Books - जीव जन्तु बोलते भी हैं, सोचते भी हैं
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Language: HINDI
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भाव संवेदनाएं आत्म चेतना की प्रतीक
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न्यूजीलैंड द्वीप के पास कुक जल डमरू मध्य में कोई 5 मील ऐसा समुद्र है, जिसमें बड़ी-बड़ी मूंगों और पत्थरों वाली टेढ़ी-मेढ़ी चट्टानें हैं। यहीं डाल्फिन जाति की एक दस फुट लम्बी और तीन फुट चौड़ी मछली रहती थी। वह मछली इस खतरनाक स्थान में नाविकों को सही रास्ता बताती थी, जिससे वे दुर्घटनाओं से बच जाते थे। जहाजी इसी कारण प्यार से उसे ‘पेलोरस जैक’ कहा करते थे।
‘‘जब तक खतरा रहता मछली आगे-आगे चलती और जहाज पीछे-पीछे। जैसे ही साफ समुद्र आ जाता वह एक बार ऊपर उछलती और गोता लगाकर भाग जाती। नाविक समझ जाते थे, अब कोई खतरा नहीं है। एक बार एक जहाज के किसी अजनबी व्यक्ति ने उस विलक्षण मछली पर गोली दाग दी। गोली लगते ही मछली डुबकी लगाकर भाग गई और कई वर्ष तक नहीं दिखाई दी। इस बीच कई जहाज वहां दुर्घटना ग्रस्त हो गये।’’
‘‘कुछ दिन तक विश्राम करने के पश्चात् मछली का घाव ठीक हो गया। इसी बीच न्यूजीलैंड सरकार ने निषेधाज्ञा प्रसारित कर दी कि उस मछली को मारने वाला दण्ड का अधिकारी होगा। इसके कुछ दिन बाद ही वह मछली फिर दिखाई देने लगी। उसने मनुष्य की कृतघ्नता का बिल्कुल ध्यान न दिया और फिर से परोपकार के व्रत का पालन करने लगी। आश्चर्य यह है कि जैसे ही वह रोटूरा नामक उक्त जहाज को देखती वैसे ही डुबकी लगाकर भाग जाती। जब इस मछली की मृत्यु हुई तो उसकी असाधारण सेवा के लिये न्यूजीलैंड-वासियों ने उसका एक भव्य स्मारक बनाया। उसकी एक प्रस्तरमूर्ति प्रतिष्ठित की गई जो अब भी विद्यमान् है।’’
इस मछली का विचित्र वर्णन दिल्ली से प्रकाशित होने वाले—नव भारत टाइम्स के साहित्यिक संस्करण में छपा था। इसी पत्र में कैप्टन पी.जे. प्रसाद द्वारा लिखा हुआ लद्दाख सीमांत का एक और विवरण प्रकाशित हुआ था, जिसमें बताया गया है कि कुछ याकों ने बर्फीले तूफान से सीमा रक्षकों को बचाया था। जैसे ही तेज अंधड़ आता—बताते हैं याक पंक्तिबद्ध होकर खड़े हो जाते और गश्तीदल उनकी ओट में छुप जाता। इस तरह भयंकर, बर्फीले तूफान से बचकर गश्तीदल अपने खेमे तक पहुंच जाता।
यह घटनायें सिद्ध करती हैं कि—चेतन स्वरूप आत्मा ही सर्व-भूत प्राणियों में विद्यमान् है। अपने-अपने कर्मानुसार जीव विभिन्न शरीरों में प्रगट होता है, किन्तु जीव-मात्र की आत्मिक स्थिति एक जैसी है, इसलिये कभी किसी जीव को न मारना चाहिये, न सताना चाहिये। उनसे आत्म-विकास की शिक्षा लेनी चाहिये।
विश्व में दो प्रकार के पदार्थ पाये जाते हैं—जड़ और चेतन। वृक्ष, वनस्पति, पौधों, गुल्म-लताओं तक में चैतन्य के चिह्न प्रकट हो रहे हैं, किन्तु तमोगुण की अधिकता के कारण वे सब अविकसित प्राणी हैं, कीट-पतंग, वृक्षों की अपेक्षा थोड़ा अधिक विकसित हैं, पशु-पक्षियों का स्वाभाविक ज्ञान कीट-पतंगों से भी अधिक विकसित पाया जाता है। कई बार तो पशु-पक्षियों की विशेषतायें मनुष्य की बुद्धि और उसके चातुर्य को शर्मिन्दा करने लगती हैं। आहार, निद्रा, भय, मैथुन तक में ही नहीं, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, बुद्धि-विवेक में भी वे मनुष्य से बढ़े-चढ़े पाये जाते हैं। यद्यपि उनमें आत्म-कल्याण के लिये साधनायें करने वाला नैमित्तिक ज्ञान नहीं होता। वह लाभ केवल मनुष्य को ही प्राप्त है। पर यदि सामान्य जीवों की गतिविधियों को देखकर हम यह मान लें, कि आत्म-चेतनता कर्मानुसार अन्य योनियों में भी जाती है और यदि मनुष्य में धार्मिकता, सच्चाई, ईमानदारी उत्कृष्टता आदि नहीं है तो उसकी स्थिति पशुओं से भी निम्नतर है, तो अवश्य ही आत्मा को पहचानने और जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने का भाव जागृत हो सकता है।
साहस, दया और करुणा
आक्रमण और मृत्यु के भय से जिस तरह मनुष्य कई बार किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, वैसी ही घबराहट कई जीवों और पक्षियों को भी होती है, उससे पता चलता है कि वे भी जीवन और मृत्यु की श्रृंखला में जुड़े होते हैं और मोह आसक्ति अज्ञान के कारण उन्हें भी मृत्यु से ठीक उसी तरह डर लगता है, जिस तरह मनुष्य को।
अरब, सीरिया, मोसोपोटामिया और अफ्रीका आदि में शुतुरमुर्ग नाम का एक सात-आठ फुट लम्बा पक्षी पाया जाता है। शुतुरमुर्ग की मूर्खता प्रसिद्ध है। कोई खतरा दिखाई देने पर वह अपना सिर बालू में छिपा लेता है और समझ लेता है कि खतरा दूर हो गया। उसका गुस्सा भी उतना ही प्रबल होता है, गुस्से में वह भयंकर आक्रमण करता है। कहते हैं उसकी चोंच का प्रहार इतना तीक्ष्ण होता है कि लोहे की चादर में भी छेद हो सकता है।
शुतुरमुर्ग में स्नेह सद्भाव का भी विलक्षण भाव पाया जाता है। पक्षी होने पर भी वह जेबरा और हिरणों के साथ रहता है।
कुछ समय पूर्व सारस पक्षियों के सम्बन्ध में कहा जाता था कि सर्दियों में वह उड़कर देशान्तर को चला जाता है। यात्रा के समय वह कई छोटे-छोटे पक्षियों को भी अपनी पीठ पर बैठाकर उड़ जाता है। प्रवासी पक्षियों के सम्बन्ध में बड़ौदा के गायकवाड़ विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में खोजबीन करने वाले प्राणिविद प्रो. जे.सी. जार्ज ने इस विश्वास का उल्लेख किया है। यह न भी हो तो भी सारस का दाम्पत्य प्रेम विलक्षण माना गया है। नर या मादा को मारकर कोई उसे तब तक नहीं ले जा सकता, जब तक उसी तरह साथी को भी न मार दिया जाये।
पंजाब में करनाल जिले के थानेश्वर नामक स्थान के पास कुछ तालाब हैं। वहां सारसों के अनेक जोड़े निवास करते हैं। एक बार एक सारसी पर एक गीदड़ ने आक्रमण कर दिया। सारसी के पैर में जख्म हो गया, जिससे वह पीछे हट गई पर अब गीदड़ ने उसके छोटे बच्चे पर हमला कर दिया। इस बार सारसी की ममता ने प्रचण्ड रूप धारण किया। घायल होते हुए भी उसने साहस और बुद्धि से काम लिया। उसने चोंच से गीदड़ की आंखों में तीखे प्रहार किये जिससे भयभीत होकर गीदड़ भाग गया। उधर मादा की आवाज सुनकर नर सारस भी आ पहुंचा उसने भी गीदड़ पर हमला कर दिया, जिससे गीदड़ को भागते ही बना।
साहसी ही नहीं मनुष्येत्तर जीवों में दया और करुणा भी कम नहीं होती। बुन्देलखण्ड की एक घटना है, एक गांव का कोई 5 वर्ष का बालक खेलते-खेलते गांव के किनारे पर पहुंच गया। वहां से खेल प्रारम्भ होते थे। उधर से एक विषधर सर्प दौड़ा आ रहा था, सर्प उत्तेजित था इसलिये उसने उस बच्चे को ही घेर लिया। यह दृश्य वृक्ष की शाखा पर बैठा एक बन्दर देख रहा था। उसे बच्चे पर दया हो आई, वह चटपट नीचे उतरा और पीछे से जाकर सर्प को एक तमाचा जड़ा। सांप ने बच्चे को तो छोड़ दिया और बन्दर पर झपट पड़ा। बन्दर ने साहस और बुद्धि से काम लिया। वह वार भी करता था और प्रतिघात से भी बचता था। यह द्वन्द-युद्ध एक घण्टे चला और अन्त में विजय बन्दर की ही रही, उसने सांप को कूंच-कूंच कर जान से माल डाला।
गाय बहुत सीधा जानवर है, गायें बहुत लड़ती-भिड़ती नहीं हैं पर अपने बच्चे, कुनवे और साथियों के प्रति उनमें सामूहिकता और सहकारिता का कितना अच्छा भाव होता है, उसकी एक विचित्र घटना ओरछा में घटित हुई। उसे सुनकर मनुष्य की शक्ति और ज्ञान का दंभ मिथ्या प्रतीत होने लगता है। मनुष्य जो करता है, उसमें अपना स्वार्थ प्रधान रहता है पर गायों ने सबके स्वार्थ में अपना स्वार्थ सन्निहित सिद्ध कर दिखाया।
बात यों हुई कि एक दिन गायों का एक झुण्ड जंगल में चर रहा था। चरवाहे उन्हें जंगल में छोड़कर घर लौट जाते हैं। अब गायें आई ही थीं कि अचानक एक बाघ ने आक्रमण कर दिया। पहले तो गायें भागी पर जैसे ही उन्होंने देखा कि भागने पर भी किसी न किसी की मृत्यु अवश्यम्भावी है तो सब गायें रुक गईं। उन्होंने मिलकर एक घेरा बनाया। छोटे-छोटे बछड़ों को बीच में खड़ाकर आक्रमण की राह देखने लगीं। बाघ पहले तो सक-पकाया पर उसने गायों को भोला समझकर फिर आक्रमण कर दिया पर इस बार का आक्रमण महंगा पड़ा। 15-20 गायें सींगों से बाघ पर टूट पड़ीं। बाघ का शरीर क्षत-विक्षत हो गया और उसे भागते ही बन पड़ा।
मौलिक बुद्धि जैसी कोई चीज न होने पर भी मनुष्य को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए भावनाओं का आधार लिया जा सकता है। मनुष्य में भावनाएं होती हैं, यही ठीक है, परन्तु पशुओं में भी भाव सम्वेदनाएं होती हैं और वे मनुष्य से ज्यादा उन्हें अनुभव करते हैं। अन्तर है तो इतना ही कि मनुष्य भावनाओं को व्यक्त कर सकता है और पशु-पक्षी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकते।
भावों की यह अभिव्यक्ति भी मनुष्य अपने परिवार और समाज से ही सीखता है। मनुष्य के संसर्ग में रहने वाले अन्य कई प्राणी, पशु-पक्षी भी अपनी भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करना सीख जाते हैं। कहा जाता है कि मनुष्य के पास अपने भावों को व्यक्त करने के लिए एक समर्थ और समृद्ध भाषा है। अन्य प्राणियों के पास कोई भाषा नहीं है। लेकिन यह एक भ्रम भी हो सकता है कि अन्य प्राणियों के पास भाषा नहीं है। हो तो उन्हें भी देखा जा सकता है। यह बात और है कि मनुष्य उनकी वाणी को सुनता तो है, परन्तु समझ नहीं सकता अथवा मनुष्य ने अपनी भाषा का आवश्यकता के अनुसार अधिक विकास कर लिया और अन्य प्राणी उस क्षेत्र में पीछे रह गये। लेकिन यहां आकर मनुष्य को मात खा जानी पड़ती है। कोई मनुष्य आज तक पशु-पक्षियों की भाषा में बात करने या समझने में समर्थ नहीं हो सका है—जब कि जानवर उसके भाव यहां तक कि उसकी भाषा को समझने का अभ्यास बहुत जल्दी कर सकते हैं।
मनःशास्त्र वेत्ता पेटरराक ने एक चिंपैंजी पाला जिसे नाम दिया ‘कोको’ कोको के सम्बन्ध में राक का दावा है कि वह अपनी भावनाओं को भी व्यक्त कर सकता है। कोको ने साढ़े पांच वर्ष की आयु में सांकेतिक भाषा के 300 वाक्य सीख लिए।
कुछ और मनोवैज्ञानिकों ने कोको की परीक्षा ली तो उसने प्रत्येक व्यवहार की प्रतिक्रिया व्यक्त की और हर्ष-उल्लास के साथ खेद व दुःख भी व्यक्त किया।
शरीर, बुद्धि, भावनाएं उनकी अभिव्यक्ति और भाषा की दृष्टि से मनुष्य का अन्य प्राणियों की तुलना में बढ़ा-चढ़ा होना मात्र एक भ्रम है। यह आभास जरूर होता है कि वह अन्य प्राणियों से बढ़ा-चढ़ा और उन्नत है। सम्भव है यह भ्रम अन्य प्राणियों में भी हो। जिन आधारों पर मनुष्य की श्रेष्ठता सिद्ध की जाती है, वे तो झूठे हैं ही परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वस्तुतः मनुष्य अन्य प्राणियों के समान ही है। निस्सन्देह मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ और परमात्मा का सबसे बड़ा पुत्र है। क्योंकि मनुष्य जीवन एक अवसर है जिसमें यह सिद्ध किया जा सकता है कि परमात्मा ने हमें जो वस्तुएं, जो विशेषताएं और जो अधिकार दिये हैं उनका हम सदुपयोग कर सकते हैं और अपनी प्रामाणिकता, कर्त्तव्यपरायणता के आधार पर और अधिक उच्च स्थिति प्राप्त करने के योग्य सिद्ध कर सकते हैं।
मैत्री सद्भाव और कर्त्तव्य भावना
स्वार्थ और आत्म रक्षा की प्रवृत्ति सभी प्राणियों में पायी जाती है। यह प्रवृत्ति जीवन को प्रेम करने के फलस्वरूप ही विकसित हुई। यह बात दूसरी है कि उन प्रवृत्तियों का विकास कितने परिष्कृत अथवा विकृत रूप में होता है परन्तु यह सच है कि प्रत्येक प्राणी में एक ऐसी चेतन सत्ता विद्यमान है जो उसे निरन्तर ऊंचा उठने की प्रेरणा देती है। स्वार्थों की पूर्ति के साथ-साथ उच्च आदर्शों को जीवन में आत्मसात् करने की प्रेरणा देने वाली इस चेतन सत्ता का नाम ही अन्तरात्मा है।
मनुष्य समाज में जो कितने ही लोग, उच्च आदर्शों की पूर्ति के लिए अपने तुच्छ स्वार्थों को बलि देते देखे जा सकते हैं। समाज भी ऐसे व्यक्तियों को महामानव, देवात्मा, आदर्श, पुरुष कहकर सम्मानित करता है और श्रद्धा से शीश नवाता है। अन्तरात्मा के रूप में सम्बोधित की जाने वाली यह चेतना केवल मनुष्य के पास ही नहीं है वरन् अन्य पशु-पक्षियों में भी, जिनके पास बुद्धि का अभाव है, सोचने-समझने की क्षमता नहीं है इन आदर्शों के प्रति अगाध प्रेम देखा गया है। अमरीकी लेखक एच.ए. जेज ने पशु-पक्षियों के आपसी व्यवहार का लम्बे समय तक अध्ययन किया ओर अपने निष्कर्षों को ‘‘विजडम ऑफ एनिमल्स’’ नामक पुस्तक में लिखा। इस पुस्तक में एच.ए. जेज ने कितनी ही ऐसी घटनाओं का उल्लेख किया जो यह प्रमाणित करती हैं कि पशु-पक्षियों में भी नैतिक चेतना तथा आदर्शों के प्रति प्रेम होता है और वे इन आदर्शों को प्राण-पण से निवाहते भी हैं।
एच.ए. जेज ने अपनी पुस्तक ‘विजडम ऑफ एनिमल्स’ में एक पालतू बिल्ली तथा एक तोते की दोस्ती का उल्लेख किया है। सामान्यतः बिल्ली तोते को देखते ही झपटने की कोशिश करती है परन्तु उक्त पुस्तक में जिस बिल्ली और तोते का उल्लेख किया गया है, वे परस्पर एक दूसरे को बहुत प्रेम करते थे। घर में जब कोई नहीं होता तो बिल्ली तोते को इस प्रकार खिलाती रहती थी जैसे कोई बच्चा खिला रहा हो। एक दिन उनकी मालकिन रसोई में कोई चीज पकाने के लिए चूल्हे पर रखकर ऊपर कमरे में चली गई और वहां किसी काम में व्यस्त हो गयी। बिल्ली और तोता दोनों ही रसोई में खेलने लगे। खेलते-खेलते तोता पकने के लिए चढ़ाये गये बर्तन में गिर पड़ा। बिल्ली तुरन्त ऊपर वाले कमरे में दौड़ी गयी और मालकिन के कपड़े खींच कर, उछलकर व्याकुलता प्रदर्शित करने लगी। मालकिन ने झल्लाकर कहा क्या बात है? तो बिल्ली ने उसकी ओर कातर भाव से देखा तथा रसोई की ओर चल पड़ी। पता नहीं उसकी आंखों में क्या भाव थे कि मालकिन ऊपर वाले कमरे से निकलकर रसोई की ओर बिल्ली के पीछे-पीछे चल दी। वहां जाकर उसने देखा कि तोता चूल्हे पर चढ़ाये गये बर्तन में गिर पड़ा है और बुरी तरह छट-पटा रहा है। मालकिन ने उसे बाहर निकाला। यह बिल्ली उस समय अपनी मालकिन को बुलाने नहीं जाती तो निश्चित था कि तोते के प्राण निकल गये होते।
पशु अपने सजातीय प्राणियों-परिवार के सदस्यों बच्चों से तो प्रेम करते ही हैं, उन्हें साथ लिए घूमते और स्नेह का परिचय देते हैं। परन्तु दूसरे पशुओं से भी प्रेम सम्बन्ध बनाने, स्नेह, सौहार्द्र बढ़ाने और मैत्री करने के उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं। लेकिन मिलते अवश्य हैं। बरमिंघम (ब्रिटेन) में सर सैमुअल गुडबीईयर के यहां टट्टू था। उसकी एक खच्चर से अच्छी दोस्ती हो गयी थी और दोनों बाड़े से निकलकर देर तक घूमा करते थे। टट्टू को एक बाड़े में रखा जाता था। बाड़े का फाटक अन्दर से एक चटखनी से बन्द होता था और बाहर से कुण्डी द्वारा टट्टू अपना सिर फाटक के ऊपर तो कर सकता था किंतु वह बाहरी कुण्डी तक नहीं पहुंच सकता था, फिर भी वह अकसर बाड़े के बाहर खुले में घूमता देखा जाता था। यह एक रहस्य ही था कि बाड़े का फाटक कैसे खुल जाता था?
एक दिन सर सैमुअल ने देखा कि टट्टू पहले भीतरी चटखनी को झटके देकर खांचे से अलग करता और फिर रेंकना शुरू कर देता। उसकी आवाज सुनकर बाहर एक खच्चर आ जाता। खच्चर अपनी नाक से धकेलकर कुण्डी खोल देता फिर दोनों साथ-साथ घूमते।
‘वेजल’ नामक एक जर्मन पत्रिका में एक कुत्ते और बिल्ली की मित्रता का वर्णन छपा है। कुत्ते और बिल्ली जन्म जात शत्रु होते हैं परन्तु यह कुत्ता और बिल्ली साथ-साथ खाते-पीते, उछलते-कूदते और साथ-साथ उठते-बैठते थे। इनके मालिक ने कुत्ते और बिल्ली की मैत्री को परखना चाहा। वह केवल बिल्ली को अपने अपने कमरे में ले गया और उसे खाना दिया उसने बड़े मजे में खाना खाया। ऐसा लगा कि कुत्ते की अनुपस्थिति बिल्ली को जरा भी नहीं खली है। फिर एक तस्तरी में खाना रखकर वह तस्तरी अलमारी में रख दी गयी। अलमारी में ताला नहीं लगाया गया और बिल्ली को खुला छोड़ दिया गया। बिल्ली तुरन्त कमरे से बाहर गयी और थोड़ी देर में वह अपने साथी कुत्ते को वहां बुलाकर ले आयी। दोनों उस अलमारी तक गये फिर बिल्ली के धक्के से अलमारी का दरवाजा खोला तथा उछलकर कुत्ते को वह तस्तरी दिखाने लगी। कुत्ते ने तस्तरी देख ली और उसने पंजों से दबाकर तस्तरी को बाहर निकाल लिया। पहले उसने बिल्ली की ओर भी तस्तरी खिसकाई परन्तु बिल्ली पीछे हट गई जैसे वह कह रही हों मैं तो खा चुकी हूं। कुत्ते ने भी जैसे बिल्ली का आशय समझ लिया और तस्तरी को अपने पंजे में दबाकर सारा खाना खा गया। जब तक कुत्ता खाना खाता रहा तब तक बिल्ली उस स्थान पर ऐसे बैठी रही जैसे वह पास बैठकर खाना खिला रही है।
एक दूसरे के प्रति प्रेम और कोमल भावनाओं का प्रदर्शन तो ठीक है पशु-पक्षी अपनी मित्रता में अवरोध उत्पन्न करने वाले कारणों को भी दूर करते हैं। दूसरों की इच्छा या अनिच्छा अथवा बहकावे पर जुड़ने-टूटने वाली मित्रता का आधार स्वार्थ ही हो सकता है क्योंकि मित्रता सच्चे हृदय से की जाती है और बाहरी कारणों से स्थिर बनती अथवा टूटती नहीं है। प्रसिद्ध अंग्रेजी साप्ताहिक ‘स्टेट्स मेन’ में एक पिल्ले और सूअर की ऐसी ही मित्रता का वर्णन छपा था। वे दोनों साथ-साथ घूमते थे। उनके स्वामी को यह पसन्द न था इसलिए उसने पिल्ले के गले में लकड़ी का एक छोटा सा किन्तु वजनदार टुकड़ा बांध दिया, ताकि वह भाग न सके। किंतु उसने पहले ही दिन देखा कि उसे पिल्ले के गले में पड़ी रस्सी कट गई थी और वह सूअर के साथ स्वतन्त्र घूम रहा था। दूसरे दिन पिल्ले के गले में चमड़े का मजबूत पट्टा डाला गया और उसमें लकड़ी का टुकड़ा जंजीर से लटकाया गया। लेकिन उस दिन भी पट्टा कट गया और लकड़ी का वह टुकड़ा कहीं गिर पड़ा। पिल्ला अपने पट्टे को स्वयं कदापि नहीं काट सकता था, फिर वह कैसे कट जाता है यह देखने के लिए निगरानी की गई तो पाया गया कि यह काम उसके दोस्त सूअर का ही है।
यह तो हुई सामान्य मैत्र धर्म की बातें, साथ-साथ रहने, उठने-बैठने के कारण आपस में इस तरह की घनिष्ठता को स्वाभाविक भी कहा जा सकता है परन्तु पशु-पक्षी में कर्तव्य भावना, विपत्तिग्रस्तों के प्रति सहयोग, सद्भाव तथा पीड़ित जनों से सहानुभूति और आततायी के प्रति आक्रोश की भावनायें भी खूब पाई जाती हैं। युद्ध में घोड़ों के उपयोग की चातुरी, कुत्ते की स्वामिभक्ति और दूसरे घरेलू जानवरों का प्रेम तो आये दिन देखने को मिलता ही है। इस तरह की कई घटनायें इतिहास प्रसिद्ध भी हैं। ऐसा नहीं है कि ये पशु इस तरह का विशेष व्यवहार अपने मालिक के साथ ही करते हों। उनके अपने साथियों के प्रति भी उनका व्यवहार कई बार इतना सूझ-बूझ भरा होता है कि देख सुनकर दंग रह जाना पड़ता है।
कुछ दिन पूर्व अमेरिका के प्रसिद्ध पत्र ‘लाइफ’ में व्यक्ति की आंखों देखी घटना का वर्णन छपा था। हुआ यह कि एक भेड़ का बच्चा किसी तरह कांटेदार झाड़ी में उलझ गया था। उसने झाड़ी से निकलने की बहुतेरी कोशिश की परन्तु बेचारा अन्ततः असफल रहा और थककर निराश हो गया। पास ही उसकी मां भेड़ भी चर रही थी। झाड़ियों में खड़खड़ाहट सुनकर उसे न जाने क्या शंका हुई कि वह वहां देखने आयी। सामान्यतः इस प्रकार की आहट पाकर भेड़-बकरियां भाग जाती हैं परन्तु वह मादा भेड़ पास आई और अपने बच्चे को झाड़ियों में फंसा देखकर उसे निकालने की कोशिश करने लगी। वह भी विफल ही रही। निराश होने के बाद वह खेतों के पार चर रही दूसरी भेड़ों के पास गई। कुछ ही देर बाद वह एक नर भेड़ के साथ वापस लौटी। मेढ़े ने अपने सींगों से कांटेदार टहनियों को खींचना शुरू किया और कुछ ही देर में मेमना झाड़ियों से मुक्त हो गया। झाड़ियों से निकलने के बाद उसकी मां और नर मेढ़ा उस मेमना को चाट-चाटकर जिस प्रकार प्रेम प्रदर्शित कर रहे थे लगता था उसे विपत्ति से छूट जाने के लिए आश्वस्त कर रहे हों और उसका भय मिटा रहे हों।
आततायियों के प्रति रोष-आक्रोश की भावना केवल मनुष्यों में ही नहीं होती वरन् पशु-पक्षी भी अनीति का डटकर मुकाबला करते हैं। सामान्यतः कमजोर जानवर ताकतवर जानवर से डर जाते हैं और डरकर या तो भाग जाते हैं अथवा आत्म समर्पण कर देते हैं। परन्तु कई बार वे गजब की साहसिकता तथा समझदारी का परिचय देते हुये आततायी का डटकर मुकाबला करते हैं। जे.जे. रीमेन्स ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि—डबलिन में उनके मकान की खिड़की के पास अबावीलों के एक जोड़े ने घोंसला बनाया और उसमें रहने लगे। उन्हें रहते हुए कुछ ही दिन हुए थे कि एक गौरैया ने उनके घोंसले पर कब्जा कर लिया। अबाबील दम्पत्ति को यह देखकर बड़ा गुस्सा आया।
उन्होंने गौरैया को घोंसले से निकालने की जी तोड़ कोशिश की परन्तु गौरैया अपने शक्ति मद में आकर घोंसले पर अड्डा जमाये ही रही। अन्त में अवाबील दम्पत्ति अपने कुछ साथियों को ले आयी। उन्होंने गौरैया को घोंसले से बाहर निकालने की अपेक्षा उसकी उद्दण्डता का मजा चखाने का निश्चय कर लिया था। सभी अवाबीलें मिलकर अपनी चोंचों में कीचड़ भरकर लाने लगीं और उससे घोंसला का मुंह बन्द कर दिया। गौरैया अब भीतर ही बन्द हो गई थी कुछ दिन बाद जब वहां से घोंसला हटाया गया तो गौरैया मरी पाई गई। बेचारी को अपने किये की सजा जीवन से हाथ धोकर भोगनी पड़ी थी।
पशु-पक्षियों द्वारा किया जाने वाला यह विशेष व्यवहार आकस्मिक ही नहीं कहा जा सकता। मानवी बुद्धि की दृष्टि से इस तरह के सम्बन्धों की रीति-नीति नैतिक चेतना के जागरण से ही विकसित होती है। मनुष्य के भीतर भी अपने मित्रों व साथियों के प्रति निर्दोष, निस्वार्थ त्याग भावना का उदय होता है। बुरे से बुरे और दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति में भी कई अवसरों पर विपत्ति ग्रस्तों के प्रति करुणा का भाव जाग उठता और कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी अपने से बलवान आततायी से भिड़ जाने का साहस जुटा लेता है। कहने का अर्थ यह है कि नैतिक चेतना अथवा अन्तरात्मा की प्रेरणा सभी प्राणियों में होती है, वह पशु-पक्षी हो या मनुष्य-देवता। यह नैतिक चेतना अथवा अन्तरात्मा की प्रेरणा इस बात का प्रतीक है कि किसी भी प्राणी का जन्म और जीवन निपट उसका अपना मात्र ही नहीं है, बल्कि प्रत्येक प्राणी की समष्टिगत उपयोगिता है। प्रकृति ने उसे निजी स्वार्थों को पूरा करने के अलावा समष्टिगत उपयोगिता सिद्ध करने की भरपूर प्रेरणा प्रदान की है। मनुष्य को मिले अतिरिक्त साधन और विशेष सुविधायें तो इन प्रयोजनों को पूरा करने के लिए विशेष का बोध कराते हैं।
‘‘जब तक खतरा रहता मछली आगे-आगे चलती और जहाज पीछे-पीछे। जैसे ही साफ समुद्र आ जाता वह एक बार ऊपर उछलती और गोता लगाकर भाग जाती। नाविक समझ जाते थे, अब कोई खतरा नहीं है। एक बार एक जहाज के किसी अजनबी व्यक्ति ने उस विलक्षण मछली पर गोली दाग दी। गोली लगते ही मछली डुबकी लगाकर भाग गई और कई वर्ष तक नहीं दिखाई दी। इस बीच कई जहाज वहां दुर्घटना ग्रस्त हो गये।’’
‘‘कुछ दिन तक विश्राम करने के पश्चात् मछली का घाव ठीक हो गया। इसी बीच न्यूजीलैंड सरकार ने निषेधाज्ञा प्रसारित कर दी कि उस मछली को मारने वाला दण्ड का अधिकारी होगा। इसके कुछ दिन बाद ही वह मछली फिर दिखाई देने लगी। उसने मनुष्य की कृतघ्नता का बिल्कुल ध्यान न दिया और फिर से परोपकार के व्रत का पालन करने लगी। आश्चर्य यह है कि जैसे ही वह रोटूरा नामक उक्त जहाज को देखती वैसे ही डुबकी लगाकर भाग जाती। जब इस मछली की मृत्यु हुई तो उसकी असाधारण सेवा के लिये न्यूजीलैंड-वासियों ने उसका एक भव्य स्मारक बनाया। उसकी एक प्रस्तरमूर्ति प्रतिष्ठित की गई जो अब भी विद्यमान् है।’’
इस मछली का विचित्र वर्णन दिल्ली से प्रकाशित होने वाले—नव भारत टाइम्स के साहित्यिक संस्करण में छपा था। इसी पत्र में कैप्टन पी.जे. प्रसाद द्वारा लिखा हुआ लद्दाख सीमांत का एक और विवरण प्रकाशित हुआ था, जिसमें बताया गया है कि कुछ याकों ने बर्फीले तूफान से सीमा रक्षकों को बचाया था। जैसे ही तेज अंधड़ आता—बताते हैं याक पंक्तिबद्ध होकर खड़े हो जाते और गश्तीदल उनकी ओट में छुप जाता। इस तरह भयंकर, बर्फीले तूफान से बचकर गश्तीदल अपने खेमे तक पहुंच जाता।
यह घटनायें सिद्ध करती हैं कि—चेतन स्वरूप आत्मा ही सर्व-भूत प्राणियों में विद्यमान् है। अपने-अपने कर्मानुसार जीव विभिन्न शरीरों में प्रगट होता है, किन्तु जीव-मात्र की आत्मिक स्थिति एक जैसी है, इसलिये कभी किसी जीव को न मारना चाहिये, न सताना चाहिये। उनसे आत्म-विकास की शिक्षा लेनी चाहिये।
विश्व में दो प्रकार के पदार्थ पाये जाते हैं—जड़ और चेतन। वृक्ष, वनस्पति, पौधों, गुल्म-लताओं तक में चैतन्य के चिह्न प्रकट हो रहे हैं, किन्तु तमोगुण की अधिकता के कारण वे सब अविकसित प्राणी हैं, कीट-पतंग, वृक्षों की अपेक्षा थोड़ा अधिक विकसित हैं, पशु-पक्षियों का स्वाभाविक ज्ञान कीट-पतंगों से भी अधिक विकसित पाया जाता है। कई बार तो पशु-पक्षियों की विशेषतायें मनुष्य की बुद्धि और उसके चातुर्य को शर्मिन्दा करने लगती हैं। आहार, निद्रा, भय, मैथुन तक में ही नहीं, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, बुद्धि-विवेक में भी वे मनुष्य से बढ़े-चढ़े पाये जाते हैं। यद्यपि उनमें आत्म-कल्याण के लिये साधनायें करने वाला नैमित्तिक ज्ञान नहीं होता। वह लाभ केवल मनुष्य को ही प्राप्त है। पर यदि सामान्य जीवों की गतिविधियों को देखकर हम यह मान लें, कि आत्म-चेतनता कर्मानुसार अन्य योनियों में भी जाती है और यदि मनुष्य में धार्मिकता, सच्चाई, ईमानदारी उत्कृष्टता आदि नहीं है तो उसकी स्थिति पशुओं से भी निम्नतर है, तो अवश्य ही आत्मा को पहचानने और जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने का भाव जागृत हो सकता है।
साहस, दया और करुणा
आक्रमण और मृत्यु के भय से जिस तरह मनुष्य कई बार किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, वैसी ही घबराहट कई जीवों और पक्षियों को भी होती है, उससे पता चलता है कि वे भी जीवन और मृत्यु की श्रृंखला में जुड़े होते हैं और मोह आसक्ति अज्ञान के कारण उन्हें भी मृत्यु से ठीक उसी तरह डर लगता है, जिस तरह मनुष्य को।
अरब, सीरिया, मोसोपोटामिया और अफ्रीका आदि में शुतुरमुर्ग नाम का एक सात-आठ फुट लम्बा पक्षी पाया जाता है। शुतुरमुर्ग की मूर्खता प्रसिद्ध है। कोई खतरा दिखाई देने पर वह अपना सिर बालू में छिपा लेता है और समझ लेता है कि खतरा दूर हो गया। उसका गुस्सा भी उतना ही प्रबल होता है, गुस्से में वह भयंकर आक्रमण करता है। कहते हैं उसकी चोंच का प्रहार इतना तीक्ष्ण होता है कि लोहे की चादर में भी छेद हो सकता है।
शुतुरमुर्ग में स्नेह सद्भाव का भी विलक्षण भाव पाया जाता है। पक्षी होने पर भी वह जेबरा और हिरणों के साथ रहता है।
कुछ समय पूर्व सारस पक्षियों के सम्बन्ध में कहा जाता था कि सर्दियों में वह उड़कर देशान्तर को चला जाता है। यात्रा के समय वह कई छोटे-छोटे पक्षियों को भी अपनी पीठ पर बैठाकर उड़ जाता है। प्रवासी पक्षियों के सम्बन्ध में बड़ौदा के गायकवाड़ विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में खोजबीन करने वाले प्राणिविद प्रो. जे.सी. जार्ज ने इस विश्वास का उल्लेख किया है। यह न भी हो तो भी सारस का दाम्पत्य प्रेम विलक्षण माना गया है। नर या मादा को मारकर कोई उसे तब तक नहीं ले जा सकता, जब तक उसी तरह साथी को भी न मार दिया जाये।
पंजाब में करनाल जिले के थानेश्वर नामक स्थान के पास कुछ तालाब हैं। वहां सारसों के अनेक जोड़े निवास करते हैं। एक बार एक सारसी पर एक गीदड़ ने आक्रमण कर दिया। सारसी के पैर में जख्म हो गया, जिससे वह पीछे हट गई पर अब गीदड़ ने उसके छोटे बच्चे पर हमला कर दिया। इस बार सारसी की ममता ने प्रचण्ड रूप धारण किया। घायल होते हुए भी उसने साहस और बुद्धि से काम लिया। उसने चोंच से गीदड़ की आंखों में तीखे प्रहार किये जिससे भयभीत होकर गीदड़ भाग गया। उधर मादा की आवाज सुनकर नर सारस भी आ पहुंचा उसने भी गीदड़ पर हमला कर दिया, जिससे गीदड़ को भागते ही बना।
साहसी ही नहीं मनुष्येत्तर जीवों में दया और करुणा भी कम नहीं होती। बुन्देलखण्ड की एक घटना है, एक गांव का कोई 5 वर्ष का बालक खेलते-खेलते गांव के किनारे पर पहुंच गया। वहां से खेल प्रारम्भ होते थे। उधर से एक विषधर सर्प दौड़ा आ रहा था, सर्प उत्तेजित था इसलिये उसने उस बच्चे को ही घेर लिया। यह दृश्य वृक्ष की शाखा पर बैठा एक बन्दर देख रहा था। उसे बच्चे पर दया हो आई, वह चटपट नीचे उतरा और पीछे से जाकर सर्प को एक तमाचा जड़ा। सांप ने बच्चे को तो छोड़ दिया और बन्दर पर झपट पड़ा। बन्दर ने साहस और बुद्धि से काम लिया। वह वार भी करता था और प्रतिघात से भी बचता था। यह द्वन्द-युद्ध एक घण्टे चला और अन्त में विजय बन्दर की ही रही, उसने सांप को कूंच-कूंच कर जान से माल डाला।
गाय बहुत सीधा जानवर है, गायें बहुत लड़ती-भिड़ती नहीं हैं पर अपने बच्चे, कुनवे और साथियों के प्रति उनमें सामूहिकता और सहकारिता का कितना अच्छा भाव होता है, उसकी एक विचित्र घटना ओरछा में घटित हुई। उसे सुनकर मनुष्य की शक्ति और ज्ञान का दंभ मिथ्या प्रतीत होने लगता है। मनुष्य जो करता है, उसमें अपना स्वार्थ प्रधान रहता है पर गायों ने सबके स्वार्थ में अपना स्वार्थ सन्निहित सिद्ध कर दिखाया।
बात यों हुई कि एक दिन गायों का एक झुण्ड जंगल में चर रहा था। चरवाहे उन्हें जंगल में छोड़कर घर लौट जाते हैं। अब गायें आई ही थीं कि अचानक एक बाघ ने आक्रमण कर दिया। पहले तो गायें भागी पर जैसे ही उन्होंने देखा कि भागने पर भी किसी न किसी की मृत्यु अवश्यम्भावी है तो सब गायें रुक गईं। उन्होंने मिलकर एक घेरा बनाया। छोटे-छोटे बछड़ों को बीच में खड़ाकर आक्रमण की राह देखने लगीं। बाघ पहले तो सक-पकाया पर उसने गायों को भोला समझकर फिर आक्रमण कर दिया पर इस बार का आक्रमण महंगा पड़ा। 15-20 गायें सींगों से बाघ पर टूट पड़ीं। बाघ का शरीर क्षत-विक्षत हो गया और उसे भागते ही बन पड़ा।
मौलिक बुद्धि जैसी कोई चीज न होने पर भी मनुष्य को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए भावनाओं का आधार लिया जा सकता है। मनुष्य में भावनाएं होती हैं, यही ठीक है, परन्तु पशुओं में भी भाव सम्वेदनाएं होती हैं और वे मनुष्य से ज्यादा उन्हें अनुभव करते हैं। अन्तर है तो इतना ही कि मनुष्य भावनाओं को व्यक्त कर सकता है और पशु-पक्षी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकते।
भावों की यह अभिव्यक्ति भी मनुष्य अपने परिवार और समाज से ही सीखता है। मनुष्य के संसर्ग में रहने वाले अन्य कई प्राणी, पशु-पक्षी भी अपनी भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करना सीख जाते हैं। कहा जाता है कि मनुष्य के पास अपने भावों को व्यक्त करने के लिए एक समर्थ और समृद्ध भाषा है। अन्य प्राणियों के पास कोई भाषा नहीं है। लेकिन यह एक भ्रम भी हो सकता है कि अन्य प्राणियों के पास भाषा नहीं है। हो तो उन्हें भी देखा जा सकता है। यह बात और है कि मनुष्य उनकी वाणी को सुनता तो है, परन्तु समझ नहीं सकता अथवा मनुष्य ने अपनी भाषा का आवश्यकता के अनुसार अधिक विकास कर लिया और अन्य प्राणी उस क्षेत्र में पीछे रह गये। लेकिन यहां आकर मनुष्य को मात खा जानी पड़ती है। कोई मनुष्य आज तक पशु-पक्षियों की भाषा में बात करने या समझने में समर्थ नहीं हो सका है—जब कि जानवर उसके भाव यहां तक कि उसकी भाषा को समझने का अभ्यास बहुत जल्दी कर सकते हैं।
मनःशास्त्र वेत्ता पेटरराक ने एक चिंपैंजी पाला जिसे नाम दिया ‘कोको’ कोको के सम्बन्ध में राक का दावा है कि वह अपनी भावनाओं को भी व्यक्त कर सकता है। कोको ने साढ़े पांच वर्ष की आयु में सांकेतिक भाषा के 300 वाक्य सीख लिए।
कुछ और मनोवैज्ञानिकों ने कोको की परीक्षा ली तो उसने प्रत्येक व्यवहार की प्रतिक्रिया व्यक्त की और हर्ष-उल्लास के साथ खेद व दुःख भी व्यक्त किया।
शरीर, बुद्धि, भावनाएं उनकी अभिव्यक्ति और भाषा की दृष्टि से मनुष्य का अन्य प्राणियों की तुलना में बढ़ा-चढ़ा होना मात्र एक भ्रम है। यह आभास जरूर होता है कि वह अन्य प्राणियों से बढ़ा-चढ़ा और उन्नत है। सम्भव है यह भ्रम अन्य प्राणियों में भी हो। जिन आधारों पर मनुष्य की श्रेष्ठता सिद्ध की जाती है, वे तो झूठे हैं ही परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वस्तुतः मनुष्य अन्य प्राणियों के समान ही है। निस्सन्देह मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ और परमात्मा का सबसे बड़ा पुत्र है। क्योंकि मनुष्य जीवन एक अवसर है जिसमें यह सिद्ध किया जा सकता है कि परमात्मा ने हमें जो वस्तुएं, जो विशेषताएं और जो अधिकार दिये हैं उनका हम सदुपयोग कर सकते हैं और अपनी प्रामाणिकता, कर्त्तव्यपरायणता के आधार पर और अधिक उच्च स्थिति प्राप्त करने के योग्य सिद्ध कर सकते हैं।
मैत्री सद्भाव और कर्त्तव्य भावना
स्वार्थ और आत्म रक्षा की प्रवृत्ति सभी प्राणियों में पायी जाती है। यह प्रवृत्ति जीवन को प्रेम करने के फलस्वरूप ही विकसित हुई। यह बात दूसरी है कि उन प्रवृत्तियों का विकास कितने परिष्कृत अथवा विकृत रूप में होता है परन्तु यह सच है कि प्रत्येक प्राणी में एक ऐसी चेतन सत्ता विद्यमान है जो उसे निरन्तर ऊंचा उठने की प्रेरणा देती है। स्वार्थों की पूर्ति के साथ-साथ उच्च आदर्शों को जीवन में आत्मसात् करने की प्रेरणा देने वाली इस चेतन सत्ता का नाम ही अन्तरात्मा है।
मनुष्य समाज में जो कितने ही लोग, उच्च आदर्शों की पूर्ति के लिए अपने तुच्छ स्वार्थों को बलि देते देखे जा सकते हैं। समाज भी ऐसे व्यक्तियों को महामानव, देवात्मा, आदर्श, पुरुष कहकर सम्मानित करता है और श्रद्धा से शीश नवाता है। अन्तरात्मा के रूप में सम्बोधित की जाने वाली यह चेतना केवल मनुष्य के पास ही नहीं है वरन् अन्य पशु-पक्षियों में भी, जिनके पास बुद्धि का अभाव है, सोचने-समझने की क्षमता नहीं है इन आदर्शों के प्रति अगाध प्रेम देखा गया है। अमरीकी लेखक एच.ए. जेज ने पशु-पक्षियों के आपसी व्यवहार का लम्बे समय तक अध्ययन किया ओर अपने निष्कर्षों को ‘‘विजडम ऑफ एनिमल्स’’ नामक पुस्तक में लिखा। इस पुस्तक में एच.ए. जेज ने कितनी ही ऐसी घटनाओं का उल्लेख किया जो यह प्रमाणित करती हैं कि पशु-पक्षियों में भी नैतिक चेतना तथा आदर्शों के प्रति प्रेम होता है और वे इन आदर्शों को प्राण-पण से निवाहते भी हैं।
एच.ए. जेज ने अपनी पुस्तक ‘विजडम ऑफ एनिमल्स’ में एक पालतू बिल्ली तथा एक तोते की दोस्ती का उल्लेख किया है। सामान्यतः बिल्ली तोते को देखते ही झपटने की कोशिश करती है परन्तु उक्त पुस्तक में जिस बिल्ली और तोते का उल्लेख किया गया है, वे परस्पर एक दूसरे को बहुत प्रेम करते थे। घर में जब कोई नहीं होता तो बिल्ली तोते को इस प्रकार खिलाती रहती थी जैसे कोई बच्चा खिला रहा हो। एक दिन उनकी मालकिन रसोई में कोई चीज पकाने के लिए चूल्हे पर रखकर ऊपर कमरे में चली गई और वहां किसी काम में व्यस्त हो गयी। बिल्ली और तोता दोनों ही रसोई में खेलने लगे। खेलते-खेलते तोता पकने के लिए चढ़ाये गये बर्तन में गिर पड़ा। बिल्ली तुरन्त ऊपर वाले कमरे में दौड़ी गयी और मालकिन के कपड़े खींच कर, उछलकर व्याकुलता प्रदर्शित करने लगी। मालकिन ने झल्लाकर कहा क्या बात है? तो बिल्ली ने उसकी ओर कातर भाव से देखा तथा रसोई की ओर चल पड़ी। पता नहीं उसकी आंखों में क्या भाव थे कि मालकिन ऊपर वाले कमरे से निकलकर रसोई की ओर बिल्ली के पीछे-पीछे चल दी। वहां जाकर उसने देखा कि तोता चूल्हे पर चढ़ाये गये बर्तन में गिर पड़ा है और बुरी तरह छट-पटा रहा है। मालकिन ने उसे बाहर निकाला। यह बिल्ली उस समय अपनी मालकिन को बुलाने नहीं जाती तो निश्चित था कि तोते के प्राण निकल गये होते।
पशु अपने सजातीय प्राणियों-परिवार के सदस्यों बच्चों से तो प्रेम करते ही हैं, उन्हें साथ लिए घूमते और स्नेह का परिचय देते हैं। परन्तु दूसरे पशुओं से भी प्रेम सम्बन्ध बनाने, स्नेह, सौहार्द्र बढ़ाने और मैत्री करने के उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं। लेकिन मिलते अवश्य हैं। बरमिंघम (ब्रिटेन) में सर सैमुअल गुडबीईयर के यहां टट्टू था। उसकी एक खच्चर से अच्छी दोस्ती हो गयी थी और दोनों बाड़े से निकलकर देर तक घूमा करते थे। टट्टू को एक बाड़े में रखा जाता था। बाड़े का फाटक अन्दर से एक चटखनी से बन्द होता था और बाहर से कुण्डी द्वारा टट्टू अपना सिर फाटक के ऊपर तो कर सकता था किंतु वह बाहरी कुण्डी तक नहीं पहुंच सकता था, फिर भी वह अकसर बाड़े के बाहर खुले में घूमता देखा जाता था। यह एक रहस्य ही था कि बाड़े का फाटक कैसे खुल जाता था?
एक दिन सर सैमुअल ने देखा कि टट्टू पहले भीतरी चटखनी को झटके देकर खांचे से अलग करता और फिर रेंकना शुरू कर देता। उसकी आवाज सुनकर बाहर एक खच्चर आ जाता। खच्चर अपनी नाक से धकेलकर कुण्डी खोल देता फिर दोनों साथ-साथ घूमते।
‘वेजल’ नामक एक जर्मन पत्रिका में एक कुत्ते और बिल्ली की मित्रता का वर्णन छपा है। कुत्ते और बिल्ली जन्म जात शत्रु होते हैं परन्तु यह कुत्ता और बिल्ली साथ-साथ खाते-पीते, उछलते-कूदते और साथ-साथ उठते-बैठते थे। इनके मालिक ने कुत्ते और बिल्ली की मैत्री को परखना चाहा। वह केवल बिल्ली को अपने अपने कमरे में ले गया और उसे खाना दिया उसने बड़े मजे में खाना खाया। ऐसा लगा कि कुत्ते की अनुपस्थिति बिल्ली को जरा भी नहीं खली है। फिर एक तस्तरी में खाना रखकर वह तस्तरी अलमारी में रख दी गयी। अलमारी में ताला नहीं लगाया गया और बिल्ली को खुला छोड़ दिया गया। बिल्ली तुरन्त कमरे से बाहर गयी और थोड़ी देर में वह अपने साथी कुत्ते को वहां बुलाकर ले आयी। दोनों उस अलमारी तक गये फिर बिल्ली के धक्के से अलमारी का दरवाजा खोला तथा उछलकर कुत्ते को वह तस्तरी दिखाने लगी। कुत्ते ने तस्तरी देख ली और उसने पंजों से दबाकर तस्तरी को बाहर निकाल लिया। पहले उसने बिल्ली की ओर भी तस्तरी खिसकाई परन्तु बिल्ली पीछे हट गई जैसे वह कह रही हों मैं तो खा चुकी हूं। कुत्ते ने भी जैसे बिल्ली का आशय समझ लिया और तस्तरी को अपने पंजे में दबाकर सारा खाना खा गया। जब तक कुत्ता खाना खाता रहा तब तक बिल्ली उस स्थान पर ऐसे बैठी रही जैसे वह पास बैठकर खाना खिला रही है।
एक दूसरे के प्रति प्रेम और कोमल भावनाओं का प्रदर्शन तो ठीक है पशु-पक्षी अपनी मित्रता में अवरोध उत्पन्न करने वाले कारणों को भी दूर करते हैं। दूसरों की इच्छा या अनिच्छा अथवा बहकावे पर जुड़ने-टूटने वाली मित्रता का आधार स्वार्थ ही हो सकता है क्योंकि मित्रता सच्चे हृदय से की जाती है और बाहरी कारणों से स्थिर बनती अथवा टूटती नहीं है। प्रसिद्ध अंग्रेजी साप्ताहिक ‘स्टेट्स मेन’ में एक पिल्ले और सूअर की ऐसी ही मित्रता का वर्णन छपा था। वे दोनों साथ-साथ घूमते थे। उनके स्वामी को यह पसन्द न था इसलिए उसने पिल्ले के गले में लकड़ी का एक छोटा सा किन्तु वजनदार टुकड़ा बांध दिया, ताकि वह भाग न सके। किंतु उसने पहले ही दिन देखा कि उसे पिल्ले के गले में पड़ी रस्सी कट गई थी और वह सूअर के साथ स्वतन्त्र घूम रहा था। दूसरे दिन पिल्ले के गले में चमड़े का मजबूत पट्टा डाला गया और उसमें लकड़ी का टुकड़ा जंजीर से लटकाया गया। लेकिन उस दिन भी पट्टा कट गया और लकड़ी का वह टुकड़ा कहीं गिर पड़ा। पिल्ला अपने पट्टे को स्वयं कदापि नहीं काट सकता था, फिर वह कैसे कट जाता है यह देखने के लिए निगरानी की गई तो पाया गया कि यह काम उसके दोस्त सूअर का ही है।
यह तो हुई सामान्य मैत्र धर्म की बातें, साथ-साथ रहने, उठने-बैठने के कारण आपस में इस तरह की घनिष्ठता को स्वाभाविक भी कहा जा सकता है परन्तु पशु-पक्षी में कर्तव्य भावना, विपत्तिग्रस्तों के प्रति सहयोग, सद्भाव तथा पीड़ित जनों से सहानुभूति और आततायी के प्रति आक्रोश की भावनायें भी खूब पाई जाती हैं। युद्ध में घोड़ों के उपयोग की चातुरी, कुत्ते की स्वामिभक्ति और दूसरे घरेलू जानवरों का प्रेम तो आये दिन देखने को मिलता ही है। इस तरह की कई घटनायें इतिहास प्रसिद्ध भी हैं। ऐसा नहीं है कि ये पशु इस तरह का विशेष व्यवहार अपने मालिक के साथ ही करते हों। उनके अपने साथियों के प्रति भी उनका व्यवहार कई बार इतना सूझ-बूझ भरा होता है कि देख सुनकर दंग रह जाना पड़ता है।
कुछ दिन पूर्व अमेरिका के प्रसिद्ध पत्र ‘लाइफ’ में व्यक्ति की आंखों देखी घटना का वर्णन छपा था। हुआ यह कि एक भेड़ का बच्चा किसी तरह कांटेदार झाड़ी में उलझ गया था। उसने झाड़ी से निकलने की बहुतेरी कोशिश की परन्तु बेचारा अन्ततः असफल रहा और थककर निराश हो गया। पास ही उसकी मां भेड़ भी चर रही थी। झाड़ियों में खड़खड़ाहट सुनकर उसे न जाने क्या शंका हुई कि वह वहां देखने आयी। सामान्यतः इस प्रकार की आहट पाकर भेड़-बकरियां भाग जाती हैं परन्तु वह मादा भेड़ पास आई और अपने बच्चे को झाड़ियों में फंसा देखकर उसे निकालने की कोशिश करने लगी। वह भी विफल ही रही। निराश होने के बाद वह खेतों के पार चर रही दूसरी भेड़ों के पास गई। कुछ ही देर बाद वह एक नर भेड़ के साथ वापस लौटी। मेढ़े ने अपने सींगों से कांटेदार टहनियों को खींचना शुरू किया और कुछ ही देर में मेमना झाड़ियों से मुक्त हो गया। झाड़ियों से निकलने के बाद उसकी मां और नर मेढ़ा उस मेमना को चाट-चाटकर जिस प्रकार प्रेम प्रदर्शित कर रहे थे लगता था उसे विपत्ति से छूट जाने के लिए आश्वस्त कर रहे हों और उसका भय मिटा रहे हों।
आततायियों के प्रति रोष-आक्रोश की भावना केवल मनुष्यों में ही नहीं होती वरन् पशु-पक्षी भी अनीति का डटकर मुकाबला करते हैं। सामान्यतः कमजोर जानवर ताकतवर जानवर से डर जाते हैं और डरकर या तो भाग जाते हैं अथवा आत्म समर्पण कर देते हैं। परन्तु कई बार वे गजब की साहसिकता तथा समझदारी का परिचय देते हुये आततायी का डटकर मुकाबला करते हैं। जे.जे. रीमेन्स ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि—डबलिन में उनके मकान की खिड़की के पास अबावीलों के एक जोड़े ने घोंसला बनाया और उसमें रहने लगे। उन्हें रहते हुए कुछ ही दिन हुए थे कि एक गौरैया ने उनके घोंसले पर कब्जा कर लिया। अबाबील दम्पत्ति को यह देखकर बड़ा गुस्सा आया।
उन्होंने गौरैया को घोंसले से निकालने की जी तोड़ कोशिश की परन्तु गौरैया अपने शक्ति मद में आकर घोंसले पर अड्डा जमाये ही रही। अन्त में अवाबील दम्पत्ति अपने कुछ साथियों को ले आयी। उन्होंने गौरैया को घोंसले से बाहर निकालने की अपेक्षा उसकी उद्दण्डता का मजा चखाने का निश्चय कर लिया था। सभी अवाबीलें मिलकर अपनी चोंचों में कीचड़ भरकर लाने लगीं और उससे घोंसला का मुंह बन्द कर दिया। गौरैया अब भीतर ही बन्द हो गई थी कुछ दिन बाद जब वहां से घोंसला हटाया गया तो गौरैया मरी पाई गई। बेचारी को अपने किये की सजा जीवन से हाथ धोकर भोगनी पड़ी थी।
पशु-पक्षियों द्वारा किया जाने वाला यह विशेष व्यवहार आकस्मिक ही नहीं कहा जा सकता। मानवी बुद्धि की दृष्टि से इस तरह के सम्बन्धों की रीति-नीति नैतिक चेतना के जागरण से ही विकसित होती है। मनुष्य के भीतर भी अपने मित्रों व साथियों के प्रति निर्दोष, निस्वार्थ त्याग भावना का उदय होता है। बुरे से बुरे और दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति में भी कई अवसरों पर विपत्ति ग्रस्तों के प्रति करुणा का भाव जाग उठता और कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी अपने से बलवान आततायी से भिड़ जाने का साहस जुटा लेता है। कहने का अर्थ यह है कि नैतिक चेतना अथवा अन्तरात्मा की प्रेरणा सभी प्राणियों में होती है, वह पशु-पक्षी हो या मनुष्य-देवता। यह नैतिक चेतना अथवा अन्तरात्मा की प्रेरणा इस बात का प्रतीक है कि किसी भी प्राणी का जन्म और जीवन निपट उसका अपना मात्र ही नहीं है, बल्कि प्रत्येक प्राणी की समष्टिगत उपयोगिता है। प्रकृति ने उसे निजी स्वार्थों को पूरा करने के अलावा समष्टिगत उपयोगिता सिद्ध करने की भरपूर प्रेरणा प्रदान की है। मनुष्य को मिले अतिरिक्त साधन और विशेष सुविधायें तो इन प्रयोजनों को पूरा करने के लिए विशेष का बोध कराते हैं।