Books - जीव जन्तु बोलते भी हैं, सोचते भी हैं
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Language: HINDI
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क्या सचमुच मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है?
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मनुष्य द्वारा अपनी सर्व श्रेष्ठता को ढेरों प्रमाणों और अनेकों तथ्यों के आधार पर चाहे जिस ढंग से सिद्ध कर लिया जाय, पर इसमें कोई तथ्य है भी अथवा नहीं यह भी विचार किया जाना चाहिए।
मनुष्य की सर्व श्रेष्ठता का आधार यही तो माना जाता है कि उसमें बुद्धि एवं विवेक का तत्व विशेष है। उसमें कर्त्तव्य परायणता, परोपकार, प्रेम, सहयोग सहानुभूति सहृदयता तथा सम्वेदनशीलता के गुण पाये जाते हैं। किन्तु इस आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ तभी माना जा सकता है जब सृष्टि के अन्य प्राणियों में इन गुणों का सर्वथा अभाव हो और मनुष्य इन गुणों को पूर्ण रूप से क्रियात्मक रूप से प्रतिपादित करें। यदि इन गुणों का अस्तित्व अन्य प्राणियों में भी पाया जाता है और वे इसका प्रतिपादन भी करते हैं तो फिर मनुष्य को सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानने के अहंकार का क्या अर्थ रह जाता है।
शेर, हाथी, गैंडा, चीता, बैल, भैंसे, गीध, शुतुरमुर्ग, मगर, मत्स्य आदि न जाने ऐसे कितने थलचर, नभचर और जलचर जीव परमात्मा की इस सृष्टि में पाये जाते हैं जो मनुष्य से सैकड़ों गुना अधिक शक्ति रखते हैं। मछली जल में जीवन भर तैर सकती है, पक्षी दिन-दिन भर आकाश में उड़ते रहते हैं क्या मनुष्य इस विषय में उनकी तुलना कर सकता है? परिश्रम शीलता के सन्दर्भ में हाथी, घोड़े ऊंट, बैल, भैंसे आदि उपयोगी तथा घरेलू जानवर जितना परिश्रम करते और उपयोगी सिद्ध होते हैं, उतना शायद मनुष्य नहीं हो सकता। जबकि इन पशुओं तथा मनुष्य के भोजन में बहुत बड़ा अन्तर होता है।
पशु-पक्षियों के समान स्वावलम्बी तथा शिल्पी तो मनुष्य हो ही नहीं सकता। पशु-पक्षी अपने जीवन तथा जीवनोपयोगी सामग्री के लिए किसी पर कभी भी निर्भर नहीं रहते। जंगलों पर्वतों, गुफाओं तथा पानी में अपना आहार आप खोज लेते हैं। उन्हें न किसी पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता पड़ती है और न किसी संकेतक की। पशु-पक्षी स्वयं एक दूसरे पर भी इस सम्बन्ध में निर्भर नहीं रहते। अपनी रक्षा तथा आरोग्यता के उपाय भी बिना किसी से पूछे ही कर लिया करते हैं। जीवन के किसी भी क्षेत्र में पशु-पक्षियों जैसा स्वावलम्बन मनुष्यों में कहां पाया जाता है। यहां तो मनुष्य एक दूसरे पर इतना निर्भर है कि यदि वे एक दूसरे की सहायता न करते रहें तो जीना ही कठिन हो जाये।
विलक्षण बौद्धिक क्षमतायें आदि काल से ही वैज्ञानिकों और जीवशास्त्रियों के लिये एक प्रकार की चुनौती रही हैं। बुद्धि, ज्ञान, चिन्तन की क्षमता—यही वह तत्व हैं जो मृत और जीवित का अन्तर स्पष्ट करते हैं। अतएव जीवन को बौद्धिक क्षमता में केन्द्रित कर वैज्ञानिक प्रयोगों की प्रणाली अपनाई गई। इस दिशा में मस्तिष्क की जटिल संरचना एक बहुत बड़ी बाधा है इस कारण रहस्य अभी तक रहस्य ही बने हुये हैं, तथापि अब तक जितना जाना जा सका है, उससे वैज्ञानिक यह अनुभव करने लगे हैं कि बुद्धि एक सापेक्ष तत्व है और अर्थात् सृष्टि के किसी कौने से समष्टि मस्तिष्क काम कर रहा हो तो आश्चर्य नहीं, जीवन जगत उसी से जितना अंश पा लेता है उतना ही बुद्धिमान होने का गौरव अनुभव करता है।
वैज्ञानिक अब इस बात को अत्यधिक गम्भीरता से विचारने लगे हैं कि मानव-मस्तिष्क और उसकी मूलभूत चेतना का समग्र इतिहास अपने इन कम विकसित समझे जाने वाले भाइयों के मस्तिष्क की प्रक्रियाओं से ही जाना जा सकता है। इसके लिये अब तरह-तरह के प्रयोग प्रारम्भ किये गये हैं।
मनुष्य की तरह ही देखा गया कि कई बार एक कुत्ता अत्यधिक बुद्धिमान पाया गया। जब कि उसी जाति के अन्य कुत्ते निरे बुद्धू निकले। चूजे अपने बाप मुर्गे की अपेक्षा अधिक बुद्धि चातुर्य का परिचय देते हैं। डाल्फिन मछलियों की बुद्धिमता की तो कहानियां भी गढ़ी गई हैं। बुद्धि परीक्षा के लिये कोई बहुत सम्वेदनशील यन्त्र तो अभी तक नहीं गढ़े जा सके किन्तु स्वादिष्ट भोजन की पहचान, जटिल परिस्थितियों के हल आदि के लिये जो विभिन्न प्रयोग किये गये उनसे पहली दृष्टि में यह स्पष्ट हो गया कि बन्दर डाल्फिन, (काली की अपेक्षा लाल लोमड़ी) अधिक चतुर होते हैं नीलकण्ठ, संघकाक और कौवों की बुद्धि स्वार्थ प्रेरित जैसी होती है—विवेक जनक नहीं। रूस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. लियोनिद क्रुशिन्स्का ने अपने विचित्र प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि जिस तरह चिन्तन से मानवीय शक्ति का ह्रास होता है, पशु-पक्षियों में भी यह प्रक्रिया यथावत होती है। इनमें कुछ तो डर जाते हैं, कुछ बीमार पड़ जाते हैं सम्भवतः इन्हीं कारणों से वे जीवन की गहराइयों में नहीं जाकर प्राकृतिक प्रेरणा से सामान्य जीवन यापन और आमोद-प्रमोद के क्रिया-कलापों तक ही सीमित रह जाते हैं।
प्रो. क्रुशिन्स्की के अनुसार तर्क, विवेक और प्राकृतिक हलचलों के अनुरूप अपने को समायोजित करने की बुद्धि अन्य प्राणियों में भी यथावत होती है इसी कारण वे पर्यावरण की समस्याओं को झेलते हुये भी अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं जब कि मनुष्य उनमें बुरी तरह जकड़ता जा रहा है। उसके अपने ही कारनामे चाहे वह विशाल औद्योगिक प्रगति हो या अणु-आयुधों का निर्माण, उसके अपने ही विनाश के साधन बनते जा रहे हैं।
पेट ही मनुष्य का साध्य हो, तब तो उससे अच्छा कर्कट है, जो रहता तो समुद्र में है किन्तु वह नारियल वृक्ष पर चढ़कर फल तोड़ लाता है।
जीवों की बुद्धिमत्ता अपने विकसित रूप में तब अभिव्यक्त होती है जब उनके सामने कोई संकट आ जाता और आत्म रक्षा की आवश्यकता आ पड़ती है। हिरन, खरगोश, चीते और कंगारू बहुत तेज दौड़ते हैं किन्तु जब इन्हें अपने सामने कोई संकट आता दिखाई देता है तब! वे जानते हैं कि उस स्थिति में सामान्य गति से बचाव नहीं किया जा सकता अतएव वे अपनी गति को अत्यधिक तीव्र कर देते हैं। चीता उस स्थिति में 100 किलोमीटर प्रति घन्टे की रफ्तार से दौड़ जाता है, कंगारू उस स्थिति में हवा में जोरदार कुलांचे लगाता है जिससे उसकी मध्यम गति अपनी प्रखरता तक पहुंच जाती है। यदि भागने में भी जान न बचे तो वह खड़े होकर अपना शक्ति प्रदर्शन करते हैं। बिल्ली अपने बाल फुलाकर तथा गुर्राकर यह प्रदर्शित करती है कि उसकी शक्ति कम नहीं, कुछ जानवर दांत दिखाकर शत्रु को डराते हैं, तो कुछ घुड़ककर, कुछ पंजों से मिट्टी खोदकर इस बात के लिए भी तैयार हो जाते हैं कि आओ जब नहीं मानते तो दो-दो हाथ कर ही लिये जायें। स्पाही तो मुंह विपरीत दिशा में करके अपने नुकीले तेज कांटे इस तरह फर्राकर फैला देती है कि शत्रु को लौटते ही बनता है। अमेरिका में पाई जाने वाली स्कंक नामक गिलहरी अपने शरीर से एक विलक्षण दुर्गन्ध निकाल कर शत्रु को भगा देती है। आस्ट्रेलिया के कंगारू रैट तो सचमुच ही आंखों में धूल झोंकना, जो कि बुद्धिमत्ता का मुहावरा है, जानता है। कई बार सांप का उससे मुकाबला हो जाता है तो यह अपनी पिछली टांगों से इतनी तेजी से धूल झाड़ता है कि कई बार तो सर्प अन्धा तक हो जाता है। उसे अपनी जान बचाकर भागते ही बनता है।
कछुआ, कर्कट तथा अमेरिका में पाये जाने वाले पैंगोलिन व आर्मडिलो शत्रु-आक्रमण के समय अपने सुरक्षा कवच में दुबक कर अपनी रक्षा करते हैं तो बारहसिंगा युद्ध में दो-दो हाथ की नीति अपना कर अपने पैने सींगों से प्रत्याक्रमण कर शत्रु को पराजित कर देता है।
कहते हैं कि भालू मृत व्यक्ति पर आक्रमण नहीं करते। इसकी पहचान के लिये वे नथुनों के पास मुंह ले जाकर यह देखते हैं कि अभी सांस चल रही है या नहीं। चतुर लोग अपनी सांस रोक कर उसे चकमा दे जाते हैं यह बात कहां तक सच है कहा नहीं जा सकता, किन्तु ओपोसम सचमुच ही विलक्षण बुद्धि और धैर्य का प्राणी है वह संकट के समय अपनी आंखें पलट कर जीभ लटका कर मृत होने का ऐसा कुशल अभिनय करता है जैसा ‘सिनेमा के नायक’। इस तरह अपनी सूझबूझ से वह अपने को मृत्यु के मुख में जाने से बचा लेता है।
मोर आक्रमण की स्थिति से नृत्य मुद्रा में निबटता है अपने पंखों को छत्र की तरह बनाकर वह आक्रमणकारी रोष प्रकट कर शत्रु को धमका देता है। कुछ छोटे-छोटे पक्षी तो और भी चतुराई दिखाते हैं आक्रामक को देखकर ये लंगड़ा कर चलने का नाटक करते हैं। इससे इस बात का भ्रम होता है कि पहले ही इसे किसी ने घायल कर दिया है। इस स्थिति में आगंतुक सीधे आक्रमण करने की अपेक्षा पीछा करने की नीति अपनाता है। काफी दूर तक तो वह इसी तरह पीछे-पीछे भगाता है इसी बीच वह एकदम फुर से उड़ जाता है और शिकारी देखता ही रह जाता है।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ (विश्व वन्य जीवन) त्रैमासिक पत्रिका के एक संस्करण में मलेशिया में पाई जाने वाली मछली एक्रोबेट का वर्णन छपा है। जिसमें बताया गया है कि यह मछली भोजन की तलाश में अपने बड़े-बड़े पंखों के सहारे वृक्षों पर भी चढ़ जाती है। यही नहीं वह अपने थुथने में पानी भर कर इस तरह की क्रिया करती है कि वह थुथना बन्दूक का सा काम करता है और पानी गोली का। अपनी इस प्राकृतिक गन से वह अपने भोजन के उपयुक्त जीवों का स्वयं शिकार कर लेती है। उसमें यह भी समझ होती है कि किस जीव को मारने के लिये कितनी बड़ी गोली प्रयुक्त की जाये। दागते समय वह उतने ही जल का प्रयोग करती है।
डेव हेड होव-कीड़ विलक्षण ध्वनियां निकाल लेने में बड़ा चतुर होता है। उसे यदि कहीं मधुमक्खी का छत्ता दीख जाये तो वह रानी मक्खी की-सी आवाज निकालता है। अन्य मक्खियां भुलावे में आ जाती हैं और यह महोदय चुपचाप छत्ते में घुसकर शहद चोरी कर लाते हैं।
हाथी की खोपड़ी ही बड़ी नहीं होती अपितु उनमें उसी अनुपात की बुद्धिमत्ता भी है। वे सूक्ष्म संकेतों को भी थोड़े प्रशिक्षण के बाद ही समझने लगते हैं। यही कारण है कि उसे भूतकाल में युद्ध भूमि में प्रयुक्त किया गया था। आज भी सवारी के काम में, सागौन के जंगलों में स्लीपर ढोने तथा सरकसों में विविध करतब दिखाने में प्रयुक्त होते हैं। जगपति चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘जीव जन्तुओं की बुद्धि’ में लिखा है एक हाथी ने एक बच्चे की जेब में सूंड़ डाली पता चला कि उसकी जेब में चीनी है हाथी उसे ही लेना चाहता था। हाथी को मिष्ठान्न अधिक प्रिय है सम्भवतः इसी से उसकी तुलना मोदक प्रिय गणेश जी से की जाती है। हाथी अपने गिरोह की प्रधान किसी वयोवृद्ध हथिनी को बनाते हैं इससे उनके मातृत्व के प्रति सम्मान का परिचय मिलता है।
सामान्य बुद्धि से देखें तो चींटियों का ही क्या मनुष्य जीवन भी खा-पीकर वासना, तृष्णा, अहंता में बिताया जाने वाला बेकार-सा जीवन है पर उपयोगिता और उपादेयता तब स्पष्ट होती है जब जीवन-प्रक्रिया के सूक्ष्म-तत्वों का भी बारीकी से अध्ययन, चिन्तन, और मनन किया जाये। चींटियां यों ढेर में बिलबिलाती दीखती हैं पर उनका हर कार्य व्यवस्थित-नियंत्रित और अपनी प्रभुसत्ता सम्पन्न रानी के इंगित पर चलता है। कोई भी चींटी न तो कभी निष्क्रिय होगी, न व्यर्थ के कार्य करेगी। जो कार्य जिसे सुपुर्द है वह वही करेगी। नर का काम है परिश्रम पूर्वक खाद्यान्न व्यवस्था, सैनिक पहरेदारी करते, मजदूर बोझा ढोते शव बाहर निकालते और शिल्ली भवन-निर्माण में जुटे रहते हैं। यही व्यवस्था मधुमक्खियों में भी समान रूप से पाई जाती है। मनुष्य की तरह पेट और प्रजनन में व्यस्त रहने पर भी उनमें अव्यवस्था और उच्छृंखलता के लिये कोई स्थान नहीं।
इंजीनियरिंग दक्षता विज्ञान युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। भारी-भारी बांधों के निर्माण से लेकर नहर निकाल कर जन-सुविधायें बढ़ाने के अनेक बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य हो रहे हैं किन्तु इस तरह का बुद्धि कौशल अन्य जीवों में भी कम नहीं। ऊदबिलाव को तो जीव शास्त्रियों ने कुशल इंजीनियर की पदवी तक दे डाली है। यह सुरंगी नहरें बनाने तथा मिट्टी के पुल निर्माण करने में बड़ा पटु होता है। हैम्पटन नगर में इस ऊदबिलाव के कारनामों से तो लोग बहुत ही तंग रहते हैं। नगर के बाहर एक झील है। ऊदबिलावों ने वहां से नगर के भीड़ वाले इलाकों तक में भीतर-भीतर सुरंगें बना रखी हैं। बहुत प्रयत्न करने के बाद भी आज तक न तो ऊदबिलाव ही पकड़े जा सके और न ही वह नहरें बन्द की जा सकीं जो इन्होंने जमीन के अन्दर-अन्दर बना रखी हैं।
मनुष्य शिल्प शिक्षा, अनुकरण तथा उपकरणों पर निर्भर रहता है। वह कोई भी वस्तु अथवा स्थान का निर्माण बिना किसी से सीखे, देखे अथवा औजारों के अभाव में नहीं कर सकता। जबकि पशु-पक्षी अपना निवास स्वयं अपने अन्तर्प्रेरणा से बना लिया करते हैं। न तो वे उसके लिये किसी के पास शिक्षा लेने जाते हैं और न उन्हें किन्हीं उपकरणों की आवश्यकता होती है। लोमड़ी, बिलाव तथा शृंगालों आदि के निवास कक्ष देखते ही बनते हैं। वे अपनी मांदों तथा विवरों में सब प्रकार की सुविधा का समावेश कर लेते हैं। पक्षियों के घोंसले तथा कोटर तो उनकी निर्माण कला के जीते जागते नमूने ही होते हैं। वया का घोंसला, मधुमक्खी का छत्ता, मकड़ी का जाला तथा चींटी, का विवर देखकर तो यही कहना पड़ता है कि परमात्मा ने इन क्षुद्र समझे जाने वाले जीवों को गजब की निर्माण बुद्धि दी है। वह सूक्ष्म शिल्प देखकर मनुष्य का मन ईर्ष्या कर उठता है। पशु-पक्षी अपनी घ्राण तथा दृष्टि शक्ति से ऋतुओं तथा आपत्तियों का ज्ञान इतना शीघ्र, सच्चा और यथार्थ रूप से कर लेते हैं कि मनुष्य के बनाये वैज्ञानिक बैरोमीटर आदि यन्त्र भी नहीं कर सकते। लोग पक्षियों एवं पशुओं की गतिविधियां देखकर ऋतु तथा संभाव्य के सम्बन्ध में बड़े-बड़े निर्णय कर लेते रहे हैं और उस सम्बन्ध में उन्हें कभी धोखा नहीं हुआ है। आज कल के प्रशिक्षित कुत्तों ने तो अपराधों तथा अपराधियों की खोज में चतुर से चतुर जासूसों को मात दे दी है। पशु-पक्षी किसी भी ज्योतिषी से बढ़कर आकाश की गतिविधियों का अध्ययन कर लेते हैं, उन्हें उनकी तरह किसी वेधशाला की आवश्यकता नहीं होती, उनकी वेधशाला उनकी नासिका तथा आंखों में ही बनी हुई है। पशु-पक्षियों से अधिक मार्ग का ज्ञान मनुष्यों के लिये किसी प्रकार भी सम्भव नहीं। एक स्थान के पक्षी को किसी भी स्थान पर ले जाकर क्यों न छोड़ दिया जाये वह बिना किसी भूल अथवा भ्रम के अपने स्थान पर लौट आयेगा। इसी विशेषता के कारण बहुत समय तक कबूतर तथा हंस आदि पक्षी पत्र-वाहक का उत्तरदायित्व निर्वाह करते रहे हैं।
यदि पशु-पक्षियों को प्रशिक्षित करने पर ध्यान दिया जाय तो वे भी मनुष्यों की तरह बुद्धिमान हो सकते हैं। मनुष्य भी आदिम काल में अन्य प्राणियों की तरह ही अनपढ़ था। सहयोग की वृत्ति अधिक रहने से एक ने दूसरे की सहायता की और संचित अनुभव का लाभ अपने साथियों को मिल सके इसका प्रयत्न किया। एक का अनुदान दूसरे को मिलने की पुण्य प्रक्रिया ने मनुष्य को पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक बुद्धिमान और अधिक क्रियाकुशल बनाया है। यदि यही आधार अन्य प्राणियों को मिल सके तो वे भी अब की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान हो सकते हैं। उनमें भी वे सब तत्व मौजूद हैं जो मनुष्य की तरह बुद्धिमान बन सकने का द्वार खोल सकते हैं। मनुष्य चाहे तो इस दिशा में अन्य प्राणियों को बहुत सहायता कर सकता है। अविकसित मस्तिष्क के बालकों को कुशल अध्यापक लिखा-पढ़ा कर बुद्धिमान बना देता है तो कोई कारण नहीं कि अन्य प्राणियों को प्रशिक्षित बनाने के लिए किये गये प्रयत्नों को सफलता न मिले।
इस संदर्भ में अमेरिका में मिसिसिपी राज्य के अन्तर्गत पोपरबिल नामक कस्बे के निवासी केलर ब्रिलैण्ड नामक एक अधेढ़ सज्जन विशेष रूप से प्रयत्न कर रहे हैं। यों वे मनोविज्ञान शास्त्र के स्नातक हैं, पर उन्होंने अपना प्रमुख कार्य तरह-तरह के प्राणियों को उनके वर्तमान स्तर से आगे की शिक्षा देकर अधिक बुद्धिमत्ता का परिचय दे सकने योग्य बनाने का अपनाया है। पशु मनोविज्ञान शास्त्र में उनके प्रयत्नों ने नई कड़ियां सम्मिलित की हैं।
ब्रिलैण्ड की पत्नी मेरियन भी इस प्राणि प्रशिक्षण कार्य में पूरी सहायता कर रही हैं। इन दिनों उन्होंने लगभग 40 किस्म के जीवों को अपने स्कूल में भर्ती किया हुआ है। जिनमें मछली, चूहे, कुत्ते, मुर्गे, तोते आदि सभी किस्म के प्राणी सम्मिलित हैं। अब तक उनके स्कूल से लगभग एक हजार प्राणी आश्चर्यजनक कार्य कर सकने और आकर्षण केन्द्र बन सकने योग्य विशेषताएं प्राप्त करके विदा हो चुके हैं। प्रशिक्षित जीवों को खरीदने वाले शौकीनों की कमी नहीं रहती, वे अपने मनपसन्द के प्राणी अच्छा मूल्य देकर खरीद ले जाते हैं और मनोरंजन का आनन्द लेते हैं। शिक्षकों को भी इस धंधे से अच्छी आजीविका प्राप्त होती रहती है।
इस विद्यालय की एक कक्षा की मुर्गियां आज्ञा देने पर जूक बाक्स का स्विच दबाकर फिल्मी रिकार्ड चालू कर देती हैं और उनकी ध्वनि पर तालबद्ध नृत्य करती हैं। मुर्गे टीम बनाकर खिलाड़ियों की तरह अपने-अपने मोर्चे पर आमने-सामने खड़े होते हैं और उस क्षेत्र में प्रचलित ‘वैसवाल’ खेल, सही कायदे, कानून के अनुसार खेलते हैं। उनमें से न कोई बेईमानी, चालाकी करता है और न लापरवाही। जो पार्टी हार जाती है वह बिना अपमान अनुभव किये, पर फैला कर रेत में बैठ जाती है।
रेनडियर प्रेस की मशीन चलाते हैं। कुत्ते वास्केट बाल खेलते हैं। बतखें स्वसंचालित ढोल बजाने की मशीन को चलाती हैं, दर्शक उस बाजे का आनन्द लेते हैं। खरगोश पियानों बजाते और दस फुट दूरी तक ठोकर मारकर गेंद फेंकते हैं। बकरियां कुत्ते के बच्चों को पालती और अपना दूध पिलाती हैं।
यह सारी शिक्षा ब्रिलैंड ने पुरस्कार का प्रलोभन देकर पूरी कराने की तरकीब निकाली है। वे इन प्राणियों को आरम्भ में एक कार्य सिखाते हैं। पीछे जब वे मालिक की मर्जी समझने और निबाहने का संकेत समझ लेते हैं तो प्रत्येक सफलता पर स्वादिष्ट भोजन देने का उपहार दिया जाने लगता है। उन्हें सामान्य रीति से भोजन नहीं मिलता। उपहार पर ही उन्हें निर्वाह करना पड़ता है। लोभ से, आवश्यकता से अथवा विवशता से प्रेरित होकर वे सिखाये गये कामों को पूरा करते हैं और दर्शकों का मनोरंजन तथा शिक्षकों का पारिश्रमिक जुटाते हैं। काम करो तो खाना मिलेगा अन्यथा नहीं। यह तरीका सारी प्रशिक्षण प्रक्रिया का धुरी है।
कुछ जानवर स्वभावतः चतुर होते हैं और कुछ मन्द बुद्धि। चतुर अपनी सीखी विधि को फुर्ती के साथ इशारा पाते ही पूरा कर देते हैं पर कुछ या तो भूल जाते हैं या उपेक्षा करते हैं। उन्हें कठिन और बढ़िया काम से हटाकर सरलता से हो सकने वाले खेल सिखा दिये जाते हैं। एक रैकून को जब बचत के पैसे जमा करने वाले डिब्बे में गिनती के पैसे डालने में अभ्यस्त न बनाया जा सका तो सीटी बजाने की सरल शिक्षा देकर छुट्टी दे दी गई।
संदेश वाहक कबूतर, नियमित रूप से नियत स्थानों पर पहरेदारी करने वाले कुत्ते, बिखरे सामान को इकट्ठा करने वाली बिल्लियां, रेडियो बजाने के शौकीन रैकून अपने बताये हुए काम ठीक तरह करते हैं।
अधिक समझदार जानवरों में कुत्ते और बन्दर आते हैं। वे किसी छोटी फैक्ट्री या दुकान के मालिक का पूरी तरह हाथ बटाते हैं। ढेर की वस्तुओं को छांटकर अलग अलग कर देना, उन्हें अलग-अलग स्थानों पर यथा क्रम लगा देना, उन्हें कुछ ही दिन में आ जाता है। घड़ी देखकर नियत समय का अनुमान कर लेना और तदनुसार अपनी ड्यूटी में हेर-फेर कर देना उनमें से अधिकांश को आ जाता है। प्रेसर कुकर में भोजन पकते छोड़कर मालिक चला जाता है और जब पक जाने की सीटी बजती है तो बन्दर द्वारा स्विच बन्द करके उस काम को पूरा कर देना सहज ही आता है। ऐसे-ऐसे अनेक काम वे सीख जाते हैं। तोता, मैना मनुष्य की नकल करने के लिए प्रसिद्ध थे और अन्य कई पशु-पक्षियों को भी थोड़ा बहुत मानवी भाषा और उसका तात्पर्य समझने का अभ्यास होना लगा है।
ब्रिलैण्ड केलर का 280 एकड़ भूमि पर बना प्राणि प्रशिक्षण गृह—‘‘एनीमल विहेवियर एन्टर प्राइस’’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसकी वार्षिक आमदनी 25 लाख रुपया है। इस आय से वे नई प्रयोगशालाएं और नये प्रशिक्षण गृह स्थापित करते जा रहे हैं। अब तक सरकस वालों को ही पद श्रेय प्राप्त था कि वे खतरनाक जानवरों को कुछ खेल दिखाने के लिए प्रशिक्षित करते हैं। इस दिशा में ब्रिलैण्ड के प्रयोग प्राणियों के बौद्धिक विकास की समस्या सुलझाने की दृष्टि से हो रहे हैं। उनकी शिक्षण पद्धति को ‘कंडीशनिंग थियरी’ कहा जाता है। जिसका आधार प्राणियों को यह समझा देना कि ‘ऐसा करने से ऐसा होगा।’ कर्मफल का सिद्धान्त जानकर पशु-पक्षी भी यह समझ जाते हैं कि हमारे लिए क्या करना लाभदायक है और क्या करना हानिकारक। एक मनुष्य ही ऐसा है जो सब कुछ सीख कर भी जीवन समस्याओं के सुलझाने में भूल पर भूल करता रहता है और कर्मफल के सिद्धान्त का जानकार होते हुए भी नशे बाजी जैसे अनेक प्रसंगों में उसकी पूरी उपेक्षा करता है।
प्रशिक्षण से पशु-पक्षी बौद्धिक विकास की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं और अपने लिए तथा दूसरों के लिए अधिक उपयोगी हो सकते हैं। ऐसा ही उपयोगी शिक्षण 400 करोड़ आबादी वाले संसार में रहने वाले 300 करोड़ पिछड़े लोगों को भी मिल सके तो वे आज की स्थिति से निस्संदेह कहीं ऊंचे उठ सकते हैं।
मानवीय उत्कर्ष में उनका योग
इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि यदि प्रयत्न किये जायं तो मानवीय सभ्यता के विकास में पशु-पक्षियों से काफी योगदान प्राप्त किया जा सकता है। पिछले दिनों कबूतर में पायी जाने वाली विलक्षण परीक्षण बुद्धि, स्मरण शक्ति का पता चला तो मास्को के एक इंजीनियरिंग कारखाने के विशेषज्ञों ने उनकी इस अद्भुत क्षमता का उपयोग करने का निश्चय किया। एक बाल-बियरिंग कारखाने में बनने वाले बाल-वियरिंग में से कुछ खरोंच व चोट खाये बियरिंगों को छांटकर अलग करने की समस्या थी। कुशल से कुशल कारीगर भी उन्हें खोजने में चूक जाते थे किन्तु कुछ कबूतरों को कुल 3 सप्ताह की ट्रेनिंग देकर इस कार्य में लगाया गया तो उन्होंने कुशल कारीगरों को भी एक ओर धकेल दिया। अब इनमें से प्रत्येक कबूतर एक घण्टे में औसत 3500 बाल-बियरिंगों की जांच कर लेता है, विलक्षण बात तो यह है कि अभी तक उनमें चूक का प्रतिशत शून्य से ऊपर नहीं उठ पाया। मनुष्य के मस्तिष्क में ‘‘न्यूरोन’’ जिनमें स्मृति के बीज विद्यमान होते हैं, कणों की संख्या अरबों-खरबों होती हैं। कबूतर की तुलना में इस मस्तिष्क का यदि पूर्ण विकास किया जा सके तो सारे संसार की जितनी लाइब्रेरियां हैं उन्हें केवल एक ही मनुष्य अपने एक ही जीवन काल में आसानी से कण्ठस्थ कर सकता है।
स्मरण-शक्ति में मधुमक्खियां, बर्रे तथा चींटियां अद्वितीय सामर्थ्यवान जीव हैं। इन पर कई प्रयोग करके यह देखा गया है कि वे चाहे जितना भटका दी जावें, उन्हें अपने घर तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं होती। ध्वनि और गन्ध पहचानने की तो इनमें बहुत ही विचित्र क्षमतायें पाई जाती हैं। जर्मनी में एक विचित्र प्रयोग किया—टेलीफोन के एक रिसीवर से एक फीट दूर, एक मादा झींगुर और एक मादा टिड्डे को रखा गया। वहां से बहुत दूर पहले एक नर झींगुर को ट्रान्समीटर के पास रखा गया। जैसे ही उसने ट्रान्समीटर के पास ध्वनि की और वह ध्वनि रिसीवर तक पहुंची मादा झींगुर तुरन्त अपने स्थान से भागकर रिसीवर में जा घुसी, यद्यपि रिसीवर में उसे अपना प्रेमी नहीं मिला, पर अपने प्रेमी की आवाज पहचानने में उसने भूल नहीं की। मादा टिड्डा अभी अपने स्थान पर ही जमा था। दुबारा ट्रान्समीटर के पास टिड्डे की ध्वनि कराई गई तो इस बार रिसीवर में मादा टिड्डा भागकर आई और यह सिद्ध कर दिया कि वे अपने वंश को पहचानने की सूक्ष्म बुद्धि से पूरी तरह ओत-प्रोत हैं।
पानी के अन्दर घण्टों तक बने रहने का वैज्ञानिक आविष्कार मनुष्य अब इस बीसवीं शताब्दी में कर पाया है, पर यह विद्या जल मकड़े को अनादि काल से ज्ञात है। वह पानी के अन्दर की शैवाल के सहारे अपना मकान बनाती है और उसमें चिरकाल तक ऑक्सीजन प्राप्त करते रहने के लिए सतह से बुलबुले पकड़-पकड़ कर जमा लेती है, यह बुलबुले ही उसे वायु देते रहते हैं और इस तरह मकड़ी वर्षों तक जल के भीतर बनी रहती है। मनुष्य ने आज जो जल में रहने की वैज्ञानिक-पद्धति का विकास किया है, इसकी मार्गदर्शक यह जल मकड़ी ही है। फिर भी वह एक सीमित अवधि तक ही जल में रह सकता है वहां नियमित बस्तियां बसाने और आनन्दमय जीवन जीने योग्य परिस्थितियों के विकास में उसे वर्षों लग जायेंगे।
लम्बे समय तक जीव-जन्तुओं के इस तरह सुव्यवस्थित, विवेकपूर्ण और सुसंस्कृत जीवन क्रम का अध्ययन करने के सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री हेनरी बेस्टन ने बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण समीक्षा प्रस्तुत की है—वे लिखते हैं प्रकृति से परे बनावटी जीवन जीने वाला इन्सान, इन नन्हें प्रकृति पुत्रों को ज्ञान के चश्मे से देखता, उनकी अपूर्णता पर दया दिखाता, उनकी निम्नतर योनि के जीव होने की विवशता पर तरस खाता है किन्तु यह उसकी भूल ही नहीं जबर्दस्त भूल है। वह यह भूल जाते हैं कि वे हमारी दुनिया से अधिक प्राचीन और एक परिपूर्ण जगत के प्राणी हैं। वे कहीं अधिक समर्थ, सुव्यवस्थित और इन्द्रिय क्षमताओं से सम्पन्न हैं जो हम या तो खो चुके या जिन्हें प्राप्त करने में मनुष्य जाति को अभी सदियों की साधना करनी पड़ेगी। वे न तो हमसे तुच्छ हैं, न दया के भिखारी। इस धरती की शोभा और शान में वे हमारे समान सहचर और सहभागी हैं मनुष्य चाहे तो उनसे स्वयं भी बहुत कुछ सीख सकता है।
हम लें ही नहीं योगदान दें भी
ज्ञान अनायास ही किसी को प्राप्त नहीं हो जाता। प्रयत्न, परिश्रम, इच्छा और परिस्थिति के आधार पर उसे पाया और बढ़ाया जाता है। मनुष्य को बुद्धिमान कहा जाता है, पर यह बुद्धिमत्ता सापेक्ष है। ग्रहण करने का—समझने का तन्त्र दूसरे प्राणियों को भी अवसर और साधन मिलें तो वे भी विकासोन्मुख हो सकते हैं और क्रमशः आगे बढ़ते हुए आज की अपेक्षा कहीं आगे पहुंच सकते हैं।
कुत्ते को अपनी श्रेणी के दूसरे जानवरों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान माना जाता है। उसने यह स्थिति अकस्मात ही प्राप्त नहीं करली। मुद्दतों से वह मनुष्य का साथी बनकर रहता चला आया है। कुछ तो मनुष्य ने अपनी आदतों और आवश्यकताओं के अनुरूप उसे ढाला है। कुछ वह अपने अन्नदाता का अनुग्रह पाने के लिए स्वयं ढला है। संयोग और परस्पर आदान-प्रदान ने उसे इस स्थिति में पहुंचाया है। जंगली कुत्ते अभी भी योरोप के कई देशों में झुण्ड के झुण्ड पाये जाते हैं। नस्ल उनकी भी लगभग वैसी ही है पर स्वभाव में जमीन-आसमान जितना अन्तर। पालतू और जंगली कुत्तों की शकल भले ही मिलती-जुलती है आदतों में जरा भी साम्य नहीं होता। पालतू बिल्ली और जंगली बिल्ली में भी यही अन्तर मिलेगा। पालतू बिल्ली ने मनुष्य की आदतों को पहचान कर अपने को बहुत कुछ अनुकूलता के ढांचे में ढाला है। जब कि जंगली बिल्ली बिलकुल जंगली की जंगली बनी हुई है। इसे शिक्षण प्रक्रिया का श्रेय कहना चाहिए।
भारत के अतिरिक्त अफ्रीका आदि देशों में ऐसे कई बालक भेड़ियों की मांद में पाये गये हैं जो उन्होंने खाये नहीं, पाल लिये। इन बालकों को जब बड़ी उम्र में पकड़ा गया तो उनमें मनुष्य जैसी कोई प्रवृत्ति न थी। वे चारों हाथ-पैरों से भेड़ियों की तरह चलते थे। कच्चे मांस के अतिरिक्त और कुछ खाते न थे, आवाज भी उनकी अपने पालन करने वालों ही जैसी थी। अन्य आदतों में भी उन्हीं के समान। ज्ञान ग्रहण का माद्दा बेशक उनमें रहा होगा पर परिस्थितियों की अनुकूलता के अभाव में उसका विकास सम्भव ही न हो सका।
दूसरी ओर अल्प विकसित पशु-पक्षी समुचित शिक्षण प्राप्त करके ऐसे करतब दिखाते हैं जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। मदारी लोग रीछ, बन्दरों को सिखाते हैं और उनके तमाशे गली, मुहल्लों में दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते हुए अपनी जीविका कमाते हैं, सरकसों में सिखाये-सधाये शेर, हाथी, घोड़े, ऊंट, बकरे, रीछ, बन्दर आदि ऐसे कौतुक करते हैं जैसे मनुष्य भी कठिनाई से ही कर सके। इससे यही सिद्ध होता है कि शिक्षा और शिक्षक में—शिक्षा का महत्व असाधारण है। उसके द्वारा अल्प बुद्धि या बुद्धिहीन समझे जाने वाले पशु भी बहुत कुछ कर सकते हैं जबकि बुद्धिमान समझा जाने वाला मनुष्य शिक्षण का उचित अवसर न मिलने पर मूर्ख और निकृष्ट कोटि की गन्दी आदतों वाला बना रहता है।
पशुओं को प्रशिक्षित करने, उन्हें अधिक उपयोगी और समुन्नत बनाने का प्रयत्न जहां भी किया गया है वहां आशाजनक सफलता मिली है। मस्तिष्कीय विकास के अनुसार शिक्षा ग्रहण करने की मात्रा तथा अवधि में अन्तर हो सकता है पर इतना निश्चित है कि शिक्षा निरर्थक नहीं जाती। प्रयत्न किया जाय तो पालतू पशुओं को अब की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान तथा उपयोगी बनाया जा सकता है और जंगली आदतों वाले जानवरों को सभ्यता, अनुशासन तथा जानकारी की दिशा में अधिक शिक्षित किया जा सकता है। लगभग हर प्राणी में ज्ञान प्राप्त कर सकने की मूल प्रवृत्तियां मौजूद हैं। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि उन्हें भी अपना छोटा भाई माने और बौद्धिक प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने में सहयोग प्रदान करें।
प्रसन्नता की बात है कि इस दिशा में अब अधिक ध्यान दिया जा रहा है और विभिन्न पशु-पक्षियों को इस योग्य बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है कि वे अधिक बुद्धिमान बन सकें और मनुष्य के लिए अधिक सहायक एवं उपयोगी सिद्ध हो सकें। जर्मनी के मुन्स्टर विश्व विद्यालय के प्रोफेसर रेन्स तथा उनकी सहयोगी कुमारी उकर इस विषय में बहुत दिनों से अनुसन्धान कर रहे हैं और पशुओं को प्रशिक्षित करने की विधियों का आविष्कार करने में निरत हैं।
मलाया में पाई जाने वाली एक विशेष प्रकार की बिल्ली ‘सियेट’ तथा ‘मंगूस’ नाम के एक अन्य पशु को उन लोगों ने प्रशिक्षित करने में बड़ी सफलता पाई। वे रंगों की भिन्नता तथा दूसरी कई बातों में प्रवीण हो गये।
कोहलर ने पक्षियों को गिनती सिखाने तथा वस्तुओं की भिन्नता स्मरण रखने में शिक्षित कर लिया। वे शब्दों का भावार्थ भी समझने लगे।
प्रोफेसर सन्स की छात्रा ‘सियेट’ निरन्तर रुचि पूर्वक पढ़ती रही और करीब 30 प्रकार के पाठ पढ़कर उत्तीर्ण होती रही। उससे 34 हजार बार प्रयोग कराये गये जिसमें वह 70 से लेकर 84 प्रतिशत तक सफल होती रही। प्रोफेसर महोदय ने अपनी पुस्तक में उपरोक्त बिल्ली को पढ़ाने और उसकी भूल सुधारने की विधियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है।
हाथी को दिखाई देने वाली वस्तु और सुनाई देने वाली ध्वनियों का सही तरीके से विश्लेषण करना नहीं आता पर वह इशारे समझने में बहुत प्रवीण है। संकेतों के आधार पर उसे भविष्य में बहुत आगे तक प्रशिक्षित किया जा सकेगा और उसे मनुष्य का उपयोगी साथी, सहायक बनाया जा सकेगा। बन्दर के बारे में भी ऐसी ही आशा की जा सकती है। उसकी चंचल प्रकृति और अस्थिर मति को सुधारा जा सकता है और मानव परिवार में कुत्ते की तरह, उपयोगी जीव की तरह सम्मिलित किया जा सकता है।
कुत्ते का भौंकना सुनकर उसका मालिक यह आसानी से बता सकता है कि उसके चिल्लाने का मतलब क्या है। भूख, प्यास, थकावट, शीत, गुस्सा, चेतावनी आदि कारणों को लेकर भौंकने के स्वर तथा स्तर में जो अन्तर रहता है उसे पहचान लेना कुछ कठिन नहीं है। कुत्ते की भाषा मनुष्य समझता हो सो बात ही नहीं है। कुत्ते भी मनुष्य की भाषा समझ सकते हैं। अभ्यास कराने पर उन्हें 100 शब्दों तक का ज्ञान कराया जा सकता है और उन आदर्शों के आधार पर उन्हें काम करने के लिए अभ्यस्त किया जा सकता है। 60 समझने तक में तो अभी भी कई कुत्ते सफलता प्राप्त कर चुके हैं। शब्द के साथ-साथ उसके कहने का विशेष ढंग और भाव मुद्रा का स्वरूप मालिक को भी सीखना पड़ता है। कानों से बहरे लोग सामने वाले के होठों का संचालन तथा मुखाकृति का उतार-चढ़ाव देखकर लगभग आधी बात पकड़ लेते हैं। उसी प्रकार कुत्ते को आदेश देते समय, मात्र शब्दों का उच्चारण ही काफी नहीं वरन् मालिक को अपना लहजा, अदा और तरीका भी शब्द के साथ मिश्रित करके आदेश की एक नई शैली का आविष्कार करना पड़ता है। कुत्ते को ऐसी ही भाव और शब्द मिश्रित भाषा से ही आज्ञानुवर्ती बनाया जा सकता है।
कुत्ते रास्ता चलते बीच-बीच में पेड़-पौधे, खम्भे आदि पर बार-बार पेशाब करते चलते देखे गये हैं। इस आधार पर वे अन्य साथियों को उस मार्ग से गुजरने की सूचना देते हैं। यह मूत्र गन्ध उस क्षेत्र पर उस कुत्ते के आधिपत्य की सूचना देती है और लौटते समय उसी रास्ते का संकेत देती है।
लन्दन चिड़ियाघर के अधिकारी डा. डंसमंड मारिस का कथन है कि कुत्ते का दुम हिलाना, उसके मनोभावों के प्रकटीकरण से सम्बन्धित है। विभिन्न मनःस्थितियों में उसकी पूंछ अलग-अलग ढंग से हिलती है। उसे समझा जा सके तो स्काउटों की ‘झण्डी संकेत पद्धति’ के अनुसार कुत्ते के मनोभावों को समझा जा सकता है।
कुत्ते में एक अद्भुत क्षमता निकटवर्ती भविष्य ज्ञान की है। वे ऋतु परिवर्तन की पूर्व सूचना दे सकते हैं और कई बार तो दैवी विपत्तियों की पूर्व सूचना भी देते हैं। कुछ समय पूर्व लिन माडल के डेवन प्रदेश में विनाशकारी बाढ़ आई थी। जिसमें भारी धन-जन की हानि हुई। दुर्घटना से 4 घण्टे पूर्व सारे नगर के कुत्तों ने इकट्ठे होकर इस बुरी तरह रोना शुरू किया कि लोग दंग रह गये और तंग आ गये। जब बाढ़ आ धमकी तब समझा गया कि कुत्तों का इस प्रकार सामूहिक रूप से रोना विपत्ति की पूर्व सूचना के लिए था।
बिल्लियां भी कुत्तों से पीछे नहीं। मस्तिष्कीय सक्षमता की दृष्टि से वे कई बातों में और भी आगे हैं। उन्हें सिखा-पढ़ा कर, उपयोगी बनाया जाना अन्य छोटे पशुओं की अपेक्षा अधिक सरल है।
पशुओं में ज्ञान के मूलतत्व ही विद्यमान नहीं हैं वरन् उनमें भावों की अभिव्यक्ति का भी माद्दा है। टूटी-फूटी उनकी भाषा भी है, जिसके आधार पर वे अपनी जाति वालों के साथ विचार विनिमय कर सकते हैं। इस भाषा को और अधिक विकसित किया जा सकता है। इस विकास के आधार पर मनुष्य के साथ अन्य प्राणियों के विचार विनिमय का द्वार भी खुल सकता है।
वैटजेल नामक एक प्राणि प्रेमी ने सन् 1801 में कुत्ते, बिल्ली तथा कई पक्षियों की भाषा का एक शब्द कोष बनाया था। फ्रांस निवासी द्यूपो नेमर्स ने कौओं की आवाज पर एक पुस्तक प्रकाशित की थी। योरोप के कई विश्वविद्यालय इस सम्बन्ध में अपना अनुसन्धान कार्य कर रहे हैं इनमें केम्ब्रिज विश्वविद्यालय का एक ‘शब्द कोष’ तो लगभग तैयार भी हो चला है।
‘चिपेंजी इंटेलीजेन्स एण्ड इट्ज वोकल एक्सप्रेशन’ पुस्तक लेखक द्वय श्री ईयर्कस और श्रीमती लर्नेड ने चिंपैंजी बन्दरों की लगभग 30 ध्वनियों का संग्रह और विश्लेषण करके एक प्रकार से उनका भाषा विज्ञान ही रच दिया है।
हर हर मन फ्रेबुर्ग ने अपनी पुस्तक ‘आउट आफ अफ्रीका’ में ऐसे अनेक संस्मरण लिखे हैं जिसमें गोरिल्ला और मनुष्य के बीच बात-चीत भावों का आदान-प्रदान और सहयोग संघर्ष का विस्तृत परिचय मिलता है। साधारणतया जानवर अपनी ही जाति के लोगों से विचार विनिमय कर पाते हैं पर यदि सिखाया जाय तो वे न केवल मनुष्य के साथ हिलमिल सकते हैं वरन् एक जाति का दूसरी जाति वाले अन्य जीवों के साथ व्यवहार—सम्पर्क बनाया और बढ़ाया जा सकता है।
जानवरों का भाषा कोष तैयार करने में कई संस्थाओं ने बहुत काम किया है और कितने ही अन्वेषण निरत हैं। केम्ब्रिज की ‘दी एशियाटिक प्राइमेट एक्स पेडीशन’ संस्था ने इस सम्बन्ध में बहुत खोज की है। इस संस्था के शोधकर्ता विश्व भर में घूमे हैं और विभिन्न पशुओं की आवाजें रिकार्ड की हैं। मोटे तौर पर यह आवाज कम होती हैं पर बारीकी से उनके भेद प्रभेद करने पर वे इतनी अधिक हो जाती हैं कि उनके सहारे उन जीवों के दैनिक जीवन की पारस्परिक सहयोग के लिए आवश्यक बहुत सी जरूरतें पूरी हो सकें। पैरिक के प्रो. चेरोन्ड और अमेरिका के डा. गार्नर ने अपनी जिन्दगी का अधिकांश भाग इसी शोध कार्य में लगाया है।
बन्दरों की भाव-भंगिमा उनकी मनःस्थिति को अच्छी तरह प्रकट करती है। जरा गम्भीरता से उनके चेहरे पर दृष्टि जमाई जाय तो सहज ही पता चल जायगा कि वह इस समय किस ‘मूड’ में है। उसके डरने, प्रसन्न होने, क्रोध करने, थक जाने, दुःख व्यक्त करने, साथियों को बुलाने आदि के स्वर ही नहीं भाव भी होते हैं जिन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है।
चिंपैंजी बन्दर तो हंस भी सकता है। बच्चों के वियोग में चिंपैंजी मादा रोती देखी गई है। नीचे वाला होट आगे निकला हुआ देखकर—आंखों को ढके बैठी हुई मादा चिंपैंजी को शोकग्रस्त समझा जा सकता है। इस स्थिति में उससे सहानुभूति प्रकट करने दूसरे साथी भी इकट्ठे हो जाते हैं और संवेदना प्रकट करते हैं।
गोरिल्ला अपने क्रोध की अच्छी अभिव्यक्त कर सकता है। गिव्वन बन्दर सवेरे ही उठकर शोर करते हैं जिसका मतलब है कि यह क्षेत्र हमारा है। कोई दूसरे इस क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयत्न न करें।
अन्य प्राणियों की उपेक्षा के गर्त में पड़ा रहने देने या उनके शोषण करते रहने में मनुष्यता का गौरव बढ़ता नहीं। अपनी प्रगति से ही सन्तुष्ट न रहकर हमारा यह भी प्रयत्न होना चाहिए कि अन्य प्राणियों के बौद्धिक उत्कर्ष में समुचित ध्यान दें और सहयोग प्रदान करें।
मनुष्य की सर्व श्रेष्ठता का आधार यही तो माना जाता है कि उसमें बुद्धि एवं विवेक का तत्व विशेष है। उसमें कर्त्तव्य परायणता, परोपकार, प्रेम, सहयोग सहानुभूति सहृदयता तथा सम्वेदनशीलता के गुण पाये जाते हैं। किन्तु इस आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ तभी माना जा सकता है जब सृष्टि के अन्य प्राणियों में इन गुणों का सर्वथा अभाव हो और मनुष्य इन गुणों को पूर्ण रूप से क्रियात्मक रूप से प्रतिपादित करें। यदि इन गुणों का अस्तित्व अन्य प्राणियों में भी पाया जाता है और वे इसका प्रतिपादन भी करते हैं तो फिर मनुष्य को सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानने के अहंकार का क्या अर्थ रह जाता है।
शेर, हाथी, गैंडा, चीता, बैल, भैंसे, गीध, शुतुरमुर्ग, मगर, मत्स्य आदि न जाने ऐसे कितने थलचर, नभचर और जलचर जीव परमात्मा की इस सृष्टि में पाये जाते हैं जो मनुष्य से सैकड़ों गुना अधिक शक्ति रखते हैं। मछली जल में जीवन भर तैर सकती है, पक्षी दिन-दिन भर आकाश में उड़ते रहते हैं क्या मनुष्य इस विषय में उनकी तुलना कर सकता है? परिश्रम शीलता के सन्दर्भ में हाथी, घोड़े ऊंट, बैल, भैंसे आदि उपयोगी तथा घरेलू जानवर जितना परिश्रम करते और उपयोगी सिद्ध होते हैं, उतना शायद मनुष्य नहीं हो सकता। जबकि इन पशुओं तथा मनुष्य के भोजन में बहुत बड़ा अन्तर होता है।
पशु-पक्षियों के समान स्वावलम्बी तथा शिल्पी तो मनुष्य हो ही नहीं सकता। पशु-पक्षी अपने जीवन तथा जीवनोपयोगी सामग्री के लिए किसी पर कभी भी निर्भर नहीं रहते। जंगलों पर्वतों, गुफाओं तथा पानी में अपना आहार आप खोज लेते हैं। उन्हें न किसी पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता पड़ती है और न किसी संकेतक की। पशु-पक्षी स्वयं एक दूसरे पर भी इस सम्बन्ध में निर्भर नहीं रहते। अपनी रक्षा तथा आरोग्यता के उपाय भी बिना किसी से पूछे ही कर लिया करते हैं। जीवन के किसी भी क्षेत्र में पशु-पक्षियों जैसा स्वावलम्बन मनुष्यों में कहां पाया जाता है। यहां तो मनुष्य एक दूसरे पर इतना निर्भर है कि यदि वे एक दूसरे की सहायता न करते रहें तो जीना ही कठिन हो जाये।
विलक्षण बौद्धिक क्षमतायें आदि काल से ही वैज्ञानिकों और जीवशास्त्रियों के लिये एक प्रकार की चुनौती रही हैं। बुद्धि, ज्ञान, चिन्तन की क्षमता—यही वह तत्व हैं जो मृत और जीवित का अन्तर स्पष्ट करते हैं। अतएव जीवन को बौद्धिक क्षमता में केन्द्रित कर वैज्ञानिक प्रयोगों की प्रणाली अपनाई गई। इस दिशा में मस्तिष्क की जटिल संरचना एक बहुत बड़ी बाधा है इस कारण रहस्य अभी तक रहस्य ही बने हुये हैं, तथापि अब तक जितना जाना जा सका है, उससे वैज्ञानिक यह अनुभव करने लगे हैं कि बुद्धि एक सापेक्ष तत्व है और अर्थात् सृष्टि के किसी कौने से समष्टि मस्तिष्क काम कर रहा हो तो आश्चर्य नहीं, जीवन जगत उसी से जितना अंश पा लेता है उतना ही बुद्धिमान होने का गौरव अनुभव करता है।
वैज्ञानिक अब इस बात को अत्यधिक गम्भीरता से विचारने लगे हैं कि मानव-मस्तिष्क और उसकी मूलभूत चेतना का समग्र इतिहास अपने इन कम विकसित समझे जाने वाले भाइयों के मस्तिष्क की प्रक्रियाओं से ही जाना जा सकता है। इसके लिये अब तरह-तरह के प्रयोग प्रारम्भ किये गये हैं।
मनुष्य की तरह ही देखा गया कि कई बार एक कुत्ता अत्यधिक बुद्धिमान पाया गया। जब कि उसी जाति के अन्य कुत्ते निरे बुद्धू निकले। चूजे अपने बाप मुर्गे की अपेक्षा अधिक बुद्धि चातुर्य का परिचय देते हैं। डाल्फिन मछलियों की बुद्धिमता की तो कहानियां भी गढ़ी गई हैं। बुद्धि परीक्षा के लिये कोई बहुत सम्वेदनशील यन्त्र तो अभी तक नहीं गढ़े जा सके किन्तु स्वादिष्ट भोजन की पहचान, जटिल परिस्थितियों के हल आदि के लिये जो विभिन्न प्रयोग किये गये उनसे पहली दृष्टि में यह स्पष्ट हो गया कि बन्दर डाल्फिन, (काली की अपेक्षा लाल लोमड़ी) अधिक चतुर होते हैं नीलकण्ठ, संघकाक और कौवों की बुद्धि स्वार्थ प्रेरित जैसी होती है—विवेक जनक नहीं। रूस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. लियोनिद क्रुशिन्स्का ने अपने विचित्र प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि जिस तरह चिन्तन से मानवीय शक्ति का ह्रास होता है, पशु-पक्षियों में भी यह प्रक्रिया यथावत होती है। इनमें कुछ तो डर जाते हैं, कुछ बीमार पड़ जाते हैं सम्भवतः इन्हीं कारणों से वे जीवन की गहराइयों में नहीं जाकर प्राकृतिक प्रेरणा से सामान्य जीवन यापन और आमोद-प्रमोद के क्रिया-कलापों तक ही सीमित रह जाते हैं।
प्रो. क्रुशिन्स्की के अनुसार तर्क, विवेक और प्राकृतिक हलचलों के अनुरूप अपने को समायोजित करने की बुद्धि अन्य प्राणियों में भी यथावत होती है इसी कारण वे पर्यावरण की समस्याओं को झेलते हुये भी अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं जब कि मनुष्य उनमें बुरी तरह जकड़ता जा रहा है। उसके अपने ही कारनामे चाहे वह विशाल औद्योगिक प्रगति हो या अणु-आयुधों का निर्माण, उसके अपने ही विनाश के साधन बनते जा रहे हैं।
पेट ही मनुष्य का साध्य हो, तब तो उससे अच्छा कर्कट है, जो रहता तो समुद्र में है किन्तु वह नारियल वृक्ष पर चढ़कर फल तोड़ लाता है।
जीवों की बुद्धिमत्ता अपने विकसित रूप में तब अभिव्यक्त होती है जब उनके सामने कोई संकट आ जाता और आत्म रक्षा की आवश्यकता आ पड़ती है। हिरन, खरगोश, चीते और कंगारू बहुत तेज दौड़ते हैं किन्तु जब इन्हें अपने सामने कोई संकट आता दिखाई देता है तब! वे जानते हैं कि उस स्थिति में सामान्य गति से बचाव नहीं किया जा सकता अतएव वे अपनी गति को अत्यधिक तीव्र कर देते हैं। चीता उस स्थिति में 100 किलोमीटर प्रति घन्टे की रफ्तार से दौड़ जाता है, कंगारू उस स्थिति में हवा में जोरदार कुलांचे लगाता है जिससे उसकी मध्यम गति अपनी प्रखरता तक पहुंच जाती है। यदि भागने में भी जान न बचे तो वह खड़े होकर अपना शक्ति प्रदर्शन करते हैं। बिल्ली अपने बाल फुलाकर तथा गुर्राकर यह प्रदर्शित करती है कि उसकी शक्ति कम नहीं, कुछ जानवर दांत दिखाकर शत्रु को डराते हैं, तो कुछ घुड़ककर, कुछ पंजों से मिट्टी खोदकर इस बात के लिए भी तैयार हो जाते हैं कि आओ जब नहीं मानते तो दो-दो हाथ कर ही लिये जायें। स्पाही तो मुंह विपरीत दिशा में करके अपने नुकीले तेज कांटे इस तरह फर्राकर फैला देती है कि शत्रु को लौटते ही बनता है। अमेरिका में पाई जाने वाली स्कंक नामक गिलहरी अपने शरीर से एक विलक्षण दुर्गन्ध निकाल कर शत्रु को भगा देती है। आस्ट्रेलिया के कंगारू रैट तो सचमुच ही आंखों में धूल झोंकना, जो कि बुद्धिमत्ता का मुहावरा है, जानता है। कई बार सांप का उससे मुकाबला हो जाता है तो यह अपनी पिछली टांगों से इतनी तेजी से धूल झाड़ता है कि कई बार तो सर्प अन्धा तक हो जाता है। उसे अपनी जान बचाकर भागते ही बनता है।
कछुआ, कर्कट तथा अमेरिका में पाये जाने वाले पैंगोलिन व आर्मडिलो शत्रु-आक्रमण के समय अपने सुरक्षा कवच में दुबक कर अपनी रक्षा करते हैं तो बारहसिंगा युद्ध में दो-दो हाथ की नीति अपना कर अपने पैने सींगों से प्रत्याक्रमण कर शत्रु को पराजित कर देता है।
कहते हैं कि भालू मृत व्यक्ति पर आक्रमण नहीं करते। इसकी पहचान के लिये वे नथुनों के पास मुंह ले जाकर यह देखते हैं कि अभी सांस चल रही है या नहीं। चतुर लोग अपनी सांस रोक कर उसे चकमा दे जाते हैं यह बात कहां तक सच है कहा नहीं जा सकता, किन्तु ओपोसम सचमुच ही विलक्षण बुद्धि और धैर्य का प्राणी है वह संकट के समय अपनी आंखें पलट कर जीभ लटका कर मृत होने का ऐसा कुशल अभिनय करता है जैसा ‘सिनेमा के नायक’। इस तरह अपनी सूझबूझ से वह अपने को मृत्यु के मुख में जाने से बचा लेता है।
मोर आक्रमण की स्थिति से नृत्य मुद्रा में निबटता है अपने पंखों को छत्र की तरह बनाकर वह आक्रमणकारी रोष प्रकट कर शत्रु को धमका देता है। कुछ छोटे-छोटे पक्षी तो और भी चतुराई दिखाते हैं आक्रामक को देखकर ये लंगड़ा कर चलने का नाटक करते हैं। इससे इस बात का भ्रम होता है कि पहले ही इसे किसी ने घायल कर दिया है। इस स्थिति में आगंतुक सीधे आक्रमण करने की अपेक्षा पीछा करने की नीति अपनाता है। काफी दूर तक तो वह इसी तरह पीछे-पीछे भगाता है इसी बीच वह एकदम फुर से उड़ जाता है और शिकारी देखता ही रह जाता है।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ (विश्व वन्य जीवन) त्रैमासिक पत्रिका के एक संस्करण में मलेशिया में पाई जाने वाली मछली एक्रोबेट का वर्णन छपा है। जिसमें बताया गया है कि यह मछली भोजन की तलाश में अपने बड़े-बड़े पंखों के सहारे वृक्षों पर भी चढ़ जाती है। यही नहीं वह अपने थुथने में पानी भर कर इस तरह की क्रिया करती है कि वह थुथना बन्दूक का सा काम करता है और पानी गोली का। अपनी इस प्राकृतिक गन से वह अपने भोजन के उपयुक्त जीवों का स्वयं शिकार कर लेती है। उसमें यह भी समझ होती है कि किस जीव को मारने के लिये कितनी बड़ी गोली प्रयुक्त की जाये। दागते समय वह उतने ही जल का प्रयोग करती है।
डेव हेड होव-कीड़ विलक्षण ध्वनियां निकाल लेने में बड़ा चतुर होता है। उसे यदि कहीं मधुमक्खी का छत्ता दीख जाये तो वह रानी मक्खी की-सी आवाज निकालता है। अन्य मक्खियां भुलावे में आ जाती हैं और यह महोदय चुपचाप छत्ते में घुसकर शहद चोरी कर लाते हैं।
हाथी की खोपड़ी ही बड़ी नहीं होती अपितु उनमें उसी अनुपात की बुद्धिमत्ता भी है। वे सूक्ष्म संकेतों को भी थोड़े प्रशिक्षण के बाद ही समझने लगते हैं। यही कारण है कि उसे भूतकाल में युद्ध भूमि में प्रयुक्त किया गया था। आज भी सवारी के काम में, सागौन के जंगलों में स्लीपर ढोने तथा सरकसों में विविध करतब दिखाने में प्रयुक्त होते हैं। जगपति चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘जीव जन्तुओं की बुद्धि’ में लिखा है एक हाथी ने एक बच्चे की जेब में सूंड़ डाली पता चला कि उसकी जेब में चीनी है हाथी उसे ही लेना चाहता था। हाथी को मिष्ठान्न अधिक प्रिय है सम्भवतः इसी से उसकी तुलना मोदक प्रिय गणेश जी से की जाती है। हाथी अपने गिरोह की प्रधान किसी वयोवृद्ध हथिनी को बनाते हैं इससे उनके मातृत्व के प्रति सम्मान का परिचय मिलता है।
सामान्य बुद्धि से देखें तो चींटियों का ही क्या मनुष्य जीवन भी खा-पीकर वासना, तृष्णा, अहंता में बिताया जाने वाला बेकार-सा जीवन है पर उपयोगिता और उपादेयता तब स्पष्ट होती है जब जीवन-प्रक्रिया के सूक्ष्म-तत्वों का भी बारीकी से अध्ययन, चिन्तन, और मनन किया जाये। चींटियां यों ढेर में बिलबिलाती दीखती हैं पर उनका हर कार्य व्यवस्थित-नियंत्रित और अपनी प्रभुसत्ता सम्पन्न रानी के इंगित पर चलता है। कोई भी चींटी न तो कभी निष्क्रिय होगी, न व्यर्थ के कार्य करेगी। जो कार्य जिसे सुपुर्द है वह वही करेगी। नर का काम है परिश्रम पूर्वक खाद्यान्न व्यवस्था, सैनिक पहरेदारी करते, मजदूर बोझा ढोते शव बाहर निकालते और शिल्ली भवन-निर्माण में जुटे रहते हैं। यही व्यवस्था मधुमक्खियों में भी समान रूप से पाई जाती है। मनुष्य की तरह पेट और प्रजनन में व्यस्त रहने पर भी उनमें अव्यवस्था और उच्छृंखलता के लिये कोई स्थान नहीं।
इंजीनियरिंग दक्षता विज्ञान युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। भारी-भारी बांधों के निर्माण से लेकर नहर निकाल कर जन-सुविधायें बढ़ाने के अनेक बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य हो रहे हैं किन्तु इस तरह का बुद्धि कौशल अन्य जीवों में भी कम नहीं। ऊदबिलाव को तो जीव शास्त्रियों ने कुशल इंजीनियर की पदवी तक दे डाली है। यह सुरंगी नहरें बनाने तथा मिट्टी के पुल निर्माण करने में बड़ा पटु होता है। हैम्पटन नगर में इस ऊदबिलाव के कारनामों से तो लोग बहुत ही तंग रहते हैं। नगर के बाहर एक झील है। ऊदबिलावों ने वहां से नगर के भीड़ वाले इलाकों तक में भीतर-भीतर सुरंगें बना रखी हैं। बहुत प्रयत्न करने के बाद भी आज तक न तो ऊदबिलाव ही पकड़े जा सके और न ही वह नहरें बन्द की जा सकीं जो इन्होंने जमीन के अन्दर-अन्दर बना रखी हैं।
मनुष्य शिल्प शिक्षा, अनुकरण तथा उपकरणों पर निर्भर रहता है। वह कोई भी वस्तु अथवा स्थान का निर्माण बिना किसी से सीखे, देखे अथवा औजारों के अभाव में नहीं कर सकता। जबकि पशु-पक्षी अपना निवास स्वयं अपने अन्तर्प्रेरणा से बना लिया करते हैं। न तो वे उसके लिये किसी के पास शिक्षा लेने जाते हैं और न उन्हें किन्हीं उपकरणों की आवश्यकता होती है। लोमड़ी, बिलाव तथा शृंगालों आदि के निवास कक्ष देखते ही बनते हैं। वे अपनी मांदों तथा विवरों में सब प्रकार की सुविधा का समावेश कर लेते हैं। पक्षियों के घोंसले तथा कोटर तो उनकी निर्माण कला के जीते जागते नमूने ही होते हैं। वया का घोंसला, मधुमक्खी का छत्ता, मकड़ी का जाला तथा चींटी, का विवर देखकर तो यही कहना पड़ता है कि परमात्मा ने इन क्षुद्र समझे जाने वाले जीवों को गजब की निर्माण बुद्धि दी है। वह सूक्ष्म शिल्प देखकर मनुष्य का मन ईर्ष्या कर उठता है। पशु-पक्षी अपनी घ्राण तथा दृष्टि शक्ति से ऋतुओं तथा आपत्तियों का ज्ञान इतना शीघ्र, सच्चा और यथार्थ रूप से कर लेते हैं कि मनुष्य के बनाये वैज्ञानिक बैरोमीटर आदि यन्त्र भी नहीं कर सकते। लोग पक्षियों एवं पशुओं की गतिविधियां देखकर ऋतु तथा संभाव्य के सम्बन्ध में बड़े-बड़े निर्णय कर लेते रहे हैं और उस सम्बन्ध में उन्हें कभी धोखा नहीं हुआ है। आज कल के प्रशिक्षित कुत्तों ने तो अपराधों तथा अपराधियों की खोज में चतुर से चतुर जासूसों को मात दे दी है। पशु-पक्षी किसी भी ज्योतिषी से बढ़कर आकाश की गतिविधियों का अध्ययन कर लेते हैं, उन्हें उनकी तरह किसी वेधशाला की आवश्यकता नहीं होती, उनकी वेधशाला उनकी नासिका तथा आंखों में ही बनी हुई है। पशु-पक्षियों से अधिक मार्ग का ज्ञान मनुष्यों के लिये किसी प्रकार भी सम्भव नहीं। एक स्थान के पक्षी को किसी भी स्थान पर ले जाकर क्यों न छोड़ दिया जाये वह बिना किसी भूल अथवा भ्रम के अपने स्थान पर लौट आयेगा। इसी विशेषता के कारण बहुत समय तक कबूतर तथा हंस आदि पक्षी पत्र-वाहक का उत्तरदायित्व निर्वाह करते रहे हैं।
यदि पशु-पक्षियों को प्रशिक्षित करने पर ध्यान दिया जाय तो वे भी मनुष्यों की तरह बुद्धिमान हो सकते हैं। मनुष्य भी आदिम काल में अन्य प्राणियों की तरह ही अनपढ़ था। सहयोग की वृत्ति अधिक रहने से एक ने दूसरे की सहायता की और संचित अनुभव का लाभ अपने साथियों को मिल सके इसका प्रयत्न किया। एक का अनुदान दूसरे को मिलने की पुण्य प्रक्रिया ने मनुष्य को पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक बुद्धिमान और अधिक क्रियाकुशल बनाया है। यदि यही आधार अन्य प्राणियों को मिल सके तो वे भी अब की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान हो सकते हैं। उनमें भी वे सब तत्व मौजूद हैं जो मनुष्य की तरह बुद्धिमान बन सकने का द्वार खोल सकते हैं। मनुष्य चाहे तो इस दिशा में अन्य प्राणियों को बहुत सहायता कर सकता है। अविकसित मस्तिष्क के बालकों को कुशल अध्यापक लिखा-पढ़ा कर बुद्धिमान बना देता है तो कोई कारण नहीं कि अन्य प्राणियों को प्रशिक्षित बनाने के लिए किये गये प्रयत्नों को सफलता न मिले।
इस संदर्भ में अमेरिका में मिसिसिपी राज्य के अन्तर्गत पोपरबिल नामक कस्बे के निवासी केलर ब्रिलैण्ड नामक एक अधेढ़ सज्जन विशेष रूप से प्रयत्न कर रहे हैं। यों वे मनोविज्ञान शास्त्र के स्नातक हैं, पर उन्होंने अपना प्रमुख कार्य तरह-तरह के प्राणियों को उनके वर्तमान स्तर से आगे की शिक्षा देकर अधिक बुद्धिमत्ता का परिचय दे सकने योग्य बनाने का अपनाया है। पशु मनोविज्ञान शास्त्र में उनके प्रयत्नों ने नई कड़ियां सम्मिलित की हैं।
ब्रिलैण्ड की पत्नी मेरियन भी इस प्राणि प्रशिक्षण कार्य में पूरी सहायता कर रही हैं। इन दिनों उन्होंने लगभग 40 किस्म के जीवों को अपने स्कूल में भर्ती किया हुआ है। जिनमें मछली, चूहे, कुत्ते, मुर्गे, तोते आदि सभी किस्म के प्राणी सम्मिलित हैं। अब तक उनके स्कूल से लगभग एक हजार प्राणी आश्चर्यजनक कार्य कर सकने और आकर्षण केन्द्र बन सकने योग्य विशेषताएं प्राप्त करके विदा हो चुके हैं। प्रशिक्षित जीवों को खरीदने वाले शौकीनों की कमी नहीं रहती, वे अपने मनपसन्द के प्राणी अच्छा मूल्य देकर खरीद ले जाते हैं और मनोरंजन का आनन्द लेते हैं। शिक्षकों को भी इस धंधे से अच्छी आजीविका प्राप्त होती रहती है।
इस विद्यालय की एक कक्षा की मुर्गियां आज्ञा देने पर जूक बाक्स का स्विच दबाकर फिल्मी रिकार्ड चालू कर देती हैं और उनकी ध्वनि पर तालबद्ध नृत्य करती हैं। मुर्गे टीम बनाकर खिलाड़ियों की तरह अपने-अपने मोर्चे पर आमने-सामने खड़े होते हैं और उस क्षेत्र में प्रचलित ‘वैसवाल’ खेल, सही कायदे, कानून के अनुसार खेलते हैं। उनमें से न कोई बेईमानी, चालाकी करता है और न लापरवाही। जो पार्टी हार जाती है वह बिना अपमान अनुभव किये, पर फैला कर रेत में बैठ जाती है।
रेनडियर प्रेस की मशीन चलाते हैं। कुत्ते वास्केट बाल खेलते हैं। बतखें स्वसंचालित ढोल बजाने की मशीन को चलाती हैं, दर्शक उस बाजे का आनन्द लेते हैं। खरगोश पियानों बजाते और दस फुट दूरी तक ठोकर मारकर गेंद फेंकते हैं। बकरियां कुत्ते के बच्चों को पालती और अपना दूध पिलाती हैं।
यह सारी शिक्षा ब्रिलैंड ने पुरस्कार का प्रलोभन देकर पूरी कराने की तरकीब निकाली है। वे इन प्राणियों को आरम्भ में एक कार्य सिखाते हैं। पीछे जब वे मालिक की मर्जी समझने और निबाहने का संकेत समझ लेते हैं तो प्रत्येक सफलता पर स्वादिष्ट भोजन देने का उपहार दिया जाने लगता है। उन्हें सामान्य रीति से भोजन नहीं मिलता। उपहार पर ही उन्हें निर्वाह करना पड़ता है। लोभ से, आवश्यकता से अथवा विवशता से प्रेरित होकर वे सिखाये गये कामों को पूरा करते हैं और दर्शकों का मनोरंजन तथा शिक्षकों का पारिश्रमिक जुटाते हैं। काम करो तो खाना मिलेगा अन्यथा नहीं। यह तरीका सारी प्रशिक्षण प्रक्रिया का धुरी है।
कुछ जानवर स्वभावतः चतुर होते हैं और कुछ मन्द बुद्धि। चतुर अपनी सीखी विधि को फुर्ती के साथ इशारा पाते ही पूरा कर देते हैं पर कुछ या तो भूल जाते हैं या उपेक्षा करते हैं। उन्हें कठिन और बढ़िया काम से हटाकर सरलता से हो सकने वाले खेल सिखा दिये जाते हैं। एक रैकून को जब बचत के पैसे जमा करने वाले डिब्बे में गिनती के पैसे डालने में अभ्यस्त न बनाया जा सका तो सीटी बजाने की सरल शिक्षा देकर छुट्टी दे दी गई।
संदेश वाहक कबूतर, नियमित रूप से नियत स्थानों पर पहरेदारी करने वाले कुत्ते, बिखरे सामान को इकट्ठा करने वाली बिल्लियां, रेडियो बजाने के शौकीन रैकून अपने बताये हुए काम ठीक तरह करते हैं।
अधिक समझदार जानवरों में कुत्ते और बन्दर आते हैं। वे किसी छोटी फैक्ट्री या दुकान के मालिक का पूरी तरह हाथ बटाते हैं। ढेर की वस्तुओं को छांटकर अलग अलग कर देना, उन्हें अलग-अलग स्थानों पर यथा क्रम लगा देना, उन्हें कुछ ही दिन में आ जाता है। घड़ी देखकर नियत समय का अनुमान कर लेना और तदनुसार अपनी ड्यूटी में हेर-फेर कर देना उनमें से अधिकांश को आ जाता है। प्रेसर कुकर में भोजन पकते छोड़कर मालिक चला जाता है और जब पक जाने की सीटी बजती है तो बन्दर द्वारा स्विच बन्द करके उस काम को पूरा कर देना सहज ही आता है। ऐसे-ऐसे अनेक काम वे सीख जाते हैं। तोता, मैना मनुष्य की नकल करने के लिए प्रसिद्ध थे और अन्य कई पशु-पक्षियों को भी थोड़ा बहुत मानवी भाषा और उसका तात्पर्य समझने का अभ्यास होना लगा है।
ब्रिलैण्ड केलर का 280 एकड़ भूमि पर बना प्राणि प्रशिक्षण गृह—‘‘एनीमल विहेवियर एन्टर प्राइस’’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसकी वार्षिक आमदनी 25 लाख रुपया है। इस आय से वे नई प्रयोगशालाएं और नये प्रशिक्षण गृह स्थापित करते जा रहे हैं। अब तक सरकस वालों को ही पद श्रेय प्राप्त था कि वे खतरनाक जानवरों को कुछ खेल दिखाने के लिए प्रशिक्षित करते हैं। इस दिशा में ब्रिलैण्ड के प्रयोग प्राणियों के बौद्धिक विकास की समस्या सुलझाने की दृष्टि से हो रहे हैं। उनकी शिक्षण पद्धति को ‘कंडीशनिंग थियरी’ कहा जाता है। जिसका आधार प्राणियों को यह समझा देना कि ‘ऐसा करने से ऐसा होगा।’ कर्मफल का सिद्धान्त जानकर पशु-पक्षी भी यह समझ जाते हैं कि हमारे लिए क्या करना लाभदायक है और क्या करना हानिकारक। एक मनुष्य ही ऐसा है जो सब कुछ सीख कर भी जीवन समस्याओं के सुलझाने में भूल पर भूल करता रहता है और कर्मफल के सिद्धान्त का जानकार होते हुए भी नशे बाजी जैसे अनेक प्रसंगों में उसकी पूरी उपेक्षा करता है।
प्रशिक्षण से पशु-पक्षी बौद्धिक विकास की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं और अपने लिए तथा दूसरों के लिए अधिक उपयोगी हो सकते हैं। ऐसा ही उपयोगी शिक्षण 400 करोड़ आबादी वाले संसार में रहने वाले 300 करोड़ पिछड़े लोगों को भी मिल सके तो वे आज की स्थिति से निस्संदेह कहीं ऊंचे उठ सकते हैं।
मानवीय उत्कर्ष में उनका योग
इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि यदि प्रयत्न किये जायं तो मानवीय सभ्यता के विकास में पशु-पक्षियों से काफी योगदान प्राप्त किया जा सकता है। पिछले दिनों कबूतर में पायी जाने वाली विलक्षण परीक्षण बुद्धि, स्मरण शक्ति का पता चला तो मास्को के एक इंजीनियरिंग कारखाने के विशेषज्ञों ने उनकी इस अद्भुत क्षमता का उपयोग करने का निश्चय किया। एक बाल-बियरिंग कारखाने में बनने वाले बाल-वियरिंग में से कुछ खरोंच व चोट खाये बियरिंगों को छांटकर अलग करने की समस्या थी। कुशल से कुशल कारीगर भी उन्हें खोजने में चूक जाते थे किन्तु कुछ कबूतरों को कुल 3 सप्ताह की ट्रेनिंग देकर इस कार्य में लगाया गया तो उन्होंने कुशल कारीगरों को भी एक ओर धकेल दिया। अब इनमें से प्रत्येक कबूतर एक घण्टे में औसत 3500 बाल-बियरिंगों की जांच कर लेता है, विलक्षण बात तो यह है कि अभी तक उनमें चूक का प्रतिशत शून्य से ऊपर नहीं उठ पाया। मनुष्य के मस्तिष्क में ‘‘न्यूरोन’’ जिनमें स्मृति के बीज विद्यमान होते हैं, कणों की संख्या अरबों-खरबों होती हैं। कबूतर की तुलना में इस मस्तिष्क का यदि पूर्ण विकास किया जा सके तो सारे संसार की जितनी लाइब्रेरियां हैं उन्हें केवल एक ही मनुष्य अपने एक ही जीवन काल में आसानी से कण्ठस्थ कर सकता है।
स्मरण-शक्ति में मधुमक्खियां, बर्रे तथा चींटियां अद्वितीय सामर्थ्यवान जीव हैं। इन पर कई प्रयोग करके यह देखा गया है कि वे चाहे जितना भटका दी जावें, उन्हें अपने घर तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं होती। ध्वनि और गन्ध पहचानने की तो इनमें बहुत ही विचित्र क्षमतायें पाई जाती हैं। जर्मनी में एक विचित्र प्रयोग किया—टेलीफोन के एक रिसीवर से एक फीट दूर, एक मादा झींगुर और एक मादा टिड्डे को रखा गया। वहां से बहुत दूर पहले एक नर झींगुर को ट्रान्समीटर के पास रखा गया। जैसे ही उसने ट्रान्समीटर के पास ध्वनि की और वह ध्वनि रिसीवर तक पहुंची मादा झींगुर तुरन्त अपने स्थान से भागकर रिसीवर में जा घुसी, यद्यपि रिसीवर में उसे अपना प्रेमी नहीं मिला, पर अपने प्रेमी की आवाज पहचानने में उसने भूल नहीं की। मादा टिड्डा अभी अपने स्थान पर ही जमा था। दुबारा ट्रान्समीटर के पास टिड्डे की ध्वनि कराई गई तो इस बार रिसीवर में मादा टिड्डा भागकर आई और यह सिद्ध कर दिया कि वे अपने वंश को पहचानने की सूक्ष्म बुद्धि से पूरी तरह ओत-प्रोत हैं।
पानी के अन्दर घण्टों तक बने रहने का वैज्ञानिक आविष्कार मनुष्य अब इस बीसवीं शताब्दी में कर पाया है, पर यह विद्या जल मकड़े को अनादि काल से ज्ञात है। वह पानी के अन्दर की शैवाल के सहारे अपना मकान बनाती है और उसमें चिरकाल तक ऑक्सीजन प्राप्त करते रहने के लिए सतह से बुलबुले पकड़-पकड़ कर जमा लेती है, यह बुलबुले ही उसे वायु देते रहते हैं और इस तरह मकड़ी वर्षों तक जल के भीतर बनी रहती है। मनुष्य ने आज जो जल में रहने की वैज्ञानिक-पद्धति का विकास किया है, इसकी मार्गदर्शक यह जल मकड़ी ही है। फिर भी वह एक सीमित अवधि तक ही जल में रह सकता है वहां नियमित बस्तियां बसाने और आनन्दमय जीवन जीने योग्य परिस्थितियों के विकास में उसे वर्षों लग जायेंगे।
लम्बे समय तक जीव-जन्तुओं के इस तरह सुव्यवस्थित, विवेकपूर्ण और सुसंस्कृत जीवन क्रम का अध्ययन करने के सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री हेनरी बेस्टन ने बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण समीक्षा प्रस्तुत की है—वे लिखते हैं प्रकृति से परे बनावटी जीवन जीने वाला इन्सान, इन नन्हें प्रकृति पुत्रों को ज्ञान के चश्मे से देखता, उनकी अपूर्णता पर दया दिखाता, उनकी निम्नतर योनि के जीव होने की विवशता पर तरस खाता है किन्तु यह उसकी भूल ही नहीं जबर्दस्त भूल है। वह यह भूल जाते हैं कि वे हमारी दुनिया से अधिक प्राचीन और एक परिपूर्ण जगत के प्राणी हैं। वे कहीं अधिक समर्थ, सुव्यवस्थित और इन्द्रिय क्षमताओं से सम्पन्न हैं जो हम या तो खो चुके या जिन्हें प्राप्त करने में मनुष्य जाति को अभी सदियों की साधना करनी पड़ेगी। वे न तो हमसे तुच्छ हैं, न दया के भिखारी। इस धरती की शोभा और शान में वे हमारे समान सहचर और सहभागी हैं मनुष्य चाहे तो उनसे स्वयं भी बहुत कुछ सीख सकता है।
हम लें ही नहीं योगदान दें भी
ज्ञान अनायास ही किसी को प्राप्त नहीं हो जाता। प्रयत्न, परिश्रम, इच्छा और परिस्थिति के आधार पर उसे पाया और बढ़ाया जाता है। मनुष्य को बुद्धिमान कहा जाता है, पर यह बुद्धिमत्ता सापेक्ष है। ग्रहण करने का—समझने का तन्त्र दूसरे प्राणियों को भी अवसर और साधन मिलें तो वे भी विकासोन्मुख हो सकते हैं और क्रमशः आगे बढ़ते हुए आज की अपेक्षा कहीं आगे पहुंच सकते हैं।
कुत्ते को अपनी श्रेणी के दूसरे जानवरों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान माना जाता है। उसने यह स्थिति अकस्मात ही प्राप्त नहीं करली। मुद्दतों से वह मनुष्य का साथी बनकर रहता चला आया है। कुछ तो मनुष्य ने अपनी आदतों और आवश्यकताओं के अनुरूप उसे ढाला है। कुछ वह अपने अन्नदाता का अनुग्रह पाने के लिए स्वयं ढला है। संयोग और परस्पर आदान-प्रदान ने उसे इस स्थिति में पहुंचाया है। जंगली कुत्ते अभी भी योरोप के कई देशों में झुण्ड के झुण्ड पाये जाते हैं। नस्ल उनकी भी लगभग वैसी ही है पर स्वभाव में जमीन-आसमान जितना अन्तर। पालतू और जंगली कुत्तों की शकल भले ही मिलती-जुलती है आदतों में जरा भी साम्य नहीं होता। पालतू बिल्ली और जंगली बिल्ली में भी यही अन्तर मिलेगा। पालतू बिल्ली ने मनुष्य की आदतों को पहचान कर अपने को बहुत कुछ अनुकूलता के ढांचे में ढाला है। जब कि जंगली बिल्ली बिलकुल जंगली की जंगली बनी हुई है। इसे शिक्षण प्रक्रिया का श्रेय कहना चाहिए।
भारत के अतिरिक्त अफ्रीका आदि देशों में ऐसे कई बालक भेड़ियों की मांद में पाये गये हैं जो उन्होंने खाये नहीं, पाल लिये। इन बालकों को जब बड़ी उम्र में पकड़ा गया तो उनमें मनुष्य जैसी कोई प्रवृत्ति न थी। वे चारों हाथ-पैरों से भेड़ियों की तरह चलते थे। कच्चे मांस के अतिरिक्त और कुछ खाते न थे, आवाज भी उनकी अपने पालन करने वालों ही जैसी थी। अन्य आदतों में भी उन्हीं के समान। ज्ञान ग्रहण का माद्दा बेशक उनमें रहा होगा पर परिस्थितियों की अनुकूलता के अभाव में उसका विकास सम्भव ही न हो सका।
दूसरी ओर अल्प विकसित पशु-पक्षी समुचित शिक्षण प्राप्त करके ऐसे करतब दिखाते हैं जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। मदारी लोग रीछ, बन्दरों को सिखाते हैं और उनके तमाशे गली, मुहल्लों में दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते हुए अपनी जीविका कमाते हैं, सरकसों में सिखाये-सधाये शेर, हाथी, घोड़े, ऊंट, बकरे, रीछ, बन्दर आदि ऐसे कौतुक करते हैं जैसे मनुष्य भी कठिनाई से ही कर सके। इससे यही सिद्ध होता है कि शिक्षा और शिक्षक में—शिक्षा का महत्व असाधारण है। उसके द्वारा अल्प बुद्धि या बुद्धिहीन समझे जाने वाले पशु भी बहुत कुछ कर सकते हैं जबकि बुद्धिमान समझा जाने वाला मनुष्य शिक्षण का उचित अवसर न मिलने पर मूर्ख और निकृष्ट कोटि की गन्दी आदतों वाला बना रहता है।
पशुओं को प्रशिक्षित करने, उन्हें अधिक उपयोगी और समुन्नत बनाने का प्रयत्न जहां भी किया गया है वहां आशाजनक सफलता मिली है। मस्तिष्कीय विकास के अनुसार शिक्षा ग्रहण करने की मात्रा तथा अवधि में अन्तर हो सकता है पर इतना निश्चित है कि शिक्षा निरर्थक नहीं जाती। प्रयत्न किया जाय तो पालतू पशुओं को अब की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान तथा उपयोगी बनाया जा सकता है और जंगली आदतों वाले जानवरों को सभ्यता, अनुशासन तथा जानकारी की दिशा में अधिक शिक्षित किया जा सकता है। लगभग हर प्राणी में ज्ञान प्राप्त कर सकने की मूल प्रवृत्तियां मौजूद हैं। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि उन्हें भी अपना छोटा भाई माने और बौद्धिक प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने में सहयोग प्रदान करें।
प्रसन्नता की बात है कि इस दिशा में अब अधिक ध्यान दिया जा रहा है और विभिन्न पशु-पक्षियों को इस योग्य बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है कि वे अधिक बुद्धिमान बन सकें और मनुष्य के लिए अधिक सहायक एवं उपयोगी सिद्ध हो सकें। जर्मनी के मुन्स्टर विश्व विद्यालय के प्रोफेसर रेन्स तथा उनकी सहयोगी कुमारी उकर इस विषय में बहुत दिनों से अनुसन्धान कर रहे हैं और पशुओं को प्रशिक्षित करने की विधियों का आविष्कार करने में निरत हैं।
मलाया में पाई जाने वाली एक विशेष प्रकार की बिल्ली ‘सियेट’ तथा ‘मंगूस’ नाम के एक अन्य पशु को उन लोगों ने प्रशिक्षित करने में बड़ी सफलता पाई। वे रंगों की भिन्नता तथा दूसरी कई बातों में प्रवीण हो गये।
कोहलर ने पक्षियों को गिनती सिखाने तथा वस्तुओं की भिन्नता स्मरण रखने में शिक्षित कर लिया। वे शब्दों का भावार्थ भी समझने लगे।
प्रोफेसर सन्स की छात्रा ‘सियेट’ निरन्तर रुचि पूर्वक पढ़ती रही और करीब 30 प्रकार के पाठ पढ़कर उत्तीर्ण होती रही। उससे 34 हजार बार प्रयोग कराये गये जिसमें वह 70 से लेकर 84 प्रतिशत तक सफल होती रही। प्रोफेसर महोदय ने अपनी पुस्तक में उपरोक्त बिल्ली को पढ़ाने और उसकी भूल सुधारने की विधियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है।
हाथी को दिखाई देने वाली वस्तु और सुनाई देने वाली ध्वनियों का सही तरीके से विश्लेषण करना नहीं आता पर वह इशारे समझने में बहुत प्रवीण है। संकेतों के आधार पर उसे भविष्य में बहुत आगे तक प्रशिक्षित किया जा सकेगा और उसे मनुष्य का उपयोगी साथी, सहायक बनाया जा सकेगा। बन्दर के बारे में भी ऐसी ही आशा की जा सकती है। उसकी चंचल प्रकृति और अस्थिर मति को सुधारा जा सकता है और मानव परिवार में कुत्ते की तरह, उपयोगी जीव की तरह सम्मिलित किया जा सकता है।
कुत्ते का भौंकना सुनकर उसका मालिक यह आसानी से बता सकता है कि उसके चिल्लाने का मतलब क्या है। भूख, प्यास, थकावट, शीत, गुस्सा, चेतावनी आदि कारणों को लेकर भौंकने के स्वर तथा स्तर में जो अन्तर रहता है उसे पहचान लेना कुछ कठिन नहीं है। कुत्ते की भाषा मनुष्य समझता हो सो बात ही नहीं है। कुत्ते भी मनुष्य की भाषा समझ सकते हैं। अभ्यास कराने पर उन्हें 100 शब्दों तक का ज्ञान कराया जा सकता है और उन आदर्शों के आधार पर उन्हें काम करने के लिए अभ्यस्त किया जा सकता है। 60 समझने तक में तो अभी भी कई कुत्ते सफलता प्राप्त कर चुके हैं। शब्द के साथ-साथ उसके कहने का विशेष ढंग और भाव मुद्रा का स्वरूप मालिक को भी सीखना पड़ता है। कानों से बहरे लोग सामने वाले के होठों का संचालन तथा मुखाकृति का उतार-चढ़ाव देखकर लगभग आधी बात पकड़ लेते हैं। उसी प्रकार कुत्ते को आदेश देते समय, मात्र शब्दों का उच्चारण ही काफी नहीं वरन् मालिक को अपना लहजा, अदा और तरीका भी शब्द के साथ मिश्रित करके आदेश की एक नई शैली का आविष्कार करना पड़ता है। कुत्ते को ऐसी ही भाव और शब्द मिश्रित भाषा से ही आज्ञानुवर्ती बनाया जा सकता है।
कुत्ते रास्ता चलते बीच-बीच में पेड़-पौधे, खम्भे आदि पर बार-बार पेशाब करते चलते देखे गये हैं। इस आधार पर वे अन्य साथियों को उस मार्ग से गुजरने की सूचना देते हैं। यह मूत्र गन्ध उस क्षेत्र पर उस कुत्ते के आधिपत्य की सूचना देती है और लौटते समय उसी रास्ते का संकेत देती है।
लन्दन चिड़ियाघर के अधिकारी डा. डंसमंड मारिस का कथन है कि कुत्ते का दुम हिलाना, उसके मनोभावों के प्रकटीकरण से सम्बन्धित है। विभिन्न मनःस्थितियों में उसकी पूंछ अलग-अलग ढंग से हिलती है। उसे समझा जा सके तो स्काउटों की ‘झण्डी संकेत पद्धति’ के अनुसार कुत्ते के मनोभावों को समझा जा सकता है।
कुत्ते में एक अद्भुत क्षमता निकटवर्ती भविष्य ज्ञान की है। वे ऋतु परिवर्तन की पूर्व सूचना दे सकते हैं और कई बार तो दैवी विपत्तियों की पूर्व सूचना भी देते हैं। कुछ समय पूर्व लिन माडल के डेवन प्रदेश में विनाशकारी बाढ़ आई थी। जिसमें भारी धन-जन की हानि हुई। दुर्घटना से 4 घण्टे पूर्व सारे नगर के कुत्तों ने इकट्ठे होकर इस बुरी तरह रोना शुरू किया कि लोग दंग रह गये और तंग आ गये। जब बाढ़ आ धमकी तब समझा गया कि कुत्तों का इस प्रकार सामूहिक रूप से रोना विपत्ति की पूर्व सूचना के लिए था।
बिल्लियां भी कुत्तों से पीछे नहीं। मस्तिष्कीय सक्षमता की दृष्टि से वे कई बातों में और भी आगे हैं। उन्हें सिखा-पढ़ा कर, उपयोगी बनाया जाना अन्य छोटे पशुओं की अपेक्षा अधिक सरल है।
पशुओं में ज्ञान के मूलतत्व ही विद्यमान नहीं हैं वरन् उनमें भावों की अभिव्यक्ति का भी माद्दा है। टूटी-फूटी उनकी भाषा भी है, जिसके आधार पर वे अपनी जाति वालों के साथ विचार विनिमय कर सकते हैं। इस भाषा को और अधिक विकसित किया जा सकता है। इस विकास के आधार पर मनुष्य के साथ अन्य प्राणियों के विचार विनिमय का द्वार भी खुल सकता है।
वैटजेल नामक एक प्राणि प्रेमी ने सन् 1801 में कुत्ते, बिल्ली तथा कई पक्षियों की भाषा का एक शब्द कोष बनाया था। फ्रांस निवासी द्यूपो नेमर्स ने कौओं की आवाज पर एक पुस्तक प्रकाशित की थी। योरोप के कई विश्वविद्यालय इस सम्बन्ध में अपना अनुसन्धान कार्य कर रहे हैं इनमें केम्ब्रिज विश्वविद्यालय का एक ‘शब्द कोष’ तो लगभग तैयार भी हो चला है।
‘चिपेंजी इंटेलीजेन्स एण्ड इट्ज वोकल एक्सप्रेशन’ पुस्तक लेखक द्वय श्री ईयर्कस और श्रीमती लर्नेड ने चिंपैंजी बन्दरों की लगभग 30 ध्वनियों का संग्रह और विश्लेषण करके एक प्रकार से उनका भाषा विज्ञान ही रच दिया है।
हर हर मन फ्रेबुर्ग ने अपनी पुस्तक ‘आउट आफ अफ्रीका’ में ऐसे अनेक संस्मरण लिखे हैं जिसमें गोरिल्ला और मनुष्य के बीच बात-चीत भावों का आदान-प्रदान और सहयोग संघर्ष का विस्तृत परिचय मिलता है। साधारणतया जानवर अपनी ही जाति के लोगों से विचार विनिमय कर पाते हैं पर यदि सिखाया जाय तो वे न केवल मनुष्य के साथ हिलमिल सकते हैं वरन् एक जाति का दूसरी जाति वाले अन्य जीवों के साथ व्यवहार—सम्पर्क बनाया और बढ़ाया जा सकता है।
जानवरों का भाषा कोष तैयार करने में कई संस्थाओं ने बहुत काम किया है और कितने ही अन्वेषण निरत हैं। केम्ब्रिज की ‘दी एशियाटिक प्राइमेट एक्स पेडीशन’ संस्था ने इस सम्बन्ध में बहुत खोज की है। इस संस्था के शोधकर्ता विश्व भर में घूमे हैं और विभिन्न पशुओं की आवाजें रिकार्ड की हैं। मोटे तौर पर यह आवाज कम होती हैं पर बारीकी से उनके भेद प्रभेद करने पर वे इतनी अधिक हो जाती हैं कि उनके सहारे उन जीवों के दैनिक जीवन की पारस्परिक सहयोग के लिए आवश्यक बहुत सी जरूरतें पूरी हो सकें। पैरिक के प्रो. चेरोन्ड और अमेरिका के डा. गार्नर ने अपनी जिन्दगी का अधिकांश भाग इसी शोध कार्य में लगाया है।
बन्दरों की भाव-भंगिमा उनकी मनःस्थिति को अच्छी तरह प्रकट करती है। जरा गम्भीरता से उनके चेहरे पर दृष्टि जमाई जाय तो सहज ही पता चल जायगा कि वह इस समय किस ‘मूड’ में है। उसके डरने, प्रसन्न होने, क्रोध करने, थक जाने, दुःख व्यक्त करने, साथियों को बुलाने आदि के स्वर ही नहीं भाव भी होते हैं जिन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है।
चिंपैंजी बन्दर तो हंस भी सकता है। बच्चों के वियोग में चिंपैंजी मादा रोती देखी गई है। नीचे वाला होट आगे निकला हुआ देखकर—आंखों को ढके बैठी हुई मादा चिंपैंजी को शोकग्रस्त समझा जा सकता है। इस स्थिति में उससे सहानुभूति प्रकट करने दूसरे साथी भी इकट्ठे हो जाते हैं और संवेदना प्रकट करते हैं।
गोरिल्ला अपने क्रोध की अच्छी अभिव्यक्त कर सकता है। गिव्वन बन्दर सवेरे ही उठकर शोर करते हैं जिसका मतलब है कि यह क्षेत्र हमारा है। कोई दूसरे इस क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयत्न न करें।
अन्य प्राणियों की उपेक्षा के गर्त में पड़ा रहने देने या उनके शोषण करते रहने में मनुष्यता का गौरव बढ़ता नहीं। अपनी प्रगति से ही सन्तुष्ट न रहकर हमारा यह भी प्रयत्न होना चाहिए कि अन्य प्राणियों के बौद्धिक उत्कर्ष में समुचित ध्यान दें और सहयोग प्रदान करें।