Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम
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Language: HINDI
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धर्मानुष्ठानों के क्रियाकृत्य उद्देश्यपूर्ण रहें
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क्रिया परक शिक्षण तो स्कूली ढंग से भी चल सकता है किन्तु आस्थाओं के परिवर्तन एवं प्रतिष्ठापन के सन्दर्भ में जो शिक्षण किया जाना है उसमें भावना, वातावरण, कृत्य, मन्त्र, अनुबन्ध, साक्षी आदि कितने ही तथ्यों का समावेश करना पड़ता है। विवाह में पाणिग्रहण मुख्य है। गाड़ी में चढ़ते समय भी कोई लड़का किसी लड़की का हाथ पकड़ कर सहारा दे सकता है। पर इतने भर से विवाह कहां हो जाता है। रास्ते चलते विवाह शादी की बात आपस में कर लेने भर से वह अनुबन्ध कहां बंधता है, जिसके बलबूते दोनों एक दूसरे के साथ जीवन भर बंधे रहने की बात को पत्थर की लकीर मानें और हर परिस्थिति में उसे निबाहें। यह विवाह के समय होने वाले क्रिया-कृत्य का ही परिणाम है, जिसमें दो जीवन एक दूसरे के साथ गुंथते देखे जाते हैं। इस स्तर का प्रशिक्षण अनुबन्ध निर्धारित कर्मकाण्ड के बिना हो नहीं सकता। इसमें दैवी शक्तियों की साक्षी का विश्वास भी जुड़ा रहता है।
कर्मकांडों की—धर्मानुष्ठानों की— चिरपरम्परा का प्राचीन काल में जितना महत्व था, अब भी वैसा ही है। आस्थाओं का परिष्कार परिवर्तन लोक-मानस में आदर्शवादी प्रतिष्ठापनाओं की इन दिनों अत्यधिक आवश्यकता है। इसके लिए वाणी-लेखनी के दृश्य-श्रव्य स्तर के—स्वाध्याय-सत्संग के—जहां अनेक प्रयोग अपनाये जाने चाहिए वहां धर्मानुष्ठानों को भी कम महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। विचार से अगली भूमिका विश्वास की है। अन्तरात्मा के परिवर्तन में विश्वासों की ही प्रधान-भूमिका रहती है। अस्तु, धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण का आधार अपनाया गया है। साथ ही उस प्रयोजन के लिये कर्मकाण्डों धर्मानुष्ठानों को भी साथ में जुड़ा रखा गया है। अन्तराल में उच्चस्तरीय उभार लाने के लिए भावना, वातावरण, कृत्य, मन्त्र अनुबन्ध, साक्षी आदि से समन्वित कर्मकाण्डों के माध्यम से अचेतन को उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए ढालना एक सुनिश्चित, चिरपरिचित एवं सफल प्रयोग है।
व्यक्तिनिर्माण के लिए जप-तप-व्रत ध्यान-धारणा जैसी तपश्चर्या योग साधना आवश्यक है। परिवार निर्माण के लिए षोडश संस्कारों का प्रचलन अत्यधिक प्रभावोत्पादक है। जन्म-दिवसोत्सव और विवाह दिवसोत्सव भी अब इसी श्रृंखला में जोड़े गये हैं। समाज निर्माण के लिए पर्व त्योहारों का सामूहिक रूप से मनाये जाने की प्रक्रिया में उपरोक्त तीनों प्रयोजनों के लिए तीनों प्रकार के धर्मानुष्ठानों को नये सिरे से गतिमान किया गया है। आत्मोत्कर्ष के लिए प्रज्ञायोग के अन्तर्गत घरेलू पूजा-पाठ एवं कल्प-साधना जैसे उपक्रम अपनाये जा रहे हैं। षोडश संस्कार प्रज्ञा-परिजनों के घरों में उत्साहपूर्वक चल रहे हैं और परिवार निर्माण का लक्ष्य पूरा करने में बहुत ही सफल-सार्थक सिद्ध हो रहे हैं। पर्वों में बसन्त-पंचमी गायत्री-जयन्ती, गुरु पूर्णिमा, श्रावणी दोनों नव-रात्रियों को प्रमुखता देते हुए धर्मतन्त्र से लोक-शिक्षण की जिस परिपाटी को नये सिरे से उभारा गया है उससे समाज-निर्माण की प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने में भावनास्तर का भारी योगदान मिल रहा है।
इन सभी कर्मकाण्डों का उद्देश्य एवं प्रयोग हम सभी को जानना चाहिए। उनके पूर्व तैयारी सज्जा, वस्तुओं का एकत्रीकरण, याजकों की पवित्रता, परिधान, वातावरण, मन्त्रोच्चार विधि-विधान न केवल जानकारी की दृष्टि से वरन् उपयोग की दृष्टि से अभ्यस्त होना चाहिए। यह लोक शिक्षण का अति महत्वपूर्ण अंग है। इसे अन्धविश्वास न कहा जाय। अन्तराल को अचेतन का उत्कृष्टता की दिशा में प्रशिक्षित करने का यह प्रयोग लेखनी-वाणी के माध्यम से किये जाने वाले प्रयत्नों की तुलना में कम नहीं अधिक ही सफल—सार्थक सिद्ध होता है।
कर्मकाण्डों का मेरुदंड गायत्री-यज्ञ है। उसके बिना छोटे-बड़े क्रिया-कृत्यों में से एक भी सम्पन्न नहीं हो सकता। अधिक विधि-विधान मालूम न हो, तो भी इस अकेले कृत्य से काम चल सकता है। इसलिए यज्ञ विधि को हम सभी ठीक प्रकार जानें। न केवल जानें वरन् उसे कराने की प्रक्रिया से भी भली प्रकार अभ्यस्त हों। इसके लिए गायत्री यज्ञ विधि पुस्तिका का सहारा लेना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। उसमें सभी विधि—विधान क्रमबद्ध रूप से लिखे हुए हैं। हर अजनबी को कृत्य सांगोपांग विधि से समझा सकना न किसी पुस्तक से संभव है और न किसी पत्रक द्वारा ही समझाया जा सकता है। इसके लिए पुस्तक हाथ में लेकर-जहां यज्ञ हो रहा हो, वहां बैठना चाहिए और पुस्तक तथा प्रत्यक्ष कृत्य की संगति किस प्रकार बैठ रही है इसे देखते चलना चाहिए। दूसरों के साथ-साथ मंत्रोच्चार भी करना चाहिए यज्ञ में कई पारी होती हैं उनमें से एक में स्वयं भी आहुति देने के लिए सम्मिलित होना चाहिए। इस प्रकार कई दिन उसे देखा और किया जाता रहे तो विधान सम्बन्धी जानकारी मिल जाती है। करने या कराने से भी अभ्यास होता है। इसलिए वैसा अवसर उपलब्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।
सभी को संस्कृत नहीं आती, इसलिए मंत्रों के उच्चारण में अशुद्धियां रह सकती हैं। इसका उपाय एक ही है कि किसी संस्कृतज्ञ के सामने बैठ कर पुस्तक में पढ़कर अपना उच्चारण सुनाना चाहिए और जहां अशुद्धि होती है, उसे विशेष रूप से नोट करके बारम्बार दुहरा कर सही कर लेना चाहिए। यों यह कार्य पुस्तक का एक-एक अक्षर देखते हुए-उच्चस्वर से लयबद्ध उच्चारण करते हुए स्वयं भी ठीक किया जा सकता है। अक्षरों पर सावधानी के साथ ध्यान न रख कर उतावली में कुछ भी बोलने लगने से जीभ पर अशुद्ध उच्चारण चढ़ जाता है। अपनी गलती आप सुधारना संभव न हो तो दूसरे जानकारों से सहायता लेनी ही चाहिए। अशुद्ध उच्चारण से निन्दा—उपहास का भाजन बनना पड़ता है।
हवन कृत्य में पूजा-उपचार की अनेक छोटी-छोटी वस्तुएं प्रयुक्त होती हैं। कई उपकरण काम में आते हैं। इन सब की सूची यज्ञ विधान पुस्तक में छपी है। एक दिन चलते हवन पर सब ओर दृष्टि दौड़ाकर यह सूची स्वयं भी तैयार की जा सकती है। कार्य आरम्भ होने से पूर्व सभी उपकरण एवं पदार्थ एकत्रित कर लेने चाहिए ताकि उसके अभाव में बीच-बीच में पुकार न मचती रहे और काम न रुकता रहे। समिधा, सामग्री की, जल, आदि सभी को आरम्भ में ही भली-प्रकार देख लेना चाहिए। उनमें कृमि-कीटक, बीट आदि की अशुद्धि कहीं भी नहीं रहनी चाहिए। समिधाएं सूखी तथा इस साइज की चिरी हुई हों कि न कुंड से बाहर निकलें और न बहुत छोटी। होने के कारण किसी कोने में छिपी रहें। यज्ञस्थल भली प्रकार स्वच्छ हो। धुलाई, लिपाई, पुताई आदि से उसकी पवित्रता, शोभा बनाकर रखी जाय। कुंड के आस-पास चौक पूर ने का आच्छादन पल्लव तोरण झंडियां लगाने का प्रचलन इसी लिए है कि दृश्य शोभायमान आकर्षण एवं श्रद्धा उत्पन्न करने वाला हो। लापरवाही से जहां-तहां अस्वच्छता अव्यवस्था बना दी जाय तो उससे कुरुचि उत्पन्न होगी और व्यवस्थापकों की सतर्कता पर उंगली उठेगी जिस केन्द्र पर अनेकों श्रद्धालुओं की श्रद्धा-भावना केन्द्रित है उसे जितना सुन्दर, सुसज्जित बनाया जा सकना संभव हो सके, उपलब्ध साधनों के अनुसार उसमें कमी न रहने देनी चाहिए-कलश, गायत्री माता का चित्र आदि। पूजावेदी पर सबका ध्यान जाता है, अस्तु, उसकी शोभा सज्जा पर पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए।
अग्नि होत्र में प्रायः सभी उपचार अग्नि के माध्यम से सम्पन्न होते हैं। अग्नि का स्वभाव है कि यदि उसे ईंधन मिले तो कहीं भी फैल सकती है और कुछ भी जला सकती है। इसलिए श्रद्धा ही नहीं सतर्कता भी पूरी तरह अपनाई जाय। कुंड या वेदी पर समिधायें गीली हों— मोटी हों—छोटी या बड़ी हों तो अग्नि धुआं देने लगेगी—बुझ जायेगी या लौ इतनी ऊंची उठने लगेगी कि समीपवर्ती लोगों के कपड़े, मंडप का आच्छादन आदि जलने लगे। यज्ञशाला में नाइलॉन (पोलिस्टर) के कपड़े पहन कर किसी को भी प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। उनमें एक चिनगारी किसी प्रकार जा पड़े तो पेट्रोल भड़क उठने जैसी विभीषिका दृष्टिगोचर होगी। न केवल कुंड की सतर्कता आवश्यक है वरन् आरती तथा पूजा दीपक, अगरबत्ती आदि पर भी पूरा ध्यान रखने की आवश्यकता है। पूजा की चौकी पर दीपक रखते समय उसके नीचे तश्तरी लगा दी जाय, अन्यथा बिछा हुआ कपड़ा चिकनाई से बर्बाद हो जायेगा। आरती करने या लोगों को देने में जल्दबाजी, असावधानी धकापेल हो तो उतने से भी अग्निकांड हो सकता है। यहां तक कि अगरबत्ती टूटन यदि गरम हो तो चौकी पर रखी ज्वलन शील वस्तुएं आग पकड़ सकती हैं और उपस्थित लोगों के मनों में असमंजस उत्पन्न कर सकती हैं। अग्नि होत्र में भावभरा यजन करने के साथ-साथ उपरोक्त प्रकार की सतर्कता बरतने स्वच्छता सुसज्जा के लिए भी कम से कम एक व्यक्ति की नियुक्ति जिम्मेदारी रहनी चाहिए। मात्र आहुतियों की संख्या ही सब कुछ नहीं उसके साथ-साथ सुरुचि एवं सुसज्जा की कला कारिता भी जुड़ी रहनी चाहिये।
यजन में सम्मिलित होने वाले भारतीय पोशाक पहनें सभी शरीर वस्त्र सं स्वच्छ हों पैर धोकर यज्ञशाला में प्रवेश करें। बच्चे गोदी में न हों। अविकसित अनगढ़, अशिक्षित यज्ञ में न बैठें। जो न सही मन्त्र बोल पाते हैं और न यज्ञीय अनुशासन समझने पालने में समर्थ होते हैं। इसलिए यजन में जाति-भेद तो न बरता जाय, पर इतनी सतर्कता तो रहे ही कि अनगढ़ लोगों की घुस पैठ से श्रद्धा एवं व्यवस्था अस्त−व्यस्त न होने लगे। बैठने वाले पंक्तिबद्ध बैठें, साथ-साथ मन्त्र बोलें, साथ-साथ आहुति डालें। यह क्रम पहले से ही समझा दिया जाय ताकि समस्वरता, एकरूपता सतर्कता ठीक प्रकार बनी रहे। पहले से ही पूरी बात न बताई जाय, तो अनजान याजक सहज ही चित्र-विचित्र भूलें करते दिखाई पड़ेंगे, फलतः सुव्यवस्था जन्य श्रद्धा नष्ट-भ्रष्ट होने लगेगी। श्रद्धा-सम्वर्धन के मूल प्रयोजन को असावधानी उपेक्षा के कारण आघात न पहुंचे उसकी सतर्कता आदि से अन्त तक रहनी चाहिए। यज्ञों की बहुमुखी विधि व्यवस्था में कहीं भी व्यतिरेक उत्पन्न न होने पाये-इसी के निमित्त एक सतर्कता अधिकारी अध्वर्यु—की ड्यूटी आदि से अन्त तक लगी रहने की पुरातन परम्परा है। इसका निर्वाह अभी भी होना चाहिए। सामूहिक यज्ञ कृत्यों का—विधि-विधान क्रिया कृत्य—तो मिल-जुलकर किया जा सकता है, किन्तु सुव्यवस्था का उत्तरदायित्व संभाले रहने के लिए सतर्कता पुरोहित को अपनी ड्यूटी संभालनी ही चाहिए।
संस्कारों और पर्वों में सामान्य यज्ञ विधान के अतिरिक्त छोटे-छोटे थोड़े-थोड़े अतिरिक्त विधि-विधान हैं। उन्हें आहुतियां समाप्त होने और पूर्णाहुति कृत्य सम्पन्न होने के मध्यान्तर में पूरा कर लेना चाहिए इन परिशिष्टों को भी सीखने समझने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती। पुस्तक की सहायता से—जहां हो रहे हैं वहां देखकर अथवा प्रशिक्षण के लिए पूर्वाभ्यास करके भी उनमें प्रवीणता प्राप्त की जा सकती है। कठिनाई उन्हें आती है, जिनका पूर्वाभ्यास है नहीं और न करने-कराने में बैठ पाते हैं। जब हर कार्य से पूर्वपरीक्षण की आवश्यकता पड़ती है तो यज्ञ एवं पर्व संस्कार जैसे धर्मानुष्ठानों के सम्बन्ध में भी पूर्वाभ्यास क्यों आवश्यक न होगा। उसे रुचिपूर्वक सीखा और सिखाया जाना चाहिए। ध्यान रखने योग्य बात यह है कि उपस्थित सभी लोगों को यज्ञ पर बिठाने का आग्रह न किया जाय। इसमें सारा समय खप जाने से उस माध्यम से जो लोकशिक्षण चलना चाहिए उसके लिए अवसर ही नहीं रह जाता। कर्मकाण्ड जितना महत्वपूर्ण है उतना की आवश्यक ज्ञान यज्ञ भी है। कृत्य होता रहे और उसके उद्देश्य से उपस्थित लोगों को अवगत न कराया जा सके तो समझना चाहिए कि प्राण-रहित कलेवर जैसी विडम्बना ही बन पड़ी। जितने समय में सारा कृत्य सम्पन्न करना हो उसका आधा क्रिया में और आधा शिक्षा में लगे, इसका पूर्व निर्धारण कर लेना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि आहुति देने वालों की पारी एक-एक ही बिठाई जाय। खींचतान चले तो कुमारिकाओं को बिठाने से भी काम चल सकता है। आरम्भिक जन भाग लें। यही उचित-उपयुक्त है। काम को फुर्ती से निपटाने पर ही वह नियत समय पर सम्पन्न होता है, अन्यथा ढील-पोल बरतने से तो ऐसे ही ढेरों समय बर्बाद होता है और जो सीमित समय क्रिया और शिक्षा में समानरूप से लगना चाहिए वह मात्र कर्मकाण्ड में ही बीत जाने पर अभीष्ट उद्देश्य अधूरा ही रह जाता है।