Books - जीव जन्तु बोलते भी हैं, सोचते भी हैं
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
बुद्धिमान होने के कारण मनुष्य सबसे बड़ा नहीं है!
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनुष्य को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना कहा गया है। परमात्मा ने उसमें वे सभी विशेषताएं और क्षमताएं समाहित कर दी हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि ईश्वर ने अपने इस प्रिय पुत्र पर अपना विशेष प्यार दुलार लुटाया। स्थूल दृष्टि से देखने पर यही दिखाई देता है कि मनुष्य को सर्वसमर्थ शरीर तन्त्र के अलावा बौद्धिक सामर्थ्य का विशेष अनुदान मिला है। लेकिन मनुष्य को प्राप्त हुई शारीरिक सामर्थ्य से अन्य प्राणियों की तुलना की जाय तो कितने ही प्राणी उससे अधिक बलवान और शक्तिशाली सिद्ध होंगे। बौद्धिक सामर्थ्य और सूझबूझ की तुलना में चींटी, कौआ, खरगोश, कुत्ता, बिल्ली आदि कितने ही प्राणी मनुष्य से इक्कीस सिद्ध होंगे।
कहा जाय कि इन सब प्राणियों में सीखने की क्षमता नहीं होती। यह सोचना भी गलत है क्योंकि शरीर रचना में उससे समानता रखने वाले प्राणी उससे अधिक अच्छी तरह सीख समझ सकते हैं। मनुष्य की शरीर संरचना और बौद्धिक सामर्थ्य से निकटतम अनुरूपता रखने वाला प्राणी खोजा जाय तो वह लंगूर ही होगा। लंगूरों की प्रायः तीन श्रेणियां बतायी जाती हैं एक—ओरगुटान, दूसरी गोरिल्ला और तीसरी श्रेणी में चिंपैंजी आते हैं।
इनमें से भी ओरगुटान श्रेणी के लंगूर कम होते जा रहे हैं। अब ये केवल इण्डोनेशिया के जंगलों में ही मिलते हैं और बन्दरों की तरह वृक्षों पर एक टहनी से दूसरी टहनी पर कूदते हैं। इनकी भुजाएं अन्य लंगूरों की तुलना में अधिक सशक्त होती है तथा इनके पांव अन्य लंगूरों की अपेक्षा छोटे और कमजोर। ओरगुण्टान को पकड़कर यदि किसी पिंजड़े में बन्द कर दिया जाय तो चुपचाप उदास मुद्रा में बैठ जाते हैं। जैसे ये अपनी बंधक स्थिति से क्षुब्ध हों और उसकी पीड़ा छटपटाहट अनुभव करते हों। ओरगुंटान से कुछ अधिक विकसित लंगूर हैं गोरिल्ला। ये प्रचुर संख्या में पाये जाते हैं। सीधे खड़े होने पर 5 फीट के दिखाई देते हैं। अफ्रीका में पाये जाने वो गुरिल्लों में से कुछ का वजन तो दो क्विंटल तक है। लेकिन ये कभी-कभी ही सीधे खड़े होते हैं।
मनुष्य के सर्वाधिक समीप लंगूर है चिंपैंजी। चिंपैंजी और मनुष्य के रक्त में इतनी समानता पाई जाती है कि यह आदमी का रक्त है अथवा चिंपैंजी का। यही नहीं चिंपैंजिओं को भी मनुष्य में होने वाले रोगों यथा—यस्पिण्ड पोलियो जैसी बीमारियों का शिकार होता देखा गया है।
चिंपैंजी को एक भाषा ही नहीं मिली है अन्यथा कई मामलों में यह मनुष्य की न केवल बराबरी करता है, वरन् उसे पीछे भी छोड़ देता है। चिंपैंजी जंगल में अपने आस-पास के वायुमण्डल के सम्बन्ध में बहुत अधिक सतर्क रहते हैं। जंगल में जब ये एक दूसरे को पुकारने के लिए किलकारी करते हैं तो मनुष्य के लिए उसकी आवाज कान फाड़ देने वाली सिद्ध होती है। जब इन्हें पकड़कर कहीं रख लिया जाता है और ये नये व्यक्तियों को देखते हैं तो इतनी जोर सी चीखते हैं कि इनके रखवालों को कनटोप पहन लेना पड़ता है। चिंपैंजी मनुष्य के हावभाव और सिखाई जाने वाली बातों का बहुत शीघ्र अनुकरण करने लगते हैं। उनकी प्रकृति का अध्ययन करने वालों में गार्डनर तथा उनकी पत्नी बीट्राइस प्रमुख रही हैं। 11 वर्ष पूर्व गार्डनर दम्पत्ति ने एक आठ मास के चिंपैंजी को सिखाना आरम्भ किया। चिंपैंजी को बाकायदा नाम भी दिया गया—वाशोई। गार्डनर दम्पत्ति ने वाशोई को अमेरिका सांकेतिक भाषा सिखाई जो प्रायः गूंगों, बहरों को सिखाई जाती है। जब वह चिंपैंजी 5 वर्ष को हो गया तो उसे इस भाषा के 132 संकेतों का अच्छी तरह अभ्यास हो गया।
वाशोई के अलावा गार्डनर दम्पत्ति ने 4 और चिंपैंजी पाले जिनमें से एक का नाम है भोजा। भोजा अब चित्र भी बनाने लगा है। उसने अपनी प्रतिभा का प्रथम परिचय श्यामपट पर एक चाक से दिया। भोजा प्रायः अपने मानव सम्बन्धियों को चित्र बनाते हुए देखता रहता था। एक दिन भोजा को न जाने क्या सूझी कि उसने चाक उठाया और लगा ब्लैकबोर्ड पर एक डिजाइन बनाने। जब यह डिजाइन बना चुका तो उसने संकेत दिया कि मेरा काम खत्म हो गया है।
यह पूछा जाने पर कि यह क्या है तो भोजा ने सांकेतिक भाषा में उत्तर दिया—यह पक्षी है।
सिखाने पर कोई भी व्यक्ति कुछ भी समझ सीख सकता है, परन्तु उसमें जटिलता के अनुसार सीखने समझने की सामर्थ्य में भी अन्तर आ जाता है। उदाहरण के लिए कम्प्यूटर की कार्य प्रणाली इतनी जटिल है कि उसे चलाना हर किसी के बस की बात नहीं होती, परन्तु एक तीन वर्षीय चिंपैंजी लाना कम्प्यूटर चलाने में भी समर्थ है। उसकी विशेषता यह है कि वह अनुसन्धान कर्त्ताओं के प्रश्नों का उत्तर मशीन से मनुष्य चालकों की अपेक्षा अधिक शीघ्रता और कुशलता से उत्तर देता है।
इन घटनाओं को अपवाद भी कहा जाय तो रोजमर्रा के जीवन में चौराहों पर मजमा लगाकर मदारी के इशारों पर खेल दिखा रहे बन्दरों को देखा जा सकता है। अपने मास्टर का इशारा पाकर वे बन्दर कैसे-कैसे आश्चर्यजनक करतब कर लेते हैं—देखते ही बनता है। भालू भी बन्दरों की ही तरह कोई आदत या अभ्यास को तुरन्त ग्रहण कर लेता है। सरकस में तो घोड़े, शेर, बकरी, हाथी तक मनुष्यों से न हो सकने वाले काम सीख लेते हैं और अपने मास्टर के निर्देशन में खेल दिखाकर लोगों को चमत्कृत कर देते हैं।
कहा जा सकता है कि किसी कार्य का अभ्यास करना या बार-बार दोहराकर उसे सीख लेना बुद्धिमत्ता नहीं है। बुद्धिमानी का अर्थ मौलिक सूझबूझ है जो किसी भी अवसर या घटना विशेष पर तुरन्त निर्णय लेकर अमल में ले आये। इस मौलिक सूझबूझ को प्रत्युत्पन्नमति भी कहा जा सकता है। अन्य प्राणियों में प्रत्युत्पन्नमति नहीं होती। जैसे किसी तोते को रटा दिया जाय कि ‘‘डर मत डर मत।’’ तोता हमेशा यही दोहराता रहे ‘‘डर मत-डर मत’’ परन्तु बिल्ली दिखाई देते ही तोता टें-टें करने लगता है। उस समय न इससे उड़ते बनता है न ‘डर मत डर मत’ का पाठ करते।
आकस्मिक घटनाओं में फंसकर तुरन्त निर्णय लेने की क्षमता तो मनुष्य में भी बहुत कम होती है। शौर्य, पराक्रम और साहस पर घण्टों भाषण देने वाले लोग स्वयं संकट के समय घबड़ाकर भागते या हड़बड़ाहट में उसे संकट को और गम्भीर बनाते देखे गये हैं। वस्तुतः मनुष्य में जो कुछ बुद्धिमत्ता दिखाई देती है, इसका अस्सी प्रतिशत भाग सीखा और दोहराया गया भर होता है। बार-बार अभ्यास से वह बात उसके दिमाग में डाल दी गयी भर होती है। उदाहरण के लिए चार-पांच वर्ष को होते ही बच्चे को अक्षर ज्ञान कराया जाता है; पाठों को दोहराना और अक्षरों को पहचानना सिखाया जाता है। जो भाषा वह बचपन में सीख लेता है वह उसे आजीवन याद रहती है। इसी प्रकार आदतें, स्वभाव और प्रकृति भी बहुत कुछ दूसरों के देखा-देखी सीखी जाती हैं।
जिसे मौलिक बुद्धि कहा जा सके, वह क्षमता बहुत कम लोगों में होती है क्योंकि मनुष्य जो कुछ भी सीखता, समझता और उस आधार पर सभ्य, समझदार दिखाई देता है वह समाज में रहने के कारण ही है। जिस वातावरण में वह रहता है, वह वातावरण उसे अनुरूप बनने के लिये प्रेरित करता है। बचपन से ही उसी सीखना सिखाया जाता है इसलिए वह आगे चलकर बिना सिखाये भी बहुत कुछ सीख सकता है।
यही बात अन्य जीव-जन्तुओं के बारे में भी देखी जा सकती है। जीवशास्त्र के पन्ने पलटते चलिये, जीव-जन्तुओं का अध्ययन करते जाइये तो एक से एक बढ़कर ऐसे उदाहरण मिलते जायेंगे जो मनुष्य की बौद्धिक क्षमता को लजाते हैं।
न विद्यालय न शास्त्र
सृष्टि के अन्य जीवों में मनुष्य की सैकड़ों विशेषताएं हैं। वह सफाई पसन्द करता है, करना भी चाहिए क्योंकि जो साफ-सुथरा रहता है, गन्दगी से बचता है, वही केवल स्वस्थ व नीरोग रह सकता है। स्वास्थ्य विज्ञान की लम्बी जानकारियों के आधार पर यह नियम बनाया गया है, पर मधुमक्खी के पास इस तरह का ज्ञान देने वाला कोई विद्यालय नहीं, स्वास्थ्य के नियमों का उसे पता नहीं, रोग कौन-कौन से होते हैं इसका उसे कोई ज्ञान नहीं भी फिर मधुमक्खी के उपनिवेश में सफाई का उतना ही ध्यान रखा जाता है, जितना रानी की सुरक्षा का। कोई मधुमक्खी मर जाये तो उसके सड़ने-गलने और बदबू फैलाने से पूर्व ही मधुमक्खियां उसके शव को छत्ते से 15-20 गज की दूरी पर बाहर फेंक आती हैं। उनमें एक क्रम रहता है, प्रतिदिन नियत समय पर मक्खियां उड़ान करती हैं और छत्ते से बाहर टट्टी कर आती हैं। इसका अर्थ यह कि यदि मकान की सफाई न रखी गई, उसमें गन्दगी फैलने दी गई तो उससे सारी कालोनी में महामारी फैल सकती है। यह ज्ञान शरीर का नहीं, उस आत्मा का है, जो मनुष्य और मधुमक्खी दोनों में एक समान है।
श्री रक्षपाल लिखित पुस्तक ‘‘कीटों में समाजिक जीवन’’ में बताया गया है कि यदि कोई चूहा किसी दीमक के किले में घुस जाता है, तो रक्षक दीमक उस पर अपने डंकों का प्रहार करके उसे मार डालते हैं। संगठित आक्रमण और प्रकृतिदत्त साधनों के उपयोग से वे शत्रु पर विजय पा जाते हैं, पर बेचारे कण-कण के कीट उतने वजन के चूहे के शव को बाहर किस तरह करें। जब तक वह सड़-गल कर समाप्त हो तब तक तो उनके कमरे में इतनी बदबू फैल सकती है, जो उन सबका ही नाश कर दे, इसलिए वे दूसरी युक्ति से काम लेते और मनुष्य से अधिक चतुरता का परिचय देते हैं। लोग तो जंगल—टट्टी जाते हैं और टट्टी खुली छोड़ आते हैं, जिससे वातावरण दूषित होता है, उसे गड्ढा खोद कर टट्टी करने और उसमें मिट्टी पटक देना भी लज्जास्पद लगता है, इस दृष्टि से अधिक बुद्धिमान दीमक हैं, क्योंकि वे तुरंत एक प्रकार का द्रव प्रोपोसिल बनाते हैं और उसकी मोटी परत वाली वार्निश उसके शरीर में कर देते हैं, इससे उसकी गन्दगी का एक झोंका भी बाहर नहीं जा पाता। एक बार कपूर की डेली इनके महल में फेंककर देखा गया। जितनी देर में कपूर की गन्ध उपनिवेश में फैले दीमकों ने उसे इस द्रव से कीलित कर दिया।
मनुष्य बड़ा भारी इंजीनियर है, भाखड़ा से लेकर चन्द्र रॉकेट तक की डिजाइनिंग में उसने जो बुद्धि खर्च की है, उसे देखकर लगता है, यह दूसरा परमात्मा है, पर यदि यही योग्यता किसी तुच्छ प्राणी में हो तो उसे भी परमात्मा का अंश ही कहा जायगा। जीव-वैज्ञानिक डा. बेल्ट ने हिमालय की 4000 फुट ऊंची एक चोटी पर चढ़कर एक ऐसे चींटी परिवार का अध्ययन किया जो गृह-निर्माण कर रहा था। वहां वे घर बना रही थीं, वह एक नदी का कगार था। बिल से निकालीं हुई मिट्टी नीचे गिर जाती थी और इस कारण मकान का सहन उम्दा नहीं बन पा रहा था। अंत में इस स्थिति से निपटने का काम कुछ विशेषज्ञ चींटियों को सौंपा गया। उन्होंने उस स्थान का विधिवत् निरीक्षण कर एक योजना बनाई। उस योजना के अनुसार मजदूर चींटियों को भीतर के काम से हटा कर पहले छोटी-छोटी कंकड़ियां बीन कर लाने का आदेश दिया गया। वह सब कंकड़ बीनकर लाईं और इस तरह पहले एक मजबूत पथ बना दिया गया, तब आगे का काम प्रारम्भ हुआ। अब मिट्टी को लुढ़कने की कोई गुंजाइश नहीं रही।
जीव-जन्तुओं की विलक्षणता मनुष्योचित—
बुद्धि और ज्ञान-शक्ति की दृष्टि से मनुष्य की अन्य जीव-जन्तुओं से कोई तुलना नहीं की जा सकती, फिर भी अनेक जीव-जन्तुओं में ऐसे विशेषताएं मिलती हैं, जिनकी समता कोई सामान्य दर्जे का मनुष्य नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए कुत्ते की सूंघने की, गिद्ध की देखने की, शेर की उछलने की, मधु-मक्खियों की सामूहिकता की शक्तियों का उदाहरण मनुष्य कभी उपस्थित नहीं कर सका। और भी अनेक जीव आहार प्राप्त करने या आत्म-रक्षा के लिए ऐसी-ऐसी विधियों से काम लेते हैं, जो आश्चर्यजनक जान पड़ती हैं। साथ ही अनेक पशु समय-समय पर ऐसी सूझ-बूझ का परिचय देते हैं, जिसे देखकर उनको कभी ‘जड़ पदार्थ’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अनेक अन्वेषण करने वालों का तो यह कथन है कि मनुष्य ने कितनी ही बातों का ज्ञान जीव-जन्तुओं से ही प्राप्त किया है।
बुनने वाली चिड़िया
बुनने के कार्य में कई तरह की चिड़ियों ने बड़ी उन्नति की है। हमारे देश में इसके लिए ‘वया’ पक्षी का घोंसला प्रसिद्ध है। वह घास के तिनकों को ऐसी कारीगरी से बुनती है कि उसका घोंसला एक दर्शनीय वस्तु बन जाता है। उसके भीतर न तो पानी जाता है और न कोई शत्रु सांप, बन्दर, कौआ आदि भीतर घुसकर अण्डों या बच्चों को कुछ हानि पहुंचा सकता है।
इससे मिलती-जुलती एक चिड़िया अमेरिका में भी होती है, जो अपना घोंसला बड़ा सुन्दर बनाती है। कितने ही लोग इनकी कारीगरी देखने के लिए रंग-बिरंगा ऊन उनके निवास स्थान के पास रख देते हैं। चिड़िया इसी का प्रयोग अपने घोंसले बनाने में करती है। जब ये रंग-बिरंगे घोंसले पेड़ों में लटकते हुए दिखाई पड़ते हैं तो उनकी शोभा विचित्र दिखाई देती है। उनमें अनायास ही ऐसे अद्भुत और आकर्षक डिजाइन बन जाते हैं कि फिर स्त्रियां और पुरुष उनकी नकल करने लगते हैं। भारतवर्ष में एक ‘दर्जी चिड़िया’ भी पाई जाती है। यह अपने घोंसले को केवल बुनती ही नहीं वरन् लटकती हुई पत्तियों को घास का प्रयोग करके इस प्रकार सीं देती है, जैसे दो फीतों के बीच कोई झूला (हिण्डोला) लटक रहा हो। इसी लटकते हुए ‘कटोरे’ के बीच उसका घोंसला टिका रहता है
बिजली—
कई प्रकार की मछलियों ने अपने शरीर में बिजली के बैट्रीनुमा अंग विकसित करके उनके द्वारा आत्म-रक्षा और आहार संग्रह की विधि निकाली है अमेरिका की अमेजन नदी में पाई जाने वाली ‘एल’ मछली की पूंछ बहुत बड़ी होती है। उसमें बिजली की बैट्री के तीन समूह होते हैं। इसके द्वारा यह मछली कई सौ ‘वोल्ट’ की ताकत का धक्का मार सकती है, जिससे कभी-कभी घोड़े और मनुष्य भी गिर कर पानी में डूब जाते हैं। इस बिजली का प्रयोग वह सम्वाद प्रेषक तार के रूप में भी करती है। क्योंकि जैसे ही एक मछली किसी शिकार पर आघात करती है, वैसे ही उसके सभी दूरवर्ती साथियों को उसका पता लग जाता है और दौड़कर उसी स्थान पर आ जाती हैं।
अरब समुद्र और नील नदी में ‘कैट फिश’ (बिल्ली मछली) नाम की एक भारी और दो फीट के लगभग लम्बी मछली होती है, जिसका रंग पीला होता है और उस पर भूरे धब्बे पड़े होते हैं। इसका सारा शरीर एक लिफाफे की तरह बिजली के अंग से ढका रहता है। इसमें भी काफी शक्ति होती है और प्रायः आपस में लड़कर एक दूसरे पर विद्युत-शक्ति द्वारा आघात पहुंचाया करती है।
एक और मछली ‘टारपेडो’ नाम की होती है, जिसमें हल्की विद्युत-शक्ति होती है और जो काफी संख्या में सारे गरम समुद्रों में पाई जाती है। यह कोमल मछलियों को बिजली का धक्का देकर पकड़ लेती है। पुराने जमाने में हकीम लोग इससे गठिया रोग का इलाज करने का काम लेते थे। इसके लिए रोगी को मछली के ऊपर तब तक खड़ा रहना पड़ता था, जब तक के लिए चिकित्सक आज्ञा देता था या रोगी बिजली के झटके को सहन कर सकता था।
मानव-इतिहास में सुरंगों का भी बड़ा महत्व है। शत्रुओं से बचने अथवा बहुमूल्य वस्तुओं के भण्डार आदि को गुप्त रखने के लिए पुराने जमाने में सुरंगें खोदी जाती थीं। भारत के कितने ही प्राचीन किलों में सुरंगें देखने में आती हैं, जिनके भीतर अब भय के कारण कोई नहीं घुसता। इससे उनके विषय में तरह-तरह के किस्से सुनने में आते रहते हैं। पर इनमें से अधिकांश किसी घेरे या आक्रमण के समय बाहर निकलने के गुप्त मार्ग के रूप में ही प्रयुक्त होती थीं।
इन सुरंगों को बनाने का विचार सम्भवतः मनुष्यों ने जीव-जन्तुओं से ही ग्रहण किया है, क्योंकि वे आत्म-रक्षा अथवा आहार की खोज में सुरंगें बनाया करते हैं। सुरंग बनाने वाले कीड़ों में केंचुआ बहुत प्रसिद्ध है। वह अपने एक सिरे से भूमि में प्रवेश करता है और जो कुछ मिलता है, उसे निगल कर दूसरे सिरे से मिट्टी के रूप में ही बाहर फेंकता जाता है। इस प्रकार से अपना निर्वाह करते हैं और साथ ही नीचे की मिट्टी को ऊपर लाकर छोटे पेड़-पौधों की वृद्धि में भी सहायक होते हैं। कहते हैं कि इस प्रकार केंचुए किसी बगीचे की एक एकड़ भूमि की 400 मन मिट्टी को एक वर्ष के भीतर नीचे से ऊपर ले आते हैं। और भी कितने ही छोटे कीड़े इसी प्रकार धरती में छेद करके नीचे की मिट्टी को ऊपर लाया करते हैं।
इन कीड़ों के अतिरिक्त नेवला, चूहे, छछूंदर, झींगुर और साही, स्यार आदि जंगली पशु भी सुरंग खोदते रहते हैं। इन सब प्राणियों का शरीर लम्बाई में अधिक होता है, जिससे उन्हें खोदने के काम में सहायता मिलती है। अफ्रीका का चींटी खाने वाला रीछ तो अपने पैरों से सुरंग बनाने में इतनी तेजी से मिट्टी काटता है, जितना कि दो मजदूर फावड़ा या गेंती लेकर भी नहीं काट सकते।
जीव-जन्तु एक प्रकार के जड़-पदार्थ हैं, इस मान्यता का खण्डन उन अनेक पशुओं की बुद्धिमानी से होता है, जो वे समय-समय पर प्रकट करते हैं। कुत्तों की स्वामिभक्ति और चोरों का पीछा करके गाढ़े हुए धन का पता लगा आना और फिर स्वामी को वहां ले जाना आदि घटनाओं के सच्चे किस्से आमतौर से प्रसिद्ध हैं। बन्दर भी अपने किसी साथी को बचाने के लिए बहुत समझदारी का परिचय दिया करते हैं। कहते हैं कि बन्दर का बच्चा कुएं में गिर गया तो कई बन्दर एक दूसरे के पैर पकड़कर कुएं में लटक गये और बच्चा उन पर चढ़ कर बाहर आ गया। घोड़ों की बुद्धिमानी और स्वामिभक्ति की कथाएं भी प्रसिद्ध हैं। जब एक सेनाध्यक्ष बहुत घायल होकर रणक्षेत्र में गिर गया तो उसका घोड़ा उसके कमरबन्द को मुंह में पकड़कर घर तक उठा लाया जो दस पन्द्रह मील दूर था।
भिन्न-भिन्न जाति के पशुओं में पारस्परिक प्रेम के समाचार प्रायः सामयिक पत्रों में छपा करते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि उनमें प्रेम की भावना और एक दूसरे के प्रति सहानुभूति भी होती है। एक विलायती अखबार में एक मेमना तथा नर बतख की दोस्ती का वर्णन छपा था, जो कभी अलग नहीं होते थे। इसी तरह एक बिल्ली तथा डौमकौवे में घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। कौआ अपनी शरारती आदत के अनुसार सोने की इच्छुक बिल्ली की पूंछ मरोड़कर जगा देता था। तब थोड़ी देर के लिए दोनों में खट-पट भी हो जाती थी।
स्मरण-शक्ति और बदला लेने की घटनाओं से भी पशुओं के मानसिक विकास का कुछ पता चलता है। कुछ वर्ष पहले अखबारों में एक हाथी की घटना इस प्रकार छपी थी— ‘‘धुवरी राज्य में एक हाथी को खीला सूत्रधार नामक महावत ने पीटा था। इसके कुछ समय बाद खीला ने अन्यत्र नौकरी कर ली और वह एक नये हाथी का महावत बनाया गया। कई वर्ष बाद संयोग से खीला का नया हाथी और वह हाथी जिसे उसने पीटा था, काम पर से साथ-साथ वापिस आ रहे थे। दोनों महावत परस्पर परिचित थे और मार्ग में उनमें से एक ने हाथी को जरा ठहरा कर तम्बाकू की चिलम अपने साथी को दी। उसी समय मौका देखकर पीटे गये हाथी ने एकाएक सूंड़ उठाकर खीला को नीचे खींच लिया और महावत द्वारा बहुत रोके जाने पर भी तुरन्त ही कुचल कर मार डाला।’’
कानपुर में चैतू नामक गड़रिया ने किसी बात पर एक गाय को बहुत मारा। गाय ने इस घटना को स्मरण रखा और कई महीने बाद जब उसे अवसर मिला उसने चैतू को गिरागर सींगों से खूब मारा।
प्रेम और स्नेह ‘सद्भाव भी’—
सम्पर्क में आये मनुष्यों, जीव-जन्तुओं को स्मरण रखने व समय आने पर उनसे वैसा व्यवहार करने में सचमुच ही जीव-जन्तुओं की कोई समझ है। इतना ही नहीं वे प्रेम करने और स्नेह सद्भाव रखने में मनुष्य से पीछे नहीं हैं। अन्य जीव भी प्रेम करते हैं, प्रेम ही नहीं, शुद्ध और नितान्त पवित्र प्रेम। उदाहरण के लिए कुछ गर्म देशों के समुद्र में मछली की सी आकृति का एक जीव पाया जाता हे, उसे मनाती कहते हैं। उसे अपने बच्चे से इतना प्यार होता है कि कैसी भी परिस्थिति में वह उसे अपने से अलग नहीं करती, उसके शरीर में दो झिल्लियां होती हैं, जो हाथों का काम देती हैं, इनसे ही वह अपने बच्चे को छाती से चिपकाये रहती है और उसे हमेशा दूध पिलाती रहती है। कभी-कभी इसका बच्चा छूट जाता है तो वह ऐसे रंभाती है जैसे लवाई (हाल की व्याई) गाय अपने बच्चे के लिये रंभाती है। सम्भवतः इसी गुण के कारण उसे समुद्री गाय (सी काऊ) भी कहते हैं। 1 टन वजन से भी भारी मनाती संसार के दुर्लभ जीवों में से है, इसीलिए उसकी रक्षा के लिए कड़े नियम बनाये गये हैं, अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत इसे अबध्य कर दिया गया है।
मनुष्य अपने आपको सामाजिक प्राणी कहला सकता है तो छोटे-छोटे जीव कम सामाजिक नहीं। यह केवल प्राकृतिक प्रेरणा से ही नहीं, उनकी बुद्धिमत्ता से भी होता है। उत्तरी योरोप का बीवर जन्तु इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। यह बड़ा बुद्धिमान जीव है, पानी में बांध बनाकर रहता है। बांध बांधने में तो इंजीनियर भी चकराते हैं, फिर उन्हें भी परेशान होना चाहिए पर नहीं। कई बीवर मिलकर योजना बनाते हैं, एक लकड़ी इकट्ठा करता है तो दूसरे छोटी-छोटी डालियां, कुछ मिट्टी ढोते हैं, कुछ खोदते हैं। पत्थरों के भार से ये लट्ठों को पानी में डुबा देते हैं और फिर उन पर मिट्टी थोप कर अपने लिए कमरे बना लेते हैं। एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहने के लिए यह कमरों में दरवाजे भी रखते हैं। एक इंजीनियर जैसी व्यवस्था यह सब मिलकर कर लेते हैं। चींटी, मधुमक्खी, दीमक, मनाती, बीवर आदि के शरीर में अवतरण, निश्चित रूप से अज्ञान, अन्धकार और अचेतनता में जन्म लेना है, पर यह एक विलक्षण सत्य है कि इस नन्हें से शरीर में रहने वाली नन्हीं सी चेतना में भी वह सारी क्षमताएं भरी पड़ी हैं, जो किसी भी योग्य मनुष्य में सम्भव हैं। शरीर जीवन साधनों के यन्त्र हैं और प्रत्येक जीव को उसकी प्रकृति और स्वभाव के अनुरूप मिले होते हैं, यह मनुष्य शरीर की ही विशेषता है कि उसमें प्रकृति के परम्परागत विषयों को भी विजय करने की क्षमता है, यदि वह ऐसा न करके अन्य जीवों का सा ही निम्नगामी जीवन जीता है और अपने स्वभाव को ऊर्ध्वमुखी नहीं बनाता तो निश्चित रूप से उसे भी अज्ञान, अन्धकार और अचेतना में भटकता हुआ एक सामान्य गुण मात्र समझना चाहिए, जबकि वह एक शाश्वत सर्वव्यापी और सनातन पराशक्ति है, यदि वह अपने इस रूप को समझ ले तो भगवान् हो जाये पर यदि वह महत्वाकांक्षाओं में ही भटकता है, तब तो उसे भी कीट-पतंगे की श्रेणी का ही एक जीव कहना चाहिये।
इन सब बातों से सिद्ध होता है कि पशुओं का मानसिक और बौद्धिक विकास भले ही मनुष्य की तुलना में कम हुआ हो फिर भी उनमें प्रेम, सहानुभूति कृतज्ञता, स्वामिभक्ति आदि गुण पाये जाते हैं और कितने ही पशु समय-समय पर बुद्धिमानी का प्रमाण भी देते हैं। ये सब बातें किसी चैतन्य तत्व के अभाव में संभव भी नहीं हो सकती। इसलिए पशुओं को जड़ अथवा मनुष्यों का लक्ष्य समझ लेना एक बड़ी भूल है। वरन् वस्तु तथ्य तो यहां है कि मानसिक विकास में पिछड़े होने के कारण ये जीव-जन्तु मानव के छोटे भाई हैं, जिनके साथ उसे सहृदयता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए।
कहा जाय कि इन सब प्राणियों में सीखने की क्षमता नहीं होती। यह सोचना भी गलत है क्योंकि शरीर रचना में उससे समानता रखने वाले प्राणी उससे अधिक अच्छी तरह सीख समझ सकते हैं। मनुष्य की शरीर संरचना और बौद्धिक सामर्थ्य से निकटतम अनुरूपता रखने वाला प्राणी खोजा जाय तो वह लंगूर ही होगा। लंगूरों की प्रायः तीन श्रेणियां बतायी जाती हैं एक—ओरगुटान, दूसरी गोरिल्ला और तीसरी श्रेणी में चिंपैंजी आते हैं।
इनमें से भी ओरगुटान श्रेणी के लंगूर कम होते जा रहे हैं। अब ये केवल इण्डोनेशिया के जंगलों में ही मिलते हैं और बन्दरों की तरह वृक्षों पर एक टहनी से दूसरी टहनी पर कूदते हैं। इनकी भुजाएं अन्य लंगूरों की तुलना में अधिक सशक्त होती है तथा इनके पांव अन्य लंगूरों की अपेक्षा छोटे और कमजोर। ओरगुण्टान को पकड़कर यदि किसी पिंजड़े में बन्द कर दिया जाय तो चुपचाप उदास मुद्रा में बैठ जाते हैं। जैसे ये अपनी बंधक स्थिति से क्षुब्ध हों और उसकी पीड़ा छटपटाहट अनुभव करते हों। ओरगुंटान से कुछ अधिक विकसित लंगूर हैं गोरिल्ला। ये प्रचुर संख्या में पाये जाते हैं। सीधे खड़े होने पर 5 फीट के दिखाई देते हैं। अफ्रीका में पाये जाने वो गुरिल्लों में से कुछ का वजन तो दो क्विंटल तक है। लेकिन ये कभी-कभी ही सीधे खड़े होते हैं।
मनुष्य के सर्वाधिक समीप लंगूर है चिंपैंजी। चिंपैंजी और मनुष्य के रक्त में इतनी समानता पाई जाती है कि यह आदमी का रक्त है अथवा चिंपैंजी का। यही नहीं चिंपैंजिओं को भी मनुष्य में होने वाले रोगों यथा—यस्पिण्ड पोलियो जैसी बीमारियों का शिकार होता देखा गया है।
चिंपैंजी को एक भाषा ही नहीं मिली है अन्यथा कई मामलों में यह मनुष्य की न केवल बराबरी करता है, वरन् उसे पीछे भी छोड़ देता है। चिंपैंजी जंगल में अपने आस-पास के वायुमण्डल के सम्बन्ध में बहुत अधिक सतर्क रहते हैं। जंगल में जब ये एक दूसरे को पुकारने के लिए किलकारी करते हैं तो मनुष्य के लिए उसकी आवाज कान फाड़ देने वाली सिद्ध होती है। जब इन्हें पकड़कर कहीं रख लिया जाता है और ये नये व्यक्तियों को देखते हैं तो इतनी जोर सी चीखते हैं कि इनके रखवालों को कनटोप पहन लेना पड़ता है। चिंपैंजी मनुष्य के हावभाव और सिखाई जाने वाली बातों का बहुत शीघ्र अनुकरण करने लगते हैं। उनकी प्रकृति का अध्ययन करने वालों में गार्डनर तथा उनकी पत्नी बीट्राइस प्रमुख रही हैं। 11 वर्ष पूर्व गार्डनर दम्पत्ति ने एक आठ मास के चिंपैंजी को सिखाना आरम्भ किया। चिंपैंजी को बाकायदा नाम भी दिया गया—वाशोई। गार्डनर दम्पत्ति ने वाशोई को अमेरिका सांकेतिक भाषा सिखाई जो प्रायः गूंगों, बहरों को सिखाई जाती है। जब वह चिंपैंजी 5 वर्ष को हो गया तो उसे इस भाषा के 132 संकेतों का अच्छी तरह अभ्यास हो गया।
वाशोई के अलावा गार्डनर दम्पत्ति ने 4 और चिंपैंजी पाले जिनमें से एक का नाम है भोजा। भोजा अब चित्र भी बनाने लगा है। उसने अपनी प्रतिभा का प्रथम परिचय श्यामपट पर एक चाक से दिया। भोजा प्रायः अपने मानव सम्बन्धियों को चित्र बनाते हुए देखता रहता था। एक दिन भोजा को न जाने क्या सूझी कि उसने चाक उठाया और लगा ब्लैकबोर्ड पर एक डिजाइन बनाने। जब यह डिजाइन बना चुका तो उसने संकेत दिया कि मेरा काम खत्म हो गया है।
यह पूछा जाने पर कि यह क्या है तो भोजा ने सांकेतिक भाषा में उत्तर दिया—यह पक्षी है।
सिखाने पर कोई भी व्यक्ति कुछ भी समझ सीख सकता है, परन्तु उसमें जटिलता के अनुसार सीखने समझने की सामर्थ्य में भी अन्तर आ जाता है। उदाहरण के लिए कम्प्यूटर की कार्य प्रणाली इतनी जटिल है कि उसे चलाना हर किसी के बस की बात नहीं होती, परन्तु एक तीन वर्षीय चिंपैंजी लाना कम्प्यूटर चलाने में भी समर्थ है। उसकी विशेषता यह है कि वह अनुसन्धान कर्त्ताओं के प्रश्नों का उत्तर मशीन से मनुष्य चालकों की अपेक्षा अधिक शीघ्रता और कुशलता से उत्तर देता है।
इन घटनाओं को अपवाद भी कहा जाय तो रोजमर्रा के जीवन में चौराहों पर मजमा लगाकर मदारी के इशारों पर खेल दिखा रहे बन्दरों को देखा जा सकता है। अपने मास्टर का इशारा पाकर वे बन्दर कैसे-कैसे आश्चर्यजनक करतब कर लेते हैं—देखते ही बनता है। भालू भी बन्दरों की ही तरह कोई आदत या अभ्यास को तुरन्त ग्रहण कर लेता है। सरकस में तो घोड़े, शेर, बकरी, हाथी तक मनुष्यों से न हो सकने वाले काम सीख लेते हैं और अपने मास्टर के निर्देशन में खेल दिखाकर लोगों को चमत्कृत कर देते हैं।
कहा जा सकता है कि किसी कार्य का अभ्यास करना या बार-बार दोहराकर उसे सीख लेना बुद्धिमत्ता नहीं है। बुद्धिमानी का अर्थ मौलिक सूझबूझ है जो किसी भी अवसर या घटना विशेष पर तुरन्त निर्णय लेकर अमल में ले आये। इस मौलिक सूझबूझ को प्रत्युत्पन्नमति भी कहा जा सकता है। अन्य प्राणियों में प्रत्युत्पन्नमति नहीं होती। जैसे किसी तोते को रटा दिया जाय कि ‘‘डर मत डर मत।’’ तोता हमेशा यही दोहराता रहे ‘‘डर मत-डर मत’’ परन्तु बिल्ली दिखाई देते ही तोता टें-टें करने लगता है। उस समय न इससे उड़ते बनता है न ‘डर मत डर मत’ का पाठ करते।
आकस्मिक घटनाओं में फंसकर तुरन्त निर्णय लेने की क्षमता तो मनुष्य में भी बहुत कम होती है। शौर्य, पराक्रम और साहस पर घण्टों भाषण देने वाले लोग स्वयं संकट के समय घबड़ाकर भागते या हड़बड़ाहट में उसे संकट को और गम्भीर बनाते देखे गये हैं। वस्तुतः मनुष्य में जो कुछ बुद्धिमत्ता दिखाई देती है, इसका अस्सी प्रतिशत भाग सीखा और दोहराया गया भर होता है। बार-बार अभ्यास से वह बात उसके दिमाग में डाल दी गयी भर होती है। उदाहरण के लिए चार-पांच वर्ष को होते ही बच्चे को अक्षर ज्ञान कराया जाता है; पाठों को दोहराना और अक्षरों को पहचानना सिखाया जाता है। जो भाषा वह बचपन में सीख लेता है वह उसे आजीवन याद रहती है। इसी प्रकार आदतें, स्वभाव और प्रकृति भी बहुत कुछ दूसरों के देखा-देखी सीखी जाती हैं।
जिसे मौलिक बुद्धि कहा जा सके, वह क्षमता बहुत कम लोगों में होती है क्योंकि मनुष्य जो कुछ भी सीखता, समझता और उस आधार पर सभ्य, समझदार दिखाई देता है वह समाज में रहने के कारण ही है। जिस वातावरण में वह रहता है, वह वातावरण उसे अनुरूप बनने के लिये प्रेरित करता है। बचपन से ही उसी सीखना सिखाया जाता है इसलिए वह आगे चलकर बिना सिखाये भी बहुत कुछ सीख सकता है।
यही बात अन्य जीव-जन्तुओं के बारे में भी देखी जा सकती है। जीवशास्त्र के पन्ने पलटते चलिये, जीव-जन्तुओं का अध्ययन करते जाइये तो एक से एक बढ़कर ऐसे उदाहरण मिलते जायेंगे जो मनुष्य की बौद्धिक क्षमता को लजाते हैं।
न विद्यालय न शास्त्र
सृष्टि के अन्य जीवों में मनुष्य की सैकड़ों विशेषताएं हैं। वह सफाई पसन्द करता है, करना भी चाहिए क्योंकि जो साफ-सुथरा रहता है, गन्दगी से बचता है, वही केवल स्वस्थ व नीरोग रह सकता है। स्वास्थ्य विज्ञान की लम्बी जानकारियों के आधार पर यह नियम बनाया गया है, पर मधुमक्खी के पास इस तरह का ज्ञान देने वाला कोई विद्यालय नहीं, स्वास्थ्य के नियमों का उसे पता नहीं, रोग कौन-कौन से होते हैं इसका उसे कोई ज्ञान नहीं भी फिर मधुमक्खी के उपनिवेश में सफाई का उतना ही ध्यान रखा जाता है, जितना रानी की सुरक्षा का। कोई मधुमक्खी मर जाये तो उसके सड़ने-गलने और बदबू फैलाने से पूर्व ही मधुमक्खियां उसके शव को छत्ते से 15-20 गज की दूरी पर बाहर फेंक आती हैं। उनमें एक क्रम रहता है, प्रतिदिन नियत समय पर मक्खियां उड़ान करती हैं और छत्ते से बाहर टट्टी कर आती हैं। इसका अर्थ यह कि यदि मकान की सफाई न रखी गई, उसमें गन्दगी फैलने दी गई तो उससे सारी कालोनी में महामारी फैल सकती है। यह ज्ञान शरीर का नहीं, उस आत्मा का है, जो मनुष्य और मधुमक्खी दोनों में एक समान है।
श्री रक्षपाल लिखित पुस्तक ‘‘कीटों में समाजिक जीवन’’ में बताया गया है कि यदि कोई चूहा किसी दीमक के किले में घुस जाता है, तो रक्षक दीमक उस पर अपने डंकों का प्रहार करके उसे मार डालते हैं। संगठित आक्रमण और प्रकृतिदत्त साधनों के उपयोग से वे शत्रु पर विजय पा जाते हैं, पर बेचारे कण-कण के कीट उतने वजन के चूहे के शव को बाहर किस तरह करें। जब तक वह सड़-गल कर समाप्त हो तब तक तो उनके कमरे में इतनी बदबू फैल सकती है, जो उन सबका ही नाश कर दे, इसलिए वे दूसरी युक्ति से काम लेते और मनुष्य से अधिक चतुरता का परिचय देते हैं। लोग तो जंगल—टट्टी जाते हैं और टट्टी खुली छोड़ आते हैं, जिससे वातावरण दूषित होता है, उसे गड्ढा खोद कर टट्टी करने और उसमें मिट्टी पटक देना भी लज्जास्पद लगता है, इस दृष्टि से अधिक बुद्धिमान दीमक हैं, क्योंकि वे तुरंत एक प्रकार का द्रव प्रोपोसिल बनाते हैं और उसकी मोटी परत वाली वार्निश उसके शरीर में कर देते हैं, इससे उसकी गन्दगी का एक झोंका भी बाहर नहीं जा पाता। एक बार कपूर की डेली इनके महल में फेंककर देखा गया। जितनी देर में कपूर की गन्ध उपनिवेश में फैले दीमकों ने उसे इस द्रव से कीलित कर दिया।
मनुष्य बड़ा भारी इंजीनियर है, भाखड़ा से लेकर चन्द्र रॉकेट तक की डिजाइनिंग में उसने जो बुद्धि खर्च की है, उसे देखकर लगता है, यह दूसरा परमात्मा है, पर यदि यही योग्यता किसी तुच्छ प्राणी में हो तो उसे भी परमात्मा का अंश ही कहा जायगा। जीव-वैज्ञानिक डा. बेल्ट ने हिमालय की 4000 फुट ऊंची एक चोटी पर चढ़कर एक ऐसे चींटी परिवार का अध्ययन किया जो गृह-निर्माण कर रहा था। वहां वे घर बना रही थीं, वह एक नदी का कगार था। बिल से निकालीं हुई मिट्टी नीचे गिर जाती थी और इस कारण मकान का सहन उम्दा नहीं बन पा रहा था। अंत में इस स्थिति से निपटने का काम कुछ विशेषज्ञ चींटियों को सौंपा गया। उन्होंने उस स्थान का विधिवत् निरीक्षण कर एक योजना बनाई। उस योजना के अनुसार मजदूर चींटियों को भीतर के काम से हटा कर पहले छोटी-छोटी कंकड़ियां बीन कर लाने का आदेश दिया गया। वह सब कंकड़ बीनकर लाईं और इस तरह पहले एक मजबूत पथ बना दिया गया, तब आगे का काम प्रारम्भ हुआ। अब मिट्टी को लुढ़कने की कोई गुंजाइश नहीं रही।
जीव-जन्तुओं की विलक्षणता मनुष्योचित—
बुद्धि और ज्ञान-शक्ति की दृष्टि से मनुष्य की अन्य जीव-जन्तुओं से कोई तुलना नहीं की जा सकती, फिर भी अनेक जीव-जन्तुओं में ऐसे विशेषताएं मिलती हैं, जिनकी समता कोई सामान्य दर्जे का मनुष्य नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए कुत्ते की सूंघने की, गिद्ध की देखने की, शेर की उछलने की, मधु-मक्खियों की सामूहिकता की शक्तियों का उदाहरण मनुष्य कभी उपस्थित नहीं कर सका। और भी अनेक जीव आहार प्राप्त करने या आत्म-रक्षा के लिए ऐसी-ऐसी विधियों से काम लेते हैं, जो आश्चर्यजनक जान पड़ती हैं। साथ ही अनेक पशु समय-समय पर ऐसी सूझ-बूझ का परिचय देते हैं, जिसे देखकर उनको कभी ‘जड़ पदार्थ’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अनेक अन्वेषण करने वालों का तो यह कथन है कि मनुष्य ने कितनी ही बातों का ज्ञान जीव-जन्तुओं से ही प्राप्त किया है।
बुनने वाली चिड़िया
बुनने के कार्य में कई तरह की चिड़ियों ने बड़ी उन्नति की है। हमारे देश में इसके लिए ‘वया’ पक्षी का घोंसला प्रसिद्ध है। वह घास के तिनकों को ऐसी कारीगरी से बुनती है कि उसका घोंसला एक दर्शनीय वस्तु बन जाता है। उसके भीतर न तो पानी जाता है और न कोई शत्रु सांप, बन्दर, कौआ आदि भीतर घुसकर अण्डों या बच्चों को कुछ हानि पहुंचा सकता है।
इससे मिलती-जुलती एक चिड़िया अमेरिका में भी होती है, जो अपना घोंसला बड़ा सुन्दर बनाती है। कितने ही लोग इनकी कारीगरी देखने के लिए रंग-बिरंगा ऊन उनके निवास स्थान के पास रख देते हैं। चिड़िया इसी का प्रयोग अपने घोंसले बनाने में करती है। जब ये रंग-बिरंगे घोंसले पेड़ों में लटकते हुए दिखाई पड़ते हैं तो उनकी शोभा विचित्र दिखाई देती है। उनमें अनायास ही ऐसे अद्भुत और आकर्षक डिजाइन बन जाते हैं कि फिर स्त्रियां और पुरुष उनकी नकल करने लगते हैं। भारतवर्ष में एक ‘दर्जी चिड़िया’ भी पाई जाती है। यह अपने घोंसले को केवल बुनती ही नहीं वरन् लटकती हुई पत्तियों को घास का प्रयोग करके इस प्रकार सीं देती है, जैसे दो फीतों के बीच कोई झूला (हिण्डोला) लटक रहा हो। इसी लटकते हुए ‘कटोरे’ के बीच उसका घोंसला टिका रहता है
बिजली—
कई प्रकार की मछलियों ने अपने शरीर में बिजली के बैट्रीनुमा अंग विकसित करके उनके द्वारा आत्म-रक्षा और आहार संग्रह की विधि निकाली है अमेरिका की अमेजन नदी में पाई जाने वाली ‘एल’ मछली की पूंछ बहुत बड़ी होती है। उसमें बिजली की बैट्री के तीन समूह होते हैं। इसके द्वारा यह मछली कई सौ ‘वोल्ट’ की ताकत का धक्का मार सकती है, जिससे कभी-कभी घोड़े और मनुष्य भी गिर कर पानी में डूब जाते हैं। इस बिजली का प्रयोग वह सम्वाद प्रेषक तार के रूप में भी करती है। क्योंकि जैसे ही एक मछली किसी शिकार पर आघात करती है, वैसे ही उसके सभी दूरवर्ती साथियों को उसका पता लग जाता है और दौड़कर उसी स्थान पर आ जाती हैं।
अरब समुद्र और नील नदी में ‘कैट फिश’ (बिल्ली मछली) नाम की एक भारी और दो फीट के लगभग लम्बी मछली होती है, जिसका रंग पीला होता है और उस पर भूरे धब्बे पड़े होते हैं। इसका सारा शरीर एक लिफाफे की तरह बिजली के अंग से ढका रहता है। इसमें भी काफी शक्ति होती है और प्रायः आपस में लड़कर एक दूसरे पर विद्युत-शक्ति द्वारा आघात पहुंचाया करती है।
एक और मछली ‘टारपेडो’ नाम की होती है, जिसमें हल्की विद्युत-शक्ति होती है और जो काफी संख्या में सारे गरम समुद्रों में पाई जाती है। यह कोमल मछलियों को बिजली का धक्का देकर पकड़ लेती है। पुराने जमाने में हकीम लोग इससे गठिया रोग का इलाज करने का काम लेते थे। इसके लिए रोगी को मछली के ऊपर तब तक खड़ा रहना पड़ता था, जब तक के लिए चिकित्सक आज्ञा देता था या रोगी बिजली के झटके को सहन कर सकता था।
मानव-इतिहास में सुरंगों का भी बड़ा महत्व है। शत्रुओं से बचने अथवा बहुमूल्य वस्तुओं के भण्डार आदि को गुप्त रखने के लिए पुराने जमाने में सुरंगें खोदी जाती थीं। भारत के कितने ही प्राचीन किलों में सुरंगें देखने में आती हैं, जिनके भीतर अब भय के कारण कोई नहीं घुसता। इससे उनके विषय में तरह-तरह के किस्से सुनने में आते रहते हैं। पर इनमें से अधिकांश किसी घेरे या आक्रमण के समय बाहर निकलने के गुप्त मार्ग के रूप में ही प्रयुक्त होती थीं।
इन सुरंगों को बनाने का विचार सम्भवतः मनुष्यों ने जीव-जन्तुओं से ही ग्रहण किया है, क्योंकि वे आत्म-रक्षा अथवा आहार की खोज में सुरंगें बनाया करते हैं। सुरंग बनाने वाले कीड़ों में केंचुआ बहुत प्रसिद्ध है। वह अपने एक सिरे से भूमि में प्रवेश करता है और जो कुछ मिलता है, उसे निगल कर दूसरे सिरे से मिट्टी के रूप में ही बाहर फेंकता जाता है। इस प्रकार से अपना निर्वाह करते हैं और साथ ही नीचे की मिट्टी को ऊपर लाकर छोटे पेड़-पौधों की वृद्धि में भी सहायक होते हैं। कहते हैं कि इस प्रकार केंचुए किसी बगीचे की एक एकड़ भूमि की 400 मन मिट्टी को एक वर्ष के भीतर नीचे से ऊपर ले आते हैं। और भी कितने ही छोटे कीड़े इसी प्रकार धरती में छेद करके नीचे की मिट्टी को ऊपर लाया करते हैं।
इन कीड़ों के अतिरिक्त नेवला, चूहे, छछूंदर, झींगुर और साही, स्यार आदि जंगली पशु भी सुरंग खोदते रहते हैं। इन सब प्राणियों का शरीर लम्बाई में अधिक होता है, जिससे उन्हें खोदने के काम में सहायता मिलती है। अफ्रीका का चींटी खाने वाला रीछ तो अपने पैरों से सुरंग बनाने में इतनी तेजी से मिट्टी काटता है, जितना कि दो मजदूर फावड़ा या गेंती लेकर भी नहीं काट सकते।
जीव-जन्तु एक प्रकार के जड़-पदार्थ हैं, इस मान्यता का खण्डन उन अनेक पशुओं की बुद्धिमानी से होता है, जो वे समय-समय पर प्रकट करते हैं। कुत्तों की स्वामिभक्ति और चोरों का पीछा करके गाढ़े हुए धन का पता लगा आना और फिर स्वामी को वहां ले जाना आदि घटनाओं के सच्चे किस्से आमतौर से प्रसिद्ध हैं। बन्दर भी अपने किसी साथी को बचाने के लिए बहुत समझदारी का परिचय दिया करते हैं। कहते हैं कि बन्दर का बच्चा कुएं में गिर गया तो कई बन्दर एक दूसरे के पैर पकड़कर कुएं में लटक गये और बच्चा उन पर चढ़ कर बाहर आ गया। घोड़ों की बुद्धिमानी और स्वामिभक्ति की कथाएं भी प्रसिद्ध हैं। जब एक सेनाध्यक्ष बहुत घायल होकर रणक्षेत्र में गिर गया तो उसका घोड़ा उसके कमरबन्द को मुंह में पकड़कर घर तक उठा लाया जो दस पन्द्रह मील दूर था।
भिन्न-भिन्न जाति के पशुओं में पारस्परिक प्रेम के समाचार प्रायः सामयिक पत्रों में छपा करते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि उनमें प्रेम की भावना और एक दूसरे के प्रति सहानुभूति भी होती है। एक विलायती अखबार में एक मेमना तथा नर बतख की दोस्ती का वर्णन छपा था, जो कभी अलग नहीं होते थे। इसी तरह एक बिल्ली तथा डौमकौवे में घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। कौआ अपनी शरारती आदत के अनुसार सोने की इच्छुक बिल्ली की पूंछ मरोड़कर जगा देता था। तब थोड़ी देर के लिए दोनों में खट-पट भी हो जाती थी।
स्मरण-शक्ति और बदला लेने की घटनाओं से भी पशुओं के मानसिक विकास का कुछ पता चलता है। कुछ वर्ष पहले अखबारों में एक हाथी की घटना इस प्रकार छपी थी— ‘‘धुवरी राज्य में एक हाथी को खीला सूत्रधार नामक महावत ने पीटा था। इसके कुछ समय बाद खीला ने अन्यत्र नौकरी कर ली और वह एक नये हाथी का महावत बनाया गया। कई वर्ष बाद संयोग से खीला का नया हाथी और वह हाथी जिसे उसने पीटा था, काम पर से साथ-साथ वापिस आ रहे थे। दोनों महावत परस्पर परिचित थे और मार्ग में उनमें से एक ने हाथी को जरा ठहरा कर तम्बाकू की चिलम अपने साथी को दी। उसी समय मौका देखकर पीटे गये हाथी ने एकाएक सूंड़ उठाकर खीला को नीचे खींच लिया और महावत द्वारा बहुत रोके जाने पर भी तुरन्त ही कुचल कर मार डाला।’’
कानपुर में चैतू नामक गड़रिया ने किसी बात पर एक गाय को बहुत मारा। गाय ने इस घटना को स्मरण रखा और कई महीने बाद जब उसे अवसर मिला उसने चैतू को गिरागर सींगों से खूब मारा।
प्रेम और स्नेह ‘सद्भाव भी’—
सम्पर्क में आये मनुष्यों, जीव-जन्तुओं को स्मरण रखने व समय आने पर उनसे वैसा व्यवहार करने में सचमुच ही जीव-जन्तुओं की कोई समझ है। इतना ही नहीं वे प्रेम करने और स्नेह सद्भाव रखने में मनुष्य से पीछे नहीं हैं। अन्य जीव भी प्रेम करते हैं, प्रेम ही नहीं, शुद्ध और नितान्त पवित्र प्रेम। उदाहरण के लिए कुछ गर्म देशों के समुद्र में मछली की सी आकृति का एक जीव पाया जाता हे, उसे मनाती कहते हैं। उसे अपने बच्चे से इतना प्यार होता है कि कैसी भी परिस्थिति में वह उसे अपने से अलग नहीं करती, उसके शरीर में दो झिल्लियां होती हैं, जो हाथों का काम देती हैं, इनसे ही वह अपने बच्चे को छाती से चिपकाये रहती है और उसे हमेशा दूध पिलाती रहती है। कभी-कभी इसका बच्चा छूट जाता है तो वह ऐसे रंभाती है जैसे लवाई (हाल की व्याई) गाय अपने बच्चे के लिये रंभाती है। सम्भवतः इसी गुण के कारण उसे समुद्री गाय (सी काऊ) भी कहते हैं। 1 टन वजन से भी भारी मनाती संसार के दुर्लभ जीवों में से है, इसीलिए उसकी रक्षा के लिए कड़े नियम बनाये गये हैं, अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत इसे अबध्य कर दिया गया है।
मनुष्य अपने आपको सामाजिक प्राणी कहला सकता है तो छोटे-छोटे जीव कम सामाजिक नहीं। यह केवल प्राकृतिक प्रेरणा से ही नहीं, उनकी बुद्धिमत्ता से भी होता है। उत्तरी योरोप का बीवर जन्तु इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। यह बड़ा बुद्धिमान जीव है, पानी में बांध बनाकर रहता है। बांध बांधने में तो इंजीनियर भी चकराते हैं, फिर उन्हें भी परेशान होना चाहिए पर नहीं। कई बीवर मिलकर योजना बनाते हैं, एक लकड़ी इकट्ठा करता है तो दूसरे छोटी-छोटी डालियां, कुछ मिट्टी ढोते हैं, कुछ खोदते हैं। पत्थरों के भार से ये लट्ठों को पानी में डुबा देते हैं और फिर उन पर मिट्टी थोप कर अपने लिए कमरे बना लेते हैं। एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहने के लिए यह कमरों में दरवाजे भी रखते हैं। एक इंजीनियर जैसी व्यवस्था यह सब मिलकर कर लेते हैं। चींटी, मधुमक्खी, दीमक, मनाती, बीवर आदि के शरीर में अवतरण, निश्चित रूप से अज्ञान, अन्धकार और अचेतनता में जन्म लेना है, पर यह एक विलक्षण सत्य है कि इस नन्हें से शरीर में रहने वाली नन्हीं सी चेतना में भी वह सारी क्षमताएं भरी पड़ी हैं, जो किसी भी योग्य मनुष्य में सम्भव हैं। शरीर जीवन साधनों के यन्त्र हैं और प्रत्येक जीव को उसकी प्रकृति और स्वभाव के अनुरूप मिले होते हैं, यह मनुष्य शरीर की ही विशेषता है कि उसमें प्रकृति के परम्परागत विषयों को भी विजय करने की क्षमता है, यदि वह ऐसा न करके अन्य जीवों का सा ही निम्नगामी जीवन जीता है और अपने स्वभाव को ऊर्ध्वमुखी नहीं बनाता तो निश्चित रूप से उसे भी अज्ञान, अन्धकार और अचेतना में भटकता हुआ एक सामान्य गुण मात्र समझना चाहिए, जबकि वह एक शाश्वत सर्वव्यापी और सनातन पराशक्ति है, यदि वह अपने इस रूप को समझ ले तो भगवान् हो जाये पर यदि वह महत्वाकांक्षाओं में ही भटकता है, तब तो उसे भी कीट-पतंगे की श्रेणी का ही एक जीव कहना चाहिये।
इन सब बातों से सिद्ध होता है कि पशुओं का मानसिक और बौद्धिक विकास भले ही मनुष्य की तुलना में कम हुआ हो फिर भी उनमें प्रेम, सहानुभूति कृतज्ञता, स्वामिभक्ति आदि गुण पाये जाते हैं और कितने ही पशु समय-समय पर बुद्धिमानी का प्रमाण भी देते हैं। ये सब बातें किसी चैतन्य तत्व के अभाव में संभव भी नहीं हो सकती। इसलिए पशुओं को जड़ अथवा मनुष्यों का लक्ष्य समझ लेना एक बड़ी भूल है। वरन् वस्तु तथ्य तो यहां है कि मानसिक विकास में पिछड़े होने के कारण ये जीव-जन्तु मानव के छोटे भाई हैं, जिनके साथ उसे सहृदयता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए।