Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम
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Language: HINDI
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प्रथम अध्याय— युग-सन्धि की प्रसव-पीड़ा और प्रज्ञावतरण
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यह युग संधि की वेला है। परिवर्तन की घड़ियां सदा जटिल होती हैं। एक शासन हटता और दूसरा आता है तो उस मध्य काल में कई प्रकार की उलट-पुलट होती देखी गई है। गर्भस्थ बालक जब छोटी उदररी से बाहर निकलकर सुविस्तृत विश्व में प्रवेश करता है तो माता को प्रसव पीड़ा सहनी पड़ती है और बच्चा जीवन-मरण से जूझने वाला पुरुषार्थ करता है। प्रभात काल से पूर्व की घड़ियों में तमिस्रा चरम सीमा तक पहुंचती है। दीपक के बुझते समय बाती का उछलना-फुदकना देखते बनता है। मरणासन्न की सांसें इतनी तेजी से चलती हैं मानो वह निरोग और बलिष्ठ बनने जा रहा है। चींटी के अन्तिम दिन जब आते हैं तब उसके पर उगते हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि परिवर्तन की घड़ियां असाधारण उलट-पुलट की होती हैं। उन दिनों अव्यवस्था फैलती, असुविधा होती और कई बार संकट-विग्रहों की घटा भी घुमड़ती है। युग परिवर्तन की इस संधि बेला में भी ऐसा ही हो रहा है। असुरता जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रही है और देवत्व को उसे पदच्युत करके सिंहासनारूढ़ होने में अनेक झंझटों का सामना करना पड़ रहा है। भूतकाल में भी ऐसे अवसरों पर यही दृश्य उपस्थित हुए हैं, ऐसे ही घटना क्रम चले हैं, जैसे कि इन दिनों सामने हैं।
परिवर्तन की प्रक्रिया चल तो बहुत समय से रही है पर उसकी आरम्भिक मन्दगति को द्रुतगामी बनने का अवसर इन्हीं दिनों मिला है। प्रकृति जब रुग्ण शरीर से विषाक्तता को निकाल बाहर करने के लिए अधिक तत्परता बरतती है तो कई प्रकार के उपद्रव उठ खड़े होते हैं। उल्टी, दस्त, ज्वर आदि में रोगी को कष्ट तो अवश्य होता है पर संचित मलों की सफाई इससे कम में हो भी नहीं सकती। रक्त में भरी विषाक्तता फोड़ा फुंसी बनकर बाहर आती और मवाद बनकर विदा होती है। देखने में यह अरुचिकर लगता है पर चिकित्सक यही कहते हैं कि घबराने की कोई बात नहीं। प्रकृति को अपना काम करने देना चाहिए जो सफाई चिकित्सक मुद्दतों से नहीं कर सकते थे वह उस उभार में कुछ ही दिनों में सम्पन्न हो जायेगी। विषमता के निष्क्रमण में ऐसा होता भी है। सेना भागते भागते अपने क्षेत्र को नष्ट कर जाती है ताकि शत्रु के हाथ कोई सुविधा जनक परिस्थिति न लगे। लगता है कि सफाई के इन दिनों में ऐसी ही रणनीति चल रही है। लगता है नाली साफ करते समय उड़ने वाली बदबू की तरह इन दिनों जो असुखद घटित हो रहा है उसके पीछे सम्भावनाएं ही झांक रही हैं।
प्रसव पीड़ा में एक ओर प्रसूता को अत्यधिक कष्ट होता है, दूसरी ओर नवजात शिशु के आगमन की कल्पना में हृदय भी हुलसता है, हर परिवर्तन ऐसे ही विग्रह करता है। कन्या ससुराल आती है तो परिवार का विछोह कम व्यथित नहीं करता किन्तु ससुराल में घर की रानी बनने का सपना उसे धैर्य भी बंधाता है और आश्वासन भी देता है। परिवर्तन की इस वेला में आगत कष्टों को इसी रूप में देखा जाना चाहिए।
अदृश्यदर्शियों में भविष्य दर्शन इन दिनों को अधिक त्रासदायक बताते हैं। उनका कथन है कि सन् 1980 से 2000 तक के मध्यवर्ती बीस वर्ष भारी उथल-पुथल के हैं। उनमें एक ओर दुष्प्रवृत्तियों की कष्ट कारक दण्ड व्यवस्था अपनी चरम सीमा पर होगी तो दूसरी ओर नवसृजन के आधार भी खड़े होंगे। इन परस्पर विरोधी गतिविधियों से असमंजस तो होता है पर साथ ही यह जानकर समाधान भी मिलता है कि ऐसे समयों पर इस स्तर की दुहरी गतिविधियों का चलना अस्वाभाविक नहीं है। किसान हल चलाकर खेत के खर पतवार और कंकड़ पत्थर हटाता है, साथ ही बीज बोने की तैयारी भी करता है। इनमें से एक कार्य ध्वंसात्मक है दूसरा सृजनात्मक। दोनों के मध्य परस्पर विरोध देखा जा सकता है, पर वस्तुतः वह पूरक भी तो होता है। डॉक्टर आपरेशन करने में जितनी कुशलता दिखाता है उतनी ही तत्परता घाव भरने के उपक्रम में भी बरतता है। माता का दुलार और सुधार साथ-साथ चलता है। पतझड़ में पुरातन पत्र-पल्लव गिरते-झड़ते हैं, साथ ही वसन्त की हरीतिमा का पूर्वाभास भी होता है। सभी जानते हैं कि जराजीर्ण काया को त्यागते समय जीव दुःख पाता है, पर नये जन्म का आनन्द लेने की बात इसके बिना बनती भी तो नहीं है।
दूरदर्शिता के अनेक वर्ग हैं और उन सबने अपने-अपने ढंग से इस बीस वर्ष की संधि वेला को दुहरी सम्भावनाओं से भरा-पूरा बताया है। वे निकट भविष्य में कष्ट और दूर भविष्य में सुखद की सम्भावना बताते हैं। अपने पक्ष के समर्थन में उनके दृष्टिकोण तो अलग-अलग हैं, पर निष्कर्ष एक ही तथ्य पर जा पहुंचते हैं। सभी की वह मान्यता है कि कष्टकारक दिन समीप हैं। ऐसे पूर्व कथन हानिकारक भी होते हैं और लाभदायक भी।
हानिकारक उनके लिए जो डरते, घबराने और हड़बड़ी में चिन्ता ग्रस्त हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़ बनते हैं। यह हड़बड़ी वास्तविक विपत्ति से अधिक हानिप्रद होती है। कहावत है कि जितने व्यक्ति मौत से मरते हैं उससे अधिक मरण भय से असन्तुलित होकर बेमौत मरते हैं।
लाभदायक उनके लिए जो अशुभ सम्भावनाओं का पूर्वाभास पाकर अपनी जागरूकता बढ़ते हैं। सूझ-बूझ से काम लेते और धैर्य साहस निखारते हैं। ऐसे पराक्रमी अपने कौशल को निखारने में इन संकट की घड़ियों को दैवी वरदान की तरह सहायक मानते हैं। विपत्तियों से जूझने के सत्परिणामों की जानकारी प्राप्त करनी हो तो उसका विस्तृत विवरण मोर्चे पर लड़ने वाले योद्धा, संयम की साधन करने वाले तपस्वी, संघर्षों से जूझकर महामानव बनने वाले परमार्थ परायण लोक सेवक ही भली प्रकार बता सकते हैं। वे एक स्वर से यही कहते पाये जायेंगे कि परीक्षा की घड़ी कठिन तो अवश्य थी पर तपने और कसने के उपरान्त खरा सोना कहलाने का जो श्रेय मिल सका वह उस कष्टसाध्य प्रक्रिया में होकर गुजरे बिना और किसी तरह उपलब्ध हो नहीं सकता था। सम्भव है विश्व मानव को इसी प्रकार से भट्टी में गलाया और नये सांचे में ढाला जा रहा हो।
इन दिनों की अशुभ सम्भावनाओं के सम्बन्ध में खगोल विज्ञानी कहते हैं कि सूर्य पर इन्हीं दिनों भयंकर स्फोट कलंक उभरने जा रहे हैं। उनकी ज्वालाएं लाखों मील ऊंची लपकेंगी और असाधारण ऊर्जा अन्तरिक्ष में फेंकेगी। उनकी प्रभाव पृथ्वी के पदार्थों और प्राणियों पर बुरा पड़ेगा। यह विघातक प्रक्रिया कई वर्षों तक चलती रहेगी। अन्तरिक्ष विज्ञानी अन्तर्ग्रही परिस्थितियों के कारण धरती के वातावरण में तापमान बढ़ने और उससे संचित हिम भंडार गलने की बात कहते हैं। उससे जल प्रलय जैसी घटनाएं घटित हो सकती हैं। भूगोल का पर्यवेक्षण करने वाले बताते हैं कि यन्त्रों से बढ़ते वायु प्रदूषण से अगले दिनों घुटन पैदा होगी। बढ़ता हुआ कोलाहल विक्षिप्तता उत्पन्न करेगा। अणु विस्फोटों से उत्पन्न विषाक्त विकिरण से जीवनी शक्ति का भयानक ह्रास होगा। भूगर्भवेत्ता बताते हैं कि पेय जल, ईंधन तथा खनिज सम्पदा का जिस गति से दोहन और ह्रास हो रहा है उसे देखते हुए इन जीवन साधनों से धरती के दिवालिया हो जाने का खतरा है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के पर्यवेक्षक कहते हैं—भय, लोभ और अविश्वास के तथ्य शासनाध्यक्षों के मन में बुरी तरह घुस रहे हैं। फलतः तीसरे महायुद्ध की सम्भावना बढ़ रही है। अणु आयुधों के बारूद खाने में चिनगारी पड़ने की देर है कि विस्फोट से धरती की स्थिति विषाक्त बादलों से भर जायगी। फलतः प्राणियों का अस्तित्व इस रूप में नहीं बच सकेगा, जैसा आज है।
नृतत्व विज्ञानी कहते हैं कि बढ़ती हुई जनसंख्या अपने समय की सबसे बड़ी समस्या है। कुछ ही दिनों में इस अनियंत्रित प्रजनन पर भूख, प्यास, युद्ध और महामारी की गाज-गिरेगी और फलतः यह अवांछनीय प्रजनन स्वयं तो मरेगा ही, धरती की परिस्थितियों को भी इस योग्य न रहने देगा जिसमें बचे-कूचे लोगों को निर्वाह मिल सके।
समाज वेत्ता कहते हैं कि स्वार्थपरता, संग्रह, विलास और उपभोग की लिप्सा पारस्परिक स्नेह सहयोग को उन परम्पराओं को नष्ट करके रहेगी जिसके आधार पर मानवी विकास संभव हुआ है। अनुशासन की अवहेलना, उच्छृंखलता में गर्वे, अपराधों पर अनियंत्रित की स्थिति जिस क्रम से बढ़ रही है उससे समाज संस्था में आदर्श नाम की कोई चीज बच नहीं पायेगी। लोग भूखे भेड़िये की तरह एक दूसरे पर घात-प्रतिघात लगाते और यादवी—आत्मघात के शिकार बनते पाये जायेंगे। ये सभी सम्भावनाएं उन मूर्धन्य लोगों ने व्यक्त की है जिनके निष्कर्ष—तथ्यपूर्ण और प्रामाणिक माने जाते हैं। इन समस्याओं के रहते भविष्य अन्धकारमय लगता है। जिनके हाथ में संसार के भाग्य निर्धारण की शक्ति है वे पारस्परिक अविश्वास के वातावरण में रह रहे हैं और ऐसा कुछ कर नहीं पा रहे हैं कि विनाश के प्रवाह को रोकने और विकास के ठोस आधार खड़े करने में सफल हो सकें। वे भी चिन्तित और निराश के ठोस आधार खड़े करने में सफल हो सकें। वे भी चिन्तित और निराश दीखते हैं। दो हाथ जोड़ने का प्रयत्न करने पर रस्सी चार हाथ अन्यत्र से टूटने लगे तो प्रयत्न कर्ताओं को भी हार मानते देखा जाता है।
संसार में ऐसे अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न भविष्यवक्ता भी यदा-कदा देखने-सुनने में आते हैं जिनके कथन सुनिश्चित माने जाते हैं। जो कथन अब तक सही सिद्ध हो चुके वे ही यह बताते हैं कि इनके द्वारा कही गई बातें भविष्य में भी सच हो सकती हैं। इस स्तर के सूक्ष्मदर्शियों की भविष्य-वाणियों में निकट भविष्य को कष्टकारक माना गया है। मनुष्य कृत उपद्रवों के अतिरिक्त दैवी प्रकोपों की सम्भावना भी व्यक्त की गई है।
अध्यात्म वेत्ता कहते हैं कि समस्त मनुष्य समाज एक शरीर की तरह है और उसके घटकों को सुख-दुःख में सहयोगी रहना पड़ता है। एक नाव में बैठने वाले साथ-साथ डूबते पार होते हैं। मानवी चिन्तन और चरित्र यदि निकृष्टता के प्रवाह में बहेगा तो उसकी अवांछनीय प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत् में विषाक्त विक्षोभ उत्पन्न करेगी और प्राकृतिक विपत्तियों के रूप में प्रकृति प्रताड़ना बरसेगी। चित्र-विचित्र स्तर के दैवी प्रकोप संकटों और त्रासों से जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करे रख देंगे। हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी सज्जनता तक ही न सीमित रहे, वरन् आगे बढ़कर सम्पर्क क्षेत्रों की अवांछनीयता से जूझें। जो इस समूह धर्म की अवहेलना करता है वह भी विश्व व्यवस्था की अदालत में अपराधी माना जाता है। सामूहिक कर दंडों की तरह निर्दोषी समझे जाने वालों को भी त्रास सहना पड़ता है। गेहूं के साथ घुन पिसता है— सूखे के साथ गीला जलता है— जैसी उक्तियां इस अर्थ में सच हैं कि सामूहिक उत्तरदायित्वों की अवहेलना व्यापक विपत्तियों का निमित्त कारण बनती है।
सूर्य का पृथ्वी से सीधा सम्बन्ध है और उसी का प्रभाव विशेष रूप से धरती के वातावरण को प्रभावित करता है। पर इस बार बृहस्पति ग्रह में भी विलक्षण प्रकार की उत्तेजनाएं उत्पन्न हो रही हैं और उनका सीधा प्रभाव अपनी धरती पर भी पहुंचने की सम्भावना है। सूर्य स्पॉट और बृहस्पति के विकिरण का प्रभाव कोढ़ में खाज की तरह दुहरी विपत्ति का निमित्त बन सकता है।
ऐसे ही अनेक कारणों को दृष्टि में रखते हुए सूक्ष्मदर्शियों ने सन् 80 से 2000 तक के मध्यवर्ती 20 वर्षों की अव्यवस्था, विक्षोभ और विपत्ति में भरे-पूरे बताया है। इन प्रतिपादनों की संगति यह भी बैठती है कि युग परिवर्तन की संधि वेला आ गई। उसमें ऐसी उलट-पुलट होना स्वाभाविक है। असुरता अपना स्थान छोड़ते-छोड़ते जीवन मरण की लड़ाई लड़ेगी। देवत्व को भी इन्हीं दिनों सत्तारूढ़ होना है। इसलिए प्राचीन काल के देवासुर संग्राम की तरह इन दिनों भी व्यापक विग्रह दृष्टिगोचर हो और उससे सामान्य जन जीवन में अस्त व्यस्तता उत्पन्न हो तो उसे अप्रत्याशित नहीं माना जाना चाहिए।
इस विषम वेला में विपत्तियों का निराकरण और सन्तुलन का समापन बड़ा काम है। इस दुहरे समापन का उत्तरदायित्व स्रष्टा ही संभाल सकता है। समय-समय पर प्रस्तुत होते रहने वाले असन्तुलनों को संभालने के लिये उस आद्य शक्ति को स्वयं ही अवतरित होना पड़ा है जिसने समस्त ब्रह्माण्ड में इस अद्भुत विश्व उद्यान की संरचना की है और उसे सर्वत्र सुन्दर बनाने में अपनी कलाकारिता दांव पर लगा दी है। मनुष्य असीम है, वह सीमित क्षेत्र में—सीमित मात्रा में सीमित उत्तरदायित्व ही वहन कर सकता है। व्यापक समस्याओं के समाधान में स्रष्टा को स्वयं ही बागडोर संभालनी पड़ती है। इसका सुनिश्चित आश्वासन, गीता के पृष्ठों पर ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य……’’ के रूप में अंकित है। इस पर भी अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन की भूमिका उसी को निभानी है।
भगवान निराकार हैं। उनका कर्तृत्व चेतना क्षेत्र में उभरता है और वह प्रेरणाओं के रूप में दृष्टिगोचर होता है। हलचलें पदार्थ में होती हैं। कर्म शरीर करते हैं और ज्ञान का उदय अन्तराल में होता है। अन्तराल ब्रह्म क्षेत्र है। पुरुषार्थ कर्मक्षेत्र। भगवान चेतनाधिपति है इसलिये वे चेतना को झक झोरते हैं। इससे उत्पन्न उभार ही कार्यरत होता है और परमार्थ के रूप में उसका परिचय मिलता है। प्रज्ञावतार की प्रेरणाएं देव मानवों का अन्तराल उछालेंगी और उसके अनुशासन में चलने वालों के मन को उत्कृष्ट चिन्तन तथा शरीर को श्रेष्ठ आचरण के लिये विवश होना पड़ेगा। भूतकाल में भी यही होता रहा है। यही अब भी होना है। भगवान अपनी अवतरण लीलायें देव मानवों के द्वारा सम्पन्न करेंगे। इस युगसंधि में व्यापक परिवर्तन की जो महान प्रक्रियायें सम्पन्न होने जा रही हैं, उनमें भगवान और उनके भक्तों की सम्मिलित भूमिका होगी। राम ने, कृष्ण ने अकेले ही अधर्म उन्मूलन और धर्म संस्थापन का प्रयोजन पूरा नहीं किया था उनका हाथ बंटाने में, कितने ही देव मानव सहभागी बने थे। हर अवतार का लीला संदोह इसी प्रकार रहा है। प्रज्ञावतार की कार्यपद्धति भी उस पूर्व परम्परा के अनुरूप ही रहेगी।
देव मानवों के अवतरण समयानुसार हो चुका। वे इतने समर्थ हो गये कि अपने जीवनोद्देश्य युग अवतार के सहभागी बनने की भूमिका को निभा सकें। अरुणोदय की प्रथम किरणें पर्वत शिखर पर चमकती हैं। उसके बाद उनका आलोक नीचे उतरता और ऊर्जा का व्यापक वितरण करता है, जागृत आत्माएं देव मानवों के रूप में अपनी विशिष्टता का इन्हीं दिनों परिचय देंगी और महाकाल के संकेतों पर अपनी रीति-नीति निर्धारित करेंगी। विनाश की सम्भावनाओं से जूझने और भविष्य का निर्माण निर्धारण करने का बहुमुखी कार्यक्रम सामने है। प्रज्ञा परिजनों को अपने हिस्से का उत्तरदायित्व अन्तःप्रेरणा से प्रेरित होकर स्वयं ही अपने कंधे पर वहन करना है। उसी में उसके वर्चस्व की सार्थकता है।