Books - जीव जन्तु बोलते भी हैं, सोचते भी हैं
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
बदलती परिस्थितियों में स्वयं भी बदलें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
परिस्थितियों के मनुष्य-जीवन पर पड़ने वाले जबर्दस्त प्रभाव से इनकार नहीं कर सकते पर वहां परमात्मा ने मनुष्य को ऐसी योग्यतायें भी दी हैं, जिनसे वह अपने आपको परिस्थितियों के अनुरूप ढाल सके। यदि मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता तो दण्ड भुगतने और असफल पड़े रहने का दोष उसी का है।
वस्तुतः परिस्थितियां संसार में कुछ हैं भी नहीं। अपने आपको परिवर्तनों के अनुसार बदलते न रहने की प्रतिक्रिया का नाम ही परिस्थितियां हैं। संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ अपने आपको बदलते रहते हैं, यही कारण है कि वे बिना किन्हीं साधनों के भी मुक्ति, आनन्द, स्वास्थ्य और नीरोगता का जीवन जीते रहते हैं। एक दूसरे को खा जाने की प्रवृत्ति पशुओं और जंगली जन्तुओं की कही जाती है, तथापि आज मनुष्य जितना अशांत और द्वन्द्वों में फंसा हुआ है उतने तो वन्य-पशु भी नहीं हैं, इसका एक मात्र कारण परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको न बदलने का दोष है।
वातावरण परिवर्तनशील है। वस्तुयें बदलती रहती हैं, किसी भी स्थान के अनुरूप बने रहने का तात्पर्य यह है कि परिस्थितियां चाहे जिस दिशा में मुड़ें हमें उन बदलती हुई परिस्थितियों के साथ बदलने की अथवा परिस्थितियों के अनुसार अपनी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक प्रणाली को ढालने की क्षमता होनी चाहिए। काम तभी चलेगा, जब हम इतने प्राकृतिक हों कि हमारी प्रत्येक गतिविधि प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ बहती चली जायें, यदि हम उसका उल्लंघन करेंगे तो निश्चय ही रोग, शोक, हारी-बीमारी का कष्ट उठायेंगे।
ध्रुवीय प्रदेशों में कुछ जन्तु जैसे लोमड़ी, रीछ और गिलहरियां अपने आपको वहां की परिस्थितियों के समरूप रखती हैं, वहां वर्ष भर बर्फ जमी रहती है। बर्फ श्वेत होती है, यह जीव भी अपने बालों को श्वेत रखते हैं, इससे यदि कोई बाहरी व्यक्ति इनको ढूंढ़ना चाहे तो ढूंढ़ नहीं सकता। रंग की समरूपता के कारण यह अपने आपको बर्फ की चट्टानों के साथ इस तरह समायोजित कर लेते हैं कि शिकारी इनके पास घूमते रहते हैं तो भी पहचान नहीं पाते। मनुष्यों को भी ऐसे ही समाज परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है, अन्य स्थानों पर पहुंचकर वह अपने आपको एकाकी अनुभव करके दुःखी अनुभव करता है पर यदि उसने अन्य प्राणियों से अनुकूलन की विद्या सीखी होती अर्थात् उस वातावरण के अनुरूप अपने आपको ढाल लेने की योग्यता का उपयोग करता तो वह जहां भी जाता, वहीं परस्पर प्रेम, विश्वास, एकता और आत्मीयता स्थापित करके प्रसन्नता अनुभव करता।
मरुस्थल में पाई जाने वाली बकरियां, हिरण और ऊंट आदि वहां की प्रकृति को अक्षरशः गृहण कर लेते हैं, जिससे उनके शरीर भी भूरे और लहरियोंदार हो जाते हैं। कोई देर से यह नहीं जान सकता कि वहां कोई खड़ा है क्या, और इस प्रकार वे अपने जीवन को सुरक्षित किये रहते हैं। कई सर्प जिस मिट्टी में रहते हैं, उसी रंग के हो जाते हैं, तितली पौधों-पौधों में जाकर उनके सौरभ और सौन्दर्य का आनन्द लेती है, इसके लिये वह किसी फूल से बंधती नहीं वरन् अपने आपको सभी फूलों के समान रंग-बिरंगा बना लेती है। टिड्डी जैसे कई कीड़े जो हरी-पत्तियां ही खाते हैं, अपने आपको हरा रखते हैं, वह हरे वृक्षों में बैठे रहते हैं पर बाहर का कोई व्यक्ति उनका पता नहीं लगा सकता।
समुद्री चिड़ियायें जैसे फ्लावर्स भारद्वाज (हार्क) टिटहरी आदि खुले स्थानों पर अण्डे देते हैं। टिटहरी, सारस आदि पक्षी पानी के बीच खुले भाग में अण्डे देते हैं। यदि वे अण्डों का रंग अपनी मनमर्जी से कुछ भी रखते तो कभी भी कोई हमलावर जानवर आते और उन्हें उसी तरह मारकर खा जाते, जैसे सामाजिक जीवन में संग्रह-वृत्ति वाले धनी लोगों को, जो दूसरे पीड़ित प्रजा वर्ग की सुविधाओं का कभी भी ध्यान नहीं देते, चोर और डकैत लूट ले जाते हैं। सामाजिक जीवन से अपना ताल-मेल न रखकर अपनी खिचड़ी अलग पकाने वाले लोग अपने आप कितना ही अहंकार प्रदर्शित करें पर भीतर अपनी सुरक्षा के लिये सबसे अधिक डरने वाले दुःखी लोग वे ही होते हैं, जो समाज की परिस्थितियों में बने रहते हैं, वह इन पक्षियों की तरह हैं, जो चौड़े में अण्डे देते हैं पर उनका रंग इस तरह का रखते हैं कि जमी के रंग में और उनके रंग में कोई अन्तर दिखाई न दे। चील और बाज की आंखें बड़ी तेज होती हैं, वे ऊपर मंडराते रहते हैं पर उन्हें इस अण्डों का पता भी नहीं चल पाता। समुद्र में एक चपटी मछली (फ्लैटफिश) पाई जाती है, इसी कोटि का सर्वत्र पाया जाने वाला जन्तु गिरगिट है, ये जहां भी रहते हैं, अनुकूलन के द्वारा अपनी सुरक्षा बनाये रखते हैं। गिरगिट अपनी ओर किसी दुश्मन को आते देखता है तो वह जिस स्थान पर होता है, उस स्थान का रंग निकालकर उसी में छुप जाता है। दुश्मन समझ नहीं पाता और इधर से उधर निकल जाता है, कई बार वे कोई तीव्र रंग निकालकर दीवाल खड़ी कर देते हैं और आप स्वयं अपने आपको बचाकर निकाल ले जाते हैं। प्रकृति के यह उदाहरण बताते हैं कि संसार में अस्तित्व उन्हीं का सुरक्षित है, जो स्थिति के अनुसार अपने आपको बदल सकते हों।
यह रंग बदलने की कला मनुष्य-जीवन में बड़े काम आती है। यदि हम अपने वातावरण का चारों ओर चौकसी से निरीक्षण करते रहें। उदाहरण के लिये आज लोगों में खांसी, खसरा, कैंसर, तपेदिक आदि रोग बढ़ रहे हैं, हमें देखना चाहिये कौन-सी बुराइयां हैं, जो इन्हें जन्म देती हैं। अप्राकृतिक रहन-सहन, आहार-विहार, धूम्रपान, आलस्य, असंयम आदि के कारण ही यह बुराइयां बढ़ती हैं, यदि हमारी भी परिस्थितियां ऐसी ही हैं तो उनसे सुरक्षा का उपाय यही है कि हम अपना रंग बदल डालें अर्थात् उन बुराइयों के आवरण को ही उतार फैंके।
अनुकूलन की इस योग्यता का यह अर्थ नहीं कि यदि हम किसी बुरे समाज में जाते हैं तो वहां की बुराइयों को आत्मसात करना प्रारम्भ कर दें। ऐसी परिस्थितियों से बचाव की प्रेरणा कालिमा नामक तितली से ले सकते हैं। इसके पंखों का ऊपरी रंग चमकदार होता है, परन्तु सतह का रंग सूखी पत्ती की तरह का होता है। जब कभी वह किसी पौधे पर पंख सिकोड़कर बैठती है तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे यह कोई सूखी पत्ती हो। मनुष्य अपने मूल व्यक्तित्व को इस तरह आकस्मिक काल में छिपाकर अपनी सुरक्षा बनाये रख सकता है पर जो अपने व्यक्तित्व को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाते हैं, शेखी-खोरी करते हैं, वे राह चलते, चाहे जिन मामूली व्यक्तियों के द्वारा ठग लिये जाते हैं। दंडकीट (हाइड इन्सेक्ट) नामक कीड़ा सूखी टहनी की तरह का होता है, रंग भी उसी तरह का कुछ भूरा काला-सा होता है, मोटाई भी पतली टहनी के समान ही होती है। इसके पंख ही बड़े होते हैं पर अपनी इस विशेषता को वह बड़ी चतुराई से छिपाता है; जब किसी टहनी पर बैठता है तो पंखों को शरीर से इस तरह चिपका लेता है कि दूर से देखने पर ऐसा लगता है, जैसे यह पत्तीदार कोई टहनी ही हो और इस तरह वह अपने आपको दुश्मन से बचा लेता है। ये उदाहरण बताते हैं कि वातावरण समकूलता से व्यक्ति अपनी आत्म-रक्षा कर सकता है। इसमें उसे कुछ भी हानि नहीं होती।
बर्फीले क्षेत्रों में पाये जाने वाले रीछों के पास कोई वस्त्र नहीं होते, वे वहां के वातावरण को ही अपने में आत्मसात करके सुरक्षित रहते हैं। जिन दिनों बर्फ और कड़ाके की सर्दी पड़ती है, बेचारा स्वयं भी जकड़कर बर्फ में दब जाता है। छह महीने तक भालू उसे में कुछ खाये-पिये बिना ही पड़ा रहता है, यदि आदमी की तरह उसने भी कृत्रिम जीवन बनाया होता, अधिक कपड़े पहनने और तंग मकानों में रहकर अपने आपको ज्यादा शानदार दिखाने की भूल उसने की होती, असंयमित जीवन बिताया होता, तो एक ही कड़ाके में ढेर हो गया होता पर प्रकृति माता की गोद में पड़े रहने के कारण उसमें इतनी क्षमता आ जाती है कि वह छह महीने दबा रहकर भी मरता नहीं वरन् यह समय उसकी आयु-वृद्धि के काम आता है। छह महीने बाद जब धूप निकलती है, ऊपर की बर्फ पिघलकर बह जाती है, शरीर के रक्त में थोड़ी गर्मी आती है तो रीछ ऐसे अंगड़ाई लेकर उठ खड़ा होता है, जैसे रात की नींद लेकर सवेरे वह नई ताजगी प्राप्त कर रहा हो। प्रकृति का घनिष्ठ सान्निध्य हमें भौतिक परिस्थितियों से सदैव ही सुरक्षा प्रदान करता है। सरलता और सीधापन प्रकृति का स्वभाव है, हम जब अपनी मान-मर्यादा, पद-प्रतिष्ठा, धन-पुत्रों के बनावटी आवरण उतार देते हैं तो ऐसे ही सीधे, स्वाभाविक, सरल और सौम्य प्रतीत होते हैं, जैसे प्रकृति के दूसरे भोले-भाले प्राणी। कोई कहेगा, ऐसी स्थिति में तो जो आवेगा, हमें वह नष्ट कर डालेगा, बात ऐसी नहीं। प्रकृति हमें परिस्थितियों के अनुरूप संघर्ष के लिये भी उत्साहित करती है। हम उसके लिये तैयार न हों, तब तो एक दिन का जीवित रहना भी कठिन हो जाये। बुराइयों और दुष्प्रवृत्तियों का सामना करने के लिये भयानक आकार ‘टेरीफाइंड अपियरेन्स) भी रखना आवश्यक है। हरे टिड्डे (ग्रास-होपर्स) दुश्मन को देखते ही अपने पंख फैलाकर भयानक आकृति बना लेते हैं। दुश्मन अचम्भे में पड़ जाता है और उसे चुपचाप लौटना ही पड़ता है। जब तक बन पड़ता है बिल्ली आत्म रक्षा के लिये भागती है पर जब वह यह समझती है कि कुत्तों से बचकर भाग निकलना सम्भव नहीं, तब वह अपने दांत, मूंछें और आंखों को ऐसे तरेरकर खड़ी हो जाती है कि कुत्तों की सिट्टी गुम हो जाती है और वे आक्रमण करना भूल जाते हैं। प्रकृति का यह गुण हमें बताता है कि यदि साहस और हिम्मत हो तो मनुष्य अपने से कई गुने बलवान् और भयानक व्यक्तियों से भी मोर्चा लेकर उन्हें परास्त कर सकता है पर साहस बाहर की देन नहीं, मनुष्य को उसे परिस्थिति के अनुरूप अपने ही भीतर से जागृत करना पड़ता है। यदि परिस्थिति आने पर वह संघर्ष के लिये तैयार नहीं होता तो कोई भी बुरा व्यक्ति या पशु उसे बन्धन से मार सकता है।
शत्रु के विरोधी पक्ष में आ जाने के कारण भी हम अपनी सुरक्षा ही नहीं अनुभव करते, वरन् संसार की बुराइयों के विरुद्ध अपना साहस प्रदर्शित करने का यश भी प्राप्त करते हैं। प्रकृति का यह पक्ष हमें यह बताता है कि विरोधी शक्ति यदि न्यायोचित है तो कम शक्तिशाली होने पर उसके साथ रहने से बुरे तत्त्वों से रक्षा हो जाती है। हमारे जीवन में सैकड़ों बुराइयां होती हैं। हम समझ नहीं पाते, उन्हें कैसे दूर करें पर जब ‘अणुव्रत’ सिद्धान्त के आधार पर कोई एक छोटी सी अच्छाई का भी व्रत लेकर उसका निष्ठापूर्वक पालन करने लगते हैं तो हमारी बुरी आदतों, बुरे तत्त्वों से रक्षा हो जाती है। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री वेट्स ने दक्षिण अमेरिका में जीव-जन्तुओं की बहुत दिन खोज की थी, उन्होंने पीयरिड नामक तितली का वर्णन करते हुए लिखा है—‘‘कुछ पक्षी हेलीकोनिड तितली का शिकार नहीं करते। पर उन्हें पीयरिड का शिकार करना अच्छा लगता है। पीयरिड उनसे अपनी रक्षा करने के लिये विरोधी पक्ष के साथ हो जाती है। यद्यपि हेलीकोनिड में उसकी रक्षा करने की शक्ति नहीं होती किन्तु विरोध के फलस्वरूप ही वह आक्रमणकारी पक्षियों की दुष्टता को निरस्त कर देती है।’’
अपने आपको परिस्थिति के अनुकूल ढालने की यह सूझ मनुष्य ने भी विकसित की होती तो वह आज परिस्थितियों का दास न होकर मनचाही परिस्थितियां उत्पन्न करने में समर्थ रहा होता। यदि हम अपन दृष्टिकोण में अब भी यह परिवर्तन कर लें, तो भविष्य में अपने जीवन को उन्नत, सफल और सुरक्षित बनाये रख सकते हैं। प्रकृति का यह सिद्धान्त सदैव समरस और अकाट्य है।
वैटसिन नकल करने की कला (दि आर्ट आफ वैटसिन एडाप्शन) जीव विज्ञान (जूलाजी) का एक बहु चर्चित सिद्धान्त है, जिसका अर्थ होता है, सामाजिक बुराइयों से आत्मरक्षा के लिये अपने आपको बदलना। बुराइयां कमजोर मन वालों पर आक्रमण करती हैं, हमें अभ्यास से अपने मन को ऐसा बनाना चाहिये, जिसमें कोई भी अप्रिय परिस्थिति टकराकर ऐसे लौट जाये जैसे पहाड़ खाड़ी में समुद्री लहरें।
जर्मन वैज्ञानिक श्री मुलर ने बहुत दिन तक अध्ययन करने के बाद बताया कि वंश परम्परा से कुछ तितलियां भिन्न जाति की होती है, किन्तु वे अपना रंग-रूप और आकार इस तरह बनाती हैं, जैसे वह तितलियां जो स्वाद में कटु होती हैं और दुश्मन जिन्हें खाना तो दूर पास तक नहीं आते। इस तरह के कमजोर होने पर भी अपना बचाव कर लेती है।
ऐसी ही एक कला ‘मुलैरियन’ नकल करने की कला (दि आर्ट आफ मुलैरियन एडाप्शन) कहते हैं, इसमें समान प्रकृति के लोगों के साथ मिलकर ऐसा संगठन बनाया जाता है, जिससे दुश्मन अपने आप ही पीछा करना छोड़ दे। धर्मशास्त्र में उसे तितीक्षा की संज्ञा दी जाती है। स्वामी विवेकानन्द जिन दिनों योगाभ्यास कर रहे थे उनके मन में कई प्रकार की वासनायें भी भड़कती रहती थीं। कई बार यह गन्दे विचार इतने तीव्र हो उठते थे कि उनको हटाना कठिन हो जाता था। विवेकानन्द हैरान थे, क्या करें तभी उन्हें एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया। उन्होंने देखा एक ऐसा कीड़ा है जो चींटियों के बार-बार पकड़कर खा जाता है। दुश्मन से बचने के लिये इन चींटियों ने एक तरकीब निकाली। पास ही कुछ ऐसी मकड़ियां रहती थीं, जिनका आकार और रंग-रूप इन चींटियों की तरह का था। चींटियों ने उनसे मेल-मिलाप कर लिया और उनके साथ ही रहने लगी। चींटियों और मकड़ियों के पास-पास आ जाने से उनकी संख्या भी अधिक हो गई।
लोभी व्यक्ति को जिस प्रकार हित-अनहित का, अच्छे-बुरे का विवेक नहीं रहता, उसी प्रकार उस कीड़े ने भी चींटियों की बढ़ोत्तरी देखी तो उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने घात लगाई और टप से चींटी के धोखे में एक मकड़ी को पकड़ लिया। उस मकड़ी का स्वाद इतना जहरीला था कि कीड़े को मूर्छा आ गई। होश आने पर वह इतना डर गया कि फिर उसने दुबारा चींटियों को छेड़ने का साहस नहीं किया। इस दृश्य ने स्वामी विवेकानन्द को एक नई सूझ प्रदान की। उन्होंने निश्चय कर लिया कि यदि अब दुबारा कभी मन ने दुर्वासनायें उठीं तो उसे भी ऐसा ही कड़ुवा स्वाद चखावेंगे। दैववश उसी दिन जब वे भोजन कर रहे थे, एक लड़की उनके पास आ गई। उसे देखते ही उनका मन चंचल हो उठा। स्वामी जी तो पहले सही घात में थे। उठे और जलते तवे पर बैठ गये। सारा चूतड़ जल गया। लड़की चीख मारकर भाग गई। विवेकानन्द एक महीने अस्पताल में तो पड़े रहे पर फिर दुबारा उनके मन में कभी कोई पाप-भावना नहीं आई।
डोनाउस क्राइसीपस नामक तितली, ततैये (वास्प्स) और टिड्डे (हारनेट्स) आदि अपने दुश्मनों से बचने के लिये बहुत चमकीले, भड़कीले, लाल, काले, पीले रंग बदलने, दुर्गन्ध छोड़कर अपने आपको क्रोधी और जहरीला दिखाने की क्रिया करते हैं। दुश्मन डरकर भाग जाता है। इसी प्रकार मन में उठने वाली बुराइयों को उनके अप्रिय परिणाम दिखाकर डराया और धमकाया जा सकता है, उदाहरण के लिए पढ़ने में मन न लगे तो फेल हो जाने की निराशा का चित्रण, काम न करने पर भूख-प्यास और कपड़े-लत्ते की तंगी का चित्रण, काम-वासना भड़के तो रोग, बुढ़ापा और दुर्बलता का चित्रण करके उन्हें डरा देना चाहिये।
हेनरी फोर्ड ने इसी सिद्धान्त के रचनात्मक अभ्यास से औद्योगिक सफलता अर्जित की थी। उन्होंने अपने एक संस्मरण में लिखा है—‘‘व्यापार के प्रारम्भिक दिनों में मुझे बड़ा आलस्य और अनुत्साह रहता, उस समय मैं अच्छे सम्पन्न भविष्य की कल्पना करता। मेरे बंगले होंगे, कार होगी, दास-दासियां होंगे, सुख के सब साधन होंगे तो कितना अच्छा होगा। इन कल्पनाओं से आलस्य का अन्त हो जाता और मैं फिर दुगुने उत्साह से काम करने लगता। इसी तरह बढ़ते-बढ़ते मैं वर्तमान स्थिति तक पहुंचा।’’ जीव-जन्तु अपने बचाव के लिए इस सिद्धान्त को बहुत उपयोग करते हैं, उदाहरण के लिए कटमछली ता सीपिया अपने शरीर की एक थैली में स्याही जैसा एक तरल पदार्थ भरकर रखते हैं। अपने इस संचित संस्कार के कारण वे निर्भय विचरण करते रहते हैं, यदि उन्हें सामने से कोई दुश्मन आता दिखाई दिया तो उस थैली का रंगीन तरल पदार्थ काफी दूर तक उड़ेलकर पानी को रंगीन करके आप उसी में छिपकर बैठ जायेंगे। शत्रु शिकार को देख नहीं पायेगा या एक ओर खड़ा ताकता रहेगा, मछली अपनी मस्ती से दूसरी ओर निकल जायेगी। जिन लोगों में ऐसे रचनात्मक स्वभाव होते हैं, वे ही संचार में उच्च सफलताएं प्राप्त करते हैं, जो निराशावादी हर परिस्थिति के फंदे में फंस जाने वाले होते हैं, उन्हें तो छोटे-छोटे आघात ही मारकर नष्ट कर देते हैं।
कछुआ, सीप, घोंघा, मगर आदि अपनी त्वचा के ऊपर सुरक्षात्मक आवरण रखते हैं और जी चाहे जहां विचरण करते हैं, उनका बड़े से बड़ा शत्रु भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। संसार में माना विषम परिस्थितियों के अम्बार लगे हैं पर मनस्वी व्यक्तियों के लिये जैसे परिस्थितियां होती ही नहीं, वे मन को इतना मजबूत बना लेते हैं कि चाहे लाभ हो या हानि, सुख हो या दुःख, यश मिले या अपयश वे अपने आदर्श-सिद्धान्तों से उन सबको दबाकर मस्ती और निश्चिंतता का जीवन जीते हैं। ऐसे जीवन क्रम की गीता में बड़ी प्रशंसा की गई है। कर्मयोगी के लिये सांसारिक गति-विधियों से बचाव के लिए ऐसा ही सुरक्षात्मक आवरण रखना नितान्त आवश्यक होता है।
संसार ऐसा विलक्षण है कि यहां बहुत शक्तिशाली और रूप-गुणशील भी कई बार बुराइयों की, आक्रमण की लपेट में आ जाते हैं, इसलिये कहते हैं, न्याय और आत्मा की आवाज के लिये सबको समान रूप से प्रयत्नशील रहना चाहिए, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। दोनों समाज में रहते हैं, दोनों को ही सामाजिक उत्तरदायित्वों का पालन अनिवार्यतः करना चाहिए।
शेर जंगल का राजा होता है, बड़ा शक्तिशाली और एकान्तवासी। तो भी कुछ मक्खियां और कीड़े उसे ऐसे काटते हैं कि कई बार उसकी जान के ग्राहक ही बन जाते हैं। उत्तरी अमेरिका में एक खूबसूरत पक्षी ‘स्कंनस्’ पाया जाता है और सूक्ष्मदर्शी चमगादड़ भी अपने दुश्मनों से बच नहीं पाते। यह अपनी आत्म-रक्षा के लिए अपने शरीर से एक विशेष प्रकार की दुर्गन्ध निकालकर दुश्मन को भगाते हैं। तात्पर्य यह है कि हमें संघर्ष के क्षणों में उन परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए जो हमारी आदत के अनुकूल नहीं हों। इसके लिये ‘पारक्यूपाइन’ की तरह पहले से ही तैयार रहना चाहिये। इस जन्तु के शरीर पर छोटे-छोटे कांटे होते हैं। स्याही के शरीर पर भी कांटे होते हैं, साधारणतया वे उसके काम नहीं आते। क्रोध और नाराजी भी मनुष्य के लिये हितकारक नहीं पर जिस तरह आत्म-रक्षा के लिये यह जीव अपने कांटों को तरेर कर उन्हें डराकर भगा देते हैं, उसी तरह मनुष्य को परिस्थितियों में क्रोध और नाराजी भी व्यक्त करना ही चाहिये। उस समय यही हमारे धर्म हो जाते हैं। राष्ट्र-रक्षा, सामाजिक जीवन में व्याप्त बुरे तत्त्वों चाहे वे चोर-डकैत हों अथवा दहेज, रिश्वत लेने वाले क्रोध और नाराजी के कांटे तरेरने ही चाहिये, यदि प्रजा अपना यह अस्त्र नहीं संभालती तो अवांछनीय तत्त्व बढ़ते हैं और समाज पर छा कर सर्वत्र त्रास देते हैं।
एटम बम विनाशकारी है, अन्य शस्त्रास्त्र लगता है, मानवता के हित में नहीं हैं पर सशस्त्र दुश्मन से बचाव की आवश्यकता आ पड़े तो प्रकृति यह बताती है कि आत्म-रक्षा के लिए वैज्ञानिक अस्त्रों का भी प्रयोग करना धर्म है। टारपिडो और नारसीन नामक मछलियों में शरीर से विद्युत उत्पन्न करने की क्षमता होती है। साधारणतया वह ऐसा करती नहीं पर यदि कोई दुश्मन पीछा करे तो ये विद्युत करेंट उत्पन्न कर उन्हें मार भगाती हैं। मनुष्य इन सभी गुणों का सम्मिश्रण है, प्रकृति अपने नन्हे जीवों के द्वारा उसे यह प्रेरणा देती है कि परिस्थिति के अनुसार मनुष्य को अपनी प्रत्येक क्षमता का प्रयोग कर मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
अमेरिका में ‘हागनोज्ड’ नामक एक सर्प पाया जाता है, वर्जीनिया में ‘अपोसम’ नामक कंगारू पाया जाता है, दोनों में परले सिरे की चतुराई होती है, यह जब अपने शिकारी को देखते हैं तो ऐसे निश्चेष्ट हो जाते हैं, मानो मर गये हों। शिकारी इन्हें मृत समझकर झुड़ता है तो यह पीछे से आक्रमण कर देते हैं। कई बार हमारे सामने भी ऐसी परिस्थितियां आती हैं, जब कोई क्षमता काम नहीं देती, उस समय ‘‘देखि दिनन को फेर रहिमन चुप ह्वै बैठिए’’ वाली कहावत के अनुसार चुप पड़ जाये पर जैसे ही परिस्थिति अनुकूल आये फिर क्रियाशील हो जाये। आत्म-रक्षा, आत्म-विकास और समाजिक संघर्ष हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें हैं, उसके लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न स्वरूप बनाकर नाटककारिता का परिचय और अभिनय का आनन्द लेते हुए जीना चाहिये। ऐसा रंग-बिरंगा जीवन ही सफल और सार्थक होता है।
रहस्यमय मछली के रहस्य
परिस्थितियों के अनुसार स्वयं का जीवनक्रम बदलने और प्रतिकूलताओं में भी जी लेने की सूझबूझ ईल मछली में देखी गयी। वर्षा ऋतु इन मछलियों के लिए प्रतिकूल पड़ती है। इसलिए ये अगस्त के महीने में, वर्षा आरम्भ होते ही अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र चली जाती है और जनवरी में, जब वर्षा बन्द हो जाती है तो वापस अपने स्थान पर लौट आती है। सत्रहवीं शताब्दी में जल-जन्तु के शोधकर्त्ता वैज्ञानिक फ्रांसिस्को रेडी ने ईल मछली से संबन्धित इन तथ्यों का पता लगाया।
यों सप्र की आकृति वाली इस मछली को सदा से रहस्यमय समझा जाता है। न केवल अपनी आकृति के कारण, वरन् प्रकृति से भी यह विचित्र और रहस्यमय है। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक ईल मदली के बारे में यह दन्त कथा प्रचलित थी कि वह एक विशेष जाति के सर्प से ही विवाह रचती है। पर सत्रहवीं शताब्दी में जल-जन्तु शोध कर्त्ता फ्रांसिस्को रेडी ने ईल के बारे में यह विचित्र बात देखी। अगस्त से जनवरी तक यह मछली वर्षा-ऋतु में अपने पूरे परिवार के साथ बाल-बच्चों सहित अन्यत्र चली जाती है। इतने दिन तक वह कहां रहती है और यकायक बच्चे कहां से आ जाते हैं यह एक रहस्य ही बना हुआ था जिसको फ्रांसिस्को महोदय ने ढूंढ़ निकाला।
ईल की कई जातियां हैं वे इंग्लैंड, आइसलैण्ड, उत्तरी अमेरिका ग्रीनलैण्ड, जापान, आस्ट्रेलिया, आर्कलैण्ड, न्यूजीलैण्ड आदि देशों के नदी-तालाबों में पाई जाती हैं। पर जब उसको, ऋतुकाल आता है तो प्रणय के लिए एवं प्रजनन की प्रक्रियायें सम्पन्न करने के लिए समुद्र में जाने का रास्ता ढूंढ़ती है। नदी, नालों को पार करती हुई वह किसी न किसी प्रकार समुद्र में जा पहुंचती है। वहीं वह पत्नी पद ग्रहण करती है और वहीं माता बनती है। यदि उसे समुद्र में जाने का अवसर न मिले तो फिर आजीवन ब्रह्मचारिणी का कठोर व्रत पालन करके ही जिन्दगी काट लेती है।
डेनमार्क निवासी एक जन्तु वैज्ञानिक जौनेस सिमिट ने पता लगाया कि ईल समुद्र में ही नहीं वरन् एक विशिष्ट स्थान पर ही अपना गृहस्थ बनाती है। जहां-तहां वह प्रणय प्रजनन नहीं करने लगती। योरोप की ईल को अमेरिका पहुंचने की लम्बी और कष्ट साध्य यात्रा में कई बार डेढ़ वर्ष या ढाई वर्ष तक लग जाते हैं। यह ठीक समय पर चलती है और ठीक समय पर पहुंचती है। यदि वह समय चूक जाय तो वह एक वर्ष रुकना ही उचित समझती है, समय की पाबन्दी और चलने तथा पहुंचने का समय उसे रेलगाड़ी की तरह ही याद रहता है और उसमें वह चूक प्रायः नहीं ही करती।
यह बड़ी कठिन यात्रा है। इसमें उस अनुकूल आहार न मिलने पर भूखा रहना पड़ता है। समुद्री क्षारों के प्रभाव से उसकी चमड़ी का रंग पलट जाता है। उस पर भी मांसाहारी जल-जन्तुओं से प्राण बचे तब वह अपने प्रियतम का घर ढूंढ़ पाती है। उसका विवाह समुद्र की तली में 200 से 400 मीटर नीचे होता है। वहीं वह अण्डे देती है। अण्डों से निकलने के बाद जब बच्चे चलने-फिरने लायक हो जाते हैं तो उनके लालन-पालन का भार पति के कन्धों पर नहीं डालती वरन् अपने इन सब बाल-गोपालों को लेकर वह प्रदेश की ओर चल पड़ती है, जहां का अन्न-जल खाकर वह बड़ी हुई थी।
अविकसित समझी जाने वाली ईल मछली—मर्यादा पालन और शालीनता के सम्बन्ध में विकसित और बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्य को बहुत कुछ सिखा सकती है, प्रणय और प्रजनन के लिये उपयुक्त पात्र और स्थान का वह चुनाव करती है और उसे क्रीड़ा-कौतुक भर नहीं मानती वरन् उसके लिए कष्ट साध्य तपस्या भी करती है। मातृभूमि का प्यार उसे कितना अधिक है। लौटकर वहीं आती है और समुद्र जैसे विशाल साधन सम्पन्न के सहारे रहने की अपेक्षा अपने यहां की अन्न-जल प्रदान करने वाली मातृभूमि में ही दुःख-सुख के दिन काटती है। भारत के अन्न-जल से पले, यहीं से शिक्षा पाये लड़के जब अधिक सुविधाओं के लालच में विदेशों के लिए भाग खड़े होते हैं और अपनी योग्यता से मातृभूमि को लाभान्वित करने के समय उसे धोखा देकर चले जाते हैं, तब यही कहना पड़ता है कि इन सुशिक्षितों से तो अशिक्षित ‘ईल’ हजार गुनी अच्छी है।
मर्यादाओं और नीति नियमों से बंधा शिष्ट-शालीन व सभ्य जीवन ही प्रकृति की प्रेरणा है। परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदल लेना और प्रगति क्षेत्र में आगे बढ़ते रहने पर ही जीवन सफल और सार्थक होता है। प्रकृति अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को यह शिक्षण देती है।
इन सभी गुणों और शिक्षाओं से ऊपर है स्वायत्ता का गुण। संसार में सामर्थ्यवान लोग ही जीते हैं। ‘‘वीर भोग्या वसुन्धरा’’ का उद्घोष सबसे पहले हम भारतीयों ने ही किया था, उसका आधार हमारी समर्थता ही थी। सामर्थ्यवान मनुष्य ही अपने आपको, अपनी बुराइयों को तथा शत्रुओं को जीत सकता है। शेर, चीता, हाथी, मगर, सूअर यह जंगल के बलवान जीव जंगल में स्वच्छंद विचरण करते हैं, उन्हें केवल मनुष्य का ही भय रहता है और किसी का नहीं, क्योंकि उन्हें अपनी सामर्थ्य पर भरोसा होता है, वह अपनी शक्ति से आत्मरक्षा ही नहीं आक्रमण भी कर सकते हैं, इसी प्रकार मनुष्य को भी शक्तिशाली होना चाहिए। पाप और दुष्कर्म से बचे रहने के लिए हम भगवान से तो डरें पर अच्छे उद्देश्य, आदर्श और पार्थिव सुखोपभोग के लिए वर्तमान परिस्थितियों में हमें अपनी आंतरिक सामर्थ्य को इतना स्वायत्त बनाना चाहिए कि आवश्यकता पड़े तो विरोधियों को भी बलपूर्वक भी मार और भगाया जाया जा सके। जनसंख्या बढ़ाने से नहीं, आंतरिक सामर्थ्य बढ़ाने से ही हम बदली हुई परिस्थितियों में अपने आपको स्थिर और सम्मानित रख सकते हैं, दुर्बलों के लिये तो संसार में पग-पग पर कठिनाइयों के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
संसार परिवर्तनशील है। पल-पल पर परिस्थितियां बदलती रहती हैं, उनसे हम प्रभावित भी होते रहते हैं। इसीलिये प्रकृति ने हमें वह सारी क्षमतायें दी हैं, जिनका सम्यक् उपयोग करके हम सुरक्षित, समाज और समर्थ व्यक्ति व जाति बन सकते हैं। प्रकृति के असंख्य छोटे-छोटे जीव इसी बात की प्रेरणा देते हैं।
वस्तुतः परिस्थितियां संसार में कुछ हैं भी नहीं। अपने आपको परिवर्तनों के अनुसार बदलते न रहने की प्रतिक्रिया का नाम ही परिस्थितियां हैं। संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ अपने आपको बदलते रहते हैं, यही कारण है कि वे बिना किन्हीं साधनों के भी मुक्ति, आनन्द, स्वास्थ्य और नीरोगता का जीवन जीते रहते हैं। एक दूसरे को खा जाने की प्रवृत्ति पशुओं और जंगली जन्तुओं की कही जाती है, तथापि आज मनुष्य जितना अशांत और द्वन्द्वों में फंसा हुआ है उतने तो वन्य-पशु भी नहीं हैं, इसका एक मात्र कारण परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको न बदलने का दोष है।
वातावरण परिवर्तनशील है। वस्तुयें बदलती रहती हैं, किसी भी स्थान के अनुरूप बने रहने का तात्पर्य यह है कि परिस्थितियां चाहे जिस दिशा में मुड़ें हमें उन बदलती हुई परिस्थितियों के साथ बदलने की अथवा परिस्थितियों के अनुसार अपनी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक प्रणाली को ढालने की क्षमता होनी चाहिए। काम तभी चलेगा, जब हम इतने प्राकृतिक हों कि हमारी प्रत्येक गतिविधि प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ बहती चली जायें, यदि हम उसका उल्लंघन करेंगे तो निश्चय ही रोग, शोक, हारी-बीमारी का कष्ट उठायेंगे।
ध्रुवीय प्रदेशों में कुछ जन्तु जैसे लोमड़ी, रीछ और गिलहरियां अपने आपको वहां की परिस्थितियों के समरूप रखती हैं, वहां वर्ष भर बर्फ जमी रहती है। बर्फ श्वेत होती है, यह जीव भी अपने बालों को श्वेत रखते हैं, इससे यदि कोई बाहरी व्यक्ति इनको ढूंढ़ना चाहे तो ढूंढ़ नहीं सकता। रंग की समरूपता के कारण यह अपने आपको बर्फ की चट्टानों के साथ इस तरह समायोजित कर लेते हैं कि शिकारी इनके पास घूमते रहते हैं तो भी पहचान नहीं पाते। मनुष्यों को भी ऐसे ही समाज परिवर्तन की आवश्यकता पड़ती है, अन्य स्थानों पर पहुंचकर वह अपने आपको एकाकी अनुभव करके दुःखी अनुभव करता है पर यदि उसने अन्य प्राणियों से अनुकूलन की विद्या सीखी होती अर्थात् उस वातावरण के अनुरूप अपने आपको ढाल लेने की योग्यता का उपयोग करता तो वह जहां भी जाता, वहीं परस्पर प्रेम, विश्वास, एकता और आत्मीयता स्थापित करके प्रसन्नता अनुभव करता।
मरुस्थल में पाई जाने वाली बकरियां, हिरण और ऊंट आदि वहां की प्रकृति को अक्षरशः गृहण कर लेते हैं, जिससे उनके शरीर भी भूरे और लहरियोंदार हो जाते हैं। कोई देर से यह नहीं जान सकता कि वहां कोई खड़ा है क्या, और इस प्रकार वे अपने जीवन को सुरक्षित किये रहते हैं। कई सर्प जिस मिट्टी में रहते हैं, उसी रंग के हो जाते हैं, तितली पौधों-पौधों में जाकर उनके सौरभ और सौन्दर्य का आनन्द लेती है, इसके लिये वह किसी फूल से बंधती नहीं वरन् अपने आपको सभी फूलों के समान रंग-बिरंगा बना लेती है। टिड्डी जैसे कई कीड़े जो हरी-पत्तियां ही खाते हैं, अपने आपको हरा रखते हैं, वह हरे वृक्षों में बैठे रहते हैं पर बाहर का कोई व्यक्ति उनका पता नहीं लगा सकता।
समुद्री चिड़ियायें जैसे फ्लावर्स भारद्वाज (हार्क) टिटहरी आदि खुले स्थानों पर अण्डे देते हैं। टिटहरी, सारस आदि पक्षी पानी के बीच खुले भाग में अण्डे देते हैं। यदि वे अण्डों का रंग अपनी मनमर्जी से कुछ भी रखते तो कभी भी कोई हमलावर जानवर आते और उन्हें उसी तरह मारकर खा जाते, जैसे सामाजिक जीवन में संग्रह-वृत्ति वाले धनी लोगों को, जो दूसरे पीड़ित प्रजा वर्ग की सुविधाओं का कभी भी ध्यान नहीं देते, चोर और डकैत लूट ले जाते हैं। सामाजिक जीवन से अपना ताल-मेल न रखकर अपनी खिचड़ी अलग पकाने वाले लोग अपने आप कितना ही अहंकार प्रदर्शित करें पर भीतर अपनी सुरक्षा के लिये सबसे अधिक डरने वाले दुःखी लोग वे ही होते हैं, जो समाज की परिस्थितियों में बने रहते हैं, वह इन पक्षियों की तरह हैं, जो चौड़े में अण्डे देते हैं पर उनका रंग इस तरह का रखते हैं कि जमी के रंग में और उनके रंग में कोई अन्तर दिखाई न दे। चील और बाज की आंखें बड़ी तेज होती हैं, वे ऊपर मंडराते रहते हैं पर उन्हें इस अण्डों का पता भी नहीं चल पाता। समुद्र में एक चपटी मछली (फ्लैटफिश) पाई जाती है, इसी कोटि का सर्वत्र पाया जाने वाला जन्तु गिरगिट है, ये जहां भी रहते हैं, अनुकूलन के द्वारा अपनी सुरक्षा बनाये रखते हैं। गिरगिट अपनी ओर किसी दुश्मन को आते देखता है तो वह जिस स्थान पर होता है, उस स्थान का रंग निकालकर उसी में छुप जाता है। दुश्मन समझ नहीं पाता और इधर से उधर निकल जाता है, कई बार वे कोई तीव्र रंग निकालकर दीवाल खड़ी कर देते हैं और आप स्वयं अपने आपको बचाकर निकाल ले जाते हैं। प्रकृति के यह उदाहरण बताते हैं कि संसार में अस्तित्व उन्हीं का सुरक्षित है, जो स्थिति के अनुसार अपने आपको बदल सकते हों।
यह रंग बदलने की कला मनुष्य-जीवन में बड़े काम आती है। यदि हम अपने वातावरण का चारों ओर चौकसी से निरीक्षण करते रहें। उदाहरण के लिये आज लोगों में खांसी, खसरा, कैंसर, तपेदिक आदि रोग बढ़ रहे हैं, हमें देखना चाहिये कौन-सी बुराइयां हैं, जो इन्हें जन्म देती हैं। अप्राकृतिक रहन-सहन, आहार-विहार, धूम्रपान, आलस्य, असंयम आदि के कारण ही यह बुराइयां बढ़ती हैं, यदि हमारी भी परिस्थितियां ऐसी ही हैं तो उनसे सुरक्षा का उपाय यही है कि हम अपना रंग बदल डालें अर्थात् उन बुराइयों के आवरण को ही उतार फैंके।
अनुकूलन की इस योग्यता का यह अर्थ नहीं कि यदि हम किसी बुरे समाज में जाते हैं तो वहां की बुराइयों को आत्मसात करना प्रारम्भ कर दें। ऐसी परिस्थितियों से बचाव की प्रेरणा कालिमा नामक तितली से ले सकते हैं। इसके पंखों का ऊपरी रंग चमकदार होता है, परन्तु सतह का रंग सूखी पत्ती की तरह का होता है। जब कभी वह किसी पौधे पर पंख सिकोड़कर बैठती है तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे यह कोई सूखी पत्ती हो। मनुष्य अपने मूल व्यक्तित्व को इस तरह आकस्मिक काल में छिपाकर अपनी सुरक्षा बनाये रख सकता है पर जो अपने व्यक्तित्व को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाते हैं, शेखी-खोरी करते हैं, वे राह चलते, चाहे जिन मामूली व्यक्तियों के द्वारा ठग लिये जाते हैं। दंडकीट (हाइड इन्सेक्ट) नामक कीड़ा सूखी टहनी की तरह का होता है, रंग भी उसी तरह का कुछ भूरा काला-सा होता है, मोटाई भी पतली टहनी के समान ही होती है। इसके पंख ही बड़े होते हैं पर अपनी इस विशेषता को वह बड़ी चतुराई से छिपाता है; जब किसी टहनी पर बैठता है तो पंखों को शरीर से इस तरह चिपका लेता है कि दूर से देखने पर ऐसा लगता है, जैसे यह पत्तीदार कोई टहनी ही हो और इस तरह वह अपने आपको दुश्मन से बचा लेता है। ये उदाहरण बताते हैं कि वातावरण समकूलता से व्यक्ति अपनी आत्म-रक्षा कर सकता है। इसमें उसे कुछ भी हानि नहीं होती।
बर्फीले क्षेत्रों में पाये जाने वाले रीछों के पास कोई वस्त्र नहीं होते, वे वहां के वातावरण को ही अपने में आत्मसात करके सुरक्षित रहते हैं। जिन दिनों बर्फ और कड़ाके की सर्दी पड़ती है, बेचारा स्वयं भी जकड़कर बर्फ में दब जाता है। छह महीने तक भालू उसे में कुछ खाये-पिये बिना ही पड़ा रहता है, यदि आदमी की तरह उसने भी कृत्रिम जीवन बनाया होता, अधिक कपड़े पहनने और तंग मकानों में रहकर अपने आपको ज्यादा शानदार दिखाने की भूल उसने की होती, असंयमित जीवन बिताया होता, तो एक ही कड़ाके में ढेर हो गया होता पर प्रकृति माता की गोद में पड़े रहने के कारण उसमें इतनी क्षमता आ जाती है कि वह छह महीने दबा रहकर भी मरता नहीं वरन् यह समय उसकी आयु-वृद्धि के काम आता है। छह महीने बाद जब धूप निकलती है, ऊपर की बर्फ पिघलकर बह जाती है, शरीर के रक्त में थोड़ी गर्मी आती है तो रीछ ऐसे अंगड़ाई लेकर उठ खड़ा होता है, जैसे रात की नींद लेकर सवेरे वह नई ताजगी प्राप्त कर रहा हो। प्रकृति का घनिष्ठ सान्निध्य हमें भौतिक परिस्थितियों से सदैव ही सुरक्षा प्रदान करता है। सरलता और सीधापन प्रकृति का स्वभाव है, हम जब अपनी मान-मर्यादा, पद-प्रतिष्ठा, धन-पुत्रों के बनावटी आवरण उतार देते हैं तो ऐसे ही सीधे, स्वाभाविक, सरल और सौम्य प्रतीत होते हैं, जैसे प्रकृति के दूसरे भोले-भाले प्राणी। कोई कहेगा, ऐसी स्थिति में तो जो आवेगा, हमें वह नष्ट कर डालेगा, बात ऐसी नहीं। प्रकृति हमें परिस्थितियों के अनुरूप संघर्ष के लिये भी उत्साहित करती है। हम उसके लिये तैयार न हों, तब तो एक दिन का जीवित रहना भी कठिन हो जाये। बुराइयों और दुष्प्रवृत्तियों का सामना करने के लिये भयानक आकार ‘टेरीफाइंड अपियरेन्स) भी रखना आवश्यक है। हरे टिड्डे (ग्रास-होपर्स) दुश्मन को देखते ही अपने पंख फैलाकर भयानक आकृति बना लेते हैं। दुश्मन अचम्भे में पड़ जाता है और उसे चुपचाप लौटना ही पड़ता है। जब तक बन पड़ता है बिल्ली आत्म रक्षा के लिये भागती है पर जब वह यह समझती है कि कुत्तों से बचकर भाग निकलना सम्भव नहीं, तब वह अपने दांत, मूंछें और आंखों को ऐसे तरेरकर खड़ी हो जाती है कि कुत्तों की सिट्टी गुम हो जाती है और वे आक्रमण करना भूल जाते हैं। प्रकृति का यह गुण हमें बताता है कि यदि साहस और हिम्मत हो तो मनुष्य अपने से कई गुने बलवान् और भयानक व्यक्तियों से भी मोर्चा लेकर उन्हें परास्त कर सकता है पर साहस बाहर की देन नहीं, मनुष्य को उसे परिस्थिति के अनुरूप अपने ही भीतर से जागृत करना पड़ता है। यदि परिस्थिति आने पर वह संघर्ष के लिये तैयार नहीं होता तो कोई भी बुरा व्यक्ति या पशु उसे बन्धन से मार सकता है।
शत्रु के विरोधी पक्ष में आ जाने के कारण भी हम अपनी सुरक्षा ही नहीं अनुभव करते, वरन् संसार की बुराइयों के विरुद्ध अपना साहस प्रदर्शित करने का यश भी प्राप्त करते हैं। प्रकृति का यह पक्ष हमें यह बताता है कि विरोधी शक्ति यदि न्यायोचित है तो कम शक्तिशाली होने पर उसके साथ रहने से बुरे तत्त्वों से रक्षा हो जाती है। हमारे जीवन में सैकड़ों बुराइयां होती हैं। हम समझ नहीं पाते, उन्हें कैसे दूर करें पर जब ‘अणुव्रत’ सिद्धान्त के आधार पर कोई एक छोटी सी अच्छाई का भी व्रत लेकर उसका निष्ठापूर्वक पालन करने लगते हैं तो हमारी बुरी आदतों, बुरे तत्त्वों से रक्षा हो जाती है। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री वेट्स ने दक्षिण अमेरिका में जीव-जन्तुओं की बहुत दिन खोज की थी, उन्होंने पीयरिड नामक तितली का वर्णन करते हुए लिखा है—‘‘कुछ पक्षी हेलीकोनिड तितली का शिकार नहीं करते। पर उन्हें पीयरिड का शिकार करना अच्छा लगता है। पीयरिड उनसे अपनी रक्षा करने के लिये विरोधी पक्ष के साथ हो जाती है। यद्यपि हेलीकोनिड में उसकी रक्षा करने की शक्ति नहीं होती किन्तु विरोध के फलस्वरूप ही वह आक्रमणकारी पक्षियों की दुष्टता को निरस्त कर देती है।’’
अपने आपको परिस्थिति के अनुकूल ढालने की यह सूझ मनुष्य ने भी विकसित की होती तो वह आज परिस्थितियों का दास न होकर मनचाही परिस्थितियां उत्पन्न करने में समर्थ रहा होता। यदि हम अपन दृष्टिकोण में अब भी यह परिवर्तन कर लें, तो भविष्य में अपने जीवन को उन्नत, सफल और सुरक्षित बनाये रख सकते हैं। प्रकृति का यह सिद्धान्त सदैव समरस और अकाट्य है।
वैटसिन नकल करने की कला (दि आर्ट आफ वैटसिन एडाप्शन) जीव विज्ञान (जूलाजी) का एक बहु चर्चित सिद्धान्त है, जिसका अर्थ होता है, सामाजिक बुराइयों से आत्मरक्षा के लिये अपने आपको बदलना। बुराइयां कमजोर मन वालों पर आक्रमण करती हैं, हमें अभ्यास से अपने मन को ऐसा बनाना चाहिये, जिसमें कोई भी अप्रिय परिस्थिति टकराकर ऐसे लौट जाये जैसे पहाड़ खाड़ी में समुद्री लहरें।
जर्मन वैज्ञानिक श्री मुलर ने बहुत दिन तक अध्ययन करने के बाद बताया कि वंश परम्परा से कुछ तितलियां भिन्न जाति की होती है, किन्तु वे अपना रंग-रूप और आकार इस तरह बनाती हैं, जैसे वह तितलियां जो स्वाद में कटु होती हैं और दुश्मन जिन्हें खाना तो दूर पास तक नहीं आते। इस तरह के कमजोर होने पर भी अपना बचाव कर लेती है।
ऐसी ही एक कला ‘मुलैरियन’ नकल करने की कला (दि आर्ट आफ मुलैरियन एडाप्शन) कहते हैं, इसमें समान प्रकृति के लोगों के साथ मिलकर ऐसा संगठन बनाया जाता है, जिससे दुश्मन अपने आप ही पीछा करना छोड़ दे। धर्मशास्त्र में उसे तितीक्षा की संज्ञा दी जाती है। स्वामी विवेकानन्द जिन दिनों योगाभ्यास कर रहे थे उनके मन में कई प्रकार की वासनायें भी भड़कती रहती थीं। कई बार यह गन्दे विचार इतने तीव्र हो उठते थे कि उनको हटाना कठिन हो जाता था। विवेकानन्द हैरान थे, क्या करें तभी उन्हें एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया। उन्होंने देखा एक ऐसा कीड़ा है जो चींटियों के बार-बार पकड़कर खा जाता है। दुश्मन से बचने के लिये इन चींटियों ने एक तरकीब निकाली। पास ही कुछ ऐसी मकड़ियां रहती थीं, जिनका आकार और रंग-रूप इन चींटियों की तरह का था। चींटियों ने उनसे मेल-मिलाप कर लिया और उनके साथ ही रहने लगी। चींटियों और मकड़ियों के पास-पास आ जाने से उनकी संख्या भी अधिक हो गई।
लोभी व्यक्ति को जिस प्रकार हित-अनहित का, अच्छे-बुरे का विवेक नहीं रहता, उसी प्रकार उस कीड़े ने भी चींटियों की बढ़ोत्तरी देखी तो उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने घात लगाई और टप से चींटी के धोखे में एक मकड़ी को पकड़ लिया। उस मकड़ी का स्वाद इतना जहरीला था कि कीड़े को मूर्छा आ गई। होश आने पर वह इतना डर गया कि फिर उसने दुबारा चींटियों को छेड़ने का साहस नहीं किया। इस दृश्य ने स्वामी विवेकानन्द को एक नई सूझ प्रदान की। उन्होंने निश्चय कर लिया कि यदि अब दुबारा कभी मन ने दुर्वासनायें उठीं तो उसे भी ऐसा ही कड़ुवा स्वाद चखावेंगे। दैववश उसी दिन जब वे भोजन कर रहे थे, एक लड़की उनके पास आ गई। उसे देखते ही उनका मन चंचल हो उठा। स्वामी जी तो पहले सही घात में थे। उठे और जलते तवे पर बैठ गये। सारा चूतड़ जल गया। लड़की चीख मारकर भाग गई। विवेकानन्द एक महीने अस्पताल में तो पड़े रहे पर फिर दुबारा उनके मन में कभी कोई पाप-भावना नहीं आई।
डोनाउस क्राइसीपस नामक तितली, ततैये (वास्प्स) और टिड्डे (हारनेट्स) आदि अपने दुश्मनों से बचने के लिये बहुत चमकीले, भड़कीले, लाल, काले, पीले रंग बदलने, दुर्गन्ध छोड़कर अपने आपको क्रोधी और जहरीला दिखाने की क्रिया करते हैं। दुश्मन डरकर भाग जाता है। इसी प्रकार मन में उठने वाली बुराइयों को उनके अप्रिय परिणाम दिखाकर डराया और धमकाया जा सकता है, उदाहरण के लिए पढ़ने में मन न लगे तो फेल हो जाने की निराशा का चित्रण, काम न करने पर भूख-प्यास और कपड़े-लत्ते की तंगी का चित्रण, काम-वासना भड़के तो रोग, बुढ़ापा और दुर्बलता का चित्रण करके उन्हें डरा देना चाहिये।
हेनरी फोर्ड ने इसी सिद्धान्त के रचनात्मक अभ्यास से औद्योगिक सफलता अर्जित की थी। उन्होंने अपने एक संस्मरण में लिखा है—‘‘व्यापार के प्रारम्भिक दिनों में मुझे बड़ा आलस्य और अनुत्साह रहता, उस समय मैं अच्छे सम्पन्न भविष्य की कल्पना करता। मेरे बंगले होंगे, कार होगी, दास-दासियां होंगे, सुख के सब साधन होंगे तो कितना अच्छा होगा। इन कल्पनाओं से आलस्य का अन्त हो जाता और मैं फिर दुगुने उत्साह से काम करने लगता। इसी तरह बढ़ते-बढ़ते मैं वर्तमान स्थिति तक पहुंचा।’’ जीव-जन्तु अपने बचाव के लिए इस सिद्धान्त को बहुत उपयोग करते हैं, उदाहरण के लिए कटमछली ता सीपिया अपने शरीर की एक थैली में स्याही जैसा एक तरल पदार्थ भरकर रखते हैं। अपने इस संचित संस्कार के कारण वे निर्भय विचरण करते रहते हैं, यदि उन्हें सामने से कोई दुश्मन आता दिखाई दिया तो उस थैली का रंगीन तरल पदार्थ काफी दूर तक उड़ेलकर पानी को रंगीन करके आप उसी में छिपकर बैठ जायेंगे। शत्रु शिकार को देख नहीं पायेगा या एक ओर खड़ा ताकता रहेगा, मछली अपनी मस्ती से दूसरी ओर निकल जायेगी। जिन लोगों में ऐसे रचनात्मक स्वभाव होते हैं, वे ही संचार में उच्च सफलताएं प्राप्त करते हैं, जो निराशावादी हर परिस्थिति के फंदे में फंस जाने वाले होते हैं, उन्हें तो छोटे-छोटे आघात ही मारकर नष्ट कर देते हैं।
कछुआ, सीप, घोंघा, मगर आदि अपनी त्वचा के ऊपर सुरक्षात्मक आवरण रखते हैं और जी चाहे जहां विचरण करते हैं, उनका बड़े से बड़ा शत्रु भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। संसार में माना विषम परिस्थितियों के अम्बार लगे हैं पर मनस्वी व्यक्तियों के लिये जैसे परिस्थितियां होती ही नहीं, वे मन को इतना मजबूत बना लेते हैं कि चाहे लाभ हो या हानि, सुख हो या दुःख, यश मिले या अपयश वे अपने आदर्श-सिद्धान्तों से उन सबको दबाकर मस्ती और निश्चिंतता का जीवन जीते हैं। ऐसे जीवन क्रम की गीता में बड़ी प्रशंसा की गई है। कर्मयोगी के लिये सांसारिक गति-विधियों से बचाव के लिए ऐसा ही सुरक्षात्मक आवरण रखना नितान्त आवश्यक होता है।
संसार ऐसा विलक्षण है कि यहां बहुत शक्तिशाली और रूप-गुणशील भी कई बार बुराइयों की, आक्रमण की लपेट में आ जाते हैं, इसलिये कहते हैं, न्याय और आत्मा की आवाज के लिये सबको समान रूप से प्रयत्नशील रहना चाहिए, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। दोनों समाज में रहते हैं, दोनों को ही सामाजिक उत्तरदायित्वों का पालन अनिवार्यतः करना चाहिए।
शेर जंगल का राजा होता है, बड़ा शक्तिशाली और एकान्तवासी। तो भी कुछ मक्खियां और कीड़े उसे ऐसे काटते हैं कि कई बार उसकी जान के ग्राहक ही बन जाते हैं। उत्तरी अमेरिका में एक खूबसूरत पक्षी ‘स्कंनस्’ पाया जाता है और सूक्ष्मदर्शी चमगादड़ भी अपने दुश्मनों से बच नहीं पाते। यह अपनी आत्म-रक्षा के लिए अपने शरीर से एक विशेष प्रकार की दुर्गन्ध निकालकर दुश्मन को भगाते हैं। तात्पर्य यह है कि हमें संघर्ष के क्षणों में उन परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए जो हमारी आदत के अनुकूल नहीं हों। इसके लिये ‘पारक्यूपाइन’ की तरह पहले से ही तैयार रहना चाहिये। इस जन्तु के शरीर पर छोटे-छोटे कांटे होते हैं। स्याही के शरीर पर भी कांटे होते हैं, साधारणतया वे उसके काम नहीं आते। क्रोध और नाराजी भी मनुष्य के लिये हितकारक नहीं पर जिस तरह आत्म-रक्षा के लिये यह जीव अपने कांटों को तरेर कर उन्हें डराकर भगा देते हैं, उसी तरह मनुष्य को परिस्थितियों में क्रोध और नाराजी भी व्यक्त करना ही चाहिये। उस समय यही हमारे धर्म हो जाते हैं। राष्ट्र-रक्षा, सामाजिक जीवन में व्याप्त बुरे तत्त्वों चाहे वे चोर-डकैत हों अथवा दहेज, रिश्वत लेने वाले क्रोध और नाराजी के कांटे तरेरने ही चाहिये, यदि प्रजा अपना यह अस्त्र नहीं संभालती तो अवांछनीय तत्त्व बढ़ते हैं और समाज पर छा कर सर्वत्र त्रास देते हैं।
एटम बम विनाशकारी है, अन्य शस्त्रास्त्र लगता है, मानवता के हित में नहीं हैं पर सशस्त्र दुश्मन से बचाव की आवश्यकता आ पड़े तो प्रकृति यह बताती है कि आत्म-रक्षा के लिए वैज्ञानिक अस्त्रों का भी प्रयोग करना धर्म है। टारपिडो और नारसीन नामक मछलियों में शरीर से विद्युत उत्पन्न करने की क्षमता होती है। साधारणतया वह ऐसा करती नहीं पर यदि कोई दुश्मन पीछा करे तो ये विद्युत करेंट उत्पन्न कर उन्हें मार भगाती हैं। मनुष्य इन सभी गुणों का सम्मिश्रण है, प्रकृति अपने नन्हे जीवों के द्वारा उसे यह प्रेरणा देती है कि परिस्थिति के अनुसार मनुष्य को अपनी प्रत्येक क्षमता का प्रयोग कर मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
अमेरिका में ‘हागनोज्ड’ नामक एक सर्प पाया जाता है, वर्जीनिया में ‘अपोसम’ नामक कंगारू पाया जाता है, दोनों में परले सिरे की चतुराई होती है, यह जब अपने शिकारी को देखते हैं तो ऐसे निश्चेष्ट हो जाते हैं, मानो मर गये हों। शिकारी इन्हें मृत समझकर झुड़ता है तो यह पीछे से आक्रमण कर देते हैं। कई बार हमारे सामने भी ऐसी परिस्थितियां आती हैं, जब कोई क्षमता काम नहीं देती, उस समय ‘‘देखि दिनन को फेर रहिमन चुप ह्वै बैठिए’’ वाली कहावत के अनुसार चुप पड़ जाये पर जैसे ही परिस्थिति अनुकूल आये फिर क्रियाशील हो जाये। आत्म-रक्षा, आत्म-विकास और समाजिक संघर्ष हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें हैं, उसके लिए भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न स्वरूप बनाकर नाटककारिता का परिचय और अभिनय का आनन्द लेते हुए जीना चाहिये। ऐसा रंग-बिरंगा जीवन ही सफल और सार्थक होता है।
रहस्यमय मछली के रहस्य
परिस्थितियों के अनुसार स्वयं का जीवनक्रम बदलने और प्रतिकूलताओं में भी जी लेने की सूझबूझ ईल मछली में देखी गयी। वर्षा ऋतु इन मछलियों के लिए प्रतिकूल पड़ती है। इसलिए ये अगस्त के महीने में, वर्षा आरम्भ होते ही अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र चली जाती है और जनवरी में, जब वर्षा बन्द हो जाती है तो वापस अपने स्थान पर लौट आती है। सत्रहवीं शताब्दी में जल-जन्तु के शोधकर्त्ता वैज्ञानिक फ्रांसिस्को रेडी ने ईल मछली से संबन्धित इन तथ्यों का पता लगाया।
यों सप्र की आकृति वाली इस मछली को सदा से रहस्यमय समझा जाता है। न केवल अपनी आकृति के कारण, वरन् प्रकृति से भी यह विचित्र और रहस्यमय है। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक ईल मदली के बारे में यह दन्त कथा प्रचलित थी कि वह एक विशेष जाति के सर्प से ही विवाह रचती है। पर सत्रहवीं शताब्दी में जल-जन्तु शोध कर्त्ता फ्रांसिस्को रेडी ने ईल के बारे में यह विचित्र बात देखी। अगस्त से जनवरी तक यह मछली वर्षा-ऋतु में अपने पूरे परिवार के साथ बाल-बच्चों सहित अन्यत्र चली जाती है। इतने दिन तक वह कहां रहती है और यकायक बच्चे कहां से आ जाते हैं यह एक रहस्य ही बना हुआ था जिसको फ्रांसिस्को महोदय ने ढूंढ़ निकाला।
ईल की कई जातियां हैं वे इंग्लैंड, आइसलैण्ड, उत्तरी अमेरिका ग्रीनलैण्ड, जापान, आस्ट्रेलिया, आर्कलैण्ड, न्यूजीलैण्ड आदि देशों के नदी-तालाबों में पाई जाती हैं। पर जब उसको, ऋतुकाल आता है तो प्रणय के लिए एवं प्रजनन की प्रक्रियायें सम्पन्न करने के लिए समुद्र में जाने का रास्ता ढूंढ़ती है। नदी, नालों को पार करती हुई वह किसी न किसी प्रकार समुद्र में जा पहुंचती है। वहीं वह पत्नी पद ग्रहण करती है और वहीं माता बनती है। यदि उसे समुद्र में जाने का अवसर न मिले तो फिर आजीवन ब्रह्मचारिणी का कठोर व्रत पालन करके ही जिन्दगी काट लेती है।
डेनमार्क निवासी एक जन्तु वैज्ञानिक जौनेस सिमिट ने पता लगाया कि ईल समुद्र में ही नहीं वरन् एक विशिष्ट स्थान पर ही अपना गृहस्थ बनाती है। जहां-तहां वह प्रणय प्रजनन नहीं करने लगती। योरोप की ईल को अमेरिका पहुंचने की लम्बी और कष्ट साध्य यात्रा में कई बार डेढ़ वर्ष या ढाई वर्ष तक लग जाते हैं। यह ठीक समय पर चलती है और ठीक समय पर पहुंचती है। यदि वह समय चूक जाय तो वह एक वर्ष रुकना ही उचित समझती है, समय की पाबन्दी और चलने तथा पहुंचने का समय उसे रेलगाड़ी की तरह ही याद रहता है और उसमें वह चूक प्रायः नहीं ही करती।
यह बड़ी कठिन यात्रा है। इसमें उस अनुकूल आहार न मिलने पर भूखा रहना पड़ता है। समुद्री क्षारों के प्रभाव से उसकी चमड़ी का रंग पलट जाता है। उस पर भी मांसाहारी जल-जन्तुओं से प्राण बचे तब वह अपने प्रियतम का घर ढूंढ़ पाती है। उसका विवाह समुद्र की तली में 200 से 400 मीटर नीचे होता है। वहीं वह अण्डे देती है। अण्डों से निकलने के बाद जब बच्चे चलने-फिरने लायक हो जाते हैं तो उनके लालन-पालन का भार पति के कन्धों पर नहीं डालती वरन् अपने इन सब बाल-गोपालों को लेकर वह प्रदेश की ओर चल पड़ती है, जहां का अन्न-जल खाकर वह बड़ी हुई थी।
अविकसित समझी जाने वाली ईल मछली—मर्यादा पालन और शालीनता के सम्बन्ध में विकसित और बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्य को बहुत कुछ सिखा सकती है, प्रणय और प्रजनन के लिये उपयुक्त पात्र और स्थान का वह चुनाव करती है और उसे क्रीड़ा-कौतुक भर नहीं मानती वरन् उसके लिए कष्ट साध्य तपस्या भी करती है। मातृभूमि का प्यार उसे कितना अधिक है। लौटकर वहीं आती है और समुद्र जैसे विशाल साधन सम्पन्न के सहारे रहने की अपेक्षा अपने यहां की अन्न-जल प्रदान करने वाली मातृभूमि में ही दुःख-सुख के दिन काटती है। भारत के अन्न-जल से पले, यहीं से शिक्षा पाये लड़के जब अधिक सुविधाओं के लालच में विदेशों के लिए भाग खड़े होते हैं और अपनी योग्यता से मातृभूमि को लाभान्वित करने के समय उसे धोखा देकर चले जाते हैं, तब यही कहना पड़ता है कि इन सुशिक्षितों से तो अशिक्षित ‘ईल’ हजार गुनी अच्छी है।
मर्यादाओं और नीति नियमों से बंधा शिष्ट-शालीन व सभ्य जीवन ही प्रकृति की प्रेरणा है। परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदल लेना और प्रगति क्षेत्र में आगे बढ़ते रहने पर ही जीवन सफल और सार्थक होता है। प्रकृति अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को यह शिक्षण देती है।
इन सभी गुणों और शिक्षाओं से ऊपर है स्वायत्ता का गुण। संसार में सामर्थ्यवान लोग ही जीते हैं। ‘‘वीर भोग्या वसुन्धरा’’ का उद्घोष सबसे पहले हम भारतीयों ने ही किया था, उसका आधार हमारी समर्थता ही थी। सामर्थ्यवान मनुष्य ही अपने आपको, अपनी बुराइयों को तथा शत्रुओं को जीत सकता है। शेर, चीता, हाथी, मगर, सूअर यह जंगल के बलवान जीव जंगल में स्वच्छंद विचरण करते हैं, उन्हें केवल मनुष्य का ही भय रहता है और किसी का नहीं, क्योंकि उन्हें अपनी सामर्थ्य पर भरोसा होता है, वह अपनी शक्ति से आत्मरक्षा ही नहीं आक्रमण भी कर सकते हैं, इसी प्रकार मनुष्य को भी शक्तिशाली होना चाहिए। पाप और दुष्कर्म से बचे रहने के लिए हम भगवान से तो डरें पर अच्छे उद्देश्य, आदर्श और पार्थिव सुखोपभोग के लिए वर्तमान परिस्थितियों में हमें अपनी आंतरिक सामर्थ्य को इतना स्वायत्त बनाना चाहिए कि आवश्यकता पड़े तो विरोधियों को भी बलपूर्वक भी मार और भगाया जाया जा सके। जनसंख्या बढ़ाने से नहीं, आंतरिक सामर्थ्य बढ़ाने से ही हम बदली हुई परिस्थितियों में अपने आपको स्थिर और सम्मानित रख सकते हैं, दुर्बलों के लिये तो संसार में पग-पग पर कठिनाइयों के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
संसार परिवर्तनशील है। पल-पल पर परिस्थितियां बदलती रहती हैं, उनसे हम प्रभावित भी होते रहते हैं। इसीलिये प्रकृति ने हमें वह सारी क्षमतायें दी हैं, जिनका सम्यक् उपयोग करके हम सुरक्षित, समाज और समर्थ व्यक्ति व जाति बन सकते हैं। प्रकृति के असंख्य छोटे-छोटे जीव इसी बात की प्रेरणा देते हैं।