Books - जीव जन्तु बोलते भी हैं, सोचते भी हैं
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Language: HINDI
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आनन्द और उन्नति का आधार
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अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य ने बहुत अधिक उन्नति की है। इस उन्नति का कारण मनुष्य की बौद्धिक विशेषता ही प्रधान कारण है, जिसके बल पर वह व्यवस्था, सूझ-बूझ, उपलब्ध साधनों का नियोजन व उपयोग अधिकाधिक कुशलता पूर्वक कर पाने में समर्थ हुआ है। परमात्मा ने मनुष्य को यह सम्पदा प्रदान करने के लिए मुक्तहस्त उदारता से काम लिया है और इस सम्पदा के बाद जिन कारणों से मनुष्य ने उन्नति की है वह है सामूहिकता तथा सहकार की प्रवृत्ति साथ-साथ रहने से, मिल-जुलकर काम करने से ही मानवीय सभ्यता और संस्कृति का विकास हो सका है।
मनुष्येत्तर प्राणियों में से भी जिन प्राणियों में सहयोग व सामूहिकता की प्रवृत्ति पाई जाती है वे क्षुद्र होते हुए भी सुरक्षित और व्यवस्थित जिंदगी जीते हैं। उनका अस्तित्व भी उतना ही जीवन्त बना रहता है। और कई प्राणी जो शारीरिक दृष्टि से मनुष्य की तुलना में काफी बढ़े-चढ़े हैं, चतुरता भी उनमें पर्याप्त है, पर वे परस्पर सहयोग करने की वृत्ति से रहित होने के कारण न तो उन्नति ही कर सके और न अपने अस्तित्व को ही सुरक्षित रख सके। सिंह जो किसी जमाने में भारी संख्या में सर्वत्र पाया जाता था, शक्ति की दृष्टि से वह सर्वोपरि कहलाता था, अब धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोता चला जा रहा है। जिस तेजी से उसकी संख्या घट रही है उसे देखते हुए पशु-विद्या के ज्ञाता यह सम्भावना मानने लगे हैं कि कहीं सौ दो सौ वर्षों के अन्दर ही सिंह का अस्तित्व इस पृथ्वी पर से पूर्णतया समाप्त न हो जाय। जिन जीवों में परस्पर सहयोग की न सही साथ-साथ झुण्ड बनाकर रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है वे इस कठिन समय में भी कम से कम अपने अस्तित्व की रक्षा किये हुए हैं। मनुष्य बन्दर को बहुत सताता है, वह उसकी आंखों में खटकता है, फिर भी परस्पर सहकारिता के बल पर वह घुड़की देने की अब भी हिम्मत करता है। कुत्ते परस्पर लड़ते हैं इसलिए उनका नाम ही तिरस्कार सूचक बन गया। बन्दर अब भी पुजते हैं और देवता कहलाते हैं।
जड़-जगत में संगठन की शक्ति को हम आसानी से देख सकते हैं। चींटियों का झुण्ड जब चिपट जाता है तो बड़े सांप को भी जीवित खा जाता है। टिड्डियों का दल, मनुष्य की रखवाली को व्यर्थ बनाता हुआ सारी फसल को चौपट कर जाता है। हाथियों और बन्दरों के झुण्ड निर्भयता पूर्वक जिधर चाहते हैं उधर बढ़ते जाते हैं, उनमें से प्रत्येक को यह विश्वास होता है कि कठिन समय आने पर साथियों का सहयोग सहज ही उपलब्ध हो जायगा। झुण्ड बांधकर चरने वाली गायें आक्रमणकारी बाघ की दाल नहीं गलने देतीं।
सूत के एक धागे को कोई बच्चा भी आसानी से तोड़ सकता है पर जब वे सौ पचास की संख्या में इकट्ठे होकर रस्सी बन जाते हैं तो बड़े पहलवान के लिए भी उसे तोड़ना कठिन होता है। एक सींक का कोई मूल्य नहीं, उससे किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती, पर जब कितनी ही सींकें मिलकर एक बुहारी बन जाती हैं, तो उससे घरों की सफाई बड़े सुचारु रूप में होती रहती है। छोटी-छोटी पानी की बूंदें जब तक अलग हैं तब तक उन्हें जमीन सोख लेती है, हवा सुखा देती है लेकिन जब वे इकट्ठा हो जाती हैं तो नदी, तालाब, समुद्र के रूप में अपनी प्रचण्ड शक्ति का परिचय देती हैं। जो जमीन अलग-अलग बूंदों को क्षण भर में सोख लेती थी वही अब तालाब के तल में या किनारे पर पतली कीचड़ के रूप में परास्त पड़ी दिखाई पड़ती है। एक सिपाही कुछ नहीं कर सकता पर जब उसका पूरा दल सेना के रूप में कहीं चढ़ाई करता है तो सामने वालों के छक्के छूट जाते हैं।
कुछ डाकू एक गिरोह बनाकर जब सक्रिय होते हैं तो बड़े प्रदेश की लाखों जनता को आतंकित कर देते हैं। थोड़े से संगठित षड्यन्त्रकारी बड़ी से बड़ी सुव्यवस्था को खतरे में डाल देते हैं। थोड़े से गुण्डे-बदमाशों की चाण्डाल चौकड़ी से भले आदमी डरते और दबते रहते हैं। इस प्रभाव में उन व्यक्तियों का मूल्य नहीं, उनकी सामूहिकता ही प्रधान है। ये डाकू, गुण्डे, बदमाश, षड्यन्त्रकारी शारीरिक और मानसिक दृष्टि से वैसे ही होते हैं जैसे अन्य साधारण नागरिक, उनमें डराने जैसी कोई बहुत बड़ी विशेषता नहीं होती। वे अकेले हों तो उनकी मरम्मत आसानी से हो सकती है पर चूंकि उनका एक गिरोह होता है, यह गिरोहबन्दी ही खतरे का—डरने का प्रधान अस्त्र है। देशों और जातियों का इतिहास भी इसी प्रकार का है। इतिहास साक्षी है कि जो लोग संगठित थे वे उन्नति के मार्ग पर बढ़ते गये और जो असंगठित थे वे उन्नति के मार्ग पर बढ़ते गये और जो असंगठित थे, फूट में ग्रस्त थे, उन्हें अवनति एवं पराजय का मुख देखना पड़ा।
भारत किसी समय में बड़ा गौरवशाली, शक्ति सम्पन्न एवं उन्नति के शिखर पर पहुंचा हुआ देश था, तब यहां के लोग संगठन का महत्त्व समझते थे, एक दूसरे के दुःख-सुख में साथी ही न थे, वरन् परस्पर सहायता करके एक दूसरे को आगे बढ़ाने से सुख-सन्तोष अनुभव करते थे। ‘संसार की सारी प्रगति और समृद्धि संगठन के आधार पर अवलम्बित है’ इस गुरु मन्त्र को यहां का हर नागरिक जानता था, और उसी आदर्श के अनुरूप अपनी सारी योजनाएं बनाता था। यह प्रवृत्ति जहां बढ़ती है, वहां स्वर्गीय सुख-शान्ति का स्वयम् ही अवतरण होता है जैसा कि पूर्व काल में इस देश में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता था। धीरे-धीरे जब इस मनोवृत्ति का ह्रास हुआ, लोग व्यक्तिगत लाभ को, स्वार्थपरता को महत्त्व देने लगे, परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, शोषण, अपहरण, लूट-खसोट, छल-कपट, फूट-फसाद का बढ़ना भी स्वाभाविक था—यह विष बीज, जहां बोये गये होंगे वहां सत्यानाश के फल ही उगेंगे। असंगठित, फूट-फसाद में ग्रस्त, आपापूती और ईर्ष्या, द्वेष के दलदल में जब हम फंस गये तो मुट्ठी पर विदेशी आक्रमण चढ़कर दौड़े और इतने विशाल देश पर जादू की तरह कब्जा कर लिया। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, असंगठित समाजों में सदा से यही दुर्गति होती आती है।
मनुष्य में सहयोग की भावना ही परस्पर श्रद्धा अनुशासन, प्रेम और कर्त्तव्यनिष्ठा के भाव भरती है। सहानुभूति-विहीन जीवन कष्ट और उलझन का ही नहीं हिंसा और बर्बरता का भी जीवन बन जाता है। ऐसा तो असभ्य जंगली जानवर तक नहीं पसन्द करते मनुष्य को क्यों पसन्द करना चाहिये? रूसी प्राणी विशेषज्ञ श्री साइबर्ट सोफ मैदानी क्षेत्र में रहने वाले जानवरों का अध्ययन कर रहे थे—तब उनके सामने एक विचित्र घटना घटित हुई। उन्होंने देखा एक सफेद पूंछ वाला उकाब पक्षी आकाश में मंडरा रहा है। आधा घण्टे तक वैसे ही मंडराते रहने के बाद उसने एक प्रकार की ध्वनि की। यह आवाज तेज थी लगता था उसने किसी को दौड़कर आने के लिये पुकारा हो। वह आवाज सुनते ही दूसरे उकाब ने आवाज की और दौड़कर उसके पास आ गया। इस तरह दस बारह उकाब वहां एकत्रित हो गये। फिर जाने क्या बात हुई वे सब गायब हो गये। दोपहर के लगभग उकाबों का पूरा झुण्ड उसी स्थान पर उतरा। साइबर्ट सोफ ने ऐसी पोजीशन ली जहां से उनकी सारी हरकत देखी जा सके। सभी उकाब एक घोड़े की लाश के पास पहुंचे। सबसे पहले बूढ़े उकाबों ने उसका मांस खाया फिर वे हटकर निगरानी करने लगे और तब दूसरे उकाबों ने मांस खाया। उकाबों की, इस सामाजिक भावना ने साइबर्ट सोफ को बहुत प्रभावित किया।
बेहरिंग के काफिले ध्रुव प्रदेश में चला करते। प्राकृतिक जीवन के अभ्यस्त यह काफिले वहां की सारी कठिनाइयों का मुकाबला बड़ी आसानी से कर लेते हैं किन्तु जो सबसे बड़े आश्चर्य की बात है वह यह है कि यह काफिले वहां की छोटी-छोटी लोमड़ियों से मात खा जाते हैं। उनकी इस आप-बीती को सुप्रसिद्ध लेखक स्टेलर ने बेहरिंग के काफिलों का युद्ध कहा है और बताया है कि प्रारम्भ में यह काफिले जिस स्थान पर डेरा डालते वहां की लोमड़ियां आतीं और उनका खाना चुरा ले जातीं। निदान खाने को पत्थरों से ढककर रखा जाने लगा। पत्थर भी इतने वजनदार रखे जाते कि बड़ी से बड़ी लोमड़ी भी उन्हें उठाकर अलग न कर सकती। काफिले वाले बड़े असमंजस में थे कि तब भी उनका खाना चोरी गया मिलता और पत्थर उस स्थान से दूर फेंका मिलता।
ऐसा लगा कि कोई बड़ा जानवर आता है अतएव ताक की गई। बात बड़ी विचित्र निकली, एक साथ कई लोमड़ियों का झुण्ड आया उनमें से एक ऊंची टेकरी पर खड़ी हो गई, एक दूसरी तरफ। यह थी चौकीदार उनका काम किसी भी सम्भावित हमले की सूचना अपने साथियों को देना होता है। शेष लोमड़ियां आगे बढ़ीं और एक साथ शक्ति लगाकर वजनदार पत्थर को उठाकर अलग कर दिया और खाना चुरा ले गईं।
अब काफिले वालों ने एक के ऊपर एक पत्थर रखकर ऊंचा खम्भा उठाया और उसके ऊपर खाना रखा पर लोमड़ियों से वह तब भी नहीं बच सका। अब लोमड़ियों ने अपनी पीठ पर चढ़ाकर किसी चुस्त लोमड़ी को ऊपर चढ़ा दिया उसने ऊपर से खाना गिराया। गिरे हुये खाने को सबने उठाया और फिर ऊपर चढ़ी लोमड़ी को उतारा और दूर एकांत में जाकर सारा खाना बांटकर खा लिया।
इस घटना की समीक्षा करते हुये स्टेलर ने लिखा है यह आश्चर्य की बात है कि लोमड़ी जैसे छोटे जीव ने सहयोग और सहकारिता के महत्त्व को समझा और उसका लाभ उठाया जब कि मनुष्य जैसा बुद्धिशील प्राणी परस्पर स्पर्द्धा रखता, ईर्ष्या, द्वेष और मनोमालिन्य रखता है यह वृत्तियां उसे आगे बढ़ने से रोकती हैं। सुख और शांति, समृद्धि और सम्पन्नता का राजमार्ग यह है कि मनुष्य भी मिल-जुलकर रहना सीखें, अपने हित को दूसरे के हित से जुड़ा हुआ मानकर एक दूसरे के साथ सहयोग करना सीखें यही वृत्ति सामाजिक जीवन को व्यवस्थित बना सकती है।
आनन्द और उन्नति का आधार
सहयोग और सामूहिकता के आधार पर ‘निश्चित व सुरक्षित जीवन ही’ आनन्द तथा उल्लास का आधार बनता है। इतना ही नहीं इन तत्त्वों की महत्ता समझने वाले लोग रेश और जातियां अपराजेय होती हैं। मनुष्य जाति की समग्र सुख-समुन्नति साधन में नहीं भावनाओं के विकास में है। भावनाओं के विकास द्वारा ही कोई मनुष्य अभावपूर्ण जीवन में भी आनन्द और उल्लास, हंसी और खुशी प्राप्त कर सकता है।
बुद्धि का अनुदान औरों को भी
प्रकृति ने विकास और सुरक्षा की व्यवस्था के लिए आवश्यक विभूतियों का वितरण करने में कहीं कोई कृपणता नहीं बरती है। कहा जा सकता है कि बौद्धिक क्षमतायें और सहयोग भावना केवल मनुष्यों में ही है परन्तु यह कहना लक्ष्य से मुंह मोड़ना होगा। क्योंकि प्रकृति ने अपनी अन्य सन्तानों को भी उसी उदारता से ये विभूतियां प्रदान कर रखी हैं।
सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री बेल्ट एक बार चींटियों के सामाजिक जीवन का अध्ययन कर रहे थे। एकाएक मस्तिष्क में एक कौतूहल जागृत हुआ यदि इन चींटियों को मकान छोड़ने को विवश किया जाये तब यह क्या करेंगी। बेल्ट चींटियों की बुद्धि की गहराई और उसकी सूक्ष्मता की माप करना चाहते थे अतएव चींटियों के एक बिल के पास ऐसा वातावरण उपस्थित किया जिससे चींटियां आतंकित हों। पास की जमीन थपथपाना, पानी छिड़कना, विचित्र शोर करना आदि। चींटियों ने उसी तरह परिस्थिति को गम्भीर माना जिस तरह अतिवृष्टि, तूफान, समुद्री उफान जैसे प्राकृतिक कौतुक मनुष्य को डराने, धमकाने और ठीक-ठिकाने लाने के लिये बड़ी शक्तियां करती हैं और मनुष्य उनसे डर जाता है।
जिस स्थान पर बिल था आधा फुट पास ही वहां एक छोटी सी ढाल थी। सर्वेयर चींटियां चटपट बाहर निकलीं और उस क्षेत्र में घूमकर तय किया कि ढलान के नीचे का स्थान सुरक्षित है। उनके लौटकर भीतर बिल में जाते ही मजदूर गण सामान लेकर भीतर से निकलने लगे। बाहर आकर चींटियों ने दो दल बनाये, एक दल अपनी महारानी को लेकर नीचे उतर गया और खोजे हुए नये स्थान पर पहुंचाकर बिल के बाहर पंक्तिबद्ध खड़ा हो गया मानो वे सब किसी विशेष काम की तैयारी करने वाले हों।
सामान ज्यादा हो और दूर की यात्रा हो तो मनुष्य बैलगाड़ी, रेल, मोटर और हवाई जहाज का सहारा लेते हैं। माना कि चींटियों के पास इस तरह के वाहन नहीं हों यह भी सम्भव है कि वे आदिम युग के पुरुषों की तरह समझदार हों और यांत्रिक जीवन की अपेक्षा प्राकृतिक जीवन बेहतर मानती हों अतएव उन्होंने वाहन न रचे हों पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनमें परिस्थितियों के विश्लेषण और तदनुरूप क्रिया की क्षमता नहीं होती। चींटियों का जो दूसरा दल ऊपर था समय और बोझ से बचने के लिये ऊपर से सामान लुढ़काना प्रारम्भ किया। नीचे वाली चींटियां उसे संभालती जा रही थीं और बिल के अन्दर पहुंचा रही थीं। ऐसा लगता था जैसे बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में हैलिकॉप्टर से अन्न के बोरे गिराये जा रहे हों।
अपने गांव-नगर के निवासियों को हर चींटी भली प्रकार पहचानती है। एक भी बाहर वाली घुस आवे तो उसे तुरन्त पहचान लिया जायगा और मार-कूटकर उसे वापिस खदेड़ दिया जायगा।
एक भी चींटी कभी बेकार नहीं बैठती। उन्हें आराम हराम है। वे समूह बनाकर काम करती हैं और हर दल अपने क्रिया-कलाप में कीर्तिमान स्थापित करने के लिये पूरे उत्साह, धैर्य और सन्तोष के साथ लगी रहती हैं। मानो कर्म की सुव्यवस्था ही एक मात्र उनकी महत्त्वाकांक्षा हो। गौर से देखें तो प्रतीत होगा कि उनका एक दल एक रास्ते जा रहा है तो दूसरा दल उसी मार्ग से वापिस लौट रहा है। लौटने वालियों के मुंह में अनाज, कीड़ा, घास−फूस, मिट्टी आदि कुछ न कुछ जरूर होगा। यह संग्रह अपने लिए नहीं पूरे परिवार के लिए करती हैं। खाद्य संग्रह, गृह-निर्माण प्रायः इस भाग दौड़ का उद्देश्य होता है। घायलों और बीमारों की सेवा-सहायता से लेकर अण्डे बच्चों के परिपोषण तक के लिए भी उनकी गति-विधियां चलती हैं। बिल में पानी भर जाने या कोई संकट उपस्थित होने पर वे नया स्थान ढूंढ़ने, बनाने और स्थानान्तरण के साथ-साथ संग्रहीत माल असवाव ढोने की आपत्ति कालीन व्यवस्था भी बनाती हैं। कहीं चीनी का बड़ा भण्डार दीख पड़े या कोई स्वादिष्ट कीड़ा हाथ लग जाये तो फिर दैनिक कार्यों को बदलकर वे फिर जल्दी-जल्दी उस लाभ से लाभान्वित होने का प्रयत्न करती हैं। माल मिलते ही वे तत्काल उसे खाने नहीं बैठ जातीं वरन् उसमें से क्वचित जलपान करके बिल में जमा करने के लिए जुट जाती हैं और सुविधानुसार उसे स्वाद और सन्तोष पूर्वक खाती हैं।
चींटियों के तीन वर्ग हैं (1) रानियां (2) राजा लोग (3) बांदियां। रानी एक ढेर में चार पांच से अधिक नहीं रहतीं। वे औसत चींटी से मोटी तगड़ी होती हैं, उनका कार्य केवल बच्चा उत्पन्न करना होता है। प्रायः सारा समय उनका इसी में व्यतीत होता है। अस्तु बाहर निकलने, घूमने की भी उन्हें फुरसत नहीं होती। नर्सें, दाइयां, तसोइया, चौकीदार उनके पास मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पर तैनात रहते हैं।
अण्डों को सेने का काम बांदियां करती हैं। प्रसव होते ही वे उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाती हैं और जब तक बच्चे बड़े न हो जायं तब तक बांदियां उनका अपने निज के बच्चों जैसा ही लालन-पालन करती हैं। अण्डे में से एक नन्हीं सी ‘इली’ निकलती है यह जमीन पर पड़ी कुल-मुलाती रहती है। भूखी होने पर मुंह खोलती है तो मौसियां तुरन्त उनके मुंह में कोमल और सुपाच्य ग्रास रख देती हैं। उपयुक्त समय पर वे इन बच्चों को सहारा देकर घुमाने भी ले जाती हैं।
बांदियां न विवाह करती हैं न बच्चे देने के झंझट में पड़ती हैं। उन्हें नियत कर्त्तव्य पालन में गृहस्थी बसाने से अधिक सन्तोष रहता है।
राजाओं के पंख उगते हैं वे बिलों से निकल कर उड़ान भरते हैं। जैसे ही वे उड़े कि पक्षी उन पर झपट पड़ते हैं और बात की बात में उन्हें उदरस्थ कर जाते हैं। कुछ के पंख टूट जाते हैं और भारी होने के कारण घर लौटने में असमर्थ रह कर प्राण गंवाते हैं। जो लौट आते हैं वे अपने पंख नोंच कर फेंक देते हैं और अन्य साथियों की तरह रहने में ही कल्याण मानते हैं। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा कितनी महंगी पड़ती है उसे वे अनुभव द्वारा भली प्रकार सीख लेते हैं और फिर अकेले आकाश दूने की सनक को सदा के लिए त्याग देते हैं।
चींटियां सदा एक ही स्थान पर नहीं रहतीं। जब उनका नगर बस जाता है उनमें निवास, आवास, गोदाम, चिकित्सालय, विश्रामगृह, सड़कें, गलियां आदि सभी कुछ बन जाता है और खाने के लिए पर्याप्त खाद्य भण्डार जमा हो जाता है तो नर चींटियां यह अनुभव करती हैं कि अब दल में निठल्लापन आ जायगा और आरामतलबी से श्रमशीलता की आदत घट जायगी। इस संकट को टालने के लिए तो राजा लोग नये नगर बसाने, नया क्षेत्र ढूंढ़ने के लिए निकल पड़ते हैं और जब उपयुक्त भूमि मिल जाती है तो रानियों को साथ लेकर नई जगह में चले जाते हैं। बांदियां वफादार साथी की तरह उनके पीछे चल पड़ती हैं और नये सिरे से नया नगर बसाने और आवश्यक उपकरण जुटाने में लग जाती हैं, इस प्रकार अमीरी और आरामतलबी से उत्पन्न होने वाली संकटों से वे बचकर अपनी कर्मनिष्ठा बनाये रहती हैं। पुराना नगर छोड़ने और नया देश बसाने का उनका यह क्रम निरन्तर चलता ही रहता है, वे एक जगह बहुत समय नहीं रहतीं।
अमेरिका में पाई जाने वाली अट्टा चींटी खेती-बाड़ी भी करती हैं, वह अपनी रुचि के बीज जमा करके पास की नम जगह में गाढ़ती हैं और उगने वाली फसल की निराई-गुड़ाई करती रहती हैं। जब फसल पकती है तो उसका एक एक दाना वे अपने बिलों में जमा कर लेती हैं। ये चींटियां पास-पड़ौस के किसानों की फसल पर भी चढ़कर पके हुए बीज तोड़ती और ढोकर घर में जमा करने में भी प्रवीण होती हैं।
चींटी ही नहीं दीमक भी अपने आकार-प्रकार को देखते हुए इतनी कर्मशील और दूरदर्शी है कि उसके क्रिया-कलाप से मनुष्य कुछ सीख समझ सकता है और अपनी वैयक्तिक एवं सामाजिक स्थिति में उपयोगी सुधार कर सकता है।
दीमकों में अधिकांश अन्धी होती हैं तो भी उनकी घ्राणशक्ति लगभग आंखों जैसी ही सहायता करती है और वे बिना भटके अपना जीवन-क्रम चलाती रहती हैं। आंखों वाली दीमकें उनकी कठिनाई को समझती हैं और स्वयं हटकर उनके लिये रास्ता देती हैं और समय पर उन्हें अतिरिक्त सहायता पहुंचाती हैं।
दीमकों के बिलों के ऊपर जो मिट्टी का आच्छादन होता है वह इतनी मजबूती और कुशलता से बना होता है कि वर्षा का पानी उसमें प्रवेश करके उनमें निवास करने वाली दीमकों की कोई क्षति नहीं कर पाता। छोटे-मोटे नाले, झरनों के ऊपर से वे ऐसे मजबूत पुल बनाती हैं कि वर्षों तक उस रास्ते उनका आना-जाना इधर-उधर हो सके। इस प्रकार के जल अवरोध को दूर कर सकने में भी सफल होती हैं। छोटी-सी दीमक की यह गति-विधियां लम्बे-चौड़े आकार वाले मनुष्य के लिए अनुकरणीय हैं।
सहयोग, संगठन और सहकार की विशेषताओं के अलावा अन्य जीव-जन्तुओं में विद्यमान बौद्धिक क्षमतायें इस बात की भी प्रतीक हैं कि सृष्टि के कण-कण में एक ही चेतन तत्त्व समाया है अन्यथा आकृति, प्रकृति, शक्ति व शरीर के संरचना में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हुए भी सभी प्राणियों में व्यवस्था, बुद्धिमत्ता और सूझ-बूझ के तत्त्व समान रूप से विद्यमान होते हैं।
गरिमा अन्य प्राणियों में भी
इस दृष्टि से ब्राजील की एक चींटी को अद्भुत आश्चर्य कहा जा सकता है जो कृषि पर ही निर्भर रहती है। सामान्य चींटियों की तरह यह दूसरों की कमाई पर निर्भर नहीं रहतीं। यह कुछ पेड़ों से गिरी पर टूटी पत्तियां ले आती हैं और उन्हें अपने बिल में रखती हैं। किसान जिस तरह अपने खेतों को अच्छी तरह जोतता, घास-फूस निकालकर बीज बोता है, उसी प्रकार यह चींटियां भी इन पत्तों का भली प्रकार निरीक्षण करती हैं, कहीं कोई कीड़ा या रोगाणु तो नहीं हैं। यदि पत्ता अच्छा हुआ तो वे इसमें एक विशेष प्रकार की फफूंद बोती हैं। पैदा की हुई इस फफूंद से ही इनका आहार चलता है। चींटी में स्वावलम्बन के साथ गुण-दोष विवेचन की क्षमता आश्चर्यजनक है।
यदि कोई चींटी बंटवारा करना चाहे तो जिम्मेदार चींटियां उसके लिये नया बिल ढूंढ़ देती हैं। उसे विदा करते समय उन्हें यह ध्यान रहता है कि कहीं इसे आहार के अभाव में भूखों न मरना पड़े इसलिये ये फफूंद का एक कण भी उसे देती हैं। इस कण को लेकर चींटी दूसरे बिल में जाती है और वहां अपनी कृषि जमाकर सुखपूर्वक रहने लगती हैं। तुच्छ जीव में मनुष्य से बढ़कर विवेक भी कम विस्मय बोधक नहीं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रिश के शिष्य डा. लिडावर ने मधु-मक्खियों का बहुत दिन तक अध्ययन किया और बताया कि उनकी प्रवृत्तियां मानव-जीवन की गति-विधियों से विलक्षण साम्य रखती हैं। जिस प्रकार घर के मुखिया के आदेश पर घर के सब काम व्यवस्था पूर्वक चलते हैं, उसी प्रकार मधु-मक्खियों में एक रानी मक्खी होती है, छत्ते की सारी व्यवस्था का भार उस पर ही होता है। छत्ते के सब निवासी उसके निर्देशों का अच्छी प्रकार पालन करते हैं इन मक्खियों में विभाग बंटे हुए होते हैं, कुछ मजदूर होती हैं, जिनका काम छत्ते को बनाना, टूट-फूट जोड़ना, छत्ते में कोई मर जाये, उसे वहां से ले जाकर श्मशान तक पहुंचाना यह सब काम मजदूर करते हैं। कुछ सैनिक मक्खियां होती हैं इनका काम है रानी मक्खी और छत्ते की बाहरी आक्रमणकारियों से सुरक्षा। मनुष्यों की फौज में कुछ सिपाही कायर और डरपोक हो सकते हैं, किन्तु यह दुश्मन के संघर्ष में अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करतीं। ये उनसे मृत्यु पर्यन्त लड़ती हैं। कुछ मक्खियों का काम फूलों से पराग लाना और उससे शहद बनाना होता है। इस तरह जिसको जो काम मिला होता है, वह वही काम दत्त-चित्त करती रहती हैं।
छत्ते में दूसरी रानी मक्खी पैदा हो जाती है तो उसके लिये परिवार न्यारा कर दिया जाता है। रानी मक्खी अपने लिये उपयुक्त स्थान की खोज में चलती हैं पर वह एक दिन में नहीं मिल जाता। रानी मूर्ख नहीं होती, वह यद्यपि नन्हा-सा कीट ही है। कुछ समय के लिये वह किसी पेड़ पर बसेरा डाल लेती है और अपने सभासदों को आदेश देती है कि वे ऐसा स्थान ढूंढ़ें जहां जल की समुचित मात्रा उपलब्ध हो, पराग के लिये फूल और घना जंगल हो तथा स्थान ऐसा हो जहां छत्ते की नींव जमाने में दिक्कत न हो। आमतौर पर यह जहां पहले छत्ते लगे होते हैं, उन स्थानों पर ही नया छत्ता बनाते हैं, उससे मोम की दीवार वृक्ष से चिपकाने में सुविधा रहती है।
स्थान के चुनाव में कई बार इनमें मतभेद हो जाता है। यदि दो-चार मक्खियों में ही विरोध रहे तब तो वे स्वयं अपनी भूल मानकर छत्ते में मिल जाती हैं पर यदि मतभेद इतना हो कि दो दलों में विभक्त होने की स्थिति आ जाये तो रानी मक्खी अपनी समझदारी से काम लेती है, वह जिस पक्ष को उचित मानती है, उसे लेकर नये स्थान में चली जाती है और बाद में अपने विशेष दूत भेजकर अपने बिछुड़े साथियों को भी वहां बुला लेती है। इस स्थिति में विरोधी पक्ष चुपचाप चला आता है और अपने दल में सम्मिलित होकर काम करने लगता है। डॉक्टर लिण्डावर के अनुसार मक्खियों में इससे भी विलक्षण मानसिक गति-विधियां चलती हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
यह दो उदाहरण इसलिये दिये गये हैं कि मनुष्य यह न मान ले कि न्याय, नीति, ईमानदारी, विकास आदि की बौद्धिक क्षमतायें केवल उसे ही मिली हैं, जीवों में जीव अति सभ्य संसार में रहने का दावा कर बैठें तो उनकी बात को असत्य सिद्ध करना कठिन हो सकता है। ये उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि संसार के सम्पूर्ण जीवों में व्याप्त आत्म-चेतना एक ही है। सबमें एक ही प्रकार की न्यूनाधिक नई-नई प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। मनुष्य केवल इसलिए अपवाद है कि उसमें प्रत्येक जीवन की सम्भावनायें विलक्षण रूप से भरी गई हैं। वह अपने आप में एक स्वतंत्र सत्ता है, इसलिए उसे यह सोचने, समझने का अवसर मिलता है कि हमारे जन्म का उद्देश्य क्या है और उस उद्देश्य को कैसे सार्थक किया जा सकता है।
प्रो. जे.वी.एस. हाल्डेन का कथन है—‘‘एक लाख वर्ष पूर्व कोई ऐसा एकाकी मनुष्य का जोड़ा था, जो अकेला एक ही था, उसी से आज के सम्पूर्ण मनुष्यों का आविर्भाव हुआ है। हम सब मनुष्य दूर के रिश्ते में सगे भाई हैं और सगे भाइयों जैसा व्यवहार ही हमें करना चाहिए।’’ और आगे तत्त्व-दर्शन की ओर बढ़ें तो डा. हाल्डेन के ही मतानुसार आज से लगभग 7000 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी में कोई एक प्राणी था, चाहे वे प्रोटोजोआ (एक कोषीय जंतु) था या फिर कोई आत्म-चेतना सम्पन्न प्राणी, उसी से सृष्टि के संपूर्ण प्राणियों का आविर्भाव हुआ। इस तरह हमें मात्र मनुष्यों में ही भाई चारे का सम्बन्ध नहीं देखना चाहिए वरन् सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही आत्म-चेतना का परिष्कार देखना चाहिए। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा और आत्म-भाव तत्त्व-दर्शन का वह सिद्धान्त है, जो हमें शीघ्र ही ईश्वर से मिला देता है, जब सब अपने ही भाई-बन्धु, नाती-पोते, पिता-बाबा, मां-बहन, बुआ-भतीजे हैं तो किसके साथ छल-कपट, अनीति और अन्याय किया जाये।
अपने परिवार के लिए हम अपनी आजीविका का 99 प्रतिशत भाग लगाते हैं और थोड़ा-सा अपने लिये रखते हैं, क्योंकि हमें अपने प्रियजनों की सेवा से सुख, सन्तोष मिलता है। यदि इस दायरे को बढ़ाकर हम प्राणिमात्र के प्रति आत्म-भावना और समता का विस्तार कर लें और उसे समष्टि भाव से निष्ठापूर्वक पूरा करते रहें तो यह निश्चय है कि हमारे सुख-सन्तोष और आनन्द की सीमा भी बढ़ी हुई होगी। प्रेम का पूरा आनन्द एक दो के साथ प्रेम-भाव से ही नहीं मिल सकता, उसका जितना अधिक विस्तार कर सकते हैं, अर्थात् घृणास्पद से भी यदि प्रेम करने का स्वभाव विकसित कर पायें तो अपने जीवन में बहुत अधिक आनन्द और आह्लाद की अनुभूति कर सकते हैं।
इस विचारणा का आधार यह है कि सम्पूर्ण जीव-जगत् एक ब्रह्म से स्फुरित हुआ है। इसी का नाम तत्त्व-दर्शन है। सनातन धर्म और संस्कृति का विकास इस तत्त्व-दर्शन से विकसित होने के कारण ही वह अकाट्य है। हमारे भारतीय धर्म ग्रन्थ कहते हैं—‘‘प्रारम्भ में एक ही ब्रह्म था उसकी इच्छा हुई—‘एकोऽहं बहुस्यामः’ मैं एक हूं बहुत हो जाऊं। उसकी इस इच्छा शक्ति ही का विस्तार अनेकानेक ब्रह्माण्ड और अनेक जीव-जन्तुओं में दिखाई देता है। सम्पूर्ण विविधता में भी वह एक ही अविनाशी अक्षर तत्त्व समाया हुआ है ‘बहुनामह एक मैव’ संसार में जो कुछ दिखाई देता है, उस सबमें एक मैं ही चेतन रूप में व्याप्त हूं। जब हम इस बात को समझ लेते हैं, तब हमें प्राणियों के साथ व्यवहार के लिये ही एक नया दृष्टिकोण नहीं मिलता वरन् मनुष्य-जीवन की वर्तमान गतिविधियों को भी हम दोषपूर्ण देखने लगते हैं और यह मानने को विवश होते हैं कि हमारे जीवन में जो अभाव, अशक्ति और अज्ञान है उसे भौतिक पदार्थों से नहीं दूर किया जा सकता वरन् आत्मा को विराट्—परमात्मा बनाकर ही हम कष्टों से मुक्ति और सच्चे आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं।
योगवशिष्ठ, गीता आदि ग्रन्थों में सम्पूर्ण जीवों में एक ही शक्ति और चेतन सत्ता के विद्यमान होने के वैज्ञानिक रहस्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पैंगलोपनिषद् में ब्रह्म के द्वारा सृष्टि रचना पर बड़ा सूक्ष्म प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि एक ही तत्त्व किस प्रकार विभिन्न जीव और पदार्थों का अस्तित्व धारण करता चला गया। पैंगल ऋषि महर्षि याज्ञवल्क्य के पास जाते हैं और तप करते हैं। 12 वर्ष तक तप करने से जब उनकी आत्मा शुद्ध हो जाती है, तब वे महर्षि से कहते हैं ‘परम रहस्य कैवल्य मनुब्रूहीति पप्रच्छ’ भगवन् आप मुझे परम रहस्यकारी ‘कैवल्य’ का उपदेश करें। महर्षि याज्ञवल्क्य ने उन्हें बताया सृष्टि के आदि में केवल सत् ही था। वही नित्य, मुक्त, अविकारी, सत्य, ज्ञान, आनन्द से पूर्ण सनातन एक मात्र अद्वितीय ब्रह्म है, उसी से लाल, श्वेत, कृष्ण, गुण वाली प्रकृति उत्पन्न हुई और यह चराचर जगत् बन गया।
शेर बहुत हिंसक जन्तु है, किन्तु समझ, सौन्दर्य और वात्सल्य जैसे गुण उसमें भी विद्यमान हैं। वे अपने पारिवारिक जीवन में बहुत निष्ठावान होते हैं। आजन्म गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं का पालन करते हैं और सभी पत्नियां एक बार प्रणय सूत्र में आबद्ध होने के पश्चात् अपने पति के साथ सम्बद्ध बनी रहती हैं। शेर और शेरनी का कदाचित ही कभी तलाक होता है। बच्चों को वे दोनों मिल-जुलकर बड़े लाड़-चाव से पालते हैं। प्रसिद्ध जीव शास्त्री श्री सलीम आलिम ने अनेक जीवों के अध्ययन के बाद बताया कि ब्रिटेन में पाये जाने वाले अधिकांश छोटे पक्षी एक पत्नी व्रत जीवन-यापन करते हैं। योरोप में पाया जाने वाला स्टारलिंग जो एक प्रकार से मैना की आकृति का पक्षी है, दिसम्बर के महीने में इसके विनाश के दिन होते हैं, कई बार तो आधे स्टारलिंग तक मर जाते हैं, उनमें से कइयों के जोड़े बिछुड़ चुके होते हैं। इस आघात को सहन करना और प्रेम विहीन जीवन-यापन करना स्टारलिंग के लिये कठिन पड़ता है, इन दिनों उनका बिलखना देखकर भावुक मनुष्यों से भी ऊंची इनकी मनःस्थिति प्रतीत होती है। हमारे देश में पाये जाने वाला बया पक्षी दाम्पत्य-जीवन में निष्ठावान् नहीं रहता और इस भूल का दण्ड भुगतता है। वह कई-कई विवाह करके अपने घोंसले में बहुधा कई-कई धर्म-पत्नियां ले आता है और फिर उसकी पत्नियों में परस्पर द्वेष-भाव, मार-पीट, काट-कलह होती है, उस मार-धाड़ में उसकी भी काफी मरम्मत होती रहती है और बया अपनी भूल पर पछताता रहता है।
यह उदाहरण जहां यह बताते हैं कि मनुष्य जैसी बुद्धिशीलता, चतुरता, संसार के सब प्राणियों में होने से वे सब एक ही जाति के जीव हैं, सब एक आत्मा के अंश हैं और उन्हें एक ही सार्वभौम नियम का पालन कर सुखी रहने और तोड़ने पर दुःख पाने को बाध्य होना पड़ता है।
डा. जे.डी. हक्सले चिड़ियों के जीवन के अध्ययन में बड़ी रुचि रखते थे। एक विलायती पक्षी क्रमटी का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा। ‘‘यह चिड़िया बसन्त आगमन पर विवाह की तैयारी करती है। नर एक स्थान पर बैठकर गाना गाता है। वह पेड़ों की टहनियां आदि एकत्रित करके रखता है और यह दिखाने का प्रयत्न करता है, मानो उसे उपार्जन, संरक्षण एवं गृहस्थ-निर्माण की कला की समुचित सामर्थ्य उपलब्ध है। मनुष्य को भी तो विवाह से पूर्व अपनी क्षमता की ऐसी ही परीक्षा कर लेनी चाहिए, यदि उसमें उतनी योग्यता न हो तो विवाह की जिम्मेदारी वहन करने का दुस्साहस नहीं ही करना चाहिए।
मनुष्य मादा क्रीमटो नर के पास से गुजरती है और उसकी योग्यता परख लेती है, तभी उसका प्रणय स्वीकार करती है। कई दिन मादा परखती रहती है, कहीं उसे झूठे प्रलोभन तो नहीं दिये जा रहे हैं। जब पूरा विश्वास हो जाता है, तभी नर-मादा दोनों मिलकर घोंसला बनाने की तैयारी करते हैं। अण्डे सेने का काम भी दोनों मिल-जुलकर बारी-बारी से करते हैं।
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जो यह बताते हैं कि संसार में जो भी विविधता है शरीर और प्रकृति की है। चेतना सबमें एक है, मनुष्य की यदि कुछ विशेषता है तो यही कि उसमें विवेक भी है और वह अपनी चेतना को समझने और उसे सम्पूर्ण प्राणियों की आत्म-चेतना के साथ जोड़ते हुए, विश्व-विराट् की अनुभूति की क्षमता से सम्पन्न है, यदि वह इस उद्देश्य को पूरा कर लेता है तो इसी नर शरीर से नारायण जैसी पूर्णता में परिणित हो सकता है।
मनुष्येत्तर प्राणियों में से भी जिन प्राणियों में सहयोग व सामूहिकता की प्रवृत्ति पाई जाती है वे क्षुद्र होते हुए भी सुरक्षित और व्यवस्थित जिंदगी जीते हैं। उनका अस्तित्व भी उतना ही जीवन्त बना रहता है। और कई प्राणी जो शारीरिक दृष्टि से मनुष्य की तुलना में काफी बढ़े-चढ़े हैं, चतुरता भी उनमें पर्याप्त है, पर वे परस्पर सहयोग करने की वृत्ति से रहित होने के कारण न तो उन्नति ही कर सके और न अपने अस्तित्व को ही सुरक्षित रख सके। सिंह जो किसी जमाने में भारी संख्या में सर्वत्र पाया जाता था, शक्ति की दृष्टि से वह सर्वोपरि कहलाता था, अब धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोता चला जा रहा है। जिस तेजी से उसकी संख्या घट रही है उसे देखते हुए पशु-विद्या के ज्ञाता यह सम्भावना मानने लगे हैं कि कहीं सौ दो सौ वर्षों के अन्दर ही सिंह का अस्तित्व इस पृथ्वी पर से पूर्णतया समाप्त न हो जाय। जिन जीवों में परस्पर सहयोग की न सही साथ-साथ झुण्ड बनाकर रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है वे इस कठिन समय में भी कम से कम अपने अस्तित्व की रक्षा किये हुए हैं। मनुष्य बन्दर को बहुत सताता है, वह उसकी आंखों में खटकता है, फिर भी परस्पर सहकारिता के बल पर वह घुड़की देने की अब भी हिम्मत करता है। कुत्ते परस्पर लड़ते हैं इसलिए उनका नाम ही तिरस्कार सूचक बन गया। बन्दर अब भी पुजते हैं और देवता कहलाते हैं।
जड़-जगत में संगठन की शक्ति को हम आसानी से देख सकते हैं। चींटियों का झुण्ड जब चिपट जाता है तो बड़े सांप को भी जीवित खा जाता है। टिड्डियों का दल, मनुष्य की रखवाली को व्यर्थ बनाता हुआ सारी फसल को चौपट कर जाता है। हाथियों और बन्दरों के झुण्ड निर्भयता पूर्वक जिधर चाहते हैं उधर बढ़ते जाते हैं, उनमें से प्रत्येक को यह विश्वास होता है कि कठिन समय आने पर साथियों का सहयोग सहज ही उपलब्ध हो जायगा। झुण्ड बांधकर चरने वाली गायें आक्रमणकारी बाघ की दाल नहीं गलने देतीं।
सूत के एक धागे को कोई बच्चा भी आसानी से तोड़ सकता है पर जब वे सौ पचास की संख्या में इकट्ठे होकर रस्सी बन जाते हैं तो बड़े पहलवान के लिए भी उसे तोड़ना कठिन होता है। एक सींक का कोई मूल्य नहीं, उससे किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती, पर जब कितनी ही सींकें मिलकर एक बुहारी बन जाती हैं, तो उससे घरों की सफाई बड़े सुचारु रूप में होती रहती है। छोटी-छोटी पानी की बूंदें जब तक अलग हैं तब तक उन्हें जमीन सोख लेती है, हवा सुखा देती है लेकिन जब वे इकट्ठा हो जाती हैं तो नदी, तालाब, समुद्र के रूप में अपनी प्रचण्ड शक्ति का परिचय देती हैं। जो जमीन अलग-अलग बूंदों को क्षण भर में सोख लेती थी वही अब तालाब के तल में या किनारे पर पतली कीचड़ के रूप में परास्त पड़ी दिखाई पड़ती है। एक सिपाही कुछ नहीं कर सकता पर जब उसका पूरा दल सेना के रूप में कहीं चढ़ाई करता है तो सामने वालों के छक्के छूट जाते हैं।
कुछ डाकू एक गिरोह बनाकर जब सक्रिय होते हैं तो बड़े प्रदेश की लाखों जनता को आतंकित कर देते हैं। थोड़े से संगठित षड्यन्त्रकारी बड़ी से बड़ी सुव्यवस्था को खतरे में डाल देते हैं। थोड़े से गुण्डे-बदमाशों की चाण्डाल चौकड़ी से भले आदमी डरते और दबते रहते हैं। इस प्रभाव में उन व्यक्तियों का मूल्य नहीं, उनकी सामूहिकता ही प्रधान है। ये डाकू, गुण्डे, बदमाश, षड्यन्त्रकारी शारीरिक और मानसिक दृष्टि से वैसे ही होते हैं जैसे अन्य साधारण नागरिक, उनमें डराने जैसी कोई बहुत बड़ी विशेषता नहीं होती। वे अकेले हों तो उनकी मरम्मत आसानी से हो सकती है पर चूंकि उनका एक गिरोह होता है, यह गिरोहबन्दी ही खतरे का—डरने का प्रधान अस्त्र है। देशों और जातियों का इतिहास भी इसी प्रकार का है। इतिहास साक्षी है कि जो लोग संगठित थे वे उन्नति के मार्ग पर बढ़ते गये और जो असंगठित थे वे उन्नति के मार्ग पर बढ़ते गये और जो असंगठित थे, फूट में ग्रस्त थे, उन्हें अवनति एवं पराजय का मुख देखना पड़ा।
भारत किसी समय में बड़ा गौरवशाली, शक्ति सम्पन्न एवं उन्नति के शिखर पर पहुंचा हुआ देश था, तब यहां के लोग संगठन का महत्त्व समझते थे, एक दूसरे के दुःख-सुख में साथी ही न थे, वरन् परस्पर सहायता करके एक दूसरे को आगे बढ़ाने से सुख-सन्तोष अनुभव करते थे। ‘संसार की सारी प्रगति और समृद्धि संगठन के आधार पर अवलम्बित है’ इस गुरु मन्त्र को यहां का हर नागरिक जानता था, और उसी आदर्श के अनुरूप अपनी सारी योजनाएं बनाता था। यह प्रवृत्ति जहां बढ़ती है, वहां स्वर्गीय सुख-शान्ति का स्वयम् ही अवतरण होता है जैसा कि पूर्व काल में इस देश में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता था। धीरे-धीरे जब इस मनोवृत्ति का ह्रास हुआ, लोग व्यक्तिगत लाभ को, स्वार्थपरता को महत्त्व देने लगे, परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, शोषण, अपहरण, लूट-खसोट, छल-कपट, फूट-फसाद का बढ़ना भी स्वाभाविक था—यह विष बीज, जहां बोये गये होंगे वहां सत्यानाश के फल ही उगेंगे। असंगठित, फूट-फसाद में ग्रस्त, आपापूती और ईर्ष्या, द्वेष के दलदल में जब हम फंस गये तो मुट्ठी पर विदेशी आक्रमण चढ़कर दौड़े और इतने विशाल देश पर जादू की तरह कब्जा कर लिया। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, असंगठित समाजों में सदा से यही दुर्गति होती आती है।
मनुष्य में सहयोग की भावना ही परस्पर श्रद्धा अनुशासन, प्रेम और कर्त्तव्यनिष्ठा के भाव भरती है। सहानुभूति-विहीन जीवन कष्ट और उलझन का ही नहीं हिंसा और बर्बरता का भी जीवन बन जाता है। ऐसा तो असभ्य जंगली जानवर तक नहीं पसन्द करते मनुष्य को क्यों पसन्द करना चाहिये? रूसी प्राणी विशेषज्ञ श्री साइबर्ट सोफ मैदानी क्षेत्र में रहने वाले जानवरों का अध्ययन कर रहे थे—तब उनके सामने एक विचित्र घटना घटित हुई। उन्होंने देखा एक सफेद पूंछ वाला उकाब पक्षी आकाश में मंडरा रहा है। आधा घण्टे तक वैसे ही मंडराते रहने के बाद उसने एक प्रकार की ध्वनि की। यह आवाज तेज थी लगता था उसने किसी को दौड़कर आने के लिये पुकारा हो। वह आवाज सुनते ही दूसरे उकाब ने आवाज की और दौड़कर उसके पास आ गया। इस तरह दस बारह उकाब वहां एकत्रित हो गये। फिर जाने क्या बात हुई वे सब गायब हो गये। दोपहर के लगभग उकाबों का पूरा झुण्ड उसी स्थान पर उतरा। साइबर्ट सोफ ने ऐसी पोजीशन ली जहां से उनकी सारी हरकत देखी जा सके। सभी उकाब एक घोड़े की लाश के पास पहुंचे। सबसे पहले बूढ़े उकाबों ने उसका मांस खाया फिर वे हटकर निगरानी करने लगे और तब दूसरे उकाबों ने मांस खाया। उकाबों की, इस सामाजिक भावना ने साइबर्ट सोफ को बहुत प्रभावित किया।
बेहरिंग के काफिले ध्रुव प्रदेश में चला करते। प्राकृतिक जीवन के अभ्यस्त यह काफिले वहां की सारी कठिनाइयों का मुकाबला बड़ी आसानी से कर लेते हैं किन्तु जो सबसे बड़े आश्चर्य की बात है वह यह है कि यह काफिले वहां की छोटी-छोटी लोमड़ियों से मात खा जाते हैं। उनकी इस आप-बीती को सुप्रसिद्ध लेखक स्टेलर ने बेहरिंग के काफिलों का युद्ध कहा है और बताया है कि प्रारम्भ में यह काफिले जिस स्थान पर डेरा डालते वहां की लोमड़ियां आतीं और उनका खाना चुरा ले जातीं। निदान खाने को पत्थरों से ढककर रखा जाने लगा। पत्थर भी इतने वजनदार रखे जाते कि बड़ी से बड़ी लोमड़ी भी उन्हें उठाकर अलग न कर सकती। काफिले वाले बड़े असमंजस में थे कि तब भी उनका खाना चोरी गया मिलता और पत्थर उस स्थान से दूर फेंका मिलता।
ऐसा लगा कि कोई बड़ा जानवर आता है अतएव ताक की गई। बात बड़ी विचित्र निकली, एक साथ कई लोमड़ियों का झुण्ड आया उनमें से एक ऊंची टेकरी पर खड़ी हो गई, एक दूसरी तरफ। यह थी चौकीदार उनका काम किसी भी सम्भावित हमले की सूचना अपने साथियों को देना होता है। शेष लोमड़ियां आगे बढ़ीं और एक साथ शक्ति लगाकर वजनदार पत्थर को उठाकर अलग कर दिया और खाना चुरा ले गईं।
अब काफिले वालों ने एक के ऊपर एक पत्थर रखकर ऊंचा खम्भा उठाया और उसके ऊपर खाना रखा पर लोमड़ियों से वह तब भी नहीं बच सका। अब लोमड़ियों ने अपनी पीठ पर चढ़ाकर किसी चुस्त लोमड़ी को ऊपर चढ़ा दिया उसने ऊपर से खाना गिराया। गिरे हुये खाने को सबने उठाया और फिर ऊपर चढ़ी लोमड़ी को उतारा और दूर एकांत में जाकर सारा खाना बांटकर खा लिया।
इस घटना की समीक्षा करते हुये स्टेलर ने लिखा है यह आश्चर्य की बात है कि लोमड़ी जैसे छोटे जीव ने सहयोग और सहकारिता के महत्त्व को समझा और उसका लाभ उठाया जब कि मनुष्य जैसा बुद्धिशील प्राणी परस्पर स्पर्द्धा रखता, ईर्ष्या, द्वेष और मनोमालिन्य रखता है यह वृत्तियां उसे आगे बढ़ने से रोकती हैं। सुख और शांति, समृद्धि और सम्पन्नता का राजमार्ग यह है कि मनुष्य भी मिल-जुलकर रहना सीखें, अपने हित को दूसरे के हित से जुड़ा हुआ मानकर एक दूसरे के साथ सहयोग करना सीखें यही वृत्ति सामाजिक जीवन को व्यवस्थित बना सकती है।
आनन्द और उन्नति का आधार
सहयोग और सामूहिकता के आधार पर ‘निश्चित व सुरक्षित जीवन ही’ आनन्द तथा उल्लास का आधार बनता है। इतना ही नहीं इन तत्त्वों की महत्ता समझने वाले लोग रेश और जातियां अपराजेय होती हैं। मनुष्य जाति की समग्र सुख-समुन्नति साधन में नहीं भावनाओं के विकास में है। भावनाओं के विकास द्वारा ही कोई मनुष्य अभावपूर्ण जीवन में भी आनन्द और उल्लास, हंसी और खुशी प्राप्त कर सकता है।
बुद्धि का अनुदान औरों को भी
प्रकृति ने विकास और सुरक्षा की व्यवस्था के लिए आवश्यक विभूतियों का वितरण करने में कहीं कोई कृपणता नहीं बरती है। कहा जा सकता है कि बौद्धिक क्षमतायें और सहयोग भावना केवल मनुष्यों में ही है परन्तु यह कहना लक्ष्य से मुंह मोड़ना होगा। क्योंकि प्रकृति ने अपनी अन्य सन्तानों को भी उसी उदारता से ये विभूतियां प्रदान कर रखी हैं।
सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री बेल्ट एक बार चींटियों के सामाजिक जीवन का अध्ययन कर रहे थे। एकाएक मस्तिष्क में एक कौतूहल जागृत हुआ यदि इन चींटियों को मकान छोड़ने को विवश किया जाये तब यह क्या करेंगी। बेल्ट चींटियों की बुद्धि की गहराई और उसकी सूक्ष्मता की माप करना चाहते थे अतएव चींटियों के एक बिल के पास ऐसा वातावरण उपस्थित किया जिससे चींटियां आतंकित हों। पास की जमीन थपथपाना, पानी छिड़कना, विचित्र शोर करना आदि। चींटियों ने उसी तरह परिस्थिति को गम्भीर माना जिस तरह अतिवृष्टि, तूफान, समुद्री उफान जैसे प्राकृतिक कौतुक मनुष्य को डराने, धमकाने और ठीक-ठिकाने लाने के लिये बड़ी शक्तियां करती हैं और मनुष्य उनसे डर जाता है।
जिस स्थान पर बिल था आधा फुट पास ही वहां एक छोटी सी ढाल थी। सर्वेयर चींटियां चटपट बाहर निकलीं और उस क्षेत्र में घूमकर तय किया कि ढलान के नीचे का स्थान सुरक्षित है। उनके लौटकर भीतर बिल में जाते ही मजदूर गण सामान लेकर भीतर से निकलने लगे। बाहर आकर चींटियों ने दो दल बनाये, एक दल अपनी महारानी को लेकर नीचे उतर गया और खोजे हुए नये स्थान पर पहुंचाकर बिल के बाहर पंक्तिबद्ध खड़ा हो गया मानो वे सब किसी विशेष काम की तैयारी करने वाले हों।
सामान ज्यादा हो और दूर की यात्रा हो तो मनुष्य बैलगाड़ी, रेल, मोटर और हवाई जहाज का सहारा लेते हैं। माना कि चींटियों के पास इस तरह के वाहन नहीं हों यह भी सम्भव है कि वे आदिम युग के पुरुषों की तरह समझदार हों और यांत्रिक जीवन की अपेक्षा प्राकृतिक जीवन बेहतर मानती हों अतएव उन्होंने वाहन न रचे हों पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनमें परिस्थितियों के विश्लेषण और तदनुरूप क्रिया की क्षमता नहीं होती। चींटियों का जो दूसरा दल ऊपर था समय और बोझ से बचने के लिये ऊपर से सामान लुढ़काना प्रारम्भ किया। नीचे वाली चींटियां उसे संभालती जा रही थीं और बिल के अन्दर पहुंचा रही थीं। ऐसा लगता था जैसे बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में हैलिकॉप्टर से अन्न के बोरे गिराये जा रहे हों।
अपने गांव-नगर के निवासियों को हर चींटी भली प्रकार पहचानती है। एक भी बाहर वाली घुस आवे तो उसे तुरन्त पहचान लिया जायगा और मार-कूटकर उसे वापिस खदेड़ दिया जायगा।
एक भी चींटी कभी बेकार नहीं बैठती। उन्हें आराम हराम है। वे समूह बनाकर काम करती हैं और हर दल अपने क्रिया-कलाप में कीर्तिमान स्थापित करने के लिये पूरे उत्साह, धैर्य और सन्तोष के साथ लगी रहती हैं। मानो कर्म की सुव्यवस्था ही एक मात्र उनकी महत्त्वाकांक्षा हो। गौर से देखें तो प्रतीत होगा कि उनका एक दल एक रास्ते जा रहा है तो दूसरा दल उसी मार्ग से वापिस लौट रहा है। लौटने वालियों के मुंह में अनाज, कीड़ा, घास−फूस, मिट्टी आदि कुछ न कुछ जरूर होगा। यह संग्रह अपने लिए नहीं पूरे परिवार के लिए करती हैं। खाद्य संग्रह, गृह-निर्माण प्रायः इस भाग दौड़ का उद्देश्य होता है। घायलों और बीमारों की सेवा-सहायता से लेकर अण्डे बच्चों के परिपोषण तक के लिए भी उनकी गति-विधियां चलती हैं। बिल में पानी भर जाने या कोई संकट उपस्थित होने पर वे नया स्थान ढूंढ़ने, बनाने और स्थानान्तरण के साथ-साथ संग्रहीत माल असवाव ढोने की आपत्ति कालीन व्यवस्था भी बनाती हैं। कहीं चीनी का बड़ा भण्डार दीख पड़े या कोई स्वादिष्ट कीड़ा हाथ लग जाये तो फिर दैनिक कार्यों को बदलकर वे फिर जल्दी-जल्दी उस लाभ से लाभान्वित होने का प्रयत्न करती हैं। माल मिलते ही वे तत्काल उसे खाने नहीं बैठ जातीं वरन् उसमें से क्वचित जलपान करके बिल में जमा करने के लिए जुट जाती हैं और सुविधानुसार उसे स्वाद और सन्तोष पूर्वक खाती हैं।
चींटियों के तीन वर्ग हैं (1) रानियां (2) राजा लोग (3) बांदियां। रानी एक ढेर में चार पांच से अधिक नहीं रहतीं। वे औसत चींटी से मोटी तगड़ी होती हैं, उनका कार्य केवल बच्चा उत्पन्न करना होता है। प्रायः सारा समय उनका इसी में व्यतीत होता है। अस्तु बाहर निकलने, घूमने की भी उन्हें फुरसत नहीं होती। नर्सें, दाइयां, तसोइया, चौकीदार उनके पास मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पर तैनात रहते हैं।
अण्डों को सेने का काम बांदियां करती हैं। प्रसव होते ही वे उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाती हैं और जब तक बच्चे बड़े न हो जायं तब तक बांदियां उनका अपने निज के बच्चों जैसा ही लालन-पालन करती हैं। अण्डे में से एक नन्हीं सी ‘इली’ निकलती है यह जमीन पर पड़ी कुल-मुलाती रहती है। भूखी होने पर मुंह खोलती है तो मौसियां तुरन्त उनके मुंह में कोमल और सुपाच्य ग्रास रख देती हैं। उपयुक्त समय पर वे इन बच्चों को सहारा देकर घुमाने भी ले जाती हैं।
बांदियां न विवाह करती हैं न बच्चे देने के झंझट में पड़ती हैं। उन्हें नियत कर्त्तव्य पालन में गृहस्थी बसाने से अधिक सन्तोष रहता है।
राजाओं के पंख उगते हैं वे बिलों से निकल कर उड़ान भरते हैं। जैसे ही वे उड़े कि पक्षी उन पर झपट पड़ते हैं और बात की बात में उन्हें उदरस्थ कर जाते हैं। कुछ के पंख टूट जाते हैं और भारी होने के कारण घर लौटने में असमर्थ रह कर प्राण गंवाते हैं। जो लौट आते हैं वे अपने पंख नोंच कर फेंक देते हैं और अन्य साथियों की तरह रहने में ही कल्याण मानते हैं। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा कितनी महंगी पड़ती है उसे वे अनुभव द्वारा भली प्रकार सीख लेते हैं और फिर अकेले आकाश दूने की सनक को सदा के लिए त्याग देते हैं।
चींटियां सदा एक ही स्थान पर नहीं रहतीं। जब उनका नगर बस जाता है उनमें निवास, आवास, गोदाम, चिकित्सालय, विश्रामगृह, सड़कें, गलियां आदि सभी कुछ बन जाता है और खाने के लिए पर्याप्त खाद्य भण्डार जमा हो जाता है तो नर चींटियां यह अनुभव करती हैं कि अब दल में निठल्लापन आ जायगा और आरामतलबी से श्रमशीलता की आदत घट जायगी। इस संकट को टालने के लिए तो राजा लोग नये नगर बसाने, नया क्षेत्र ढूंढ़ने के लिए निकल पड़ते हैं और जब उपयुक्त भूमि मिल जाती है तो रानियों को साथ लेकर नई जगह में चले जाते हैं। बांदियां वफादार साथी की तरह उनके पीछे चल पड़ती हैं और नये सिरे से नया नगर बसाने और आवश्यक उपकरण जुटाने में लग जाती हैं, इस प्रकार अमीरी और आरामतलबी से उत्पन्न होने वाली संकटों से वे बचकर अपनी कर्मनिष्ठा बनाये रहती हैं। पुराना नगर छोड़ने और नया देश बसाने का उनका यह क्रम निरन्तर चलता ही रहता है, वे एक जगह बहुत समय नहीं रहतीं।
अमेरिका में पाई जाने वाली अट्टा चींटी खेती-बाड़ी भी करती हैं, वह अपनी रुचि के बीज जमा करके पास की नम जगह में गाढ़ती हैं और उगने वाली फसल की निराई-गुड़ाई करती रहती हैं। जब फसल पकती है तो उसका एक एक दाना वे अपने बिलों में जमा कर लेती हैं। ये चींटियां पास-पड़ौस के किसानों की फसल पर भी चढ़कर पके हुए बीज तोड़ती और ढोकर घर में जमा करने में भी प्रवीण होती हैं।
चींटी ही नहीं दीमक भी अपने आकार-प्रकार को देखते हुए इतनी कर्मशील और दूरदर्शी है कि उसके क्रिया-कलाप से मनुष्य कुछ सीख समझ सकता है और अपनी वैयक्तिक एवं सामाजिक स्थिति में उपयोगी सुधार कर सकता है।
दीमकों में अधिकांश अन्धी होती हैं तो भी उनकी घ्राणशक्ति लगभग आंखों जैसी ही सहायता करती है और वे बिना भटके अपना जीवन-क्रम चलाती रहती हैं। आंखों वाली दीमकें उनकी कठिनाई को समझती हैं और स्वयं हटकर उनके लिये रास्ता देती हैं और समय पर उन्हें अतिरिक्त सहायता पहुंचाती हैं।
दीमकों के बिलों के ऊपर जो मिट्टी का आच्छादन होता है वह इतनी मजबूती और कुशलता से बना होता है कि वर्षा का पानी उसमें प्रवेश करके उनमें निवास करने वाली दीमकों की कोई क्षति नहीं कर पाता। छोटे-मोटे नाले, झरनों के ऊपर से वे ऐसे मजबूत पुल बनाती हैं कि वर्षों तक उस रास्ते उनका आना-जाना इधर-उधर हो सके। इस प्रकार के जल अवरोध को दूर कर सकने में भी सफल होती हैं। छोटी-सी दीमक की यह गति-विधियां लम्बे-चौड़े आकार वाले मनुष्य के लिए अनुकरणीय हैं।
सहयोग, संगठन और सहकार की विशेषताओं के अलावा अन्य जीव-जन्तुओं में विद्यमान बौद्धिक क्षमतायें इस बात की भी प्रतीक हैं कि सृष्टि के कण-कण में एक ही चेतन तत्त्व समाया है अन्यथा आकृति, प्रकृति, शक्ति व शरीर के संरचना में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हुए भी सभी प्राणियों में व्यवस्था, बुद्धिमत्ता और सूझ-बूझ के तत्त्व समान रूप से विद्यमान होते हैं।
गरिमा अन्य प्राणियों में भी
इस दृष्टि से ब्राजील की एक चींटी को अद्भुत आश्चर्य कहा जा सकता है जो कृषि पर ही निर्भर रहती है। सामान्य चींटियों की तरह यह दूसरों की कमाई पर निर्भर नहीं रहतीं। यह कुछ पेड़ों से गिरी पर टूटी पत्तियां ले आती हैं और उन्हें अपने बिल में रखती हैं। किसान जिस तरह अपने खेतों को अच्छी तरह जोतता, घास-फूस निकालकर बीज बोता है, उसी प्रकार यह चींटियां भी इन पत्तों का भली प्रकार निरीक्षण करती हैं, कहीं कोई कीड़ा या रोगाणु तो नहीं हैं। यदि पत्ता अच्छा हुआ तो वे इसमें एक विशेष प्रकार की फफूंद बोती हैं। पैदा की हुई इस फफूंद से ही इनका आहार चलता है। चींटी में स्वावलम्बन के साथ गुण-दोष विवेचन की क्षमता आश्चर्यजनक है।
यदि कोई चींटी बंटवारा करना चाहे तो जिम्मेदार चींटियां उसके लिये नया बिल ढूंढ़ देती हैं। उसे विदा करते समय उन्हें यह ध्यान रहता है कि कहीं इसे आहार के अभाव में भूखों न मरना पड़े इसलिये ये फफूंद का एक कण भी उसे देती हैं। इस कण को लेकर चींटी दूसरे बिल में जाती है और वहां अपनी कृषि जमाकर सुखपूर्वक रहने लगती हैं। तुच्छ जीव में मनुष्य से बढ़कर विवेक भी कम विस्मय बोधक नहीं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रिश के शिष्य डा. लिडावर ने मधु-मक्खियों का बहुत दिन तक अध्ययन किया और बताया कि उनकी प्रवृत्तियां मानव-जीवन की गति-विधियों से विलक्षण साम्य रखती हैं। जिस प्रकार घर के मुखिया के आदेश पर घर के सब काम व्यवस्था पूर्वक चलते हैं, उसी प्रकार मधु-मक्खियों में एक रानी मक्खी होती है, छत्ते की सारी व्यवस्था का भार उस पर ही होता है। छत्ते के सब निवासी उसके निर्देशों का अच्छी प्रकार पालन करते हैं इन मक्खियों में विभाग बंटे हुए होते हैं, कुछ मजदूर होती हैं, जिनका काम छत्ते को बनाना, टूट-फूट जोड़ना, छत्ते में कोई मर जाये, उसे वहां से ले जाकर श्मशान तक पहुंचाना यह सब काम मजदूर करते हैं। कुछ सैनिक मक्खियां होती हैं इनका काम है रानी मक्खी और छत्ते की बाहरी आक्रमणकारियों से सुरक्षा। मनुष्यों की फौज में कुछ सिपाही कायर और डरपोक हो सकते हैं, किन्तु यह दुश्मन के संघर्ष में अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करतीं। ये उनसे मृत्यु पर्यन्त लड़ती हैं। कुछ मक्खियों का काम फूलों से पराग लाना और उससे शहद बनाना होता है। इस तरह जिसको जो काम मिला होता है, वह वही काम दत्त-चित्त करती रहती हैं।
छत्ते में दूसरी रानी मक्खी पैदा हो जाती है तो उसके लिये परिवार न्यारा कर दिया जाता है। रानी मक्खी अपने लिये उपयुक्त स्थान की खोज में चलती हैं पर वह एक दिन में नहीं मिल जाता। रानी मूर्ख नहीं होती, वह यद्यपि नन्हा-सा कीट ही है। कुछ समय के लिये वह किसी पेड़ पर बसेरा डाल लेती है और अपने सभासदों को आदेश देती है कि वे ऐसा स्थान ढूंढ़ें जहां जल की समुचित मात्रा उपलब्ध हो, पराग के लिये फूल और घना जंगल हो तथा स्थान ऐसा हो जहां छत्ते की नींव जमाने में दिक्कत न हो। आमतौर पर यह जहां पहले छत्ते लगे होते हैं, उन स्थानों पर ही नया छत्ता बनाते हैं, उससे मोम की दीवार वृक्ष से चिपकाने में सुविधा रहती है।
स्थान के चुनाव में कई बार इनमें मतभेद हो जाता है। यदि दो-चार मक्खियों में ही विरोध रहे तब तो वे स्वयं अपनी भूल मानकर छत्ते में मिल जाती हैं पर यदि मतभेद इतना हो कि दो दलों में विभक्त होने की स्थिति आ जाये तो रानी मक्खी अपनी समझदारी से काम लेती है, वह जिस पक्ष को उचित मानती है, उसे लेकर नये स्थान में चली जाती है और बाद में अपने विशेष दूत भेजकर अपने बिछुड़े साथियों को भी वहां बुला लेती है। इस स्थिति में विरोधी पक्ष चुपचाप चला आता है और अपने दल में सम्मिलित होकर काम करने लगता है। डॉक्टर लिण्डावर के अनुसार मक्खियों में इससे भी विलक्षण मानसिक गति-विधियां चलती हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
यह दो उदाहरण इसलिये दिये गये हैं कि मनुष्य यह न मान ले कि न्याय, नीति, ईमानदारी, विकास आदि की बौद्धिक क्षमतायें केवल उसे ही मिली हैं, जीवों में जीव अति सभ्य संसार में रहने का दावा कर बैठें तो उनकी बात को असत्य सिद्ध करना कठिन हो सकता है। ये उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि संसार के सम्पूर्ण जीवों में व्याप्त आत्म-चेतना एक ही है। सबमें एक ही प्रकार की न्यूनाधिक नई-नई प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। मनुष्य केवल इसलिए अपवाद है कि उसमें प्रत्येक जीवन की सम्भावनायें विलक्षण रूप से भरी गई हैं। वह अपने आप में एक स्वतंत्र सत्ता है, इसलिए उसे यह सोचने, समझने का अवसर मिलता है कि हमारे जन्म का उद्देश्य क्या है और उस उद्देश्य को कैसे सार्थक किया जा सकता है।
प्रो. जे.वी.एस. हाल्डेन का कथन है—‘‘एक लाख वर्ष पूर्व कोई ऐसा एकाकी मनुष्य का जोड़ा था, जो अकेला एक ही था, उसी से आज के सम्पूर्ण मनुष्यों का आविर्भाव हुआ है। हम सब मनुष्य दूर के रिश्ते में सगे भाई हैं और सगे भाइयों जैसा व्यवहार ही हमें करना चाहिए।’’ और आगे तत्त्व-दर्शन की ओर बढ़ें तो डा. हाल्डेन के ही मतानुसार आज से लगभग 7000 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी में कोई एक प्राणी था, चाहे वे प्रोटोजोआ (एक कोषीय जंतु) था या फिर कोई आत्म-चेतना सम्पन्न प्राणी, उसी से सृष्टि के संपूर्ण प्राणियों का आविर्भाव हुआ। इस तरह हमें मात्र मनुष्यों में ही भाई चारे का सम्बन्ध नहीं देखना चाहिए वरन् सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही आत्म-चेतना का परिष्कार देखना चाहिए। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा और आत्म-भाव तत्त्व-दर्शन का वह सिद्धान्त है, जो हमें शीघ्र ही ईश्वर से मिला देता है, जब सब अपने ही भाई-बन्धु, नाती-पोते, पिता-बाबा, मां-बहन, बुआ-भतीजे हैं तो किसके साथ छल-कपट, अनीति और अन्याय किया जाये।
अपने परिवार के लिए हम अपनी आजीविका का 99 प्रतिशत भाग लगाते हैं और थोड़ा-सा अपने लिये रखते हैं, क्योंकि हमें अपने प्रियजनों की सेवा से सुख, सन्तोष मिलता है। यदि इस दायरे को बढ़ाकर हम प्राणिमात्र के प्रति आत्म-भावना और समता का विस्तार कर लें और उसे समष्टि भाव से निष्ठापूर्वक पूरा करते रहें तो यह निश्चय है कि हमारे सुख-सन्तोष और आनन्द की सीमा भी बढ़ी हुई होगी। प्रेम का पूरा आनन्द एक दो के साथ प्रेम-भाव से ही नहीं मिल सकता, उसका जितना अधिक विस्तार कर सकते हैं, अर्थात् घृणास्पद से भी यदि प्रेम करने का स्वभाव विकसित कर पायें तो अपने जीवन में बहुत अधिक आनन्द और आह्लाद की अनुभूति कर सकते हैं।
इस विचारणा का आधार यह है कि सम्पूर्ण जीव-जगत् एक ब्रह्म से स्फुरित हुआ है। इसी का नाम तत्त्व-दर्शन है। सनातन धर्म और संस्कृति का विकास इस तत्त्व-दर्शन से विकसित होने के कारण ही वह अकाट्य है। हमारे भारतीय धर्म ग्रन्थ कहते हैं—‘‘प्रारम्भ में एक ही ब्रह्म था उसकी इच्छा हुई—‘एकोऽहं बहुस्यामः’ मैं एक हूं बहुत हो जाऊं। उसकी इस इच्छा शक्ति ही का विस्तार अनेकानेक ब्रह्माण्ड और अनेक जीव-जन्तुओं में दिखाई देता है। सम्पूर्ण विविधता में भी वह एक ही अविनाशी अक्षर तत्त्व समाया हुआ है ‘बहुनामह एक मैव’ संसार में जो कुछ दिखाई देता है, उस सबमें एक मैं ही चेतन रूप में व्याप्त हूं। जब हम इस बात को समझ लेते हैं, तब हमें प्राणियों के साथ व्यवहार के लिये ही एक नया दृष्टिकोण नहीं मिलता वरन् मनुष्य-जीवन की वर्तमान गतिविधियों को भी हम दोषपूर्ण देखने लगते हैं और यह मानने को विवश होते हैं कि हमारे जीवन में जो अभाव, अशक्ति और अज्ञान है उसे भौतिक पदार्थों से नहीं दूर किया जा सकता वरन् आत्मा को विराट्—परमात्मा बनाकर ही हम कष्टों से मुक्ति और सच्चे आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं।
योगवशिष्ठ, गीता आदि ग्रन्थों में सम्पूर्ण जीवों में एक ही शक्ति और चेतन सत्ता के विद्यमान होने के वैज्ञानिक रहस्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पैंगलोपनिषद् में ब्रह्म के द्वारा सृष्टि रचना पर बड़ा सूक्ष्म प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि एक ही तत्त्व किस प्रकार विभिन्न जीव और पदार्थों का अस्तित्व धारण करता चला गया। पैंगल ऋषि महर्षि याज्ञवल्क्य के पास जाते हैं और तप करते हैं। 12 वर्ष तक तप करने से जब उनकी आत्मा शुद्ध हो जाती है, तब वे महर्षि से कहते हैं ‘परम रहस्य कैवल्य मनुब्रूहीति पप्रच्छ’ भगवन् आप मुझे परम रहस्यकारी ‘कैवल्य’ का उपदेश करें। महर्षि याज्ञवल्क्य ने उन्हें बताया सृष्टि के आदि में केवल सत् ही था। वही नित्य, मुक्त, अविकारी, सत्य, ज्ञान, आनन्द से पूर्ण सनातन एक मात्र अद्वितीय ब्रह्म है, उसी से लाल, श्वेत, कृष्ण, गुण वाली प्रकृति उत्पन्न हुई और यह चराचर जगत् बन गया।
शेर बहुत हिंसक जन्तु है, किन्तु समझ, सौन्दर्य और वात्सल्य जैसे गुण उसमें भी विद्यमान हैं। वे अपने पारिवारिक जीवन में बहुत निष्ठावान होते हैं। आजन्म गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं का पालन करते हैं और सभी पत्नियां एक बार प्रणय सूत्र में आबद्ध होने के पश्चात् अपने पति के साथ सम्बद्ध बनी रहती हैं। शेर और शेरनी का कदाचित ही कभी तलाक होता है। बच्चों को वे दोनों मिल-जुलकर बड़े लाड़-चाव से पालते हैं। प्रसिद्ध जीव शास्त्री श्री सलीम आलिम ने अनेक जीवों के अध्ययन के बाद बताया कि ब्रिटेन में पाये जाने वाले अधिकांश छोटे पक्षी एक पत्नी व्रत जीवन-यापन करते हैं। योरोप में पाया जाने वाला स्टारलिंग जो एक प्रकार से मैना की आकृति का पक्षी है, दिसम्बर के महीने में इसके विनाश के दिन होते हैं, कई बार तो आधे स्टारलिंग तक मर जाते हैं, उनमें से कइयों के जोड़े बिछुड़ चुके होते हैं। इस आघात को सहन करना और प्रेम विहीन जीवन-यापन करना स्टारलिंग के लिये कठिन पड़ता है, इन दिनों उनका बिलखना देखकर भावुक मनुष्यों से भी ऊंची इनकी मनःस्थिति प्रतीत होती है। हमारे देश में पाये जाने वाला बया पक्षी दाम्पत्य-जीवन में निष्ठावान् नहीं रहता और इस भूल का दण्ड भुगतता है। वह कई-कई विवाह करके अपने घोंसले में बहुधा कई-कई धर्म-पत्नियां ले आता है और फिर उसकी पत्नियों में परस्पर द्वेष-भाव, मार-पीट, काट-कलह होती है, उस मार-धाड़ में उसकी भी काफी मरम्मत होती रहती है और बया अपनी भूल पर पछताता रहता है।
यह उदाहरण जहां यह बताते हैं कि मनुष्य जैसी बुद्धिशीलता, चतुरता, संसार के सब प्राणियों में होने से वे सब एक ही जाति के जीव हैं, सब एक आत्मा के अंश हैं और उन्हें एक ही सार्वभौम नियम का पालन कर सुखी रहने और तोड़ने पर दुःख पाने को बाध्य होना पड़ता है।
डा. जे.डी. हक्सले चिड़ियों के जीवन के अध्ययन में बड़ी रुचि रखते थे। एक विलायती पक्षी क्रमटी का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा। ‘‘यह चिड़िया बसन्त आगमन पर विवाह की तैयारी करती है। नर एक स्थान पर बैठकर गाना गाता है। वह पेड़ों की टहनियां आदि एकत्रित करके रखता है और यह दिखाने का प्रयत्न करता है, मानो उसे उपार्जन, संरक्षण एवं गृहस्थ-निर्माण की कला की समुचित सामर्थ्य उपलब्ध है। मनुष्य को भी तो विवाह से पूर्व अपनी क्षमता की ऐसी ही परीक्षा कर लेनी चाहिए, यदि उसमें उतनी योग्यता न हो तो विवाह की जिम्मेदारी वहन करने का दुस्साहस नहीं ही करना चाहिए।
मनुष्य मादा क्रीमटो नर के पास से गुजरती है और उसकी योग्यता परख लेती है, तभी उसका प्रणय स्वीकार करती है। कई दिन मादा परखती रहती है, कहीं उसे झूठे प्रलोभन तो नहीं दिये जा रहे हैं। जब पूरा विश्वास हो जाता है, तभी नर-मादा दोनों मिलकर घोंसला बनाने की तैयारी करते हैं। अण्डे सेने का काम भी दोनों मिल-जुलकर बारी-बारी से करते हैं।
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जो यह बताते हैं कि संसार में जो भी विविधता है शरीर और प्रकृति की है। चेतना सबमें एक है, मनुष्य की यदि कुछ विशेषता है तो यही कि उसमें विवेक भी है और वह अपनी चेतना को समझने और उसे सम्पूर्ण प्राणियों की आत्म-चेतना के साथ जोड़ते हुए, विश्व-विराट् की अनुभूति की क्षमता से सम्पन्न है, यदि वह इस उद्देश्य को पूरा कर लेता है तो इसी नर शरीर से नारायण जैसी पूर्णता में परिणित हो सकता है।