Books - जीव जन्तु बोलते भी हैं, सोचते भी हैं
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Language: HINDI
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वे भी बोलते हैं, कोई समझे तो
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भाषा और साहित्य द्वारा अपने विचार अभिव्यक्त करने और अपनी संवेदना से दूसरे साथियों को परिचित कराने की क्षमता सृष्टि के किसी भी जीवधारी को नहीं मिली है। केवल मनुष्य ही ऐसा है जिसे यह सुविधा प्राप्त हुई है। किसी भी प्राणी को अपने समीपवर्ती या दूरवर्ती किसी अन्य प्राणी से कुछ कहना, बताना हो तो वे न बोलकर बता सकते हैं और न लिखकर। यह विभूति तो परमात्मा ने अपने उत्तराधिकारी राजकुमार मनुष्य को ही दी है।
यह मान्यता तभी तक सही है, जब तक कि मनुष्य अपने इस विशेष रूप से उपलब्ध उपहार का उपयोग मानवेत्तर जीवों की उपेक्षा उत्कृष्ट दिशा, आत्मशोध, आत्मकल्याण और लोक-मंगल के लिए करता है। विचार, चिन्तन, मनन और प्रतिपादन की विशेषता मनुष्य को छोड़ कर और अन्य किसी भी प्राणी को प्राप्त नहीं है। यह सारी योग्यतायें मनुष्य को ही मिली हैं, यदि वह उनका उपयोग अपने स्वार्थ तक ही सीमित न रखकर पुण्य परमार्थ में करता है, तब तो यह ईश्वरीय अनुदान भी सार्थक है यदि वह केवल लौकिक, भौतिक और इन्द्रिय सुखों की पूर्ति तथा विकास में ही इस योग्यता को खर्च करता है तो यही मानना पड़ेगा कि उसमें और अन्य क्षुद्र कहे जाने वाले जीव-जन्तुओं में कोई अन्तर नहीं है।
यह बात जीवशास्त्र में अब तक हुई उपलब्धि का अध्ययन करने से भी सिद्ध हो जाती है क्योंकि मनुष्येत्तर प्राणियों की भी अपनी भाषा है। वह मूक तो है पर मनुष्य को मिली बौद्धिक क्षमता से उनकी क्षमता कुछ कम नहीं है। वे अपनी इस भाषा का उपयोग करके भी मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक व्यवस्थित, अनुशासित और सुख-शांति पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं।
व्यवस्था बुद्धि, जीव-जन्तुओं की विलक्षण बुद्धिमत्ता
प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक रोमेन्स को एक बार बड़ा कौतूहल हुआ कि एक खोजी मधुमक्खी सैकड़ों मील दूर जाकर कोई पुष्पोद्यान अथवा जलाशय देखकर आती है उसकी सूचना वह अन्य मधुमक्खियों को कैसे देती है? उन्होंने शीशे के छल्ले बनाकर मधुमक्खी के छत्ते में फिट कर दिये फिर कुछ मधुमक्खियों को विशेष प्रकार के रंगों से रंग दिया तब कहीं उनकी विचार विनिमय प्रणाली का अध्ययन करना सम्भव हुआ।
एक मधुमक्खी उड़ी और किसी दिशा में चली गई। वहां उसे ऐसे फूलों के पौधे मिले जो फूले भी थे और जिनमें पराग भी प्रचुर मात्रा में था। उसने कुछ पराग-कण इकट्ठे किए और मुंह में दबाये छत्ते को लौट आई। अन्य मधुमक्खियां उसे ऐसे घेरकर खड़ी हो गईं जैसे वह सब समाचार पाने के लिए उतावली हों। अब वह मधुमक्खी नाचने लगी वह एक गोलार्द्ध में नाचती थी और रह-रहकर नाचने की दिशा बदल देती थी उससे अन्य मधुमक्खियों ने पता लगा लिया कि फूल और पराग यहां से किस दिशा में कितनी दूर पर हैं। नाच बन्द करके उसने अपनी मूंछ सभी साथियों की मूंछ से स्पर्श करा कर कुछ संकेत दिया और फिर वह स्वयं भी अपने काम में जुट गई। यह नहीं कि उसने लोगों को सूचना देना भर पर्याप्त समझा हो वह तो उसका थोड़ी देर का अपना सामुदायिक कर्त्तव्य था उसे पूरा करने के बाद भी वह अपना काम करती है जब कि मनुष्य है कि एक काम मिल गया फिर वह दूसरा काम छूना भी पसन्द नहीं करेगा। हमारी बहुमुखी प्रतिभा के द्वार इसीलिए बन्द रहते हैं कि हम अपनी क्षमताओं को क्रियान्वित करने में भी लज्जा अनुभव करते हैं।
श्री जगतपति चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘‘जीव-जन्तुओं की बुद्धि’’ में इन संकेतों को स्पष्ट करते हुए बताया है कि यदि मधुमक्खी धीमे वेग से नाचती है तो उसका अर्थ यह होता है कि पराग की मात्रा जिसकी उसने खोज की है थोड़ी है। इसलिए वहां से थोड़ी मधुमक्खियां जाती हैं पर यदि नाच का वेग तेज है तो वह पराग की मात्रा अधिक होने का सूचक माना जाता है और मधुमक्खियां अधिक आ जाती हैं। यदि फूल 100 गज की दूरी पर हैं तो वह गोलार्द्ध में नाचती है, यदि उनकी दूरी 2-3 मील है तो वह अंगरेजी के आठ बनते हैं उस शक्ल में नाचते हुए चक्कर काटती हैं। यह भी है कि वह एक मिनट में जितने बार चक्कर काटती है दूरी का अनुमान उसी से होता है। उदाहरण के लिए यदि वह एक मिनट में 22 बार नाचती है तो फूल 300 गज दूर होंगे। यदि दूरी 3000 गज है तो चक्करों की संख्या 11 ही होगी। इसी प्रकार वह दिशा भी नाचते हुए दायें-बायें दिशा काटकर व्यक्त करती है। आश्चर्य तो इस बात का है कि यह प्रशिक्षण उन्हें किन्हीं माता-पिता से न मिला होकर जन्मजात अन्तःप्रेरणा के रूप में मिलता है और यह बताता है कि अभिव्यक्ति चेतना का नैसर्गिक गुण है। इस गुण का उपयोग वे न केवल आहार जुटाने में वरन् छत्ते में अनुशासन शत्रुओं से रक्षा एवं पारिवारिक व्यवस्थायें जुटाने में करते और बताते हैं कि मनुष्य भी यदि अपनी भाषा, साहित्य, कला का उपयोग तुच्छ भौतिक हितों में ही करता है तो वह हमसे पिछड़ा है क्योंकि हम उसकी अपेक्षा कहीं अधिक व्यवस्थित और शान्ति में है।
प्रसिद्ध जीव शास्त्री प्रो. हीथ ने दीमक के जीवन का गहन अध्ययन किया है उन्होंने ‘‘जीव जन्तुओं की दुनिया’’ पुस्तक में उनके बीच प्रयुक्त होने वाली सांकेतिक भाषा के बड़े गूढ़ रहस्यों का भी पता लगाया, उन्होंने लिखा है कि दीमक जिस किले (बाम्बी) में रहती है उसमें कई प्रकार के कमरे होते हैं। राजा रानी एक विशेष भवन में रहते हैं शेष सब छोटे-छोटे कमरों में। कोई दीमक भूखी होती है तो वह मजदूर दीमक के सींग को स्पर्श करती है। यही उनका भोजन मांगना है। यदि भोजन मांगने वाला बच्चा है और वह भविष्य में उस किले का राजा बनने वाला हुआ तो उसकी भोजन मांगने की प्रक्रिया कुछ भिन्न रौबदार होगी। मजदूर दीमक अविलम्ब अपने मुंह से कोई तरल पदार्थ निकाल देती है जो उस उत्तराधिकारी राजकुमार के आहार के काम आता है। यदि मांगने वाला कोई मजदूर हुआ तो मजदूर दीमक अपने पिछले हिस्से से आंतों से खाना निकाल कर उसे देगा। यों दीमक की सार्वजनिक जीवन व्यवस्था बड़ी ही सुचारु होती है तथापि वह एक कीड़ा है और उसकी सारी चेष्टायें खाने-पीने और परिवार के भरण-पोषण, रक्षण तक ही सीमित हैं मनुष्यों को मिली इन कलाओं का उपयोग भी यदि इन्हें बातों तक सीमित रहे तो उसे भी दीमक की तरह का ही एक कीड़ा समझना चाहिए।
चींटी अपने विचार प्रगट करने और एक दूसरे को संवाद पहुंचाने में चाहे कितनी मूक भाषा का प्रयोग करती हो उसकी सूक्ष्मता और बुद्धिमत्ता का अनुमान मेजर हैगस्टन के इस प्रयोग से ही लगाया जा सकता है। मेजर हैगस्टन ने एक बार चींटी के बिल के पास खाने का एक छोटा सा टुकड़ा रख दिया जो उनके अनुमान से एक चींटी नहीं उठा सकती थी। चींटी आई उसने उसे देखा और तुरन्त बिल में पहुंची और अपने साथ 10 मजदूर चींटियां ले आई ग्यारहों ने उसे उठाया और घर ले गईं इस बीच उन्होंने गुड़ के ढेले को पतली पेन्सिल जैसा बनाकर उसके तीन टुकड़े किये। पहला टुकड़ा आधा इंच का था, दूसरा पौन इंच और तीसरा टुकड़ा डेढ़ इंच का था। एक चींटी आई उसे तीनों टुकड़ों को देखा, इस बीच और भी कई चींटियां आईं और उन टुकड़ों को भिन्न-भिन्न दिशाओं और दूरियों में पड़ा देख गईं।
थोड़ी देर पीछे चींटियों का समूह निकला जिसमें 161 चींटियां थीं। बिल से निकलते ही उनमें से 29 चींटियां पूर्व की ओर चली गईं, जहां सबसे छोटा टुकड़ा पड़ा था, शेष में से 44 दक्षिण की ओर जिधर दूसरा टुकड़ा पड़ा था, 89 चींटियां उधर गईं जिधर सबसे बड़ा टुकड़ा था। तीनों दल बात की बात में तीनों टुकड़े उठा ले गए और मेजर साहब सोचते रह गये। यदि इन चींटियों में अनुभव करने, सोचने और अपने मन की बात को सांकेतिक रूप से दूसरी चींटियों को समझा देने की योग्यता न होती तो इतना व्यवस्थित कार्य वे कैसे कर लेतीं। मनुष्य तो उससे भी सरल और स्पष्ट बुद्धि का स्वामी होकर भी उतनी व्यवस्था से नहीं रह पाता। परलोक की बात तो दूर अपनी बुद्धि का सही उपयोग न करके वह अपनी शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक अथवा राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में अव्यवस्थायें ही फैलाता और अशांति ही बढ़ाता है। यदि अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग मनुष्य ने मूक पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं की तरह केवल लौकिक हितों के लिये भी व्यवस्थित ढंग से किया होता तो सार्वजनिक क्षेत्र आज इतना दूषित और उलझा हुआ न होता। मनुष्य-जीवन आज दुःख, कष्ट, पीड़ा और कलह-क्लेश का अखाड़ा बना हुआ है वह इस बौद्धिक सामर्थ्य के दुरुपयोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। गीध अशुभ पक्षी माना जाता है पर अपनी भावनायें, अपने विचार तो वह भी व्यक्त कर लेता है। एक गीध जब कोई मरा हुआ पशु देखता है तो किसी ऊंचे वृक्ष की छत पर बैठकर एक विशेष प्रकार से ‘‘चैंव चैंव’’ की आवाज करके गर्दन घुमाकर संकेत करता है। इस संकेत में मरे पशु की किस्म, स्थान और कितने गीधों के लिये भोजन उपलब्ध है वह सारी बातें कह देता है। इस आवाज को जो भी दूसरा गीध सुनता है चलने की तैयारी करने से पूर्व उसी तरह का संकेत अपने पीछे वाले गीधों के लिये कर देता है। अपनी जाति के प्रति आत्मीयता का यह भाव मनुष्य में भी आ गया होता तो आज लोग जाति-पांति, ऊंच-नीच, वर्ग-भेद को लेकर झगड़ते नहीं। गीध एक-एक कर इकट्ठा होने लगते हैं जितने आवश्यक थे उतने गीध आ जाने पर सब प्रथम संकेत देने वाले को संकेत देकर आगे चलने को कहते हैं क्योंकि उसे उस समय उस पशु के मांस का सबसे नरम भाग खाने का अधिकार होता है।
हम यह सोचते हैं कि अन्य जीव-जन्तु हमारी तरह बोल नहीं सकते तो उनमें विचार करने की क्षमता का अभाव होगा। बुद्धि उनमें भी होती है। बात-चीत वे भी कर लेते हैं। ‘‘खग जानै खग ही की भाषा—ताते उमा गुप्त कर राखा’’ वाली बात है।
ये जीव-जन्तु हमें गूंगे, बहरे दिखाई पड़ते हैं पर वस्तुतः वैसा है नहीं। वे आपस में घुल-घुल कर बातें करते हैं, एक दूसरे के साथ विचार-विनिमय करते हैं और पारस्परिक सहयोग जुटाने में उस संभाषण का प्रयोग करते हैं। यह अलग बात है कि उनके सम्भाषण उपकरण मनुष्यों से भिन्न हैं और उनका शब्द कोष हमारे उच्चारण विधान से मेल नहीं खाता।
मिशिगन विश्वविद्यालय के कीट विज्ञानी डा. ब्राडांक के अनुसार कीड़े-मकोड़े भी परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं; यदि उनमें यह क्षमता न रही होती तो उनका जीवित रहना ही असम्भव हो जाता, पक्षी निरर्थक चह-चहाते मालूम पड़ते हैं पर वस्तुतः वे अपनी प्रसन्नता, व्यथा, योजना, जानकारी आदि की सूचनायें अपने साथियों को देते हैं। ध्वनि के साथ-साथ उनकी मनःस्थिति घुली होती है जिसकी जानकारी उस वर्ग के अन्य पक्षी प्राप्त करते हैं और उससे लाभ उठाते हैं। खतरा किसी एक को मालूम पड़ जाय तो वह अपनी भाषा में अपने साथियों को सूचित कर देता है, फिर सब मिलकर उसी का उच्चारण करते हैं ताकि न केवल साथियों को आगाही हो जाय वरन् शिकारी शिशु को उनकी सतर्कता एवं आक्रामक सम्भावना के कारण आक्रमण करने का इरादा ही बदलना पड़े।
छोटे कीड़ों की भाषा नहीं होती वे अंग स्पर्श से विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। यह स्पर्श ऐसे ही निरर्थक नहीं होता वरन् उसकी एक व्यवस्थित संकेत श्रृंखला होती है; जिससे उस वर्ग के कीड़े भली प्रकार परिचित होते हैं। एक दूसरे के किस अंग को किस पकड़ के साथ छुए और क्या हलचल करे इस प्रक्रिया से वे साथियों को अपने मन की बात बता देते हैं। ध्वनि, स्पर्श, दृष्टि और हलचल के माध्यम से छोटे जीवों का आदान-प्रदान चलता है। हम अपने स्तर पर उन्हें मूक कह सकते हैं पर वस्तुतः बोलते वे भी हैं। उनका उच्चारण इतना मन्द होता है कि हमारे कान उन्हें सुन-समझ नहीं सकते, फिर भी वे जिह्वा से न सही शरीर के विभिन्न अंगों की हलचलों या रगड़ से ऐसी क्रमबद्ध ध्वनि उत्पन्न करते हैं जिसे उनकी भाषा कहा जा सकता है।
बरसात में मेंढ़कों की टर्र-टर्र अकारण नहीं होती इसमें वे अपनी मानसिक स्थिति का परिचय देते हैं। टिड्डे अपने पंखों को पिछले पैरों से रगड़कर ध्वनि उत्पन्न करते हैं, झींगुर की टांगें मनुष्य द्वारा बजाये जाने वाले किसी वाद्य यन्त्र की तुलना का ध्वनि प्रवाह निसृत करती हैं। जर्मन कीट विज्ञानी फेयर ने टिड्डों की भाषा खोजने के लिए योरोप भर के जंगलों की खाक छानी है। उसने टिड्डों के लगभग 400 ध्वनि संकेत और चौदह स्तर के प्रणय निवेदन टेप किये हैं। इन ध्वनियों को टेप पर सुनकर भी अन्य कीड़े उस जानकारी के अनुरूप ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। योरोप के ग्राइलस, कम्पेस्टस, ग्रावाइमैकुलेटस आदि झींगुर जातियां अपने अन्य साथियों की तुलना में अधिक मुखर होती है। मादा और नर के स्वरों में अन्तर होता है इससे वे लिंग भेद को आसानी से पहचान लेते हैं और तदनुरूप शिष्टाचार बरतते हैं।
मधुमक्खी विशेषज्ञ माटिन लिण्डेयर ने मधुमक्खियों के आदान-प्रदान के माध्यम को नृत्य माना है। वे अनेक तरह की कला-बाजियों के नृत्य करती हैं और संग्रहीत सूचनाओं की जानकारी छत्ते के अन्य साथियों को देती हैं। इसी आधार पर उनकी झुण्ड मकरन्द प्राप्त करने के लिए उपयुक्त दिशा की जानकारी पाता है और कूच करता है। कुछ मक्खियां इस खोज-कला में और सूचना-संवाद देने की कुशलता में बहुत प्रवीण होती हैं, वे प्रायः इसी कार्य को रुचि पूर्वक करती रहती हैं।
प्रो. राबर्ट हिण्डे के अनुसार पक्षी ही नहीं कीड़े भी आंखों के इशारे से अपने बहुत से मनोभाव साथियों को बता देते हैं। यों आंखों की हलचल और चितवन में भी थोड़ा बहुत अन्तर पड़ता है पर पुतलियों की सम्वेदनशीलता में वैसा बहुत कुछ रहता है जिससे एक दूसरे की भावनाओं का आदान-प्रदान हो सके। इस दृष्टि से छोटे प्राणी मनुष्य से पीछे नहीं हैं। यों मनुष्य भी आंखों और पुतलियों के सहारे अपनी गुह्य मनःस्थिति को जाने-अनजाने साथियों पर प्रकट करते रहते हैं।
कार्लवाल फ्रिच ने मधुमक्खी नृत्य की अनेक मुद्राओं के फिल्म लिये हैं और बताया है कि उनकी क्या हलचल, कितनी दूर, किस दिशा में, किस स्तर की, क्या स्थिति है इसकी सूचना ठीक प्रकार देती हैं। मधुमक्खियों की इस संकेत भाषा के आधार पर उनने परीक्षा की तो उनका प्रतिपादन शत प्रतिशत सही निकला।
जुगनू की तरह और भी कई कीड़े अपने शरीर से प्रकाश निकालते हैं। कैल कीड कीड़ा तो रेलवे सिगनलों की तरह लाल, हरी रोशनी जलाता-बुझाता रहता है। यह प्रकाश सदा एक जैसा नहीं चमकता उसके जलने-बुझने, मन्द एवं तीव्र होने में जो बारीक अन्तर रहते हैं उससे वे अपनी जाति वालों से आपसी वार्तालाप करते रहते हैं। कितने ही जीवों का काम उनकी घ्राण शक्ति से ही चलता है। जीवनोपयोगी कितनी ही जानकारियां वे वस्तुओं एवं जीवों के शरीरों से निकलने वाली गन्ध के आधार पर प्राप्त करते हैं। इतनी ही नहीं उनकी विभिन्न शारीरिक, मानसिक परिस्थितियों से विभिन्न प्रकार की गन्धें निकलती हैं, उस वर्ग के प्राणी इन्हें सूंघकर एक दूसरे की स्थिति का परिचय प्राप्त करते रहते हैं। रति प्रयोजन के लिए उनके शरीरों से विशेष रूप से तीव्र गन्ध निकलती है, यही वह सूत्र है जो उनकी वंश रक्षा की व्यवस्था जुटाये रहता है। बहुत छोटे अदृश्य कीड़े तो इस गन्ध के आदान-प्रदान से ही गर्भ धारण कर लेते हैं। ई.ए. विल्सन के अनुसार चींटियां अपने शरीर से एक रस निकालती और टपकाती चलती हैं ताकि अन्य चींटियां उनके आह्वान पर विशेष प्रयोजन के लिए उसी रास्ते को सूंघती हुई बढ़ती चली आवें। चींटियों का पंक्तिबद्ध चलना इसी गन्ध के आधार पर होता है।
गंध के इस स्रवण और उसके माध्यम से पूर्ववाली चींटियों द्वारा छोड़े गये संकेत चिह्नों को चींटियों का संवाद या संदेश प्रेषण और ग्रहण ही कहा जाना चाहिए। यह तो सांकेतिक भाषा हुई। जीव-जन्तुओं के स्थिर संवाद की एक अलग ही प्रणाली है। उनकी अपनी भाषा है इसमें कोई संदेह नहीं है।
संवाद उनमें भी होता है—
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कीट-पतंग गंध छोड़ते और सूंघते हैं। उनकी वाणी की अपेक्षा घ्राणशक्ति अधिक विकसित होती है। फलतः एक दूसरे के शरीरों से विभिन्न प्रकार की जो गंध समय-समय पर निकलती रहती है, उनके सहारे वे यह जान लेते हैं कि दूसरे सजातीय किस स्थिति में हैं और वे किस प्रकार के सहयोग की अपेक्षा करते अथवा जानकारी देते हैं।
जीवों की भाषा—विलक्षणता
जिन्हें वाणी प्राप्त है वे अपने थोड़े से शब्दों के सहारे ही काम चला लेते हैं। अपने हर्षोल्लास अथवा दुःख-दर्द की अभिव्यक्ति वे उतने से उच्चारण में ही कर लेते हैं। इससे उनका जी हलका होता है, उत्साह मिलता है तथा दूसरे साथियों को अपनी ही तरह उत्तेजित करके सम्वेदना उभारना सम्भव होता है। इससे उनका स्नेह, सौजन्य एवं सहयोग निखरता है। चिड़ियां जब चहचहाती हैं उससे उनके शरीर का अंग संचालन भी होता है। इस उच्चारण और संचालन को देखकर उनके सजातीय यह पता लगा लेते हैं कि उसका अभिप्राय क्या है? और उस जानकारी को प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें क्या करना चाहिए?
यही बात पशुओं के सम्बन्ध में है। उनके शब्द और भी स्पष्ट होते हैं। झींगुर, मच्छर, मक्खियां जैसे कीट-पतंग भी शब्दोच्चारण करते हैं। मेंढक जैसे छोटे जीव भी कर्णकटु शब्द बोलते हैं। हलकी आवाज जो प्रायः सभी जीवों की होती है। जिह्वा अथवा दूसरे अवयवों के सहारे वे ध्वनि करते और अपनी मनःस्थिति का अन्यों को परिचय देते हैं। हम मनुष्य यदि अन्य प्राणियों की भाषा समझने का प्रयत्न करें, उनकी अभिव्यक्तियों और आवश्यकताओं को अनुभव करें तो निस्संदेह अपने परिवार का अबकी अपेक्षा असंख्य गुना विस्तार हो सकता है और उसी अनुपात से आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ सकता है। अभी तो 400 करोड़ मनुष्यों के ही एक मानव समाज से हमारा परिचय है, उनमें भी भाषा की एकता से ही घनिष्ठता एवं सहयोग का द्वार खुलता है। भाषा की दृष्टि से जिनके बीच आदान-प्रदान का माध्यम अभी नहीं बना है वे मनुष्य समाज के सदस्य होते हुए भी एक दूसरे से अपरिचित जैसी स्थिति में पड़े रहते हैं।
मानवी भाषाओं के बीच एकता के क्षेत्र बढ़ाने के प्रयत्न चल रहे हैं। यदि प्राणियों की भाषा को समझने का क्षेत्र बढ़ सके तो जीवधारियों की दुनिया अब की अपेक्षा बहुत बड़ी हो सकती है। विकसित प्राणी अविकसितों को ऊंचा उठने का सहारा दे सकते हैं और अविकसितों के सहयोग का बहुत बड़ा लाभ मनुष्य जैसे विकासवानों को मिल सकता है। प्रयत्न करने पर और ध्यान देने पर हम जीवधारियों की भाषा समझने में बहुत कुछ प्रगति कर सकते हैं।
बछड़े के रंभाने से पता चलता है कि उसकी जननी गाय उससे दूर चली गई है। चिड़ियों के नन्हें बच्चे भी मां के दूर जाते ही चीं-चीं कर उठते हैं। पास आने पर पंख फड़-फड़ाकर प्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं। कुत्ते का पिल्ला मां की उपस्थिति में हर्ष-सूचक ध्वनि भिन्न रीति से करता है और दूर जाने पर रोने की आवाज भिन्न रूप से। दोनों स्थितियों में उसका स्वर एवं भंगिमा भिन्न-भिन्न होती है।
इससे स्पष्ट है कि भाव-सम्प्रेषण के लिए पशु-पक्षी भी विशिष्ट ध्वनि-क्रमों का निश्चित विधि से उच्चारण व प्रयोग करते हैं। यानी उनकी अपनी एक भाषा है। वे अपने वर्ग के जीव की भाषा ही समझते हैं। कुत्ता-कुत्ते की, गाय अपने बछड़ों, बैल व अन्य गायों की, चिड़ियां-चिड़ियों की भाषा अच्छी तरह समझने में समर्थ हैं।
बाघ की दहाड़ स्वर ‘औं..... घ्... ह’ अथवा ‘ऊं..... घ्...... ह’ जैसा होता है। गुर्राहट ‘गर्र र्र र्र’ जैसी होती है। ऋतुमती शेरनी शेर को बार-बार पुकारती है। शेर उसे सुनकर वहीं से प्रत्युत्तर देता है और दोनों एक दूसरे के समीप पहुंचते हैं। प्रणयकेलि के समय दोनों बहुत ही तेज आवाज करते हैं, मानो प्रचण्ड युद्ध हो रहा हो।
बाघ, चीते, या तेंदुए बड़ी सतर्क चाल चलते हैं। उनकी पहचान का सर्वोत्तम माध्यम काकड़, चीतल, सांभर और हिरन की उच्च ध्वनियां ही हैं। काकड़ की आवाज ‘बोक्’ जैसी होती है, नर-चीतल भारी, दीर्घ-सी ध्वनि से सतर्क करता है, सांभर तीव्र शंख ध्वनि की तरह ‘पैंड्ड’ की आवाज करता है और श्रोता को सहसा चौंका देता है। बाघ, चीता, बघेरा या तेंदुआ की उपस्थिति का सर्वाधिक प्रामाणिक अनुमान इन्हीं आवाजों से होता है। साथ ही उत्तेजित बन्दरों की ‘खों-खों’ या लंगूर की ‘खुर्र-खुर्र’ भी इन हिंसक प्राणियों की उपस्थिति का संकेत है।
यह हुई वन की ‘भाषा’। वन की ‘लिपि’ को भी समझना आवश्यक है। नरम या आर्द्र मिट्टी पर पशुओं के पद-चिह्न ही यह लिपि है। उनसे वहां से गुजरने वाले पशु का वर्ग, आकार, गुजरने का समय तथा दिशा का सूचक होता है। वनवासी इन चिह्नों को पहचानने में प्रवीण होते हैं। पटु शिकारी भी इसमें दक्ष होते हैं। जरा-सी दबी घास या टूटी हुई डालें, सूखी कड़ी भूमि में भी पशु के जाने-आने की दिशा का पता चल जाता है।
वन में पशु-पक्षियों की बोलियों के भी अभिप्राय को समझना आवश्यक है। एक दूसरे को अपनी उपस्थिति की सूचना देने के लिए अथवा मौज की लहर में हाथी जोरदार स्वर में चिंघाड़ते हैं इं......घा र। जब कि भय या उत्तेजना की स्थिति में वे फटी-सी और तीखी ध्वनि करते हैं—‘‘पैं ऐं ऐं’’। कभी-कभी हाथी ‘गुर्र र्र र्र’ ध्वनि से गुर्राते हैं, जो क्रोध का परिचायक है। मानो कोई मोटर-इंजन चालू किया गया हो।
हाथी कभी-कभी फुफकारते हैं तेजी से। एक-दो फर्लांग दूर भी फुफकारने पर लगता है मानो 15-20 फुट दूर से ही ध्वनि आ रही हो।
शहर और नगरों की होने वाली हलचलों का आभास हवा में गूंजने वाले शोर-शराबे से लग जाता है। कार, स्कूटर, ट्रक आदि के सड़क पर से गुजरने से उनकी आवाजों में रहने वाले अन्तर से यह पता चलता है कि कौन वह गुजरा। तांगा, इक्का, धकेल, बैलगाड़ी, ऊंट-गाड़ी के आवागमन की बात बिना उन्हें देखे ही मात्र ध्वनि के सहारे जानी जा सकती है। अगल-बगल में बच्चों की उछल-कूद और बड़ों की भगदड़ में जो अन्तर होता है उसे कमरे में बैठकर भी बिना देखे जाना जा सकता है। हवा की तेजी वर्षा की गति आदि की हलचल कान से सुनकर आंखें मीचे-मीचे भी जानी जा सकती है। हवा में गूंजने वाली ध्वनियों के सहारे हम सहज ही समीपवर्ती वातावरण का अनुमान लगा सकते हैं।
जंगल का भी अपनी भाषा है। वन्य पशु-पक्षियों की उपस्थिति तथा हरकतों का अनुमान उनके संसर्ग से उत्पन्न होने वाली आवाजों के आधार पर सहज ही जाना जा सकता है। वन क्षेत्र के निवासी उनके अभ्यस्त भी होते हैं। शिकारियों को भाषा की अच्छी जानकारी होती है। जंगलों में निवास अथवा काम करने वाले यदि जंगल की भाषा न समझें तो उनके सामने प्राण संकट खड़ा रहेगा। अस्तु जिस प्रकार शहर, गांव में रहने वालों को उस क्षेत्र के निवासियों से सम्पर्क साधन के लिये स्थानीय भाषा की जानकारी प्राप्त करनी होती है, उसी प्रकार जिनका वन्य प्रदेशों और उनमें रहने वाले प्राणियों से वास्ता पड़ता है उन्हें जंगल की भाषा जानना भी आवश्यक होता है। ग्रीष्म ऋतु में ताजे पद-चिह्न भी तेज हवा द्वारा धूल से भरकर पुराने लगने लगते हैं और शरद ऋतु में नरम मिट्टी पर छायादार हिस्से में कुछ पुराने निशान भी ताजे जैसे दीखते हैं। अभ्यास से सही पहचान की क्षमता आती है।
बाघ और तेंदुए के पद-चिह्नों का कुत्तों के पद-चिह्नों से साम्य होता है। पर बाघ और तेंदुए के पैरों के चिह्न कुत्ते के पग-चिह्नों से चौगुने से भी ज्यादा बड़े होते हैं। कुत्ते के पद-चिह्नों में पंजों के आगे नाखून के चिह्न दीखते हैं, बाघ-तेंदुए के नाखून चलते समय सिमटकर पंजों की गद्दियों में छिप जाते हैं। अतः उनके निशान नहीं होते। बाघ-तेंदुए के पग-चिह्न गोल से होते हैं, सामने की ओर चार छोटी अंगुलियों के चिह्न तथा पीछे गद्दी का तिकोना-सा निशान होता है।
हाथी के पग-चिह्न चक्की के पाट से होते हैं। हाथी के पैर के नाखूनों का निशान जिस ओर दीखे, वही उनके जाने की दिशा होती है। घास के पौधे की गिरी हुई या झुकी स्थिति से भी हाथी के जाने-आने की दिशा ज्ञात हो जाती है। टूटी घास के हरे या सूखे होने से गुजरने के समय का अनुमान हो जाता है। युवा हाथी-हथनियों के तलवे साफ और पद-चिह्न भी साफ होते हैं किन्तु प्रौढ़ वृद्ध हाथियों के पद चिह्नों में उनके पैरों की विवाइयों का निशान स्पष्ट दीख जाता है।
भालू के पिछले पैरों का निशान मानव पग-चिह्नों की ही तरह, किन्तु कुछ कम लम्बा होता है। एड़ी और पंजों के बीच की दूरी भी कम होती है। अगले पैरों के निशान लगभग आयताकार होते हैं। भालू के पग-चिह्नों में नाखूनों के निशान भी दीखते हैं।
टूटी शाखाएं; टूटे या चर्वित घास, पेड़ों की छिली हुई-सी, नीचे गिरी छाल आदि से हाथियों के आने-जाने के बारे में बहुत कुछ पता चल जाता है।
नमकीन मिट्टी वाले स्थान में ‘चाटन’ के आस-पास छिपकर पशु देखे जा सकते हैं। पशुओं की लीद, मेंगनी इत्यादि से भी उनके बावत कई सूचनाएं मिल जाती हैं। इसी तरह भालू, चीते, बाघों द्वारा पेड़ों के तनों पर पैना करने के लिए नाखूनों की रगड़ के चिह्नों से भी कई बातें जानी जाती हैं।
जब हाथी किसी शाखा को तोड़ता है, तो ‘कड़ाक’ या ‘करड़ड़’ की लम्बी खिंचती-सी ध्वनि होती है। ऐसी ध्वनि की शीघ्र-शीघ्र एवं बार-बार आवृत्ति हो तो अनुमान होता है कि वहां हाथियों का पूरा समूह है। बन्दर जब डाल तोड़ते हैं, तो ध्वनि नीचे से नहीं, पेड़ की ऊंचाई से आती है और वह हल्की तथा छोटी होती है। कुल्हाड़ी से काटी जा रही लकड़ी से ‘खट-खट’ आवाज आती है और उसमें नियमितता होती है। कठफोडा जब लकड़ी में चोंच मारता है, तो सर्वथा भिन्न ‘खुट-खुट’ की ध्वनि होती है।
जैसे जंगल में एक डाल टूटने की ध्वनि होती है—सम्भव है, यह किसी हाथी ने तोड़ी हो या बन्दरों की उछल-कूद से टूटी हो या फिर लकड़हारे ने लकड़ी काटी हो। इसी तरह पेड़ों के हिलने के भी कई कारण सम्भव हैं—कपि-समूह की क्रीड़ाएं, चीतल-सांभर आदि का चलना या हाथियों की हलचल।
इन सबकी समुचित जानकारी द्वारा ही चल रही गति-विधियों को समझा जा सकता है और तदनुकूल प्रतिक्रिया व तत्परता सम्भव है।
पत्तों-पेड़ों के हिलने से आने वाली ध्वनियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। हिरण, चीतल जैसे खुर-धारी प्राणियों के चलने से अधिक आवाज निकलती है। कठोर खुरों से पत्ते भी जोर से दबते हैं और अगल-बगल की झाड़ियां, पत्तियां भी हिलती हैं। हाथी मंदगामी तो होता ही है। उसके तलुए भी नरम होते हैं। इसलिए भूमि पर रखे जाने पर उन पैरों से कोई विशेष ध्वनि नहीं होती, पर उसके शरीर की रगड़ से पेड़-पौधे हिलते खूब हैं।
सांप जब घास-फूंस या शुष्क पत्तों पर चलते हैं, तो सरसराहट होती है। गोह के चलने पर भिन्न तरह की ध्वनि होती है। खड़-खड़, खड़-खड़। क्योंकि उसके पांव छोटे-छोटे होते हैं और दुम जमीन पर घिसटती चलती है।
अन्य प्राणियों की भाषा समझने एवं शब्दों को पहचानने में कठिनाई भी हो सकती है, पर भावों की परख तो और सरल है। भाषा में ध्वनि और शब्दों की भिन्नता रहने से उन्हें समझने में कठिनाई हो सकती है, पर भावाभिव्यक्ति तो सार्वभौम है। संसार के किसी भी कोने में जाया जाय कष्ट के अवसर पर प्रायः सभी की विपन्न मुखाकृति होगी। सभी की आंखों में से आंसू टपकेंगे और विषाद की दर्द भरी छाया उभर रही होगी। प्रसन्नता के समय सर्वत्र हंसी, मुस्कराहट, आंखों में चमक दिखाई देगी। यही बात अन्य भावनाओं के सम्बन्ध में है। मुखाकृति से अन्तरंग में घुमड़ती हुई शोक, रोष, क्रोध, आवेश, भय, चिन्ता, निराशा, उत्साह, उल्लास, कामुकता आदि के भाव सहज ही उभरते देखे जा सकते हैं।
भावाभिव्यक्ति जो स्थिति मनुष्य की है वही अन्य प्राणियों के सम्बन्ध में भी पाई जाती है। उसमें थोड़ा बहुत ही अन्तर होता है। मनुष्य अधिक सम्वेदनशील है इसलिए भाषा की सूक्ष्मता की तरह उसे भावों की अभिव्यक्ति भी अच्छी तरह करनी आती है। अन्य प्राणी भाषा की तरह भावों के प्रकटीकरण में पीछे हो सकते हैं, पर ध्यान-पूर्वक उनके चेहरे को, आंखों तथा होठों को, अन्य अवयवों को देखा जाय तो उनके भीतर काम कर रही भावनाओं, प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं एवं सम्वेदनाओं को बहुत हद तक समझा जा सकता है। इस दिशा में यदि हम प्रयास करें तो मनुष्य परिवार से आगे बढ़कर प्राणि मात्र में अपनी आत्मीयता विकसित कर सकते हैं और आत्म-विस्तार का अधिक लाभ उपलब्ध कर सकते हैं।
यह मान्यता तभी तक सही है, जब तक कि मनुष्य अपने इस विशेष रूप से उपलब्ध उपहार का उपयोग मानवेत्तर जीवों की उपेक्षा उत्कृष्ट दिशा, आत्मशोध, आत्मकल्याण और लोक-मंगल के लिए करता है। विचार, चिन्तन, मनन और प्रतिपादन की विशेषता मनुष्य को छोड़ कर और अन्य किसी भी प्राणी को प्राप्त नहीं है। यह सारी योग्यतायें मनुष्य को ही मिली हैं, यदि वह उनका उपयोग अपने स्वार्थ तक ही सीमित न रखकर पुण्य परमार्थ में करता है, तब तो यह ईश्वरीय अनुदान भी सार्थक है यदि वह केवल लौकिक, भौतिक और इन्द्रिय सुखों की पूर्ति तथा विकास में ही इस योग्यता को खर्च करता है तो यही मानना पड़ेगा कि उसमें और अन्य क्षुद्र कहे जाने वाले जीव-जन्तुओं में कोई अन्तर नहीं है।
यह बात जीवशास्त्र में अब तक हुई उपलब्धि का अध्ययन करने से भी सिद्ध हो जाती है क्योंकि मनुष्येत्तर प्राणियों की भी अपनी भाषा है। वह मूक तो है पर मनुष्य को मिली बौद्धिक क्षमता से उनकी क्षमता कुछ कम नहीं है। वे अपनी इस भाषा का उपयोग करके भी मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक व्यवस्थित, अनुशासित और सुख-शांति पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं।
व्यवस्था बुद्धि, जीव-जन्तुओं की विलक्षण बुद्धिमत्ता
प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक रोमेन्स को एक बार बड़ा कौतूहल हुआ कि एक खोजी मधुमक्खी सैकड़ों मील दूर जाकर कोई पुष्पोद्यान अथवा जलाशय देखकर आती है उसकी सूचना वह अन्य मधुमक्खियों को कैसे देती है? उन्होंने शीशे के छल्ले बनाकर मधुमक्खी के छत्ते में फिट कर दिये फिर कुछ मधुमक्खियों को विशेष प्रकार के रंगों से रंग दिया तब कहीं उनकी विचार विनिमय प्रणाली का अध्ययन करना सम्भव हुआ।
एक मधुमक्खी उड़ी और किसी दिशा में चली गई। वहां उसे ऐसे फूलों के पौधे मिले जो फूले भी थे और जिनमें पराग भी प्रचुर मात्रा में था। उसने कुछ पराग-कण इकट्ठे किए और मुंह में दबाये छत्ते को लौट आई। अन्य मधुमक्खियां उसे ऐसे घेरकर खड़ी हो गईं जैसे वह सब समाचार पाने के लिए उतावली हों। अब वह मधुमक्खी नाचने लगी वह एक गोलार्द्ध में नाचती थी और रह-रहकर नाचने की दिशा बदल देती थी उससे अन्य मधुमक्खियों ने पता लगा लिया कि फूल और पराग यहां से किस दिशा में कितनी दूर पर हैं। नाच बन्द करके उसने अपनी मूंछ सभी साथियों की मूंछ से स्पर्श करा कर कुछ संकेत दिया और फिर वह स्वयं भी अपने काम में जुट गई। यह नहीं कि उसने लोगों को सूचना देना भर पर्याप्त समझा हो वह तो उसका थोड़ी देर का अपना सामुदायिक कर्त्तव्य था उसे पूरा करने के बाद भी वह अपना काम करती है जब कि मनुष्य है कि एक काम मिल गया फिर वह दूसरा काम छूना भी पसन्द नहीं करेगा। हमारी बहुमुखी प्रतिभा के द्वार इसीलिए बन्द रहते हैं कि हम अपनी क्षमताओं को क्रियान्वित करने में भी लज्जा अनुभव करते हैं।
श्री जगतपति चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक ‘‘जीव-जन्तुओं की बुद्धि’’ में इन संकेतों को स्पष्ट करते हुए बताया है कि यदि मधुमक्खी धीमे वेग से नाचती है तो उसका अर्थ यह होता है कि पराग की मात्रा जिसकी उसने खोज की है थोड़ी है। इसलिए वहां से थोड़ी मधुमक्खियां जाती हैं पर यदि नाच का वेग तेज है तो वह पराग की मात्रा अधिक होने का सूचक माना जाता है और मधुमक्खियां अधिक आ जाती हैं। यदि फूल 100 गज की दूरी पर हैं तो वह गोलार्द्ध में नाचती है, यदि उनकी दूरी 2-3 मील है तो वह अंगरेजी के आठ बनते हैं उस शक्ल में नाचते हुए चक्कर काटती हैं। यह भी है कि वह एक मिनट में जितने बार चक्कर काटती है दूरी का अनुमान उसी से होता है। उदाहरण के लिए यदि वह एक मिनट में 22 बार नाचती है तो फूल 300 गज दूर होंगे। यदि दूरी 3000 गज है तो चक्करों की संख्या 11 ही होगी। इसी प्रकार वह दिशा भी नाचते हुए दायें-बायें दिशा काटकर व्यक्त करती है। आश्चर्य तो इस बात का है कि यह प्रशिक्षण उन्हें किन्हीं माता-पिता से न मिला होकर जन्मजात अन्तःप्रेरणा के रूप में मिलता है और यह बताता है कि अभिव्यक्ति चेतना का नैसर्गिक गुण है। इस गुण का उपयोग वे न केवल आहार जुटाने में वरन् छत्ते में अनुशासन शत्रुओं से रक्षा एवं पारिवारिक व्यवस्थायें जुटाने में करते और बताते हैं कि मनुष्य भी यदि अपनी भाषा, साहित्य, कला का उपयोग तुच्छ भौतिक हितों में ही करता है तो वह हमसे पिछड़ा है क्योंकि हम उसकी अपेक्षा कहीं अधिक व्यवस्थित और शान्ति में है।
प्रसिद्ध जीव शास्त्री प्रो. हीथ ने दीमक के जीवन का गहन अध्ययन किया है उन्होंने ‘‘जीव जन्तुओं की दुनिया’’ पुस्तक में उनके बीच प्रयुक्त होने वाली सांकेतिक भाषा के बड़े गूढ़ रहस्यों का भी पता लगाया, उन्होंने लिखा है कि दीमक जिस किले (बाम्बी) में रहती है उसमें कई प्रकार के कमरे होते हैं। राजा रानी एक विशेष भवन में रहते हैं शेष सब छोटे-छोटे कमरों में। कोई दीमक भूखी होती है तो वह मजदूर दीमक के सींग को स्पर्श करती है। यही उनका भोजन मांगना है। यदि भोजन मांगने वाला बच्चा है और वह भविष्य में उस किले का राजा बनने वाला हुआ तो उसकी भोजन मांगने की प्रक्रिया कुछ भिन्न रौबदार होगी। मजदूर दीमक अविलम्ब अपने मुंह से कोई तरल पदार्थ निकाल देती है जो उस उत्तराधिकारी राजकुमार के आहार के काम आता है। यदि मांगने वाला कोई मजदूर हुआ तो मजदूर दीमक अपने पिछले हिस्से से आंतों से खाना निकाल कर उसे देगा। यों दीमक की सार्वजनिक जीवन व्यवस्था बड़ी ही सुचारु होती है तथापि वह एक कीड़ा है और उसकी सारी चेष्टायें खाने-पीने और परिवार के भरण-पोषण, रक्षण तक ही सीमित हैं मनुष्यों को मिली इन कलाओं का उपयोग भी यदि इन्हें बातों तक सीमित रहे तो उसे भी दीमक की तरह का ही एक कीड़ा समझना चाहिए।
चींटी अपने विचार प्रगट करने और एक दूसरे को संवाद पहुंचाने में चाहे कितनी मूक भाषा का प्रयोग करती हो उसकी सूक्ष्मता और बुद्धिमत्ता का अनुमान मेजर हैगस्टन के इस प्रयोग से ही लगाया जा सकता है। मेजर हैगस्टन ने एक बार चींटी के बिल के पास खाने का एक छोटा सा टुकड़ा रख दिया जो उनके अनुमान से एक चींटी नहीं उठा सकती थी। चींटी आई उसने उसे देखा और तुरन्त बिल में पहुंची और अपने साथ 10 मजदूर चींटियां ले आई ग्यारहों ने उसे उठाया और घर ले गईं इस बीच उन्होंने गुड़ के ढेले को पतली पेन्सिल जैसा बनाकर उसके तीन टुकड़े किये। पहला टुकड़ा आधा इंच का था, दूसरा पौन इंच और तीसरा टुकड़ा डेढ़ इंच का था। एक चींटी आई उसे तीनों टुकड़ों को देखा, इस बीच और भी कई चींटियां आईं और उन टुकड़ों को भिन्न-भिन्न दिशाओं और दूरियों में पड़ा देख गईं।
थोड़ी देर पीछे चींटियों का समूह निकला जिसमें 161 चींटियां थीं। बिल से निकलते ही उनमें से 29 चींटियां पूर्व की ओर चली गईं, जहां सबसे छोटा टुकड़ा पड़ा था, शेष में से 44 दक्षिण की ओर जिधर दूसरा टुकड़ा पड़ा था, 89 चींटियां उधर गईं जिधर सबसे बड़ा टुकड़ा था। तीनों दल बात की बात में तीनों टुकड़े उठा ले गए और मेजर साहब सोचते रह गये। यदि इन चींटियों में अनुभव करने, सोचने और अपने मन की बात को सांकेतिक रूप से दूसरी चींटियों को समझा देने की योग्यता न होती तो इतना व्यवस्थित कार्य वे कैसे कर लेतीं। मनुष्य तो उससे भी सरल और स्पष्ट बुद्धि का स्वामी होकर भी उतनी व्यवस्था से नहीं रह पाता। परलोक की बात तो दूर अपनी बुद्धि का सही उपयोग न करके वह अपनी शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक अथवा राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में अव्यवस्थायें ही फैलाता और अशांति ही बढ़ाता है। यदि अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग मनुष्य ने मूक पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं की तरह केवल लौकिक हितों के लिये भी व्यवस्थित ढंग से किया होता तो सार्वजनिक क्षेत्र आज इतना दूषित और उलझा हुआ न होता। मनुष्य-जीवन आज दुःख, कष्ट, पीड़ा और कलह-क्लेश का अखाड़ा बना हुआ है वह इस बौद्धिक सामर्थ्य के दुरुपयोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। गीध अशुभ पक्षी माना जाता है पर अपनी भावनायें, अपने विचार तो वह भी व्यक्त कर लेता है। एक गीध जब कोई मरा हुआ पशु देखता है तो किसी ऊंचे वृक्ष की छत पर बैठकर एक विशेष प्रकार से ‘‘चैंव चैंव’’ की आवाज करके गर्दन घुमाकर संकेत करता है। इस संकेत में मरे पशु की किस्म, स्थान और कितने गीधों के लिये भोजन उपलब्ध है वह सारी बातें कह देता है। इस आवाज को जो भी दूसरा गीध सुनता है चलने की तैयारी करने से पूर्व उसी तरह का संकेत अपने पीछे वाले गीधों के लिये कर देता है। अपनी जाति के प्रति आत्मीयता का यह भाव मनुष्य में भी आ गया होता तो आज लोग जाति-पांति, ऊंच-नीच, वर्ग-भेद को लेकर झगड़ते नहीं। गीध एक-एक कर इकट्ठा होने लगते हैं जितने आवश्यक थे उतने गीध आ जाने पर सब प्रथम संकेत देने वाले को संकेत देकर आगे चलने को कहते हैं क्योंकि उसे उस समय उस पशु के मांस का सबसे नरम भाग खाने का अधिकार होता है।
हम यह सोचते हैं कि अन्य जीव-जन्तु हमारी तरह बोल नहीं सकते तो उनमें विचार करने की क्षमता का अभाव होगा। बुद्धि उनमें भी होती है। बात-चीत वे भी कर लेते हैं। ‘‘खग जानै खग ही की भाषा—ताते उमा गुप्त कर राखा’’ वाली बात है।
ये जीव-जन्तु हमें गूंगे, बहरे दिखाई पड़ते हैं पर वस्तुतः वैसा है नहीं। वे आपस में घुल-घुल कर बातें करते हैं, एक दूसरे के साथ विचार-विनिमय करते हैं और पारस्परिक सहयोग जुटाने में उस संभाषण का प्रयोग करते हैं। यह अलग बात है कि उनके सम्भाषण उपकरण मनुष्यों से भिन्न हैं और उनका शब्द कोष हमारे उच्चारण विधान से मेल नहीं खाता।
मिशिगन विश्वविद्यालय के कीट विज्ञानी डा. ब्राडांक के अनुसार कीड़े-मकोड़े भी परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं; यदि उनमें यह क्षमता न रही होती तो उनका जीवित रहना ही असम्भव हो जाता, पक्षी निरर्थक चह-चहाते मालूम पड़ते हैं पर वस्तुतः वे अपनी प्रसन्नता, व्यथा, योजना, जानकारी आदि की सूचनायें अपने साथियों को देते हैं। ध्वनि के साथ-साथ उनकी मनःस्थिति घुली होती है जिसकी जानकारी उस वर्ग के अन्य पक्षी प्राप्त करते हैं और उससे लाभ उठाते हैं। खतरा किसी एक को मालूम पड़ जाय तो वह अपनी भाषा में अपने साथियों को सूचित कर देता है, फिर सब मिलकर उसी का उच्चारण करते हैं ताकि न केवल साथियों को आगाही हो जाय वरन् शिकारी शिशु को उनकी सतर्कता एवं आक्रामक सम्भावना के कारण आक्रमण करने का इरादा ही बदलना पड़े।
छोटे कीड़ों की भाषा नहीं होती वे अंग स्पर्श से विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। यह स्पर्श ऐसे ही निरर्थक नहीं होता वरन् उसकी एक व्यवस्थित संकेत श्रृंखला होती है; जिससे उस वर्ग के कीड़े भली प्रकार परिचित होते हैं। एक दूसरे के किस अंग को किस पकड़ के साथ छुए और क्या हलचल करे इस प्रक्रिया से वे साथियों को अपने मन की बात बता देते हैं। ध्वनि, स्पर्श, दृष्टि और हलचल के माध्यम से छोटे जीवों का आदान-प्रदान चलता है। हम अपने स्तर पर उन्हें मूक कह सकते हैं पर वस्तुतः बोलते वे भी हैं। उनका उच्चारण इतना मन्द होता है कि हमारे कान उन्हें सुन-समझ नहीं सकते, फिर भी वे जिह्वा से न सही शरीर के विभिन्न अंगों की हलचलों या रगड़ से ऐसी क्रमबद्ध ध्वनि उत्पन्न करते हैं जिसे उनकी भाषा कहा जा सकता है।
बरसात में मेंढ़कों की टर्र-टर्र अकारण नहीं होती इसमें वे अपनी मानसिक स्थिति का परिचय देते हैं। टिड्डे अपने पंखों को पिछले पैरों से रगड़कर ध्वनि उत्पन्न करते हैं, झींगुर की टांगें मनुष्य द्वारा बजाये जाने वाले किसी वाद्य यन्त्र की तुलना का ध्वनि प्रवाह निसृत करती हैं। जर्मन कीट विज्ञानी फेयर ने टिड्डों की भाषा खोजने के लिए योरोप भर के जंगलों की खाक छानी है। उसने टिड्डों के लगभग 400 ध्वनि संकेत और चौदह स्तर के प्रणय निवेदन टेप किये हैं। इन ध्वनियों को टेप पर सुनकर भी अन्य कीड़े उस जानकारी के अनुरूप ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। योरोप के ग्राइलस, कम्पेस्टस, ग्रावाइमैकुलेटस आदि झींगुर जातियां अपने अन्य साथियों की तुलना में अधिक मुखर होती है। मादा और नर के स्वरों में अन्तर होता है इससे वे लिंग भेद को आसानी से पहचान लेते हैं और तदनुरूप शिष्टाचार बरतते हैं।
मधुमक्खी विशेषज्ञ माटिन लिण्डेयर ने मधुमक्खियों के आदान-प्रदान के माध्यम को नृत्य माना है। वे अनेक तरह की कला-बाजियों के नृत्य करती हैं और संग्रहीत सूचनाओं की जानकारी छत्ते के अन्य साथियों को देती हैं। इसी आधार पर उनकी झुण्ड मकरन्द प्राप्त करने के लिए उपयुक्त दिशा की जानकारी पाता है और कूच करता है। कुछ मक्खियां इस खोज-कला में और सूचना-संवाद देने की कुशलता में बहुत प्रवीण होती हैं, वे प्रायः इसी कार्य को रुचि पूर्वक करती रहती हैं।
प्रो. राबर्ट हिण्डे के अनुसार पक्षी ही नहीं कीड़े भी आंखों के इशारे से अपने बहुत से मनोभाव साथियों को बता देते हैं। यों आंखों की हलचल और चितवन में भी थोड़ा बहुत अन्तर पड़ता है पर पुतलियों की सम्वेदनशीलता में वैसा बहुत कुछ रहता है जिससे एक दूसरे की भावनाओं का आदान-प्रदान हो सके। इस दृष्टि से छोटे प्राणी मनुष्य से पीछे नहीं हैं। यों मनुष्य भी आंखों और पुतलियों के सहारे अपनी गुह्य मनःस्थिति को जाने-अनजाने साथियों पर प्रकट करते रहते हैं।
कार्लवाल फ्रिच ने मधुमक्खी नृत्य की अनेक मुद्राओं के फिल्म लिये हैं और बताया है कि उनकी क्या हलचल, कितनी दूर, किस दिशा में, किस स्तर की, क्या स्थिति है इसकी सूचना ठीक प्रकार देती हैं। मधुमक्खियों की इस संकेत भाषा के आधार पर उनने परीक्षा की तो उनका प्रतिपादन शत प्रतिशत सही निकला।
जुगनू की तरह और भी कई कीड़े अपने शरीर से प्रकाश निकालते हैं। कैल कीड कीड़ा तो रेलवे सिगनलों की तरह लाल, हरी रोशनी जलाता-बुझाता रहता है। यह प्रकाश सदा एक जैसा नहीं चमकता उसके जलने-बुझने, मन्द एवं तीव्र होने में जो बारीक अन्तर रहते हैं उससे वे अपनी जाति वालों से आपसी वार्तालाप करते रहते हैं। कितने ही जीवों का काम उनकी घ्राण शक्ति से ही चलता है। जीवनोपयोगी कितनी ही जानकारियां वे वस्तुओं एवं जीवों के शरीरों से निकलने वाली गन्ध के आधार पर प्राप्त करते हैं। इतनी ही नहीं उनकी विभिन्न शारीरिक, मानसिक परिस्थितियों से विभिन्न प्रकार की गन्धें निकलती हैं, उस वर्ग के प्राणी इन्हें सूंघकर एक दूसरे की स्थिति का परिचय प्राप्त करते रहते हैं। रति प्रयोजन के लिए उनके शरीरों से विशेष रूप से तीव्र गन्ध निकलती है, यही वह सूत्र है जो उनकी वंश रक्षा की व्यवस्था जुटाये रहता है। बहुत छोटे अदृश्य कीड़े तो इस गन्ध के आदान-प्रदान से ही गर्भ धारण कर लेते हैं। ई.ए. विल्सन के अनुसार चींटियां अपने शरीर से एक रस निकालती और टपकाती चलती हैं ताकि अन्य चींटियां उनके आह्वान पर विशेष प्रयोजन के लिए उसी रास्ते को सूंघती हुई बढ़ती चली आवें। चींटियों का पंक्तिबद्ध चलना इसी गन्ध के आधार पर होता है।
गंध के इस स्रवण और उसके माध्यम से पूर्ववाली चींटियों द्वारा छोड़े गये संकेत चिह्नों को चींटियों का संवाद या संदेश प्रेषण और ग्रहण ही कहा जाना चाहिए। यह तो सांकेतिक भाषा हुई। जीव-जन्तुओं के स्थिर संवाद की एक अलग ही प्रणाली है। उनकी अपनी भाषा है इसमें कोई संदेह नहीं है।
संवाद उनमें भी होता है—
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कीट-पतंग गंध छोड़ते और सूंघते हैं। उनकी वाणी की अपेक्षा घ्राणशक्ति अधिक विकसित होती है। फलतः एक दूसरे के शरीरों से विभिन्न प्रकार की जो गंध समय-समय पर निकलती रहती है, उनके सहारे वे यह जान लेते हैं कि दूसरे सजातीय किस स्थिति में हैं और वे किस प्रकार के सहयोग की अपेक्षा करते अथवा जानकारी देते हैं।
जीवों की भाषा—विलक्षणता
जिन्हें वाणी प्राप्त है वे अपने थोड़े से शब्दों के सहारे ही काम चला लेते हैं। अपने हर्षोल्लास अथवा दुःख-दर्द की अभिव्यक्ति वे उतने से उच्चारण में ही कर लेते हैं। इससे उनका जी हलका होता है, उत्साह मिलता है तथा दूसरे साथियों को अपनी ही तरह उत्तेजित करके सम्वेदना उभारना सम्भव होता है। इससे उनका स्नेह, सौजन्य एवं सहयोग निखरता है। चिड़ियां जब चहचहाती हैं उससे उनके शरीर का अंग संचालन भी होता है। इस उच्चारण और संचालन को देखकर उनके सजातीय यह पता लगा लेते हैं कि उसका अभिप्राय क्या है? और उस जानकारी को प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें क्या करना चाहिए?
यही बात पशुओं के सम्बन्ध में है। उनके शब्द और भी स्पष्ट होते हैं। झींगुर, मच्छर, मक्खियां जैसे कीट-पतंग भी शब्दोच्चारण करते हैं। मेंढक जैसे छोटे जीव भी कर्णकटु शब्द बोलते हैं। हलकी आवाज जो प्रायः सभी जीवों की होती है। जिह्वा अथवा दूसरे अवयवों के सहारे वे ध्वनि करते और अपनी मनःस्थिति का अन्यों को परिचय देते हैं। हम मनुष्य यदि अन्य प्राणियों की भाषा समझने का प्रयत्न करें, उनकी अभिव्यक्तियों और आवश्यकताओं को अनुभव करें तो निस्संदेह अपने परिवार का अबकी अपेक्षा असंख्य गुना विस्तार हो सकता है और उसी अनुपात से आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ सकता है। अभी तो 400 करोड़ मनुष्यों के ही एक मानव समाज से हमारा परिचय है, उनमें भी भाषा की एकता से ही घनिष्ठता एवं सहयोग का द्वार खुलता है। भाषा की दृष्टि से जिनके बीच आदान-प्रदान का माध्यम अभी नहीं बना है वे मनुष्य समाज के सदस्य होते हुए भी एक दूसरे से अपरिचित जैसी स्थिति में पड़े रहते हैं।
मानवी भाषाओं के बीच एकता के क्षेत्र बढ़ाने के प्रयत्न चल रहे हैं। यदि प्राणियों की भाषा को समझने का क्षेत्र बढ़ सके तो जीवधारियों की दुनिया अब की अपेक्षा बहुत बड़ी हो सकती है। विकसित प्राणी अविकसितों को ऊंचा उठने का सहारा दे सकते हैं और अविकसितों के सहयोग का बहुत बड़ा लाभ मनुष्य जैसे विकासवानों को मिल सकता है। प्रयत्न करने पर और ध्यान देने पर हम जीवधारियों की भाषा समझने में बहुत कुछ प्रगति कर सकते हैं।
बछड़े के रंभाने से पता चलता है कि उसकी जननी गाय उससे दूर चली गई है। चिड़ियों के नन्हें बच्चे भी मां के दूर जाते ही चीं-चीं कर उठते हैं। पास आने पर पंख फड़-फड़ाकर प्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं। कुत्ते का पिल्ला मां की उपस्थिति में हर्ष-सूचक ध्वनि भिन्न रीति से करता है और दूर जाने पर रोने की आवाज भिन्न रूप से। दोनों स्थितियों में उसका स्वर एवं भंगिमा भिन्न-भिन्न होती है।
इससे स्पष्ट है कि भाव-सम्प्रेषण के लिए पशु-पक्षी भी विशिष्ट ध्वनि-क्रमों का निश्चित विधि से उच्चारण व प्रयोग करते हैं। यानी उनकी अपनी एक भाषा है। वे अपने वर्ग के जीव की भाषा ही समझते हैं। कुत्ता-कुत्ते की, गाय अपने बछड़ों, बैल व अन्य गायों की, चिड़ियां-चिड़ियों की भाषा अच्छी तरह समझने में समर्थ हैं।
बाघ की दहाड़ स्वर ‘औं..... घ्... ह’ अथवा ‘ऊं..... घ्...... ह’ जैसा होता है। गुर्राहट ‘गर्र र्र र्र’ जैसी होती है। ऋतुमती शेरनी शेर को बार-बार पुकारती है। शेर उसे सुनकर वहीं से प्रत्युत्तर देता है और दोनों एक दूसरे के समीप पहुंचते हैं। प्रणयकेलि के समय दोनों बहुत ही तेज आवाज करते हैं, मानो प्रचण्ड युद्ध हो रहा हो।
बाघ, चीते, या तेंदुए बड़ी सतर्क चाल चलते हैं। उनकी पहचान का सर्वोत्तम माध्यम काकड़, चीतल, सांभर और हिरन की उच्च ध्वनियां ही हैं। काकड़ की आवाज ‘बोक्’ जैसी होती है, नर-चीतल भारी, दीर्घ-सी ध्वनि से सतर्क करता है, सांभर तीव्र शंख ध्वनि की तरह ‘पैंड्ड’ की आवाज करता है और श्रोता को सहसा चौंका देता है। बाघ, चीता, बघेरा या तेंदुआ की उपस्थिति का सर्वाधिक प्रामाणिक अनुमान इन्हीं आवाजों से होता है। साथ ही उत्तेजित बन्दरों की ‘खों-खों’ या लंगूर की ‘खुर्र-खुर्र’ भी इन हिंसक प्राणियों की उपस्थिति का संकेत है।
यह हुई वन की ‘भाषा’। वन की ‘लिपि’ को भी समझना आवश्यक है। नरम या आर्द्र मिट्टी पर पशुओं के पद-चिह्न ही यह लिपि है। उनसे वहां से गुजरने वाले पशु का वर्ग, आकार, गुजरने का समय तथा दिशा का सूचक होता है। वनवासी इन चिह्नों को पहचानने में प्रवीण होते हैं। पटु शिकारी भी इसमें दक्ष होते हैं। जरा-सी दबी घास या टूटी हुई डालें, सूखी कड़ी भूमि में भी पशु के जाने-आने की दिशा का पता चल जाता है।
वन में पशु-पक्षियों की बोलियों के भी अभिप्राय को समझना आवश्यक है। एक दूसरे को अपनी उपस्थिति की सूचना देने के लिए अथवा मौज की लहर में हाथी जोरदार स्वर में चिंघाड़ते हैं इं......घा र। जब कि भय या उत्तेजना की स्थिति में वे फटी-सी और तीखी ध्वनि करते हैं—‘‘पैं ऐं ऐं’’। कभी-कभी हाथी ‘गुर्र र्र र्र’ ध्वनि से गुर्राते हैं, जो क्रोध का परिचायक है। मानो कोई मोटर-इंजन चालू किया गया हो।
हाथी कभी-कभी फुफकारते हैं तेजी से। एक-दो फर्लांग दूर भी फुफकारने पर लगता है मानो 15-20 फुट दूर से ही ध्वनि आ रही हो।
शहर और नगरों की होने वाली हलचलों का आभास हवा में गूंजने वाले शोर-शराबे से लग जाता है। कार, स्कूटर, ट्रक आदि के सड़क पर से गुजरने से उनकी आवाजों में रहने वाले अन्तर से यह पता चलता है कि कौन वह गुजरा। तांगा, इक्का, धकेल, बैलगाड़ी, ऊंट-गाड़ी के आवागमन की बात बिना उन्हें देखे ही मात्र ध्वनि के सहारे जानी जा सकती है। अगल-बगल में बच्चों की उछल-कूद और बड़ों की भगदड़ में जो अन्तर होता है उसे कमरे में बैठकर भी बिना देखे जाना जा सकता है। हवा की तेजी वर्षा की गति आदि की हलचल कान से सुनकर आंखें मीचे-मीचे भी जानी जा सकती है। हवा में गूंजने वाली ध्वनियों के सहारे हम सहज ही समीपवर्ती वातावरण का अनुमान लगा सकते हैं।
जंगल का भी अपनी भाषा है। वन्य पशु-पक्षियों की उपस्थिति तथा हरकतों का अनुमान उनके संसर्ग से उत्पन्न होने वाली आवाजों के आधार पर सहज ही जाना जा सकता है। वन क्षेत्र के निवासी उनके अभ्यस्त भी होते हैं। शिकारियों को भाषा की अच्छी जानकारी होती है। जंगलों में निवास अथवा काम करने वाले यदि जंगल की भाषा न समझें तो उनके सामने प्राण संकट खड़ा रहेगा। अस्तु जिस प्रकार शहर, गांव में रहने वालों को उस क्षेत्र के निवासियों से सम्पर्क साधन के लिये स्थानीय भाषा की जानकारी प्राप्त करनी होती है, उसी प्रकार जिनका वन्य प्रदेशों और उनमें रहने वाले प्राणियों से वास्ता पड़ता है उन्हें जंगल की भाषा जानना भी आवश्यक होता है। ग्रीष्म ऋतु में ताजे पद-चिह्न भी तेज हवा द्वारा धूल से भरकर पुराने लगने लगते हैं और शरद ऋतु में नरम मिट्टी पर छायादार हिस्से में कुछ पुराने निशान भी ताजे जैसे दीखते हैं। अभ्यास से सही पहचान की क्षमता आती है।
बाघ और तेंदुए के पद-चिह्नों का कुत्तों के पद-चिह्नों से साम्य होता है। पर बाघ और तेंदुए के पैरों के चिह्न कुत्ते के पग-चिह्नों से चौगुने से भी ज्यादा बड़े होते हैं। कुत्ते के पद-चिह्नों में पंजों के आगे नाखून के चिह्न दीखते हैं, बाघ-तेंदुए के नाखून चलते समय सिमटकर पंजों की गद्दियों में छिप जाते हैं। अतः उनके निशान नहीं होते। बाघ-तेंदुए के पग-चिह्न गोल से होते हैं, सामने की ओर चार छोटी अंगुलियों के चिह्न तथा पीछे गद्दी का तिकोना-सा निशान होता है।
हाथी के पग-चिह्न चक्की के पाट से होते हैं। हाथी के पैर के नाखूनों का निशान जिस ओर दीखे, वही उनके जाने की दिशा होती है। घास के पौधे की गिरी हुई या झुकी स्थिति से भी हाथी के जाने-आने की दिशा ज्ञात हो जाती है। टूटी घास के हरे या सूखे होने से गुजरने के समय का अनुमान हो जाता है। युवा हाथी-हथनियों के तलवे साफ और पद-चिह्न भी साफ होते हैं किन्तु प्रौढ़ वृद्ध हाथियों के पद चिह्नों में उनके पैरों की विवाइयों का निशान स्पष्ट दीख जाता है।
भालू के पिछले पैरों का निशान मानव पग-चिह्नों की ही तरह, किन्तु कुछ कम लम्बा होता है। एड़ी और पंजों के बीच की दूरी भी कम होती है। अगले पैरों के निशान लगभग आयताकार होते हैं। भालू के पग-चिह्नों में नाखूनों के निशान भी दीखते हैं।
टूटी शाखाएं; टूटे या चर्वित घास, पेड़ों की छिली हुई-सी, नीचे गिरी छाल आदि से हाथियों के आने-जाने के बारे में बहुत कुछ पता चल जाता है।
नमकीन मिट्टी वाले स्थान में ‘चाटन’ के आस-पास छिपकर पशु देखे जा सकते हैं। पशुओं की लीद, मेंगनी इत्यादि से भी उनके बावत कई सूचनाएं मिल जाती हैं। इसी तरह भालू, चीते, बाघों द्वारा पेड़ों के तनों पर पैना करने के लिए नाखूनों की रगड़ के चिह्नों से भी कई बातें जानी जाती हैं।
जब हाथी किसी शाखा को तोड़ता है, तो ‘कड़ाक’ या ‘करड़ड़’ की लम्बी खिंचती-सी ध्वनि होती है। ऐसी ध्वनि की शीघ्र-शीघ्र एवं बार-बार आवृत्ति हो तो अनुमान होता है कि वहां हाथियों का पूरा समूह है। बन्दर जब डाल तोड़ते हैं, तो ध्वनि नीचे से नहीं, पेड़ की ऊंचाई से आती है और वह हल्की तथा छोटी होती है। कुल्हाड़ी से काटी जा रही लकड़ी से ‘खट-खट’ आवाज आती है और उसमें नियमितता होती है। कठफोडा जब लकड़ी में चोंच मारता है, तो सर्वथा भिन्न ‘खुट-खुट’ की ध्वनि होती है।
जैसे जंगल में एक डाल टूटने की ध्वनि होती है—सम्भव है, यह किसी हाथी ने तोड़ी हो या बन्दरों की उछल-कूद से टूटी हो या फिर लकड़हारे ने लकड़ी काटी हो। इसी तरह पेड़ों के हिलने के भी कई कारण सम्भव हैं—कपि-समूह की क्रीड़ाएं, चीतल-सांभर आदि का चलना या हाथियों की हलचल।
इन सबकी समुचित जानकारी द्वारा ही चल रही गति-विधियों को समझा जा सकता है और तदनुकूल प्रतिक्रिया व तत्परता सम्भव है।
पत्तों-पेड़ों के हिलने से आने वाली ध्वनियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। हिरण, चीतल जैसे खुर-धारी प्राणियों के चलने से अधिक आवाज निकलती है। कठोर खुरों से पत्ते भी जोर से दबते हैं और अगल-बगल की झाड़ियां, पत्तियां भी हिलती हैं। हाथी मंदगामी तो होता ही है। उसके तलुए भी नरम होते हैं। इसलिए भूमि पर रखे जाने पर उन पैरों से कोई विशेष ध्वनि नहीं होती, पर उसके शरीर की रगड़ से पेड़-पौधे हिलते खूब हैं।
सांप जब घास-फूंस या शुष्क पत्तों पर चलते हैं, तो सरसराहट होती है। गोह के चलने पर भिन्न तरह की ध्वनि होती है। खड़-खड़, खड़-खड़। क्योंकि उसके पांव छोटे-छोटे होते हैं और दुम जमीन पर घिसटती चलती है।
अन्य प्राणियों की भाषा समझने एवं शब्दों को पहचानने में कठिनाई भी हो सकती है, पर भावों की परख तो और सरल है। भाषा में ध्वनि और शब्दों की भिन्नता रहने से उन्हें समझने में कठिनाई हो सकती है, पर भावाभिव्यक्ति तो सार्वभौम है। संसार के किसी भी कोने में जाया जाय कष्ट के अवसर पर प्रायः सभी की विपन्न मुखाकृति होगी। सभी की आंखों में से आंसू टपकेंगे और विषाद की दर्द भरी छाया उभर रही होगी। प्रसन्नता के समय सर्वत्र हंसी, मुस्कराहट, आंखों में चमक दिखाई देगी। यही बात अन्य भावनाओं के सम्बन्ध में है। मुखाकृति से अन्तरंग में घुमड़ती हुई शोक, रोष, क्रोध, आवेश, भय, चिन्ता, निराशा, उत्साह, उल्लास, कामुकता आदि के भाव सहज ही उभरते देखे जा सकते हैं।
भावाभिव्यक्ति जो स्थिति मनुष्य की है वही अन्य प्राणियों के सम्बन्ध में भी पाई जाती है। उसमें थोड़ा बहुत ही अन्तर होता है। मनुष्य अधिक सम्वेदनशील है इसलिए भाषा की सूक्ष्मता की तरह उसे भावों की अभिव्यक्ति भी अच्छी तरह करनी आती है। अन्य प्राणी भाषा की तरह भावों के प्रकटीकरण में पीछे हो सकते हैं, पर ध्यान-पूर्वक उनके चेहरे को, आंखों तथा होठों को, अन्य अवयवों को देखा जाय तो उनके भीतर काम कर रही भावनाओं, प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं एवं सम्वेदनाओं को बहुत हद तक समझा जा सकता है। इस दिशा में यदि हम प्रयास करें तो मनुष्य परिवार से आगे बढ़कर प्राणि मात्र में अपनी आत्मीयता विकसित कर सकते हैं और आत्म-विस्तार का अधिक लाभ उपलब्ध कर सकते हैं।