Books - जीव जन्तु बोलते भी हैं, सोचते भी हैं
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Language: HINDI
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मनुष्य जीवन भी एक प्रयास
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सृष्टि में विद्यमान जीवन-व्यवस्था को जन्म-मरण के चक्र को शास्त्रीय भाषा में आवागमन का चक्र कहा जाता है। आवागमन अर्थात् आना और जाना, अर्थात् किसी स्थान पर पहुंचना और कुछ समय रहकर, अभीष्ट कार्य पूरे करने के बाद वापस लौट जाना। भारतीय मनीषियों की मान्यता है कि परमात्मा प्रत्येक जीव को किसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए निश्चित अवधि का समय देकर इस संसार में भेजता है और फिर वापस बुला लेता है।
मनुष्येत्तर जीव-जन्तुओं को तो भोग योनि कहा गया है और मनुष्य को कर्म-योनि का प्राणी माना गया है। भोग योनि के सम्बन्ध में बताया गया है कि जीव इस प्रकार अपने पूर्वकृत कर्मों का ही परिणाम या दण्ड भोगता है लेकिन मनुष्य को अपने जीवन में कर्मों की स्वतंत्रता भी प्रदान की है और उस स्वतंत्रता के साथ अन्य कई विशेषतायें देकर मनुष्य को इस लोक में भेजा गया है। इस स्वतंत्रता और सैम्वीत्रयी विशिष्टताओं के साथ उसे कुछ विशिष्ट दायित्व भी सौंपे गये हैं और उन दायित्वों को पूरा करने के लिए संसार में भेजा जाता है। अफसर जिस प्रकार किसी दौरे पर जाते हैं और अपने अधिकारों का उपयोग कर सुपुर्द कामों को निबटा कर आते हैं, व्यापारी जिस प्रकार अपने व्यापार व्यवसाय के उद्देश्य से कहीं जाते हैं और उस कामों को पूरा करने के बाद लौट आते हैं, मनुष्य को भी उसी प्रकार कुछ विशिष्ट दायित्वों को पूरा करने के लिए जीवन-यात्रा पर भेजा जाता है। भारतीय दर्शन की यह मान्यता स्पष्ट है और इसी कारण जीवन को आवागमन के चक्र के रूप में व्याख्यायित किया गया है।
यात्राएं मानव स्वभाव का अंग
सामान्य जीवन-चक्र में भी यात्राएं मानव स्वभाव का एक अंग ही बनी हुई हैं। जीवन में यात्राओं का यह स्थान उस समय भी था। जब पृथ्वी पर यातायात के साधनों का उतना विकास नहीं हुआ था। तब न केवल आजीविका, रोजगार, अध्ययन के लिए अपितु प्राकृतिक सुषमा के दर्शन, जीवन-चक्र में आयी एकरसता को तोड़ने के लिए देशाटन से लेकर योग्यता बढ़ाने, सत्संग करने और ज्ञानप्राप्ति के लिए भी एकाकी तथा सामूहिक यात्राएं आयोजित हुआ करती थीं। संसाधनों के विकास के साथ-साथ इस प्रवृत्ति का भी विकास हुआ है। यात्राओं की सफलता के लिए प्रचुर भौगोलिक ज्ञान, स्थान विशेष के रीत-रिवाज, रहन-सहन, योग्य विश्राम स्थलों की जानकारियां पूर्व में ही उपलब्ध हो जाने के कारण यह यात्राएं अब सब तरह से आराम देह हो गई हैं।
दूसरी ओर पशु-पक्षी हैं उनमें प्रवास का नैसर्गिक गुण आदि-काल से चला आया है। उनकी यात्राएं पहले की अपेक्षा अब अधिक संकटपूर्ण हो गई हैं। उन्हें कोई भौगोलिक ज्ञान भी नहीं मिला होता है, किन्तु यह प्रकृति का एक चमत्कार ही है कि प्रतिवर्ष हजारों पक्षी—जंगली जीव न केवल पड़ौसी राज्यों की अपितु सुदूर देशों की भी यात्राएं करते हैं। मनुष्यों में भाषावाद, जातिवाद, रहन-सहन की भिन्नता के कारण उनके हृदय परस्पर मिल नहीं पाते, पर इन जीवों में ऐसा कोई अंतर्द्वंद्व नहीं। विशेष स्थानों में अनेक देशों से आये भिन्न जाति के पक्षी और जीव-जन्तु परस्पर सहिष्णुता, आदर भावना और भाईचारे की स्वस्थ परम्परा से जीवन निर्वाह कर नियत समय पर अपनी मातृभूमि को लौट जाते हैं। मनुष्य जीवन भी एक सुनिश्चित और विराट प्रवास कस लघु संस्करण है। जीव-जन्तुओं के माध्यम से हम पता लगा सकें कि इस नैसर्गिक क्षमता का कारण क्या है तो एक अनोखी जीवन दृष्टि का विकास नितान्त सम्भव है।
प्रवासी पक्षियों में व्हाइट स्टार्क, गोल्डन प्लावर, आर्कटिक टर्न, सेन्ड पाइपर, सारस और वोवालिक मुख्य हैं। यह अधिकांश समुद्र के ऊपर उड़ान भरते हैं। इस कारण इन्हें उबाऊ दूरी लगातार उड़कर पार करनी पड़ती है। गोल्डन प्लावर टुन्ड्रा से पम्पास तक की 12000 किलोमीटर, श्वेत स्टार्क को समूचा स्टार्क जिब्राल्टर जल उमरुमध्य आर्कटिकटर्न को तो समूची धरती की परिक्रमा करनी पड़ जाती है जब ये उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की लगभग 25 हजार किलोमीटर दूरी तय कर एक स्थान से दूसरे स्थान जाते हैं, जहाजों की तरह यह भी नियमित रूप से समुद्रों में पाये जाने वाले टापुओं में कुछ समय विश्राम कर अपनी आगे की यात्रा की तैयारी करते हैं।
योरोपीय देशों के सारस शरद ऋतु में अफ्रीका आ जाते हैं और वसन्त ऋतु में पुनः लौट जाते हैं। एक बार पूर्व प्रशा (जर्मनी) से अनभिज्ञ सारसों के कुछ बच्चे ‘ऐसेन’ नामक स्थान पर ले जाकर छोड़ दिये गये। उस समय तक वहां के अन्य प्रवासी सारस जा चुके थे। अत्यधिक चक्करदार रास्ता होने पर भी वे किसी अन्तःप्रेरणा से एक निश्चित दिशा से प्रशा जा पहुंचे। इसी तरह कुछ कौवों को उत्तरी जर्मनी और वाल्टिक के पार उत्तर-पूर्व की दिशा से ले जाकर छोड़ा गया, पर वे 500 मील की वापसी यात्रा समानान्तर मार्ग से सम्पन्न कर यथा पूर्व स्थान पर लौट आये। आश्चर्य तो तब होता है, जब इनके अण्डे भी यदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा दिये जायें तो उनसे निकलने वाले बच्चे भी अपने जन्म स्थान लौट आये। ऐसा पैत्रिक गुण-सूत्रों की प्रेरणा से होता है इससे संस्कारों की महत्ता प्रतिपादित होती है।
इंग्लैंड से अफ्रीका की दूरी 6000 मील है पर वहां की अवावीलें कष्ट उठाकर भी यह देशान्तर करती हैं। अमेरिका से दक्षिणी अमेरिका जाने वाली स्वर्ण टिटहरी को 2000 मील यात्रा करनी पड़ती है। पेन्गुइन उड़ नहीं सकते पर वे समुद्र में तैरकर ही अंटार्कटिक से दक्षिणी अमेरिका की यात्रा करती हैं। वे जिस रास्ते जाती हैं उसी से लौट आती हैं। विशेष ध्वनि से गाते हुए चलने वाली इनकी टोलियां दर्शकों का मन उसी तरह मोहती हैं, जैसे मेले-ठेले जाने वाली स्त्रियों की गीत गाती टोलियां।
अपने जन्म स्थान की कुत्तों को भी विलक्षण पहचान होती है। वे गन्ध के सहारे सैकड़ों मील दूर से अपने घर लौट आते हैं। न्यूयार्क (अमेरिका) का कुत्ता एल्वनी विश्व भ्रमण की ख्याति प्राप्त कर चुका है इसने अकेले रेल और समुद्री जहाजों से जापान, चीन, योरोप देशों की यात्रा की और अन्ततः सकुशल न्यूयार्क वापस लौट आया। मनुष्य कहां से आया, उसका यथार्थ क्या है, यह न तो समझने का प्रयास करता है न लक्ष्य प्राप्ति के प्रयत्न, पर यह पक्षी हैं जो दूर-दूर तक जाकर भी समय पर प्रयत्न पूर्वक खुशी-खुशी लौट आते हैं। शरद ऋतु में उत्तरी-पश्चिमी ध्रुव प्रदेशों के पक्षी भारत, दक्षिणी अफ्रीका, श्री लंका तक फैल जाते हैं, पर ग्रीष्म ऋतु आते ही अपनी जन्म-भूमि लौट जाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जीव वैज्ञानिकों ने जर्मनी के व्रिमेन नगर में एक प्रयोग किया उन्होंने सात अबावीलें पकड़ी और उन्हें लाल रंग से रंग दिया। फिर उन्हें विमान में बैठाकर लन्दन लाकर हवाई अड्डे के पास छोड़ दिया गया। पीछे पाया गया कि उनमें से पांच अबावीलें सुरक्षित अपने पूर्ववर्ती घोंसलों में पहुंच गईं।
हममें से अनेकों मनुष्यों को परमात्मा कुछ विशेष बौद्धिक और आत्मिक गुणों से सम्पन्न कर पृथ्वी पर भेजता है और यह आशा करता है कि वे सृष्टि को सुन्दर बनाने की उसकी कल्पना को साकार बनायेंगे, पर वह ऐसा करना तो दूर अपने बुद्धि कौशल को अपने ही स्वार्थ साधनों में उलझाकर यह कामना करता रहता है कि उसे संसार से जाना नहीं पड़ेगा। अपनी हठ बुद्धि के कारण वह न केवल संसार को कुरूप बनाता है अपितु पश्चात्ताप भरी जिन्दगी लेकर लौटने को विवश होता है।
नवीनता के प्रति आकर्षण जीवन का नैसर्गिक गुण है। यह गुण भी जीवन की पृथक्-पृथक् इकाइयों में सामंजस्य प्रस्तुत करता है और मनुष्य को उसके चिन्तन के लिए भावभरी विराट् सामग्री प्रदान करता है। जीवों की भांति मनुष्यों में भी यह गुण पाया जाता है। किन्तु सांसारिकता के भार इस तरह के आह्लाद प्रदान करने वाले गुणों को भी नष्ट कर देते हैं। तब उनकी पाशविकता उभरकर सामने आ जाती है। अच्छे और नये के स्वागत की दृष्टि ने ही भारतीय मनीषा को अचानक कर्मयोग का दर्शन दिया है। इस परम्परा को बनाये रखने में न केवल प्रसन्नता अपितु पवित्रता भी निहित है। अमेरिका के आरेगन राज्य में सिलबर्टन नाम के एक कस्बे के निवासी फ्रेंक ब्रेजियर ने कोली जाती का एक कुत्ता पाला नाम रखा गया ‘‘बाबी’’। बाबी बड़ा ही स्वामिभक्त कुत्ता था वह न केवल तरह-तरह के करतबों से घर वालों का मनोरंजन करता अपितु वह एक स्वामिभक्त सेवक के सभी कर्त्तव्य निबाहता, घर की रखवाली के अतिरिक्त बच्चों को स्कूल पहुंचाना, जंगली जानवरों से खेतों की रक्षा करना उसकी दिनचर्या में सम्मिलित कार्य थे। एक बार ब्रेजियर को इडियाना जाना पड़ा साथ में बाबी भी था। दुर्भाग्य से कुत्ता वहां खो गया। बहुत खोजने पर भी बाबी न मिला तो निराश ब्रेजियर वापस सिलबर्टन लौट आये। किन्तु बाबी निराश नहीं हुआ। नितान्त अपरिचित 3000 मील का कष्ट भरा मार्ग उसने अगणित बाधाओं के बावजूद पार कर ही लिया और अन्ततः एक दिन अपने मालिक तक पहुंचने में सफलता प्राप्त करली। इसे कुत्तों की यात्रा का सबसे बड़ा रिकार्ड माना गया है। साथ ही उसकी स्वामिभक्ति का अद्भुत उदाहरण भी।
इसी तरह भावनाओं के अलौकिक जगत के सत्य से हमें भी इन्कार नहीं करना चाहिए। यह सत्य दृष्टि में निरन्तर बना रहे तो अनायास ही दुष्कर्मों और खोटे कृत्यों से छुटकारा मिल जाता है, पर उसी के साथ ही व्यावहारिकता का आधार भी नष्ट न हो तो ही संतुलन बना रह सकता है। नवीन के प्रति अनन्य जिज्ञासा का अर्थ पलायनवाद नहीं होना चाहिए। अपनी इसी त्रुटि के कारण भारतीय जीवन ने धक्का खाया और शिरोमणि तत्त्वदर्शन को धरती की धूल चाटनी पड़ी। आकाश की कल्पना करते समय धरती के यथार्थ से मुंह न मोड़ें, जन्म स्थान बार-बार लौटने में जीवों की प्रकृति का यही संदेश संकेत हो सकता है।
प्रकाश की खोज—
प्रकाश चिरकाल से ही मानवीय प्रेरणा का स्रोत रहा है। प्रकाश जितना दिव्य और स्निग्ध होता है उतना ही मोहक लगता है। चैत्र की नवरात्रियों के समय आकाश से आने वाले प्रकाश में कुछ ऐसी दिव्यता होती है, कि उसका अनुभव कर आंखें चमकने लगती हैं। ब्याह-शादियों के समय छूटने वाली फुलझड़ियां देखकर न केवल बच्चे अपितु बड़े भी प्रसन्न होते हैं। प्रकाश का मानवीय चेतना से कोई सीधा सम्बन्ध है, तभी हम अन्धकार बर्दाश्त नहीं कर पाते। परमात्मा से ‘‘अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलने’’ की प्रार्थना करते हैं। प्रकाश ही जीवन और अन्धकार अविद्या है। यह बात प्राण चेतना पर समान रूप से लागू होती है चाहे वे मनुष्य हो या मनुष्येत्तर जीव। पक्षियों के प्रवास सम्बन्धी वैज्ञानिक अनुसंधानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पक्षियों का प्रवास जिन कारणों से प्रेरित होता है उनमें ऋतु परिवर्तन को अनुकूल बनाये रखना, भोजन प्राप्त करना गौण है। अधिक समय तक प्रकाश की उपलब्धि ही प्रमुख है। जिन प्रदेशों में चौबीसों घण्टे या अधिक से अधिक समय सूर्य का प्रकाश रहता है, वहां पक्षी अधिक रहना पसन्द करते हैं। ध्रुवों के समीपवर्ती प्रदेश इसी कोटि के हैं। आर्कटिक टर्न तथा गोल्डेन प्लोवर ऐसे ही पक्षी हैं जो ध्रुवों की यात्रा गर्मियों में ही करते हैं। क्योंकि उन दिनों वहां से सूर्य चौबीसों घण्टे दिखाई देता है। केवल मौसम की ही बात होती तो उसमें आये दिन उतार-चढ़ाव आते रहते हैं किन्तु वे ऐसा नहीं करते। अमेरिका के एक सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि वहां सैन जुआन कैपिस्ट्रान स्थान में आने वाले स्वालो पक्षी प्रतिवर्ष एक ही निर्धारित तिथि को पहुंचते हैं।
न्यूयार्क में एक पक्षी पाया जाता है ब्रांज कक्कू—इनके बच्चे पैदा होते ही आत्मनिर्भर जीवन बिताते हैं। माता-पिता इन्हें अपने साथ यात्राओं में भी नहीं ले जाते जब कि वे प्रतिवर्ष सोलोनद्वीप समूह की यात्राएं करते हैं। न जाने कौन-सी सूक्ष्म अन्तःप्रेरणा है कि बच्चे अपने आप ही अपने पूर्वजों की तरह यात्राएं करने और उन स्थानों में स्वतः पहुंच जाते हैं, जहां उनके पितामह आते जाते रहते हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि प्रकाश किरणों की दिशा, विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र तथा पृथ्वी के घूमने की स्थिति को पक्षी भली प्रकार अनुभव करते हैं इसी कारण वे इतनी लम्बी यात्राएं बिना किसी जान-पहचान और यन्त्र के सम्पन्न करते हैं, नक्षत्रों की स्थिति सूर्य के परिभ्रमण के आधार पर भी वे अपनी यात्राएं सम्पन्न करते हैं किन्तु जितना ही उनका यह सूक्ष्म बोध आश्चर्यजनक है उसी तरह यह तथ्य भी है कि वे रात में बिना पूर्वज्ञान और मार्गदर्शन से उन्हें इन सभी परिस्थितियों की जानकारी किस स्रोत से उपलब्ध होती है।
जीव-जन्तुओं की संस्कृति—
मैरीटेरियन सागर में गर्मी के प्रारम्भिक दिनों में मछलियों की बहुतायत देखने को मिलती है। मैकरल, पिलचर्ड और हैरिंग नाम की रंग-बिरंगी मछलियां इधर-से-उधर खेलती, कूदती, उछलती, फुदकती हुई बहुत अच्छी लगती हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है क्रीड़ा और मनोरंजनपूर्ण जीवन ही यथार्थ है। पैसा और प्रजनन की चिन्ता में पड़े घिसी-पिटी जिन्दगी जीना को बुद्धिमत्ता नहीं।
कुछ ही सप्ताह बाद वहां जायें तो फिर एक भी मछली दिखाई न देगी। चहल-पहल वाला वह क्षेत्र बिलकुल सूना-विराना दिखाई देने लगता है। प्रलय के बाद पृथ्वी की-सी नीरवता और निर्जनता का साम्राज्य देखकर लगता है—जीवन पृथ्वी से बंधा हुआ नहीं, वह परमात्मा की एक कलात्मक सत्ता है, जो इन मछलियों की तरह आनन्द के लिए कभी पृथ्वी में आ जाता है तो कभी अन्य लोकों में। उसे सांसारिक बन्धनों से बांधना बेवकूफी है। मुक्ति के इच्छुक जीवन को तो प्रवासी होना चाहिए। आज यहां, कल वहां—उसके लिए तो सारा संसार ही अपना घर है।
स्काम्बर नाम की मछलियों का जीवन बनजारे की तरह होता है। शीत ऋतु में स्काम्बर उत्तरी समुद्र में बड़ी संख्या में देखने को मिलती है। ग्रीष्म ऋतु आई और जैसे ही किनारों का पानी गर्म होना प्रारम्भ हुआ वे बड़े-बड़े समुदाय बनाकर उत्तरी अटलाण्टिक महासागर के दोनों तटों पर पहुंच जाती हैं। जीव-शास्त्रियों का मत है कि मछलियां खाने और प्रजनन के लिए प्रवास (माइग्रेशन) करती हैं, पर स्काम्बर उन भारतीयों की तरह हैं जो आत्म-कल्याण के लिए ही अर्न्तवास करते हैं। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दो आश्रम सामुदायिक संगठन में एक स्थान पर रहकर बिताने के बाद वे सांसारिक प्रलोभनों को ठुकरा कर विराट् सीमा के सौन्दर्य का रसपान करने निकट पड़ते हैं और वानप्रस्थ व संन्यासी जीवन जंगलों, पहाड़ों, घाटियों और सुदूर देशों में भ्रमण करते हुए व्यतीत करते हैं। एक स्थान पर रहकर सांसारिक गन्दगी बढ़ाने का पाप हम भारतीयों ने स्काम्बर के समान ही कभी नहीं बढ़ने दिया। इस तरह हम एक स्थान पर रहते हुए भी सारे संसार के बने रहे।
स्काम्बर भी ऐसा ही करती है। तरीके में थोड़ी-ही भिन्नता है। मई-जून में वे उत्तरी समुद्र में ही अण्डे-बच्चे देती हैं और फिर वहां से अकेले नहीं, अपने सम्पूर्ण समुदाय को लेकर वहां से निकट पड़ती हैं। ‘‘अकेले नहीं, हम सब’’ का सिद्धान्त रखकर लगता है ये मछलियां श्रेष्ठता में मनुष्य से आगे निकल गईं।
एक बार गुरु नानकदेव एक ऐसे गांव में पहुंचे, जहां के लोग बड़े उद्दण्ड और गंवार थे। उन्होंने नानक की आवभगत भी अच्छी तरह नहीं की, फिर भी जब वे चलने लगे तो ग्रामवासियों को आशीर्वाद दिया—‘तुम लोग इसी तरह आबाद रहो।’ नानक अगले दिन अगले गांव में रुके। वहां के लोग बड़े नेक, शान्तिप्रिय, अहिंसावादी और मिलनसार थे। उन्होंने नानक का यथेष्ट आदर-सत्कार किया। नानक विदा होने लगे तो वे लोग उन्हें कुछ दूर पहुंचाने भी गये। प्रणाम कर जब ग्रामवासी लौटने लगे तो नानक ने आशीर्वाद दिया—‘तुम लोग उजड़ जाओ, तुम लोग उजड़ जाओ।’
नानक के एक शिष्य को यह बात नहीं भायी, उसने कहा—महात्मन्! बुरे लोगों को अच्छा आशीर्वाद और अच्छे लोगों को बुरा—बात कुछ समझ में नहीं आई। नानक हंसे और बोले—बात यह है कि बुरे लोग संसार में फैलें तो उससे बुराई उसी तरह फैलती है जैसे अंग्रेजों की अंग्रेजियत सारी दुनिया में फैल गई पर यदि अच्छे लोग एक ही स्थान पर जमे बैठे रहें—लोक-सेवा के उद्देश्य से वे घर न छोड़ें तो संसार में भलाई के विस्तार का अवसर ही कहां आयेगा?
शिष्य की समझ में सारी बात स्पष्ट हो गई पर हम अभी तक यह बात नहीं समझ पाये। आजीविका और अपने बच्चों के विकास की दृष्टि से भी हमें संसार में फैलना पड़े तो एन्ग्रालिश मछली की तरह फैलना ही चाहिए। विश्व की विशदता का और अपने आप को अच्छी तरह अध्ययन करने का अवसर तो तभी मिलता है, जब हम औरों के पास जाकर अपनी तुलना करें। हिन्दू, मुसलमान आदि जातियां कोई ईश्वरीय विधान नहीं। जाति एक सापेक्ष वस्तु है, उसकी अच्छाई-बुराई का आधार गुणों की श्रेष्ठता ही हो सकती है, वंश नहीं। यह पता हमें और सारे संसार को तभी चल सकता है, जब हमारे सम्पर्क का दायरा विस्तीर्ण हो।
एन्ग्रालिश मछली बसन्त ऋतु में अपनी चैनेल में पाई जाती हैं, किन्तु अण्डे देने के लिए वह ‘ज्वाइडर जा’ के बाहरी हिस्से में पहुंच जाती हैं। सारडिना मछली जुलाई से दिसम्बर तक कार्नवेल में रहती हैं पर जाड़ा प्रारम्भ होते ही वह गरम स्थानों की ओर चल देती हैं। सामों मछली समुद्र में पाई जाती है, पर उसे गंगा और यमुना नदी के जल से अपार प्रेम है। अपने इस अपार प्रेम को प्रदर्शित करने और अच्छे वातावरण में अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए वह हजारों मील की यात्रा करके गंगा, यमुना पहुंचती है। अण्डे-बच्चे सेने के बाद भोजन के लिए वह फिर अपने मूल निवास को लौट आती है। इस स्वभाव के कारण ही सामों दीर्घजीवी और बड़ी चतुर मछली होती है। हमारी तरह उनके बच्चे भी सामाजिक संकीर्णता में पले होते तो इस अतिरिक्त विकास का अवसर उसे कहां मिल पाता।
हमारी कमजोरी यह है कि विपरीत परिस्थितियों और संघर्षों से टकराना हमें अच्छा नहीं लगता। शांतिपूर्ण दिखाई देने वाली यह स्थिति वस्तुतः एक भ्रम है और हमारे विकास का मुख्य अवरोध भी। यों तो संसार की अधिकांश सभी जातियों की मछलियां उल्टी दिशा में चलती हैं, पर योरोप में पाई जाने वाली एन्ग्युला बहाव की उल्टी दिशा में चलकर लम्बी यात्रा करने वाली उल्लेखनीय मछली है। ज्ञान और सत्य की शोध में हिमालय की चोटियों तक पहुंचने वाले भारतीय योगियों के समान यह एन्ग्युला मछली अटलांटिक महासागर पार करके गहरे पानी की खोज में बरमुदा के दक्षिण में जा पहुंचती है। बरमुदा अमेरिका के उत्तरी कैरोलाइना राज्य से 600 मील पूर्व में स्थित 350 छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है।
वहां अण्डे-बच्चे देकर यह अपने घट लौट आती है। उसके प्रवासी बच्चों में अपने माता, पिता, पूर्वजों और संस्कृति के प्रति इतनी प्रगाढ़ निष्ठा होती है कि ढाई-तीन साल के होते ही वे वहां से चल पड़ते हैं और 5-6 महीने की यात्रा करते हुए अपने जाति भाइयों से जा मिलते हैं और इस तरह बहुत दूर-दूर होकर भी उनका अपनी जाति से सांस्कृतिक सम्बन्ध उसी प्रकार बना रहता है, जिस तरह सैकड़ों मोरिशस, ट्रिनिडाड, केन्या, यूगाण्डा, मलेशिया थाई, इण्डोनेशिया, नैटाल, डर्बन, सुवाफीजी, लंका, बर्मा, इंग्लैंड और अमेरिका में रहने वाले भारतीय आज भी अपने धर्म और अपनी संस्कृति की आदि भूमि भारत-वर्ष से सम्बन्ध बनाये हुए हैं।
प्रवासी पक्षियों का सांस्कृतिक प्रेम—
कार्तिक लगा और भरतपुर की झीलें तरह-तरह के रंगीन चहल-पहल करने वाले प्रवासी पक्षियों से भरनी प्रारम्भ हुईं। कहते हैं भरतपुर आने वाले अधिकांश पक्षी रूस के साइबेरिया प्रान्त से आये हुए होते हैं। पक्षियों का यों विश्व के भिन्न-भिन्न स्थानों से यह प्रेम विलक्षण है, और कौतूहल वर्द्धक भी। उससे जीव मात्र की एकता और सम्पूर्ण पृथ्वी के एक परिवार, एक इकाई होने का जो प्रमाण मिलता है, वह भी कम कौतूहल वर्द्धक नहीं।
बड़ौदा के आस-पास तथा कच्छ के नल सरोवर में भी शेष भारत और विश्व के अनेक भागों से आये हुए पक्षी जाड़े के दिन किस हंसी-खुशी से काटते हैं, उसे देखकर लगता है कि संसार के लोग भी ऐसे ही परस्पर मिल-जुलकर रहने का अभ्यास कर सके होते, तो विश्व कितना खुशहाल दिखाई देता।
पक्षियों के प्रवासी जीवन (माइग्रेशन) का अपना एक विचित्र ही इतिहास है। जहां मनुष्यों में थोड़ी-थोड़ी जमीन, भाषावार प्रांत, देश-देशान्तरों के मध्य सीमा-विवाद उग्र रूप धारण करते और रक्तपात की परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, वहां पक्षी हैं मनुष्य से बहुत नेक, जिन्हें न तो भाषा का भेदभाव करना आता है, न प्रान्त और देश का। थोड़े दिन का आयुष्य, बड़ी हंसी-खुशी के साथ बिता लेते हैं।
पक्षी-विशेषज्ञों का मत है कि वे यह सब अन्तःप्रेरणा से करते हैं। इस प्रेरणा का उद्देश्य मौसम की अनुकूलता प्राप्त करना, भोजन और आजीविका की खोज, बच्चे पैदा करने के लिए उपयुक्त वातावरण प्राप्त करना होता है। कई पक्षी प्रकाश की कमी अनुभव करने पर उसी प्रकार एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थानों में चले जाते हैं जिस प्रकार कुछ देशों में राजनैतिक या शासन-तन्त्र की भयंकरता के कारण बहुत से लोगों को निर्वासित होना पड़ता है।
किन्तु चिड़ियों के प्रवास की दिशा का अध्ययन यह बताता है कि ऐसा करते समय पक्षी अपना सूक्ष्म बुद्धि, विवेक एवं सूझ-बूझ का भी प्रयोग करते हैं। वे जब अक्षांशीय (लांगीट्यूडनल) पथ पर एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव की ओर यात्रा करते हैं, तब ऐसे स्थानों से होकर चलते हैं, जहां उन्हें भोजन, घोंसले आदि की सुविधा रहे। लौटते समय भी वे उसका ध्यान रखते हैं। यह केवल अन्तःप्रेरणा से ही नहीं हो सकता, इसमें उनकी समझ ही प्रधान होती है। मनुष्य भी इसी प्रकार प्रवास से पूर्व समझ से काम लें यह आवश्यक है।
पक्षी जब उत्तरी गोलार्द्ध से दक्षिणी गोलार्द्ध को चलते हैं, तो यह सीधा (देशान्तरीय) प्रवास (वर्टीकल माइग्रेशन) कहलाता है। इसमें भी वही सूझ-बूझ रहती है। कुछ पक्षी जो स्थायी रूप से रहते हैं, पर कुछ ही समय के लिए बाहर जाते हैं, उदाहरण के लिए कौवे, खंजन, पिप्पलीज, मछली राजा (किंग फिशर) आदि को खाना नहीं मिलता, बर्फ जम जाती है तब कुछ ही दिन बाहर रहना पड़ता है, फिर वे वापिस आ जाते हैं। कुछ चिड़ियाएं होती ही खानाबदोश (बर्ड आफ पैसेज) हैं। वे घूमते-फिरते हुए सृष्टि के विभिन्न दृश्यों का आनन्द लेती हुई जीवन यापन करती हैं। इसकी मनुष्य से तुलना करने पर लगता है एक ही गांव, प्रांत और देश को घर बना लेना मनुष्य जाति की कितनी संकीर्णता है, यदि हम सारे संसार को ही एक परिवार, एक देश मान सके होते तो धरती स्वर्ग बन गई होती।
डा. एलचिन ने बहुत दिन तक चिड़ियों के प्रवासी जीवन का अध्ययन करके लिखा है एक पक्षी समय के अनुसार अधिक-से-अधिक अपने रहन-सहन, वेष-भूषा में परिवर्तन भी कर लेते हैं। पर अपनी सभ्यता, संस्कृति और आदर्शों को वे उन स्थानों में भी नहीं भूलते जहां उन्हें प्रवासी जीवन बिताना पड़ता है। हम भारतीय हैं जिन्होंने कभी ‘कृण्वन्तोश्विमार्यम्’, ‘हम सारे विश्व को आर्य (सुसंस्कृत) बनायेंगे’ का नारा दिया था, संसार भर में फैल गये थे, लोगों को धार्मिक, सांस्कृतिक उपदेश व शिक्षण देकर उन्हें सभ्य व सुसंस्कृत बनाया था उनकी सांस्कृतिक निष्ठा रत्ती भर भी न डिग्री थी, तभी सारे विश्व को प्रभावित करना सम्भव हुआ था। आज तो स्थिति बिलकुल ही उलट गई। लाखों-करोड़ों भारतीय जावा, सुमात्रा, मौरिशस, केन्या यूगांडा, ट्रिनीडाड, फिलीपाइन्स, नैटाल, डर्बन, मलाया, सिंगापुर आदि में बसे हैं, पर उनकी अपनी न शिक्षा रही न संस्कृति। वेष-भूषा, रहन-सहन, आहार-विहार तक बदल गये। नाम अभी भी भारतीय हैं, पर काम और आचार-विचार तो पाश्चात्यों से भी गये गुजरे हो गये। अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा से टूट गये तो संसार पथभ्रष्ट क्यों न होता?
चिड़ियां चलने के लिए तैयारी करती हैं तब अपने पुराने पंख गिराकर नये पंख धारण कर यात्रा का स्वागत करती हैं। पहले वे एक बार परीक्षण उड़ान कर लेती हैं। अकेले नहीं, अनेक चिड़ियां एक दिन एक स्थान में नियत समय पर एकत्रित होकर उड़तीं और संगठन व एकता की महत्ता प्रतिपादित करती हैं। वे दिन में भी चलती हैं और सुरक्षा की दृष्टि से रात में भी। पर यात्रा के दिनों में उनकी सभ्यता और शिष्टाचार देखते ही बनता है।
सबसे आगे कबीले की झुण्ड की वृद्ध चिड़ियाएं चलतीं और मनुष्य जाति को संकेत से समझाती हैं कि वृद्ध शरीर से कितने ही अशक्त क्यों न हो जायें वे कभी अनुपयोगी नहीं होते। उनके पास जीवन भर का ज्ञान और अनुभव संग्रहीत रहता है। चिड़ियां उनसे महत्वपूर्ण लाभ ले सकती हैं, तो मनुष्य जैसा समझदार प्राणी वैसा क्यों नहीं कर सकता? भारतीय संस्कृति में वृद्धों को, माता-पिता को इतना सम्मान दिया गया है, तभी हम संसार में अपना गौरव स्थापित कर सके हैं और आज जबकि पाश्चात्यों के अन्धानुकरण व अपनी ही दुर्बलताओं के शिकार हमने उन्हें आदर देने में कमी कर दी तब हम दिग्भ्रान्त पथिक के समान इधर-उधर भटकते भी दिखाई दे रहे हैं। चिड़ियों की समझ इस दृष्टि से मनुष्य की समझ से श्रेष्ठ है। वे जब अपने देश से जाती हैं, तब वृद्धों को आगे रखती हैं। उनके पीछे अर्थात् मध्य में छोटे बच्चे होते हैं सुरक्षा की कितनी सावधानी सबसे पीछे युवा पक्षी। पर लौटते समय यह स्थिति बिलकुल बदल जाती है। वृद्धों के आदेश पर प्रौढ़ पक्षी सबसे आगे चलते हैं, ताकि वे अगली यात्राओं के लिए अनुभव प्राप्त करें, दक्ष हो जायें बीच में वही छोटे बच्चे और सबसे पीछे मार्ग-दर्शन करती हुईं वृद्ध चिड़ियाएं। वे रहती भर हैं पीछे, पर रास्ता चलने में थोड़ी-सी भी भूल हो तो वे सुधार देती हैं। घनी अंधेरी रातों में भी वृद्ध पक्षी तारागणों की मदद से उन्हें चलना सिखाते हैं। पक्षी अपने बुजुर्गों के सम्मान का पूरा लाभ लेते हैं जबकि हम मनुष्यों ने बुजुर्गों का सत्कार न कर अपना भारी अहित किया।
हजारों मील की दूरी तक चले जाते हैं यह पक्षी, पर जब वापिस लौटते हैं तो अपनी संस्कृति, बोली, भाषा में किंचित मात्र परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता। आर्कटिक टर्न 11000 मील की यात्रा करती है तो गोल्डेन पावर 7000 मील का प्रवास। वुडकाक, सारस, और राबिन पक्षी क्रमशः 2500, 2000, 1000 मील तक चले जाते हैं। छोटी-छोटी गौरैया और चहचहाने वाली चिड़ियां भी 500 व 300 मील तक चली जाती हैं और विश्व भ्रमण का आनन्द व ज्ञान-लाभ प्राप्त करती हैं।
समुद्र के तट, पर्वत, वादी, घाटियों और नदियों का भ्रमण करते पक्षी होते हैं छोटे, पर अपना दृष्टिकोण विशाल बना लेते हैं। पक्षी-विशेषज्ञों का विश्वास है कि इन्हें पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र, उसके घूमने से उत्पन्न मैकेनिकल फोर्स आदि का भी पता होता है। मनुष्य ही है, जो कि अपने सीमित ज्ञान पर दम्भ दिखाता है। यह पक्षी जो ज्योतिर्विज्ञान तक से परिचित होते हैं, अंधेरी रातों में तारों की मदद से आगे बढ़ते चले जाते हैं, पर उन्हें अपनी श्रेष्ठता का कुछ भी अभिमान नहीं होता। एक छोटे से प्राणी की चहकती-फुदकती जिन्दगी जी लेते हैं और साथ ही तरह-तरह के ज्ञान और अनुभव भी अर्जित करते रहते हैं लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने अपनी नैसर्गिक प्रकृति, संस्कृति और विशेषताओं का परित्याग किया हो।
यह तो मनुष्य ही है जो महत्त्वहीन और निर्मूल्य सुख-साधनों के प्राप्त होते ही अपने आपको भूल बैठता है और अपनी विशेषताओं, क्षमताओं तथा दायित्वों की स्मृति खो देता है। उचित यही है कि जीवन को एक प्रवास एक यात्रा मानते हुए उसे सफलतापूर्वक संपन्न करने की बात सोची जाय तथा मनुष्य जीवन को सफल व सार्थक बनाया जाय।
मनुष्येत्तर जीव-जन्तुओं को तो भोग योनि कहा गया है और मनुष्य को कर्म-योनि का प्राणी माना गया है। भोग योनि के सम्बन्ध में बताया गया है कि जीव इस प्रकार अपने पूर्वकृत कर्मों का ही परिणाम या दण्ड भोगता है लेकिन मनुष्य को अपने जीवन में कर्मों की स्वतंत्रता भी प्रदान की है और उस स्वतंत्रता के साथ अन्य कई विशेषतायें देकर मनुष्य को इस लोक में भेजा गया है। इस स्वतंत्रता और सैम्वीत्रयी विशिष्टताओं के साथ उसे कुछ विशिष्ट दायित्व भी सौंपे गये हैं और उन दायित्वों को पूरा करने के लिए संसार में भेजा जाता है। अफसर जिस प्रकार किसी दौरे पर जाते हैं और अपने अधिकारों का उपयोग कर सुपुर्द कामों को निबटा कर आते हैं, व्यापारी जिस प्रकार अपने व्यापार व्यवसाय के उद्देश्य से कहीं जाते हैं और उस कामों को पूरा करने के बाद लौट आते हैं, मनुष्य को भी उसी प्रकार कुछ विशिष्ट दायित्वों को पूरा करने के लिए जीवन-यात्रा पर भेजा जाता है। भारतीय दर्शन की यह मान्यता स्पष्ट है और इसी कारण जीवन को आवागमन के चक्र के रूप में व्याख्यायित किया गया है।
यात्राएं मानव स्वभाव का अंग
सामान्य जीवन-चक्र में भी यात्राएं मानव स्वभाव का एक अंग ही बनी हुई हैं। जीवन में यात्राओं का यह स्थान उस समय भी था। जब पृथ्वी पर यातायात के साधनों का उतना विकास नहीं हुआ था। तब न केवल आजीविका, रोजगार, अध्ययन के लिए अपितु प्राकृतिक सुषमा के दर्शन, जीवन-चक्र में आयी एकरसता को तोड़ने के लिए देशाटन से लेकर योग्यता बढ़ाने, सत्संग करने और ज्ञानप्राप्ति के लिए भी एकाकी तथा सामूहिक यात्राएं आयोजित हुआ करती थीं। संसाधनों के विकास के साथ-साथ इस प्रवृत्ति का भी विकास हुआ है। यात्राओं की सफलता के लिए प्रचुर भौगोलिक ज्ञान, स्थान विशेष के रीत-रिवाज, रहन-सहन, योग्य विश्राम स्थलों की जानकारियां पूर्व में ही उपलब्ध हो जाने के कारण यह यात्राएं अब सब तरह से आराम देह हो गई हैं।
दूसरी ओर पशु-पक्षी हैं उनमें प्रवास का नैसर्गिक गुण आदि-काल से चला आया है। उनकी यात्राएं पहले की अपेक्षा अब अधिक संकटपूर्ण हो गई हैं। उन्हें कोई भौगोलिक ज्ञान भी नहीं मिला होता है, किन्तु यह प्रकृति का एक चमत्कार ही है कि प्रतिवर्ष हजारों पक्षी—जंगली जीव न केवल पड़ौसी राज्यों की अपितु सुदूर देशों की भी यात्राएं करते हैं। मनुष्यों में भाषावाद, जातिवाद, रहन-सहन की भिन्नता के कारण उनके हृदय परस्पर मिल नहीं पाते, पर इन जीवों में ऐसा कोई अंतर्द्वंद्व नहीं। विशेष स्थानों में अनेक देशों से आये भिन्न जाति के पक्षी और जीव-जन्तु परस्पर सहिष्णुता, आदर भावना और भाईचारे की स्वस्थ परम्परा से जीवन निर्वाह कर नियत समय पर अपनी मातृभूमि को लौट जाते हैं। मनुष्य जीवन भी एक सुनिश्चित और विराट प्रवास कस लघु संस्करण है। जीव-जन्तुओं के माध्यम से हम पता लगा सकें कि इस नैसर्गिक क्षमता का कारण क्या है तो एक अनोखी जीवन दृष्टि का विकास नितान्त सम्भव है।
प्रवासी पक्षियों में व्हाइट स्टार्क, गोल्डन प्लावर, आर्कटिक टर्न, सेन्ड पाइपर, सारस और वोवालिक मुख्य हैं। यह अधिकांश समुद्र के ऊपर उड़ान भरते हैं। इस कारण इन्हें उबाऊ दूरी लगातार उड़कर पार करनी पड़ती है। गोल्डन प्लावर टुन्ड्रा से पम्पास तक की 12000 किलोमीटर, श्वेत स्टार्क को समूचा स्टार्क जिब्राल्टर जल उमरुमध्य आर्कटिकटर्न को तो समूची धरती की परिक्रमा करनी पड़ जाती है जब ये उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की लगभग 25 हजार किलोमीटर दूरी तय कर एक स्थान से दूसरे स्थान जाते हैं, जहाजों की तरह यह भी नियमित रूप से समुद्रों में पाये जाने वाले टापुओं में कुछ समय विश्राम कर अपनी आगे की यात्रा की तैयारी करते हैं।
योरोपीय देशों के सारस शरद ऋतु में अफ्रीका आ जाते हैं और वसन्त ऋतु में पुनः लौट जाते हैं। एक बार पूर्व प्रशा (जर्मनी) से अनभिज्ञ सारसों के कुछ बच्चे ‘ऐसेन’ नामक स्थान पर ले जाकर छोड़ दिये गये। उस समय तक वहां के अन्य प्रवासी सारस जा चुके थे। अत्यधिक चक्करदार रास्ता होने पर भी वे किसी अन्तःप्रेरणा से एक निश्चित दिशा से प्रशा जा पहुंचे। इसी तरह कुछ कौवों को उत्तरी जर्मनी और वाल्टिक के पार उत्तर-पूर्व की दिशा से ले जाकर छोड़ा गया, पर वे 500 मील की वापसी यात्रा समानान्तर मार्ग से सम्पन्न कर यथा पूर्व स्थान पर लौट आये। आश्चर्य तो तब होता है, जब इनके अण्डे भी यदि एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा दिये जायें तो उनसे निकलने वाले बच्चे भी अपने जन्म स्थान लौट आये। ऐसा पैत्रिक गुण-सूत्रों की प्रेरणा से होता है इससे संस्कारों की महत्ता प्रतिपादित होती है।
इंग्लैंड से अफ्रीका की दूरी 6000 मील है पर वहां की अवावीलें कष्ट उठाकर भी यह देशान्तर करती हैं। अमेरिका से दक्षिणी अमेरिका जाने वाली स्वर्ण टिटहरी को 2000 मील यात्रा करनी पड़ती है। पेन्गुइन उड़ नहीं सकते पर वे समुद्र में तैरकर ही अंटार्कटिक से दक्षिणी अमेरिका की यात्रा करती हैं। वे जिस रास्ते जाती हैं उसी से लौट आती हैं। विशेष ध्वनि से गाते हुए चलने वाली इनकी टोलियां दर्शकों का मन उसी तरह मोहती हैं, जैसे मेले-ठेले जाने वाली स्त्रियों की गीत गाती टोलियां।
अपने जन्म स्थान की कुत्तों को भी विलक्षण पहचान होती है। वे गन्ध के सहारे सैकड़ों मील दूर से अपने घर लौट आते हैं। न्यूयार्क (अमेरिका) का कुत्ता एल्वनी विश्व भ्रमण की ख्याति प्राप्त कर चुका है इसने अकेले रेल और समुद्री जहाजों से जापान, चीन, योरोप देशों की यात्रा की और अन्ततः सकुशल न्यूयार्क वापस लौट आया। मनुष्य कहां से आया, उसका यथार्थ क्या है, यह न तो समझने का प्रयास करता है न लक्ष्य प्राप्ति के प्रयत्न, पर यह पक्षी हैं जो दूर-दूर तक जाकर भी समय पर प्रयत्न पूर्वक खुशी-खुशी लौट आते हैं। शरद ऋतु में उत्तरी-पश्चिमी ध्रुव प्रदेशों के पक्षी भारत, दक्षिणी अफ्रीका, श्री लंका तक फैल जाते हैं, पर ग्रीष्म ऋतु आते ही अपनी जन्म-भूमि लौट जाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जीव वैज्ञानिकों ने जर्मनी के व्रिमेन नगर में एक प्रयोग किया उन्होंने सात अबावीलें पकड़ी और उन्हें लाल रंग से रंग दिया। फिर उन्हें विमान में बैठाकर लन्दन लाकर हवाई अड्डे के पास छोड़ दिया गया। पीछे पाया गया कि उनमें से पांच अबावीलें सुरक्षित अपने पूर्ववर्ती घोंसलों में पहुंच गईं।
हममें से अनेकों मनुष्यों को परमात्मा कुछ विशेष बौद्धिक और आत्मिक गुणों से सम्पन्न कर पृथ्वी पर भेजता है और यह आशा करता है कि वे सृष्टि को सुन्दर बनाने की उसकी कल्पना को साकार बनायेंगे, पर वह ऐसा करना तो दूर अपने बुद्धि कौशल को अपने ही स्वार्थ साधनों में उलझाकर यह कामना करता रहता है कि उसे संसार से जाना नहीं पड़ेगा। अपनी हठ बुद्धि के कारण वह न केवल संसार को कुरूप बनाता है अपितु पश्चात्ताप भरी जिन्दगी लेकर लौटने को विवश होता है।
नवीनता के प्रति आकर्षण जीवन का नैसर्गिक गुण है। यह गुण भी जीवन की पृथक्-पृथक् इकाइयों में सामंजस्य प्रस्तुत करता है और मनुष्य को उसके चिन्तन के लिए भावभरी विराट् सामग्री प्रदान करता है। जीवों की भांति मनुष्यों में भी यह गुण पाया जाता है। किन्तु सांसारिकता के भार इस तरह के आह्लाद प्रदान करने वाले गुणों को भी नष्ट कर देते हैं। तब उनकी पाशविकता उभरकर सामने आ जाती है। अच्छे और नये के स्वागत की दृष्टि ने ही भारतीय मनीषा को अचानक कर्मयोग का दर्शन दिया है। इस परम्परा को बनाये रखने में न केवल प्रसन्नता अपितु पवित्रता भी निहित है। अमेरिका के आरेगन राज्य में सिलबर्टन नाम के एक कस्बे के निवासी फ्रेंक ब्रेजियर ने कोली जाती का एक कुत्ता पाला नाम रखा गया ‘‘बाबी’’। बाबी बड़ा ही स्वामिभक्त कुत्ता था वह न केवल तरह-तरह के करतबों से घर वालों का मनोरंजन करता अपितु वह एक स्वामिभक्त सेवक के सभी कर्त्तव्य निबाहता, घर की रखवाली के अतिरिक्त बच्चों को स्कूल पहुंचाना, जंगली जानवरों से खेतों की रक्षा करना उसकी दिनचर्या में सम्मिलित कार्य थे। एक बार ब्रेजियर को इडियाना जाना पड़ा साथ में बाबी भी था। दुर्भाग्य से कुत्ता वहां खो गया। बहुत खोजने पर भी बाबी न मिला तो निराश ब्रेजियर वापस सिलबर्टन लौट आये। किन्तु बाबी निराश नहीं हुआ। नितान्त अपरिचित 3000 मील का कष्ट भरा मार्ग उसने अगणित बाधाओं के बावजूद पार कर ही लिया और अन्ततः एक दिन अपने मालिक तक पहुंचने में सफलता प्राप्त करली। इसे कुत्तों की यात्रा का सबसे बड़ा रिकार्ड माना गया है। साथ ही उसकी स्वामिभक्ति का अद्भुत उदाहरण भी।
इसी तरह भावनाओं के अलौकिक जगत के सत्य से हमें भी इन्कार नहीं करना चाहिए। यह सत्य दृष्टि में निरन्तर बना रहे तो अनायास ही दुष्कर्मों और खोटे कृत्यों से छुटकारा मिल जाता है, पर उसी के साथ ही व्यावहारिकता का आधार भी नष्ट न हो तो ही संतुलन बना रह सकता है। नवीन के प्रति अनन्य जिज्ञासा का अर्थ पलायनवाद नहीं होना चाहिए। अपनी इसी त्रुटि के कारण भारतीय जीवन ने धक्का खाया और शिरोमणि तत्त्वदर्शन को धरती की धूल चाटनी पड़ी। आकाश की कल्पना करते समय धरती के यथार्थ से मुंह न मोड़ें, जन्म स्थान बार-बार लौटने में जीवों की प्रकृति का यही संदेश संकेत हो सकता है।
प्रकाश की खोज—
प्रकाश चिरकाल से ही मानवीय प्रेरणा का स्रोत रहा है। प्रकाश जितना दिव्य और स्निग्ध होता है उतना ही मोहक लगता है। चैत्र की नवरात्रियों के समय आकाश से आने वाले प्रकाश में कुछ ऐसी दिव्यता होती है, कि उसका अनुभव कर आंखें चमकने लगती हैं। ब्याह-शादियों के समय छूटने वाली फुलझड़ियां देखकर न केवल बच्चे अपितु बड़े भी प्रसन्न होते हैं। प्रकाश का मानवीय चेतना से कोई सीधा सम्बन्ध है, तभी हम अन्धकार बर्दाश्त नहीं कर पाते। परमात्मा से ‘‘अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलने’’ की प्रार्थना करते हैं। प्रकाश ही जीवन और अन्धकार अविद्या है। यह बात प्राण चेतना पर समान रूप से लागू होती है चाहे वे मनुष्य हो या मनुष्येत्तर जीव। पक्षियों के प्रवास सम्बन्धी वैज्ञानिक अनुसंधानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पक्षियों का प्रवास जिन कारणों से प्रेरित होता है उनमें ऋतु परिवर्तन को अनुकूल बनाये रखना, भोजन प्राप्त करना गौण है। अधिक समय तक प्रकाश की उपलब्धि ही प्रमुख है। जिन प्रदेशों में चौबीसों घण्टे या अधिक से अधिक समय सूर्य का प्रकाश रहता है, वहां पक्षी अधिक रहना पसन्द करते हैं। ध्रुवों के समीपवर्ती प्रदेश इसी कोटि के हैं। आर्कटिक टर्न तथा गोल्डेन प्लोवर ऐसे ही पक्षी हैं जो ध्रुवों की यात्रा गर्मियों में ही करते हैं। क्योंकि उन दिनों वहां से सूर्य चौबीसों घण्टे दिखाई देता है। केवल मौसम की ही बात होती तो उसमें आये दिन उतार-चढ़ाव आते रहते हैं किन्तु वे ऐसा नहीं करते। अमेरिका के एक सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि वहां सैन जुआन कैपिस्ट्रान स्थान में आने वाले स्वालो पक्षी प्रतिवर्ष एक ही निर्धारित तिथि को पहुंचते हैं।
न्यूयार्क में एक पक्षी पाया जाता है ब्रांज कक्कू—इनके बच्चे पैदा होते ही आत्मनिर्भर जीवन बिताते हैं। माता-पिता इन्हें अपने साथ यात्राओं में भी नहीं ले जाते जब कि वे प्रतिवर्ष सोलोनद्वीप समूह की यात्राएं करते हैं। न जाने कौन-सी सूक्ष्म अन्तःप्रेरणा है कि बच्चे अपने आप ही अपने पूर्वजों की तरह यात्राएं करने और उन स्थानों में स्वतः पहुंच जाते हैं, जहां उनके पितामह आते जाते रहते हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि प्रकाश किरणों की दिशा, विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र तथा पृथ्वी के घूमने की स्थिति को पक्षी भली प्रकार अनुभव करते हैं इसी कारण वे इतनी लम्बी यात्राएं बिना किसी जान-पहचान और यन्त्र के सम्पन्न करते हैं, नक्षत्रों की स्थिति सूर्य के परिभ्रमण के आधार पर भी वे अपनी यात्राएं सम्पन्न करते हैं किन्तु जितना ही उनका यह सूक्ष्म बोध आश्चर्यजनक है उसी तरह यह तथ्य भी है कि वे रात में बिना पूर्वज्ञान और मार्गदर्शन से उन्हें इन सभी परिस्थितियों की जानकारी किस स्रोत से उपलब्ध होती है।
जीव-जन्तुओं की संस्कृति—
मैरीटेरियन सागर में गर्मी के प्रारम्भिक दिनों में मछलियों की बहुतायत देखने को मिलती है। मैकरल, पिलचर्ड और हैरिंग नाम की रंग-बिरंगी मछलियां इधर-से-उधर खेलती, कूदती, उछलती, फुदकती हुई बहुत अच्छी लगती हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है क्रीड़ा और मनोरंजनपूर्ण जीवन ही यथार्थ है। पैसा और प्रजनन की चिन्ता में पड़े घिसी-पिटी जिन्दगी जीना को बुद्धिमत्ता नहीं।
कुछ ही सप्ताह बाद वहां जायें तो फिर एक भी मछली दिखाई न देगी। चहल-पहल वाला वह क्षेत्र बिलकुल सूना-विराना दिखाई देने लगता है। प्रलय के बाद पृथ्वी की-सी नीरवता और निर्जनता का साम्राज्य देखकर लगता है—जीवन पृथ्वी से बंधा हुआ नहीं, वह परमात्मा की एक कलात्मक सत्ता है, जो इन मछलियों की तरह आनन्द के लिए कभी पृथ्वी में आ जाता है तो कभी अन्य लोकों में। उसे सांसारिक बन्धनों से बांधना बेवकूफी है। मुक्ति के इच्छुक जीवन को तो प्रवासी होना चाहिए। आज यहां, कल वहां—उसके लिए तो सारा संसार ही अपना घर है।
स्काम्बर नाम की मछलियों का जीवन बनजारे की तरह होता है। शीत ऋतु में स्काम्बर उत्तरी समुद्र में बड़ी संख्या में देखने को मिलती है। ग्रीष्म ऋतु आई और जैसे ही किनारों का पानी गर्म होना प्रारम्भ हुआ वे बड़े-बड़े समुदाय बनाकर उत्तरी अटलाण्टिक महासागर के दोनों तटों पर पहुंच जाती हैं। जीव-शास्त्रियों का मत है कि मछलियां खाने और प्रजनन के लिए प्रवास (माइग्रेशन) करती हैं, पर स्काम्बर उन भारतीयों की तरह हैं जो आत्म-कल्याण के लिए ही अर्न्तवास करते हैं। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दो आश्रम सामुदायिक संगठन में एक स्थान पर रहकर बिताने के बाद वे सांसारिक प्रलोभनों को ठुकरा कर विराट् सीमा के सौन्दर्य का रसपान करने निकट पड़ते हैं और वानप्रस्थ व संन्यासी जीवन जंगलों, पहाड़ों, घाटियों और सुदूर देशों में भ्रमण करते हुए व्यतीत करते हैं। एक स्थान पर रहकर सांसारिक गन्दगी बढ़ाने का पाप हम भारतीयों ने स्काम्बर के समान ही कभी नहीं बढ़ने दिया। इस तरह हम एक स्थान पर रहते हुए भी सारे संसार के बने रहे।
स्काम्बर भी ऐसा ही करती है। तरीके में थोड़ी-ही भिन्नता है। मई-जून में वे उत्तरी समुद्र में ही अण्डे-बच्चे देती हैं और फिर वहां से अकेले नहीं, अपने सम्पूर्ण समुदाय को लेकर वहां से निकट पड़ती हैं। ‘‘अकेले नहीं, हम सब’’ का सिद्धान्त रखकर लगता है ये मछलियां श्रेष्ठता में मनुष्य से आगे निकल गईं।
एक बार गुरु नानकदेव एक ऐसे गांव में पहुंचे, जहां के लोग बड़े उद्दण्ड और गंवार थे। उन्होंने नानक की आवभगत भी अच्छी तरह नहीं की, फिर भी जब वे चलने लगे तो ग्रामवासियों को आशीर्वाद दिया—‘तुम लोग इसी तरह आबाद रहो।’ नानक अगले दिन अगले गांव में रुके। वहां के लोग बड़े नेक, शान्तिप्रिय, अहिंसावादी और मिलनसार थे। उन्होंने नानक का यथेष्ट आदर-सत्कार किया। नानक विदा होने लगे तो वे लोग उन्हें कुछ दूर पहुंचाने भी गये। प्रणाम कर जब ग्रामवासी लौटने लगे तो नानक ने आशीर्वाद दिया—‘तुम लोग उजड़ जाओ, तुम लोग उजड़ जाओ।’
नानक के एक शिष्य को यह बात नहीं भायी, उसने कहा—महात्मन्! बुरे लोगों को अच्छा आशीर्वाद और अच्छे लोगों को बुरा—बात कुछ समझ में नहीं आई। नानक हंसे और बोले—बात यह है कि बुरे लोग संसार में फैलें तो उससे बुराई उसी तरह फैलती है जैसे अंग्रेजों की अंग्रेजियत सारी दुनिया में फैल गई पर यदि अच्छे लोग एक ही स्थान पर जमे बैठे रहें—लोक-सेवा के उद्देश्य से वे घर न छोड़ें तो संसार में भलाई के विस्तार का अवसर ही कहां आयेगा?
शिष्य की समझ में सारी बात स्पष्ट हो गई पर हम अभी तक यह बात नहीं समझ पाये। आजीविका और अपने बच्चों के विकास की दृष्टि से भी हमें संसार में फैलना पड़े तो एन्ग्रालिश मछली की तरह फैलना ही चाहिए। विश्व की विशदता का और अपने आप को अच्छी तरह अध्ययन करने का अवसर तो तभी मिलता है, जब हम औरों के पास जाकर अपनी तुलना करें। हिन्दू, मुसलमान आदि जातियां कोई ईश्वरीय विधान नहीं। जाति एक सापेक्ष वस्तु है, उसकी अच्छाई-बुराई का आधार गुणों की श्रेष्ठता ही हो सकती है, वंश नहीं। यह पता हमें और सारे संसार को तभी चल सकता है, जब हमारे सम्पर्क का दायरा विस्तीर्ण हो।
एन्ग्रालिश मछली बसन्त ऋतु में अपनी चैनेल में पाई जाती हैं, किन्तु अण्डे देने के लिए वह ‘ज्वाइडर जा’ के बाहरी हिस्से में पहुंच जाती हैं। सारडिना मछली जुलाई से दिसम्बर तक कार्नवेल में रहती हैं पर जाड़ा प्रारम्भ होते ही वह गरम स्थानों की ओर चल देती हैं। सामों मछली समुद्र में पाई जाती है, पर उसे गंगा और यमुना नदी के जल से अपार प्रेम है। अपने इस अपार प्रेम को प्रदर्शित करने और अच्छे वातावरण में अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए वह हजारों मील की यात्रा करके गंगा, यमुना पहुंचती है। अण्डे-बच्चे सेने के बाद भोजन के लिए वह फिर अपने मूल निवास को लौट आती है। इस स्वभाव के कारण ही सामों दीर्घजीवी और बड़ी चतुर मछली होती है। हमारी तरह उनके बच्चे भी सामाजिक संकीर्णता में पले होते तो इस अतिरिक्त विकास का अवसर उसे कहां मिल पाता।
हमारी कमजोरी यह है कि विपरीत परिस्थितियों और संघर्षों से टकराना हमें अच्छा नहीं लगता। शांतिपूर्ण दिखाई देने वाली यह स्थिति वस्तुतः एक भ्रम है और हमारे विकास का मुख्य अवरोध भी। यों तो संसार की अधिकांश सभी जातियों की मछलियां उल्टी दिशा में चलती हैं, पर योरोप में पाई जाने वाली एन्ग्युला बहाव की उल्टी दिशा में चलकर लम्बी यात्रा करने वाली उल्लेखनीय मछली है। ज्ञान और सत्य की शोध में हिमालय की चोटियों तक पहुंचने वाले भारतीय योगियों के समान यह एन्ग्युला मछली अटलांटिक महासागर पार करके गहरे पानी की खोज में बरमुदा के दक्षिण में जा पहुंचती है। बरमुदा अमेरिका के उत्तरी कैरोलाइना राज्य से 600 मील पूर्व में स्थित 350 छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है।
वहां अण्डे-बच्चे देकर यह अपने घट लौट आती है। उसके प्रवासी बच्चों में अपने माता, पिता, पूर्वजों और संस्कृति के प्रति इतनी प्रगाढ़ निष्ठा होती है कि ढाई-तीन साल के होते ही वे वहां से चल पड़ते हैं और 5-6 महीने की यात्रा करते हुए अपने जाति भाइयों से जा मिलते हैं और इस तरह बहुत दूर-दूर होकर भी उनका अपनी जाति से सांस्कृतिक सम्बन्ध उसी प्रकार बना रहता है, जिस तरह सैकड़ों मोरिशस, ट्रिनिडाड, केन्या, यूगाण्डा, मलेशिया थाई, इण्डोनेशिया, नैटाल, डर्बन, सुवाफीजी, लंका, बर्मा, इंग्लैंड और अमेरिका में रहने वाले भारतीय आज भी अपने धर्म और अपनी संस्कृति की आदि भूमि भारत-वर्ष से सम्बन्ध बनाये हुए हैं।
प्रवासी पक्षियों का सांस्कृतिक प्रेम—
कार्तिक लगा और भरतपुर की झीलें तरह-तरह के रंगीन चहल-पहल करने वाले प्रवासी पक्षियों से भरनी प्रारम्भ हुईं। कहते हैं भरतपुर आने वाले अधिकांश पक्षी रूस के साइबेरिया प्रान्त से आये हुए होते हैं। पक्षियों का यों विश्व के भिन्न-भिन्न स्थानों से यह प्रेम विलक्षण है, और कौतूहल वर्द्धक भी। उससे जीव मात्र की एकता और सम्पूर्ण पृथ्वी के एक परिवार, एक इकाई होने का जो प्रमाण मिलता है, वह भी कम कौतूहल वर्द्धक नहीं।
बड़ौदा के आस-पास तथा कच्छ के नल सरोवर में भी शेष भारत और विश्व के अनेक भागों से आये हुए पक्षी जाड़े के दिन किस हंसी-खुशी से काटते हैं, उसे देखकर लगता है कि संसार के लोग भी ऐसे ही परस्पर मिल-जुलकर रहने का अभ्यास कर सके होते, तो विश्व कितना खुशहाल दिखाई देता।
पक्षियों के प्रवासी जीवन (माइग्रेशन) का अपना एक विचित्र ही इतिहास है। जहां मनुष्यों में थोड़ी-थोड़ी जमीन, भाषावार प्रांत, देश-देशान्तरों के मध्य सीमा-विवाद उग्र रूप धारण करते और रक्तपात की परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, वहां पक्षी हैं मनुष्य से बहुत नेक, जिन्हें न तो भाषा का भेदभाव करना आता है, न प्रान्त और देश का। थोड़े दिन का आयुष्य, बड़ी हंसी-खुशी के साथ बिता लेते हैं।
पक्षी-विशेषज्ञों का मत है कि वे यह सब अन्तःप्रेरणा से करते हैं। इस प्रेरणा का उद्देश्य मौसम की अनुकूलता प्राप्त करना, भोजन और आजीविका की खोज, बच्चे पैदा करने के लिए उपयुक्त वातावरण प्राप्त करना होता है। कई पक्षी प्रकाश की कमी अनुभव करने पर उसी प्रकार एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थानों में चले जाते हैं जिस प्रकार कुछ देशों में राजनैतिक या शासन-तन्त्र की भयंकरता के कारण बहुत से लोगों को निर्वासित होना पड़ता है।
किन्तु चिड़ियों के प्रवास की दिशा का अध्ययन यह बताता है कि ऐसा करते समय पक्षी अपना सूक्ष्म बुद्धि, विवेक एवं सूझ-बूझ का भी प्रयोग करते हैं। वे जब अक्षांशीय (लांगीट्यूडनल) पथ पर एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव की ओर यात्रा करते हैं, तब ऐसे स्थानों से होकर चलते हैं, जहां उन्हें भोजन, घोंसले आदि की सुविधा रहे। लौटते समय भी वे उसका ध्यान रखते हैं। यह केवल अन्तःप्रेरणा से ही नहीं हो सकता, इसमें उनकी समझ ही प्रधान होती है। मनुष्य भी इसी प्रकार प्रवास से पूर्व समझ से काम लें यह आवश्यक है।
पक्षी जब उत्तरी गोलार्द्ध से दक्षिणी गोलार्द्ध को चलते हैं, तो यह सीधा (देशान्तरीय) प्रवास (वर्टीकल माइग्रेशन) कहलाता है। इसमें भी वही सूझ-बूझ रहती है। कुछ पक्षी जो स्थायी रूप से रहते हैं, पर कुछ ही समय के लिए बाहर जाते हैं, उदाहरण के लिए कौवे, खंजन, पिप्पलीज, मछली राजा (किंग फिशर) आदि को खाना नहीं मिलता, बर्फ जम जाती है तब कुछ ही दिन बाहर रहना पड़ता है, फिर वे वापिस आ जाते हैं। कुछ चिड़ियाएं होती ही खानाबदोश (बर्ड आफ पैसेज) हैं। वे घूमते-फिरते हुए सृष्टि के विभिन्न दृश्यों का आनन्द लेती हुई जीवन यापन करती हैं। इसकी मनुष्य से तुलना करने पर लगता है एक ही गांव, प्रांत और देश को घर बना लेना मनुष्य जाति की कितनी संकीर्णता है, यदि हम सारे संसार को ही एक परिवार, एक देश मान सके होते तो धरती स्वर्ग बन गई होती।
डा. एलचिन ने बहुत दिन तक चिड़ियों के प्रवासी जीवन का अध्ययन करके लिखा है एक पक्षी समय के अनुसार अधिक-से-अधिक अपने रहन-सहन, वेष-भूषा में परिवर्तन भी कर लेते हैं। पर अपनी सभ्यता, संस्कृति और आदर्शों को वे उन स्थानों में भी नहीं भूलते जहां उन्हें प्रवासी जीवन बिताना पड़ता है। हम भारतीय हैं जिन्होंने कभी ‘कृण्वन्तोश्विमार्यम्’, ‘हम सारे विश्व को आर्य (सुसंस्कृत) बनायेंगे’ का नारा दिया था, संसार भर में फैल गये थे, लोगों को धार्मिक, सांस्कृतिक उपदेश व शिक्षण देकर उन्हें सभ्य व सुसंस्कृत बनाया था उनकी सांस्कृतिक निष्ठा रत्ती भर भी न डिग्री थी, तभी सारे विश्व को प्रभावित करना सम्भव हुआ था। आज तो स्थिति बिलकुल ही उलट गई। लाखों-करोड़ों भारतीय जावा, सुमात्रा, मौरिशस, केन्या यूगांडा, ट्रिनीडाड, फिलीपाइन्स, नैटाल, डर्बन, मलाया, सिंगापुर आदि में बसे हैं, पर उनकी अपनी न शिक्षा रही न संस्कृति। वेष-भूषा, रहन-सहन, आहार-विहार तक बदल गये। नाम अभी भी भारतीय हैं, पर काम और आचार-विचार तो पाश्चात्यों से भी गये गुजरे हो गये। अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा से टूट गये तो संसार पथभ्रष्ट क्यों न होता?
चिड़ियां चलने के लिए तैयारी करती हैं तब अपने पुराने पंख गिराकर नये पंख धारण कर यात्रा का स्वागत करती हैं। पहले वे एक बार परीक्षण उड़ान कर लेती हैं। अकेले नहीं, अनेक चिड़ियां एक दिन एक स्थान में नियत समय पर एकत्रित होकर उड़तीं और संगठन व एकता की महत्ता प्रतिपादित करती हैं। वे दिन में भी चलती हैं और सुरक्षा की दृष्टि से रात में भी। पर यात्रा के दिनों में उनकी सभ्यता और शिष्टाचार देखते ही बनता है।
सबसे आगे कबीले की झुण्ड की वृद्ध चिड़ियाएं चलतीं और मनुष्य जाति को संकेत से समझाती हैं कि वृद्ध शरीर से कितने ही अशक्त क्यों न हो जायें वे कभी अनुपयोगी नहीं होते। उनके पास जीवन भर का ज्ञान और अनुभव संग्रहीत रहता है। चिड़ियां उनसे महत्वपूर्ण लाभ ले सकती हैं, तो मनुष्य जैसा समझदार प्राणी वैसा क्यों नहीं कर सकता? भारतीय संस्कृति में वृद्धों को, माता-पिता को इतना सम्मान दिया गया है, तभी हम संसार में अपना गौरव स्थापित कर सके हैं और आज जबकि पाश्चात्यों के अन्धानुकरण व अपनी ही दुर्बलताओं के शिकार हमने उन्हें आदर देने में कमी कर दी तब हम दिग्भ्रान्त पथिक के समान इधर-उधर भटकते भी दिखाई दे रहे हैं। चिड़ियों की समझ इस दृष्टि से मनुष्य की समझ से श्रेष्ठ है। वे जब अपने देश से जाती हैं, तब वृद्धों को आगे रखती हैं। उनके पीछे अर्थात् मध्य में छोटे बच्चे होते हैं सुरक्षा की कितनी सावधानी सबसे पीछे युवा पक्षी। पर लौटते समय यह स्थिति बिलकुल बदल जाती है। वृद्धों के आदेश पर प्रौढ़ पक्षी सबसे आगे चलते हैं, ताकि वे अगली यात्राओं के लिए अनुभव प्राप्त करें, दक्ष हो जायें बीच में वही छोटे बच्चे और सबसे पीछे मार्ग-दर्शन करती हुईं वृद्ध चिड़ियाएं। वे रहती भर हैं पीछे, पर रास्ता चलने में थोड़ी-सी भी भूल हो तो वे सुधार देती हैं। घनी अंधेरी रातों में भी वृद्ध पक्षी तारागणों की मदद से उन्हें चलना सिखाते हैं। पक्षी अपने बुजुर्गों के सम्मान का पूरा लाभ लेते हैं जबकि हम मनुष्यों ने बुजुर्गों का सत्कार न कर अपना भारी अहित किया।
हजारों मील की दूरी तक चले जाते हैं यह पक्षी, पर जब वापिस लौटते हैं तो अपनी संस्कृति, बोली, भाषा में किंचित मात्र परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता। आर्कटिक टर्न 11000 मील की यात्रा करती है तो गोल्डेन पावर 7000 मील का प्रवास। वुडकाक, सारस, और राबिन पक्षी क्रमशः 2500, 2000, 1000 मील तक चले जाते हैं। छोटी-छोटी गौरैया और चहचहाने वाली चिड़ियां भी 500 व 300 मील तक चली जाती हैं और विश्व भ्रमण का आनन्द व ज्ञान-लाभ प्राप्त करती हैं।
समुद्र के तट, पर्वत, वादी, घाटियों और नदियों का भ्रमण करते पक्षी होते हैं छोटे, पर अपना दृष्टिकोण विशाल बना लेते हैं। पक्षी-विशेषज्ञों का विश्वास है कि इन्हें पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र, उसके घूमने से उत्पन्न मैकेनिकल फोर्स आदि का भी पता होता है। मनुष्य ही है, जो कि अपने सीमित ज्ञान पर दम्भ दिखाता है। यह पक्षी जो ज्योतिर्विज्ञान तक से परिचित होते हैं, अंधेरी रातों में तारों की मदद से आगे बढ़ते चले जाते हैं, पर उन्हें अपनी श्रेष्ठता का कुछ भी अभिमान नहीं होता। एक छोटे से प्राणी की चहकती-फुदकती जिन्दगी जी लेते हैं और साथ ही तरह-तरह के ज्ञान और अनुभव भी अर्जित करते रहते हैं लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने अपनी नैसर्गिक प्रकृति, संस्कृति और विशेषताओं का परित्याग किया हो।
यह तो मनुष्य ही है जो महत्त्वहीन और निर्मूल्य सुख-साधनों के प्राप्त होते ही अपने आपको भूल बैठता है और अपनी विशेषताओं, क्षमताओं तथा दायित्वों की स्मृति खो देता है। उचित यही है कि जीवन को एक प्रवास एक यात्रा मानते हुए उसे सफलतापूर्वक संपन्न करने की बात सोची जाय तथा मनुष्य जीवन को सफल व सार्थक बनाया जाय।