Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम
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Language: HINDI
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इस वर्ष के दो विशेष अभियान
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सृष्टि में जब-जब भी असन्तुलन उत्पन्न हुआ है, तब-तब स्रष्टा ने अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए अदृश्य जगत में उत्साह उत्पन्न किया और वातावरण बनाया है। इस समय भी यही हो रहा है। सृजन शिल्पी जागृत आत्माओं के माध्यम से संघर्ष और सृजन की दोनों की प्रवृत्तियां अपने ढंग से—सामयिक समस्याओं के साथ सम्बन्ध जोड़कर प्रकट एवं प्रखर हो रही हैं।
गांधीजी ने नमक सत्याग्रह के रूप में संघर्ष और खादी उत्पादन के रूप में सृजन का अभियान चलाया था। जन-साधारण की सुविधा को ध्यान में रखते हुए यह निर्धारण हुए। भर पूर सहयोग मिला और अन्ततः वे अनेक महत्वपूर्ण अध्याय पूरे करते हुए स्वतन्त्रता का लक्ष्य उपलब्ध कराने में समर्थ रहे। इसी प्रकार के दो छोटे अभियानों के साथ युग अवतरण की व्यापक प्रक्रिया को भी इन दिनों अग्रगामी बनाया जा रहा है।
युग धर्म के अनुरूप दो अभियान इन्हीं दिनों क्रियान्वित होने जा रहे हैं, उनमें से एक का नाम है—शादियों के नाम पर चल रही बर्बादी का समर्थ प्रतिरोध। दूसरी का नाम है—हरीतिमा संवर्धन। यह दोनों देखने में भिन्न प्रकृति की दीखती हैं, पर हैं एक दूसरे की पूरक। भगवान् परशुराम के आधा जीवन कुल्हाड़े से उच्छेदन में लगाया था और उत्तरार्ध में फावड़ा लेकर धरती को समतल बनाने, हरीतिमा उगाने में लगे रहे। उसी से मिलती-जुलती उपरोक्त दो प्रवृत्तियां हैं, जिन्हें प्रत्येक परिजन को कार्यान्वित करने के लिए कहा जा रहा है।
इस तथ्य को समझने-समझाने में किसी विचारशील को कोई कठिनाई नहीं पड़ती है कि प्रचलित अवांछनीयताओं से—जन-जन को कष्ट देने वाली और समाज के सर्वतोमुखी पतन की उत्तरदायी कुप्रथा-शादियों में होने वाली बर्बादी प्रमुख है। कौन नहीं जानता है खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। इस भौंडे प्रदर्शन के पीछे अहंकार का पिशाच ही अट्टहास करता है। गरीबों द्वारा अमीरी का स्वांग बनाना कितना लज्जास्पद, कितना मूर्खतापूर्ण, कितना अदूरदर्शिता पूर्ण है। इस पर यदि तनिक भी विचार किया जा सके तो प्रतीत होगा कि इस कुप्रथा को अपने पैरों कुल्हाड़ी मारने की ही उपमा दी जा सकती है। कन्या पक्ष की विवशता, चिन्ता और बर्बादी देखकर छाती फटती है। साथ ही वर-पक्ष का दर्प, भौड़े प्रदर्शन का आग्रह, सम्बन्धी का शोषण, साधनों की फुलझड़ी जलाने जैसे कौतुक देखते हुए लगता है, कहीं कोई भावना हीन प्रेत-पिशाच ही तो मनुष्य का आवरण ओढ़कर यह उन्मादी कुकृत्य करने का उतारू तो नहीं हो रहा है।
हमारी एक तिहाई आमदनी विवाहोन्माद की बलि वेदी पर ही विनष्ट होती रहती है। जब तक यह कुप्रथा जीवित रहेगी, तब तक गरीबी का—बेईमानी का कलंक हम अपने सिर पर से छुड़ा न सकेंगे। जो कमाया जायेगा उसी खाई में खपता जायेगा सुयोग्य कन्याएं अपने लिए अपने अभिभावकों के लिए भार बनी रहेंगी। हम संसार के उन सभ्य देशों की बिरादरी से कैसे बैठ सकते हैं जो शादियों को एक छोटा घरेलू उत्सव मानते हैं और ऐसे उपहासास्पद आडम्बरों पर एक पैसा भी खर्च नहीं करते। वहां विवाह कोई समस्या नहीं, जबकि हमारे लिए बच्चे के जन्म से ही वह एक विभीषिका बनकर सामने खड़ी रहती है।
समय आ गया कि अवांछनीयताओं को कोसते रहने का रोना-गाना बन्द करें और अनाचार से जूझने के लिए कुल्हाड़ी लेकर जुट पड़ें। अधिक कष्टकर प्रचलनों में खर्चीली शादियों के विरुद्ध मोर्चा खड़ा किया जा सकता है। यह सरल भी है। प्रज्ञा परिजनों का समुदाय इन दिनों प्रायः 25 लाख है। हम सभी यह प्रतिज्ञा करें कि अपने लड़की-लड़कों की शादियां बिना दहेज और प्रदर्शन के ही करेंगे।
लड़के दहेज न मांगें, लड़की वाले बरात की धूम-धाम और जेवर चढ़ाने की मांग न करें। घरेलू उत्सवों की तरह सीधे—सादे ढंग से बिना खर्च की सरल सौम्य शादियां हो जाया करें तो कन्या किसी के लिए भार न बनें। कुछ देना हो तो लड़की को स्त्री धन के—स्थायी निधि के रूप में दिया भी जा सकता है पर उसके लिए कोई दबाव नहीं पड़ना चाहिए। जेवर धूम-धाम के लिए आग्रह होने के बदले ही प्रायः लड़के वाले दहेज मांगते हैं। उन पर यह दबाव न पड़े तो अपनी और सम्बन्धी की बर्बादी कराने में उन्हें भी क्या हठधर्मी हो सकती है। हमें यह प्रचलन चलाना ही चाहिए और उसका शुभारम्भ अपने 25 लाख के समुदाय में करना चाहिए। दूसरे लोग भी प्रवाह में बहेंगे और जो उपयुक्त है, उसे समय के दबाव से स्वीकार करने के लिए विवश होंगे। प्रज्ञा परिजन अपने घरों से इस कुरीति को हटायें, विशेषतया जब लड़के की बारी हो। तब तो न लेने के लिए अपना सुनिश्चित संकल्प ही प्रकट करें।
प्रज्ञा परिजन स्वयं प्रतिज्ञा करें कि हम अपने बालकों की शादियों में भोंडें प्रदर्शन एवं दहेज को पास नहीं फटकने देंगे। इतना ही नहीं जिन पर भी अपना प्रभाव होगा। उन्हें यह कुमार्ग अपनाने से समझाने रोकने में कसर न रखेंगे साथ ही अपनी घोषणा को प्रकट करेंगे कि जहां यह अनीति बरती जा रही होगी उसमें हम सम्मिलित न होंगे। वैयक्तिक असहयोग एवं बहिष्कार के पीदे भी विरोध-संघर्ष का स्वर होता है और उस दबाव से दूसरों को अपनी हठधर्मिता पर पुनर्विचार करने का अवसर मिलता है। लड़के-लड़कियों को भी ऐसी ही प्रतिज्ञाएं करानी चाहिए। कि वे खर्चीली शादियां करने के स्थान पर अविवाहित रहना पसन्द करेंगे। इस प्रकार अभिभावकों और लड़की-लड़कों का प्रतिज्ञा अभियान इन्हीं दिनों चलाया जाना चाहिए। प्रज्ञा परिजन अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में इसके लिए इन्हीं दिनों भरपूर प्रयत्न करें और अधिक प्रतिज्ञा-पत्र भरवाने का प्रयत्न करें। यह प्रतिज्ञा पत्र शान्तिकुंज हरिद्वार भिजवाते रहें। वहां से इस आधार पर लोग अपनी आवश्यकता के सम्बन्ध सहज की उपलब्ध कर सकेंगे।
दूसरा अभियान हरीतिमा संवर्धन का है। बढ़ते हुए, वायु प्रदूषण के निराकरण का प्रधान उपाय वृक्षारोपण है। भूमिक्षरण से लेकर, धरती को खाद मिलने और वर्षा सन्तुलन बने रहने के लिए वृक्षों की असाधारण भूमिका है। जलावन, फर्नीचर, गृह निर्माण आदि के लिए लकड़ी चाहिए। फल-फूल उन्हीं से उपलब्ध होती है। इसलिए वृक्षारोपण को शास्त्रों में श्रेष्ठ पुण्य-परमार्थ माना हैं। पूर्वजों की—अपनी स्मृति में वृक्ष लगाने की प्राचीन परम्परा को अब फिर पुनर्जीवन करना चाहिए। अपनी जमीन में वृक्ष लगायें। दूसरों को प्रोत्साहित करें। दूसरों की जमीन में उन्हीं के लिए अपने श्रम से वृक्ष लगा कर हजारी किसान का उदाहरण प्रस्तुत करें। जो स्वयं न कर सकें वे पैसा देकर दूसरों का श्रम खरीदें और वृक्ष लगाने के पुण्य-परमार्थ का अधिकाधिक संचय करने की प्रवृत्ति जगायें।
इसके अतिरिक्त वनस्पतियों, जड़ी बूटियों के उत्पादन—अभिवर्धन की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए आंगन में तुलसी के विरवा रोपने की धर्म-परम्परा को नये आंदोलन का स्वरूप दें। वृक्ष-वनस्पतियों को भी देव प्रतिमा की तरह श्रद्धास्पद मानने की भावना जागनी चाहिए। वट, पीपल, आंवला, बेल आदि वृक्षों को जिस प्रकार पवित्र माना जाता है, उसी प्रकार वनौषधियों की प्रतीक-प्रतिनिधि तुलसी को आंगन में लगाने, उसके खुले थांवले को देवालय का सम्मान देने, नित्य सूर्यार्घ्य का जल चढ़ाने धूप-दीप जलाने, परिक्रमा करने जैसे छोटे कृत्य से देव पूजा की घरेलू परम्परा चलती रह सकती है। वायु शुद्ध होने से लेकर अनेकानेक रोगों में अनुपान भेद से उपचार करने का यह घरेलू औषधालय भी है। तुलसी की स्थापना का अभियान इन्हीं दिनों पूरे उत्साह के साथ चलना चाहिए और लोक-श्रद्धा को वनस्पति संरक्षण-अभिवर्धन की दिशा में मोड़ना चाहिए।
इसी प्रकार घरेलू शाक-वाटिका संस्थापन की दिशा में नया उत्साह जगाने की आवश्यकता है। आंगनबाड़ी, छप्पर बाड़ी छत बाड़ी लगाने से सृजनात्मक कुशलता जगती है। यह सुरुचि सम्वर्धन का अच्छा उपाय है। व्यायाम और मनोरंजन के साथ-साथ उत्पादन की प्रवृत्ति जगाने जैसे कितने ही ऐसे लाभ हैं, जो घरों में पुष्प-वाटिका एवं शाकवाटिका लगाने के साथ साथ भली प्रकार मिलते रह सकते हैं।
इन दिनों कुपोषण जन्य रुग्णता एवं दुर्बलता का सर्वत्र दौर है। पोषक आहार न मिलने से स्वास्थ्य रक्षा पर भारी चोट पहुंचती है। इसके लिए हरी कच्ची खाद्य-सामग्री की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। शाक, फल, अंकुरित अन्न, सलाद जैसी वस्तुएं भोजन में प्रधान रूप से रहें तो ही आहार को आरोग्य रक्षक, पोषक, बलवर्धक कहा जा सकता है। इसके लिए महंगी और अच्छी चीज सही रूप में मिलने की दोनों कठिनाइयां ऐसी हैं जिनसे उपयुक्त शाक-भाजी एवं हरे भरे प्राकृतिक खाद्य पदार्थ मिलने में सामान्य आर्थिक स्थिति के लोगों को भारी कठिनाई होती है। इसका समाधान एक ही है कि घरों में शाक-भाजी उगाये जाय। यह थोड़ी कच्ची जमीन में—गमले में—टोकरी में पुरानी पेटियों में, फूटे-घड़े के पेदें में—कहीं भी उगाये जा सकते हैं। और हर मौसम में एक छोटी गृहस्थी के लिए पर्याप्त मात्रा में शाक-भाजी मिलती रह सकती है। इसे एक प्रकार का गृह-उद्योग अतिरिक्त उत्पादन का बचत उपक्रम भी कहा जा सकता है। स्वभाव में उत्पादन की सुरुचि का समावेश तथा स्वास्थ्य रक्षा का महत्वपूर्ण आधार तो इस प्रयास के साथ जुड़ा हुआ है ही। अदरक, प्याज, पोदीना, धनिया, हरी मिर्च जैसी वस्तुएं घर भर के लिए चटनी देने योग्य मात्रा में किसी भी घर में अत्यन्त सरलतापूर्वक उग सकती है।
जीवन के—समाज के हर क्षेत्र में घुसी हुई बहुमुखी अवांछनीयताओं से अगले दिनों अनेकानेक मोर्चों पर डटकर लड़ना पड़ेगा। इसका श्री गणेश विवाहोन्माद के असुर को परास्त करने के संकल्प के साथ किया जाय। इसी प्रकार सत्प्रवृत्तियों के उत्पादन का क्षेत्र भी इतना बड़ा है कि उसे हाथ में लिए बिना युग की उन आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती, जिनके बिना भावना, विचारणा, के क्षेत्र में दुर्भिक्ष जैसी स्थिति बन गई है। सृजन उत्पादन के व्यापक उत्साह का शुभारम्भ छोटा किन्तु महान प्रतिफल उत्पन्न करने वाली जिस प्रक्रिया के साथ हो रहा है, उसका नाम हरीतिमा उत्पादन है। दोनों ही प्रयास ऐसे हैं, जिन्हें हर कोई हर स्थिति का किसी न किसी प्रकार, कुछ न कुछ प्रयास कर ही सकता है।
सृजन शिल्पी जागृत आत्माओं को उपरोक्त दो आन्दोलन अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में तत्काल आरम्भ कर देने चाहिए। खर्चीली शादियों के विरुद्ध हस्ताक्षर अभियान चलाना कुछ कठिन नहीं होना चाहिए। विचारशील दूरदर्शी लोगों को उसके के लिए सहज सहमत किया जा सकता है। इसी प्रकार शाक भाजी तुलसी के पौधों की नर्सरी उगा कर या उसके साथ सम्बन्ध जोड़ कर घर-घर हरियाली लगाने—फूल शाक उगाने के अभियान में देखते-देखते आश्चर्य जनक सफलता मिल सकती है। एकाकी या टोली बनाकर इन दोनों प्रयासों के लिए सम्पर्क साधने निकला जाय तो प्रतीत होगा कि सफलता पूर्व निश्चित थी जो थोड़े ही परिणाम से सहज उपलब्ध कर ली गई।
संघर्ष और सृजन—गलाई और ढलाई की प्रवृत्तियां ही प्रकारान्तर से अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन का ईश्वरीय उद्देश्य पूरा करती हैं। युग परिवर्तन की इस प्रभात वेला में इनका शुभारम्भ सामयिक आवश्यकताओं के समाधान को ध्यान में रखते हुए किया गया है। प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को उन्हें व्यापक बनाने के लिए इन्हीं दिनों प्राण-प्रण से जुटना और महाकाल के निर्दोष का—युग धर्म का—निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए।