Books - प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप और कार्यक्रम
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Language: HINDI
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प्रज्ञा आयोजनों की तैयारी इस प्रकार करें
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(1) लगभग निर्धारित तिथि पर टोली मध्याह्न के आस पास पहुंचेगी। अपराह्न से ही विचार विमर्श तथा चित्र प्रदर्शनी का क्रम चल पड़ेगा, रात्रि में संगीत तथा प्रवचन होगा। दूसरे दिन प्रातः प्रज्ञा पुराण की कथा होगी, दिन में स्थानीय कार्यकर्त्ताओं के परामर्श के आधार पर परामर्श गोष्ठियों तथा चित्र प्रदर्शनी के माध्यम से जन सम्पर्क का कार्यक्रम चलेगा। रात्रि में पुनः संगीत एवं प्रवचन होंगे। तीसरे दिन सुबह पूर्णाहुति होगी। उसी साथ पूर्व निर्धारित संस्कार करायें जायेंगे। पूर्णाहुति के साथ देव दक्षिणा के संकल्प कराये जायेंगे। उसके बाद कार्यक्रम समाप्त हो जाएगा।
केन्द्रीय टोली के अगले कार्यक्रम का स्थान यदि पास ही होगा तो वे पूर्णाहुति कराकर ही आगे बढ़ेंगे। यदि वह दूर होगा तो समय पर पहुंचने के लिए वे सवेरे जल्दी ही चल पड़ेंगे। ऐसी स्थिति में पूर्णाहुति, समापन आदि का काम स्थानीय क्षेत्रीय वरिष्ठ परिजनों को संभालना पड़ेगा।
(2) इन आयोजनों को स्थानीय से आगे बढ़कर क्षेत्रीय स्तर का बनाना होगा। उनमें क्षेत्र के कर्मठ समयदानियों के प्रशिक्षण सत्र भी जुड़े रहेंगे। उन्हें उत्साहित करने, उनके निवास, भोजन आदि की व्यवस्था करने का उत्तरदायित्व आयोजन कर्ताओं पर आएगा। इन आयोजनों में केन्द्रीय टोली लगभग 72 घंटे रुकेगी। रात्रि के तीन प्रवचन, सुबह दो दिन प्रज्ञा पुराण, मध्याह्न गोष्ठियों के साथ प्रशिक्षण का भी क्रम चलेगा। अन्तिम दिन यथावत् पूर्णाहुति, संस्कार, देव दक्षिणा की व्यवस्था की जाएगी। यदि आदर्श विवाह की योजना बन जाय तो उसे पूर्णाहुति के पूर्व की संध्या में रखना चाहिए।
(3) जिस दिन केन्द्रिय टोली पहुंचने वाली है, उसके एक दिन पूर्व शाम को जलयात्रा, जुलूस भी निकाला जा सकता हे। इससे उत्साह भरा वातावरण बनने में मदद मिलती है। जुलूस के बाद कलश और देव स्थापना करके भजन कीर्तन के साथ शाम का कार्यक्रम समाप्त किया जा सकता है। यदि अपने पास उपयुक्त वक्ता हों तो सभा भी की जा सकती है।
(4) जिस दिन जीप पहुंचने को है उस दिन प्रातः यज्ञ स्थानीय परिजनों को कर लेना चाहिए। बाद के दिनों में प्रातः प्रज्ञा पुराण होगा। इसलिए एक पारी का यज्ञ सुबह जल्दी कर लेना चाहिए। चाहे पांच व्यक्ति एक कुंड पर ही कर लें लेकिन यज्ञ की समाप्ति प्रज्ञा पुराण के घोषित समय से पूर्व अवश्य कर दी जाय।
(5) यदि आयोजन के साथ प्रज्ञा पीठ की प्राण प्रतिष्ठा करानी है तो उसे पूर्णाहुति वाले दिन सुबह जल्दी करा लेना चाहिए। प्राण प्रतिष्ठा के बाद ही पूर्णाहुति का क्रम चलेगा।
(6) कुछ कार्यों को आयोजन प्रारम्भ होने से पहले ही सही ढंग से निपटा लेना चाहिए।
(1) पुराण कथा स्थल चयन और सज्जा।
(2) कार्यकर्ता गोष्ठी से विचार विनिमय किए जाने योग्य स्थान।
(3) यज्ञ शाला स्थान चयन और सज्जा।
(4) वक्ता मंच सहित सभा पंडाल व्यवस्था सभी स्थान संभावित उपस्थिति को लक्ष्य करके बनाये जायें। बिछावट, रोशनी, स्पीकर आदि की
व्यवस्था स्थिति के अनुसार बना लें।
(7) सभी स्थलों को आदर्श वाक्यों से सजायें। सार्वजनिक स्थलों पर पोस्टरों, बैनरों से जन साधारण को सूचित करें। विज्ञजनों के यहां टोली बनाकर जाने और निमंत्रित करने का क्रम बनाया जाय।
(8) जीप गाड़ी में दो वक्ता, दो गायक, एक चित्र प्रदर्शनी प्रदर्शक एक ड्राइवर होगा। वे अपना काम पहुंचते ही आरम्भ कर सकें इसलिए आवश्यक व्यवस्थायें उनके आने से पूर्व ही पूर्ण कर लेनी चाहिए।
(9) जिन लोगों का समर्थन, सहयोग मिले उन्हें आयोजन के समय में स्वयं उपस्थित रहने साथियों को घसीटकर लाने का अनुरोध करें। इस नीति को अपनाने पर घनिष्ठता बढ़ेगी और नए सहयोगी उभरने की सम्भावना बढ़ेगी।
(10) पूर्णाहुति में अधिकाधिक लोगों को देव दक्षिणा देने के लिए समय रहते प्रोत्साहित करें। सामान्य लोगों से बुराइयां छुड़ाने से भी काम चल सकता है किन्तु मिशन के सहयोगियों से कुछ अधिक काम करने, समय देने की याचना ही देव दक्षिणा के रूप में करनी चाहिए। देव दक्षिणा फार्म छपे हुए हों, उन्हें पूर्णाहुति के समय पूजा वेदी पर श्रद्धांजलि के रूप में पंक्तिबद्ध होकर प्रस्तुत करने की व्यवस्था करें। देव दक्षिणा श्रद्धांजलियों की सूचना माइक से सर्वसाधारण का देते रहें। इन लोगों का तिलक, अभिसिंचन, छोटा पुष्प गुलदस्ता, प्रमाण-पत्र, सम्भव हो तो कोई सस्ता ऋतुफल देने की व्यवस्था करें। इस प्रोत्साहन अभिनन्दन से दूसरों में भी उत्साह बढ़ता है और वे भी अनुकरण करने के लिए तत्पर होते हैं।
(11) प्रज्ञा आयोजनों में प्रीति भोज करना हो तो वह अमृताशन (उबाले हुए धान्य-खिचड़ी, दाल-चावल, कढ़ी-छोले, दलिया, आलू चाय आदि) का ही होना चाहिए। यही रास्ता सात्विक और भेदभाव मिटाने वाली परम्परा अपने कार्यक्रमों में चलनी चाहिए। पूड़ी मिठाई की दावतों के युग की विदाई दी जानी चाहिए।
(12) आयोजन में युग साहित्य का सुसज्जित स्टॉल लगाना ही चाहिए। उस पर विक्रेता ऐसा कुशल व्यक्ति बिठाना चाहिए जो उधर से देखते हुए गुजरने वालों को भी कुछ न कुछ खरीद ले जाने के लिए सहमत कर सके। युग साहित्य से ही लोक मानस के परिष्कार का लक्ष्य पूरा होता है, यह भली-भांति ध्यान रखना चाहिए। साहित्य अपने स्टॉक में कम हों तो उसे समय से पूर्व ही मथुरा से मंगा लेना चाहिए। आदमी भेजकर मंगाना उत्तम है। इन दिनों रेलवे पार्सलें कब पहुंचें, कुछ निश्चित नहीं।
(13) किसी उपयुक्त स्थान पर जीप के साथ आई चित्र प्रदर्शनी लगाने के लिए पंडाल, बरामदा आदि खाली रखना चाहिए। प्रदर्शनी में 10×15 इंच के लगभग 80 चित्र होंगे। उन्हें सुन्दर ढंग से फैलाकर लगाया जा सके ऐसा स्थान बनाकर रखना चाहिए।
(14) आयोजन का निश्चय होने पर कार्य विभाजन के लिए समितियां बना देनी चाहिए। इसमें सदस्य तो कई-कई रहें, पर जिम्मेदारी पूरी तरह संचालक ही अपने कंधों पर उठायें। समितियों का महत्व नए लोगों को प्रोत्साहित करने एवं अनुभव, अभ्यास कराने भर के लिए है। जिम्मेदारी निभानी का स्वभाव, अभ्यास अपने लोगों में है नहीं, इसलिए समूची व्यवस्था पर दृष्टि एवं चिन्ता आयोजन के सूत्र संचालकों को ही संभालनी चाहिए। विशेषतया अर्थ प्रबन्ध तो निश्चय होने के दिन से ही आरम्भ कर देना चाहिए। बिना इसके सहारे काम रुके रहते हैं और समय पर हैरानी उठानी पड़ती है।
(15) जहां प्रज्ञा आयोजन हो रहे हैं उन सभी स्थानों में युग संधि के प्रथम चरण के लिए अनिवार्य मानी गई पंचसूत्री योजना का क्रियान्वयन निश्चित रूप से चल पड़ना चाहिए। पंचसूत्री के सर्व विदित कार्यक्रम हैं:— (1) हर शिक्षित तक घर-घर, नियमित रूप से प्रज्ञा साहित्य पहुंचाने और वापिस लाने के लिए ज्ञान रथ का प्रचलन (2) स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से जन-जन तक युग चेतना का संदेश (3) दीवालों पर आदर्शवाक्य लेखन तथा घरों में उन्हें टांगना (4) जन्म दिवसोत्सव (5) प्रज्ञा संस्थान में नियमित गतिविधियां चलाने के लिए न्यूनतम एक कार्यकर्त्ता की नियुक्ति। उसके निर्वाह के लिए ज्ञान घट, धर्म घटों की स्थापना। यह पांचों कार्यक्रम चलाने का प्रज्ञा आयोजनकर्ता प्राण-पण से प्रयत्न करें। इन्हीं माध्यमों से जन सम्पर्क सधेगा। जन समर्थन तथा जन सहयोग मिलेगा। इसके बिना न शिथिलता दूर होगी, न सृजन चेतना उभरेगी।
(16) समीपवर्ती क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं को बुलाने का वैसा ही प्रबन्ध करना चाहिए जैसा विवाह शादियों में स्वजन सम्बन्धियों को आग्रह पूर्वक निमन्त्रण भेजा और सच्चे मन से बुलाया जाता है। न आने पर बुरा माना जाता है। यह परम्परा चलेगी तो ही पारस्परिक स्नेह सहयोग बढ़ेगा और मिल जुलकर काम करने का सुयोग बनेगा। शान्तिकुंज से भी आयोजन के समीपवर्ती कार्यकर्ताओं को पहुंचने, विचार विनिमय करने, सहयोग देने के लिए लिखा गया है। वे पहुंचें तो उनका मान बढ़ाना चाहिए। सत्कार करना चाहिए और सहयोग लेना चाहिए। उनके यहां आयोजन होने पर सहयोग देने भी जाना चाहिए। निवास, भोजन की सादा ही, पर ठीक व्यवस्था बनानी चाहिए।
(17) प्रयत्न यह चलना चाहिए कि यह आयोजन अधिक लोकप्रिय बनें। सर्वसाधारण की उनमें रुचि बढ़े। देखने में आकर्षक लगे। इसके लिए उन्हें मेले का रूप देने का प्रयत्न करना चाहिये। खोमचे वाले, खिलौने वाले, श्रृंगार साधनों वाले ऐसे अवसरों की ताक में रहते हैं। बच्चों के झूले, कठपुतली, बाजीगर जैसे स्टालों से भी आकर्षण बढ़ता है। जहां ऐसा प्रबन्ध हो सके वहां उसके लिए प्रयत्न होना ही चाहिए। सरकारी प्रदर्शनियां भी आमन्त्रित की जा सकती हैं। पर एक बात ध्यान रहे कि अपने रात्रि के कार्यक्रमों में अपने किसी अन्य प्रदर्शन के कारण न तो जनता को विभाजित होने देना चाहिए और न ऐसा शोर गुल चलाना चाहिए जिससे प्रवचन आयोजन में किसी प्रकार का व्यतिरेक होता हो। अन्य लाउड स्पीकर तो उस समय पूरी तरह बन्द रहने चाहिए।
(18) सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन में खर्चीली शादियों के विरुद्ध हमें अग्रिम मोर्चा खड़ा करना चाहिए। देश में बेईमानी और गरीबी को दूर करने की भावना हो तो इस दुष्ट परम्परा को जी भरकर कोसना चाहिए और असहयोग से लेकर विरोध तक ही मुहीम खड़ी करनी चाहिए। इसका विधेयात्मक पक्ष है आदर्श विवाहों का प्रचलन। अपने क्षेत्र में बिना दहेज के आदर्श विवाहों को आयोजन प्रदर्शन इस अवसर पर बन पड़े तो उससे वातावरण बनेगा और अभिनव प्रचलन प्रारम्भ होंगे।
प्रज्ञा आयोजनों में लड़की दिखाने देखने और मिशन के लोगों का आपस में विवाह पक्के करने का सिलसिला भी सरलता पूर्वक चलाया जा सकता है। ऐसा करना हो तो उस उद्देश्य के लिए आने वाले परिवारों के ठहरने की छोलदारियां लगवाने का विशेष प्रबन्ध करना होगा।
प्रज्ञा आयोजनों में पहुंचने वाली हर जीप गाड़ी में ड्राइवर समेत छः कार्यकर्ता होते हैं। उनके ठहरने तथा गाड़ी खड़ी करने के लिए सुरक्षित तथा सुविधाजनक स्थान पहले से ही नियत कर लेना चाहिए। उन लोगों के भोजन का प्रबन्ध भी समीप ही रहे ताकि इसके लिए दूर की भागदौड़ में समय नष्ट न करना पड़े।