Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम
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Language: HINDI
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जड़ी-बूटियों से स्वास्थ्य संरक्षण एकौषधि उपचार पद्धति
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प्रचलित चिकित्सा पद्धति पर एक विहंगम दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि निदान व उपचार के आधुनिकतम साधन उपलब्ध होने पर भी रोगों पर पूर्ण नियन्त्रण संभव नहीं हो पा रहा है। आर्थिक दृष्टि से महंगी एवं वैज्ञानिक दृष्टि से नितान्त असुरक्षित एलोपैथी तथा योगों-सम्मिश्रण के सिद्धान्त पर आधारित प्रभावहीन आयुर्वेद पर से अब धीरे-धीरे लोगों का विश्वास उठ रहा है तथा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति की खोज चल पड़ी है। पंसारियों की दुकान पर वर्षों से पड़ी पुरानी गुण रहित औषधियों से किसी अच्छे परिणाम की अपेक्षा कैसे की जाय? भांति-भांति के दुष्परिणामों ने संश्लेषित रसायनों के सिद्धान्तों पर ‘काय-चिकित्सा’ के एलोपैथी के सिद्धान्त को भी जड़ से हिला दिया है। ऐसी दशा में दृष्टि जाती है तो प्राकृतिक स्रोतों से उपलब्ध होने वाली वनौषधि पर, जिन्हें उनके स्वाभाविक रूप में ग्रहण किए जाने की महत्ता शास्त्रों में बतायी गयी है।
ब्रह्मवर्चस् की शोध का नवीनतम निर्धारण है एक ही औषधि से चूर्ण रूप में या ताजे स्वरस के रूप में अनुपान भेद से विभिन्न रोगों का उपचार। इसके लिए चलते फिरते चिकित्सकों की, चीन की सफल पद्धति को ही अपनाने का निश्चय किया गया है ताकि स्थान-स्थान पर इन औषधियों को बोने, उगाने तथा सूखे रूप में उपलब्ध कराने का क्रम चल पड़े। इसके लिए प्रारम्भिक चरण में दस रोग विशेषों के लिए बीस औषधियों का चयन किया गया है। ये हैं—
(1) ऊपरी पाचन संस्थान— मुलेठी, आंवला
(2) निचला पाचन संस्थान— हरड़, बिल्व
(3) श्वांस संस्थान— अडूसा, भारंगी
(4) रक्त परिवहन संस्थान— अर्जुन, पुनर्नवा
(5) केन्द्रीय स्नायु संस्थान— ब्राह्मी, शंखपुष्पी
(6) वात-नाड़ी संस्थान— निर्गुण्डी, सोंठ
(7) रक्त शोधन— नीम, सारियां
(8) प्रति संक्रमण तथा ज्वर रोग— चिरायता, गिलोय
(9) मूत्रवाही प्रजनन संस्थान—अशोक, गोक्षुर तथा
(10) रसायन एवं बल वर्धक— शतावर, असगन्ध।
इन बीस के अतिरिक्त 6 औषधियां परिशिष्ट में ली गयी हैं। इनमें से पांच उपचार के लिए—घृतकुमारी, हरिद्रा, लहसुन, अपामार्ग तथा नीम (यह दोनों में है) तथा अन्तिम तुलसी—एक ही औषधि से सभी रोगों की चिकित्सा—इस नाते लिये गये हैं।
इस सम्बन्ध में लिखी गई पुस्तक में इनका वानस्पतिक परिचय, चित्र प्रयोज्य अंग, बोने-रोपने की विधि, पहचान व मिलावट से बचना, संग्रह-संरक्षण, वीर्य कालावधि, गुण कर्म सम्बन्धी शास्त्रीय तथा वैज्ञानिक मत, रासायनिक संगठन, आधुनिक मत के अनुसार प्रयोग, मात्र व सेवन की विधि इन्हें विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। यहां उनका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है।
(1) मुलेठी — इसका काष्ठ व मूल मीठा होता है। इसी कारण इसे यष्टिमधु कहते हैं। 2 मीटर ऊंची क्षुप जाति की यह वनस्पति भारत में अब व्यापक स्तर पर उत्पन्न की जा रही है। इसका भूमिगत तना तथा जड़ प्रयुक्त होते हैं। इसमें मिलावट काफी की जाती है। शरद ऋतु में जड़ को व जमीन के नीचे के तने को 4 वर्ष की आयु के पेड़ से निकालकर सुखाकर संग्रह कर लिया जाता है। इसकी कालावधि संग्रह के बाद 2 वर्ष है। इसे वात-पित्त शामक होने के नाते अम्लरस उत्पादक ग्रन्थियों व स्नायु समूह पर प्रभाव करते पाया गया है। आमाशय में अम्लता की वृद्धि तथा पोष्टिक अल्सर जैसे असाध्य रोगों में यह अत्यधिक लाभ पहुंचाती है, पेट का शूल, रक्त की उल्टी में उपयोगी तथा पाचन में सहायक है। इसे बुद्धि वर्धन, कास, श्वांस तथा वर्ण विकारों में प्रयुक्त करते हैं।
(2) आंवला— यह एक रसायन भी है तथा कायाकल्प योग का प्रमुख घटक भी। 20 से 25 फीट ऊंचा वृक्ष सारे भारत में पाया जाता है। बागी व जंगली दो प्रकार के फल होते हैं। इसके फलों का प्रयोग ही औषधि में होता है। संग्रह माघ में करके छाया में सुखा लेते हैं। कालावधि एक वर्ष की होती है। यह त्रिदोषनाशक, अग्निदीपक, कामला, अरुचि, वमन में लाभकारी पाया गया है। मध्य तथा नाड़ियों व इन्द्रियों का बल बढ़ाता है। इसके अन्दर विद्यमान विटामिन ‘सी’ जो किसी भी फल में पाये जाने वाले विटामिनों में सर्वाधिक होता है, आंत्र संस्थान की श्लेष्मा झिल्ली के नवीनीकरण में सहायक होता देखा गया है। हिचकी, उल्टी, रक्तपित्त, अम्लपित्त, लीवर के रोगों तथा स्कर्वी में इसके फलों का चूर्ण या स्वरस प्रयुक्त होता है।
(3) हरड़— त्रिफला का एक और घटक यह गंगातट पर पाये जाने वाला एक लम्बा वृक्ष है। इसके फल प्रयुक्त होते हैं। पके फलों का संग्रह जनवरी से अप्रैल के बीच करते हैं। हरड़ त्रिदोष हर व अनुलोमक है अर्थात् यह संग्रहणी, विबन्ध, अतिसार आदि में लाभ पहुंचाकर तुरन्त सात्मीकरण की स्थिति लाती है। ग्राही भी होने के कारण यह मल निष्कासन प्रक्रिया को सुव्यवस्थित कर देती है। इसे रसायन के रूप में, पाचक के रूप में तथा कब्ज, अतिसार, खूनी बवासीर में रेचक व ग्राही के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
(4) बिल्व— बेल वृक्ष सारे भारत में पाया जाता है। त्रिपत्रक संयुक्त पत्ते व कंटीले तने के कारण इसे पहचाना जा सकता है। जंगली बिल्व फल ही औषधि के उपयुक्त है। एक वर्ष कालावधि है। यह एक उत्तम संग्राही, कफ-वात शामक औषधि है। एकाकी बिल्व मज्जा चूर्ण, मूत्र की छाल या पत्ते का स्वरस बहुत अधिक लाभ करता है। बच्चों के दस्त पुरानी पेचिश व कब्जियत में, खूनी संग्रहणी में, हैजे की महामारी में, अग्निमन्दता व उदरशूल में तथा पीलिया में यह बहुत अधिक लाभकारी है।
(5) अडूसा— यह एक जंगल में पाया जाने वाला सामान्य क्षुप है जो काफी सघन होता है। इसके पत्ते अथवा पंचांग प्रयुक्त होते हैं। संग्रह सामान्यतया शरद में करते हैं। वैसे हरित पत्र सर्वदा सुलभ रहते हैं। वासा भी इसका एक नाम है। यह क्षय-कास नाशक है। वेग युक्त खांसी, स्वर भेद तथा क्षय व्रणों में अत्यंत लाभकारी है। ताजे पत्तों का स्वरस अथवा पत्ते-फूलों का सम्मिश्रित चूर्ण दिया जाता है। सूखी खांसी व काली खांसी के लिए रामबाण दवा है।
(6) भारंगी— नदी नालों के आसपास 5 से 8 फुट ऊंचा गुल्म सारे भारत में पाया जाता है। इसकी सही जाति की पहचान रोगों के दृष्टिकोण से अनिवार्य है। शीत ऋतु में जड़ का संग्रह कर सुखा लेते हैं। 6 मास से एक वर्ष तक यह प्रभावी रहता है। यह भी श्वांस व कास हर है। फेफड़ों के श्लेष्मा व क्षय रोगों में अति लाभकारी है। दमे में इसका प्रयोग अत्यन्त सफल रहा है।
(7) अर्जुन— बड़ा वृक्ष है। छाल का चूर्ण व पत्र स्वरस प्रयुक्त होते हैं। छाल में मिलावट बहुत होती है। इस औषधि को हृदय रोगों में अत्यन्त उपयोगी पाया गया है। हृदय रोग जन्य लक्षणों, हृदयाघात का दर्द, अनियमितता को यह दूर करता है। रक्त वाही नलिकाओं का संकुचन बढ़ाकर हृदय को आराम देता है व धड़कन को व्यवस्थित बनाता है। चूर्ण को घी, दूध या गुड़ के साथ देते हैं।
(8) पुनर्नवा— शरीर को पुनः नया बना देने के गुण के कारण इसे पुनर्नवा कहते हैं। सफेद फलों वाली पुनर्नवा ही औषधीय है। यह कम सुलभ है। छोटे-छोटे रेंगने वाले बहुवर्षायु क्षुप भारत भर में पाये जाते हैं। ताजी जड़ या शुष्क पंचांग प्रयुक्त होता है। इसे हृदयरोग जन्य शोथ्, कास व शूल में लाभकारी पाया गया है। मूत्र का परिमाण बढ़ाकर यह हृदय संकोचन बढ़ाता है तथा उस पर हर धड़कन के साथ आने वाले अतिरिक्त भार को घटता है।
(9) ब्राह्मी— गंगा किनारे पाये जाने वाली यह दिव्य औषधि सामान्य तथा उपलब्ध मण्डूक पर्णी से अलग है। पत्तियों को छाया में सुखाकर पंचांग या पत्तियों का चूर्ण प्रयुक्त करते हैं। 1 वर्ष तक इनकी कालावधि होती है। यह मिर्गी रोग, उन्माद, स्मृति नाश में प्रयुक्त होती है। मेधावर्द्धक है तथा ‘नर्व टॉनिक’ मानी जाती है। अनिद्रा, शिरोशूल, मस्तिष्क निर्बलता में उपयोगी है।
(10) शंखपुष्पी— श्वेतपुष्पों वाली रेंगने वाली यह औषधि बहुत प्रचलित है। छाया शुष्क पंचांग को 6 मास से 1 वर्ष तक प्रयुक्त किया जा सकता है। यह स्मरण शक्ति को बढ़ाती है। इसे मेधावर्द्धक, अपस्मार (मिर्गी) उन्माद नाशक तथा मस्तिष्क दौर्बल्य व अनिद्रा के लिए रामबाण औषधि मानते हैं। उच्च रक्त चाप व उत्तेजना जन्य स्थितियों में भी इसे प्रयुक्त करते हैं।
(11) निर्गुण्डी (संभाल)— यह मध्यम ऊंचाई का क्षुप है, जो सारे भारत में झुण्डों में पाया जाता है। मार्च अप्रैल में फल आने से पूर्व ही पत्तियों को एकत्र किया जाता है। उपयोगी अंगों को 1 वर्ष तक प्रयुक्त किया जा सकता है। यह किसी भी प्रकार की बाहरी या भीतरी सूजन, वात, गठिया, सिरदर्द, नाड़ियों के दर्द, रुमेटिज्म जैसी व्याधियों के लिये वरीयता प्राप्त औषधि है।
(12) सुण्ठी— अदरक का तना सूख जाने पर शुष्क कन्द 1 वर्ष तक प्रयोग किया जा सकता है। यह एक चिर प्रचलित घरेलू औषधि है। इसमें वात-सूजन निवारक क्षमता अत्यधिक पायी जाती है। यह सारे शरीर की विकृति दूर करती है।
(13) नीम— इस सर्वविदित वृक्ष की छाल, कोपलें व फल सदा से रक्त शोधन हेतु प्रयुक्त होते रहे हैं। यह रक्त की विषाक्तता को मिटाता व कोढ़ तथा चर्म रोग ठीक करता है। स्वरस व त्वक् चूर्ण उपयोग में आता है। चैत्र मास में ऋतु संध्या काल में इसका प्रयोग बहुत लाभकारी मानते हैं।
(14) सारिवां— बहुवर्षायु लता है। सारिवां की जड़ की छाल प्रयुक्त होती है। वह दाद नाशक, विष नाशक व रक्त विकार शामक है। यह सीधे के शिखाओं कोषों के स्तर पर अपना प्रभाव दिखाती है। इसे महत्वपूर्ण रक्त शोधक माना जाता है।
(15) चिरायता— मूलतः पहाड़ी औषधि है व मिलावट अधिक होने के कारण इसकी सही पहचान अनिवार्य है। इसमें जुलाई से अक्टूबर तक फूल लगते हैं। पौधों को तभी एकत्र किया जाता है जब फल पूर्ण रूप से पक जाये इसकी छाल को सुखाकर रखते हैं व 2 वर्ष तक प्रयोग कर सकते हैं। यह सन्निपात ज्वर, कुष्ठ तथा व्रणों में लाभकारी है। यह पेट के कृमियों को भी मारती है तथा घातक जीवाणु-विषाणुओं पर भी घातक प्रभाव रखती है। विशेषकर मलेरिया में बहुत उपयोगी है।
(16) गिलोय— अमृता नाम से प्रख्यात बहुवर्षायु लता चिरपुरातन काल से बुखार, संक्रामक रोग, कोढ़, विषाक्तता आदि में प्रयुक्त होती रही है। इसकी बेल को गर्मी में एकत्रकर छाल निकालकर उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में सुखाकर चूर्ण बना लेते हैं। इसका सत्व भी प्रयुक्त होता है। इसे ‘भारतीय कुनैन’ माना गया है। बुखार की कमजोरी को भी टॉनिक की तरह काम कर दूर करता है। इसमें अद्वितीय जीवाणुनाशी क्षमता है।
(17) अशोक— स्त्रियों के प्रजनन अंग सम्बन्धी विकारों को दूर करने वाली यह औषधि सभी जानते हैं। तने की छाल का चूर्ण ही प्रयुक्त होता है। माघ में एकत्र का सुरक्षित रख लेते हैं। योनि दोषों, प्रदर, पेशाब रुकने, गर्भाशय के सभी रोगों में यह तुरन्त लाभ देता है। मासिक धर्म के साथ अधिक रक्त स्राव तथा सफेद पानी जैसे रोगों में इसका प्रयोग अति लाभकारी पाया गया है। पुरुषों अंडकोषों की सूजन, फोतों में खुजली, स्वप्न दोष आदि में भी लाभ करता है।
(18) गोक्षुर— छुरी के समान तेज कांटे वाला घास जैसा यह पौधा सर्वत्र पाया जाता है। पंचांग अथवा मूल का संग्रह कर 1 वर्ष तक इसे प्रयोग कर सकते हैं। आयुर्वेद के विद्वान इसे मूत्र विरेचनीय द्रव मानते हैं तथा मूत्र कृच्छ व पथरी में इसे विशेष लाभकारी बताते हैं। मूत्राशय का शोधन तथा मूत्र व प्रजनन संस्थान के विभिन्न रोगों के निवारण में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
(19) शतावर— कंटीला छोटा क्षुप सर्वत्र पाया जाता है। इसकी कन्द रूपी जड़ प्रयुक्त होती है। स्वरस या चूर्ण प्रयुक्त करते हैं। इसे बलवर्धक धातु वर्धक रसायन माना गया है। सभी प्रकार के रोगों के बाद की कमजोरी के निवारणार्थ इसे प्रयुक्त किया जा सकता है। यह नाड़ी संस्थान को सबल बनाता है एवं सूक्ष्म रस ग्रन्थियों को उत्तेजित प्रभावित कर कमजोरी निवारण में सहयोग देता है। रोग से लड़ने की सामर्थ्य प्रदान करने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
(20) अश्वगन्धा— जड़ से घोड़े के मूत्र जैसी गन्ध आने के कारण इसे अश्वगंधा कहते हैं। इसके क्षुप एक से डेढ़ मीटर ऊंचे होते हैं। नागौरी असगन्ध काफी प्रसिद्ध है। सभी जलवायु में यह नहीं होती। जनवरी से मार्च के बीच जड़ें प्राप्त की जाती हैं। पुष्पों के आने से पूर्व ही समूल उखाड़कर यह अंश प्राप्त कर सुखा लिया जाता है। इसका चूर्ण एक वर्ष तक काम आता है। यह उत्कृष्ट बलवर्धक टॉनिक है। यह धातु-मांस-मज्जा की वृद्धि करता है तथा शुक्रल है। इसे काया कल्प योग का एक अंग माना गया है। कोशिकाओं की आयु बढ़ाता है व हारमोन ग्रन्थियों पर सूक्ष्म प्रभाव डालता है। इसकी जड़ का चूर्ण व क्वाथ प्रयुक्त होता है।
यह वर्णन तो एक प्रकार का विहंगावलोकन है, जिससे स्वास्थ्य संवर्धन की शिक्षा पाने वाले हर शिक्षार्थी को प्रारम्भिक जानकारी यह हो सके कि इस अवधि में क्या व कैसे चिकित्सा उपचार की इस प्रक्रिया को सम्पादित करना है। प्रत्येक स्वास्थ्य संरक्षक युग शिल्पी को यह भी जानना चाहिए कि इन औषधियों को अपने क्षेत्र में कब व कैसे बोया जाय? कब उखाड़ा जाय? ताजी उपलब्ध न हों तो सूखी ही किस प्रकार उपलब्ध हों। उन्हें मिश्री, शहद, दूध, पानी के अनुपान से प्रयुक्त करने का शिक्षण समय साध्य है। रोगों के लक्षण पहचानने के लिए उनके विषय में संक्षिप्त जानकारी होना भी अनिवार्य है। उसके अभाव में तो चिकित्सा का स्वरूप तीर-तुक्का जैसा ही बनेगा।
इनके अतिरिक्त पांच औषधियों को स्थानीय उपचार के रूप में प्रयुक्त होना है। मुंह से ली गयी औषधियों की उपयोगिता अपने स्थान पर है तथा स्थानीय की अपनी जगह। हमारे देश में सर्पदंश-बिच्छू दंश, कटने-चोट लगने की घटनाएं घटती हैं व उपचार न मिलने के कारण विष शरीर में फैल जाने से टिटेनस आदि के कारण मृत्यु भी काफी संख्या में होती है। सर्वोपरि उपलब्ध ये औषधियां इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
हरिद्रा, अपामार्ग, घृतकुमारी, नीम, लहसुन ये पांच औषधियां स्थानीय लेप के रूप में दंश, सूजन, वर्णों तथा वर्ण विकारों में प्रयुक्त होती है। इनके अतिरिक्त तुलसी एक ऐसी औषधि है जिनके सभी अंग स्थानीय रूप से या मुख द्वारा प्रयुक्त होने पर लगभग सभी प्रकार के रोगों में लाभ देती है। इनका विस्तृत वर्णन व वैज्ञानिक विवेचन पढ़कर इस घरेलू उपचार पद्धति को हर युग शिल्पी प्रयोग में ला सकता है।