Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम
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Language: HINDI
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प्रज्ञा संस्थानों को प्राणवान रखा जाय
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युग सन्धि के प्रथम दिन गायत्री शक्तिपीठों के निर्माण का संकल्प उतरा था। चौबीस निर्माणों को मत्स्यावतार देखते-देखते चौबीस हजार के सुविस्तृत कलेवर में विकसित हो गया। विगत दो वर्षों में जितनी संख्या में जिस स्तर के प्रज्ञा संस्थान बने हैं, उन्हें देखते हुए इस अभूतपूर्व सफलता को मानवी पुरुषार्थ नहीं दैवी प्रेरणा प्रवाह की मानना पड़ता है। युग सृजन का यह आरम्भिक चरण इतना ठोस और इतना उत्साहवर्धक है कि अगले दिनों समय के परिवर्तन, लोक मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन की व्यापक संभावनाओं को सुनिश्चित समझा ही नहीं, देखा भी जा सकता है।
सूक्ष्म प्रज्ञावतार का दृश्यमान कलेवर प्रज्ञा संस्थानों के रूप में प्रत्यक्ष प्रकट हुआ है। निर्माण की संख्या तथा स्थिति को देखते हुए जहां हर्ष, गर्व और उत्साह से, जागृत आत्माओं को गौरवान्वित होने उमंगों से भर जाने, उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएं प्रत्यक्ष देखने का सुयोग सौभाग्य मिलता है, वहां उनके कंधों पर एक विशिष्ट उत्तरदायित्व भी आता है कि जिन श्रद्धालु धर्म प्रेमियों ने इस निमित्त भाव भरे अनुदान प्रस्तुत किये हैं उनकी आत्मा को सन्तोष देने वाली विधि व्यवस्था कैसे बने। इन निर्माणों को सच्चे अर्थों में जन जागृति के केन्द्र कैसे बनाया जाय? वे अपने उद्देश्य को पूर्ण कर सकने में समर्थ कैसे हों?
निर्माण की प्रक्रिया अर्थ साध्य, श्रम साध्य एवं अनुभव साध्य होने के कारण कठिन लगती थी। वह पूर्वार्ध में दैवी अनुग्रह से सरल हो गई। अब उत्तरार्ध में इन निर्माणों को लक्ष्य पूर्ति के लिए कटिबद्ध किया जाना है। उनमें उन सृजनात्मक सहयोगियों को समावेश होना है जिनसे वे अपने-अपने क्षेत्रों में जनजागरण का आलोक उत्पन्न कर सकें। नव सृजन के लिए नितान्त आवश्यक विचार क्रान्ति का, रचनात्मक प्रवृत्तियों को व्यापक बनाने का वातावरण, साधन एवं कार्यक्रम प्रचंड बना सकने में समर्थ हो सकें। इस दिशा में शिथिलता बरती गई और मंदिर बनाकर उमंगों की इतिश्री कर ली गयी तो फिर परिणाम ठीक उल्टा होगा। अमृतोपम भोजन की सड़न विष तुल्य बन जाती है। इसी प्रकार यदि प्रज्ञा संस्थानों को सूत्र संचालन दूरदर्शी प्राणवान प्रतिभाओं द्वारा न हो सका तो यह निर्माण प्रतिगामी निहित स्वार्थों की अहंता एवं लोभ लिप्सा द्वारा उदरस्थ कर लिया जायेगा। यदि जागृत आत्माओं ने इन निर्माणों को जीवन्त, सक्रिय एवं प्रगतिशील बनाये रहने की उपेक्षा की तो उसी दुःखद दुर्भाग्य की परिणति होगी जो सामने है। देश में लाखों देवालय हैं। वे श्रद्धालुओं की श्रद्धा एवं उदारता के सहारे ही विनिर्मित हुए हैं किन्तु निर्माता साधन भर जुटा सके। धर्म धारणा के निमित्त आवश्यक प्रेरणा चेतना न भर सके। ईसाई चर्चों की तरह कोई रचनात्मक कार्यक्रम साथ नहीं जुड़े फलतः उनकी निष्प्राण लाशों पर घिनौने जीव जन्तु मोद मनाने लगे। वर्तमान देवालय जिस प्रतिगामिता के शिकार बन कर निहित स्वार्थों का परिपोषण मात्र कर रहे हैं, धर्म श्रद्धा घटाने और अश्रद्धा बढ़ाने के निमित्त कारण बन रहे हैं, ठीक यही दुर्गति प्रज्ञा संस्थानों की भी हो सकती है। यह खतरा भली प्रकार समझा जाना चाहिए अन्यथा ये प्रज्ञा संस्थान, प्रतिगामियों के हाथ के खिलौने बनेंगे और अवांछनीय तत्वों का परिपोषण करेंगे।
आवश्यकता इस बात की है कि विनिर्मित प्रज्ञा संस्थानों में से प्रत्येक को नव-सृजन की सत्प्रवृत्तियों के संलग्न किया जाय। प्राणवान रहेंगे, तो ही प्रतिगामिता के खतरे से बच सकना संभव होगा। समय रहते हमें सभी प्रज्ञा संस्थानों को सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों में नियोजित कर देना चाहिए। इसमें एक दिन का भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। निर्माण में लगे धन, श्रम एवं श्रद्धा, सद्भाव की सार्थकता इससे कम में नहीं हो सकती। पूजा उपचार के लिए तो पहले से ही अगणित देवालय, अनावश्यक मात्रा में बने पड़े थे। उनकी संख्या बढ़ाने की बात तो मिशन के सूत्र-संचालकों ने कभी सोची ही नहीं निर्धारित लक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाना है। प्रज्ञा युग के अवतरण में जिस प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता है, उसे जुटाने के लिए सभी प्रज्ञा संस्थानों को, उनके निर्माण में किसी भी प्रकार का योगदान करने वालों को इन्हीं दिनों जागरूक एवं तत्पर होना चाहिए।
सभी प्रज्ञा संस्थानों में प्राण ऊर्जा उभारने के लिए प्राथमिक चरण के रूप में पांच सूत्री योजना बनी है और उसे एक प्रकार से अनिवार्य माना गया है:—
(1) न्यूनतम एक कार्यकर्ता की नियुक्ति
(2) घर-घर प्रज्ञा साहित्य पढ़ाने पहुंचाने के लिए छोटा ज्ञान रथ (3) स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से मुहल्ले-मुहल्ले नव युग का सन्देश सुनाने के लिए सचित्र प्रवचनों की व्यवस्था
(4) जन्म दिवसोत्सवों के माध्यम से परिवार निर्माण की विचार गोष्ठियां
(5) खुली दिवालों पर आदर्श वाक्य लेखन घरों में आदर्श वाक्यों की चित्र सज्जा।
यह पंचसूत्री कार्यक्रम प्रत्येक प्रज्ञा संस्थान में चलने ही चाहिए। इससे कम में उन्हें निष्प्राणों की श्रेणी में गिना जाता रहेगा। पूजा उपचार भर के लिये इन संस्थानों का निर्माण नहीं हुआ है। उनके पीछे विश्व मानव को नव जीवन प्रदान करने का महान लक्ष्य सन्निहित है। इसके लिये जिन प्रबल प्रयत्नों की आवश्यकता पड़ेगी, उन्हें पंचसूत्री योजना के रूप में तत्काल आरम्भ कर देना चाहिए।
जहां भी प्रज्ञा संस्थान बने हैं वहां के निर्माताओं के सामने यह चुनौती है कि जिस शिशु को जन्म दिया गया है उसकी जीवन रक्षा का साधन भी जुटायें। अन्यथा वह बेमौत मरेगा और यश के स्थान पर अपयश का कारण बनेगा और धर्मधारणा को—नव चेतना को—अग्रगामी बनाने के स्थान पर उसे प्रतिगामिता का अवांछनीय अड्डा बनाकर नये प्रकार की दुःखद दुर्गन्ध उत्पन्न करेगा। निर्माताओं के जिस उत्साह से इन्हें बनाया है उसी साहसिक श्रद्धा के आधार पर इन्हें जीवन्त भी करना चाहिये। इसके लिये उपरोक्त पंचसूत्री योजना को कार्यान्वित करना ठीक उतना ही आवश्यक है जितना कि इन देवालयों में झाडू बुहारी और पूजा अर्चा का प्रबन्ध होना।