्य होते हैं । पुराने जीर्ण ज्वर बहुधा कमजोर लोगों में जड़ जमाए बैठे घातक जीवाणुओं के कारण होते हैं । आँखों में जलन के साथ दोपहर के बाद चढ़ने वाले तेज बुखार के लिए होम्योपैथी वैद्य चिरायता ही प्रयुक्त करते हैं ।
कालाजार नामक जीर्ण ज्वर रोग में जिसमें लीवर तथा स्प्लीन दोनों बढ़ जाते हैं, चिरायता चमत्कारी प्रभाव दिखाता है । इसका मदर टिंक्चर एक और तीन एक्स की पोटेन्सी में होम्योपैथी में प्रयुक्त होता है ।
यूनानी में चिरायता को दूसरे दर्जे में गर्म और खुश्क माना गया है । इसका ज्वर निवारण के रूप में उपयोग प्रसिद्ध है । विशेष कर यह पुराने ज्वरों में लाभ करता है । हकीम दलजीतसिंह के अनुसार जीर्ण ज्वर के साथ अपच व शरीर में दाह हो तथा ज्वर कम होते हुए भी सामान्य को कभी वह छूता हो चिरायता तुरंत लाभ करता है ।
ग्राह्य अंग-
इसका पंचांग व पुष्प प्रवृत्त होते हैं फिर भी जड़काण्ड सर्वाधिक गुण युक्त होते हैं । इसका क्वाथ या चूर्ण किसी मधुर वाहक के साथ अनुपान भेदानुसार लेते हैं ।
मात्रा-
क्वाथ-50 से 100 मिलीलीटर दिन में दो बार विभाजित कर । चूर्ण एक से तीन ग्राम ।
उपयोग-
ज्वर निवारण हेतु 3 ग्राम चिरायता 20 ग्राम जल में भिगोकर, रात भर रखकर प्रातः छान लेते हैं तथा 5 ग्राम दिन में दो बार मधु के साथ लेते हैं । चिरायते का फाण्ट भी सामान्य दुर्बलता निवारण हेतु अन्य औषधियों के अलावा क्षुधावृद्धि तथा आहार पाक हेतु दिया जाता है ।
चिरायते का काढ़ा एक सेर औंस की मात्रा में मलेरिया ज्वर में तुरंत लाभ पहुँचाता है । लीवर प्लीहा पर इसका प्रभाव सीधा पड़ता है व ज्वर मिटाकर यह दौर्बल्य को भी दूर करता है । कृमि रोग कुष्ठ, वैसीलिमिया, वायरीमिया सभी में इसकी क्रिया तुरंत होती है । यह त्रिदोष निवारक है अतः बिना किसी न नुनच के प्रयुक्त हो सकता है ।
अन्य उपयोग-संस्थानिक बाह्य उपयोग के रूप में यह व्रणों को धोने, अग्निमंदता, अजीर्ण, यकृत विकारों में आंतरिक प्रयोगों के रूप में, रक्त विकार उदर तथा रक्त कृमियों के निवारणार्थ, शोथ एवं ज्वर के बाद की दुर्बलता हेतु भी प्रयुक्त होता है । इसे एक उत्तम सात्मीकरण स्थापित करने वाला टॉनिक भी माना गया है ।