Books - जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा
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Language: HINDI
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वनौषधि चिकित्सा के वैज्ञानिक आधार
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मानव शरीर वनस्पतियों से ही विनिर्मित है । उसे विधाता ने मात्र शाकाहार पर स्वयं को सबल समर्थ बनाने व जीवन यात्रा चलाने योगय बनाया है । वनस्पति ही हमें संतुलित आहार के माध्यम से वह प्राण शक्ति देती हैं, जो जीवनी शक्ति के रूप में शरीर संव्याप्त है । शरीर में किस खनिज, जलांश, विटामिन आदि की कमी है इसे ही पूरा करने का दायित्व वनस्पति-शाकादि वर्ग पर आता है । आश्चर्य यह है कि ये पदार्थ अपने आप में सर्वांगपूर्ण होते हुए भी मनुष्य उन्हें कृत्रिम रूप में विकृत बनाकर ग्रहण करता है और आधि-व्याधियों को आमंत्रित करता है ।
गन्ने का रस अपने स्वाभाविक रूप में ही लाभकारी है । पर जब वही शक्कर बन जाता है व सम्मिश्रण द्वारा मिठाई के रूप में लिया जाता है तो पाचन संस्थान पर जबर्दस्त दबाव पड़ता है और मनुष्य अपच बदहजमी का शिकार होता चला जाता है ।
शाकों के ही वर्ग में काष्ठ औषधियाँ भी होती हैं, जिन्हें एकाकी ही अनुपान भेद से ग्रहण किए जाने का यहाँ प्रतिपादन किया जा रहा है । प्रत्येक जड़ी-बूटी स्वयं में समग्र है ।
मिश्रित योगौषधियों की अपेक्षा अमिश्रित एकौषधि रोगों को मिटाने में कितनी लाभदायक सिद्ध होती हैं, इसका वर्णन चिरपुरातन आयुर्वेद ग्रंथों में मिलता है । धीरे-धीरे योगों-सम्मिश्रणों की संख्या बढ़ती चली गयी व गत 3 सहस्र वर्षों में एकौषधि विज्ञान तो लुप्त हो गया, योगौषधि विज्ञान का प्राधान्य हो गया । आज भी ऐसे विद्वान योग्य चिकित्सक हैं, जो मात्र एक ही औषधि अपने रोगियों पर प्रयुक्त करते हैं व उन्हें निरापद पद्धति से स्वस्थ कर देते हैं ।
हर जड़ी-बूटी स्वयं में एक पूर्ण योग है, जिसमें उसके उपयोगी तत्वों के साथ-साथ दुष्प्रभावों को निरस्त करने वाला एण्टीडोट भी साथ में मिला हुआ है । इस प्रकार एक ही औषधि रोग विशेष में प्रयुक्त होने पर पूर्ण प्रभावी सिद्ध होती है । शोथ (इडीना) से पीड़ित किसी रोगी को यदि मूत्र विरेचक द्रव्य (डाययूरेटिक औषधि) दी जाए तो उसकी शोथ तो तुरंत उतर जाती है, परन्तु साथ ही अधिक मूत्र आने के कारण रक्त में विद्यमान हृदय की मांसपेशियों व सारे शरीर के कोषों में रसायनिक क्रिया के लिए उत्तरदायी पोटेशियम भी मूत्र मार्ग से बाहर चला जाता है । इसकी रक्त में कमी की पूर्ति के पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति में हमेशा पोटेशियम लवण भी साथ-साथ दिये जाते हैं ।
मुँह से दिया गया संशोषित पोटेशिमय अनेकों अवांछनीय लक्षण उत्पन्न करता है, क्योंकि यह आमाशय की श्लेष्मा झिल्ली के लिए उत्तेजक है । यदि इसी शोथ को उतारने के लिए पुनर्नवा दी जाए जो शाक वर्ग की सर्वोपलब्ध औषधि है तो यह समस्या खड़ी नहीं होती । एक ही औषधि सर्वांगपूर्ण होने के कारण रोग के अनेकानेक पक्षों से स्वयं ही मोर्चा ले लेती है । वैज्ञानिक प्रयोगों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि पुनर्नवा में विद्यमान पोटेशियम मुक्त अवस्था में न होने से धीरे-धीरे उत्सर्जित हो, श्लेष्मा झिल्ली के पार रक्त में प्रविष्ट होता रहता है एवं जितना बाहर गया है, उतनी ही पूर्ति कर देता है । इस प्राकृतिक टाइम रिलीज कैप्सूल की तुलना में संशोषित स्लोरिलीज कैप्सूल व श्लेष्मा उत्तेजना को मिटाने वाली एंटेसिड (अम्ल पित्त निवारक) औषधियाँ निश्चित ही नुकसानदायक मंहगी हैं तथा विवेक हीनता का परिचय देती हैं ।
गन्ने का रस या उससे बनी राव एवं शक्कर की तुलना करने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है । रस में ग्लूकोज-फ्रूक्टोस धीरे-धीरे अवशोषित होता रहता है । रक्त शर्करा एकदम नहीं बढ़ने पाती । इंग्लैण्ड के डेनीमीड हैल्थ सेण्टर के डॉ. टी.जे. गोल्डर ने सामान्य मनुष्यों और मधुमेह के रोगियों पर प्रयोग से पाया कि गन्ने का रस या राव खिलाने पर रक्त की शर्करा में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं होती जब कि शक्कर जो इसी रस के कृत्रिम विधि द्वारा संशोषित की जाती है, देने पर रक्त में एकदम बढ़ती है व लीवर आदि अंगों की कार्य क्षमता में बाधक बनती है ।
लेसेण्ट पत्रिका (1/6/२/1979) में प्राकृतिक उनके लेख के अनुसार यदि स्वस्थ व्यक्ति इस स्वाभाविक शर्करा को नियमित रूप से लेता भी रहे, तो आनुवांशिकता की दृष्टि से उनके 'डायबिटीज-प्रोन' होने पर भी रक्त में पायरुवेट, लैक्टेट जैसे अम्लवर्धक विष कम मात्रा में जन्म लेते हैं व तुरंत निष्कासित भी कर दिए जाते हैं । उनका कहना है कि रेशे के साथ मिलकर शर्करा मानव की स्वाभाविक खुराक बन जाती है । इसी कारण उन्होंने शकर को इसके स्वाभाविक स्वरूप रस, राव या गुण के रूप में ग्रहण करने का समर्थन किया है ।
मुलहठी ऊँचे इलाकों में पैदा होने वाली सर्वोपलब्ध औषधि है । सदियों से इसे आमाशय के रोगों में सफलता से प्रयुक्त किया जाता रहा है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने इसके गुणों को दृष्टिगत रख उसके जैव सक्रिय संघटक (एक्टिव-प्रिंसिपल) कार्बीनोक्सोलोन के कैप्सूल व गोलियाँ बनाकर अम्लपित्त के रोगियों में उसका प्रयोग किया तो परिणाम प्राकृतिक रूप से दिए जाने पर होने वाले लाभों की तुलना में कतई उत्साहवर्धक नहीं थे । ड्यूडनल अल्सर नामक पेट के छालों में इसका प्रभाव नहीं के बराबर व गैस्टि्रक अल्सर में कुछ मात्रा में पाया गया है । वैज्ञानिकों ने जब कारण खोजे तो पाया कि जब तक कैप्सूल रूप में दी गई औषधि आमाशय में अपना प्रभाव डालती है, वहाँ उत्सर्जित अन्य एन्जाइम्स, रसायन उसे प्रभावहीन कर देते हैं ।
इस पर कुछ चिकित्सकों का ध्यान प्राकृतिक रूप से औषधि को कैप्सूल में रखकर खिलाने पर गया । डॉ. डेविस एवं डॉ. रीड के इस संबंध में शोध निष्कर्षों का विवरण गुडमैन-गिलमैन की पुस्तक दफारमेकॉलॉजीकल बेसिक ऑफ थेराप्यूटिक्स (1980 संस्करण) में छपा है, जिसमें उन्होंने कार्बीनिक्सोलोन के विशिष्ट प्रयोगों की कण्ट्रोल्डट्रायल से कई अम्ल पित्त व आमाश व्रण के रोगियों को स्वस्थ किया । अपने रेशों व सक्रिय संघटक के सम्मिश्रण प्रभाव से मुलहठी अब एक ख्याति प्राप्त औषधि का दर्जा प्राप्त कर चुकी है ।
प्राकृतिक रूप से पाया जानेवाला आँवला मिटामिन 'सी' से लबालब भरा पड़ा है । 100 ग्राम आँवले के रस में 921 मिली ग्राम विटामिन सी पाया जाता है जो कि बाजार में उपलब्ध आधे ग्राम की दो गोलियों के बराबर है । मात्रा ही नहीं गुणवत्ता में भी आँवला प्राकृतिक रूप में ही अधिक लाभकारी व श्रेष्ठ बैठता है । इसका प्रमाण वेल्थ ऑफ इण्डिया (3/169) में उद्धृत वैज्ञानिक संदर्भ देता है । पाया यह गया है कि यदि क्षय रोग (फेफड़ों की टी.वी.) के रोगियों को कृत्रिम विटामिन सी न देकर प्राकृतिक रूप में उपलब्ध आँवला खिलाया जाए तो विटामिन सी की क्षतिपूर्ति शीघ्र ही हो जाती है ।
व्रण को भरने व जीवाणु रोधक सामर्थ्य बढ़ाने में आँवला जो योगदान देता है, वह संशोषित विटामिन सी नहीं दे पाता । इसका कारण लेखक ने यही बताया कि आँवले में विटामिन सी के अतिरिक्त ऐसे अन्य घटक भी होते हैं, जो उसे घुलनशील बनाकर उसकी अवशोषक-एसिमिलेशन प्रक्रिया में सहायता करते हैं । ऐसा घुलनशील तत्व निर्धारित स्थलों (टारगेट ऑरगन्स) पर पहुँचकर अत्यन्त लाभकारी प्रभाव डालता है । यहाँ तो आँवले का एक ही उदाहरण दिया गया है । इस प्राकृतिक विटामिन संपदा के अन्यान्य गुण भी ऐसे विलक्षण हैं कि यह अकेला अपने आप में एक औषधि है ।
औषधि की दृष्टि से पूर्णता का एक और उदाहरण 'नीम' है । स्केबीच (कण्डु) नामक एक संक्रामक कीटजन्य रोग में नीम स्थानीय लेप के रूप में लगाए जाने पर अपनी कीटनाशक क्षमता के कारण उत्तरदायी संक्रामक कीटों (सारकोप्टिस स्केबिआई) को तो मारता ही है, एक तीव्र जीवाणुनाशी होने के कारण साथ में होने वाले आनुषंगिक जीवाणु संक्रमण (सेकेण्डरी पायोजेनिक इन्फेक्शन) को भी समाप्त कर देता हे । यही संक्रमण अनेकानेक विकट परिस्थितियों को जन्म देकर एलोपैथिक औषधि प्रयोगों को बारंबार विफल कर देता है, आर्थिक दृष्टि से रोगी को हानि अलग होती है । इसके अतिरिक्त यह एक अच्छा एण्टी-हिस्टामिनिक खुजली-निवारक भी है । एक ही औषधि किस प्रकार अपने बहुविधि प्रयोगों से लाभ दिखा सकती है, इसका सर्वोपलब्ध नीम एक अच्छा उदाहरण है । आंतरिक प्रयोगों में यह एक सर्वश्रेष्ठ रक्त शोधक एवं एण्टी बायोटिक की भूमिका निभाता ही है ।
यहाँ विभिन्न उदाहरणों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है कि वनौषधियाँ प्रकृति की देन होने के नाते अपने आप में समग्र हैं एवं उनके एकाकी प्रयोग से अन्य उपचारों की तुलना में कई गुने अधिक लाभ मिलते हैं । समग्रता के अतिरिक्त एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वनौषधियाँ समस्थिति पुनस्र्थापक (होमिओस्टेसिस रिस्टोरर) हैं अर्थात् वे शरीर की विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओं में बिना अधिक हस्तक्षेप किए उन्हें सामान्य स्थिति में ला सकने में बहुमूल्य योगदान देती हैं । एलोपैथक औषधियों के अवांछनीय दुष्प्रभावों एवं जड़ी-बूटियों के निरापद होने का आधार यही है । कृत्रिम संशोषित रसायन होमिओस्टेसिस से छेड़छाड़ करते हैं, जबकि प्राकृतिक औषधियाँ शरीर संस्थान को जैसे थे की स्थिति में सहायक सिद्ध होती हैं ।
अवांछनीय दुष्प्रभावों की चर्चा चली तो यहाँ कुछ उदाहरणों द्वारा औषधि के प्राकृतिक स्वरूप व रासायनिक घटक की तुलना करना अप्रासंगिक न होगा । उच्च रक्तचाप के लिए प्रयुक्त औषधियाँ शक्तिशाली प्रक्रिया द्वारा 'न्यूरो ह्यूमरल' केन्द्रों पर कार्य करके उसे बलात् नीचे ले आती हैं । दवा बंद होते ही वह उछलकर वापस अपने पिछले स्तर से कहीं और ऊँचे व रेसीस्टेण्ट स्थिति में पहुँच जाता है । 'क्लोनीडीन' जैसी औषधियाँ जब बाजार में आईं तो उन्होंने खूब ख्याति पाई, परन्तु अब उनके प्रयोग पर धीरे-धीरे निषेध लगता है ।
वैज्ञानिक फर्मेकॉलाजी के लब्ध प्रतिष्ठित ग्रंथ गुडमैन-गिलमैन की 'द फर्मेकॉलाजीकल बेसिस ऑफ थेराप्यूटिक्स' में लिखते हैं कि क्लोलीडीन यदि एकाएक बंद कर दी जाए तो रोगी को हाइपरटेन्सिव ब्राइसिस का खतरा मोल लेना पड़ सकता है जो कि जान तक ले लेता है । यदि स्थिति हृदय के लिए प्रयुक्त की तरह रक्तचाप को क्रमशः नीचे लाती हैं व बंद किए जाने पर भी किसी प्रकार की क्राइसिस तुरंत उत्पन्न नहीं होती ।
अम्ल पित्त रोग के लिए (हाइपर एसीडिटी या पेप्टिक अल्सर) एण्टेसिड्स (उदाहरणार्थ मिथाइल पॉलीसिलॉक्सॉन एल्यूमीनियम हाइड्राक्सी कार्बोनेट, केल्शियम कार्बोनेट इत्यादि) देने के बाद रिवाइण्ड हाइपर एसिडिटी (आमाशय की तीव्र प्रतिक्रिया) भी इसी प्रक्रिया का एक स्वरूप है । सीमेटोडीन जैसी तीव्र औषधियाँ तो कुछ ही समय में आमाशय से अम्ल का बनाना ही रोक देती हैं । पेप्टिक अल्सर के भरने पर जब दवा बंद की जाती है तो अल्सर शीघ्र ही पुनः और भी तीव्रता से अम्ल उत्पादन व आमाशय को खोखला करने की गति बढ़ा देता है । यहाँ तक कि छालों के पेट में फूट जाने जैसी खतरनाक जटिल समस्याएँ जन्म ले सकती हैं । मुलहठी व आँवला, निशोथ व सौंफ जैसी औषधियों का एकाकी प्रयोग निरापद ढंग से अम्ल, पित्त, व्रण को भरने में किस प्रकार सहायक सिद्ध होता है, यह वैज्ञानिकों के लिए अभी भी शोध का विषय है ।
गन्ने का रस अपने स्वाभाविक रूप में ही लाभकारी है । पर जब वही शक्कर बन जाता है व सम्मिश्रण द्वारा मिठाई के रूप में लिया जाता है तो पाचन संस्थान पर जबर्दस्त दबाव पड़ता है और मनुष्य अपच बदहजमी का शिकार होता चला जाता है ।
शाकों के ही वर्ग में काष्ठ औषधियाँ भी होती हैं, जिन्हें एकाकी ही अनुपान भेद से ग्रहण किए जाने का यहाँ प्रतिपादन किया जा रहा है । प्रत्येक जड़ी-बूटी स्वयं में समग्र है ।
मिश्रित योगौषधियों की अपेक्षा अमिश्रित एकौषधि रोगों को मिटाने में कितनी लाभदायक सिद्ध होती हैं, इसका वर्णन चिरपुरातन आयुर्वेद ग्रंथों में मिलता है । धीरे-धीरे योगों-सम्मिश्रणों की संख्या बढ़ती चली गयी व गत 3 सहस्र वर्षों में एकौषधि विज्ञान तो लुप्त हो गया, योगौषधि विज्ञान का प्राधान्य हो गया । आज भी ऐसे विद्वान योग्य चिकित्सक हैं, जो मात्र एक ही औषधि अपने रोगियों पर प्रयुक्त करते हैं व उन्हें निरापद पद्धति से स्वस्थ कर देते हैं ।
हर जड़ी-बूटी स्वयं में एक पूर्ण योग है, जिसमें उसके उपयोगी तत्वों के साथ-साथ दुष्प्रभावों को निरस्त करने वाला एण्टीडोट भी साथ में मिला हुआ है । इस प्रकार एक ही औषधि रोग विशेष में प्रयुक्त होने पर पूर्ण प्रभावी सिद्ध होती है । शोथ (इडीना) से पीड़ित किसी रोगी को यदि मूत्र विरेचक द्रव्य (डाययूरेटिक औषधि) दी जाए तो उसकी शोथ तो तुरंत उतर जाती है, परन्तु साथ ही अधिक मूत्र आने के कारण रक्त में विद्यमान हृदय की मांसपेशियों व सारे शरीर के कोषों में रसायनिक क्रिया के लिए उत्तरदायी पोटेशियम भी मूत्र मार्ग से बाहर चला जाता है । इसकी रक्त में कमी की पूर्ति के पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति में हमेशा पोटेशियम लवण भी साथ-साथ दिये जाते हैं ।
मुँह से दिया गया संशोषित पोटेशिमय अनेकों अवांछनीय लक्षण उत्पन्न करता है, क्योंकि यह आमाशय की श्लेष्मा झिल्ली के लिए उत्तेजक है । यदि इसी शोथ को उतारने के लिए पुनर्नवा दी जाए जो शाक वर्ग की सर्वोपलब्ध औषधि है तो यह समस्या खड़ी नहीं होती । एक ही औषधि सर्वांगपूर्ण होने के कारण रोग के अनेकानेक पक्षों से स्वयं ही मोर्चा ले लेती है । वैज्ञानिक प्रयोगों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि पुनर्नवा में विद्यमान पोटेशियम मुक्त अवस्था में न होने से धीरे-धीरे उत्सर्जित हो, श्लेष्मा झिल्ली के पार रक्त में प्रविष्ट होता रहता है एवं जितना बाहर गया है, उतनी ही पूर्ति कर देता है । इस प्राकृतिक टाइम रिलीज कैप्सूल की तुलना में संशोषित स्लोरिलीज कैप्सूल व श्लेष्मा उत्तेजना को मिटाने वाली एंटेसिड (अम्ल पित्त निवारक) औषधियाँ निश्चित ही नुकसानदायक मंहगी हैं तथा विवेक हीनता का परिचय देती हैं ।
गन्ने का रस या उससे बनी राव एवं शक्कर की तुलना करने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है । रस में ग्लूकोज-फ्रूक्टोस धीरे-धीरे अवशोषित होता रहता है । रक्त शर्करा एकदम नहीं बढ़ने पाती । इंग्लैण्ड के डेनीमीड हैल्थ सेण्टर के डॉ. टी.जे. गोल्डर ने सामान्य मनुष्यों और मधुमेह के रोगियों पर प्रयोग से पाया कि गन्ने का रस या राव खिलाने पर रक्त की शर्करा में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं होती जब कि शक्कर जो इसी रस के कृत्रिम विधि द्वारा संशोषित की जाती है, देने पर रक्त में एकदम बढ़ती है व लीवर आदि अंगों की कार्य क्षमता में बाधक बनती है ।
लेसेण्ट पत्रिका (1/6/२/1979) में प्राकृतिक उनके लेख के अनुसार यदि स्वस्थ व्यक्ति इस स्वाभाविक शर्करा को नियमित रूप से लेता भी रहे, तो आनुवांशिकता की दृष्टि से उनके 'डायबिटीज-प्रोन' होने पर भी रक्त में पायरुवेट, लैक्टेट जैसे अम्लवर्धक विष कम मात्रा में जन्म लेते हैं व तुरंत निष्कासित भी कर दिए जाते हैं । उनका कहना है कि रेशे के साथ मिलकर शर्करा मानव की स्वाभाविक खुराक बन जाती है । इसी कारण उन्होंने शकर को इसके स्वाभाविक स्वरूप रस, राव या गुण के रूप में ग्रहण करने का समर्थन किया है ।
मुलहठी ऊँचे इलाकों में पैदा होने वाली सर्वोपलब्ध औषधि है । सदियों से इसे आमाशय के रोगों में सफलता से प्रयुक्त किया जाता रहा है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने इसके गुणों को दृष्टिगत रख उसके जैव सक्रिय संघटक (एक्टिव-प्रिंसिपल) कार्बीनोक्सोलोन के कैप्सूल व गोलियाँ बनाकर अम्लपित्त के रोगियों में उसका प्रयोग किया तो परिणाम प्राकृतिक रूप से दिए जाने पर होने वाले लाभों की तुलना में कतई उत्साहवर्धक नहीं थे । ड्यूडनल अल्सर नामक पेट के छालों में इसका प्रभाव नहीं के बराबर व गैस्टि्रक अल्सर में कुछ मात्रा में पाया गया है । वैज्ञानिकों ने जब कारण खोजे तो पाया कि जब तक कैप्सूल रूप में दी गई औषधि आमाशय में अपना प्रभाव डालती है, वहाँ उत्सर्जित अन्य एन्जाइम्स, रसायन उसे प्रभावहीन कर देते हैं ।
इस पर कुछ चिकित्सकों का ध्यान प्राकृतिक रूप से औषधि को कैप्सूल में रखकर खिलाने पर गया । डॉ. डेविस एवं डॉ. रीड के इस संबंध में शोध निष्कर्षों का विवरण गुडमैन-गिलमैन की पुस्तक दफारमेकॉलॉजीकल बेसिक ऑफ थेराप्यूटिक्स (1980 संस्करण) में छपा है, जिसमें उन्होंने कार्बीनिक्सोलोन के विशिष्ट प्रयोगों की कण्ट्रोल्डट्रायल से कई अम्ल पित्त व आमाश व्रण के रोगियों को स्वस्थ किया । अपने रेशों व सक्रिय संघटक के सम्मिश्रण प्रभाव से मुलहठी अब एक ख्याति प्राप्त औषधि का दर्जा प्राप्त कर चुकी है ।
प्राकृतिक रूप से पाया जानेवाला आँवला मिटामिन 'सी' से लबालब भरा पड़ा है । 100 ग्राम आँवले के रस में 921 मिली ग्राम विटामिन सी पाया जाता है जो कि बाजार में उपलब्ध आधे ग्राम की दो गोलियों के बराबर है । मात्रा ही नहीं गुणवत्ता में भी आँवला प्राकृतिक रूप में ही अधिक लाभकारी व श्रेष्ठ बैठता है । इसका प्रमाण वेल्थ ऑफ इण्डिया (3/169) में उद्धृत वैज्ञानिक संदर्भ देता है । पाया यह गया है कि यदि क्षय रोग (फेफड़ों की टी.वी.) के रोगियों को कृत्रिम विटामिन सी न देकर प्राकृतिक रूप में उपलब्ध आँवला खिलाया जाए तो विटामिन सी की क्षतिपूर्ति शीघ्र ही हो जाती है ।
व्रण को भरने व जीवाणु रोधक सामर्थ्य बढ़ाने में आँवला जो योगदान देता है, वह संशोषित विटामिन सी नहीं दे पाता । इसका कारण लेखक ने यही बताया कि आँवले में विटामिन सी के अतिरिक्त ऐसे अन्य घटक भी होते हैं, जो उसे घुलनशील बनाकर उसकी अवशोषक-एसिमिलेशन प्रक्रिया में सहायता करते हैं । ऐसा घुलनशील तत्व निर्धारित स्थलों (टारगेट ऑरगन्स) पर पहुँचकर अत्यन्त लाभकारी प्रभाव डालता है । यहाँ तो आँवले का एक ही उदाहरण दिया गया है । इस प्राकृतिक विटामिन संपदा के अन्यान्य गुण भी ऐसे विलक्षण हैं कि यह अकेला अपने आप में एक औषधि है ।
औषधि की दृष्टि से पूर्णता का एक और उदाहरण 'नीम' है । स्केबीच (कण्डु) नामक एक संक्रामक कीटजन्य रोग में नीम स्थानीय लेप के रूप में लगाए जाने पर अपनी कीटनाशक क्षमता के कारण उत्तरदायी संक्रामक कीटों (सारकोप्टिस स्केबिआई) को तो मारता ही है, एक तीव्र जीवाणुनाशी होने के कारण साथ में होने वाले आनुषंगिक जीवाणु संक्रमण (सेकेण्डरी पायोजेनिक इन्फेक्शन) को भी समाप्त कर देता हे । यही संक्रमण अनेकानेक विकट परिस्थितियों को जन्म देकर एलोपैथिक औषधि प्रयोगों को बारंबार विफल कर देता है, आर्थिक दृष्टि से रोगी को हानि अलग होती है । इसके अतिरिक्त यह एक अच्छा एण्टी-हिस्टामिनिक खुजली-निवारक भी है । एक ही औषधि किस प्रकार अपने बहुविधि प्रयोगों से लाभ दिखा सकती है, इसका सर्वोपलब्ध नीम एक अच्छा उदाहरण है । आंतरिक प्रयोगों में यह एक सर्वश्रेष्ठ रक्त शोधक एवं एण्टी बायोटिक की भूमिका निभाता ही है ।
यहाँ विभिन्न उदाहरणों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है कि वनौषधियाँ प्रकृति की देन होने के नाते अपने आप में समग्र हैं एवं उनके एकाकी प्रयोग से अन्य उपचारों की तुलना में कई गुने अधिक लाभ मिलते हैं । समग्रता के अतिरिक्त एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वनौषधियाँ समस्थिति पुनस्र्थापक (होमिओस्टेसिस रिस्टोरर) हैं अर्थात् वे शरीर की विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओं में बिना अधिक हस्तक्षेप किए उन्हें सामान्य स्थिति में ला सकने में बहुमूल्य योगदान देती हैं । एलोपैथक औषधियों के अवांछनीय दुष्प्रभावों एवं जड़ी-बूटियों के निरापद होने का आधार यही है । कृत्रिम संशोषित रसायन होमिओस्टेसिस से छेड़छाड़ करते हैं, जबकि प्राकृतिक औषधियाँ शरीर संस्थान को जैसे थे की स्थिति में सहायक सिद्ध होती हैं ।
अवांछनीय दुष्प्रभावों की चर्चा चली तो यहाँ कुछ उदाहरणों द्वारा औषधि के प्राकृतिक स्वरूप व रासायनिक घटक की तुलना करना अप्रासंगिक न होगा । उच्च रक्तचाप के लिए प्रयुक्त औषधियाँ शक्तिशाली प्रक्रिया द्वारा 'न्यूरो ह्यूमरल' केन्द्रों पर कार्य करके उसे बलात् नीचे ले आती हैं । दवा बंद होते ही वह उछलकर वापस अपने पिछले स्तर से कहीं और ऊँचे व रेसीस्टेण्ट स्थिति में पहुँच जाता है । 'क्लोनीडीन' जैसी औषधियाँ जब बाजार में आईं तो उन्होंने खूब ख्याति पाई, परन्तु अब उनके प्रयोग पर धीरे-धीरे निषेध लगता है ।
वैज्ञानिक फर्मेकॉलाजी के लब्ध प्रतिष्ठित ग्रंथ गुडमैन-गिलमैन की 'द फर्मेकॉलाजीकल बेसिस ऑफ थेराप्यूटिक्स' में लिखते हैं कि क्लोलीडीन यदि एकाएक बंद कर दी जाए तो रोगी को हाइपरटेन्सिव ब्राइसिस का खतरा मोल लेना पड़ सकता है जो कि जान तक ले लेता है । यदि स्थिति हृदय के लिए प्रयुक्त की तरह रक्तचाप को क्रमशः नीचे लाती हैं व बंद किए जाने पर भी किसी प्रकार की क्राइसिस तुरंत उत्पन्न नहीं होती ।
अम्ल पित्त रोग के लिए (हाइपर एसीडिटी या पेप्टिक अल्सर) एण्टेसिड्स (उदाहरणार्थ मिथाइल पॉलीसिलॉक्सॉन एल्यूमीनियम हाइड्राक्सी कार्बोनेट, केल्शियम कार्बोनेट इत्यादि) देने के बाद रिवाइण्ड हाइपर एसिडिटी (आमाशय की तीव्र प्रतिक्रिया) भी इसी प्रक्रिया का एक स्वरूप है । सीमेटोडीन जैसी तीव्र औषधियाँ तो कुछ ही समय में आमाशय से अम्ल का बनाना ही रोक देती हैं । पेप्टिक अल्सर के भरने पर जब दवा बंद की जाती है तो अल्सर शीघ्र ही पुनः और भी तीव्रता से अम्ल उत्पादन व आमाशय को खोखला करने की गति बढ़ा देता है । यहाँ तक कि छालों के पेट में फूट जाने जैसी खतरनाक जटिल समस्याएँ जन्म ले सकती हैं । मुलहठी व आँवला, निशोथ व सौंफ जैसी औषधियों का एकाकी प्रयोग निरापद ढंग से अम्ल, पित्त, व्रण को भरने में किस प्रकार सहायक सिद्ध होता है, यह वैज्ञानिकों के लिए अभी भी शोध का विषय है ।